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Monday, November 22, 2021

सीबीआई और ईडी निदेशकों का सेवा विस्तार


ताज़ा अध्यादेश के ज़रिए भारत सरकार ने सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के निदेशकों के कार्यकाल को 5 वर्ष तक बढ़ाने की व्यवस्था की है। अब तक यह कार्यकाल दो वर्ष का निर्धारित था। अब इन निदेशकों को एक-एक साल करके तीन साल तक और अपने पद पर रखा जा सकता है। पहले से ही विवादों में घिरी ये दोनों जाँच एजेंसियाँ विपक्ष के निशाने पर रही हैं। इस नए अध्यादेश ने विपक्ष को और उत्तेजित कर दिया है, जो अगले संसदीय सत्र में इस मामले को ज़ोर-शोर से उठाने की तैयारी कर रहा है।
 

इन दो निदेशकों के दो वर्ष के कार्यकाल का निर्धारण दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फ़ैसले के तहत किया गया था। इसी फ़ैसले की तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जाँच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी जब हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। क्योंकि तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिज़बुल मुजाहिद्दीन की हवाला के ज़रिए हो रही दुबई और लंदन से फ़ंडिंग की जाँच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उसपर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में क़ानून बने। 



ताज़ा अध्यादेश में सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले की भावना की उपेक्षा कर दी गई है। जिससे यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। इस तरह यह महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन सकती हैं। क्योंकि केंद्र में जो भी सरकार रही है उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। 


बेहतर होता कि सरकार इस अध्यादेश को लाने से पहले लोक सभा के आगामी सत्र में इस पर बहस करवा लेती या सर्वोच्च न्यायालय से इसकी अनुमति ले लेती। इतनी हड़बड़ी में इस अध्यादेश को लाने की क्या आवश्यकता थी? सरकार इस फ़ैसले को अपना विशेषाधिकार बता कर पल्ला झाड़ सकती है। पर सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फ़ैसला इन जाँच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दख़ल के अपना काम कर सके। क्योंकि सीबीआई को अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया है। 


प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री श्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 7 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमख़म के साथ कहते हैं न खाऊँगा न खाने दूँगा। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच करने वाली ये एजेंसियाँ सरकार के दख़ल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा। हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 7 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। ये बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लम्बी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उसकी निष्पक्ष जाँच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं बल्कि शुभचिंतक माना जाए। क्योंकि संत कह गए हैं कि, ‘निंदक नियरे  राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’ 


इसलिए इस अध्यादेश के मामले सर्वोच्च न्यायालय को तुरंत दख़ल देकर इसकी विवेचना करनी चाहिए। इन महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियों के निदेशकों के कार्यकाल का विस्तार 5 वर्ष करना मोदी जी की ग़लत सोच नहीं है, पर यहाँ दो बातों का ध्यान रखना होगा। पहला; ये नियुक्ति एकमुश्त की जाए, यानी जिस प्रक्रिया से इनका चयन होता है, उसी प्रक्रिया से उन्हें 5 वर्ष का नियुक्ति पत्र या सेवा विस्तार दिया जाए। दूसरा; अधिकारियों में सरकार की चाटुकारिता की प्रवृत्ति विकसित न हो और वे जनहित में निष्पक्षता से कार्य कर सकें इसके लिए उन्हें 60 वर्ष की आयु के बाद सेवा विस्तार न दिया जाए बल्कि इन महत्वपूर्ण पदों पर उन्हीं अधिकारियों के नामों पर विचार किया जाए जिनका सेवा काल अभी 5 वर्ष शेष हो। अगर सरकार ऐसा करती है तो उसकी विश्वसनीयता बढ़ेगी और नहीं करती है तो ये जाँच एजेंसियाँ हमेशा संदेह के घेरे में ही रहेंगी और नौकरशाही में भी हताशा बढ़ेगी।


प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी नोटबंदी जैसे बहुत सारे महत्वाकांक्षी फ़ैसले लेते आए हैं। जिससे उनकी उत्साही प्रवृत्ति का परिचय मिलता है। हर फ़ैसला जितने गाजे-बाजे और महंगे प्रचार के साथ देश भर में प्रसारित होता है वैसे परिणाम देखने को प्रायः नहीं मिलते। क्योंकि उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली है और समाज का एक वर्ग उन्हें बहुत चाहता है इसलिए शायद वे संसदीय परम्पराओं व अनुभवी और योग्य सलाहकारों से सलाह लेने की ज़रूरत नहीं समझते। अगर वे अपने व्यक्तित्व में ये बदलाव ले आएँ कि हर बड़े और महत्वपूर्ण फ़ैसले को लागू करने से पहले उसके गुण-दोषों पर आम जनता से न सही कम से कम अनुभवी लोगों से सलाह ज़रूर ले लें तो उनके फ़ैसले अधिक सकारात्मक हो सकते हैं। उल्लेखनीय है कि स्विट्ज़रलैंड में सरकार कोई भी नया क़ानून बनाने से पहले जनमत संग्रह ज़रूर कराती है। भारत अभी इतना परिपक्व लोकतंत्र नहीं है पर 135 करोड़ लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाले फ़ैसले सामूहिक मंथन से लिए जाएं तो यह जनहित में होगा।

Monday, March 1, 2021

भ्रष्टाचार क्या सिर्फ भाषण का विषय है?


पश्चिम बंगाल के चुनाव सिर पर हैं। राजनैतिक गतिविधियाँ ज़ोर पकड़ने लग चुकी हैं। राजनैतिक पार्टियाँ एक दूसरे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा कर जनता के बीच एक दूसरी की छवि ख़राब करने पर जुटे हुए हैं। राजनीति में छवि का महत्त्व बहुत ज्यादा होता है। एक बार जो छवि बन जाये उसे बदलना सरल नहीं होता। चुनाव किसी भी राज्य में हों या फिर लोक सभा के चुनाव हों हर दल अपने विरोधियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं और खूब शोर मचाते हैं। पर इससे निकलता कुछ भी नहीं है। न तो भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था सुधरती और न ही देश की जनता को राहत मिलती है। 


दरअसल राजनीति से जुड़ा कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि किसी भी घोटाले की ईमानदारी से जांच हो और दोषियों को सजा मिलें। क्योंकि वो जानते हैं कि आज जो आरोप उनके विरोधी पर लग रहा है कल वो उन पर भी लग सकता है। हर दल की यही मंशा होती है कि वे अपने विरोधी दल के भ्रष्टाचार के काण्ड को जनता के बीच उछाल कर ज्यादा से ज्यादा वोटों को बटोर लें। इस प्रक्रिया में मूर्ख जनता ही बनती है। आज नैतिकता पर शोर मचाने वाले हर दल से पूछना चाहिए कि जिस काण्ड में सबूत न के बराबर हैं उसपर तो आप इतने उत्तेजित हैं पर जिस जैन  हवाला काण्ड में हजारों सबूत मौजूद थे उसकी जांच की मांग के नाम पर हर दल क्यों चुप रहा ? आपको भ्रष्टाचार पर शोर मचाने की हकीकत खुद ब खुद पता चल जाएगी।



कोई भी पार्टी हो या कोई भी सरकार, सभी भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने का दावा समय-समय पर करते रहते हैं। देश के कई प्रधानमंत्रियों ने भी घोषणा की हैं कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए कटिबद्ध है। भ्रष्टाचार के मामले में कुछ रोचक तथ्यों को ध्यान में रखना जरूरी है। सभी घोटाले प्रायः चुनाव के पहले ही उछाले जाते हैं। चुनाव के दौरान जनसभाओं में उत्तेजक भाषण देकर अपने प्रतिद्वंद्वियों पर करारे हमले किए जाते हैं। दोषियों को गिरफ्तार करने और सजा देने की मांग की जाती है। ये सारा तूफान चुनाव समाप्त होते ही ठंडा पड़ जाता है। फिर कोई उन घोटालों पर ध्यान नहीं देता। अगले चुनाव तक उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण बोफोर्स कांड है। पिछले कई सालों से हर लोकसभा चुनाव के पहले इस कांड को उछाला जाता है और फिर भूल जाया जाता है। आज तक इसमें एक चूहा भी नहीं पकड़ा गया। दूसरी तरफ जैन हवाला कांड था जिसे किसी भी चुनाव में कोई मुद्दा नहीं बनाया गया  क्योंकि इस कांड में हर बड़े दल के प्रमुख नेता फंसे धा तो शोर कौन मचाए?


अगर किसी नेता ने रिश्वत लेता है तो इसमें कोई नई बात नहीं। देश में रिश्वत लेना इतना आम हो चुका है कि ऐसी खबरों पर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग तो मान ही चुके हैं कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का पर्याय है। यहां तक कि भारत के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए श्री इंद्र कुमार गुजराल ने कहा था कि वे भ्रष्टाचार को रोकने में असहाय हैं। उधर भारत के मुख्य न्यायाधीश पद पर रहते हुए न्यायमूर्ति एस.पी.भरूचा ने भी स्वीकारा था कि उच्च न्यायपालिका में 20 फीसदी भ्रष्टाचार है। विधायिका और न्यायपालिका के शिखर पुरुष अगर ऐसी बात कहते हैं तो कार्यपालिका के बारे में तो किसी को कोई संदेह ही नही कि वहां ऊपर से नीचे तक भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। 


लोकतंत्र के तीन खम्भे इस बुरी तरह भ्रष्टाचार के कैंसर से ग्रस्त हैं कि किसी को कोई रास्ता नहीं सूझता। ऐसे माहौल में जब कभी कोई घोटाला उछलता है तो दो-चार दिन के लिए चर्चा में रहता है और फिर लोग उसे भूल जाते हैं।


अगर केंद्र सरकार वाकई भ्रष्टाचार को दूर करना चाहती है तो क्या वह यह बताएगी कि जिन आला अफसरों के खिलाफ सीबीआई ने मामले दर्ज कर रखे हैं उसके खिलाफ सीबीआई को कार्यवाही करने की अनुमति आज तक क्यों नहीं दी गई? सरकार के प्रमुख नेता क्या ये बताएंगे कि आतंकवाद से जुड़े मामलों में सीबीआई के जिन अफसरों ने अपराधियों की मदद की, उन्हें सजा के बदले पदोन्नति या विदेशों में तैनाती देकर पुरस्कृत क्यों किया गया? क्या वे बताएंगे कि उनके दल के सभी नेता पद संभालते समय अपनी अपनी संपत्ति का पूरा ब्यौरा जनता को क्यों नहीं देते? क्या वे बताएंगे कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद केन्द्रीय सतर्कता आयोग को यह अधिकार क्यों नहीं दिया गया कि आयोग उच्च पदासीन अफसरों और नेताओं के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामले में जांच करने के लिए स्वतंत्र हों? क्या वे बताएंगे कि उन्होंने अपने कार्यकाल में भ्रष्टाचार के आरोपित व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात क्यों किया? क्या देश में उसी अनुभव और योग्यता के ईमानदार अफसरों की कमी हो गई है? क्या सरकार बताएगी कि सीबीआई के पास भ्रष्टाचार के जो बड़े मामले ठंडे बस्ते में पड़े हैं, उनकी जांच में तेजी लाने के लिए उन्होंने क्या प्रयास किए? अगर नहीं तो क्यांें नहीं?

