Monday, January 20, 2020

अमित शाह का बढ़ता ग्राफ

सीएए, एनआरसी और एनपीआर को लेकर जो भी प्रतिक्रिया देश में हो रही है, जो धरने और प्रदर्शन हो रहे हैं, उनका प्रभाव केवल मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में है। जो हिंदू इन आन्दोलन से जुड़े हैं, वो या तो विपक्षी दलों से संबंधित हैं या धर्मनिरपेक्ष विचारधारा वाले है। बहुसंख्यक हिंदू समाज चाहे शहरों में रहता है या गाँवों में, गृहमंत्री अमित शाह के निर्णयओं से अभिभूत है क्योंकि उसे लगता कि सरदार पटेल के बाद देश में पहली बार एक ऐसा गृहमंत्री आया है जो अपने निर्णय दमदारी के साथ लेता और उन्हें लागू करता है ।जिस पर उसके विरोध का कोई फर्क नहीं पड़ता। 

पिछले कुछ महीनों में जिस तरह के निर्णंय अमित भाई शाह ने लिये है, उनसे एक संदेश साफ़ गया है कि मौजूदा सरकार, हिंदूओं के मन में पिछले 70 सालों से जो सवाल उठ रहे थे, उनके जबाव देने को तैयार है। फिर चाहे वो कश्मीर में धारा 370 हटाने का सवाल हो या नागरिकता का मामला हो या तीन तलाक का मामला हो या समान नागरिक कानून बनाने का मामला हो। हर मामले में अमित शाह के नेतृत्व में जो निर्णंय लिये जा रहे है और जिन पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्वीकृति की मोहर लगी है, वो वही  हैं जो अब तक आम हिंदू के मन में घुटे रहते थे। उनका सवाल था कि जब हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है तो मुसलमानों के लिए अलग कानून क्यों ? अल्पसंख्यकों के लिए अलग मान्यता क्यों? कश्मीर अगर भारत का अभिन्न अंग है तो वहां विशेष राज्य का दर्जा क्यों? वहां के नागरिकों को विशेष सुविधाऐं क्यों? 

इसी तरह के सवाल थे कि जब पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदूओं की आबादी लगातार घट रही है, तो हिंदूओं के लिए भारत सरकार कुछ क्यों नहीं करती ? इन सारे सवालों का ग़ुबार हर हिंदु के मन में भरा था, उसको बड़ी तेजी से निकालने का काम अब अमित शाह कर रहे हैं। ये सही है कि अमित शाह के काम करने का तरीका कुछ लोगों  को कुछ हद तक अधिनायकवादी लग सकता है। लेकिन जिस तरह वो अपने तर्को को लोकसभा की बहसों में पेश करते हैं और जिस तरह कानूनी जानकारों को भी अपने तर्कों से निरूत्तर कर देते हैं, उससे ये लगता है कि वे जल्दीबाजी में या बिना कुछ सोचे-समझे ये कदम नहीं उठा रहे हैं । बल्कि उन्होंने अपने हर कदम के पहले पूरा चिंतन किया है और उसको संविधान के दायरे में लाकर लागू करने की रणनीति बनाई है, ताकि उसके रास्ते में कोई रुकावट आए। 

अगर हम आजाद भारत के इतिहास पर नजर डालें तो जैसा मैंने कई बार सोशल मीडिया पर भी लिखा है कि नक्सलवाद जैसी आतिवादी विचारधारा का जन्म बंगाल की वामपंथी दमनकारी नीतियों के विरूद्ध हुआ था। जो भी सरकार केंद्र या प्रांत में होती है, जब तक उसका विरोध प्रखर नहीं होता तब तक वो उसे बर्दाश्त कर लेती है। लेकिन देखने में आया है कि जब-जब विरोध प्रखर होता है और सत्ता में बैठा मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री या जो दल है वो मजबूत होता है तो उसकी प्रतिक्रिया प्रायः हिसंक होती है। इसके अपवाद बहुत कम मिलते हैं। जो लोग आज भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर आतिवादी होने का आरोप लगा रहे हैं, उनको इस बात पर भी विचार करना चाहिए क्या पिछली सरकारों में ऐसी घटनाऐं नहीं हुई थी? मसलन जब बोफोर्स विवाद चल रहा था तब 1987 में इण्डियन एक्सप्रेसके पत्रकारों पर तेजाब किसने और क्यों फिकवाया था? ये बहुत ही गंभीर मामला था। लेकिन उसे आज हम भूल जाते हैं। 

