Monday, September 12, 2016

केजरीवाल: बिछड़े सभी बारी-बारी



            सर्वोच्च न्यायालय ने अरविंद केजरीवाल की यह मांग मानने से इंकार कर दिया कि दिल्ली में मुख्यमंत्री उपराज्यपाल से ऊपर है। दिल्ली उच्च न्यायालय ऐसी याचिका पहले ही खारिज कर चुका है। अब इसका मतलब साफ है कि पिछले 3 वर्षों से अरविंद केजरीवाल दिल्ली के उपराज्यलपाल पर केंद्र का एजेंट होने का जो आरोप बार-बार लगा रहे थे, उसकी कोई कानूनी वैधता नहीं थी। क्योंकि न्यायपालिका ने मौजूदा प्रावधानों को देखते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि दिल्ली के मामले में उपराज्यपाल का निर्णय ही सर्वोपरि माना जाएगा।
            यह पहली बार नहीं है, जब अरविंद केजरीवाल को मुंह की खानी पड़ी है। जिस दिन से आम आदमी पार्टी वजूद में आयी है, उस दिन से उसके तानाशाह संयोजक अरविंद केजरीवाल नित्य नई नौटंकी करते रहते हैं। जिसका मकसद केवल अखबार और टेलीविजन की सुर्खिया बटोरना है। ठोस काम करने में अरविंद का दिल कभी नहीं लगा। टाटा समूह की अपनी पहली नौकरी से लेकर आज तक अरविंद केजरीवाल ने नाहक विवाद खड़ा करना सीखा है। काम करने वाले शोर नहीं किया करते। विपरीत परिस्थितियों में भी काम कर ले जाते हैं। अरविंद को अगर दिल्लीवासियों की चिंता होती, तो उनकी समस्याओं को हल करते। पर आज दिल्ली देश की राजधानी होने के बावजूद निरंतर नारकीय स्थिति की ओर बढ़ती जा रही है। हर दिन दिल्लीवासी शीला दीक्षित के शासन को याद करते हैं। अरविंद केजरीवाल को तो राष्ट्रीय नेता बनने की हड़बड़ी है| इसलिए कभी पंजाब, कभी बंगाल, कभी बिहार, कभी गुजरात, कभी गोवा जाकर नए-नए शगूफे छोड़ते रहते हैं। जाहिर है कि जिन राज्यों में जनता पारंपरिक राजनैतिक दलों से नाखुश है, उन राज्यों में सपने दिखाना केजरीवाल के लिए बहुत आसान होता है। वे आसमान से तारे तोड़ लाने के वायदे करते हैं, पर भूल जाते हैं कि दिल्लीवासियों से चुनाव के पहले उन्होंने क्या-क्या वादे किए थे और आज उनमें से कितने पूरे हुए? वैसे दावा करने को केजरीवाल सरकार सैकड़ों करोड़ रूपए के विज्ञापन छपवा चुकी है।
            नवजोत सिंह सिद्धू ने भी केजरीवाल के मुंह पर करारा तमाचा जड़ा है। जिस सिद्धू को अपनी पार्टी में लेने के लिए केजरीवाल पलक-पांवड़े बिछाए बैठे थे, उसने एक ही बयान में यह साफ कर दिया कि केजरीवाल की न तो कोई विचारधारा है, न उनमें जनसेवा की कोई भावना। कुल मिलाकर केजरीवाल का फलसफा ‘मैं और मेरे लिए’ के आगे नहीं जाता। सिद्धू को चाहिए कि अगर वे भाजपा और कांग्रेस से नाखुश हैं, तो पूरे पंजाब में अपने प्रत्याशी खड़े करें और केजरीवाल की तानाशाही से त्रस्त, परिवर्तन के हामी, सभी लोगों को अपने साथ जोड़ लें। इससे कम से कम केजरीवाल पंजाब की जनता को गुमराह तो नहीं कर पाएंगे।
            ऐसा नहीं है कि केजरीवाल की तरह स्वार्थी, दोहरे चरित्र वाला और झूठ बोलने वाला का कोई दूसरा नेता नहीं है। राजनीति में तो अब यह आम बात हो गई है। फर्क इस बात का है कि केजरीवाल ने पिछले 5 वर्षों में ताल ठोककर ये घोषणा की थी कि उनसे अच्छा कोई नेता नहीं, कोई दल नहीं और कोई कार्यकर्ता नहीं। कार्यकर्ताओं की तो छोड़ो केजरीवाल मंत्रीमंडल के एक-एक मंत्री धीरे-धीरे किसी न किसी घोटाले या चारित्रिक पतन के मामले में कानून की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। कहां गया केजरीवाल का वो दावा कि जब ये कहा गया था कि उनके दल में केवल ईमानदार और चरित्रवान लोगों को ही टिकट मिलेगा। हम तो केजरीवाल से हर टीवी बहस में ये लगातार कहते आए कि जिन आदर्शों की बात तुम कर रहे हो, वैसे इंसान खोजने बैकुंठ धाम जाना पड़ेगा। पृथ्वी पर तो ऐसा कोई मिलेगा नहीं। फिर भी केजरीवाल का दावा था कि लोकपाल का चयन उनके जैसे मेगासेसे अवार्ड जीते हुए लोग ही करें। तभी देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो पाएगा। ये तो गनीमत है कि केजरीवाल के विधायक और मंत्री ही बेनकाब हो रहे हैं।
            अगर कहीं बंदर के हाथ में उस्तरा लग जाता, तो क्या होता? सोचिए वो स्थिति कि केजरीवाल जैसे लोग एक ऐसा लोकपाल बनाते, जो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक के ऊपर होता और उसकी डिग्री केजरीवाल के कानून मंत्री रहे तोमर जैसी फर्जी पाई जाती। पर केजरीवाल के सुझाए कानून अनुसार वो लोकपाल देश में किसी को भी जेल भेज सकता था। केजरीवाल एंड पार्टी के ऐसे वाहियात और बचकाने आंदोलन का पहले दिन से मैंने पुरजोर विरोध किया। जब ये लोग अन्ना हजारे के साथ राजघाट धरने पर बैठे, तो मेंने इनके खिलाफ पर्चे छपवाकर राजघाट पर बंटवाए। ये बतलाते हुए कि इनकी निगाहें कहीं हैं और निशाना कहीं पर। उस वक्त कोई सुनने को तैयार नहीं था। दाऊद के एजेंट हो या भूमाफियाओं के दलाल, भ्रष्ट राजनेता हों या नंबर 2 की मोटी कमाई करने वाले फिल्मी सितारे। सबके सिर पर 2 तरह की टोपी होती थी, ‘मैं अन्ना हूं’ या ‘मैं आम आदमी हूं’। आज उन सबसे पूछो कि केजरीवाल के बारे में क्या राय है, तो कहने में चूकेंगे नहीं कि हमसे आंकने में बहुत बड़ी गलती हो गई।
            जस्टिस संतोष हेगड़े हों, अन्ना हजारे हों, प्रशांत भूषण हों, योगेंद्र यादव हों, किरण बेदी हों और ऐसे तमाम नामी लोग, जिन्होंने केजरीवाल के साथ कंधे से कंधा लगाकर लोकपाल की लड़ाई लड़ी, आज वे सब केजरीवाल के गलत आचरण के कारण उनके विरोध में खड़े हैं। बिछड़े सभी बारी-बारी। पंजाब की जनता को केजरीवाल का चरित्र अब तक समझ में आ जाना चाहिए, वरना दिल्लीवासियों की तरह वे भी रोते, कलपते नजर आएंगे।

Monday, September 5, 2016

क्या हो कश्मीर का समाधान

    सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के जाने के बावजूद कश्मीर की घाटी में अमन चैन लौटेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। हालात इतने बेकाबू हैं और महबूबा मुफ्ती की सरकार का आवाम पर कोई नियंत्रण नहीं है, क्योंकि घाटी की जनता इस सरकार को केंद्र का प्रतिनिधि मानती है। अगर भाजपा महबूबा को बाहर से समर्थन देती, तो शायद जनता में यह संदेश जाता कि भाजपा की केंद्र सरकार जम्मू कश्मीर के मामले में नाहक दखलंदाजी नहीं करना चाहती। पर अब तो सांप-छछुदर वाली स्थिति है। एक तरफ पीडीपी है, जिसे कश्मीरियत का प्रतिनिधि माना जाता है। जिसका रवैया भारत सरकार के पक्ष में कभी नहीं रहा। दूसरी तरफ भाजपा है, जो आज तक धारा 370 को लेकर उद्वेलित रही है और उसके एजेंडा में से ये बाहर नहीं हुआ है। ऐसे में कश्मीर की मौजूदा सरकार के प्रति घाटी के लोगों का अविश्वास होना स्वाभाविक सी बात है। 

    सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल क्या वाकई इस दुष्चक्र को तोड़ पाएगा ? दरअसल कश्मीर के मौजूदा हालात को समझने के लिए थोड़ा इतिहास में झांकना होगा। आजादी के बाद जिस तरह पं.जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुला को नजरबंद रखा, उससे संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान भारत पर हमेशा हावी रहा। कश्मीर की चुनी हुई सरकार को यह कहकर नकारता रहा कि ये तो केंद्र की थोपी हुई सरकार है। क्योंकि कश्मीरियों का असली नेता तो शेख अब्दुला हैं। जब तक शेख अब्दुला गिरफ्तार हैं, तब तक कश्मीरियों का नेतृत्व नहीं माना जा सकता। 

    पर जब भारत सरकार ने शेख अब्दुला को रिहा किया। वे चुनाव जीतकर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बने, तो पाकिस्तान का ये तर्क खत्म हो गया कि कश्मीर में कश्मीरियों की सरकार नहीं है। लेकिन बाद के दौर में 1984 में जिस तरह फारूख अब्दुला की जीती हुई सरकार को इंदिरा गांधी ने हटाया, उससे घाटी का आक्रोश केंद्र सरकार के प्रति प्रबल हो गया। बाद के दौर में तो आतंकवाद बढ़ता चला गया और स्थिति और भी गंभीर हो गई।

    अब तो वहां नई पीढ़ी है, जिसकी महत्वाकांक्षाएं आसमान को छूती हैं। उनके दिमागों को आईएसआई ने पूरी तरह भारत विरोधी कर दिया है। ऐसे में कोई भी समाधान आसानी से निकलना संभव नहीं है। चूंकि केंद्र जो भी करेगा, घाटी के नौजवान उसका विरोध करेंगे। आज वो चाहते हैं कि पुलिस और मिल्ट्री जनजीवन के बीच से हटा दी जाए। राज्य की सरकार पर केंद्र का कोई दखल न हो और उन्हें बडे़-बड़े पैकेज दिए जाएं। पर ऐसा सब करना सुरक्षा की दृष्टि से आसान न होगा। 

    इसका एक विकल्प है, वो ये कि सरकार एक बार फिर घाटी में चुनावों की घोषणा कर दे। कांग्रेस और भाजपा जैसे प्रमुख राष्ट्रीय दल इस चुनाव से अलग हट जाएं। ये कहकर कि कश्मीर के लोग कश्मीरी राजनैतिक दलों और अलगाववादी संगठनों के नेताओं के बीच में से अपना नेतृत्व चुन लें और अपनी सरकार चलाएं। तब जाकर शायद जनता का विश्वास उस सरकार में बने। वैसे भी तमिलनाडु में आज दशकों से कांग्रेस और भाजपा का कोई वजूद नहीं है। कभी डीएमके आती है, तो कभी एडीएमके। उनका मामला है, वही तय करते हैं। ऐसा ही कश्मीर में हो सकता है। जब पूरी तरह से उनके लोगों की सरकार होगी, तो वे केंद्र का विरोध किस बात के लिए करेंगे। ये बात दूसरी है कि नेपाल के विप्लवकारियों की तरह जब ऐसी सरकार अंतर्विरोधों के कारण नहीं चल पाएगी या जनता की आकांक्षों पर खरी नहीं उतरेगी, तो शायद कश्मीर की जनता फिर राष्ट्रीय राजनैतिक दलों की तरफ मुंह करे। पर फिलहाल तो उन्हें उनके हाल पर छोड़ना ही होगा। 

    जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि पाक अधिकृत कश्मीर, बलूचिस्तान व सिंध की आजादी का मुद्दा उठाकर प्रधानमंत्री मोदी ने तुरप का पत्ता फेंका है। जिससे पाकिस्तान बौखलाया हुआ है। लेकिन इससे घाटी के हालात अभी सुधरते नहीं दिख रहे। हां, अगर पाक अधिकृत कश्मीर में बहुत जोरशोर से भारत में विलय की मांग उठे, तब घाटी के लोग जरूर सोचने पर मजबूर होंगे। 

आश्चर्य की बात है कि जिस पाकिस्तान ने भारत से गए मुसलमानों को आज तक नहीं अपनाया, उन्हें मुजाहिर कहकर अपमानित किया जाता है। उस पाकिस्तान के साथ जाकर कश्मीर के लोगों को क्या मिलने वाला है ? खुद पाकिस्तान के बुद्धजीवी आए दिन निजी टेलीविजन चैनलों पर ये कहते नहीं थकते कि पाकिस्तान बांग्लादेश को तो संभाल नहीं पाया। सिंध-बलूचिस्तान अलग होने को तैयार बैठे हैं। पाकिस्तान की आर्थिक हालत खस्ता है। कर्जे के बोझ में पाकिस्तान दबा हुआ है। ऐसे में पाकिस्तान किस मुंह से कश्मीर को लेने की मांग करता है ? जो उसके पास है वो तो संभल नहीं रहा। 

    बात असली यही है कि पिछली केंद्र सरकारों ने कश्मीर के मामले में राजनैतिक सूझबूझ का परिचय नहीं दिया। बोया पेड़ बबूल तो आम कहा से हो। लोकतंत्र में सभी दलों को राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर एकजुटता दिखानी चाहिए। इसीलिए संसदीय प्रतिनिधिमंडल का कश्मीर जाना और कश्मीरियों से खुलकर बात करना एक अच्छा कदम है। ऐसा पहले भी होता आया है। पर इसका मतलब ये नहीं कि संसदीय मंडल के पास कोई जादू की छड़ी है, जिसे वे श्रीनगर में घुमाकर सबका दिल जीत लेंगे। फिर भी प्रयास तो करते रहना चाहिए। आगे खुदा मालिक।

Monday, August 29, 2016

गौरक्षक आहत क्यों ?