 

दरअसल कोई राजनेता देश को भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं करना चाहता। केवल इसे दूर करने का ढिंढोरा पीटकर जनता को मूर्ख बनाना चाहता हैं और उसके वोट बटोरना चाहता है। यही वजह है कि चुनाव के ठीक पहले बड़े-बड़े घोटाले उछलते हैं। जब भारत के मुख्य न्यायाधीश ही मान चुके कि उच्च न्यायपालिका में बीस फीसदी लोग भ्रष्ट हैं, तो कैसे माना जाए कि सैकड़ों करोड़ों रुपये के घोटाले करने वाले राजनेताओं को सजा मिलेगी। दिवंगत हास्य कवि काका हाथरसी कहा करते थे -क्यों डरता है बेटा रिश्वत लेकर, छूट जाएगा तू भी रिश्वत देकर।


चुनाव में धन चाहिए। धन बड़े धनाढ्य ही दे सकते हैं। बड़ा धनाढ्य बैंकों के बड़े कर्जे मारकर और भारी मात्रा में कर चोरी करके ही बना जाता है। ऐसे सभी बड़े धनाढ्य चाहते हैं कि सरकार में वो लोग महत्वपूर्ण पदों पर रहें जो उनके हित साधने वाले हों। ऐसे लोग वही होंगे जो भ्रष्ट होंगे। यह एक विषमचक्र है, जिसमें हर राजनेता फँसा है। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए व्यक्तिगत रूप से व्यक्ति को परमत्यागी होना पड़ेगा। आज के राजनेता भोग के मामले में राज परिवारों को पीछे छोड़ चुके हैं। न तो वे त्याग करने को तैयार हैं और न ही अपने सुख पर कोई आंच आने देना चाहते हैं इसलिए उनमें जोखिम उठाने की क्षमता भी नहीं हैं। बिना जोखिम उठाए ये लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। इसलिए भ्रष्टाचार का प्रत्येक मामला पानी के बुलबुले की तरह उठता है और फूट जाता है। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

Monday, December 14, 2020

भ्रष्टाचार : नए कानून की नहीं, निष्पक्ष अनुपालन की जरूरत


हाल ही में दो अलग जनहित याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने शुक्रवार को कहा कि समाज या व्यवस्था की सारी बुराइयां सुप्रीम कोर्ट दूर नहीं कर सकता है। ना ही यह जिम्मेदारी अकेले सुप्रीम कोर्ट की है। अदालत ने कहा कि कार्यपालिका और विधायिका की अपनी जिम्मेदारी है और यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट सारी भूमिकाएं संभाल ले तथा सब कुछ करे।
 

याचिका के जरिए सुप्रीम कोर्ट से मांग की गई थी कि केन्द्र सरकार को ‘बेनामी’ संपत्ति, बेहिसाब वाली संपत्ति तथा काला धन जब्त करने से संबंधित कानून बनाने की संभावना तलाशने का निर्देश दिया जाए। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति ऋषिकेष रॉय की पीठ ने समाज में बदलाव की जरूरत पर जोर दिया और कहा कि, ‘‘पैसा लेने वाले हर व्यक्ति को पैसे देने वाला कोई दूसरा व्यक्ति भी है।’’


एक अन्य जनहित याचिका में यह भी एक मांग थी कि केंद्र सरकार को 1993 की वोहरा समिति की रिपोर्ट भिन्न केंद्रीय एजेंसियों को देने का निर्देश दिया जाए ताकि इनकी व्यापक जांच हो सके। याचिकाकर्ता, जो कि भाजपा नेता भी हैं, ने आरोप लगाया कि तत्कालीन गृहसचिव एनएन वोहरा ने अपराध सिंडिकेट, राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के कथित संपर्कों पर एक रिपोर्ट दी थी जिसका कोई फॉलो अप नहीं हुआ। 



इसपर अदालत ने कहा, आप ऐसी प्रार्थना क्यों कर रहे हैं। इसपर किताब लिखिए। ऐसी याचिकाएं मत दाखिल कीजिए। पीठ ने कहा कि कानून बनाना संसद का काम है और हम ऐसा आदेश नहीं दे सकते। पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता को चाहिए कि जन प्रतिनिधियों को ऐसा कानून बनाने के लिए तैयार करें।  


पीठ ने जनहित के मामले में याचिका दायर करने के याचिकाकर्ता के अच्छे कामों की सराहना की और यह भी कहा कि जनहित याचिकाएं अब प्रचार याचिकाएं बनती जा रही हैं। याचिकाकर्ता ने अच्छे काम किये हैं लेकिन इस पर हम विचार नहीं कर सकते।’’ पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता को जन प्रतिनिधियों को इस बारे में कानून बनाने के लिये तैयार करना चाहिए। पीठ ने याचिकाकर्ता को यह जनहित याचिका वापस लेने और विधि आयोग में प्रतिवेदन देने की अनुमति दी।


इसमें कोई दो राय नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट अकेले सब कुछ ठीक नहीं कर सकता है। जब ज्यादातर राजनेता और नौकरशाह अपनी जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश करें या सच कहिए तो इसका कारण बन जाएं तब न्यायपालिका से अजूबे की उम्मीद नहीं की जा सकती है। भ्रष्टाचार सामाजिक बुराई है और अगर कोई पैसे लेकर काम करता है तो कोई है जो काम कराने के पैसे देता भी है। बुराई दोनों तरफ से है, एक तरह की मिलीभगत है। ऐसे में कानून बहुत उपयोगी नहीं हो सकता है। 


कहने की जरूरत नहीं है कि बहुत सारे कानूनों का उल्लंघन खुलेआम होता है क्योंकि उन्हें रोकने के लिए ना सरकार इच्छुक है ना समाज। ऐसे कुछ कानून को वापस लेने की भी मांग हुई और वापस लिए भी गए हैं। जिस कानून का अनुपालन संभव नहीं हो उसे वापस लिया जाना गलत नहीं है पर वापस लेने का एक मतलब यह भी लगाया और प्रचारित किया जाता है कि अब उसकी अनुमति है जबकि बात ऐसी नहीं होती है। अनैतिक और गैर कानूनी में भी अंतर होता है। 


भ्रष्टाचार के मामले में भी कानून तो हैं ही। सजा कम या ज्यादा हो सकती है। पर भ्रष्टाचार के किन मामलों की जांच हो और किनकी नहीं – यह तय करने में भी भ्रष्टाचार और राजनीति है। ऐसे में कानून बनाने या कार्रवाई का निर्देश देने से ज्यादा जरूरी है कि समाज इस मामले में खुद जागरूक हो और अव्वल तो भ्रष्टाचार हो ही नहीं और हो तो बिना किसी भेदभाव के जांच हो और कार्रवाई की जाए। जबतक यह स्थिति बहाल नहीं हो जाती है तब तक कानून जो हैं और जो बनेंगे उनके दुरुपयोग की संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता है। 


चुनाव लड़ने वालों के मामले में ही बहुत सारे कानून बने हैं लेकिन इनका अनुपालन भी ठीक नहीं होता है। इससे संबंधित शिकायतों की जांच और कार्रवाई के मामले में जन प्रतिनिधियों से भी समान व्यवहार नहीं होता है। फर्जी डिग्री के मामले में एक राजनीतिक दल के विधायक का जो हाल किया गया वैसा सत्तारूढ़ दल के मामले में नहीं हुआ। यह मामला सर्वविदित है। ऐसे में जरूरत नए कानून की नहीं, कानून के निष्पक्ष अनुपालन की है। 


यही नहीं, सत्तारूढ़ दल के लोग अगर अपने हिसाब से कानून बनवाएं (या बना लें) तो वह भी ठीक नहीं है। उदाहरण के लिए आतंकवाद के आरोपी को चुनाव लड़ने का टिकट देने का मामला लीजिए। कायदे से किसी पर कोई आरोप लगे तो उसे स्वयं पद छोड़ देना चाहिए ताकि निष्पक्ष जांच हो सके और अगर निर्दोष पाया जाए तो वह वापस अपने पद पर आ जाए। 


चिंता की बात यह है कि भ्रष्टाचार से अदालतें भी अछूती नहीं हैं। निचली अदालतों में तो भारी भ्रष्टाचार है ही। उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय तक में भ्रष्टाचार के अनेक उदाहरण सामने आ चुके हैं। पर उन मामलों में, कुछ अपवादों को छोड़ कर, कभी कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई। अदालत की अवमानना क़ानून का डर दिखा कर भ्रष्ट न्यायाधीश  शिकायतकर्ताओं को डराते धमकाते हैं। ऐसे न्यायाधीशों को पद  से हटाने के लिए संसद के पास महाभियोग चलाने का अधिकार है। पर सांसद इस अधिकार का उपयोग नहीं करना चाहते। जब कभी ऐसी परिस्थिति आती है तो वे ये कह कर बच निकलते हैं कि हमारे दल में बहुत सारे कार्यकर्ताओं पर आपराधिक मुक़दमें चल रहे हैं। अगर हम न्यायपालिका के ख़िलाफ़ बोलेंगे तो हमारे लोगों को ही पकड़ कर बन्द करवा दिया जाएगा। जब कुएँ में ही भांग पड़ी हो तो कहाँ से शुरू किया जाए? काका हाथरसी की एक कविता है, ‘क्यों डरता है बेटा रिश्वत लेकर - छूट जाएगा तू भी रिश्वत देकर।’

Monday, May 11, 2020

धर्म स्थलों का धन क्या विकास में लगे?

