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Monday, August 4, 2025

डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा भारत को तोहफ़ा?

हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत से आयात होने वाले सामानों पर 25% टैरिफ और रूस से तेल और हथियारों की खरीद के लिए अतिरिक्त दंड की घोषणा की। यह कदम भारत-अमेरिका व्यापार संबंधों में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा जा रहा है, विशेष रूप से तब जब दोनों देश एक व्यापार समझौते पर बातचीत कर रहे हैं। ट्रम्प ने भारत और रूस को ‘मृत अर्थव्यवस्था’ (डेड इकॉनमी) कहकर निशाना बनाया और भारत के उच्च टैरिफ और गैर-मौद्रिक व्यापार बाधाओं को इसका कारण बताया।


डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने दूसरे कार्यकाल में वैश्विक व्यापार को प्रभावित करने वाली आक्रामक टैरिफ नीतियों को अपनाया है। 7 अगस्त 2025 से लागू होने वाले 25% टैरिफ का ऐलान करते हुए, ट्रम्प ने भारत के रूस से तेल और सैन्य उपकरणों की खरीद को प्रमुख कारण बताया। उनके अनुसार, भारत रूस का सबसे बड़ा ऊर्जा खरीदार है, जो यूक्रेन में रूस के सैन्य अभियान के समय में अस्वीकार्य है। इसके अतिरिक्त, ट्रम्प ने भारत के उच्च टैरिफ (जिसे उन्होंने दुनिया में सबसे अधिक बताया) और गैर-मौद्रिक व्यापार बाधाओं की भी आलोचना की।



यह टैरिफ अचानक भारत के लिए एक झटके के रूप में आया है, क्योंकि भारत और अमेरिका पिछले कुछ महीनों से एक व्यापार समझौते पर बातचीत कर रहे थे। ट्रम्प ने पहले 20-25% टैरिफ की संभावना जताई थी, लेकिन अंतिम घोषणा में अतिरिक्त दंड भी शामिल किया गया। यह कदम भारत के फार्मास्यूटिकल्स, कपड़ा, रत्न और आभूषण, और ऑटोमोबाइल जैसे क्षेत्रों को प्रभावित कर सकता है, जो अमेरिका के साथ भारत के व्यापार का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।


कांग्रेस के नेता और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने ट्रम्प के ‘मृत अर्थव्यवस्था’ वाले बयान का समर्थन करते हुए केंद्र सरकार पर तीखा हमला बोला। उन्होंने कहा, हां, ट्रम्प सही हैं। हर कोई जानता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मृत है, सिवाय प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के। मुझे खुशी है कि ट्रम्प ने यह तथ्य सामने रखा। पूरी दुनिया जानती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था खत्म हो चुकी है। भाजपा ने अडानी को मदद करने के लिए अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर दिया।



राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों पर सवाल उठाए, विशेष रूप से नोटबंदी और ‘त्रुटिपूर्ण’ जीएसटी को अर्थव्यवस्था के पतन का कारण बताया। उन्होंने यह भी पूछा कि ट्रम्प के भारत-पाकिस्तान सीजफायर को लेकर बार बार किए जा रहे दावों पर प्रधानमंत्री की चुप्पी क्यों है?



कांग्रेस पार्टी ने इस टैरिफ को भारत की विदेश नीति की विफलता के रूप में चित्रित किया। कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत ने कहा, राहुल गांधी ने पहले ही इस बारे में चेतावनी दी थी। यह टैरिफ हमारी अर्थव्यवस्था, निर्यात, उत्पादन और रोजगार पर असर डालेगा। हम अमेरिका को फार्मास्यूटिकल्स निर्यात करते हैं और 25% टैरिफ से ये महंगे हो जाएंगे, जिससे मांग कम होगी और उत्पादन व रोजगार पर असर पड़ेगा। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सवाल उठाए और टैरिफ को भारत के व्यापार, एमएसएमई और किसानों के लिए हानिकारक बताया।


अन्य विपक्षी नेताओं ने भी इस मुद्दे पर सरकार की आलोचना की। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने इसे भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बुरे दिनों की शुरुआत बताया, जबकि असदुद्दीन ओवैसी ने ट्रम्प को व्हाइट हाउस का जोकर कहकर उनकी आलोचना की। हालांकि, कांग्रेस के कुछ नेताओं ने राहुल गांधी के रुख से अलग हटकर अधिक संतुलित दृष्टिकोण अपनाया। शशि थरूर ने चेतावनी दी कि टैरिफ भारत-अमेरिका व्यापार को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकते हैं और भारत को अपने निर्यात बाजारों में विविधता लाने की आवश्यकता है।


वहीं अर्थशास्त्रियों ने इस टैरिफ के भारत की अर्थव्यवस्था पर संभावित प्रभाव को लेकर मिश्रित राय व्यक्त की है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसका प्रभाव सीमित होगा, जबकि अन्य ने दीर्घकालिक नुकसान की चेतावनी दी है। ईन्वेस्टमेंट इनफार्मेशन एंड क्रेडिट रेटिंग एजेंसी ऑफ इंडिया (आईसीआरए) की मुख्य अर्थशास्त्री अदिति नायर ने कहा, प्रस्तावित टैरिफ और दंड हमारी अपेक्षा से अधिक हैं और इससे भारत की जीडीपी वृद्धि पर असर पड़ सकता है। प्रभाव की गंभीरता दंड के आकार पर निर्भर करेगी। अर्नेस्ट एंड यंग इंडिया (ई वाई) के व्यापार नीति विशेषज्ञ अग्नेश्वर सेन ने बताया कि टैरिफ से समुद्री उत्पाद, फार्मास्यूटिकल्स, कपड़ा, चमड़ा और ऑटोमोबाइल जैसे क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित होंगे। ये क्षेत्र भारत-अमेरिका व्यापार में मजबूत हैं, और टैरिफ से इनकी प्रतिस्पर्धात्मकता कम हो सकती है।


फाउंडेशन फॉर इकोनॉमिक डेवलपमेंट के राहुल अहलूवालिया ने चेतावनी दी कि टैरिफ भारत को वियतनाम और चीन जैसे अन्य एशियाई अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में कमजोर स्थिति में ला सकता है। उनके अनुसार, निर्यात आपूर्ति श्रृंखलाओं का भारत की ओर स्थानांतरण अब संभावना नहीं है। हालांकि, कुछ विशेषज्ञों ने आशावादी रुख अपनाया। फिक्की के अध्यक्ष हर्षवर्धन अग्रवाल ने कहा, हालांकि यह कदम दुर्भाग्यपूर्ण है और हमारे निर्यात पर असर डालेगा, हमें उम्मीद है कि यह एक अल्पकालिक घटना होगी और दोनों पक्ष जल्द ही एक स्थायी व्यापार समझौते पर पहुंच जाएंगे।