इसी के साथ एक दूसरा विषय ये भी है कि जो योग्यता के सवाल को लेकर जैसे जवाहरलाल नेहरू विवि. में ही प्रश्न उठाये गये कि कुलपति के द्वारा अयोग्य लोगों की भर्तियां की जा रही है। क्या वामपंथी ये कह सकते हैं कि जब उनका प्रभाव था तब क्या सारी भर्तियां योग्यता के आधार पर ही हुई थी? तब क्या वामपंथियों ने अयोग्य लोगों की भर्तियां नहीं करी? 

इसी तरह एक प्रश्न और सामान्य भारतीय के मन में आता है वो ये कि आज बहुत बड़ी तादाद में मुसलमान सड़कों पर तिरंगा झण्डा लहरा रहे हैं और
जनगणमन गा रहे हैं और उन्हें इस बात की भी खुशी है कि बहुत सारे हिंदू भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर ये लड़ाई लड़ रहे हैं। पर क्या ये एकजुटता है वो हमेशा रहने वाली है? अगर हमेशा रहने वाली है, तो इसका अतीत क्या है ? कश्मीर में जब हिंदूओं को, खासकर जब कश्मीरी पण्डितों को आतंकित करके रातो-रात निकाला गया, पूरी कश्मीरी घाटी को हिंदूओं से खाली करवा लिया गया, उस वक्त इस तरह की एकजुटता क्यों नहीं दिखी? हिंदू और मुस्लिम एक साथ कश्मीरी पण्डितों के लिए सड़कों पर पिछले 30 सालों में कितनी बार निकले ? जिस वक्त श्रीनगर के लाल चौक  पर रोज़ तिरंगे झण्डे जलाऐ जा रहे थे, उस वक्त कितने मुसलमानों ने शेष भारत में सड़कों पर उतर कर इसका विरोध किया कि ये हमारा राष्ट्रीय ध्वज है, इसे न जलाया जाऐ? कितनी बार ऐसा हुआ है कि मोहर्रम के ताजिए या रामलीला की शोभायात्रा में बड़े-बड़े साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं। ये सही कि दंगे भड़काने का काम राजनैतिक दल और स्वार्थीतत्व करते आऐ हैं। लेकिन समाज के स्तर पर अगर दोनों में इतनी सहानुभूति और समझ है तो फिर उसका प्रदर्शन सामान्य समय पर देखने को क्यों नहीं मिलता? इसलिए ऐसा लगता है क्योंकि इस समय मुसलमान असुरक्षित हैं महसूस कर रहे हैं इसलिए उनका देशप्रेम झलक रहा है।

भारत ही नहीं दुनिया के तमाम देशों में बसे हुए हिंदुओं का ये कहना है कि जब दुनिया में मुसलमानों के 58 देश हैं तो एक अकेला भारत हिंदू राष्ट्र क्यों न बने ? दुनिया के सबसे पुराने धर्म का एक भी देश दुनिया में नहीं है। क्योंकि हिंदू धर्म स्वभाव से ही उदारवादी होता है, इसलिए भारत में इतने सारे धर्म पनपते चले गये। वे ये प्रश्न भी करते हैं कि भारत में गैर हिंदूओं को जो छूट मिली है, वो क्या किसी मुसलमान देश में हिंदूओं को मिल सकती है ? 