जिस तरह मीडिया ने गौरक्षकों के खिलाफ शोर मचाया था, उसे यह साफ हो गया था कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लॉबी भारत में गौमाता की रक्षा नहीं होने देगी। इस लॉबी ने प्रधानमंत्री को इस तरह घेर लिया कि उन्हें मजबूरन गौरक्षकों को चेतावनी देनी पड़ी। इसका अर्थ यह नहीं कि गौरक्षा के नाम पर जातीय संघर्ष या खून-खराबे को होने दिया जाए। जिन लोगों ने इस तरह की हिंसा इस देश में कहीं भी की, उन्होंने उत्साह के अतिरेक में गौवंश को हानि पहुंचाई।

दरअसल गौरक्षा का मुद्दा बिल्कुल धार्मिक नहीं है। यह तो शुद्धतम रूप में लोगों की कृषि, अर्थव्यवस्था और उनके स्वास्थ्य से जुड़ा है। हजारों साल पहले भारत के ऋषियो ने गौवंश के असीमित लाभ जान लिए थे। इसलिए उन्होंने भारतीय समाज में गौवंश को इतना महत्व दिया।

मध्ययुग में मुस्लिम आक्रांताओं और फिर औपनिवेशिक शासकों ने बाकायदा रणनीति बनाकर भारतीय गौवंश को पूरी तरह नष्ट करने का अभियान चलाया, जो आज तक चल रहा है। क्योंकि वह जानते थे कि हजारों साल से भारत की आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक शक्ति का स्रोत गौ आधारित कृषि रहा था। बिना गौवंश की हत्या किए भारत और भारतीयों को कमजोर नहीं किया जा सकता था। आजादी के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इसमें बड़ी होशियारी से पर्दे के पीछे से भूमिका निभाई। उन्होंने इस तरह की मानसिकता तैयार की कि घर-घर में पलने वाली गाय हमारी उपेक्षा और हीनभावना का शिकार हो गयी। जिससे गाय का दूध, दही, मक्खन, घी और छाछ सेवन करके हर भारतीय परिवार स्वस्थ, सुखी और संस्कारवान रहता था। आज आम भारतीयों को जीवन के लिए पोषक तत्व प्राप्त नहीं हैं। दूध, दही, घी के नाम पर जो बड़े ब्रांडो के नाम से बेचा जा रहा है, उसमें कितने कीटनाशक, रासायनिक खाद्य और नकली तत्व मिले हैं, इसका अब हिसाब रखना भी मुश्किल है। नतीजा सामने है कि मेडीकल का व्यवसाय हर गली व शहर में तेजी से पनप रहा है।

चिंता और दुख की बात ये है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापन पर जीने वाले कैसे देश के हित में सोच सकते हैं ? वह तो वही लिखेंगे और बोलेंगे, जो उनके कॉरपोरेट आका उन्हें लिखने को कहेंगे। इस लॉबी के खिलाफ देशभक्तो को संगठित होकर आवाज उठानी होगी। पर हिंसा से नहीं तर्क और प्रमाण के साथ। भारतीय गौवंश की श्रेष्ठता को भारतीय जनमानस के सामने लगातार हर मंच पर इस तरह रखना होगा कि एक बार फिर भारतीय परिवार गौवंश को अपने आंगन में स्थान दे।

गांवों में तो यह आसानी से संभव है, पर दुख की बात है कि वहां भी आज गौवंश की उपेक्षा हो रही है। हमने हमेशा कहा है कि गाय गौशाला में नहीं, बल्कि जब हर घर के आंगन में पलेंगी, तब गौवंश की रक्षा होगी। जिनके पास स्थान का अभाव है, उनकी तो मजबूरी है। पर वह भी भारतीय गौवंश के उत्पादों को सामूहिक रूप से प्रोत्साहन देकर अपने परिवार और समाज का भला कर सकते है।

गौरक्षकों के आक्रोश का भी कारण समझना होगा। सदियों से हिंदू समाज गौवंश के ऊपर हो रहे अत्याार को सहता आ रहा है। क्योंकि उसकी पकड़ सत्ताधीशों पर नहीं रही। नरेंद्र भाई मोदी के सत्ता में आने से हर हिंदू को लगा कि एक हजार वर्ष बाद भारत की सनातन संस्कृति को संरक्षक मिला है। जिसे अपने को हिंदू कहने में कोई झिझक नहीं है। ऐसे में जब मोदीजी लाल मांस के निर्यात को बढ़ाने की बात करते है, तो जाहिर है कि हिंदू समाज आहत महसूस करता है।

मोदीजी भूटान में देखकर आए है कि उस देश में हर व्यक्ति सुखी है, क्योंकि उनका जीवन गौ और कृषि आधारित है। उन्हें दुनिया के साथ दौड़ने की इच्छा नहीं है। क्योंकि वह तीव्र औद्योगीकरण के दुष्परिणामों से परिचित हैं।

फिर भारत क्यों उस अंधी दौड़ में भागना चाहता है, जिसका फल भौतिक प्रगति तो हो सकता है, पर उससे समाज सुखी नहीं होता। बल्कि समाज और ज्यादा असुरक्षित होकर तनाव में आ जाता है। भारत की सनातन संस्कृति सादा जीवन और उच्च विचार को जीवन में अपनाने की प्रेरणा देती है। इन्हीं मूल्यों के कारण भारतीय समाज हजारों साल से निरंतर जिंदा रहा है। जबकि पश्चिमी समाज ने एक शताब्दी के अंदर ही औद्योगीकरण के नफे और नुकसान, दोनों का अनुभव कर लिया है। अब वह भारतीय जीवन मूल्यों की ओर आकर्षित हो रहा है। ऐसे में भारत को फिर से विश्वगुरू बनना होगा। जो गौ आधारित जीवन और वेद आधारित ज्ञान से ही संभव है। इसमें न तो कोई अतिश्योक्ति है और न ही कोई धर्मांधता। कहीं ऐसा न हो कि ‘सब कुछ लुटाकर होश में आए, तो क्या किया।’

Monday, August 22, 2016

पुलैला गोपीचंद से सीखो

    पीवी सिंधु के रजत पदक के पीछे सबसे बड़ा योगदान उसके कोच पुलैला गोपीचंद का है। जिनकी वर्षों की मेहनत से उनकी शिष्या ओलंपिक में पहली बार ऐसा पदक जीत पाई। पुलैला गोपीचंद की ही देन थी सानिया मिर्जा। इसी काॅलम में आज से 15 वर्ष पहले मैंने लिखा था ‘शाबाश पुलैला गोपीचंद’। ये तब की बात है। जब इंग्लैंड ओपन टूर्नामेंट में पुलैला गोपीचंद ने विश्वस्तरीय खिताब जीता था और वह रातों-रात भारत में एक सेलीब्रिटी बन गए थे। उस वक्त कोकाकोला कंपनी ने करोड़ों रूपए का आॅफर गोपीचंद को दिया, इस बात के लिए कि वे उनके पेय को लोकप्रिय बनाने के लिए विज्ञापन में आ जाएं। पर गोपीचंद ने ये प्रस्ताव ठुकरा दिया, जबकि उन्हें उस वक्त पैसे की सख्त जरूरत थी। गोपीचंद का कहना था कि जिस पेय को मैं स्वयं पीता नहीं और मैं जानता हूं कि इसके पीने से शरीर को हानि पहुंचती है, उसके विज्ञापन को मैं कैसे समर्थन दे सकता हूं। गोपीचंद के इस आदर्श आचरण पर ही पर मैंने वह लेख लिखा था। जबकि दूसरी तरफ अमिताभ बच्चन हों या आमिर खान। पैसे के लिए ऐसे विज्ञापनों को लेने से परहेज नहीं करते, जिनसे लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है।

    इंग्लैंड में खिताब जीतने के बाद गोपीचंद की इच्छा थी, एक बैडमिंटन एकेडमी खोलने की। पर उसके लिए उनके पास पैसा नहीं था। उन्होंने अपना घर गिरवी रखा। मित्रों से सहायता मांगी, पर बात नहीं बनीं। जो कुछ जमा हुआ, वो विश्वस्तरीय एकेडमी बनाने के लिए काफी नहीं था। आखिरकार आंध्र प्रदेश के एक उद्योगपति ने कई करोड़ रूपए की आर्थिक मदद देकर पुलैला गोपीचंद की एकेडमी स्थापित करवाई, जहां आज ओलंपिक स्तर के खिलाड़ी तैयार होते हैं। दुनियाभर से नौजवान गोपीचंद से बैंडमिंटन सीखने यहां आते हैं। सुबह 4 बजे से रात तक गोपीचंद अपने बैडमिंटन कोर्ट में खड़े दिखते हैं। वे कड़े अनुशासन में प्रशिक्षण देते हैं। यहां तक कि आखिर के एक-दो महीना पहले उन्होंने सिंधु से उसका मोबाइल फोन तक छीन लिया, ये कहकर कि केवल खेल पर ध्यान दो, किसी से बात मत करो।

    ऐसी ही कहानी हमारे दूसरे पदक विजेताओं की रही है। चाहे वो शूटिंग में अभिनव बिंद्रा हों, जिनके धनी पिता ने उनके लिए निजी शूटिंग रेंज बनवा दिया था या दूसरे कुश्ती के पहलवान या धावक हों। सब किसी न किसी गुरू की शार्गिदी में आगे बढ़ते हैं। दूसरी तरफ सरकारी स्तर पर अरबों रूपया स्पोर्टस के नाम पर खर्च होता है। पर जो अधिकारी और राजनेता स्पोर्टस मैनेजमेंट में घुसे हुए हैं, वे केवल मलाई खाते हैं और खिलाड़ियों व उनके कोच बुनियादी सुविधाओं के लिए धक्के खाते रहते हैं।

‘भाग मिल्खा भाग’ या ‘चक दे इंडिया’ जैसी फिल्मों में और अखबारों की खबरों में अक्सर ये बताया जाता है कि मेधावी खिलाड़ियों को ऊपर तक पहुंचने में कितना कठिन संघर्ष करना पड़ता है। जो हिम्मत नहीं हारते, वो मंजिल तक पहुंच जाते हैं। सवा सौ करोड़ के मुल्क भारत में अगर ओलंपिक पदकों का अनुपात देखा जाए, तो हमारे खेल मंत्रालय और उसके अधिकारियों के लिए चुल्लूभर पानी में डूब मरने की बात है।

    समय आ गया है कि जब सरकार को अपनी खेल नीति बदलनी चाहिए। जो भी सफल और मेधावी खिलाड़ी हैं, उन्हें अनुदान देकर प्रशिक्षण में लगाना चाहिए और उनके शार्गिदों के लिए सारी व्यवस्था उनके ही माध्यम से की जानी चाहिए। खेल में रूचि न रखने वाले नकारा और भ्रष्ट अधिकारियों की मार्फत नहीं। क्योंकि कोच अपने शार्गिदों को बुलंदियों तक ले जाने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है। जैसे गोपीचंद ने अपना घर तक गिरवी रख दिया, लेकिन कोई सरकारी अधिकारी किसी खिलाड़ी को बढ़ाने के लिए अपने आराम में और मौज-मस्ती में कोई कमी नहीं आने देगा। चाहे खिलाड़ी कुपोषित ही रह जाए। कोच अपने शार्गिदों का हर तरह से ख्याल रखेगा, इसलिए खेलों का निजीकरण होना बहुत जरूरी है। हम पहले भी कई बार लिख चुके हैं कि खेल प्राधिकरणों और विभिन्न खेलों के बोर्ड जिन राजनेताओं से पटे हुए हैं, उन राजनेताओं को उस खेल की तनिक परवाह नहीं। उनके लिए तो खेल भी मौज-मस्ती और पैसा बनाने का माध्यम है। इसलिए सरकारी स्तर पर जो खेलों के आधारभूत ढांचें विकसित किए गए हैं, उन्हें योग्य और सक्षम खिलाड़ियों के प्रबंध में सौंप देना चाहिए। जिससे खेल की गुणवत्ता भी बनी रहे और साधनों का सदुपयोग भी हो। तब फिर एक पुलैला गोपीचंद नहीं या एक पीवी सिंधु नहीं, बल्कि दर्जनों कोच और दर्जनों ओलंपिक विजेता सामने आएंगे। वरना यही होगा कि भारत की बेटियां आंसू न पोंछती, तो हमारा पूरा ओलंपिक दल मुंह लटकाए लुटा-पिटा रियो से लौटकर आ जाता।

Monday, August 15, 2016

कश्मीर की घाटी में तूफान: मीडिया की विफलता

कश्मीर की घाटी में जो बवाल हो रहा है, उसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार केंद्र सरकार की नाकारा मीडिया पाॅलिसी है। आज हालत ये है कि कश्मीर की घाटी में उपद्रव का संचालन पूरे तरीके से पाकिस्तान की आईएसआई के हाथ में है। जो सीमापार से गत 20 वर्षों में कश्मीरी युवाओं की ब्रेन वाॅशिंग करने में सफल रही है। आज यहां 10 साल के बच्चे के सिर पर जाली वाली टाॅपी और हाथ में पत्थर है। निशाने पर भारत की फौज। वही फौज, जिसने श्रीनगर की बाढ़ में सबसे ज्यादा राहत पहुंचाने का काम किया। तब न तो आईएसआई काम आयी और न ही पाकिस्तान की फौज। आज कश्मीर में भारत विरोधी माहौल बनाने का काम वहां का बुद्धिजीवी वर्ग, मीडिया, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता कर रहे हैं। इन सबका एक ही नारा है - आज़ादी।

कोई इनसे यह नहीं पूछता कि किससे आज़ादी और कैसी आज़ादी ? जबकि हकीकत यह है कि कश्मीर के लोगों को भारतवासियों और पाकिस्तानियों से भी ज़्यादा आज़ादी मिली हुई है। भारत के किसी भी नागरिक को कश्मीर में संपत्ति खरीदने का अधिकार नहीं है। जबकि कश्मीर का कोई भी व्यक्ति हिंदुस्तान के किसी भी कोने में संपत्ति खरीद सकता है। नौकरी और व्यापार कर सकता है। यही कारण है कि चाहें गोवा के समुद्री तट हों या हिंदू और ईसाइयों के समुद्र तट पर बसे दर्जनों पारंपरिक नगर हों, हर ओर आपको कश्मीरी नौजवानों के एम्पोरियम नज़र आएंगे। देश की राजधानी दिल्ली से लेकर पूरे भारत में कश्मीरी खूब आर्थिक तरक्की कर रहे हैं। इज़्ज़त से जी रहे हैं। सरकारी नौकरियों एवं उच्च पदों पर तैनाती पा रहे हैं। इसके बावजूद खुलेआम भारत को गाली देते हैं।

जबकि दूसरी ओर पाकिस्तान में तबाही मची है। आपस में मारकाट हो रही है। सरकार विफल है। आर्थिक प्रगति का नाम नहीं है। पाकिस्तानी टीवी चैनलों पर वहां के अनेक बुद्धिजीवी यह कहते नहीं थकते कि पाकिस्तान किस मुंह से कश्मीर की बात करता है। जबकि वह खुद पूर्वी बंगाल को संभाल कर नहीं रख पाया। उसकी जगह बांग्लादेश बन गया। आज बलूचिस्तान बगावत का झंडा ऊंचा किए है और पाकिस्तान से आजादी चाहता है। हिंदुस्तान से गए हर मुसलमान को आज भी पाकिस्तान में मुजाहिर कह कर हिकारत से देखा जाता है। दुनिया का ऐसा कौन-सा मुल्क होगा, जो आपको तमाम रियायतें और सस्ती रसद दे और फिर भी आपसे गाली खाए।

पर ये बात कश्मीरियों को बताने वाला कोई नहीं। वहां का मीडिया बढ़ा-चढ़ाकर असंतोष की खबरें देता है। देश के टीवी चैनल भी कश्मीर की सड़कों पर बंद दुकानें और पसरा सन्नाटा दिखाते हैं। वहां खड़ी फौज के ट्रक और जवान दिखाते हैं। जबकि हकीकत यह है कि ये बंद का नाटक दोपहर तक ही चलता है। शाम होते ही घाटी के सारे लोग मस्ती करने डल झील, पार्कों और सैरगाहों पर निकल जाते हैं। खूब मौज-मस्ती करते हैं। सारे बाजार शाम को खुल जाते हैं। पर इसकी खबर कोई टीवी चैनल या अखबार नहीं दिखाता। न कोई ऐसी खबरें छापता और दिखाता है, जिससे कश्मीरियों को पाक अधिकृत कश्मीर या पाकिस्तान में हो रही बर्बादी की जानकारी मिले।

भारत सरकार ने फौज के स्तर पर तो कश्मीर में मोर्चा संभाला हुआ है, लेकिन मनोवैज्ञानिक युद्ध में सरकार बुरी तरह विफल हो रही है। भारत सरकार से अगर पूछो कि कश्मीर में आपकी प्रचार नीति क्या है, तो बोलेगी कि हमने दूरदर्शन को 500 करोड़ रूपए का स्पेशल कश्मीर पैकेज दे दिया है। ये कोई नहीं पूछता कि उस दूरदर्शन को देखता कौन है ?