जब से कोरोना का लॉकडाउन शुरू हुआ है तब से अपनी जान बचाने के अलावा दूसरा सबसे महत्वपूर्ण चर्चा का विषय वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर है। हर आदमी ख़ासकर व्यापारी, कारखानेदार और मज़दूर अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। अर्थव्यवस्था के इस तेज़ी से पिछड़ जाने के कारण प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्रीगण तक सार्वजनिक रूप से आर्थिक तंगी, वेतन में कटौती, सरकारी खर्च में फ़िज़ूल खर्च रोकना और जनता से दान देने की अपील कर रहे हैं। ऐसे में सबका ध्यान भारत के धर्म स्थलों में जमा अकूत दौलत की तरफ़ भी गया है। बार-बार यह बात उठाई जा रही है कि इस धन को धर्म स्थलों से वसूल कर समाज कल्याण के या विकास कार्यों में लगाया जाए। आरोप लगाया जा रहा है कि भारी मात्रा में जमा यह धन, निष्क्रिय पड़ा है। या इसका दुरुपयोग हो रहा है। 

कुछ सीमा तक उपरोक्त आरोप में दम हो सकता है। पर इस धन को सरकारी तंत्र के हाथ में दिए जाने के बहुतसे लोग शुरू से सर्वथा विरुद्ध रहे हैं। क्योंकि, तमाम क़ानूनों, पुलिस, सी.बी.आई., सीवीसी, आयकर विभाग और न्यायपालिका के बावजूद प्रशासनिक तंत्र में भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। इसलिए जनता का विश्वास सरकार के हाथ में धर्मार्थ धन सौंपने में नहीं है। 

दरअसल धार्मिक आस्था एक ऐसी चीज है जिसे कानून के दायरों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। आध्यात्म और धर्म की भावना न रखने वाले, धर्मावलंबियों की भावनाओं को न तो समझ सकते हैं और न ही उनकी सम्पत्ति का ठीक प्रबन्धन कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि उस धर्म के मानने वाले समाज के प्रतिष्ठित और सम्पन्न लोगों की प्रबन्धकीय समितियों का गठन एक सर्वमान्य निर्देश के द्वारा कर देना चाहिए। इन समितियों के सदस्य बाहरी लोग न हों और वे भी न हों जिनकी आस्था उस मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे में न हो। जब साधन सम्पन्न भक्त मिल बैठकर योजना बनाएंगे तो दैविक द्रव्य का बहुजन हिताय सार्थक उपयोग ही करेंगे। 

जैसे हर धर्म वाले अपने धर्म के प्रचार के साथ समाज की सेवा के भी कार्य करते हैं। कोरोना क़हर के दौरान लगभग सभी धर्म स्थलों ने ख़ासकर गुरुद्वारों ने बढ़चढ़ कर ज़रूरतमंद लोगों के लिए उदारता से भंडारे चला रखे हैं। सामान्य काल में भी इन धर्मस्थलों द्वारा अनेक जनोपयोगी कार्य किए जाते हैं। जैसे अस्पतालों, शिक्षा संस्थानों, रैन बसेरों, अन्य क्षेत्रों , आपदा राहत शिविरों आदि का व्यापक और कुशलतापूर्वक संचालन किया जाता है। क्योंकि इन सेवाओं को करने वालों का भाव नर-नारायण की सेवा करना होता है न कि सेवा के धन का ग़बन करना । जैसा कि प्रायः सभी प्रशासनिक तंत्रों में होता है ।

ऐसा नहीं है कि सभी धर्मस्थलों में पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी से धर्मार्थ धन का सदुपयोग होता हो । वहाँ भी इस धन के दुरुपयोग की शिकायतें आती रहती हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि उस धर्मावलंबियों की जो प्रबंध समितियाँ गठित हों , उनकी पारदर्शिता और जबावदेही विस्तृत दिशानिर्देश जारी करके सुनिश्चित कर देनी चाहिए। ताकि घोटालों की गुंजाइश न रहे। इन समितियों पर निगरानी रखने के लिए उस समाज के सामान्य लोगों को लेकर विभिन्न निगरानी समितियों का गठन कर देना चाहिए। जिससे पाई-पाई पर जनता की निगाह बनी रहे। किसी भी धर्म के धर्मस्थानों का धन सरकार द्वारा हथियाना, उस समाज को स्वीकार्य नहीं होगा। 

देश में ऐसे हजारों धर्मस्थल हैं, जहाँ नित्य धन की वर्षा होती रहती है। इस धन का सदुपयोग हो इसके लिए उन समाजों को आगे बढ़कर स्वयं भी नई दिशा पकड़नी चाहिए और दैविक द्रव्य का उपयोग उस धर्म स्थान या धर्म नगरी या उस धर्म से जुड़े साधनहीन लोगों की मदद में करना चाहिए। इससे उस धर्म के मानने वालों के मन में न तो कोई अशांति होगी और न कोई उत्तेजना। वे भी अच्छी भावना के साथ ऐसे कार्यों में जुड़ना पसन्द करेंगे। अब वे अपने धन का कितना प्रतिशत मन्दिर और अनुष्ठानों पर खर्च करते हैं और कितना विकास के कार्यों पर, यह उनके विवेक पर छोड़ना होगा।

धर्मस्थलों के धन पर अगर सरकार नज़र डालती है तो यह बड़ा संवेदनशील मामला  हो जाता है। और तब सवाल उठता है कि जनता की खून पसीने की कमाई के हज़ारों लाखों करोड़ रुपया बैंकों से क़र्ज़ लेकर भाग जाने वाले उद्योगपतियों या देश में ही रहने वाले वे उद्योगपति जिन्होंने अकूत दौलत जमा कर रखी है और अपने पारिवारिक उत्सवों में सैकड़ों करोड़ रुपया खर्च करते हैं, उनसे क्यों न धन वसूला  जाए। सब जानते हैं कि देश का हर बड़ा पैसे वाला पसीने बहाकर धनी नहीं बनता। प्रकृतिक संसाधनों का नृशंस दोहन, करों की भारी चोरी, बैंकों के बिना चुकाए बड़े-बड़े ऋण, एकाधिकारिक नीतियों से बाजार पर नियंत्रण और सरकारों को शिकंजे में रखकर अपने हित में कर नीतियों का निर्धारण करवाकर बड़े मुनाफे कमाए जाते हैं। ऐसे में केवल धर्मस्थलों को ही सजा क्यों दी जाए? यदि असीम धन संग्रह के अपराध की सजा मिलनी ही है तो वह राजपरिवारों, धर्माचार्यों को ही नहीं, बल्कि उद्योगपतियों, राजनेताओं, नौकरशाहों और मीडिया के मठाधीशों को भी मिलनी चाहिए। उन सब लोगों को जो अपनी इस विशिष्ट स्थिति का लाभ उठाकर समाज के एक बड़े वर्ग का हक छीन लेते हैं।     

पुरानी कहावत है कि, ‘इस संसार में हर एक की ज़रूरत पूरा करने के लिए काफ़ी धन और संसाधन हैं, लेकिन कुछ लोगों की हवस पूरी करने के लिए वे नाकाफ़ी हैं’। भारत में की भी यही स्थिति है। ‘सुजलां, सुफलाम् शस्य्श्यामलाम’ भारत माता अपनी 135 करोड़ संतानों को स्वास्थ्य और सुखी रखने में सक्षम है। समस्या तब खड़ी होती है जब नियत में खोट हो जाता है। इसलिए हमारे जैसे लोग बरसों से सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता के लिए संघर्ष करते रहे हैं। पर दुःख की बात यह है कि जिस स्तर की पारदर्शिता की आवश्यकता है वह तमाम क़ानूनी व्यवस्थाओं के बावजूद आजतक स्थापित नहीं हो पाई है। इसलिए जनता का विश्वास जीतने में देश की नौकरशाही आज तक सफल नहीं हो पाई है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि पहले सार्वजनिक जीवन में पूरी पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और तब सरकार से इतर इन संसाधनों पर निगाह डाली जाए।  

Monday, April 20, 2020

कोरोना क़हर में पुलिस के जबाँजो का सहयोग करें

आज जब पूरा विश्व कोरोना की महामारी से जूझ रहा है, भारत में पुलिसवालों या कहें कोरोना के जाँबाज़ों को एक अलग ही तरह के समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इंदौर हो, पटियाला हो, मुरादाबाद हो, या राजस्थान  जिस तरह से पुलिसकर्मियों को कुछ ख़ास इलाक़ों में जाहिल लोगों के ग़ुस्से का सामना करते हुए अपना फ़र्ज़ निभाना पड़ रहा है वो क़ाबिले तारिफ़ है।

सोशल मीडिया पर आपको ऐसे कई विडियो देखने को मिलेंगे जहां पुलिसकर्मी अपने घर भी नहीं जा पा रहे हैं। यदि वो अपनी ड्यूटी करने की जगह से दोपहर का भोजन करने भी घर जाते हैं तो परिवार से दूर, खुले आँगन में ही भोजन कर तुरंत ड्यूटी पर लौट जाते हैं। उनके छोटे बच्चे उन्हें घर पर कुछ देर और ठहरने के लिए फ़रियाद करते रह जाते हैं । 

विश्व के अन्य देशों के मुक़ाबले हमारे देश में अगर कोरोना के क़हर की रफ़्तार फ़िलहाल कम है तो वो केवल मोदी जी के लाक्डाउन के इस सख़्त कदम और उसे लागू करने में इन पुलिसकर्मियों की वजह से ही है । 

सड़कों पे तैनात इन पुलिसकर्मियों को कड़ी धूप में रह कर अपनी ड्यूटी करनी पड़ रही है। कई जगह तो इनके सर पर कनात तक नहीं है। लेकिन सिर्फ़ कनात होने से काम नहीं चलता। आने वाले दिनों में पारा और ऊपर जाएगा तो पूरी बाजू की वर्दी पहन कर ड्यूटी करना इनके लिये और कठिन हो जाएगा। आपने पढ़ा होगा कि कुछ ज़ाहिल लोगों ने किस बेदर्दी से पटियाला पुलिस के अफ़सर हरजीत सिंह का हाथ काटा। ज़रा सोचें इसका क्या असर पुलिस फ़ोर्स के मनोबल पर पड़ेगा? ये घोर निंदनीय कृत्य था, जिसका पूरे समाज को ताक़त से विरोध करना चाहिये। 

हमें सोचना चाहिए कि चाहे वो महिला पुलिसकर्मी हों या पुरुष इनका योगदान हमारे जीवन की रक्षा के लिये अतुल्य है। जहां ये पुलिसकर्मी न सिर्फ़ सड़कों पर तैनात हो कर दिन रात चौकसी से अपनी ड्यूटी कर रहे हैं वहीं  जरूरतमंदों को राशन व अन्य ज़रूरी सामान भी पहुँचा रहे हैं। महिला पुलिसकर्मी अपने अपने थानों में रहकर न सिर्फ़ अपनी सामान्य ड्यूटी कर रही हैं बल्कि ज़रूरतमंदो के लिए फ़ेस मास्क भी सिल रहीं हैं। कुछ शहरों से तो ये भी खबर आई है कि पुलिसकर्मी बेज़ुबान जानवरों को भी भोजन दे रहे हैं।