इसके साथ ही एक भावना जो विश्व में फैल रही है, वो ये कि मुसलमान जिस देश में भी जाते हैं, वहां अपने धर्म का प्रभाव बढ़ाने मे ंजुट जाते हैं। जिससे समाज में अशान्ति पैदा होती है। इसलिए पश्चिम के देश ही नहीं बल्कि साम्यवादी चीन तक में मुसलमानों पर सरकार की पाबंदियाँ बढ़ाई जा रही हैं। इसलिए मुसलमानों के समझदार और उदारवादी वर्ग को आत्मचिंतन करना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है और इसे कैसे रोका जाऐ। तुर्की और इंडोनेशिया उदारवादी इस्लाम के बेहतरीन नमूने हैं। 

जहाँ तक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए बल प्रदर्शन का आरोप है तो यह बात इसाई धर्म पर भी लागू होती है। जिसने मध्य युग में तलवार के जोर पर बाईबल का प्रचार किया और अपने उपनिवेशों पर तमाम अत्याचार किये। केवल हिंदू, बौद्ध, सिक्ख और जैन धर्म ही ऐसे है, जो भारत में जन्में और जिनका प्रचार-प्रसार अहिंसक तरीके से अपने दर्शन की गुणवत्ता के कारण हुआ। बावजूद इसके गत कुछ शताब्दियों में हिंदू धर्म का विधर्मियों ने जमकर मजाक उड़ाया और उसकी मान्यताओं को बिना परखे नकार दिया। हिंदू मन तो आहत हुआ ही समाज पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ा। अमित शाह की नीतियाँ इसीलिए दुनियाभर के हिंदूओं को प्रभावित कर रही है, क्योंकि उन्हें लगता है कि अंततः अब भारत हिंदू राष्ट्र बनेगा।

Monday, January 13, 2020

क्या भारतवासियों को जल्दी ही पाक अधिकृत कश्मीर में स्थित शारदापीठ के दर्शन होंगे ?

आज हमारे कार्यालय में शारदापीठ कश्मीर के शंकराचार्य स्वामी अमृतनंद देव तीर्थ  पधारे। उन्होंने इस विषय में निम्न जानकारी दी। 1947 में जब भारत आजाद हुआ था तब जम्मू-कश्मीर का कुल क्षेत्रफल था 2,22,236 वर्ग किलोमीटर जिसमें से चीन और पाकिस्तान ने मिलकर लगभग आधे जम्मू-कश्मीर पर कब्ज़ा किया हुआ है और भारत वर्ष के पास केवल 1,02,387 वर्ग किलोमीटर कश्मीर भूमि शेष है। जम्मू-कश्मीर के जो भाग आज हमारे पास नहीं हैं उनमें से गिलगिट, बाल्टिस्तान, बजारत, चिल्लास, हाजीपीर आदि हिस्से पर पाकिस्तान का सीधा शासन है और मुज़फ्फराबाद, मीरपुर, कोटली और छंब आदि इलाके हालांकि स्वायत्त शासन में हैं परंतु ये इलाके भी पाक के नियंत्रण में हैं।

पाक नियंत्रण वाले इसी कश्मीर के मुज़फ्फराबाद जिले की सीमा के किनारे से पवित्र "कृष्ण-गंगा" नदी बहती है। कृष्ण-गंगा नदी वही है जिसमें समुद्र मंथन के पश्चात् शेष बचे अमृत को असुरों से छिपाकर रखा गया था और उसी के बाद ब्रह्मा जी ने उसके किनारे माँ शारदा का मंदिर बनाकर उन्हें वहां स्थापित किया था।