मनोवैज्ञानिक लड़ाई जीतने के तमाम दूसरे तरीके हो सकते थे, जिन पर दिल्ली में कोई बात नहीं होती। सबसे तकलीफ की बात यह है कि कंेद्र सरकार का कोई भी कार्यालय कश्मीर में सक्रिय नहीं है। वेतन और भत्ते सब ले रहे हैं, पर अपनी ड्यूटी को अंजाम नहीं दे रहे। इससे उन लोगों को भारी क्षोभ है, जो इन विपरीत परिस्थितियों में वहां तैनात हैं और अपना मनोबल बनाए हुए हैं।

    आए दिन सत्तारूढ़ दल भाजपा और अन्य दलों के माध्यम से तमाम मुल्ला, मुसलमान नौजवान, बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता प्रेस विज्ञप्तियां जारी करते हैं और अपने फोटो छपवाते हैं, जिनमें भारत के साथ एकजुटता दिखाई जाती है। ये लोग पाकिस्तान की बदहाली का जिक्र करना भी नहीं भूलते। यहां तक कि आग उगलने वाला मुस्लिम नेता और सांसद डा.असुद्दीन औवेसी तक पाकिस्तान में जाकर खुलेआम यह कहते हैं कि पाकिस्तान भारत के मुसलमानों के मामले में दखलंदाजी करना बंद कर दे और अपने मुल्क के हालात संभाले। क्यों नहीं ऐसे सारे मुसलमानों को भारत सरकार बड़ी तादाद में कश्मीर की घाटी में भेजती है ? जिससे ये वहां जाकर आवाम को अपनी खुशहाली और पाकिस्तान के मुसलमानों की बदहाली पर खुलकर जानकारी दें। जिससे कश्मीरियों को यकीन आए कि ये प्रचार भारत सरकार या हिंदू नेता नहीं कर रहे, बल्कि खुद उनके ही धर्मावलंबी उन्हें हकीकत बताने आए हैं।

    हाल ही के दिनों में प्रधानमंत्री मोदी ने एक बढ़िया काम किया है। उन्होंने जोरदार बयान दिया है कि कश्मीर की घाटी की बात नहीं, भारत तो अब आजाद पाक अधिकृत कश्मीर की आजादी की बात करेगा। आज तक किसी प्रधानमंत्री ने इस बात को इतनी जोरदारी से नहीं उठाया था। जबकि कानूनी स्थिति यह है कि कश्मीर का क्या हो, वो तो भविष्य की बात है। पर कश्मीर के एक बड़े भाग पर पाकिस्तान नाजायज कब्जा किए बैठा है। वहां का आवाम रात-दिन पाकिस्तान से आजादी के नारे लगा रहा है। ऐसे में भारत को हर मंच पर एक ही मांग उठानी चाहिए कि पाकिस्तान को कश्मीर से बाहर खदेड़ा जाए। चुनौती मुश्किल है। पिछली सरकारों ने कश्मीर की नीति में देश को लुटवाया ज्यादा है, पर अब भी देर नहीं हुई। सही समझ और कड़े इरादे से इस समस्या से निपटा जा सकता है।

Monday, August 1, 2016

वेतन आयोग या विनाश आयोग

    मोदी सरकार ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर सरकारी कर्मचारियों को बड़ी सौगात सौंप दी। ये बात दूसरी है कि सरकारी कर्मचारियों का एक ना एक वर्ग हमेशा ऐसा होता है, जिसे कितना भी मिल जाए, कभी संतुष्ट नहीं होता। पर असलियत यह है कि वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करके जहां एक तरफ सरकार अपने कर्मचारियों को खुश करती है, वहीं इसके कारण समाज में भारी हताशा और निराशा फैलती है। जिसका सीधा असर लोगों की कार्यक्षमता पर पड़ता है। 

    यह सर्वविदित है कि सरकारी कर्मचारियों में कुछ अपवादों को छोड़कर ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। चाहें भारत का कोई भी हिस्सा क्यों न हो, इनके भ्रष्टाचार से आपको पूरा समाज त्रस्त मिलेगा। इसके अलावा सरकारी कर्मचारियों की कार्यकुशलता, निर्णय लेने की क्षमता, जोखिम उठाने की क्षमता, कार्य के प्रति समर्पण, आचरण में ईमानदारी को लेकर तमाम सवाल खड़े हैं। यह स्थापित सत्य है कि निजी क्षेत्र के कर्मचारी, चाहे वे चपरासी हों या कंपनी के प्रबंध निदेशक, सब रात-दिन कड़ी मेहनत करते हैं, लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा की भावना से जूझते हैं। उन्हें अवकाश भी सीमित मिलता है और वे सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों से ज्यादा घंटे कार्य करते हैं। सरकारी कर्मचारियों के मुकाबले बहुत कम छुट्टी लेते हैं और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सदैव तनाव में रहते हैं। उन्हें प्रायः मेडीकल, हाउसिंग, एलटीसी, यातायात और पेंशन जैसी कोई सुविधा नहीं मिलती। 

ऐसे में यह स्वाभाविक है कि वे अपने जीवन की तुलना सरकारी कर्मचारियों से करते हैं। उन्हें इस बात पर भारी नाराजगी होती है कि निठ्ल्ले और भ्रष्ट लोग तो बिना कुछ किए सभी ऐशो-आराम और नौकरी में तरक्कियां लेने का मजा लूटते हैं। जबकि इतना काम करके भी इन्हें कभी भी नौकरी से निकाले जाने का डर बना रहता है। 

    इसलिए जब वेतन आयोग के कहने पर सरकार अपने कर्मचारियों की तनख्वाहें एवं भत्ते बढ़ाती है, तो उससे समाज में भारी असंतुलन पैदा हो जाता है। जब अच्छे काम करने वाले को कोई तरक्की न मिले और निकम्मे व भ्रष्ट अधिकारियों को तरक्की और छुट्टी दोनों मिले, तो स्वाभाविक है कि सामान्य जन के मन में क्षोभ उत्पन्न होगा। इससे उनकी कार्यक्षमता घटेगी। उदाहरण के तौर पर दिल्ली जैसे शहर में एक सरकारी कार ड्राइवर को आराम से 30-35 हजार रूपए महीने तनख्वाह मिलती है। जबकि निजी क्षेत्र के ड्राइवरों को मात्र 10-15 हजार रूपए महीने। जबकि उन्हें 24 घंटे ड्यूटी पर रहता होता है। ऐसे माहौल में यह स्वाभाविक है कि देशभर के नौजवानों की रूचि सरकारी नौकरी पाने की तरफ ज्यादा होती है व मुकाबले निजी क्षेत्र में जाने की। नतीजतन सरकारी नौकरी का बाजार महंगा होता जाता है। एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी की नियुक्ति में भी 10-10 लाख रूपए तक की रिश्वत चलती है। गरीब कहां से लाए इतना पैसा ? 

    मोदीजी से हमेशा क्रांतिवारी और ठोस निर्णय लेने की अपेक्षा की जाती रही है। ये जो सवाल हमने यहां उठाया है, उसे हम मोदीजी से पूछना चाहते हैं कि एक-सा काम करने वालों की आमदनी में इतना भारी अंतर क्यों रखा जाए ? या तो वेतन आयोग की सिफारिशों को कूड़ेदान में फेंका जाए, ताकि कुछ क्रांतिवारी नीतियां लागू की जा सकें। जिससे निजी क्षेत्र के कर्मठ हिंदुस्तानियों को उत्साह मिले और दोनों वर्गों के बीच आय का अंतर इतना ज्यादा न हो। ये कठिन निर्णय होंगे। पर आज नही ंतो कल मोदीजी को ऐसे कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे। 

    समय आ गया है कि मोदीजी निजी क्षेत्र के योगदान को देखें, परखें और ऐसी नीतियां बनाएं, जिससे उद्यमियों को प्रोत्साहन मिले। सरकारी वजीफों या अनुदान जैसी सहायता के लिए वे सरकार का मुंह न देखें। अपने संसाधन, योग्यता और अनुभव के आधार पर तेजी से आगे बढ़ें और देश को बढ़ाएं। 

    आज से 15 वर्ष पहले जब अमेरिका में मंदी छायी हुई थी, तो वहां के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने अपने देश के युवाओं से एक जोरदार अपील की थी। उसका मूल मंत्र ये था कि कोई व्यक्ति सरकारी नौकरी के भरोसे न बैठा रहे और अपने-अपने उद्यम खड़े कर आत्मनिर्भर बने। क्लिंटन ने अपने युवाओं का आह्वान किया था कि आप छोटा सा भी काम अपने घर से शुरू करें, तो आपको सफलता मिलेगी और आपकी आर्थिक जरूरतें पूरी होंगी। क्योंकि सरकार सबको नौकरी नहीं दे सकती। इस अपील का असर हुआ और अमेरिका में आर्थिकवृद्धि की लहर फिर से शुरू हो गई। ऐसा ही कुछ भारत के विकास का भी माॅडल होना चाहिए। जिससे योग्य और क्षमतावान लोग अपनी ऊर्जा का पूरा सदुपयोग कर सकें, तभी देश महान बनेगा।

Monday, July 25, 2016

दुनिया का सुखी देश कैसे बने

    पिछले हफ्ते मैं भूटान में था। चीन और भारत से घिरा ये हिमालय का राजतंत्र दुनिया का सबसे सुखी देश है। जैसे दुनिया के बाकी देश अपनी प्रगति का प्रमाण सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) को मानते हैं, वैसे ही भूटान की सरकार अपने देश में खुशहाली के स्तर को विकास का पैमाना मानती है। सुना ही था कि भूटान दुनिया का सबसे सुखी देश है। पर जाकर देखने में यह सिद्ध हो गया कि वाकई भूटान की जनता बहुत सुखी और संतुष्ट है। पूरे भूटान में कानून और व्यवस्था की समस्या नगण्य है। न कोई अपराध करता है, न कोई केस दर्ज होता है और न ही कोई मुकद्मे चलते हैं। निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक वकील और जज अधिकतम समय खाली बैठे रहते हैं। 

ऐसा नहीं है कि भूटान का हर नागरिक बहुत संपन्न हो। पर बुनियादी सुविधाएं सबको उपलब्ध हैं। यहां आपको एक भी भिखारी नहीं मिलेगा। अधिकतम लोग कृषि व्यवसाय जुड़े हैं और जो थोड़े बहुत सर्विस सैक्टर में है, वे भी अपनी आमदनी और जीवनस्तर से पूरी तरह संतुष्ट हैं। 

    लोगों की कोई महत्वाकांक्षाएं नहीं हैं। वे अपने राजा से बेहद प्यार करते हैं। राजा भी कमाल का है। 33 वर्ष की अल्पायु में उसे हर वक्त अपनी जनता की चिंता रहती है। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर, जहां कार जाने का कोई रास्ता न हो, उन पहाड़ों पर चढ़कर युवा राजा दूर-दूर के गांवों में जनता का हाल जानने निकलता है। लोगों को रियायती दर या बिना ब्याज के आर्थिक मदद करवाता है। 

    भूटान में कोई औद्योगिक उत्पादन नहीं होता। हर चीज भारत, चीन या थाईलैंड से वहां जाती है। वहां की सरकार प्रदूषण को लेकर बहुत गंभीर है। इसलिए कड़े कानून बनाए गए हैं। नतीजतन वहां का पर्यावरण स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभप्रद है। लोगों का खानापीना भी बहुत सादा है। दिन में तीन बार चावल और उसके साथ पनीर और मक्खन में छुकीं हुई बड़ी-बड़ी हरी मिर्च, ये वहां का मुख्य खाना है। पूरा देश बुद्ध भगवान का अनुयायी है। हर ओर एक से एक सुंदर बौद्ध विहार में हैं। जिनमें हजारों साल की परंपराएं और कलाकृतियां संरक्षित हैं। किसी दूसरे धर्म को यहां प्रचार करने की छूट नहीं है, इसलिए न तो यहां मंदिर हैं, न मस्जिद, न चर्च। 

विदेशी नागरिकों को 3 वर्ष से ज्यादा भूटान में रहकर काम करने का परमिट नहीं मिलता। इतना ही नहीं, पर्यटन के लिए आने वाले विदेशियों को इस बात का प्रमाण देना होता है कि वे प्रतिदिन लगभग 17.5 हजार रूपया खर्च करेंगे, तब उन्हें वीजा मिलता है। इसलिए बहुत विदेशी नहीं आते। दक्षिण एशिया के देशों पर खर्चे का ये नियम लागू नहीं होता, इसलिए भारत, बांग्लादेश आदि के पर्यटक यहां सबसे ज्यादा मात्रा में आते हैं। भूटान की जनता इस बात से चिंतित है कि आने वाले पर्यटकों को भूटान के परिवेश की चिंता नहीं होती। जहां भूटान एक साफ-सुथरा देश है, वहीं बाहर से आने वाले पर्यटक जहां मन होता है कूड़ा फेंककर चले जाते हैं। इससे जगह-जगह प्राकृतिक सुंदरता खतरे में पड़ जाती है। 

    एक और बड़ी रोचक बात यह है कि मकान बनाने के लिए किसी को खुली छूट नहीं है। हर मकान का नक्शा सरकार से पास कराना होता है। सरकार का नियम है कि हर मकान का बाहरी स्वरूप भूटान की सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप हो, यानि खिड़कियां दरवाजे और छज्जे, सब पर बुद्ध धर्म के चित्र अंकित होने चाहिए। इस तरह हर मकान अपने आपमें एक कलाकृति जैसा दिखाई देता है। जब हम अपने अनुभवों को याद करते हैं, तो पाते हैं कि नक्शे पास करने की बाध्यता विकास प्राधिकरणों ने भारत में भी कर रखी है। पर रिश्वत खिलाकर हर तरह का नक्शा पास करवाया जा सकता है। यही कारण है कि भारत के पारंपरिक शहरों में भी बेढंगे और मनमाने निर्माण धड़ल्ले से हो रहे हैं। जिससे इन शहरों का कलात्मक स्वरूप तेजी से नष्ट होता जा रहा है। 

    भूटान की 7 दिन की यात्रा से यह बात स्पष्ट हुई कि अगर राजा ईमानदार हो, दूरदर्शी हो, कलाप्रेमी हो, धर्मभीरू हो और समाज के प्रति संवेदनशील हो, तो प्रजा निश्चित रूप से सुखी होती है। पुरानी कहावत है ‘यथा राजा तथा प्रजा’। यह भी समझ में आया कि अगर कानून का पालन अक्षरशः किया जाए, तो समाज में बहुत तरह की समस्याएं पैदा नहीं होती। जबकि अपने देश में राजा के रूप में जो विधायक, सांसद या मंत्री हैं, उनमें से अधिकतर का चरित्र और आचरण कैसा है, यह बताने की जरूरत नहीं। जहां अपराधी और लुटेरे राजा बन जाते हों, वहां की प्रजा दुखी क्यों न होगी ? 