इसलिये प्रधान मंत्री हों, आम लोग हों या मशहूर हस्तियाँ, आज सभी लोग बढ़-चढ़ कर इन जाँबाज़ों की खुल कर तारीफ कर रहे हैं। यहाँ तक कि कोरोना से लड़ने वाले डाक्टर भी इन पुलिसकर्मियों के सहयोग के बिना कुछ नहीं कर पाएँगे। इसलिए हम सबको, चाहे हम किसी भी धर्म या जाति के हों बिना किसी के उकसाये में आए पुलिस विभाग के इन वीरों को सम्मान देना चाहिए। जहां तक संभव हो उनकी देखभाल भी करनी चाहिये। आपके घर के पास तैनात पुलिसकर्मी को चाय-पानी पूछना तो मानवता का सामान्य तक़ाज़ा है । 

आज अगर पुलिसकर्मी अपनी ड्यूटी ठीक से न करें तो लाकडाउन के बेअसर होने में देर नही लगेगी। कौन जाने फिर हमारे देश में भी कोरोना से संक्रमित होने वालों की संख्या अमरीका से कई अधिक हो जाए। इसलिये समय की माँग ये है कि हम सब जब अपने अपने घरों में आराम से बैठे हैं तो हम से जो भी बन पड़े इन पुलिसकर्मियों का सहयोग करना चाहिए। वो सहयोग किसी भी तरह से हो सकता है। युवा साथी स्वयमसेवकों कि तरह उनसे सहयोग करें। हर मोहल्ले में प्रवेश और निकासी पर कुछ ज़िम्मेदार नागरिक भी अपनी सेवाएँ भी दे सकते हैं। अगर आपके मोहल्ले में या आसपास में कुछ मज़दूर या कामगार लोग रहते हैं तो उन्हें भोजन बाँटने में भी आप पुलिस का सहयोग करें। 

इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि अगर ये पुलिसकर्मी, जो अपनी जान खतरे में डालकर हमारी जान बचा रहे हैं, तो इनका आभार प्रकट करने के लिए हमें प्रधान मंत्री जी की अपील का इंतेज़ार न करना पड़े बल्कि हम स्वयं ही ये कार्य करें।

आज जाहिल जमातियों ने अपने लोगों में ऐसा डर फैला दिया गया है कि जो भी डाक्टर इनकी जाँच के लिए इनके इलाक़े में आ रहा है वो इन्हें गिरफ़्तार करने आए हैं, जबकि ये सत्य नहीं है। इसलिये इसी समाज के चर्चित चेहरों  को अपने समाज के लोगों से ये अपील करनी चाहिए कि वो सभी पुलिसकर्मियों और डाक्टरों का सहयोग करें और जैसा सिनेस्टार सलमान खान ने भी कहा कि ऐसा न करके वे न सिर्फ़ अपनी ही मौत का कारण बन रहे हैं बल्कि समाज के लिए भी एक बड़ा ख़तरा बनते जा रहे हैं।

जिस तरह से समाज के कई वर्गों से ग़रीबों व जरूरतमंदों को भोजन व राशन मुहैया कराया जा रहा है ठीक उसी तरह सरकार और समाज सेवी संस्थाओं को कोरोना के युद्ध में जुटे इन सिपाहियों के बारे में भी कुछ ठोस कदम उठाने चाहिये। 

ग़ौरतलब है कि 1977 में बनी जनता पार्टी की पहली सरकार ने एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया था जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों व अन्य लोगों को मनोनीत कर उनसे पुलिस व्यवस्था में वांछित सुधारों की रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया। आयोग ने काफी मेहनत करके अपनी रिपोर्ट तैयार की पर बड़े दुख की बात है कि इतने बरस बीतने के बाद भी आज तक इस रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया। इसके बाद भी कई अन्य समितियां बनी जिन्हें यही काम फिर-फिर सौंपा गया। आजतक भारतीय पुलिस की जो छवि है वो जनसेवी की नहीं अत्याचारी की रही है। लेकिन कोरोना के कहर के समय जिस तरह पुलिसकर्मी आज जनता के रक्षक के रूप में उभर के आए हैं, लगता है कि सरकार को अब पुलिस सुधार के लिए अवश्य कुछ करना चाहिए। पर लाख टके का सवाल यह है कि क्या हो यह तो सब जानते हैं, पर हो कैसे ये कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकता। अनुभव बताता है कि हर राजनैतिक दल पुलिस की मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट है। क्योंकि पूरा पुलिस महकमा राजनेताओं की जागीर की तरह काम कर रहा है। जनता की सेवा को प्राथमिकता मानते हुए नहीं। फिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?

Monday, March 2, 2020

‘कॉंक्लेव’ से नहीं कर्मठ लोगों से हल होंगी समस्या

अक्सर देश के बडे़ मीडिया समूह, दिल्ली में राष्ट्रीय समस्याओं पर सम्मेलनों का आयोजन करते हैं। जिनमें देश और दुनिया के तमाम बड़े नेता और मशहूर विचारक भाग लेते हैं। देश की राजधानी में ऐसे सम्मेलन करना अब काफी आम बात होती जा रही है। इन सम्मेलनों में ऐसी सभी समस्याओं पर काफी आंसू बहाऐ जाते है और ऐसी भाव भंगिमा से बात रखी जाती है कि सुनने वाले यही समझे कि अगर इस वक्ता को देश चलाने का मौका मिले तो इन समस्याओं का हल जरूर निकल जाएगा। जबकि हकीकत यह है कि इन वक्ताओं में से अनेकों को अनेक बार सत्ता में रहने का मौका मिला और ये समस्यायें इनके सामने तब भी वेसे ही खड़ी थी जैसे आज खड़ी हैं। इन नेताओं ने अपने शासन काल में ऐसे कोई क्रान्तिकारी कदम नहीं उठाये जिनसे देशवासियों को लगता कि वो ईमानदारी से इन समस्याओं का हल चाहते है। अगर उनके कार्यकाल के निर्णयों कोे बिना राग-द्वेष के मूल्यांकन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जिन समस्यों पर ये नेतागण आज घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं, उन समस्याओं की जड़ में इन नेताओं की भी अहम भूमिका रही है। पर इस सच्चाई को बेबाकी से उजागर करने वाले लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। मजे कि बात यह कि इन गिने चुने लोगों की बात को भी जनता के सामने रखने वाले दिलदार मीडिया समूह उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। विरोधाभास ये कि प्रकाशन समूह जिन समस्याओं पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करते हैं और दावा करते है कि इन सम्मेलनों में इन समस्याओं के हल खोजे जा रहे है वे प्रकाशन समूह भी इन सम्मेलनों में सच्चाई को ज्यों का त्यों रखने वालों को नहीं बुलाते। इसलिए सरकारी सम्मेलनों की तरह ये अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी एक हाई प्रोफाइल जन सम्पर्क महोत्सव से ज्यादा कुछ नहीं होते।            

यह बड़ी चिंता की बात है कि ज्यादातर राष्ट्रीय माने जाने वाले मीडिया समूह अब जिम्मेदार पत्रिकारिता से हटकर जनसम्पर्क की पत्रिकारिता करने लगे हैं। इसलिए पत्रिकारिता भी अपनी धार खोती जा रही है और समस्याएं घटने के बजाय बढ़ती जा रही है। इसलिए क्षेत्रीय मीडिया समूह का प्रभाव और समाज पर पकड़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में देश के सामने जो बड़ी-बड़ी समस्यायें है उनके हल के लिए क्षेत्रीय मीडिया समूहों को एक ठोस पहल करनी चाहिए। अपने संवाददाताओं को एक व्यापक दृष्टि देकर उनसे ऐसी रिपोर्टों की मांग करनी चाहिए जो न सिर्फ समस्याओं का स्वरूप बताती हों बल्कि उनका समाधान भी। चिंता की बात यह कि आज कुछ क्षेत्रीय समाचार पत्र भी बयानों की पत्रकारिता पर ज्यादा जोर दे रहे है। ऐसे अखबारों में विकास और समाधान पर खबरें कम या आधी अधूरी होती है और छुटभैये नेताओं के बयान ज्यादा होते हैं। इससे उन नेताओं का तो सीना फूल जाता है पर समाज को कुछ नहीं मिलता, न तो मौलिक विचार और न हीं उनकी समस्याओं का हल। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब आम आदमी तक हर सूचना पहुँचे और समस्याओं के समाधान तय करने में आम आदमी की भी भावना को तरजीह दी जाए। जो मीडिया समूह इस परिपेक्ष में पत्रकारिता कर रहे हैं उनके प्रकाशनों में गहराई भी है और वजन भी। पर चिंता की बात यह कि देश के अनेक क्षेत्रों में ऐसे लोग मीडिया के कारोबार में आ गए है जो आज तक तमाम अवैध धंधे और अनैतिक कृत्य करते आये हैं। उनका उद्देश्य मीडिया को ब्लैकमेंलिंग का हथियार बनाने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जिनसे समाज के हक में किसी सार्थक पहल की उम्मीद नहीं की जा सकती। 

मिसाल के तौर पर ऐसे सम्मेलनों में अगर कोई भी मंत्री या सत्तापक्ष का नेता अगर कहता है कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने के लिए प्रतिबद्ध है तो क्या वे अपनी इस कथनी को वास्तविकता का रूप दे रहे हैं? ताजा उदाहरण भारत सरकार के एक सार्वजनिक प्रतिष्ठान ‘एनएचपीसी लिमिटेड’ के एक वरिष्ठ अधिकारी श्री अभय कुमार सिंह से सम्बंधित है। श्री सिंह के खिलाफ तमाम पुख्ता सुबूत और शिकायतों के बावजूद उन्हें मौजूदा सरकार के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों की वजह से बिना किसी जाँच के न सिर्फ दोषमुक्त किया गया बल्कि उन्हें ‘एनएचपीसी लिमिटेड’ के प्रबंध निदेशक पर नियुक्त किया गया है। श्री सिंह पर ‘एनएचपीसी लिमिटेड’ में कई अनियमित्ताओं के आरोप हैं जिनके चलते  जहां एक ओर एनएचपीसी लिमिटेड को भारी नुकसान उठाना पड़ा और वहीं दूसरी ओर श्री सिंह की निजी जायदाद में काफी बढ़ोतरी हुई। सोचने वाली बात ये है कि भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए बनी सीबीआई और सीवीसी भी आँखें मूँद कर बैठी रही, और बिना किसी ठोस जाँच के ऐसे भ्रष्ट अधिकारी को ‘एनएचपीसी लिमिटेड’ के सर्वोच्च पद पर जाने दिया गया। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब 2014 में सत्ता में आए थे, तो उन्होंने ये साफ कह दिया था कि ‘न खाऊँगा न खाने दूँगा’ लेकिन ऐसा लगता है कि सरकारी तंत्र में कुछ भ्रष्ट अधिकारी ऐसे हैं, जो प्रधानमंत्री जी के इस नारे को झूठा साबित करने में तुले हुए हैं और श्री अभय कुमार सिंह जैसे भ्रष्टाचारियों के हौसलों को बढ़ावा दे रहे हैं। लेकिन बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी! वो दिन दूर नहीं है कि जब किसी ईमानदार अधिकारी को इन भ्रष्ट अधिकारियों के बारे में पता चलेगा और वे इसे प्रधानमंत्री के संज्ञान में लाएँगे।