जिस दिन से माँ शारदा वहां विराजमान हुई उस दिन से ही सारा कश्मीर "नमस्ते शारदादेवी कश्मीरपुरवासिनी / त्वामहंप्रार्थये नित्यम् विदादानम च देहि में" कहते हुये उनकी आराधना करता रहा है और उन कश्मीरियों पर माँ शारदा की ऐसी कृपा हुई कि आष्टांग योग और आष्टांग हृदय लिखने वाले वाग्भट वहीं जन्में,नीलमत पुराण वहीं रची गई, चरक संहिता, शिव-पुराण, कल्हण की राजतरंगिणी, सारंगदेव की संगीत रत्नकार सबके सब अद्वितीय ग्रन्थ वहीं रचे गये, उस कश्मीर में जो रामकथा लिखी गई उसमें मक्केश्वर महादेव का वर्णन सर्व-प्रथम स्पष्ट रूप से आया। शैव-दार्शनिकों की लंबी परंपरा कश्मीर से ही शुरू हुई। 

चिकित्सा, खगोलशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन, विधि, न्यायशास्त्र, पाककला, चित्रकला और भवनशिल्प विधाओं का भी प्रसिद्ध केंद्र था कश्मीर क्योंकि उसपर माँ शारदा का साक्षात आशीर्वाद था। ह्वेनसांग के अपने यात्रा विवरण में लिखा है शारदा पीठ के पास उसने ऐसे-ऐसे विद्वान् देखे जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि कोई इतना भी विद्वान् हो सकता है। शारदापीठ के पास ही एक बहुत बड़ा विद्यापीठ भी था जहाँ दुनिया भर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन करने आते थे।

माँ शारदा के उस पवित्र पीठ में न जाने कितने सहस्त्र वर्षों से हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी के दिन एक विशाल मेला लगता था जहाँ भारत के कोने-कोने से वाग्देवी सरस्वती के उपासक साधना करने आते थे। भाद्रपद महीने की अष्टमी तिथि को शारदा अष्टमी इसीलिये कहा जाता था। शारदा तीर्थ श्रीनगर से लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा है और वहां के लोग तो पैदल माँ के दर्शन करने जाया करते थे।

शास्त्रों में एक बड़ी रोचक कथा मिलती है कि कथित निम्न जाति के एक व्यक्ति को भगवान शिव की उपासना से एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम उस दम्पति ने शांडलि रखा। शांडलि बड़े प्रतिभावान था। उनसे जलन भाव रखने के कारण ब्राह्मणों ने उनका यज्ञोपवित संस्कार करने से मना कर दिया। निराश शांडलि को ऋषि वशिष्ठ ने माँ शारदा के दर्शन करने की सलाह दी और उनके सलाह पर जब वो वहां पहुँचे तो माँ ने उन्हें दर्शन दिया उन्हें नाम दिया ऋषि शांडिल्य। आज हिन्दुओं के अंदर हरेक जाति में शांडिल्य गोत्र पाया जाता है।

हिन्दू धर्म का मंडन करने निकले शंकराचार्य जब शारदापीठ पहुँचे थे तो वहां उन्हें माँ ने दर्शन दिया था और हिन्दू जाति को बचाने का आशीर्वाद भी। उन्हीं माँ शारदा की कृपा से कश्मीर के शासक जैनुल-आबेदीन का मन बदल गया था जब वो उनके दर्शनों के लिये वहां गया था और उसने कश्मीर में अपने बाप सिकंदर द्वारा किये हर पाप का प्रायश्चित किया। इतिहास की किताबों में आता है कि माँ शारदा की उपासना में वो इतना लीन हो जाता था कि उसे दुनिया की कोई खबर न होती थी।

भारत के कई हिस्सों में जब यज्ञोपवीत संस्कार होता है तो बटु को कहा जाता है कि तू शारदा पीठ जाकर ज्ञानार्जन कर और सांकेतिक रूप से वो बटुक शारदापीठ की दिशा में सात कदम आगे बढ़ता है और फिर कुछ समय पश्चात् इस आशय से सात कदम पीछे आता है कि अब उसकी शिक्षा पूर्ण हो गई है और वो विद्वान् बनकर वहां से लौट आ रहा है।