भारत सरकार ने इस मुद्दे पर सतर्क और संयमित रुख अपनाया है। वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने संसद में कहा, हम राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए सभी आवश्यक कदम उठाएंगे। भारत ने एक दशक में ‘फ्रैजाइल फाइव’ से दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बनने का सफर तय किया है। सरकारी सूत्रों ने संकेत दिया है कि भारत तत्काल जवाबी टैरिफ लगाने के बजाय बातचीत के रास्ते को अपनाएगा। एक सूत्र ने कहा, चुप्पी सबसे अच्छा जवाब है। हम बातचीत की मेज पर इस मुद्दे को हल करेंगे। 

कुल मिलाकर डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा भारत पर लगाए गए 25% टैरिफ और अतिरिक्त दंड ने भारत-अमेरिका व्यापार संबंधों में एक नया तनाव पैदा कर दिया है। राहुल गांधी और विपक्ष ने इसे सरकार की आर्थिक और विदेश नीति की विफलता के रूप में प्रस्तुत किया, जबकि अर्थशास्त्रियों ने इसके मिश्रित प्रभावों की ओर इशारा किया है। जहां कुछ क्षेत्रों पर तत्काल असर पड़ सकता है, वहीं भारत के पास अन्य बाजारों में विविधता लाने और बातचीत के जरिए समाधान खोजने का अवसर है। यह स्थिति न केवल आर्थिक बल्कि भूराजनीतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत को अपनी रणनीतिक स्वायत्तता और आर्थिक हितों को संतुलित करना होगा। देखना यह है कि आनेवाले दिनों में सरकार इस समस्या से कैसे निपटती है।  

Monday, February 24, 2025

कैसे बढ़े राष्ट्रीय उत्पादकता?


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार दावा कर चुके हैं कि उनके तीसरे कार्यकाल में भारत दुनिया की तीसरी बड़ी इकॉनमी बन जाएगा। फ़िलहाल भारत दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था वाला देश है। वहीं अमेरिका अभी भी पहले नंबर पर है, जिसकी अर्थव्‍यवस्‍था की साइज 26.7 ट्रिलियन डॉलर है। दूसरे नंबर पर चीन है और इसकी अर्थव्‍यवस्‍था का आकार 19.24 ट्रिलियन डॉलर है। तीसरे नंबर पर जापान 4.39 ट्रिलियन डॉलर के साथ मौजूद है। एक अनुमान के अनुसार भारत की अर्थव्‍यवस्‍था साल 2030 तक जापान को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था वाला देश बन जाएगा। यदि भारत 2025 तक 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था हासिल करने की यदि क्षमता रखता है तो उसके संकेत तभी मिलने शुरू होंगे जब हमारे देश की उत्पादकता में वृद्धि होगी।


राष्ट्रीय उत्पादकता की जब भी बात होती है तो आम आदमी समझता है कि यह मामला उद्योग, कृषि, व्यापार व जनसेवाओं से जुडा है। हर व्यक्ति उत्पादकता बढ़ाने के लिये सरकार और उसकी नीतियों को जिम्मेदार मानता है। दूसरी तरफ जापान जैसा भी देश है, जिसने अपने इतने छोटे आकार के बावजूद आर्थिक वृद्धि के क्षेत्र में दुनिया को मात कर दिया है। सूनामी के बाद हुई तबाही को देखकर दुनिया को लगता था कि जापान अब कई वर्षों तक खड़ा नहीं हो पायेगा। पर देशभक्त जापानियों ने न सिर्फ बाहरी मदद लेने से मना कर दिया, बल्कि कुछ महीनों में ही देश फिर उठ खड़ा हो गया। वहाँ के मजदूर अगर अपने मालिक की नीतियों से नाखुश होते हैं तो काम-चोरी, निकम्मापन या हड़ताल नहीं करते। अपनी नाराजगी का प्रदर्शन, औसत से भी ज्यादा उत्पादन करके करते हैं। मसलन जूता फैक्ट्री के मजदूरों ने तय किया कि वे हड़ताल करेंगे, पर इसके लिये बैनर लगाकर धरने पर नहीं बैठे। पहले की तरह लगन से काम करते रहे। फर्क इतना था कि वे एक जोड़ी जूता बनाने की बजाय एक ही पैर का जूता बनाते चले गये। इससे उत्पादन भी नहीं रूका और मालिक तक उनकी नाराजगी भी पहुँच गयी।



जबकि हमारे देश में हर नागरिक समझता है कि कामचोरी और निकम्मापन उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। दफ्तर में आये हो तो समय बर्बाद करो। कारखाने में हो तो बात-बात पर काम बन्द कर दो। सरकारी विभागों में हो तो तनख्वाह को पेंशन मान लो। मतलब यह कि काम करने के प्रति लगन का सर्वथा अभाव है। इसीलिये हमारे यहाँ समस्याओं का अंबार लगता जा रहा है। एक छोटा सा उदाहरण अपने इर्द-गिर्द की सफाई का ही ले लीजिये। अगर नगर पालिका के सफाई कर्मचारी काम पर न आयें तो एक ही दिन में शहर नर्क बन जाता है। हमें शहर की छोड़ अपने घर के सामने की भी सफाई की चिन्ता नहीं होती। बिजली और पानी का अगर पैसा न देना हो तो उसे खुले दिल से बर्बाद किया जाता है। सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना तो दूर उसे बर्बाद करने या चुराने में हमें महारथ है। इसलिये सार्वजनिक स्थलों पर लगे खम्बे, बैंच, कूड़ेदान, बल्ब आदि लगते ही गायब हो जाते हैं। सीमान्त प्रांतों में तस्करी करना हो या अपने गाँब-कस्बे, शहर में कालाबाजारी, अवैध धन कमाने में हमें फक्र महसूस होता है। पर सार्वजनिक जीवन में हम केवल सरकार को भ्रष्ट बताते हैं। अपने गिरेबाँ में नहीं झाँकते। 