एक बात यह भी समझ में आयी कि बड़ी-बड़ी गाड़ियां, बड़े-बड़े मकान और आधुनिकता के तमाम साजो-सामान जोड़कर खुशी नहीं हासिल की जा सकती। जो खुशी एक किसान को अपना खेत जोतकर या अपने पशुओं की सेवा करके सहजता से प्राप्त होती है, उसका अंशभर भी उन लोगों को नहीं मिलता, जो अरबों-खरबों का व्यापार करते हैं और कृत्रिम जीवन जीते हैं। कुल मिलाकर माना जाए, तो सादा जीवन उच्च विचार और धर्म आधारित जीवन ही भूटान की पहचान है। जबकि यह सिद्धांत भारत के वैदिक ऋषियों ने प्रतिपादित किए थे, पर हम उन्हें भूल गए हैं। आज विकास की अंधी दौड़ में अपनी जल, जंगल, जमीन, हवा, पानी और खाद्यान्न सबको जहरीला बनाते जा रहे हैं। भूटान से हमें बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।

Monday, July 18, 2016

कश्मीर नीति बदलनी होगी

कश्मीर के हालात जिस तरह बिगड़ रहे हैं, उससे ये नहीं लगता कि केन्द्र सरकार की कश्मीर नीति अपने ठीक रास्ते पर है। इसमें शक नहीं है कि कश्मीर की आम जनता तरक्की और रोजगार चाहती है और अमन चैन से जीना चाहती है। पर आतंकवादियों, पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. और अलगाववाद का समर्थन करने वाले घाटी के नेता हर वक्त माहौल बिगाड़ने में जुटे रहते है। यही लोग है जो आतंकवादियों के मारे जाने पर उन्हें शहादत का दर्जा दे देते हैं और फिर अवाम को भड़काकर सड़कों पर उतार देते है। घाटी का अमन चैन और कारोबार सब गड्ढे में चले जाते है। आवाम की जिन्दगी मंे मुश्किलें बढ़ जाती है। पर इन सबका ऐसे हालातों में कारोबार खूब जोर से चलता है। इन्हें विदेशों से हर तरह की आर्थिक मदद मिलती है। इनकी जेबें गहरी होती जाती है और इसलिए यह कभी नहीं चाहते है कि कश्मीर की घाटी में अमन चैन कायम हो। और आवाम तरक्की रहे। 

मुश्किल यह है कि इन मुट्ठी भर लोगों ने ऐसा हऊआ खड़ा कर रखा है कि आम जनता इन्हें रोक नहीं पाती। सब डरते है कि अगर हमने मुंह खोला तो अगला निशाना हम पर ही होगा। इसलिए सब चुपचाप इनकी हैवानियत और जुल्मों को बर्दाश्त करते रहते है। जरूरत इस बात की है कि केन्द्र सरकार कश्मीर के मामले में अब ढिलाई छोड़ दें और अपनी नीति में बदलाव करें। सीधे और कड़े कदम उठायें। मसलन घाटी के आवाम को 3 हिस्सों में बांट दिया जाय। जो आतंकवादी हैं उनको उनकी ही भाषा में जवाब दिया जाय। घाटी के जो नेता  आतंकवाद और अलगाववाद का समर्थन करते हैं जैसे हुर्रियत के नेता उनके साथ कोई हमदर्दी न दिखाई जायें। क्योंकि भारत सरकार इनका इलाज करवाती है, इन्हें इज्जत देती हैं और ये दिल्ली आकर दिल्ली आकर पाकिस्तान के राजदूत से मिलते है और आई.एस.आई. से मोटी रकम हासिल करके हिन्दुस्तान के खिलाफ जहर उगलते है, घाटी में जाकर आग लगाते है। सरकार क्यों ऐसे नेताओं की मिजाजकुर्सी करती है। क्यूं इन्हें सरकारी दामाद की तरह रखा जाता है ? ऐसे लोगों से केन्द्रीय सरकार को वही बर्ताव करना पड़ेगा जो किसी जमाने में पं. जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के साथ किया था। इन्हें पकड़कर नजरबंद कर देना चाहिए और इनकी बात आवाम तक किसी सूरत में नहीं पहुंचनी चाहिए। तीसरी श्रेणी आम जनता यानि आवाम की है। जिसके लिए रोजी-रोटी कमाना भी मुश्किल होता है। ऐसे लोगों के साथ सरकार को मुरव्वत करनी चाहिए। उनकी आर्थिक मदद करनी चाहिए। अगर ऐसे लोग किसी देश विरोधी आंदोलन में उतरते हैं, तो उसके पीछे आर्थिक कारण ज्यादा होता है वैचारिक कम। उन्हें पैसा देकर आतंकवाद बढ़ाने के लिए उकसाया जाता है। अगर सरकार इस पर काबू पा ले और आई.एस.आई. का पैसा आम जनता तक न पहुंचने पाये तो काफी हद तक कश्मीर के हालात सुधर सकते है। 

अब तक केन्द्र सरकार की नीति कश्मीर घाटी को लेकर काफी ढुलमुल रही है। लेकिन नरेन्द्र मोदी से लोगों को उम्मीद थी कि वे आकर पुरानी नीति बदलेंगे और सख्त नीति अपनाकर कश्मीर के हालात सुधार देंगे। पर मोदी सरकार की कश्मीर नीति कांग्रेस सरकार की नीति से कुछ ज्यादा फर्क नहीं रही है। इसीलिए अब मोदी को अपनी कश्मीर नीति में बदलाव लाने की जरूरत है। 

अगर नरेन्द्र मोदी यह नहीं कर पायें तो यह उनकी बहुत बड़ी विफलता होगी। क्योंकि चुनाव से पहले कश्मीर नीति को लेकर उनके जो तेवर थे उनसे जनता को लगता था कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद वे मजबूत और क्रान्तिकारी कदम उठायेंगे। मगर ऐसा नहीं हुआ है। इससे कश्मीर में शान्ति की उम्मीद रखने वालों को भारी निराशा हो रही है। उधर पाकिस्तान भी गिरगिट की तरह रंग बदलता है। वही नवाज शरीफ जो मोदी से भाई-भाई का रिश्ता बढ़ाने उनके शपथ-ग्रहण समारोह में आये थे। वे आज मोदी को गोधरा कांड के लिए फिर से दोष दे रहे है। मतलब हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और। ऐसे में बिना लाग-लपेट के, पुरानी नीति को त्यागकर, कश्मीर के प्रति सही और सख्त नीति अपनानी चाहिए। इसके साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को यह बताने से चूंकना नहीं चाहिए कि पाकिस्तान कश्मीर में आतंकवाद फैला रहा है। जिससे उसे अलग-थलग किया जा सकें। अमरीका और यूरोप को भी यह बताना होगा कि अगर तुम वाकई आतंकवाद से त्रस्त हो और इससे निजात पाना चाहते हो, तो तुम्हें पाकिस्तान का साथ छोड़कर भारत का साथ देना चाहिए। जिससे सब मिलकर आतंकवाद का सफाया कर सकें।

Monday, July 11, 2016

कौन विफल कर रहा है स्वच्छ भारत अभियान को?

पुरानी कहावत है कि जब खीर खा लो तो चावल अच्छे नहीं लगते| यूँ तो हमें अपने चारों तरफ गन्दगी का साम्राज्य देखने की आदत पड़ गयी है| इसलिए हमारा ध्यान भी उधर नहीं जाता | पर हर बार यूरोप या अमरीका से लौट कर जब कोई भारत आता है तो उसे सबसे पहले भारत के शहरों में गन्दगी देख कर झटका लगता है | पिछले हफ्ते अमरीका से लौटते ही मुझे काम से मुरादाबाद, लखनऊ और वाराणसी जाना पड़ा | तीनों शहरों में गन्दगी के अम्बार लगे पड़े हैं | जबकि पीतल की क्लाकृतियों के निर्यात के कारण मुरादाबाद एक धनीमानी शहर है | लखनऊ उत्तर प्रदेश की राजधानी है और वाराणसी प्रधान मंत्री का संसदीय क्षेत्र | पर तीनों ही शहरों में, सरकारी इलाकों को छोड़ कर बाकी सारे ही शहर एक ही बारिश में नारकीय स्थिति को पहुँच गये हैं | प्रधान मंत्री के स्वच्छता अभियान के पोस्टर तो आपको हर सरकारी इमारत में लगे मिल जायेंगे पर इस अभियान को सफल बनाने की ओर किसी का ध्यान नहीं है | न तो सरकारी मुलाज़िमों का और न ही हम और आप जैसे आम नागरिकों का|

हमारी दशा तो उस मछुआरिन जैसी हो गई है जो एक रात बाज़ार से घर लौटते समय तेज़ बारिश के कारण रास्ते में अपनी मालिन सहेली के घर रुक गई | पर फूलों की खुशबु के कारण उसे रात को नींद नहीं आ रही थी, सो उसने अपना मछली का टोकरा अपने मुह पर ओढ़ लिया | टोकरे की बदबू सूंघ कर उसे गहरी नींद आ गयी | हमें घर से निकलते ही कूड़े के अम्बार दिखाई देते हैं पर हम उसको अनदेखा कर के चले जाते हैं | जबकि अगर हम सब इस बात की चिंता करने लगें कि अपने घर के आसपास कूड़ा जमा नहीं होने देंगे | कूड़े को व्यकितगत या सामूहिक प्रयास से उसे उठवाने की कोशिश करेंगे, तो कोई वजह नहीं है कि धीरे-धीरे न सिर्फ हमारे पड़ोसी बल्कि नगर पालिका के कर्मचारी भी अपनी ड्यूटी ज़िम्मेदारी से करने लगेंगे | 

हममें से कितने लोग हैं जो कार, बस या रेल में सफर करते समय अपने खानपान का कूड़ा डालने के लिए अपने साथ एक कूड़े का थैला लेकर चलते हैं ? जबकि नागरिक चेतना वाले समाजों में यह आम रिवाज़ है कि लोग अपना कूड़ा अपने थैले में भरते हैं और गंतव्य आने पर उसे कूड़ेदान में डाल देते हैं| हमें तो यात्रा के समय अपने इर्द गिर्द हर किस्म का कूड़ा फ़ैलाने में कोई संकोच नहीं होता | ज़रा सोचिये जब आप ट्रेन या हवाई जहाज के टायलेट में जाएं और वो गन्दा पड़ा हो तो आपको कितनी तकलीफ होती है ? फिर भी हम लोग यह नहीं करते कि जिस कमरे में रहे या जिस वाहन में यात्रा करें उसे साफ़ छोड़ें | 

1982 की एक घटना याद आती है | अपनी शादी के बाद हम तमिलनाडु में ऊटी नाम के हिल स्टेशन पर गए | होटल के कमरे से जब निकलने लगे तो मेरी पत्नी मीता ने कमरे की सफाई शुरू कर दी | मुझे अचम्भा हुआ कि हम तो अब जा रहे हैं | ये काम तो होटल के स्टाफ का है, तुम क्यों कर रही हो ? उन्होंने अंग्रेजी में जवाब दिया, “लीव द रूम ऐज़ यू वुड लाईक टू हैव इट” यानी कमरे को ऐसा छोड़ो जैसा कि आप उसे पाना चाहते हो | तब से आज तक मेरी ये आदत है कि होटल का कमरा हो, सरकारी अतिथिग्रह का हो या किसी मेज़बान का, मैं उसे यथासंभव पूरी तरह साफ़ करके ही निकलता हूँ | 

स्वच्छता अभियान के प्रारम्भ में बहुत सारे लोगों, मशहूर हस्तियों, सरकारी अधिकारीयों, मंत्रियों और नेताओं ने झाड़ू उठा कर सफाई करने की रस्म अदायगी की थी | झाड़ू ले कर फोटो छपवाने की होड़ सी लग गयी थी | यह देख कर बड़ा अच्छा लगा था कि मोदी जी ने महात्मा गाँधी के बाद पहली बार सफाई जैसे काम को इतना सम्मान जनक बना दिया कि झाड़ू उठाना भी प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया| पर चार दिन की चांदनी फिर अँधेरी रात | इन महानुभावों की छोड़ हर रैली में मोदी-मोदी चिल्लाने वाले प्रधान मंत्री की भाजपा के कार्यकर्ता तक आपको कहीं भी स्वच्छ भारत अभियान चलते नहीं दिख रहे हैं | 

आपको याद होगा कि लाल बहादुर शास्त्री जी ने अन्न संकट के दौरान हर सोमवार की शाम न सिर्फ भोजन करना छोड़ा बल्कि प्रधान मंत्री निवास में हल बैल लेकर खेती करना भी शुरू कर दिया था| मुझे लगता है कि इस देश में हम सब को लगातार धक्के की आदत पड़ गई है| इसलिए प्रधान मंत्री को हफ्ते में एक निर्धारित दिन राजधानी के सबसे गंदे इलाके में, बिना किसी पूर्व घोषणा के, अचानक जाकर झाड़ू लगानी चाहिए | इसके दो लाभ होंगे, एक तो पूरे देश में हर हफ्ते एक सकारात्मक खबर बनेगी, जिसका काफी असर आम जनता पर पड़ेगा | दूसरा झाड़ू पार्टी के नौटंकीबाज़ मुख्य मंत्री केजरीवाल की उर्जा फ़ालतू ब्यानबाजी से हटकर सकारात्मक कार्यों में लगेगी | क्योंकि शायद मुकाबले में वो सातों दिन झाड़ू लेकर निकल पड़ें| अगर उस निर्धारित दिन मोदी जी भारत के किसी अन्य नगर में हों तो वे वहां भी अपना नियम जारी रखें | जिससे हर जगह हड़कंप रहेगा | 

जिन लोगों ने स्वच्छता अभियान के प्रारम्भ में मोदी जी की यह कह कर आलोचना की थी कि प्रधान मंत्री के पास इतने बड़े काम हैं, ये झाड़ू लगाने की फुर्सत कहाँ से मिल गयी | उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि सफाई कि वृत्ति केवल अपने चारों ओर के कूड़ा उठाने तक सीमित नहीं रहेगी | इससे हमारे दिमागों और विचारों की भी सफाई होगी | जिसकी आज हमें बहुत ज़रुरत है |

Monday, July 4, 2016

हम शहरी हैं या जंगली

बरसात शुरू ही नहीं कि हर शहर के गली मोहल्लों में पानी जमा होना शुरू हो गया| अभी तो आगास है अगर मौसम विभाग का अनुमान ठीक रहा तो इस साल मूसलाधार वर्ष होगी और देश कि ज्यादातर आबादी गंदे पानी के तालाबों के बीच नारकीय जीवन जीने पर मजबूर होगी | हर साल की यही कहानी है |