दरअसल देश की समस्याओं के हल के लिए विदेशी विचारको की नहीं बल्कि स्वयं सिद्ध व मौलिक विचारों के धनी ऐसे देशी लोगों की आवश्यक्ता है जो वास्तव में इन समस्याओं के हल प्रस्तुत कर सकें। चिंता की बात यह कि ऐसे ठोस लोगों की बात सुनने के लिए बहुत कम लोग अपना मंच उपलब्ध कराते हैं। 

मोदी जी ने कई क्रंातिकारी और कड़े निर्णंय लेकर, अपने लौहपुरूष होने का प्रमाण दिया है। जिनमें से कुछ निर्णंयों के लाभ आज नहीं तो कल जनता के सामने आऐंगे। पर मुझे यह कहते हुए दुखः भी है और चिंता भी कि जहाँ उनकी सोच वैश्विक है और वे योग्यता और ‘प्रोफेशनल्ज़िम’ को वरियता देते हैं और स्वयं सिद्ध लोगों का सम्मान करते हैं, वहीं आज भी अनेक सतही और दलालनुमा लोगों का धंधा सरकारी परियोजनाओं में पुराने ढर्रे के अनुसार फल-फूल रहा है। जिन्हें नौकरशाही के भ्रष्ट सदस्यों और राजनीतिज्ञों का पूरा समर्थन प्राप्त है। सत्ता के अहंकारवश यह वर्ग कोई भी सही बात सुनने या सलाह मानने को तैयार नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि जनता सब देख-समझ नहीं रही। प्रमाण समाने है कि गत कई चुनावों में पूरी ताकत झोंकने के बाद भी मतदाता भाजपा के प्रति उस तरह आकर्षित नहीं हुए, जैसा मोदी जी के नेतृत्व में आस्था होने के कारण, उसे होना चाहिए था। ये उनकेे लिए चिंता की बात होनी चाहिए।

एक बात जो मैं गत 30 वर्षों से हर नए प्रधानमंत्री को अपने लेखों के माध्यम से संबोधित करते हुए, लिखता आ रहा हूँ, वो एकबार फिर मोदी जी को सीधे संबोधित करते हुए कहना चाहता हूँ, ‘माननीय प्रधानमंत्रीजी! हर वो सम्राट महान कहलाया है, जिसके सलाहकार योग्य, ईमानदार और संवेदनशील रहे हैं। कोई भी राजा या शासक अकेले अपने बूते बहुत लंबे समय तक न तो राज कर सकता है और न लोकप्रिय बना रह सकता है। इसलिए उसे सही लोगों की जरूरत होती है। अगर इच्छा हो तो ऐसे लोगों को हर क्षेत्र में ढूढ़कर आपका मिशन पूरा करने के काम पर लगाया जा सकता है। पर ये पहल आपको ही करनी होगी। आपकी ‘रिफ्लैक्टेड ग्लोरी’ से दमकने वाले कभी ऐसे लोगों को आगे नहीं आने देंगे। जिससे उन्हें तो लाभ होगा पर आपको भारी हानि होगी। ये मेरा पिछले तीन वर्षों का मथुरा के विकास को लेकर चल रहे माहौल में अनुभव रहा है। निर्णंय आपको करना है।’

Monday, February 10, 2020

शिकारा: कश्मीरी प्रेम कथा

कश्मीर की घाटी से 30 बरस पहले भयावह परिस्थतियों में पलायन करने वाले कश्मीरी पण्डितों को उम्मीद थी कि विधु विनोद चोपड़ा की नई फिल्म ‘शिकारा’ उनके दुर्दिनों पर प्रकाश डालेगी।वो देखना चाहते थे कि किस तरह हत्या, लूट, बलात्कार, आतंक और मस्जिदों के लाउडस्पीकरों पर दी जा रही धमकियों के माहौल में 24 घंटे के भीतर लाखों कश्मीरी पण्डितों को अपने घर, जमीन-जायदाद, अपना इतिहास, अपनी यादें और अपना परिवेश छोड़कर भागना पड़ा। वे अपने ही देश में शरणार्थी हो गये । 
जिसके बाद जम्मू और अन्य शहरों के शिविरों में उन्हें बदहाली की जिंदगी जीनी पड़ी। 25 डिग्री तापमान से ज्यादा जिन्होंने जिंदगी में गर्मी देखी नहीं थी, वो 40 डिग्री तापमान में ‘हीट स्ट्रोक’ से मर गऐ। जम्मू के शिविरों में जहरीले सर्पदंश से भी कुछ लोग मर गए। कोठियों में रहने वाले टैंटों में रहने को मजबूर हो गऐ। 1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद ये सबसे बड़ी त्रासदी थी, जिस पर आज तक कोई बॉलीवुड फिल्म नहीं बनी। उन्हें उम्मीद थी कि कश्मीर के ही निवासी रहे विधु विनोद चोपड़ा इन सब हालातों को अपनी फिल्म में दिखाऐंगे, जिनके कारण उन्हें भी कश्मीर छोड़ना पड़ा। वो दिखाऐंगे कि किस तरह तत्कालीन सरकार ने कश्मीरी पण्डितों की लगातार उपेक्षा की। वो चाहती तो इन 5 लाख कश्मीरीयों को देश के पर्वतीय क्षेत्रों में बसा देती। पर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। 
कश्मीरी पण्डित आज भी बाला साहब ठाकरे को याद करते हैं। जिन्होने महाराष्ट्र के कॉलेजों में एक-एक सीट कश्मीरी शरणार्थियों के लिए आरक्षित कर दी। जिससे उनके बच्चे अच्छा पढ़ सके। वो जगमोहन जी को भी याद करते हैं, जिन्होंने उनके लिए बुरे वक्त में राहत पहुँचवायी । वो ये जानते हैं कि अब वो कभी घाटी में अपने घर नहीं लौट पाऐंगे। लेकिन उन्हें तसल्ली है कि धारा 370 हटाकर मोदी सरकार ने उनके जख्मों पर कुछ मरहम जरूर लगाया है । उन्हें इस फिल्म  से बहुत उम्मीद थी कि ये उनके ऊपर हुए अत्याचारों को विस्तार से दिखाऐगी। उनका कहना है उनकी ये उम्मीद पूरी नहीं हुई। 
दरअसल हर फिल्मकार का कहानी कहने का एक अपना अंदाज होता है, कोई मकसद होता है। विधु विनोद चोपड़ा ने ‘शिकारा’ फिल्म बनाकर इस घटनाक्रम पर कोई ऐतिहासिक फिल्म बनाने का दावा नहीं किया है। जिसमें वो ये सब दिखाने पर मजबूर होते। उन्होंने तो इस ऐतिहासिक दुर्घटना के परिपेक्ष में एक प्रेम कहानी को ही दिखाया है। जिसके दो किरदार उन हालातों में कैसे जिए और कैसे उनका प्रेम परवान चढ़ा। 
इस दृष्टि से से अगर देखा जाऐ, तो ‘शिकारा’ कम शब्दों में बहुत कुछ कह देती है। माना कि उस आतंकभरी रात की विभिषिका के हृदय विदारक दृश्यों को विनोद ने अपनी फिल्म में नहीं समेटा, पर उस रात की त्रासदी को एक परिवार पर बीती घटना के माध्यम से आम दर्शक तक पहुंचाने में वे सफल रहे हैं।यह उनके निर्देशन की सफलता है । 
इन विपरीत परिस्थितियों में भी कोई कैसे जीता है और चुनौतियों का सामना करता है, इसका उदाहरण हैं  ‘शिकारा’ के मुख्य पात्र, जो हिम्मत नहीं हारते, उम्मीद नहीं छोड़ते और एक जिम्मेदार नागरिक भूमिका को निभाते हुए, उस कड़वेपन को भी भूल जाते हैं जिसने उन्हें आकाश से जमीन पर पटक दिया। 
फिल्म के नायक का अपनी पत्नी के स्वर्गवास के बाद पुनः अपने गाँव कश्मीर में लौट जाना और अकेले उस खण्डित घर में रहकर गाँव के मुसलमान बच्चों को पढ़ाने का संकल्प लेना, हमें जरूर काल्पनिक लगता है, क्योंकि आज भी कश्मीर में ऐसे हालात नहीं हैं। पर विधु विनोद चोपड़ा ने इस आखिरी सीन के माध्यम से एक उम्मीद जताई है कि शायद भविष्य में कभी कश्मीरी पण्डित अपने वतन लौट सके।
पिछले दिनों नागरिकता कानून को लेकर जो देशव्यापी धरने, प्रदर्शन और आन्दोलन हुए हैं, उनमें एक बात साफ हो गई कि देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज हो या अल्पसंख्यक सिक्ख समाज, सभी वर्गों से खासी तादाद में लोगों ने मुसलमानों के साथ इस मुद्दे पर  कंधे से कंधा मिलाकर  समर्थन किया। ये अपने आप में काफी है कश्मीर की घाटी के मुसलमानों को बताने के लिए कि जिन हिंदुओं को तुमने पाकिस्तान के इशारे पर अपनी नफरत का शिकार बनाया था, जिनकी बहु-बेटियों को बेइज्जत किया था, जिनके घर लूटे और जलाए, जिनके हजारों मंदिर जमीदोज कर दिये, वो हिंदू ही तुम्हारे बुरे वक्त में सारे देश में खुलकर तुम्हारे समर्थन में आ गऐ। उनका ये कदम सही है  गलत ये भी नहीं सोचा और हमदर्दी में साथ दिया । कश्मीर के पण्डित कश्मीर की घाटी में फिर लौट सके, इसके लिए माहौल कोई फौज या सरकार नहीं बनाऐगी। ये काम तो कश्मीर के मुसलमानों को ही करना होगा। उन्हें समझना होगा कि आवाम की तरक्की, फिरकापरस्ती और जिहादों से नहीं हुआ करती। वो आपसी भाईचारे और सहयोग से होती है। मिसाल दुनियां के सामने है। जिन मुल्कों में भी मजहबी हिंसा फैलती है, वे गर्त में चले जाते हैं और लाखों घर तबाह हो जाते हैं। रही बात ‘शिकारा’ फिल्म की तो ये एक ऐतिहासिक ‘डॉक्युमेंटरी’ न होकर केवल प्रेम कहानी है, जो एहसास कराती है, कि नफरत की आग कैसे समाज और परिवारों को तबाह कर देती है। 
जहाँ तक ऐतिहासिक तथ्यों की बात है पिछले दो दशकों में ‘जोधा अकबर’, ‘पद्मावत’ जैसी कई फिल्में आईं हैं, जिनमें ऐतिहासिक घटनाओं का संदर्भ लेकर प्रेम कथाओं को दिखाया गया है। जब भी ऐसी फिल्में आती हैं, तो समाज का वह वर्ग आन्दोलित हो जाता है, जिनका उस इतिहास से नाता होता है और तब वे फिल्म का डटकर विरोध करते हैं, कभी-कभी तोड-फोड़ और हिंसा भी करते हैं, जैसा पद्मावत के दौर पर हुआ। फिल्म उद्योग को समझने वाले इसके अनेक कारण बताते हैं। 
कुछ मानते हैं कि ऐसा फिल्म निर्माता के इशारे पर ही होता है। क्योंकि जितना फिल्म को लेकर विवाद बढ़ता है, उतना ही उसे देखने की उत्सुकता बढ़ जाती है। जिसका सीधा लाभ निर्माता को मिलता है। पर इन विवादों का एक कारण लोगों की भावनाओं का आहत होना भी होता है। जाहिर है कि जिस पर बीतती है, वही जानता है। ऐसा ही कुछ फिल्म ‘शिकारा’ के संदर्भ में माना जा सकता है। क्योंकि कश्मीरी पण्डितों के साथ पिछले तीस सालों में भारत सरकार या देश के बुद्धिजीवियों और क्रांतिकारियों ने कभी कोई सहानुभूति नहीं दिखाई, कभी उनके मुद्दे पर हल्ला नहीं मचाया, कभी उन पर कोई सम्मेलन और गोष्टियाँ नहीं की गई और कभी उन पर कोई फिल्म नहीं बनी, इसलिए शायद उन्हें ‘शिकारा’ से बहुत उम्मीद थी। पर सारी उम्मीदें एक ही फिल्म निर्माता से करना या तीस बरस के सारे कष्टों को एक ही फिल्म में दिखाने की माँग  करना, कश्मीरी पण्डितों की आहत भावना को देखते हुए उनके लिए स्वाभाविक ही है। पर निर्माता के लिए संभव नहीं है। ‘शिकारा’ ने कश्मीरी पण्डितों की समस्या पर भविष्य में एक नहीं कई फिल्में बनाने की जमीन तैयार कर दी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले सालों में हमें उन अनछूए पहलूओं पर भी तथ्य परख फिल्में देखने को मिलेंगी। तब तक ‘शिकारा’ काफी है हमें भावनात्मक रूप से कश्मीर की इस बड़ी समस्या को समझने और महसूस कराने के लिए। इसलिए ये फिल्म अपने मकसद में कामयाब रही है। जिसे देश और विदेश में आम दर्शक पसंद करेंगे।