देश की उत्पादकता बढ़ती है उसके हर नागरिक की कार्यकुशलता से। पर अफसोस की बात यह है कि हम भारतीय होने का गर्व तो करते हैं, पर देश के प्रति अपने कर्तव्यों से निगाहें चुराते हैं। जितने अधिकार हमें प्रिय हैं, उतने ही कर्तव्य भी प्रिय होने चाहियें। वैसे उत्पादकता का अर्थ केवल वस्तुओं और सेवा का उत्पादन ही नहीं, बल्कि उस आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था से है, जिसमें हर नागरिक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति सहजता से कर ले और उसके मन में संतोष और हर्ष का भाव हो। पुरानी कहावत है कि इस दुनिया में सबके लिये बहुत कुछ उपलब्ध है। पर लालची व्यक्ति के लिये पूरी दुनिया का साम्राज्य भी उसे संतोष नहीं दे सकता। व्यक्ति की उत्पादकता बढ़े, इसके लिये जरूरी है कि हर इंसान को जीने का तरीका सिखाया जाये। कम भौतिक संसाधनों में भी हमारे नागरिक सुखी और स्वस्थ हो सकते हैं। जबकि अरबों रूपये खर्च करके मिली सुविधाओं के बावजूद हमारे महानगरों के नागरिक हमेशा तनाव, असुरक्षा और अवसाद में डूबे रहते हैं। वे दौड़ते हैं उस दौड़ में, जिसमें कभी जीत नहीं पायेंगे। वैसे भी इस देश की सनातन संस्कृति सादा जीवन और उच्च विचार की रही है। लोगों की माँग पूरी करने के लिये आज भी देश में संसाधनों की कमी नहीं है। पर किसी की हवस पूरी करने के लिये कभी पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हो सकते। इसलिये रूहानियत या आध्यात्म का, व्यक्ति के तन, मन और जीवन से गहरा नाता है। देश में अन्धविश्वास या बाजारीकरण की जगह अगर आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना होगी तो हम सुखी भी होंगे और सम्पन्न भी।



संत कबीर कह गये हैं ‘मन लागो मेरो यार फकीरी में, जो सुख पाऊँ राम भजन में वो सुख नाहिं अमीरी में’। बाजार की शक्तियाँ, भारत की इस निहित आध्यात्मिक चेतना को नष्ट करने पर तुली हैं। काल्पनिक माँग का सृजन किया जा रहा है। लुभावने विज्ञापन दिखाकर लोगों को जबरदस्ती बाजार की तरफ खींचा जा रहा है। कहा ये जाता है कि माँग बढ़ेगी तो उत्पादन बढ़ेगा, उत्पादन बढ़ेगा तो रोजगार बढ़ेगा, रोजगार बढ़ेगा तो आर्थिक सम्पन्नता आयेगी। पर हो रहा है उल्टा। जितने लोग हैं, उन्हें पश्चिमी देशों जैसी आर्थिक प्रगति करवाने लायक संसाधन उपलब्ध नहीं हैं और ना ही वैसी प्रगति की जरूरत है। इसलिये अपेक्षा और उपलब्धि में खाई बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि हताशा, अराजकता, हिंसा या आत्महत्यायें बढ़ रही हैं। यह कोई तरक्की का लक्षण नहीं। उत्पादकता बढ़े मगर लोगों के बीच आनन्द और संतोष भी बढ़े, तभी इसकी सार्थकता है।

Monday, August 12, 2024

बांग्लादेश के संदेश को गंभीरता से लिया जाए


भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश में जो हुआ उसने कई तरह के सवाल खड़े किए हैं। परंतु इन सब में एक अहम सवाल भारत और बांग्लादेश के संबंधों का है। पड़ोसी व मित्र होने के चलते जिस तरह भारत ने बांग्लादेश की पूर्व प्रधान मंत्री व अपदस्थ नेता शेख़ हसीना को दिल्ली में शरण दी है वह आने वाले समय में भारत और बांग्लादेश के संबंधों पर गहरा असर डाल सकता है। क्योंकि आम बांग्लादेशियों की नज़र में शेख़ हसीना और भारत एक दूसरे के पर्याय माने जाते हैं। ऐसे में अगले कुछ महीने दोनों देशों के रिश्तों के लिए तनाव भरे भी हो सकते हैं। बांग्लादेश में बनी मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार भारत के साथ किस तरह पेश आती है, ये अभी कहा नहीं जा सकता। ये हमारी चिंता का विषय रहेगा। 



कई देशों में भारत के राजदूत रहे पूर्व आईएफ़एस अधिकारी अनिल त्रिगुणायत के अनुसार यह एक ऐसा संकट है जो वाजिब संदेह से परे नहीं है। दुनिया में सबसे लंबे समय तक सत्तारूढ़ रहीं महिला प्रधान मंत्री और बांग्लादेश में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली प्रधान मंत्री शेख़ हसीना का बांग्लादेश में हो रही घटनाओं के त्वरित क्रम में, अचानक इस्तीफा, निष्कासन और प्रस्थान अप्रत्याशित था। उनके कार्यकाल के दौरान, उनके प्रशासन ने बांग्लादेश को महत्वपूर्ण स्थायित्व प्रदान किया। इसके कारण उसकीआर्थिक प्रगति भी प्रभावशाली रही। पर साथ ही शेख़ हसीना के शासन में बढ़े भारी भ्रष्टाचार और उनके अहंकार के साथ-साथ उन पर चुनावों में गड़बड़ी करवाने के आरोपों ने उनकी विरासत को कलंकित किया। सरकारी नौकरियों में अपने ही दल के लोगों को स्वतंत्रता सेनानी बताकर लगातार सरकारी नौकरियों में तीस फ़ीसदी आरक्षण देना युवाओं में उनके भारी विरोध का मुद्दा बना। हालांकि जुलाई के तीसरे सप्ताह में बांग्लादेश के सर्वोच्च न्यायालय ने इसे सुलटा दिया था। फिर भी ये विवाद का एक बड़ा मुद्दा बना रहा। इसी के चलते 300 से अधिक छात्रों और प्रदर्शनकारियों की मौत के साथ वहाँ स्थिति बिगड़ गई। वो एक महत्वपूर्ण मोड़ था जब सेना ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। घटनाओं का यह क्रम श्रीलंका और मिस्र में देखे गए संकटों की प्रतिध्वनि है। 



इस बीच, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की नेता बेगम खालिदा जिया की नजरबंदी रद्द कर दी गई है। जो अब फिर से सक्रिय हो रही हैं। वे कट्टरपंथियों व पाकिस्तान के क़रीब मानी जाती हैं। ये हमारे लिए चिंता का कारण है। वहीं दूसरी तरफ़ शेख हसीना के बेटे सजीब वाजेद ने दावा किया है कि अब एक राजनैतिक गाथा खत्म हो गई है। क्योंकि उनका परिवार अब बांग्लादेश को अव्यवस्था की खाई में से निकालने या पाकिस्तान के जाल से बचाने और उग्रवाद के भँवर में फँसने से बचाने के लिए वापिस बांग्लादेश नहीं आएगा। क्योंकि शेख़ हसीना द्वारा प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन ‘जमात-ए-इस्लामी’ हाल में सेना के साथ सरकार बनाने की बातचीत करने वाली टीम का महत्वपूर्ण हिस्सा था। वाजेद ने यह भी कहा कि अब हसीना का राजनीति से नाता भी खत्म हो चुका है। आवामी लीग को एक नया कथानक और अपना नया स्वीकार्य नेता ढूंढना होगा। ये रुझान आने वाली परिस्थितियों के स्वरूप का संकेत देते हैं। 