इसके तीन कारण हैं, पहला कोलोनाइज़रों द्वारा बिना सही योजनाओं के कॉलोनियां बनाना और प्रशासन का आँख मीच कर उनका सहयोग करना | चाहे सड़क, नाली, सीवर कि कोई व्यवस्था हो या न हो | दूसरा सीवर और नालियों में ठोस कचरे का जमा होना क्योंकि स्थानीय निकाय अपनी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं करते | तीसरा हर साल दो साल में सड़कों की ऊँचाई बढाते जाना | जिससे अगल बगल के मकानों का तल हमेशा नीचा होता जाता है और यही पानी भराव का मुख्य कारण बनता है |

इस तीसरे बिंदु पर हम आज ज्यादा चर्चा करेंगे | क्योंकि पहले दो बिन्दुंओं पर तो चर्चा होती ही रहती है और पूरी बरसात हर मीडिया पर होती रहेगी | पर हर दो बरस में सड़क का ऊंचा होना समझ में नहीं आता | केवल इसीलिए कि जितनी मोटी सड़क बिछाई जायेगी उतना ही ज्यादा मुनाफा ठेकेदारों और सरकारी इंजीनियरों का होगा | जबकि अगर पहली बार में ही सड़क की गुणवत्ता ठीक हो तो उसे बार बार बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी | जहाँ थोड़े बहुत पैच वर्क से काम चल सकता हो वहां भी नई सड़क बिछा दी जाती है | बिना इस बात का लिहाज़ किये कि सड़क के दोनों ओर मकान बनाने वालों की इतनी हैसियत नहीं होती कि वो हर दो साल में अपने मकान का फर्श ऊँचा करा लें | 

अभी मैं तीन हफ्ते का अमरीका का दौरा कर के लौटा हूँ | वहां मैं 32 वर्षों में कई बार जा चुका हूँ | वहां अलग अलग शहरों में सैंकड़ों मित्र और रिश्तेदार रहते हैं जिनके घर मैं सन 1984 से जा रहा हूँ | इतने लम्बे कालक्रम में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि किसी शहर की, किसी कालोनी की, कोई सड़क कभी ऊंची हुई हो या कोई मकान का फर्श अचानक सड़क से नीचा हो गया हो | 32 वर्ष की ही बात क्यों करे | 100 साल पहले बने मकानों में भी ऐसी समस्या कभी नहीं हुई | न तो सड़क का स्तर ऊँचा हुआ और न तो मकान का फर्श नीचा हुआ | तो हमारे इंजीनियरों की अक्ल पर क्या पत्थर पड़ गए हैं कि वो इतनी छोटी सी बात नहीं समझते | या समझते हैं पर रिश्वत की हवस में करोड़ों देशवासियों की जिंदगी में हर दो चार वर्षों में मुश्किल खड़ी कर देते हैं | 

इस समस्या का एक समाधान हो सकता है | इस लेख को पढ़ने वाले चाहे भारत के किसी भी प्रांत व नगर में क्यों न रहते हों, अगर इस समस्या से जूझ रहे हों तो संगठित हो कर सम्बंधित विभाग के अधिकारीयों से सवाल जवाब करें | उन्हें ये लेख पढ़वाएं, उनसे ऐसी वाहियात योजना बनाने का करण पूछें और अगर वे संतुष्ट न कर पाएं तो उन पर सामूहिक दबाव डालें कि वे अपनी इस भूल को सुधारें और आपके इलाके की सड़क का स्तर घटा कर उतना ही करें जो कि आपको प्लाट या मकान आवंटित करते समय दिखाया गया था | इस लड़ाई में शुरू में समस्याएं आएँगी | क्योंकि लोग ऐसे हैं कि तकलीफ सहेंगे, सरकार को कोसेंगे पर हक मांगने के लिए संगठित नहीं होंगे | ऐसे में उन्हें समझाना पड़ेगा कि नाहक तकलीफ सहने और हर दो तीन साल में अपने घर के स्तर को उठाने के खर्चे से अगर बचना है तो अपने घर के सामने की सड़क की लगातार बढती ऊँचाई को उसके मूल स्तर तक लाने के लिए संघर्ष तो करना ही पड़ेगा |

दरअसल सरकार को कोसने से ज्यादा हम सब शहरियों को आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है | आज नागरिक जीवन में, विशेषकर शहरों में जो ढेर सारी समस्याएं पनप रही हैं उनकी जड़ में छिपी है हमारी कमजोरी, उदासीनता और चरित्र का दोहरापन | हम सब अपनी समस्याओं के लिए प्रशासन को दोष देते हैं | पर क्या कभी सोचते हैं कि इन समस्याओं को पैदा करने या बढ़ाने में हमारी क्या भूमिका है ? अवैध कब्जे करना, मानकों से अधिक निर्माण करना, भवन की हवा पानी की चिंता किये बिना निर्माण करना, कुछ ऐसे काम हैं जिसके लिए सरकारी अफसरों के भ्रष्ट आचरण से ज्यादा हम ज़िम्मेदार हैं | क्योंकि हमारा रवैय्या आत्मकेंद्रित है | सामूहिक जीवन जीने की कला जो हमें पूर्वजों से ग्रामीण जीवन में मिली थी उसे शहरों में आकर हम भूल चुके हैं | कहने को हम शहरी हैं लेकिन व्यवाहर हमारा जंगलियों जैसा है | जिस तरह शहरों की आबादी बढ़ रही है और संसाधनों का टोटा पड़ रहा है, समस्याएं घटेंगी नहीं बढेंगी ही | इसिलिय हमें अपनी सोच और रवैय्या बदलना होगा |

Monday, June 27, 2016

अच्छे मानसून के बावजूद कितने निश्चिंत हैं हम ?

देश में मानसून की स्थिति पर नजर रखने वालों का ध्यान लगता है कि कहीं और लगा है। हर साल मौसम विभाग भी बहुत चैकस दिखता था। लेकिन इस बार मानसून आने के एक महीने पहले जो पूर्वानुमान मौसम विभाग ने बताए थे उसके बाद वह अपनी साप्ताहिक विज्ञप्ति जारी करने के अलावा ज्यादा कुछ बता नहीं पा रहा है। उसकी साप्ताहिक विज्ञप्तियों को देखें तो इस मानसून में अब तक औसत बारिश औसत से दस फीसद कम हुई है। जबकि मानसून के चार महीनों का अनुमान नौ फीसद ज्यादा बारिश होने का लगा था।

मानसून की अबतक की स्थिति का विश्लेषण करें तो दो अंदेशे पैदा हो गए हैं। एक यह कि अगर पूरे मानसून का अनुमान सही होने पर विश्वास करके चलें तो अब बाकी के दिनों में भारी बारिश का अंदेशा है और अगर अब तक के आंकड़ों के हिसाब से मानसून के मिजाज का अंदाजा लगाएं तो इस बार लगातार तीसरे साल  बारिश औसत से  कम होने का डर भी है।

अगर बारिश का अनुमान सही निकला तो आज की स्थिति यह है कि देश में एक साथ ज्यादा पानी गिरने से बाढ़ की आशंका सिर पर आकर खड़ी हो गई है। विशेषज्ञ जल विज्ञानी के के जैन के मुताबिक देश में सूखे पड़ने की आवृत्ति बढ़ रही है। आंकड़े बता रहे हैं कि पहले जहां 16 साल में एक बार सूखा पड़ता था वहां पिछले तीन दशकों से हर सोलह साल में तीन बार सूखा पड़ने लगा है। विशेषज्ञों की इस बात पर गौर करने का समय आ गया है कि बदलते हालात में हमें बारिश के पानी को बाकी के आठ महीनों के लिए रोक कर रखने के फौरन ही अतिरिक्त प्रबंध करने होंगे।

उधर इन विशेषज्ञों का यह अध्ययन भी ध्यान देने लायक हो गया है कि देश में जल संचयन या जल भंडारण की क्षमता बढ़ाने से हम बाढ़ की समस्या पर भी काबू पा लेंगे। अभी जो ज्यादा बारिश होने से अतिरिक्त पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में जाता है वह देश की 32 करोड़ हैक्टेयर जमीन पर जहां तहां कुंडों और पोखरों में जमा होकर नदियों को उफनने से रोक देगा और यही पानी सिंचाई की जरूरतों के दिनों में भी काम आने लगेगा। इससे बड़ी शर्मिंदगी की बात क्या हो सकती है कि किसी देश में उसी साल बाढ़ आए और उसी साल सूखा भी पड़ने लगे। सन् 2016 का यह साल इस जल कुप्रबंधन का जीता जागता उदाहरण बनने वाला है। हद की बात यह है कि वर्षा के सटीक अनुमान लगाने में सक्षम होने के बाद हमारी यह स्थिति है।

यह साल इस मायने में भी हमारी पोल खोलने जा रहा है कि अगर बाढ़ के हालात बने तो जानमाल का भारी नुकसान होगा। और अगर वर्षा का अनुमान गलत निकला, यानी पानी कम गिरा तो लगातार तीसरे साल सूखे के हालात को भुगतना पड़ेगा। तीसरी स्थिति सामान्य बारिश की बनती है। यह भी सुखद स्थिति का आश्वासन नहीं दे रही है। इसका तर्क यह है कि देश की आबादी हर साल दो करोड़ की रफ्तार से बढ़ रही है। यानी हमें हर साल डेढ़ फीसद ज्यादा पानी का प्रबंध करना ही करना है।

जल विज्ञानी बताते हैं कि अभी हमारी जल संचयन क्षमता सिर्फ 253 घन किलोमीटर पानी को रोककर रखने की है। यह पानी खेती की कुल जमीन में से आधे खेतों तक को सींचने के लिए पर्याप्त नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो खेती लायक देश की आधी से जयादा जमीन पर बारिश के भरोसे ही खेती हो रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण हो या अपने जल कुप्रबंध के कारण हो या फिर बढ़ती आबादी के कारण हो, यह बात सामने दिखने लगी है कि जरूरत के दिनों में पानी कम पड़ने लगा है।

भले ही अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के लिहाज से भारत आज जल विपन्न देशों की श्रेणी में आ गया हो, लेकिन आंकड़े बता रहे है कि अभी भी हमारे पास पांच सौ घन किलोमीटर पानी रोकने की गुंजाइश बाकी है। यानी हम अपनी जल भंडारण क्षमता दुगनी करने लायक अभी भी हैं। बस दिक्कत यही है कि जल परियोजनाओं पर खर्चा बहुत होता है। मोटा अनुमान है कि जल के संकट से उबरने के लिए कम से कम एकमुश्त पांच लाख करोड़ का निवेश चाहिए। इससे कम में अब काम इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि फुटकर-फुटकर जो काम हम इस समय कर रहे हैं वह तो बढ़ती आबादी की न्यूनतम जरूरत पूरी करने के लिए भी नाकाफी है।

इन तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस बार मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही निकलने के बाबजूद हम देश में पर्याप्त अनाज, दालों और दूसरे कृषि उत्पादन को लेकर निश्चिंत नहीं हैं। कृषि प्रधान देश में जहां दो तिहाई आबादी आज भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर हो, वहां देश की मुख्य नीति अगर कृषि को केंद्र में रखकर न हो तो आने वाले दिनों में संकट को कौन रोक सकता है ?

Monday, June 20, 2016

कमलनाथ से क्यों डरते हैं केजरीवाल ?

कमलनाथ के पंजाब का प्रभारी बनते ही केजरीवाल इतने बौखला क्यों गए ? 1984 के दंगों को भुनाने की नाकाम कोशिश में होश गवां बैठे। जिन दंगो से कमलनाथ का दूर दूर तक कोई नाता नहीं उसमें उनका नाम घसीट कर केजरीवाल ने सिर्फ अपने मानसिक दिवालियापन और हताशा का परिचय दिया।

हैरत की बात है कि आज कहीं केजरीवाल सरकार के कामकाज की बातें नहीं होतीं। केवल उनके झूंठे वायदों का बखान होता है। होती भी हैं तो वे बातें खुद केजरीवाल को ही करनी पड़ती हैं। हालत यहां तक पंहुच गई है कि केजरीवाल के प्रचार पर दिल्ली सरकार के सैंकडों करोड़ रूपये के खर्च का आंकड़ा आम आदमी को परेशान कर रहा है। काम कुछ नहीं प्रचार इतना ज्यादा। इससे ज्यादा अचंभे की क्या बात क्या हो सकती है कि जिन बातों पर हल्ला बोलकर केजरीवाल ने सत्ता कब्जाने का माहौल बनाया था वे सारी बातें आज उनके कामकाज के तरीकों से गायब हैं। एक लाइन में समीक्षा करें तो व्यापार प्रबंधन की चमत्कारी विधियों से केजरीवाल ने अपना जो ब्रांड बनाया था उसके विस्तार के लिए वे अपनी नई ब्रांच पंजाब में खोलने का प्लान बना रहे हैं।

पर केजरीवाल को अपनी सत्ता के विस्तार के लिए क्या दाव पर लगाना पड़ सकता है? क्योंकि केजरीवाल ने दिल्ली में सत्ता हथियाने के लिए जो हथियार चलाया उसकी अब परीक्षा होगी। दिल्ली में विकास की पर्याय बन चुकीं शीला दीक्षित को उखाड़ना आसान नहीं था। लेकिन सब जानते है कि अन्ना के आंदोलन के जरिए केंद्र की यूपीए को उखाडने के लिए जो आंदोलन चलवाया गया था उसने दरअसल कांग्रेस के खिलाफ ही बिसात बिछाई थी। सत्ता के खेल की बहुत ही मजेदार बात है कि उस समय कांग्रेस विरोधी ताकतों ने आंख बंद करके अन्ना और उनके केजरीवाल जैसे अतिमहत्वकांशी कार्यकर्ताओं की पीठ पर हाथ रख दिया था। यूपीए को येन केन प्राकारेण सत्ता से बेदखल करने के लिए जो खेल चला वो  धीरे धीर बेपर्दा जरूर हो गया हो, लेकिन केजरीवाल इस सबके बीच बड़ी चालाकी से और अपने सभी विश्वसनीय साथियों को दगा देकर, केवल अपनी निजी हैसियत बनाकर, दिल्ली की कुर्सी पर काबिज होने में सफल हो ही गए। सारी दिल्ली ठगी गयी। जो उसे आज समझ आ रहा जब दिल्ली के हालात बाद से बदतर हो गए हैं।

इसलिए दिल्ली से उचक कर पंजाब जाने की जुगत में केजरीवाल को सबसे बड़ी दिक्कत आ रही है कि दिल्ली में अगर कुछ बोलेंगे तो फौरन उनके कामकाज का मूल्यांकन होगा ही। जिसमें वो बगलें झांकेंगे। भ्रष्टाचार के मुददे का नारा लगाकर जो आंदोलन उन्होंने चलाया था, उसे याद दिलाया जाएगा, तो भी वो बेनकाब होंगे।