एक समय था जब ये सांकेतिक संस्कार एक दिन वास्तविकता में बदलता था क्योंकि वो बटुक शिक्षा ग्रहण करने वहीं जाता था मगर आज दुर्भाग्य से हमारी "माँ शारदा" हमारे पास नहीं है और हम उनके पास जायें ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है तो शायद अब यज्ञोपवीत की ये रस्म सांकेतिक ही रह जायेगी सदा के लिये । संतों, भक्तों  कशमीरी पंडितों की भारत सरकार माँग है कि हमको शारदापीठ की मुक्ति चाहिये, हमको शारदा पीठ तक जाना है, हमें दुनिया को बताना है कि "केवल शारदा संस्कृति ही कश्मीरियत" है और इसलिये शारदापीठ पर भारत का पूर्ण नियंत्रण हो ऐसी मांग उठाई जा रही है।  

जब तक ये नहीं होता कम से कम तब तक करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तर्ज़ पर "शारदादेवी कॉरिडोर" अविलम्ब आरंभ हो इसकी मांग की जा रही है।

शारदा पीठ मंदिर एक स्थानीय लाल बलुआ पत्थर से बना है, जिसे मंदिर की वास्तुकला की शास्त्रीय कश्मीरी शैली में बनाया गया है। यह एक पहाड़ी पर है और पत्थर की सीढ़ी के माध्यम से एक मोटी पत्थर की दीवार और खंडहर गेटवे के अवशेषों से यहाँ प्रवेश किया जाता है ।

खंडहर एक आयताकार क्षेत्र को घेरते हुए दिखाई देते हैं, जिसके एक बिंदु पर इसके कोनों को कम्पास के कार्डिनल बिंदुओं के साथ जोड़ दिया गया होगा। मंदिर योजना में वर्गाकार है, और एक चौकोर चबूतरा है, जिसका द्वार पश्चिम की ओर है। मैदान और प्रवेश द्वार के बीच पाँच चरण हैं, जो एक बिंदु पर एक अर्ध-छत वाली छत होती, जिसके पीछे एक ट्रेओफिल आर्क लगा होता था, जो आंतरिक गर्भगृह तक ले जाता था। आज, यह क्षेत्र आकाश के संपर्क में है। संभवत: इसलिए कि आर्किटेक्ट दीवारों के बाहर मैदान को नापसंद करते हैं या इसलिए कि अगर स्‍पायर ढह गया, तो भी एक आगंतुक यह बता सकेगा कि मंदिर मूल रूप से कैसा दिखता था। इसका डिजाइन सरल है । डिजाइन की सादगी का मतलब है कि स्थानीय उपासकों के लिए मार्तंड सूर्य मंदिर के लिए एक सादे वास्तुशिल्प के रूप में मंदिर को डिजाइन किया गया था (या अधिक संभावना है, बाद में पुनर्निर्माण किया गया)। मार्तंड सूर्य मंदिर और मालोट किले दोनों को समान रूप से डिजाइन किया गया है । जनरल परवेज़ मुशारफ़ ने इसके विकास के लिए धन स्वीकृत किया था । जिससे इसके आस पास का क्षेत्र विकसित किया गया । पर मूल मंदिर अभी भी ध्वस्त है । स्थानीय मुसलमान भी इसे शारदा माई का मंदिर कहते हैं और चाहते हैं कि ये पुनः आबाद हो और यहाँ साल भर हिंदू दर्शनार्थी आएँ और अपना सालाना उत्सव भी करें ।

Monday, January 6, 2020

बजट के पहले की दुविधा

2020 का बजट असाधरण परिस्थितियों में आ रहा है। सरकार पर चारों तरफ से दबाव हैं। अर्थव्यवस्था में मंदी या सुस्ती के दौर में चैतरफा दबाव होते ही हैं। वैसे सरकार ने अपने तईं हर उपाय करके देख लिए। हालात अभी भले ही न बिगड़े हों लेकिन अर्थव्यवस्था के मौजूदा लक्षण सरकार को जरूर चिंता में डाले होंगे। 