उधर बांग्लादेश की सेना के लिए भी आने वाला समय आसान नहीं है। क्योंकि सेना प्रमुख ने जनता, विशेषकर छात्रों से, इतनी बड़ी संख्या में हुई मौतों के मामले में कार्रवाई और जांच का आश्वासन देते हुए सहयोग मांगा है। यदि ऐसा है तो क्या उग्र और अनियंत्रित भीड़ द्वारा शेख़ हसीना के कार्यालय, आवास और संसद में की गई तोड़फोड़ को नजरअंदाज किया जाएगा?


ग़ौरतलब है कि बांग्लादेश के लोगों, खासकर युवाओं को लंबे समय तक चलने वाला सैन्य शासन पसंद नहीं है। इसलिए यदि एक समय सीमा के बाद सत्ता का लोकतांत्रिक हस्तांतरण नहीं किया गया और उसे राजनेताओं को नहीं सौंपा गया तो सेना को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इसके अलावा, बड़ी संख्या में छात्र सेना द्वारा थोपी गई अंतरिम सरकार के विचार से भी खुश नहीं हैं।


दूसरी तरफ़ अंतरराष्ट्रीय मामलों के कुछ अन्य जानकर ऐसा भी मानते हैं कि बांग्लादेश में यदि आरक्षण ही मुद्दा होता तो शेख़ हसीना जनवरी 2024 में भारी बहुमत से चुनाव कैसे जीतीं? ऐसा क्या हुआ कि मात्र छह महीनों में ही उन्हें देश छोड़ कर जाने पर मजबूर होना पड़ा? उनका कहना है कि पाकिस्तान बांग्लादेश के अलग होने से बिलकुल भी खुश नहीं था। उसकी जासूस एजेंसी आईएसआई हमेशा से ही बांग्लादेश में सक्रिय रही है। जिसने इस तख़्त पलट की पटकथा लिखी है। क्योंकि शेख़ हसीना ने पिछले 15 वर्षों से भारत के साथ अच्छे संबंध रखे और वे भारतीय हितों को पोषित करने वाली मानीं जातीं थी। जिससे पाकिस्तान काफ़ी बेचैन था। ऐसे पड़ोसी मित्र का सत्ता से अचानक हटना अब भारत के लिए चिंता का सबब अवश्य है। 


प्रश्न है कि भारत जैसे मज़बूत देश और भारत का एक तेज़-तर्रार ख़ुफ़िया तंत्र होने के बावजूद ढाका में होने वाले राजनैतिक घटनाक्रम की भनक तक क्यों नहीं लगी? ये बात गले नहीं उतरती। क्या इसे भी पुलवामा की तरह ‘इंटेलिजेंस फेलियर’ माना जाए? उल्लेखनीय है कि 1975 में, जब भारत की इंटेलिजेंस एजेंसियों को बांग्लादेश में तख्तापलट होने जा रहा है, इसकी भनक लगी, तो तब भारत की प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने लगभग एक सप्ताह पहले ही अपने हेलीकॉप्टर भेज कर शेख़ मुजीबुर रहमान को भारत में शरण लेने की सलाह दी थी, परंतु वे नहीं माने। परिणाम स्वरूप उन्हें व उनके बेटों और परिवार के 17 सदस्यों को ढाका में उनके घर में ही मार दिया गया। यदि उसी तरह हमारी ख़ुफ़िया एजेंसियाँ ढाका में होने वाले ताज़ा घटनाक्रम की खबर समय रहते दे देतीं तो शायद प्रधानमंत्री मोदी जी बांग्लादेश को इस संकट से बचा भी सकते थे। वहीं दूसरी ओर यदि हमारे पास इस घटनाक्रम की जानकारी थी तो हमने बांग्लादेश के समर्थन में समय रहते कठोर कदम क्यों नहीं उठाए? 


विदेशी मामलों के ये जानकार यह भी कहते हैं कि भारत ने 2014 तक अपनी कूटनीति के चलते दक्षिण एशिया में पाकिस्तान को अपने पाँव पसारने नहीं दिये। नेपाल, म्यांमार, श्री लंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और भारत सहित सात देशों के समूह ने भारत की पहल पर ही सार्क का गठन किया। जिसमें पाकिस्तान के अलावा भारत के सभी से अच्छे संबंध रहे। परंतु किन्हीं कारणों से हमारी विदेश नीति में कुछ ऐसे परिवर्तन हुए कि 2015 के बाद से सार्क देशों की एक भी बैठक नहीं हुई। सार्क के बिखरते ही चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति के चलते पहले पाकिस्तान और फिर भारत के अन्य पड़ोसी देशों में भी अपने पाँव पसारने शुरू कर दिये। परंतु ये सब होते हुए हम चुपचाप बैठे देखते रहे। नतीजन आज भारत चारों और से चीन के प्रभाव वाले पड़ौसियों से घिर गया है। अब छोटे से देश भूटान को छोड़कर कोई हमारा मित्र नहीं है। ग़ौरतलब है कि चीन से पहले अमरीका भी श्रीलंका और बांग्लादेश पर अपनी नज़र बनाए हुए था। परंतु चीन ने श्री लंका पर भी अपनी पकड़ बना कर अमरीका का सपना तोड़ दिया। 


बांग्लादेश के साथ हमारा लाखों करोड़ का व्यापार चल रहा है। दोनों देशों के बीच काफ़ी लंबी सीमा भी लगती है। जो हमारी बड़ी चिंता का विषय है। इसलिए हमारे हक़ में होगा कि बांग्लादेश में जो भी सरकार चुनी जाए वह भारत के हित की ही बात करे। वरना जहां हमारी दो सीमाएँ पहले से ही नाज़ुक स्थित में हैं, कहीं हम चारों ओर से दुश्मनों से घिर न जाएँ। अब ये उत्सुकता से देखना होगा कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के बाद जो भी सरकार बने वह भारत के साथ कैसे संबंध रखती है। इसलिए ढाका में हुए घटनाक्रम को दिल्ली को बहुत गंभीरता से लेना होगा।  

Monday, July 22, 2024

आम आदमी की बजट से उम्मीद !