इसी संभावना के डर से वे दिल्ली के अखबारों में भारी विज्ञापन करवाने में लगे रहे कि पुल और सड़को के काम सस्ते में करवा कर उन्होंने सरकारी खजाने का कितना पैसा बचवा दिया। लेकिन उनकी पोल तब खुली जब दिल्ली में सफाई और बिजली के इंतजाम तक के लिए पैसों का टोटा पड़ गया। विकास के दूसरे कामों के लिए वे योजनाएं तक नहीं बना पाए। उपर से दिल्ली में ऑड-ईवन की नौटंकी के बावजूद बढ़ते प्रदूषण ने केजरीवाल सरकार की पोल खोल दी।

केजरीवाल को लगा होगा कि प्रचार तंत्र से वे सब संभाल लेंगे। लेकिन मोटी फीस लेकर, देश विदेश में केजरीवाल की छवि बनाने के ठेकेदार या मीडिया मेनेजर शायद ये भूल गए कि प्रचार से आपको कुछ दिन तक तो बेचा जा सकता है।पर असल में तो आपके काम को ही परखा जाता है। मतलब ये कि पंजाब में घुसने के पहले केजरीवाल को दिल्ली में अपनी उपलब्ध्यिों की प्रचार सामग्री बनवानी पड़ेगी। लेकिन इसमें अड़चन यह है कि कांग्रेस के खिलाफ सड़कों पर ताबड़तोड़ ढंग से चलाये उनके प्रचार अभियान को जुम्मे जुम्मे दो साल ही हुए हैं। सो इतनी जल्दी उसे भुलाना आसान नहीं होगा। जो तब ढोल पीट-पीट कर कहा था वो कुछ किया नहीं। काठ की हंडिया बार-बार नहीं चढ़ती। दिल्ली में चढ़ चुकी काठ की हंडिया पंजाब में फिर से चढ़ा देने की बात उनके देशी विदेशी विशेषज्ञ कतई नहीं सोच सकते। अगर इस्तीफा न देते तो कमलनाथ पंजाब में केजरीवाल को शीशा दिखा देते। इसलिए कमलनाथ के नाम से केजरीवाल पेट में हुलहुली हो गयी।

इन्ही सब कारणों से केजरीवाल ने पंजाब में नशे का शोर मचाकर चुनाव में नया मुद्दा पेश किया है। पर इसके बारे में बॉलीवुड और वहां की मौजूदा सरकार के बीच जो विवाद खड़ा हो गया है उसमें केजरीवाल के घुसने की गुंजाइश ही नहीं बची। फिल्मी कलाकारों को छोटे मोटे लालच में फंसाना आसान नहीं होता। राजनीति के चक्कर में उनका शौक और धंधा दोनों चैपट हो जाते हैं। इसके तमाम उदाहरण उनके सामने  हैं।

रही बात पंजाब में राजनीतिक समीकरण की। तो यह सबके सामने है कि वहां दो ध्रुवीय राजनीति ही है। कांग्रेस के सो कर उठने की संभावना बनती है तो हाल फिलहाल पंजाब में ही बनती है। ऐसे में केजरीवाल वहां सत्तारूढ़ दलों के खिलाफ माहौल को भुनाने में लगेंगे तो मुश्किल यह ही है कि कांग्रेस के खिलाफ भी प्रचार करना पड़ेगा। ऐसा करते समय केजरीवाल कितने भी हथकंडे क्यों न अपनाये आसानी से बेनकाब हो जायेंगे। इसी का उन्हें आज खौफ है। अंदरखाने से जो खबरें मिल रही है उसके मुताबिक केजरीवाल अगर जीत गए तो एलानिया तरीके से दिल्ली को अपने किसी विश्वसनीय दोस्त को सौंपकर पंजाब जाने का फैसला कर सकते हैं। सवाल उठता है कि उन्हें इतनी जल्दी पैर पसारने की जरूरत क्यों पड़ रही है? दरअसल सिद्धान्त तो केजरीवाल के लिए सत्ता पाने के हथकंडे हैं। इसलिए उन्हें दिल्ली में अपनी पोल पूरी तरह से खुलने से बचना है ताकि  सत्ता की हवस पूरी हो सके। पर कोई भी कारोबार बहुत देर तक एक ही मुकाम पर खड़ा नहीं रह सकता। उतार चढ़ाव आते ही हैं। केजरीवाल का कहीं वो हाल न हो कि छब्बे बनने के चक्कर में चैबे जी दुबे बनकर लौट आए।

Monday, June 13, 2016

कुरान, ग्रंथसाहब व शास्त्रों को मानने वाले शराब क्यों पीते हैं ?

अन्ना हजार ने फौज की वर्दी उतारकर अपने गांव रालेगढ़ सिद्धी को सबसे पहले शराबमुक्त किया। क्योंकि परिवारों में दुख, दारिद्र और कलह का कारण शराब होती है। पर उनके ही स्वनामधन्य शिष्य दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दिल्ली में महिलाओं के लिए विशेष शराब की दुकानें खोल रहे हैं। जहां केवल महिलाएं शराब खरीदकर पी सकेंगी। जबकि वे खुद पंजाब, राजस्थान, गोवा, बिहार राज्यों में जाकर नीतीश कुमार के साथ और अपनी पार्टी की ओर से शराब के विरोध में जनसभाएं कर रहे हैं। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। हर राजनेता के दो चेहरे होते हैं। केजरीवाल अब राजनेता बन गए हैं, तो उन्हें अधिकार है कि कहें कुछ और करें कुछ।

पर सवाल उठता है कि हमारी मौजूदा केंद्रीय सरकार, जो सनातन धर्म के मूल्यों का सम्मान करती है। उसकी शराबनीति क्या है ? ये तो मानी हुई बात है कि इस तपोभूमि भारत में विकसित हुए सभी धर्म जैसे सनातन धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सिख धर्म आदि हर किस्म के नशे का विरोध करते हैं। हमने आजादी की एक लंबी लड़ाई लड़ी। क्योंकि हम विदेशी भाषा से, विदेशियों की गुलामी से, शराब से और गौवंश की हत्या से आजादी चाहते थे। आजादी की लड़ाई में भारत के हर बड़े नेता और क्रांतिकारी ने भारत को शराबमुक्त बनाने का सपना देखा और वायदा भी किया। पर आज आजादी के 68 साल बाद भी देश का शराबमुक्त होना तो दूर शराब का मुक्त प्रचलन होता जा रहा है। मंदिर हो या गुरूद्वारा, मस्जिद हो या मठ, स्कूल हो या अस्पताल, सबके इर्द-गिर्द शराब की दुकानें धड़ल्ले से खुलती जा रही हैं। सरकार की आबकारी नीति शराब से कमाई करने की है। जबकि सच्चाई यह है कि शराब इस देश के करोड़ों गरीब लोगों को बदहाली के गड्ढे में धकेल देती है। कितनी महिलाएं और बच्चे शराबी मुखिया से प्रताड़ित होते हैं। गरीब मजदूर शराब पीकर असमय काल के गाल में चले जाते हैं। शराब की मांग को देखते हुए नकली शराब का कारोबार खुलकर चलता है और अक्सर सैकड़ों जानें चली जाती हैं।

देश की आधी आबादी महिलाओं की है, जो शराब नहीं पीती। 25 फीसदी आबादी बच्चों की है, जो शराब नहीं पीते। कुल देश की 25 फीसदी आबादी बची, जिसमें हम और आप जैसे भी बहुत बड़ी तादाद में हैं, जो शराब को छूते तक नहीं। कुल मिलाकर बहुत थोड़ा हिस्सा होगा, जो शराब पीता है। पर उस थोड़े से हिस्से के कारण पूरा समाज बर्बाद हो रहा है। महात्मा गांधी ने कहा था कि, ‘अगर मैं तानाशाह बन जाऊं, तो 24 घंटे के अंदर बिना मुआवजा दिए सारी शराब दुकानें बंद कर दूंगा।’, वही महात्मा गांधी, जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर यूपीए की अध्यक्षा सोनिया गांधी तक राष्ट्रपिता कहती हैं। हम अपने राष्ट्रपिता की कैसी संतान हैं कि उनकी भावनाओं की कद्र करना भी नहीं सीखे।

आज पंजाब में सबसे ज्यादा शराब का प्रचलन है। पर सिख धर्म को प्रतिपादित करने वाले मध्ययुगीन संत गुरूनानकदेव जी कहते हैं कि, ‘नाम खुमारी नानका, चढ़ी रहे दिन-रात, ऐसा नशा न कीजिए, जो उतर जाए परभात’। तुम शराब पीते हो, तो सुबह को तुम्हारा नशा उतर जाता है। पर एक बार भगवतनाम का नशा करके तो देखो, जिंदगीभर नहीं उतरेगा। हमारा कौन-सा धर्म ग्रंथ या धर्मगुरू ऐसा है, जो हमें शराब पीने की इजाजत देता है। ये रमजान का पाक महीना है और इस्लाम में शराब हराम है।

इस लेख को कश्मीर को कन्याकुमारी और गुजरात से असम तक अलग-अलग अखबारों में पढ़ने वाले मुसलमान भाई अपने सीने पर हाथ रखकर बताएं कि क्या उनमें से सभी ऐसे हैं, जिन्होंने कभी शराब नहीं पी ? अगर पीते हो, तो अपने को मुसलमान क्यों कहते हो ? शराबी न मुसलमान हो सकता है, न सिख हो सकता है, न हिंदू हो सकता है, न बौद्ध हो सकता है और न ही जैन हो सकता है। शराबी तो केवल एक हैवान हो सकता है। विड़बना देखिए कि हमारी सरकारें इंसान को देवता बनाने की बजाए हैवान बनाती हैं। दिनभर कमा। शाम को दारू पी। अपने घर जाकर औरत को पीट। बच्चों को भूखा मार और फिर बीमार पड़कर इलाज के लिए अपना घर भी गिरवी रख दे। जिससे शराब बनाने वालों की तिजोरियां भर जाएं। इतना ही नहीं, जहां शराब बनती है, वहां शराब के कारखानों से निकलने वाला जहर आसपास की नदियांे और पोखरों को जहरीला कर देता है। पर्यावरण को नष्ट कर देता है। पर हमारा पर्यावरण मंत्रालय इतना उदार है कि वो धृतराष्ट्र की तरह आंखों पर पट्टी बांधकर शराब के कारखानों को बेदर्दी से पर्यावरण का विनाश करने की खुली छूट देता है।

पर्यावरण मंत्रालय ही नहीं, खाद्य मंत्रालय भी इस साजिश का हिस्सा है। जान-बूझकर सरकारी गोदामों में खाद्यान्न को सड़ने दिया जाता है। फिर इस सड़े हुए अनाज को मिट्टी के दाम पर शराब निर्माताओं को बेच दिया जाता है। जो इस सड़े अनाज से शराब बनाते हैं और अरबों रूपया कमाते हैं। 

इस दिशा में एक सार्थक पहल ‘इंसानियत धर्म संगठन’ ने की है, जो देश के सभी धर्म के गुरूओं, संतों, सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित लोगों और विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं को एक मंच पर लाकर ‘शराबमुक्त भारत’ का अभियान चला रहा है। इस अभियान के संयोजक दास गौनिंदर सिंह कहते हैं कि, ‘यह चुनौती तो हमारे दबंग प्रधानमंत्री के सामने है, जो खुद आस्थावान हैं और शराब को हाथ नहीं लगाते और डंके की चोट पर जो चाहते हैं, वो कर देते हैं। उन्होंने गुजरात में शराब पहले ही प्रतिबंधित कर रखी थी, उन्हें अब इस नई जिम्मेदारी के साथ शराब की भयावहता को समझकर इसके अमूल-चूल नाश की कार्ययोजना बनानी चाहिए। ऐसा किया तो देश की तीन चैथाई आबादी मोदीजी के पीछे खड़ी होगी।’

Monday, June 6, 2016

सोच बदलने की जरूरत

नरेन्द्र भाई मोदी के अधीन काम करने वाले अफसर हर वक्त अपने पंजों पर खड़े रहते है। क्योंकि उन्हें हर काम लक्ष्य से पहले और अच्छी गुणवत्ता का चाहिए। देश की सांस्कृतिक धरोहरों के जीर्णोंद्धार, संरक्षण और संवर्धन के लिए मोदी सरकार ने कई योजनाएं शुरू की है। पर अफसरशाही की दकियानूसी के चलते पुराने काम के ढर्रे में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है। पहले भी फाइलें ज्यादा दौड़ती थी और जमीन पर काम कम होता था। आज भी वहींे हालत है। इसका एक कारण तो यह है कि केन्द्र सरकार के अनुदान का क्रियान्वयन प्रान्तीय सरकारें करती है। जिन पर केन्द्र सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता। दूसरा कारण यह है कि अलग-अलग राज्यों में भ्रष्टाचार के स्तर अलग-अलग है। किसी राज्य में 100 में 70 फीसदी खर्च होता है। बाकी कमीशन और प्रशासनिक व्यय में खप जाता है। जबकि ऐसे भी राज्य हैं जहां 70 से 80 फीसदी रूपया केवल कमीशन और प्रशासनिक व्यय में खपता है। बचे 20 फीसदी में से 10 फीसदी ठेकेदार का मुनाफा होता है यानि 100 रूपये में से 16 रूपया ही जमीन तक पहुंचता है।
    1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने यही बात कहीं थी। तब उनके इस वक्तव्य को बहुत हिम्मत का काम माना गया था। क्योंकि आजादी के बाद पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने इस हकीकत को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था। दुख की बात यह है कि आज 32 साल बाद भी हालात बदले नहीं है। सवाल है क्या मोदी जी को इसकी जानकारी नहीं है ? क्या उनके पास इसका कोई हल नहीं है ? क्या इस हालत को बदलने की उनमें इच्छाशक्ति नहीं है ? तीनों ही प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक है। जानकारी भी होगी, हल भी है और इच्छाशक्ति भी है। केवल रूकावट है तो नौकरशाही के औपनिवेशिक रवैये की। जो वैश्वीकरण के इस दौर में भी यह मानने को तैयार नहीं कि उससे बेहतर सोच और समाधान आम लोगों के पास भी हो सकते है। इसलिए नौकरशाही कोई भी नये विचार को अपनाने को तैयार नहीं है। एक दूसरा कारण केन्द्रीय सतर्कता आयोग की लटकती तलवार भी है। जो हर ऐसे नवीन कदम या पहल पर निहित स्वार्थ का आरोप लगाकर जोखिम उठाने वाले अफसर को तलब कर सकता है। इसलिए कोई अफसर नये प्रयोगों का जोखिम उठाना नहीं चाहता।
    पर मोदी जी के बारे में गुजरात के दिनों में यह शोहरत थी कि वे किसी भी अच्छा काम करने वाले को कहीं से भी ढूंढकर पकड़ लाते है और फिर अपनी नौकरशाही को उस व्यक्ति के अनुसार कार्य करने की हिदायत देते है। नतीजतन काम बढ़िया भी होता है और उसकी गुणवत्ता पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता।
    सरकार के अलावा निजी क्षेत्र में या निजी रूप में अद्भुत कार्य कर चुके लोगों की कमी नहीं है। देश के विकास में अपने बूते पर योगदान देने वालों की संख्या अच्छी खासी है। ये वो लोग हैं जिन्होंने कई दशाब्दियों से सामाजिक स्तर पर विभिन्न-विभिन्न क्षेत्रों में अपने अभिनव प्रयोगों, निस्वार्थ कर्मयोग और समाज के प्रति संवेदनशीलता के साथ बहुत बड़े-बड़े काम किये हैं। पर ऐसे लोगों को नौकरशाही का तंत्र नापसन्द करता है। क्योंकि उसे उनकी सफलता देखकर अपना अस्तित्व खतरे में नजर आता है। इसलिए जरूरी है कि मोदी जी कुछ पहल करें।
    प्रधानमंत्री कार्यालय के पास हर ऐसे व्यक्ति के बारे में सूचना का भण्डार है और अगर उसमें कुछ कमी है तो वे अपने प्रभाव से उस सूचना को कहीं से भी मंगा सकते है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रधानमंत्री ऐसे अलग-अलग क्षेत्रों के महारथी, स्वयंसेवकों को अपने पास बुलायें और उनसे उनके अनुभव के आधार पर समाधान पूछें और उन समाधानों को लागू करने में अपनी पूर्णक्षमता का प्रयोग करें। इस नूतन प्रयोग से लक्ष्य भी पूरे होंगे और पारदर्शिता भी आयेगी।
    पुरातात्विक संरक्षण के क्षेत्र में, बिना सरकार की आर्थिक मदद के हमारी संस्था ब्रज फाउण्डेशन ने भी ब्रज क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य किये है। जिनकी जानकारी प्रधानमंत्री जी को हैं। क्योंकि वे हमारे काम में लम्बे समय से रूचि लेते रहे है। इस लेख के माध्यम से मैं उन तक यह बात पहुंचाना चाहता हूं कि बिना लालफीताशाही को काटे भारत को मजबूत राष्ट्र बनाने का उनका सपना पूरा नहीं हो सकता। मोदी सरकार को चाहिए कि ऐसे नामचीन लोग जो कभी किसी लाभ के लालच में सत्ता के गलियारों में चक्कर नहीं लगाते, उनको बुलाकर उनकी बात सुनें और इस समस्या का स्थायी हल ढूढ़े। जिससे जनता के पैसे का दुरूपयोग रूके और समाज के हित में कुछ ठोस काम हो जायें।