यह पहली बार हुआ है कि सरकार ने संजीदा होकर बजट के पहले हर तबके से सुझाव मांगे। हालांकि ज्यादातर सुझाव आर्थिक क्षेत्र में प्रभुत्व रखने वाले तबके यानी उद्योग व्यापार की तरफ से आए। अब देखना यह है कि इस बार के बजट में सरकार किस तरफ ज्यादा घ्यान देती है।

अर्थशास्त्र की भाषा में समझें तो अर्थव्यवस्था के तीन क्षेत्र हैं। एक विनिर्माण, दूसरा सेवा और तीसरा कृषि। उद्योग व्यापार का नाता सिर्फ विनिर्माण और सेवा क्षेत्र से ही ज्यादा होता है। जाहिर है कृषि को उतनी तवज्जो नहीं मिल पाती। क्योंकि कृषि को असंगठित क्षेत्र ही समझा जाता है। इसीलिए उस पर ध्यान देने की जिम्मेदारी सरकार की ही समझी जाती है। अर्थव्यवस्था में भारी सुस्ती के मौजूदा दौर में कृषि पर कुछ ज्यादा ध्यान देने की बात उठाई जा सकती है।

माना जाता रहा है कि कृषि की भूमिका आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने में ज्यादा नहीं होती है। उद्योग व्यापार की हिस्सेदारी जीडीपी में तीन चैथाई से ज्यादा है जबकि कृषि की एक चैथाई से कम है। मोटा अनुमान है कि जीडीपी में कृषि का योगदान सिर्फ सोलह से अटठारह फीसद ही बचा है। अब सवाल यह है कि जीडीपी में अपने योगदान की मात्रा के आधार पर ही क्या कृषि की अनदेखी की जा सकती है?

हम कृषि प्रधान देश इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि देश की आधी से ज्यादा आबादी इसी में लगी है। जीडीपी में अपने योगदान के आधार पर न सही लेकिन लोकतांत्रिक राजव्यवस्था में अपने आकार के आधार पर उसे अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण न मानना समझदारी नहीं है। उस हालत में जब उद्योग व्यापार को ताबड़तोड़ राहत  पैकेज देकर देख लिए गए हों फिर भी मनमुताविक असर अर्थव्यवस्था पर न पड़ा हो तब कृषि को महत्वपूर्ण मानकर देख लेने में हर्ज नहीं होना चाहिए।

एक बहस हो सकती है कि कृषि की उपेक्षा कभी भी नहीं हुई। सरकार कृषि क्षेत्र पर होने वाले खर्च का हवाला दे सकती है । प्रश्न है कि कृषि पर जो खर्च किया जाता है वह क्या सीधे सीधे कृषि और कृषि उत्पादकों के तन को लगता है। महंगे उन्नत बीज, उर्वरक, कीटनाशक, कृषि यंत्रों के विनिर्माण और कृषि उत्पादों के व्यापार जैसी मदों पर खर्च को कृषि के खाते में जोड़कर कुल रकम बड़ी दिख सकती है। सिंचाई के पहले से बने आधारभूत ढांचे के रखरखाव या गांव की सड़कों पर खर्च को कृषि पर खर्च दिखाना भी इसमें शामिल है। जबकि इस समय की  जरूरत किसानों की जेब तक सीधे सीधे राहत पहुंचाने की है। अर्थव्यवस्था के लिहाज से देखें तो किसान अपनी बड़ी आबादी के कारण देश का सबसे बड़ा उपभोक्ता माना जा सकता है। अगर यह मान लिया गया है कि भारतीय बाजार मांग की कमी का शिकार हो गया है तो किसान को उपभोक्ता मानने से बचना समझदारी नहीं है।