जहां एक तरफ़ केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण देश की आर्थिक प्रगति को लेकर लगातार अपनी पीठ थपथापती रही हैं, वहीं देश के बड़े अर्थशास्त्री, उद्योगपति और मध्यम वर्गीय व्यापारी वित्त मंत्री के बनाए पिछले बजटों से संतुष्ट नहीं हैं। अब नया बजट आने को है। पर जिन हालातों में एनडीए की सरकार आज काम कर रही है उनमें उससे किसी क्रांतिकारी बजट की आशा नहीं की जा सकती। नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की लंबी चौड़ी वित्तीय माँगे, सत्तारूढ़ दल द्वारा आम जनता को आर्थिक सौग़ातें देने के वायदे और देश के विकास की ज़रूरत के बीच तालमेल बिठाना आसान नहीं होगा। वह भी तब जब भारत सरकार ने विदेशों से ऋण लेने की सारी सीमाएँ लांघ दी हैं। आज भारत पर 205 लाख करोड़ रुपए का विदेशी क़र्ज़ हैं। ऐसे में और कितना क़र्ज़ लिया जा सकता है? क्योंकि क़र्ज़ को चुकाने के लिए जनता पर अतिरिक्त करों का भार डालना पड़ता है। जिससे महंगाई बढ़ती है। जिसकी मार आम जनता पहले ही झेल रही है। 


दक्षिण भारत के मशहूर उद्योगपति, प्रधान मंत्री श्री मोदी के प्रशंसक और आर्थिक मामलों के जानकार डॉ मोहनदास पाइ ने देश की मौजूदा आर्थिक हालत पर तीखी टिप्पणी की है। देश की मध्यम वर्गीय आबादी में बढ़ते हुए रोष का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि, पूरे देश में मध्यम वर्ग बहुत दुखी है क्योंकि वे अधिकांश करों का भुगतान कर रहे हैं। उन्हें कोई कर कटौती नहीं मिल रही है। मुद्रास्फीति अधिक है, लागत अधिक है, छात्रों की फीस बढ़ गई है व रहने की लागत बढ़ गई है। हालात में सुधार होने के बावजूद यातायात के कारण शहरों में जीवन की गुणवत्ता खराब बनी हुई है।वे करों की दर में कमी देखना चाहते हैं श्री पाइ उस टैक्स स्लैब नीति के पक्ष में नहीं हैं जो सरकार ने पिछले दो बजट में पेश की है। उनके अनुसार, आयकर संग्रह 20 से 22 प्रतिशत बढ़ रहा है, इसलिए देश के मध्यम वर्ग के लिए आयकर के कई नए स्लैब और केवल आवास निर्माण के लिए कारों में छूट देने की बजाय करों में कटौती करने की आवश्यकता है। 



मोहनदास पाइ का तर्क केवल देश के मध्यम वर्ग तक ही सीमित नहीं है, उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि हमारी आबादी के निचले 50 प्रतिशत हिस्से की क्रय शक्ति बढ़ाने की आवश्यकता के साथ-साथ बुनियादी ढांचे के विकास जैसी चुनौतियों पर प्राथमिक ध्यान दिया जाए। इतना ही नहीं, वे मानते हैं कि रोज़गार क्षेत्र की वृद्धि को सुनिश्चित किया जाय।इसके लिये वे वर्तमान चुनौतियों पर काबू पाने पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देते है। 80 प्रतिशत नौकरियों में 20,000 रुपये  से कम वेतन मिलता है, और यह एक समस्या है। वे आगे कहते हैं कि हमें कर आतंकवाद को रोकना होगा, पाइ ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) पर मामलों को पूरा करने और उन्हें निर्धारित समय सीमा में जवाबदेह ठहराने के लिए चार्ट शीट दाखिल करने पर ध्यान केंद्रित करने पर भी ज़ोर दिया। उनके अनुसार टैक्स आतंकवाद भारत के लिए बड़ा खतरा है।


आगामी बजट से देश को काफ़ी उम्मीदें हैं। हर कोई चाहता है कि बढ़ती हुई महंगाई के चलते उन पर अतिरिक्त  करों का भार न पड़े। 


उधर प्रसिद्ध अर्थसास्त्री प्रो अरुण कुमार ने सरकार के समानांतर किए गए देश के आर्थिक सर्वेक्षण के आधार पर देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति को लेकर जो विश्लेषण किया है वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। वे कहते हैं कि, सरकार का राजनीतिक निर्णय लोगों की आर्थिक जरूरतों से भिन्न है। बजट दस्तावेजों का एक जटिल समूह है जिसे अधिकांश नागरिक समझने में असमर्थ हैं। बजट में ढेर सारे आंकड़ों और लोकलुभावन घोषणाओं के पीछे असली राजनीतिक मंशा छिपी हुई है। तमाम समस्याओं के बावजूद नागरिकों की समस्याएँ साल-दर-साल बनी रहती हैं।


सरकार बजट का उपयोग यह दिखाने के लिए करती है कि कठिनाइयों के बावजूद अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन कर रही है और नागरिकों की समस्याओं का ध्यान रखा जाएगा। इसके लिए डेटा को चुनिंदा तौर पर पेश किया जाता है. चूंकि पूरी तस्वीर सामने नहीं आई है, इसलिए विश्लेषकों को अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति बताने के लिए पेश किए गए आंकड़ों के पीछे जाना होगा। इसलिए, जहां स्थापित अर्थशास्त्री बजट की प्रशंसा करते हैं, वहीं आलोचक यथार्थवादी स्थिति प्रस्तुत करते हैं और इसमें वैकल्पिक व्याख्या का महत्व निहित है। 


यह समस्या, महत्वपूर्ण डेटा की अनुपलब्धता और इसके हेरफेर से और बढ़ गई है। उदाहरण के लिए, जनगणना 2021 का इंतजार है। 2022 की शुरुआत के बाद महामारी समाप्त हो गई और अधिकांश देशों ने अपनी जनगणना कर ली है, लेकिन भारत में यह प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है। जनगणना डेटा का उपयोग डेटा संग्रह के लिए उपयोग किए जाने वाले अधिकांश अन्य सर्वेक्षणों के लिए नमूना तैयार करने के लिए किया जाता है। फ़िलहाल, 2011 की जनगणना का उपयोग किया जाता है, लेकिन उसके बाद से हुए बड़े बदलावों को इसमें शामिल नहीं किया जाता है। इसीलिए, परिणाम 2024 की स्थिति का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।