Monday, May 30, 2016

हर आदमी चाहता है कि मोदी वो सब कर दें जो अब तक कोई नहीं कर पाया

मोदी सरकार के दो साल पूरे होने पर जहाँ एक तरफ सरकार जश्न मना रही है वहीं विपक्षी सरकार को कटघरे में खड़ा करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं, पर अभी तक कामयाब नहीं हुए। हम बेबाकी से यहाँ उन बातों की चर्चा करें जिनकी चर्चा आम तौर पर नहीं की जा रही। दिल्ली के हर पाँच सितारा होटल की लाॅबी में पिछले दो साल से सन्नाटा पसरा है। आप सोचेगें कि इसका मोदी सरकार से क्या मतलब। गहरा मतलब है। दो साल पहले ये लाॅबियाँ दिल्ली के तमाम दलालों और देशभर के व्यापारियों, उद्योगपतियों और अच्छी पोस्टिंग की इच्छा लेकर आने वाले अफसरों से भरी रहती थी। इन लाॅबियों में अरबों रुपये के बेनामी लेन-देन हो जाते थे। नरेन्द्र मोदी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसी लगाम कसी कि दलालों के धन्धे चैपट हो गये। क्योंकि अब कोई यह दावा नहीं कर सकता कि वो इस सरकार में काम करवा सकता है। आपको याद होगा जब एक केन्द्रिय मंत्री ने प्रधान मंत्री के मित्र माने जाने वाले मुकेश अम्बानी के साथ किसी पाँच सितारा होटल में मुलाकात की तो उन्हें ऐसा ना करने की कड़ी हिदायत प्रधान मंत्री से मिली। यह बाकी सब मंत्रियों के लिए संकेत था।

    इस मुहिम का नकारात्मक पक्ष यह है कि अब उद्योग जगत और व्यापार से जुड़े बड़े लोग परेशान हैं कि उनके जा-बेजा काम नहीं हो रहे। उनकी शिकायत है कि इससे आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ गयी है। उनका मानना है कि काले धन का सरकुलेशन और मोटी रिश्वत का टाॅनिक पीकर ही अर्थ व्यवस्था तेजी से आगे बढ़ती है। जबकि मोदी सरकार का इरादा प्रशासन को जनोन्मुखी व पारदर्शी बनाने का है। अब देखना ये होगा कि आगामी 3 वर्षों में किसका पलड़ा भारी रहता है। 

    इसी क्रम में यह उल्लेख करना भी जरुरी है कि ऊपर के भारी भ्रष्टाचार को नियन्त्रित करने के बावजूद जमीन तक आज भी रुपये में 15 पैसे पहुँच रहे हैं। जिसके दो कारण हैं- एक तो नौकरशाही के चले आ रहे ढ़ाँचे में किसी भी क्रान्तिकारी परिवर्तन का अभाव। दूसरा गुणवत्ता बढ़ाने के नाम पर अनावश्यक रुप से अनेक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के कन्सल्टेंट्स की हर मंत्रालय में नियुक्ति। अफसरशाही आज भी अपने अहंकार और अहमकपन से फैसले ले रही है। सच को तथ्यों के साथ सामने रखने पर भी वह सुनने और बदलने को तैयार नहीं है। परिणामतः कितनी भी नई योजनाएँ शुरु क्यों न हो जाये, जम़ीन पर उनका क्रियान्वयन राज्य सरकारों के पुराने रवैये के कारण पहले की तरह ही कागजी ज्यादा हो रहा है। पता नहीं प्रधान मंत्री तक यह बात पहुँच रही है या नहीं। अन्तर्राष्ट्रीय कन्सल्टेंट्स मोटी रकम वसूल रहे हैं और मोटा वेतन पाने वाले आला अफसर उनके जिम्मे काम सौंपकर अपने फर्ज से बच रहे हैं। जबकि इन अन्तर्राष्ट्रीय कन्सल्टेंट्स कि समझ जमीनी हकीकत के बारे में ना के बराबर है। प्रायः इनके सुझाव बेतुके और अव्यवहारिक होते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इस देश के अनुभवसिद्ध लोगों की सलाह मानी जाए। जिससे कम लागत में ठोस काम हो सके। पर ऐसी नीति ज्यादातर ताकतवर लोगों को रास नहीं आती इसलिए वे ढ़ाँचागत परिवर्तन का हमेशा विरोध करते हैं। क्योंकि इससे उनके अस्तित्व पर संकट आ जाता है। साथ-ही बड़ी लूट करने की गुंजाइश नहीं बचती। नीति आयोग के सी.ई.ओ. अमिताभ कान्त को मैंने इस विषय पर सोचने और काम करने की सलाह दी है। वरना मोदी जी के कई अच्छे प्रयास जमीन तक नहीं पहुँच पाएगें।

    केन्द्र सरकार की अफसरशाही नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली से भी बहुत त्रस्त है। वे न तो खुद आराम करते हैं और न अफसरों को गोल्फ खेलने और मौज-मस्ती करने का समय देते हैं। नतीजतन बहुत सारे अफसर अपने गृहराज्य लौटने को बेताब हैं। मोदी जी को चाहिए कि अफसरशाही के सामने लक्ष्य निर्धारित करने, उन्हें समय पर पूरा करने और गुणवत्ता सूनिश्चित करने के लिए व्यक्तिगत रुप से जिम्मेदार ठहरा दें। कोताही करने वालों को कड़ी सजा देने का प्रावधान कर दें। इसके साथ-ही अपने इतिहास के अनुरुप वे समाज में हर अच्छा काम करने वाले व्यक्ति को बुलाकर पूछें की तुम जो करना चाहते हो उसके रास्ते में क्या अड़चन है और उस अड़चन को दूर करने की पहल करें।

    यह सही है कि राज्य सभा में बहुमत के अभाव में राजग सरकार अपने विधेयक पारित नहीं करवा पा रही है, पर जहाँ संभव है वहाँ तो नीतियों और निर्देशों को स्पष्ट करके बहुत बड़ा काम करवाया जा सकता है। जिन नीतियों को आज बदलने की जरूरत है। जिससे हर काम गति से हो सके। जिन विभागों में ऐसा करना सम्भव हो वहाँ तो यह कवायद चालू की जाय। उधर देश के कुछ टी.वी. चैनल, जो रात-दिन राज्य सभा की सीट के लालच में मोदी सरकार का यशगान करने में जुटे हैं, उनसे मोदी जी को कोई लाभ नहीं मिलने वाला। क्योंकि जनता जमीन पर परिवर्तन देखना चाहती है। जरूरत इस बात की है कि इन टी.वी. चैनलों पर विचारोत्तेजक और गंभीर कार्यक्रम हों जिनमें देश के नागरिकों की सोच और प्राथमिकताएं बदलने की क्षमता हो। यह कार्य करने में ये चैनल असफल रहै  हैं ।

    हमने कई बार यहाँ लिखा है कि मौर्य सम्राट अशोक भेष बदल कर जनता के बीच जाता और उसकी राय गोपनीय तरीके से जान जाता। इससे उसे अपना शासन चलाने में बहुत मदद मिली। पर मोदी सरकार के दो साल हो गये ऐसा न्यौता शायद ही किसी ऐसे व्यक्ति के पास आया हो, जो अपनी राय खुल कर दे सके। मोदी जी को इस बारे में अपना तंत्र और सुधारना चाहिए। ‘निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय। बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय’। आज देश में मोदी की टक्कर का सशक्त नेता दूसरा नहीं है। इसलिए हर आदमी चाहता है कि मोदी वो सब कर दें जो अब तक कोई नहीं कर पाया।

Monday, May 23, 2016

कुंभ मेरी नजर में

भगवत गीता में भगवान अर्जुन को बताते हैं कि उनकी शरण में 4 तरह के लोग आते हैं, आर्त, अर्थारतु, जिज्ञासु व ज्ञानी। यह सिद्धांत हाल ही में संपन्न हुए सिंहस्थ कुंभ में बहुत साफतौर पर उजागर हुआ। एक तरफ उन लाखों लोगों का समूह वहां उमड़ा, जो अपने जीवन में कुछ भौतिक उपलब्धि हासिल करना चाहते हैं। कुंभ में आकर उन्हें लगता है कि उनके पुण्य की मात्रा इतनी बढ़ जाएगी कि उनके कष्ट स्वतः दूर हो जाएंगे।
दूसरी भीड़ उन साधन संपन्न सेठ और व्यापारियों की थी, जो अपने व्यापार की वृद्धि की कामना लेकर कुंभ में विराजे हुए संतों के अखाड़ों में नतमस्तक होते हैं। तीसरी भीड़ उन लोगों की थी, जो वहां इस उद्देष्य से आए थे कि उन्हें संतों का सानिध्य मिले और वे भगवान के विषय में कुछ जानें और अंतिम श्रेणी में वे लोग वहां थे, जिन्हें संसार से कुछ खास लेना-देना नहीं। उनको तो धुन लगी है, केवल भगवत प्राप्ति की। स्पष्ट है कि चारों श्रेणी के लोगों को अपनी मनोकामना पूर्ण होती दिखी होगी, तभी तो वे ऐसे हर कुंभ या उत्सव में कष्ट उठाकर भी शामिल होते हैं।
जो बात इस बात कुंभ में उभरी, वो यह कि कुंभ अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है। पहले कुंभ एक मौका होता था, जहां सारे देश के संत-महात्मा और विद्वतजन बैठकर उन प्रश्नों के समाधान खोजते थे, जिनमें प्रांतीयस्तर पर हिंदू समाज उद्वेलित रहता था। कुंभ से जो समाधान मिलता था, वह सारा देश अपना लेता था। अब शायद ऐसा कुछ नहीं होता और अगर होता भी है, तो उसका स्वरूप आध्यात्मिक कम और राजनैतिक ज्यादा होता है। यही बात अखाड़ों पर भी लागू होती है। शुद्ध मन से कुंभ आने वाले संत अपनी साधना में जुटे रहते हैं, उनके अखाड़ों में वैभव की छाया भी नहीं रहती। पर दूसरी तरफ इतने विशाल और वैभवशाली अखाड़े बनते हैं कि 5 सितारा होटल के निर्माता भी शर्मा जाएं। इस प्रकार की आर्थिक असमानता कुंभ के सामाजिक ताने-बाने को असंतुलित कर देती है, जिसकी टीस कई संतों के मन में देखी गई।
कलियुग का प्रभाव कहकर हम भले ही अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लें, पर हकीकत यह है कि अपने सभी तीज-त्यौहारों का स्वरूप अब व्यवसायिक होता जा रहा है। कुंभ में इसका प्रभाव व्यापक रूप से देखने को मिलता है। यह स्वस्थ लक्षण नहीं है। इस पर सरकार को या धर्माचार्यों को विचार करके पूरे कुंभ का स्वरूप आध्यात्मिक बनाना चाहिए। अन्यथा कुंभ और शहरों में लगने वाली आम नुमाइंशों में कोई भेद नहीं रह जाएगा।
यह सही है कि हम सब इतने सुविधाभोगी हो गए हैं कि सरलता का जीवन अब हमसे कोसों दूर हो गया है। जबकि तीर्थ जाना या कुंभ में जाना तपस्यचर्या का एक भाग होना चाहिए, तभी हमारी आध्यात्मिकता चेतना और सांस्कृतिक विरासत सुरक्षित रह पाएगी।

हमेशा से कुंभ के बारे में अंतिम निर्णय अखाड़ा परिषद् का रहता है। यह बात सही है कि सरकारें हजारों करोड़ रूपया कुंभ के आयोजन में खर्च करती हैं, पर वह तो उनका कर्तव्य है।
यही बात व्यवसायिक प्रतिष्ठानों को भी सोचनी चाहिए कि हर चीज बिकाऊ माल नहीं होती। कम से कम धर्म का क्षेत्र तो व्यापार से अलग रखें। कुंभ ही क्या, आज तो हर तीर्थस्थल पर भवन निर्माताओं से लेकर अनेक उपभोक्ता सामिग्री बेचने वालों ने कब्जा कर लिया है। जो अपने विशाल होर्डिंग लगाकर उस स्थान की गरिमा को ही समाप्त कर देते हैं। इसका विरोध समाज की तरफ से भी होना चाहिए। तीर्थस्थलों व कुंभस्थलों पर जो भी विज्ञापन हों, वो धर्म से जुड़े हों। उसके प्रायोजक के रूप में कोई कंपनी अपना नाम भले ही दे दे, पर अपने उत्पादनों के प्रचार का काम बिल्कुल नहीं करना चाहिए। इससे आने वाले श्रद्धालुओं का मन भटकता है और उनके आने का उद्देश्य कमजोर पड़ता है।
दरअसल धार्मिक और आध्यात्मिक संस्कार हमारी चेतना का अभिन्न अंग हैं। समाज कितना भी बदल जाए, राजनैतिक उठापटक कितनी भी हो ले, व्यक्तिगत जीवन में भी उतार-चढ़ाव क्यों न आ जाएं, पर यह चेतना मरती नहीं, जीवित रहती है। यही कारण है कि तमाम विसंगतियों के बावजूद मानव सागर सा ऐसे अवसरों पर उमड़ पड़ता है, जो भारत की सनातन संस्कृति की जीवंतता को सिद्ध करता है।
आवश्यकता इस बात की है कि सभी धर्मप्रेमी और हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले राजनैतिक लोग अपने उत्सवों, पर्वों और तीर्थस्थलों के परिवेश के विषय में सामूहिक सहमति से ऐसे मापदंड स्थापित करें कि इन स्थलों का आध्यात्मिक वैभव उभरकर आए। क्योंकि भारत का तो वही सच्चा खजाना है। अगर भारत को फिर से विश्वगुरू बनना है, तो उपभोक्तावाद के शिकंजे से अपनी धार्मिक विरासत को बचाना होगा। वरना हम अगली पीढ़ियों को कुछ भी शुद्ध देकर नहीं जाएंगे। वह एक हृदयविदारक स्थिति होगी।