Monday, December 30, 2019

जरा मुसलमान भी सोचें !

आज पूरे देश में उथल पुथल मची है। इसके केंद्र में है मुसलमानो को लेकर भाजपा की सोच। जो हिंदुओं के उस वर्ग प्रतिनिधित्व करती है जो मुसलमानों के सार्वजनिक आचरण से विचलित रहे हैं।

दरअसल धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। 

चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, बैसाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्रांति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों को मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभायात्राएं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगर-कीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते कि इन्हें मर्यादित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, आयोजित किया जाए। 

किन्तु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज पढने की जो प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, उससे आम नागरिकों को बहुत तकलीफ  होती है। यातायात अवरुद्ध हो जाता है। पुलिस, एम्बुलैंस और फायर ब्रिगेड की गाडियां अटक जाती हैं, जिससे आपातकालीन सेवाओं में बाधा पहुंचती है। इस तरह बड़ी संख्या में एक साथ बैठकर मस्जिद के बाहर नमाज पढने से रूहानियत नहीं फैलती, बल्कि एक नकारात्मक राजनीतिक संदेश जाता है। जो धर्म का कम और ताकत का प्रदर्शन ज्यादा करता है। 

जाहिर है कि इससे अन्य धर्मावलंबियों में उत्तेजना फैलती है। ऐसी घटना साल में एक-आध बार किसी पर्व पर हो, तो शायद किसी को बुरा न लगे। पर हर जुम्मे की नमाज इसी तरह पढना, दूसरे धर्मावलंबियों को स्वीकार नहीं है। बहुत वर्ष पहले इस प्रवृत्ति का विरोध मुम्बई में शिवसेना ने बड़े तार्किक रूप से किया था। मुम्बई एक सीधी लाइन वाला शहर है, जिसे अंग्रेजी में ‘लीनियर सिटी’ कहते हैं। उत्तर से दक्षिण मुम्बई तक एक सीधी सड़क के दोनों ओर तमाम उपनगर और नगर बसा है। ऐसे में मुम्बई की धमनियों में रक्त बहता रहे, यह तभी संभव है, जब इस सीधी सड़क के यातायात में कोई रुकावट न हो। 

लगभग दो दशक पहले की बात है, मुंबई के मुसलमान भाइयों ने मस्जिदों के बाहर मुसल्ले बिछाकर हर जुम्मे को नमाज पढना शुरू कर दिया। जाहिर है इससे यातायात अवरुद्ध हो गया। आम जनता में इसका विरोध हुआ। शिव सैनिक इस मामले को लेकर बाला साहेब ठाकरे के पास गए। बाला साहेब ने हिन्दुओं को आदेश दिया कि वे हर मंदिर के बाहर तक खड़े होकर प्रतिदिन सुबह और शाम की आरती करें। जुम्मे की नमाज तो हफ्ते में एक दिन होती थी। अब यह आरती तो दिन में 2 बार होने लगी। व्यवस्था करने में मुम्बई पुलिस के हाथ-पांव फूल गए। नतीजतन मुम्बई के पुलिस आयुक्त ने दोनों धर्मों के नेताओं की मीटिंग बुलाई। पूरे सद्भाव के साथ यह सामूहिक फैसला हुआ कि न तो मुसलमान सड़क पर नमाज पढ़ेंगे और न ही हिन्दू सड़क पर आरती करेंगे। दोनों धर्मावलंबी आज तक अपने फैसले पर कायम हैं। 

अब देश की ताजा स्थिति पर गौर कर लें। गत दिनों भाजपा व सहयोगी संगठनों के कार्यकत्र्ताओं ने देश में कई जगह सड़कों पर नमाज का खुलकर विरोध किया। नतीजा यह हुआ कि हरियाणा सरकार ने मस्जिदों के बाहर नमाज पढने पर पाबंदी लगा दी। इसका असर आस-पास के राज्यों में भी हुआ। पिछले साल 11 मई को शुक्रवार था, आमतौर पर दिल्ली की कई मस्जिदों के बाहर दूर तक नमाजी फैल जाया करते थे, पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। लोगों ने राहत की सांस ली। एक साथी पत्रकार ने मुझसे प्रश्न किया कि आप तो आस्थावान व्यक्ति हैं। क्या आप सड़कों पर नमाज पढने को उचित मानते हैं? मेरा उत्तर था-बिल्कुल नहीं। इस पर वे उछल पड़े और बोले कि जिस हिन्दू से भी यह प्रश्न पूछ रहा हूं, उसका उत्तर यही है। इसका मतलब मोदी व अमित शाह का चुनावी एजैंडा तय हो गया। 

मैंने पूछा, ‘‘कैसे’’? तो उनका उत्तर था-भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने सड़कों पर नमाज का विरोध शुरू ही इसलिए किया है कि इससे हिन्दू और मुसलमानों का राजनीतिक धु्रवीकरण हो जाए और भाजपा को, विशेषकर उत्तर भारत में, हिन्दू मत हासिल करना सुगम हो जाए। अब भाजपा वाले अगले लोकसभा चुनाव तक ऐसे ही मुद्दे उछालते रहेंगे। जैसे तिरंगा ले जाकर मुसलमानों के मोहल्लों में पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाना, अलीगढ़ मुस्लिम विद्यालय से जिन्ना का चित्र हटवाना आदि। जिससे लगातार हिन्दू मत एकजुट होते जाएं। 

उन पत्रकार महोदय का यह मूल्यांकन सही हो सकता है। राजनीति में चुनाव जीतने के लिए नए-नए मुद्दे खोजने का काम हर दल करता है, इसमें कुछ गलत नहीं। अब यह तो मतदाता के विवेक पर है कि वह अपना मत प्रयोग करने से पहले किसी राजनीतिक दल का आकलन किस आधार पर करता है। केवल भावना के आधार पर या उसके द्वारा विकास कर पाने की संभावनाओं के आधार पर। चुनावी बहस को छोड़ दें, तो भी यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि धर्म का इस तरह राजनीतिक प्रयोग कहां तक उचित है। चाहे वह कोई भी धर्म को मानने वाला कहे। इसमें संदेह नहीं है कि अल्पसंख्यकों ने राजनीतिक दलों का मोहरा बनकर, अपने आचरण से लगातार, दूसरे धर्मावलंबियों को उत्तेजित किया है। 

चाहे फिर वह समान नागरिक कानून की बात हो, मदरसों में धार्मिक शिक्षा और राजनीतिक प्रवचनों की बात हो या फिर सड़क पर जुम्मे की नमाज पढने की बात हो। कुछ लोग मानते हैं कि हिन्दूवादियों का वर्तमान आक्रोश उनकी सदियों की संचित कुंठा का परिणाम है। दूसरे ऐसा मानते हैं कि अपनी राजनीति के लिए भाजपा इसे नाहक ही तूल दे रही है। पर हमारे जैसे निष्पक्ष नागरिक को फिर वह चाहे हिन्दू हो, मुसलमान हो, सिख हो, पारसी हो, जो भी हो, उसे सोचना चाहिए कि धर्म की उसके जीवन में क्या सार्थकता है? 