प्रो कुमार के अनुसार, सरकार द्वारा प्रतिकूल समाचारों का खंडन भी एक अहम कारण है। क्योंकि यह आलोचना के उस बिंदु को भूल जाता है जो परिभाषा के अनुसार बड़ी तस्वीर और उसकी कमियों पर केंद्रित है। यह सच है कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था बढ़ती है, बहुत सी चीजें घटित होती हैं या बदलती हैं। वहाँ अधिक सड़कें, उच्च साक्षरता, अधिक अस्पताल, अधिक ऑटोमोबाइल आदि हैं। लेकिन, इनके साथ गरीबी, खराब गुणवत्ता वाली शिक्षा और स्वास्थ्य आदि भी हो सकते हैं। ये कमियाँ समाज के लिए चिंता का कारण हैं और आलोचक इसे उजागर करते हैं। महामारी ने उन्हें तीव्र फोकस में ला दिया। महामारी से उबरने के बाद स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है क्योंकि यह असमान है। संगठित क्षेत्र असंगठित क्षेत्र की कीमत पर बढ़ रहा है जिससे गिरावट आ रही है और विशाल बहुमत की समस्याएं बढ़ रही हैं। कई अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग सापेक्ष हैं और पूर्ण नहीं हैं लेकिन भारत की रैंकिंग में कम रैंक या गिरावट यह दर्शाती है कि या तो स्थिति अन्य देशों की तुलना में खराब हो रही है या वास्तव में समय के साथ गिरावट आ रही है।


प्रो कुमार के अनुसार, आधिकारिक डेटा आंशिक है और प्रतिकूल परिस्थितियों को छुपाने के लिए इसमें हेरफेर किया गया है। इसीलिए एक वैकल्पिक तस्वीर तैयार करने की ज़रूरत है जो देश में बढ़ती आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता और बढ़ते संघर्ष की वास्तविकता को दर्शाती हो। यह हाशिए पर मौजूद वर्गों की समस्याओं के समाधान के लिए नीतियों में व्यापक बदलाव की आवश्यकता को उजागर करता है। यह शून्य-राशि वाला खेल नहीं होगा बल्कि देश के लिए एक सकारात्मक-राशि वाला खेल होगा।


इन हालातों में आगामी आम बजट में देशवासियों को क्या राहत मिलती है ये तो बजट प्रकाशित होने के बाद ही पता चलेगा। लेकिन जाने-माने आर्थिक विशेषज्ञों के इस विश्लेषण को मोदी सरकार को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। 

Monday, June 17, 2024

नीट परीक्षा: हंगामा क्यों है बरपा?



जब भी कभी हम किसी प्रतियोगी परीक्षा के पेपर लीक होने की खबर सुनते हैं तो सबके मन में व्यवस्था को लेकर काफ़ी सवाल उठते हैं। इससे  पूरी व्यवस्था में फैले हुए भारी भ्रष्टाचार का प्रमाण मिलता है।

पिछले कुछ वर्षों में ऐसी खबरें कुछ ज़्यादा ही आने लगी हैं। सोचने वाली बात है कि इससे  देश के युवाओं पर क्या असर पड़ेगा? महीनों तक परीक्षा के लिए मेहनत करने वाले विद्यार्थियों के मन में इस बात का डर बना रहेगा कि रसूखदार परिवारों के बच्चे पैसे के बल पर उनकी मेहनत पर पानी फेर देंगे? मद्य प्रदेश में हुए व्यापम घोटाले के बाद अब एक बार फिर मेडिकल कॉलेजों में दाख़िले के लिए ‘नीट परीक्षा’ में हुए घोटाले पर जो बवाल मचा है उससे तो यही लगता है कि चंद भ्रष्ट लोगों ने लाखों विद्यार्थियों के भविष्य को अंधकार में धकेल दिया है। 



साल 2016 में पहली बार मेडिकल एंट्रेंस के लिए ‘नेशनल एंट्रेंस कम एलिजिबिलिटी टेस्ट’ यानी नीट की शुरुआत हुई।  पहले तीन सालों में इसे सीबीएसई द्वारा संचालित किया गया। परंतु वर्ष 2019 से इन इम्तहानों की ज़िम्मेदारी नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) को दी गई। जब से नीट की परीक्षा लागू हुई है ऐसा पहली बार हुआ है कि इस परीक्षा की कटऑफ इतनी हाई गई है। यदि एनटीए की मानें तो नीट कट ऑफ कैंडिडेट्स की ओवरऑल परफॉर्मेंस पर निर्भर करती है। कटऑफ बढ़ने का मतलब है कि परीक्षा कंपटीटिव थी और बच्चों ने बेहतर परफॉर्म किया परंतु क्या ये बात सही है? 


ग़ौरतलब है कि इस बार की नीट परीक्षा में 67 ऐसे युवा हैं जिन्हें 720 अंकों में से 720 अंक मिलते हैं। इसके साथ ही ऐसे कई युवा भी हैं जिन्हें 718 व 719 अंक प्राप्त हुए हैं, जो कि परीक्षा पद्धति के मुताबिक़ असंभव है। 720 के टोटल मार्क्स वाली नीट परीक्षा में हर सवाल 4 अंक का होता है। गलत उत्तर के लिए 1 अंक कटता है। अगर किसी स्टूडेंट ने सभी सवाल सही किए तो उसे 720 में से 720 मिलेंगे। अगर एक सवाल का उत्तर नहीं दिया, तो 716 अंक मिलेंगे। अगर एक सवाल गलत हो गया, तो उसे 715 अंक मिलने चाहिए। लेकिन 718 या 719 किसी भी सूरत में नहीं मिल सकते। ज़ाहिर है तगड़ा घोटाला हुआ है। 



जिन विद्यार्थियों ने इस वर्ष नीट परीक्षा दी उनसे जब यह पूछा गया कि इस बार की परीक्षा कैसी थी? तो उनका जवाब था कि इस बार की परीक्षा काफ़ी कठिन थी, कटऑफ काफ़ी नीचे रहेगी। एनटीए द्वारा एक और स्पष्टीकरण भी दिया गया है जिसके मुताबिक़ इस बार टॉप करने वाले कई बच्चों को ग्रेस मार्क्स भी दिये गये हैं। इसका कारण है कि फिजिक्स के एक प्रश्न के दो सही उत्तर हैं। ऐसा इसलिए है कि फिजिक्स की एक पुरानी किताब जिसे 2018 में हटा दिया गया था, वह अभी भी पढ़ी जा रही थी। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि आजकल के युग में जहां सभी युवा एक दूसरे के साथ सोशल मीडिया के किसी न किसी माध्यम से जुड़े रहते हैं या फिर जहां कोचिंग लेते हैं वहाँ पर सबसे संपर्क में रहते हैं फिर ये कैसे संभव है कि छह साल पुरानी किताब  को सही नहीं कराया गया होगा? 