Monday, May 16, 2016

साम्यवादी निष्पक्ष चिंतन करें

क्षिप्रा नदी के तट पर सिंहस्थ कुंभ में दुनियाभर के आस्थावान लोगों का सागर उमड़ पड़ा है। इतने विशाल जनसमूह की आवश्यकताओं को देखते हुए मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने प्रशंसनीय व्यवस्थाएं की हैं, जिसके लिए वो बधाई की पात्र है। यहां आए सभी संतों को केंद्र सरकार से दो अपेक्षाएं हैं, एक तो यथाशीघ्र राम मंदिर का निर्माण हो और दूसरा गौ-हत्या प्रतिबंधित हो। दोनों ही मांगें सर्वथा उचित और चिरअपेक्षित हैं। पर अब तक केंद्र में ऐसी कोई सरकार नहीं रही, जो संवेदनशीलता से इन मांगों पर कुछ करती। पहली बार संतों को लग रहा है कि इरादे के पक्के और आस्थावान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रहते अगर यह काम नहीं हुआ, तो फिर भविष्य में न जाने कितने दिन टले। 

भारत के लोकतंत्र का यह दुर्भाग्य है कि यहां बहुमत सरकार लेकर भी नरेंद्र मोदी वह सब नहीं कर सकते, जो एक राजतंत्र में करना बहुत सरल होता है। राजा प्रजा की भावना को समझकर तुरंत निर्णय ले सकता है, लेकिन लोकतंत्र का चुना हुआ प्रधानमंत्री अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दबावों के तहत काम करता है। इसलिए कई बार चाहते हुए भी वो सब नहीं कर पाता, जिसकी उससे अपेक्षा की जाती है। 

इन दोनों ही सवालों पर मेरा गत 30 वर्षों से पूरा समर्थन रहा है। पर मुझे लगता है कि ये मुद्दे राजनैतिक नहीं हैं। चुनावी भी नहीं हैं, क्योंकि जब इनको राजनीति से जोड़ा जाता है, तब ये और उलझ जाते हैं। ये बात सही है कि राम जन्मभूमि आंदोलन से भाजपा को भारत में बड़ा जनाधार मिला, लेकिन उसके बाद इस मुद्दे की राजनैतिक सार्थकता समाप्त हो गई। प्रमाण सामने है कि जब-जब इस मुद्दे को लेकर भाजपा ने राजनीति करनी चाही, तब-तब परिणाम अपेक्षित नहीं रहे। इसलिए चाहे उत्तर प्रदेश का भावी चुनाव हो या अन्य किसी राज्य में, इन मुद्दों को अगर चुनाव से हटकर भारत के सांस्कृतिक उत्थान के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया जाए, तो इनके सफल होने की ज्यादा संभावना है। 

देशी गाय की सार्थकता, उसका वैज्ञानिक महत्व, उससे किसान को आर्थिक लाभ और बिना किसी धर्म के भेद के हर किसी व्यक्ति को होने वाले स्वास्थ्य लाभ, कुछ ऐसे स्वयंसिद्ध तथ्य हैं, जिनके कारण देशी गाय की हत्या पर प्रतिबंध अविलंब लगना चाहिए। मुसलमान हों, कम्युनिस्ट हों या गैर-भाजपाई राजनैतिक दल हों, किसी को भी इस मुद्दे पर राजनीति नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जो ऐसी राजनीति कर रहे हैं, वे या तो देशी गाय के इन गुणों से परिचित नहीं हैं या फिर परिचित होकर भी वे अपनी राजनीति के कारण गौहत्या प्रतिबंध को समर्थन नहीं देना चाहते। अगर यह वृत्ति है, तो मेरी दृष्टि में यह समाजद्रोह ही नहीं, देशद्रोह से कम नहीं है। मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अपने सहपाठी रहे कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी से एक प्रश्न पूछना चाहता हूं, क्या तुमने देशी गाय के मूत्र के रोगों में उपयोग पर कोई जानकारी हासिल की है ? क्या तुमने देशी गाय के गोबर की खाद की कृषि के लिए उपयोगिता पर उपलब्ध वैज्ञानिक अध्ययनों को देखा है ? क्या तुमने गोरस के फायदों को जाना है ? अगर नहीं, तो खुले दिमाग से जान लो। अगर जानते हो, तो फिर तुम किस मुंह से गौहत्या का समर्थन करते हो ? कम्युनिस्ट हों या मुसलमान, जब तक वे अपनी राजनीति और धर्मांधता के चलते इन तथ्यों से मुंह मोड़ते रहेंगे, तब तक भारत का बहुसंख्यक समाज दारिद्र में जीता रहेगा। क्योंकि भारत सोने की चिड़िया था, जब इन मूल्यों का समाज में सम्मान था। जब से हमने भारत के इस ऋषिजन्य ज्ञान को तिलांजलि देकर औपनिवेशिक शासकों का थोपा हुआ पश्चिमी ज्ञान और जीवनशैली को अपनाया है, तब से हमारा समाज गरीब, बीमार, दुखी और त्रस्त होता चला गया है। 

कार्ल माक्र्स की तरह अगर आपको सर्वहारा की चिंता है, तो सर्वहारा के हित में आप लोगों को चाहिए कि गौवंश आधारित जीवनशैली अपनाने का संदेश सर्वहारा को दें। कार्ल माक्र्स ने अपना सिद्धांत प्रतिपादित करने के लिए जवानी के दो दशक पुस्तकों के ढेर में बिता दिए। उन्हें भारत की इस सार्वभौमिक संस्कृति को जानने का समय ही नहीं मिला। अगर मिलता तो वे अपने ग्रंथ ‘कैपिटल’ में एक अध्याय लिखते कि, ‘दुनिया के मजदूरो  अगर सुख से जीना चाहते हो, तो भारत की देशी गाय को जीवन में अपना लो।’ 

रही बात राम मंदिर की, तो हमने पिछले 30 वर्षों में बार-बार में यह लिखा और बोला है कि काशी, मथुरा और अयोध्या में भगवान शिव, भगवान राम और भगवान कृष्ण के मंदिरों का निर्माण होने से मुसलमानों का अहित नहीं होगा, बल्कि लाभ ही होगा। क्योंकि 500 वर्ष पहले जो खाई हिंदू-मुसलमानों के बीच बन गई, वह इस एक कदम से पट जाएगी। तब मुसलमान और हिंदू एक साथ खड़े होकर अपना और देश का जीवनस्तर उठाने की तरफ आगे बढ़ेंगे। आज पूरे विश्व का मुसलमान समाज पश्चिम की दादागिरी से दुखी है और नाराज है। भारत की सनातन संस्कृति में आस्था रखने वाला हिंदू समाज भी पश्चिमी संस्कृति से आहत और नाराज है। इस तरह हम हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के दुश्मन नहीं, बल्कि हम दोनों संस्कृतियों की दुश्मन पश्चिमी संस्कृति है, जिसे अपने जीवन से जितनी जल्दी हो और जितना ज्यादा निकाल दिया जाए, हमारा समाज सुखी और संपन्न हो जाएगा। यह बात दोनों धर्मों के धर्माचार्यों को भी समझनी चाहिए। सिंहस्थ कुंभ में स्नान करने के बाद बड़े पवित्र मन से मैं यह याचना दोनों धर्मों के धर्माचार्यों से कर रहा हूं, आगे हरि इच्छा। 

Monday, May 9, 2016

सबको पछाड़ देंगे केजरीवाल

राजनीति में यह जरूरी नहीं कि आप जो कहें, वो करें। होशियार राजनीतिज्ञ वह होता है, जो लोगों की नब्ज पर हाथ रखता है। नरेन्द्र मोदी ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान हर उस मुद्दे को छुआ, जिससे आम जनता का सरोकार था। इसलिए जनता ने उन्हें हाथों-हाथ लिया और अप्रत्याशित विजय दिलाकर प्रधानमंत्री बना दिया। पर पिछले दो वर्षों में मोदी सरकार ने जो कुछ किया, उसका असर अभी तक आम आदमी ने महसूस नहीं किया है। इसलिए समाज में हताशा है। मोदी सरकार यह कह सकती है कि 60 वर्ष की गन्दगी साफ करने में कुछ तो समय लगेगा। पर जनता बहुत अधीर होती है। उसे दूरगामी परिणाम नहीं दिखाई देते बल्कि तुरन्त फल प्राप्ति की इच्छा होती है। यही कारण है कि लोकसभा चुनाव में जैसी विजय भाजपा को मिली, वैसी विजय अब तक हुए किसी भी विधानसभा चुनावों में नहंीं मिली और आगे भी स्थिति बहुत उत्साहजनक दिखाई नहीं देती।

    उधर अरविन्द केजरीवाल एक मंजे हुए राजनेता की तरह शुरू से हर वो तीर चला रहे है जो निशाने पर लग रहा है। इसका मतलब ये नहीं कि अरविन्द जो वायदा करते हैं वो पूरा कर देंगे। पर आज वो मौके का फायदा उठाने का कोई अवसर नहीं छोड़ रहे हैं। पिछले हफ्ते आम आदमी पार्टी ने अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकाॅप्टर के घोटाले में केन्द्र सरकार को बुरी तरह घसीटा। अरविन्द का आरोप है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ने का वायदा कर मोदी सरकार बनी थी। पर क्या वजह हैं कि दो वर्षों में भी यह सरकार अगस्ता वेस्टलैंड के आरोपियों को नहीं पकड़ पायी। जबकि इटली की अदालतों ने आरोपियों को सजा भी सुना दी। इससे भी एक कदम आगे जाकर अरविन्द केजरीवाल ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया है कि उसने सोनिया गांधी से डील कर ली है, ’न तुम मेरे घोटाले उछालो, न मैं तुम्हारे घोटाले उछालूं’। इसलिए मोदी सरकार पिछली सरकार के भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाने में नाकाम रही है।

    इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की डिग्री का विवाद खड़ा करके अरविन्द केजरीवाल ने प्रधानमंत्री के लिए असहज स्थिति पैदा कर दी है। साफ जाहिर है कि केजरीवाल अपनी छवि बनाने का और दूसरों की छवि बिगाड़ने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते। इसलिए चाहे लातूर में पानी की रेल भेजना हो या पंजाब के किसानों से हमदर्दी दिखानी हो, एक मजे हुए नेता की तरह अरविन्द केजरीवाल हर जगह खड़े नजर आते हैं। अब चूंकि दिल्ली में उनकी सरकार के अधिकार सीमित है, इसलिए अरविन्द की ईमानदारी या कार्यक्षमता की अभी परख करना संभव नहीं है। क्योंकि अरविन्द का तर्क होता है कि न तो मुझे पुलिस को नियंत्रित करने का अधिकार दिया गया है और न ही भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों को पास करने दिया गया है। मुझे पूरी ताकत दो, तो मैं बताऊं कि भ्रष्टाचार कैसे कम होगा और जनता को कैसे राहत मिलेगी।

    जब तक ऊंट पहाड़ के नीचे नहीं आ जाता, तब तक उसे अपने छोटा होने का एहसास नहीं होता है। इसलिए अरविन्द केजरीवाल आज कुछ भी दावा कर सकते है। वे कह सकते है कि आप मुझे प्रधानमंत्री बना दो तो मैं आसमान के तारे तोड़ लाऊंगा और जनता उनकी लच्छेदार बातों में एक बार तो फंस ही जाएगी। असलीयत तो तब पता चलेगी जब प्रधानमंत्री बनकर भी अरविन्द बहुत सारी घोषणाओं को पूरा नहीं कर पायेंगे। पर तब की तब देखी जायेगी। अभी तो अपनी इस रणनीति के सहारे वे लगातार आगे बढ़ रहे है। अपनी ब्रान्डिंग इस तरह कर रहे है मानो सारे राजनेता धोखेबाज हैं और आपस में सबकी मिलीभगत है। केवल अरविन्द केजरीवाल ही दूध के धुले हैं। चूंकि जनता की अपेक्षाएं सरकार से बहुत ज्यादा होती है, इसलिए उसे कभी संतुष्टि नहीं होती। उस पर भी अगर सरकार की सफलता उसे दिखाई न दें, तो उसकी हताशा तेजी से बढ़ जाती हैं। इसलिए चतुर राजनेता हमेशा जनता की इस कमजोरी का फायदा उठाते हैं और खुद आगे बढ़ जाते हैं। यही काम आज केजरीवाल बड़ी सफलता से कर रहे हैं और इसलिए लगता है कि आने वाले दिनों में केजरीवाल अपने सभी राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को पछाड़ देंगे। 

दरअसल देश की जनता को अब मंदिर, गौहत्या, राष्ट्रवाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता जैसे भावनात्मक मुद्दों से बहकाया नहीं जा सकता। अब जनता काफी जागरूक हो गई है। समाज का बहुत बड़ा वर्ग अब अखबार और टीवी पर अपनी राय नहीं बनाता। सोशल मीडिया में हर बात खुलकर आ जाती है। इसलिए जनता को बरगलाना सम्भव नहीं है। जहां तक विकास की बात है, तो उसका ज्यादा श्रेय तो निजी क्षेत्र और उद्यमियों को जाता है। सरकार और उसके अधिकारियों के रवैये में ऐसा कोई बदलाव नहीं आया है, जिससे जनता को राहत मिले। उसकी समस्याओं का समाधान हो और उसे आगे बढ़ने का मौका मिले। अनुभव तो यही बताता है कि पूरी प्रशासनिक व्यवस्था आम आदमी को परेशान करने के लिए और उसकी कार्यक्षमता को खत्म करने के लिए बनी है।

जब तक कोई नेता चाहे वो कजरीवाल हो या नरेन्द्र मोदी प्रशासन के इस मकड़जाल को तोड़कर साफ नहीं कर देते, तब तक जनता का भला होने वाला नहीं है। इसलिए जनता परेशान रहती है और फिर कभी वीपी सिंह, कभी नरेन्द्र मोदी और कभी अरविन्द केजरीवाल जैसे नेता सपने दिखाकर उसकी उम्मीदें जगा देते है। हर बार उसे लगता है कि शायद अबकी बार उसे अपनी समस्याओं से निजात मिल जाएगी। यह सोचकर वह हर नए मसीहा के पीछे चल देती है। अब चुनौती नरेन्द्र मोदी के सामने है कि वे ऐसा कुछ करें कि जो केजरीवाल को उंगली उठाने का मौका न मिले। ये बात दूसरी है कि अगर केजरीवाल प्रधानमंत्री के पद पर बैठ गए तो वे भी कोई काला जादू चलाकर समस्याऐं हल नहीं कर पाएंगे। पर सपने दिखाकर कुर्सी तो हथिया ही लेंगे।