अगर धर्म के अनुसार आचरण करने से उसके परिवार में सुख, शांति और रूहानियत आती है, तो धर्म उसके लिए आभूषण है। पर अगर धर्म के ठेकेदारों, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, के इशारों पर नाचकर हम अविवेकपूर्ण व्यवहार करते हैं., तो वह तथाकथित धर्म हमारे लिए सामाजिक वैमनस्य का कारण बन जाता है, जिससे हमें बचना है। भारत में सदियों से सभी धर्म पनपते रहे हैं। अगर हम पारस्परिक सम्मान और सहयोग की भावना नहीं रखेंगे, तो समाज खंड-खंड हो जाएगा, अशांति और वैमनस्य बढ़ेगा तथा विकास अवरुद्ध हो जाएगा।

अनुभव बताता है कि जो राजनीतिक दल धर्म की राजनीति करते हैं उनकी भी उस धर्म के मूल सिद्धांतों में कोई आस्था नहीं होती। वो भी धर्म के प्रतीकों का दुरुपयोग केवल अपने राजनीतिक लक्ष्य प्राप्ति के लिए ही करते हैं। अगर उनसे तर्क वितर्क किया जाय तो वो जल्दी ही मान लेते हैं कि उनकी निष्ठा कहीं और है । यही हाल अन्य राजनीतिक विचारधाराओं का ढिंढोरा पीटेने वालों का भी होता है। फिर वो चाहें गांधीवादी विचारधारा हो, साम्यवादी हो या समाजवादी हो। ये सब एक सब ढकोसला है और मतदाताओं को लुभाने की युक्ति मात्र है। 

समस्या तब उत्पन्न होती है जब विचारधारा का झंडा लेकर चलने वाले दल समाज के एक वर्ग को इतना सम्मोहित कर लेते हैं कि लोग अपना विवेक खोकर अंध भक्त बन जाते हैं । उन्हें होश तब आता है जब  वे लुटपिट चुके होते हैं । तब तक राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा कर चुके होते हैं। 

ये भारत की ही नहीं पूरी दुनिया में राजनीति करने वालों की कहानी है। इसलिए आम जनता को अपने विवेक, समझ व अनुभव पर निर्भर रहकर निर्णयकरने  चाहिये। इसी में उसकी भलाई है।

Monday, December 23, 2019

क्या युवाओं को राजनीति करनी चाहिए?

जब-जब छात्र राजनैतिक व्यवस्था के विरूद्ध सड़क पर उतरते हैं, तब-तब ये सवाल उठता है कि क्या छात्रों को राजनीति करनी चाहिए? इस सवाल के जबाव अपनी-अपनी दृष्टि से हर समुदाय देता है । जो राजनैतिक दल सत्ता में होते हैं, वे छात्र आन्दोलन की भर्त्सना  करते हैं। उसे हतोत्साहित करते हैं और जब छात्र काबू में नहीं आते, तो उनका दमन करते हैं। फिर वो चाहे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन में कूंदने वाले छात्र हों या 70 के दशक में गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन से शुरू होकर जयप्रकाश नारायण के संपूर्णं क्रांति के आव्हान पर कूंदने वाले छात्र हों, जिन्होने इंदिरा गांधी की सत्ता पलट दी थी या फिर अन्ना हजारे के आन्दोलन में कूंदने वाले छात्र हों। 

रोचक बात ये है कि जो दल सत्ता में आकर छात्रों का दमन करते हैं, वही दल जब विपक्ष में होते हैं, तो छात्र आन्दोलनों को हवा देकर ही अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकते हैं। इसमें कोई दल अपवाद नहीं हैं। अगर शिक्षा संस्थानों और अभिभावकों की दृष्टि से देखा जाऐ, तो भी दो मत हैं। जो संस्थान या अभिभावक चाहते हैं कि उनके निर्देशन में युवा केवल पढ़ाई पर ध्यान दें, डिग्री हासिल करें और नौकरी करे, वे नहीं चाहते कि उनके छात्र किसी भी तरह की राजनीति में हिस्सा ले। 

मगर एक दूसरा वर्ग उन शिक्षकों और अभिभावकों का है, जो अपने छात्रों में पूर्णं विश्वास रखते हैं और जानते हैं कि चाहे वे छात्र राजनीति में कितना ही हिस्सा क्यों न लें, उन्हें अपने भविष्य को लेकर पूरी स्पष्टता है । इसलिए वे पढ़ाई की कीमत पर आन्दोलन नहीं करेंगे। ऐसे संस्थान और अभिभावक छात्रों को रचनात्मक राजनीति करने से नहीं रोकते।

अगर निष्पक्ष मूल्यांकन करें, तो हम पाऐंगे कि जो छात्र केवल पढ़ाई पर ध्यान देते हैं और रट्टू तोते की तरह इम्तेहान पास करते जाते हैं, उनके व्यक्तित्व का संूपर्णं विकास नहीं होता। प्रायः ऐसे नौजवानें में समाजिक सारोकार भी नहीं होते। उनका व्यक्तित्व एकांगी हो जाता है और जीवन के संघर्षों में वे उतनी मजबूती से नहीं खड़े हो पाते, जितना कि वे छात्र खड़े होते हैं, जिन्होंने शिक्षा के साथ सामाजिक सरोकार को बनाऐ रखा हो। 

जो छात्र विज्ञान, शोध या तकनीकी के क्षेत्र में जाते हैं, उनकी बात दूसरी है। उनका ध्यान अपने विषय पर ही केंद्रित रहता है और वे अपने संपूर्णं अंगों को कछुऐ की तरह समेटकर एक ही दिशा में लगातार काम करते जाते हैं।

अपने जीवन में मैंने भी अलग-अलग तरह माहौल में अनुभव प्राप्त किये हैं। जब तक मैं कॉलेज में पढ़तो था, तो मेरा व्यक्तित्व दो  धुरियों में बटां था। मेरे पिता जो एक बड़े शिक्षाविद् थे, उनके विचार यही थे कि मैं पढ़ू और नौकरी करूं। जबकि मेरी मां जोकि संस्कृत की विद्वान थी और मथुरा के रमणरेती वाले महाराज श्रद्धेय गुरू शरणनानंद जी की लखनऊ वि0वि0 की सहपाठी थीं, वे छात्र जीवन से ही गांधीवादी विचारधारा और सामाजिक सरोकारों को लेकर बहुत सक्रिय रहीं थीं। उनका ही प्रभाव मुझ पर ज्यादा पड़ा और 18 वर्ष की आयु में एक स्वयंसेवक के रूप में पिछड़े गाँवों में सेवा कार्य करने घर छोड़कर चला गया। 1974 के उस दौर में मैंने गाँव की गरीबी और बदहाली में जीवन के अनूठे अनुभव प्राप्त किये। उसका ही परिणाम है कि आजतक मैं धन कमाने की दौड़ में न पड़कर समाज, राष्ट्र या सनातन धर्म के विषयों पर अपनी ऊर्जा पूरी निष्ठा से लगाता रहा हूं। अगर इसे अपने मुंह मियाँ  मिट्ठू न माना जाऐ, तो देश में जो लोग मुझे जानते हैं, वो ये भी जानते हैं कि मैंने प्रभु कृपा भारत में कई बार इतिहास रचा है। ये निर्भीकता और समाज के प्रति समर्पण का ये भाव इसीलिए आया क्योंकि मैंने पढ़ाई के साथ समाज का भी अध्ययन जारी रखा। अन्यथा मैं आज किसी तंत्र की नौकरी में जीवन बिताकर खाली बैठा होता। जैसा आईसीएस रहे श्री जेसी माथुर ने सेवानिवृृत्त होने के बाद एक सुप्रसिद्ध बौद्धिक पत्रिका दिनमानमें एक श्रृंखला लिखी थी । जिसका मूल था कि मैं आईसीएस में रहते हुए, एक मशीन का पुर्जा था, जिसका न दिल था, न दिमाग था। कल का आईसीएस ही आज का आईएएस है। पिछले 35 वर्षों में सैंकड़ों आईएएस अधिकारियों से संपर्क रहा है और मैं दावे से कह सकता हूं कि वही आईएसएस अधिकारी जीवन में कुछ ठोस और रचनात्मक कार्य कर पाते हैं, जो अपनी नौकरी के मायाजाल के बाहर, समाज से जुड़कर सहज जीवन जीते हैं और अपनी संवेदनशीलता को मरने नहीं देते। बाकी तो पूरी जिंदगी अच्छी पोस्टिंग और प्रमोशन के चक्कर में ही काट देते हैं। इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं। पर आमतौर पर यही अनुभव रहा है। 

इसलिए मैं इस बात का समर्थक हूं कि छात्रों को राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए। फिर वो चाहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य हों, किसी समाजवादी आन्दोलन के सदस्य हों, किसी वामपंथी आन्दोलन के सदस्य हों या किसी गांधीवादी आन्दोलन के सदस्य हों। जो भी हो  उन्हें इस प्रक्रिया से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। प्रांतीय और केंद्र सरकार का ये दायित्व है कि वे छात्र राजनीति पर तब तक अंकुश न लगायें, जब तक कि वह हिंसात्मक या विध्वंसात्मक न हो। ऐसी छात्र राजनीति समाज की घुटन को सेफ्टी वाल्वके रूप में बाहर निकालती है और ये राज सत्ता के हित में ही होता है।

Monday, December 16, 2019

बलात्कार पर राजनीति क्यों ?

 मोदी जी ने जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तो यूपीए सरकार पर हमला करते हुए दिल्ली को ‘रेप राजधानी’ बताया था। अब जब वे प्रधानमंत्री हैं, तो राहुल गांधी भारत को ही ‘रेप देश’ बता रहे हैं। इस पर घमासान छिड़ा है, दोनों प्रमुख दल एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं। मीडिया में शोर मच रहा है। सड़कों पर नौटंकी हो रही है।रैलियाँ, झंडे और प्रदर्शन किये जा रहे हैं। इस सबसे क्या निकलेगा? क्या देश की बहु-बेटियों की इज्जत बच जायेगी? क्या उनके बलात्कार होने बंद हो जाऐंगे? क्या वे बेखौफ होकर अपने गाँव, शहर या सड़क पर निकल सकेंगी? क्या पुलिस बलात्कार के आरोपियों को फुरती से पकड़कर सजा दिलवायेगी? क्या रहीसजादे या नेताओं के अय्याश बेटे कानून और पुलिस के डर से सुधर जाऐंगे? ऐसा कुछ भी नहीं होगा। ये दोनों दल उछल-कूदकर चुप हो जाऐंगे। इससे कुछ नहीं बदलेगा। फिर ये नाटक क्यों? बलात्कार को रोकने में कोई सरकार  अकेली पुलिस सफल नहीं हो सकती। 
क्योंकि इतने बड़े मुल्क में किस गांव, खेत, जंगल, कारखाने, मकान या सुनसान जगह बलात्कार होगा, इसका अन्दाजा कोई कैसे लगा सकता है? वैसे भी जब हमारे समाज में परिवारों के भीतर बहू-बेटियों के शारीरिक शोषण के अनेकों समाजशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं तो यह बात सोचने की है कि कहीं हम दोहरे मापदण्डों से जीवन तो नहीं जी रहे? उस स्थिति में हमारे पुरूषों के रवैये में बदलाव का प्रयास करना होगा। जो एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया है। समाज में हो रही आर्थिक उथल-पुथल, शहरीकरण, देशी और विदेशी संस्कृति का घालमेल और मीडिया पर आने वाले कामोत्तेजक कार्यक्रमों ने अपसंस्कृति को बढ़ाया है। जहाँ तक पुलिसवालों के खराब व्यवहार का सवाल है, तो उसके भी कारणों को समझना जरूरी है। 1980 से राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट धूल खा रही है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को सुधारने के व्यापक सुझाव दिए गए थे। पर किसी भी राजनैतिक दल या सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रचारित करने और लागू करने के लिए जोर नहीं दिया। नतीजतन हम आज भी 200 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं।