अगला सवाल यह भी उठता है कि एनटीए द्वारा किस आधार पर ग्रेस मार्क्स दिये गये? जबकि मेडिकल परीक्षाओं में ग्रेस मार्क्स देने का कोई प्रावधान नहीं है। एनटीए ने ग्रेस मार्क्स देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के 2018 के एक आदेश का संज्ञान लिया है, जिसके अनुसार यदि प्रशासनिक लापरवाही के कारण परीक्षार्थी का समय ख़राब हो तो किन विद्यार्थियों को किन परिस्थितियों में कितने ग्रेस मार्क्स दिये जा सकते हैं। परंतु ग़ौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के जिस फ़ैसले का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है वह कॉमन लॉ एडमिशन टेस्ट (सीएलएटी) के लिए था, उसी आदेश में यह साफ़-साफ़ लिख है कि यह आदेश मेडिकल और इंजीनियरिंग की परीक्षाओं पर लागू नहीं होगा। परंतु एनटीए ने न जाने किस आधार पर इस आदेश को संज्ञान में लिया और ग्रेस मार्क्स दे दिये ?



नीट परीक्षा का ये मामला अब सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है और अदालत ने नीट परीक्षा करवाने वाली एजेंसी एनटीए को व केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब माँगा है। देखना होगा कि ये दोनों कोर्ट में क्या जवाब दाखिल करते हैं? परंतु जिस तरह इस मामले ने तूल पकड़ा है, इस पर राजनीति भी होने लग गई है। इतना ही नहीं जिस तरह एनटीए ने परीक्षा से पहले ही इसके पंजीकरण में ढील बरती है वह भी सवालों के घेरे में है। टॉपर्स की लिस्ट में कम से कम 6 विद्यार्थी ऐसे हैं जो एक ही सेंटर के हैं। इस सेंटर को इसलिए भी शक की नज़र से देखा जा रहा है, जहां विद्यार्थी देश के दूसरे कोने से परीक्षा देने आए। इसके साथ ही बिहार, गुजरात व अन्य राज्यों में नीट परीक्षा के पेपर लीक के मामले भी सामने आए हैं जिन पर जाँच चल रही है। 


सोचने वाली बात है कि देश का भविष्य माने जाने वाले विद्यार्थी, जो आगे चल कर डॉक्टर बनेंगे, यदि इस प्रकार भ्रष्ट तंत्र के चलते किसी मेडिकल कॉलेज में दाख़िला पा भी लेते हैं तो क्या भविष्य में अच्छे डॉक्टर बन पायेंगे या पैसे के बल पर वहाँ भी पेपर लीक करवा कर ‘मुन्ना भाई एम बी बी एस ’ की तरह सिर्फ़ डिग्री ही हासिल करना चाहेंगे चाहे उन्हें कोई ज्ञान हो या न हो? 


सवाल सिर्फ़ नीट की परीक्षा का ही नहीं है, पिछले कुछ वर्षों से अनेक प्रांतों में होने वाली सरकारी नौकरियों की प्रतियोगी परीक्षाओं में भी लगातार घोटाले हो रहे हैं। जिनकी खबरें आए दिन मीडिया में प्रकाशित होती रहती हैं। इससे देश के युवाओं में भारी निराशा फैल रही है। नतीजा यह हुआ है कि पिछले 40 बरसों में आज भारत में बेरोज़गारी की दर सबसे अधिक हो गई है। 


एक मध्यम वर्गीय या निम्न वर्गीय परिवार के पास अगर ख़ुद की ज़मीन-जायदाद, खेतीबाड़ी या कोई दुकान न हो तो नौकरी ही एकमात्र आय का सहारा होती है। घर के युवा को मिली नौकरी उसके माँ-बाप का बुढ़ापा, बहन-भाई की पढ़ाई और शादी, सबकी ज़िम्मेदारी सम्भाल लेती है। पर अगर बरसों की मेहनत के बाद घोटालों के कारण देश के करोड़ों युवा इस तरह बार-बार धोखा खाते रहेंगे तो सोचिए कितने परिवारों का जीवन बर्बाद हो जाएगा? ये बहुत गंभीर विषय है जिस पर केंद्र और राज्य सरकारों को फ़ौरन ध्यान देना चाहिए। 

Monday, June 10, 2024

अयोध्या में भाजपा क्यों हारी?


500 वर्ष बाद प्रभु श्री राम की जन्मस्थली अयोध्या में भव्य मंदिर का निर्माण हुआ। यह हम सभी सनातनियों के लिये गर्व की बात है। अयोध्या में हुए विकास के लिए भाजपा सरकार को जितना भी श्रेय दिया जाए वह कम है। अयोध्या में हुए इस जीर्णोद्धार के चलते आज विश्व भर के हिंदुओं का सर गर्व से ऊँचा उठा है। प्रधान मंत्री मोदी ने बीते दस वर्षों के अपने कार्यकाल में हिंदू संस्कृति के संरक्षण के लिए अनेक ठोस कदम उठाए हैं। अयोध्या का विकास भी उसी श्रृंखला का हिस्सा है। आज जो भी अयोध्या में दर्शन करके आता है वह श्री राम के भव्य मंदिर व उसके आसपास हुए विकास को देख गर्व करता है। इतना सब होने के बावजूद 2024 के चुनावों में अयोध्या में भाजपा को मिली हार से पूरा दुनिया के हिंदू अचंभे में है। 



यूँ तो अयोध्या में हुए विकास को लेकर हर किसी के पास सिवाय प्रशंसा के कुछ नहीं है। परंतु चुनाव परिणामों के बाद से सोशल मीडिया में भाजपा को मिली हार के कई कारण सामने आए हैं। इन्हीं में से एक अयोध्या निवासी संत सियाप्यारेशरण दास का एक संदेश काफ़ी चर्चा में है। इन्होंने अयोध्या में भाजपा की हार के असली कारण बताए। वे लिखते हैं,
भक्त और भगवान का युगों युगों से अनन्य भावपूर्ण प्रेम, स्नेह, वात्सल्य भाव रस से भीगा नाता रहा है। भगवान अपने ऊपर सब आरोप, लांछन तो क्या लात तक सह लेते हैं। लेकिन वो अपने भक्त की परेशानी, दुख तकलीफ नहीं सहन करते। उदाहरण स्वरूप जब रावण ने युद्ध में विभीषण को देखा तो उस पर बाण चलाया। जिसे भगवान श्री राम ने अपनी छाती पर सह कर अपने भक्त विभीषण की रक्षा की। इसी प्रकार ध्यानस्थ भगवान श्री विष्णुजी से किसी बात पर क्रोधित होकर भृगु ऋषि ने उनके सीने पर लात मारी। तो उन्होंने स्वयं इसके लिए क्षमा माँगी। इस प्रसंग पर प्रसिद्ध चोपाई है; क्षमा बड़ेन को चाहिए छोटन को उत्पात। विष्णु का क्या घट गया जब भृगु ने मारी लात।। भक्त और भगवान के अनन्य नाते से संबंधित अनेकों उदाहरण है। हम केवल उपरोक्त दो उदाहरणों के परिपेक्ष में ही बीजेपी की अयोध्या में हुई करारी हार का विश्लेषण करते हैं। मैं अयोध्या जी में पिछले लगभग 10 वर्षों से वहां की कुछ सेवाओं में लगा हूं। इस कारण अयोध्याजी में घटित होने वाले अधिकांश अच्छे बुरे अनुभवों से भली भांति परिचित होने के नाते कुछ लिख रहा हूं। 