तो क्या किसान को एक बड़ा उपभोक्ता मानकर बजट में कोई प्रावधान किया जा सकता है? बहस करने वाले यह तर्क भी दे सकते हैं कि किसानों को बड़ा राहत पैकेज देने से उनमें मुफतखोरी व राजकोषीय घाटा बढ़ेगा ।जवाब में किसान पक्ष के विशेषज्ञ सवाल पूछ सकते हैं कि चुनिंदा उद्योग व्यापार तबके को बड़े राहत पैकेज देने से क्या वह घाटा नहीं होता ? रही बात उद्योग व्यापार बढ़ाने के जरिए अर्थव्यवस्था को तेज भगाने की , तो पिछले तीन चार महीनों में ऐसा करके देखा चुका है। पता चल रहा है कि उत्पादन बढ़ाने में दिक्कत नहीं है बल्कि दिक्कत यह है कि बाजार में ग्राहक ही नहीं है। यानी इस रहस्य को समझा जाना चाहिए कि अर्थव्यवस्था में भारी सुस्ती का मुख्य कारण देश के उपभोक्ताओं की जेबें ख़ाली हो जाना है। 

उपभोक्ताओं का सबसे बड़ा तबका अगर गांव को मान लिया जाए तो अर्थव्यवस्था में सुधार की उम्मीद लगाई जा सकती है। आखिर किसानों, गांव के मजदूरों और गरीबों की जेब में अगर पैसा पहुंचा दिया जाए तो वह पैसा घूमफिर कर उद्योग व्यापार और शहरी बाजार में ही तो पहुंचता है। देश दुनिया के तमाम अर्थशास्त्री अपने अपने अंदाज में यही सुझाव दे रहे हैं।

खासतौर पर ग्रामीण बेराजगारी पर ध्यान टिकाकर चमत्कारी असर पैदा किया जा सकता है। वैसे इस सिलसिले में पहले से ही मनरेगा कानून बना रखा है। इस मद में ज्यादा सरकारी खर्च बढ़ाने पर किसी तरह का राजनीतिक एतराज भी नहीं किया जा सकता।सरकार के पक्ष के लोग कह सकते हैं कि किसान और गांव तक सीधे सीधे धन पहुंचाने का काम तो उसने किया तो है। वे जनधन खातों  के जरिए 500 रूप्ए महीना उनके खाते में पहुंचाने का हवाला दे सकते हैं। मौजूदा सरकार की इस योजना को साल भर हो चुका है। लेकिन इस भारीभरकम योजना के क्रियान्वयन में अब तक जितनी अड़चने आती रही हैं उससे ग्रामीण उपभोक्ताओं तक पर्याप्त धन पहुंचने पर सवाल उठ रहे हैं। सुपात्र किसानों की पहचान का कागजी काम परेशान कर रहा है।फिर लगता है इस योजना का एलान व उसके लिए प्रावधान सालभर के लिए ही हुआ था। अब जब अगले साल का बजट पेश होने को है तो इस बारे सरकार अगर कुछ नया सोच रही होगी तो उसे बहुत अच्छी बात कही जाएगी। 

दशकों बाद यह स्थिति बनी है जिसमें यह पता नहीं चल रहा है कि देश के मध्यवर्ग की क्या स्थिति है। महंगाई काबू में रहने की बात बार बार दोहराई जा रही है। सरकार का दावा सही भी हो सकता है कि इस समय महंगाई काबू में है। लेकिन इस बात का पता नही ं चल रहा है देश के मध्यवर्ग की आमदनी की क्या स्थिति है। मध्यवर्ग राजनीतिक तौर पर भी संवेदनशील होता है। लिहाज़ा इस बार के बजट में भी मध्यवर्ग पर ज्यादा गौर किए जाने की संभावनाएं तो बहुत ही ज्यादा हैं। लेकिन इस चक्कर में अंदेशा यही है कि  कहीं देश का बहुतायत उपभोक्ता यानी किसान और खेतिहर मजदूर न छूट जाएं।