पुलिसवाले किन अमानवीय हालतों में काम करते हैं, इसकी जानकारी आम आदमी को नहीं होती। जिन लोगों को वी.आई.पी. बताकर पुलिसवालों से उनकी सुरक्षा करवायी जाती है, ऐसे वी.आई.पी. अक्सर कितने अनैतिक और भ्रष्ट कार्यों में लिप्त होते हैं, यह देखकर कोई पुलिसवाला कैसे अपना मानसिक संतुलन रख सकता है? समाज में भी प्रायः पैसे वाले कोई अनुकरणीय आचरण नहीं करते। पर पुलिस से सब सत्यवादी हरीशचंद्र होने की अपेक्षा रखते हैं। हममें से कितने लोगों ने पुलिस ट्रेनिंग कॉलेजों में जाकर पुलिस के प्रशिक्षणार्थियों के पाठ्यक्रम का अध्ययन किया है? इन्हें परेड और आपराधिक कानून के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ाया जाता जिससे ये समाज की सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझ सकें। ऐसे में हर बात के लिए पुलिस को दोष देने वाले नेताओं और मध्यमवर्गीय जागरूक समाज को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए।

इसी तरह बलात्कार की मानसिकता पर दुनियाभर में तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययन हुए हैं। कोई एक निश्चित फॉर्मूला नहीं है। पिछले दिनों मुम्बई के एक अतिसम्पन्न मारवाड़ी युवा ने 65 वर्ष की महिला से बलात्कार किया तो सारा देश स्तब्ध रह गया। इस अनहोनी घटना पर तमाम सवाल खड़े किए गये। पिता द्वारा पुत्रियों के लगातार बलात्कार के सैंकड़ों मामले रोज देश के सामने आ रहे हैं। अभी दुनिया ऑस्ट्रिया के गाटफ्राइट नाम के उस गोरे बाप को भूली नहीं है जिसने अपनी ही सबसे बड़ी बेटी को अपने घर के तहखाने में दो दशक तक कैद करके रखा और उससे दर्जन भर बच्चे पैदा किए। इस पूरे परिवार को कभी न तो धूप देखने को मिली और न ही सामान्य जीवन। घर की चार दीवारी में बन्द इस जघन्य काण्ड का खुलासा 2011 में तब हुआ जब गाटफ्राइट की एक बच्ची गंभीर रूप से बीमारी की हालत में अस्पताल लाई गयी। अब ऐसे काण्डों के लिए आप किसे जिम्मेदार ठहरायेंगे? पुलिस को या प्रशासन को ? यह एक मानसिक विकृति है। जिसका समाधान दो-चार लोगों को फाँसी देकर नहीं किया जा सकता। इसी तरह पिछले दिनों एक प्रमुख अंग्रेजी टी.वी. चैनल के एंकरपर्सन ने अतिउत्साह में बलात्कारियों को नपुंसक बनाने की मांग रखी। कुछ देशों में यह कानून है। पर इसके घातक परिणाम सामने आए हैं। इस तरह जबरन नपुंसक बना दिया गया पुरूष हिंसक हो जाता है और समाज के लिए खतरा बन जाता है।

बलात्कार के मामलों में पुलिस तुरत-फुरत कार्यवाही करे और सभी अदालतें हर दिन सुनवाई कर 90 दिन के भीतर सजा सुना दें। सजा ऐसी कड़ी हो कि उसका बलात्कारियों के दिमाग पर वांछित असर पड़े और बाकी समाज भी ऐसा करने से पहले डरे। इसके लिए जरूरी है कि जागरूक नागरिक, केवल महिलाऐं ही नहीं पुरूष भी, सक्रिय पहल करें और सभी राजनैतिक दलों और संसद पर लगातार तब तक दबाव बनाऐ रखें जब तक ऐसे कानून नहीं बन जाते। कानून बनने के बाद भी उनके लागू करवाने में जागरूक नागरिकों को हमेशा सतर्क रहना होगा। वरना कानून बेअसर रहेंगे। अगर ऐसा हो पाता है तभी हालात कुछ सुधरेंगे। राजनैतिक दलों की नौटंकी से नही।

Monday, November 18, 2019

सूचना के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय की मोहर

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का दफतर भी सूचना के अधिकार कानून के दायरे में है। यह बात खुद सुप्रीम कोर्ट ने कह दी है। इससे एक बार फिर पक्का हो गया है कि यह कानून कितना महत्वपूर्ण है। ये अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट की इस व्याख्या का ज्यादा विश्लेषण नहीं हुआ। जबकि इस फैसले से भारतीय लोकतंत्र के कई खास पहलुओं पर भी बात की जा सकती थी।
फैसले से एक बात साफ हुई है कि पारदर्शिता और जवाबदेही किसी भी तरह से किसी की स्वतंत्रता में बाधक नहीं हो सकती। इस फैसले ने यह भी याद दिलाया कि लोकतंत्र में लोक सर्वोपरि है। लोक यानी नागरिकों के सामने सरकारी कामकाज पारदर्शी होना चाहिए।
फैसले का असर दूर तक होगा। इस कानून को सरकारी कामकाज में अड़चन मानने वालों को भारी झटका लगा है। वरना ऐसा माहौल बनाने की कोशिश होने लगी थी कि इस कानून का दुरूपयोग ज्यादा हो रहा है। ज्यादा कहने की जरूरत नहीं कि कुछ सूचनाओं को जनहित और देशहित के खिलाफ बताकर गोपनीय बनाए रखने के तर्क भी दिए जाते हैं। विशेष मामलों में यह तर्क सही भी हो सकता है लेकिन इसकी आड़ में जरूरी सूचनाओं के छुपाव की भी उतनी ही गुंजाइश बनती है। बहरहाल परम निरापद तो कोई भी प्रावधान नहीं होता। फिर भी इतना तय है कि इस कानून को सरकारी कामकाज में अड़चन मानने वालों के हौसले पस्त पड़ेंगे। उससे भी बड़ी बात यह कि अब इस कानून को और ज्यादा गंभीरता से लिए जाने का माहौल बनेगा।
फैसले का आगा पीछा देखा जाता तो चर्चा यह भी होती कि अदालत ने नागरिकों को कितनी अहमियत दी। राजनीतिक भाषा में लोकतंत्र का निर्माता ही नागरिक है। इस नाते वह ही संप्रभु है। लेकिन भारतीय लोकतंत्र में  उसकी संप्रभुता उसके बनाए कानून तक ही है। उसके प्रतिनिधि उसकी आंकाक्षा और हित में कानून बनाते हैं।  इन्ही कानूनों से सभी बंधे होते हैं। इस तरह से अपनी राजव्यवस्था में कानून ही संप्रभु है। यानी यह कहना गलत होगा कि कुछ नागरिक अपने रवैए से सरकारी कामकाज में अड़चन डाल सकते हैं।  किसी भी कानून बनने की प्रकिया में सबसे पहले यही इंतजाम सोचा जाता है जिससे कानून का बेजा इस्तेमाल न हो सके। सूचना के अधिकार का कानून इतना मामूली नहीं कि कुछ अवांछित तत्व इसका बेजा फायदा उठा ले जाएं। वैसे चलन यही है कि बेजा फायदा उठाने की कूवत ताकतवरों में ही होती है और सरकारी ओहदेदारों की ताकत कौन नहीं जानता। अपनी जवाबदेही से बचने की ताकत तो वे सबसे पहले हासिल करते हैं। लोकसेवकों की इसी ताकत से निपटने के लिए नागरिकों के लिए यह कानून रूपी हथियार बनाया गया था।
यह कानून सन 2005 में बना था। यानी अब से 14 साल पहले नागरिकों के सामने लोक सेवकों को जबाबदेह बनाने के मकसद से यह बना कानून था। और वाकई इसका असर इतना जबर्दस्त हुआ कि तब से अब तक तमाम सरकारें और अपनी नौकरशाही को चौकन्ना होना पड़ा कि कहीं कोई सवाल न पूछ ले। और इसीलिए दिन पर दिन आरटीआई नामके इस कानून के दुर्गणों की चर्चा बढ़ाई जा रही थी। लेकिन अदालत ने कह दिया है कि इस कानून से तो हम  भी बंधे हैं और सही बंधे हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कानून से अंसंतुष्टों को भारी झटका लगा है।
सरकारी कामकाज में स्वतंत्रता के सवाल का जवाब भी इस फैसले में बिल्कुल साफ-साफ हैं? वैसे एक सवाल पूछा जा सकता है कि सरकारी लोग जवाब न देने की स्वतंत्रता चाहते क्यों हैं? बात को गहराई में जाकर देखा जाएगा तो स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच फर्क करने की बात उठेगी। जवाबदेही न हो तो स्वच्छंदता बढ़ती है। भ्रष्टाचार होता है।
फैसले का एक पहलू पारदर्शिता को लेकर है। इसी दशक में  देश में जब भ्रष्टाचार के खिलाफ गदर हुआ था तब पारदर्शिता पर ज्यादा बात नहीं हुई थी बल्कि एक नए प्रकार की पुलिस यानी लोकपाल की मांग हुई थी। बस लोकपाल के आगे एक विशेषण लगा था जन यानी जन लोकपाल की मांग की जा रही थी। क्या वह जन लोकपाल लोक सेवक से इतर कुछ हो सकता था। बहरहाल लोकपाल जब भी अपने वास्तविक स्वरूप में आएगा उसके सामने भी पारदर्शिता और जवाबदेही का मसला आना तय है। उसे भी सूचना के अधिकार से संपन्न नागरिकों के सवालों के जवाब देना ही पड़ेंगे। वह जवाब देने से बच भी कैसे सकता है? आखिर वह लोकसेवक ही होगा, उसे बताना पड़ेगा कि वह भ्रष्टाचार की किन किन शिकायतों पर कितनों से जांच कर रहा है और सवाल पूछे जाने के दिन तक अपनी जांच कहां तक की?

कुलमिलाकर भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिकों के पास आज तक जो भी अधिकार हैं उनमें सूचना का अधिकार अहम बनता जा रहा है। अपना सर्वोच्च न्यायालय अगर इसी तरह के फैसले करता रहा तो वह लोकतंत्र को मजबूत करने का जरूरी काम भी करता रहेगा।