प्रथम कारण: प्रभु श्रीराम जन्मभूमि मंदिर ट्रस्ट के द्वारा मंदिर बनने के प्रारंभ में कहा गया की मंदिर लगभग 1000 करोड़ रुपयों में बनेगा, फिर एक वर्ष बाद कहा कि मंदिर 1400 करोड़ में बनेगा, फिर एक वर्ष बाद तीसरी बार कहा कि मंदिर 1800 करोड़ में पूर्ण होगा, जनता ने मान भी लिया। सोचिए श्रीराम जन्मभूमि मंदिर ट्रस्ट के सदस्य इतने हिसाब के कच्चे हैं की तीन-तीन बार मंदिर की कुल लागत बढ़ा-बढ़ा कर बताएंगे, जबकि इस प्रकार के सभी आकलन प्रथम बार में ही सही होने चाहिए थे। ज़मीन ख़रीदने से लेकर मंदिर निर्माण तक में पैसे का कोई पारदर्शी हिसाब नहीं है। 


दूसरा कारण: भगवान के प्रति अनन्य भक्ति भावना से ओत प्रोत हजारों भक्त कितने किलोमीटर चलकर आते हैं लेकिन मंदिर ट्रस्ट या अयोध्या प्रशासन के द्वारा सुविधाओं के अभाव में वो इधर-उधर भटकते हैं। स्वच्छ पेयजल के कुछ फ्रिज अभी गर्मी बढ़ने पर लगाए है। लेकिन चंदे के 10,000 करोड़ के ब्याज रूपी 1800 करोड़ रुपए में बन रहे मंदिर के बाकी पैसे की एफडी कराई जा रही है। परंतु राम का पैसा राम के भक्तों पर खर्च नहीं हो रहा। जबकि अयोध्याजी में लोक मान्यता है कि अयोध्याजी में कोई भूखा नहीं सोता। उसे अन्नपूर्णा रूपा माता "श्रीसीताजी" भोजन कराती हैं। क्या माता श्रीसीताजी के नाम से ट्रस्ट 20-30 जगह भंडारे नहीं चला सकता? 



तीसरा कारण: माननीय योगी जी के मुख्यमंत्री काल के पिछले 7 सालों से अयोध्याजी की गली-गली कई बार तोडी-फोड़ी गई हैं। जिस कारण गलियों में जाम और लाल बत्ती लगी सायरन बजाती वीआईपी गाड़ियों के कारण मुख्य मार्ग का रूट परिवर्तन होता रहता है। इसी कारण चहुं ओर अफरा तफरी के माहौल ने अयोध्या की शांति भंग कर दी है। जिधर देखो बड़े-बूढ़े, बीमार-लाचार भटकते भक्ति में सराबोर भक्त धक्के खाते हैं। लेकिन उनकी पीड़ा कौन सुने? सरकार और उसके यहां के ये सरदार सब सत्ता के मद में फूले रहे। 


चौथा कारण: अयोध्याजी के नया घाट से फैजाबाद के सहादत गंज तक 14 किलोमीटर लंबे बाजार के छोटे-छोटे दुकानदार अयोध्याजी के क्षेत्रीय निवासी इसी लोकसभा क्षेत्र के हैं। ईनकी अधिकांश दुकाने 70-80 साल से पगड़ी (धरोहर राशि) के कारण कम किराए पर हैं। इस मार्ग के चौड़ीकरण में उनके हितों के बजाए मकान मालिकों के हितों का खयाल रखा गया। दुकानदारों के पुनर्वास में बहुत अनियमितता बरती गई। जिस कारण उनके आंदोलन व प्रदर्शन बार-बार दबा दिए गए। इससे अयोध्याजी के देहात में गलत संदेश गया। 


छटा कारण: अनेक वीआईपी की तरह मुंबई तक से सिनेमा तारिकाओं को भी जन्मभूमि मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का न्योता भेजा गया, लेकिन अयोध्याजी के चारों ओर के जिलों में मौजूद अनेकों ऐसे कारसेवकों को न्योता तक नहीं भेजा जिन्होंने जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन में लाठी और गोली खाई थी। संत सियाप्यारेशरण दास जी कहते हैं कि, अयोध्याजी में बीजेपी की हार के वैसे तो अनेकों अनेक कारण हैं। कितने गिनाऊ, यहां के ठाकुर सांसद लल्लू सिंह अपनी ठकुराई की ठसक में काम के नाम पर जनता को पिछले दस साल से झूठे आश्वासन देते रहे। उन्होंने जनता की नब्ज उनके बीच जाकर कभी नहीं जानी। संविधान बदलने के बयान ने यहां के 35 प्रतिशत के बराबर दलित वोटों का सपा की ओर धुर्वीकरण किया।असली समस्या तो अयोध्याजी की गलियों के जाम रूपी झाम ने यहां के मूल निवासियों को बेहाल किया। केवल प्रचार से कभी किसी की सरकार नहीं बनी। अयोध्या में बेतरतीब काम से अफसर, नेता, मंत्रियों ने चांदी नहीं सोना और हीरे लूटे हैं। अयोध्या एयरपोर्ट के वास्ते किसानों से पहले सस्ती जमीने अफसर व नेताओं ने खरीदकर फिर उसका सर्किल रेट बढ़ाकर खूब चांदी काटी। लेकिन जब पत्ता-पत्ता भगवान श्री राम हिलाते हैं तब इनकी हार भी मेरे खयाल से स्वयं भगवान श्रीराम ने देकर इनको चेतावनी दी है।बीजेपी को सत्ता मद ले बैठा। इस बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीरामचरितमानस में लिखते हैं नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥


अब ये चुनौती तो बीजेपी के सामने है कि वो हिंदू धर्म क्षेत्रों में इस चुनाव में मिली अपनी विफलता के कारण खोजे।