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Monday, September 24, 2018

हिमाचल सरकार क्या सो रही है ?

सारे भारत और विदेशों से लगभग पूरे वर्ष पर्यटक कुल्लु-मनाली (हिप्र) जाते हैं। इत्तेफाक मेरा जाना पिछले हफ्ते 45 वर्ष बाद हुआ। 1974 में कुल्लू-मनाली गया था। हसरत थी हिमाचल की गोद में बसे इन दो सुंदर पहाड़ी नगरों को देखने की पर जाकर बहुत धक्का लगा। 

कुल्लू और मनाली दोनों ही शहर बेतरतीब, अनियोजित, भौड़े और अवैध शहरीकरण का भद्दा नमूना प्रस्तुत कर रहे थे। इस कदर निर्माण हुआ है कि इन शहरों का प्राकृतिक सौंदर्य खत्म हो गया। कल-कल करती व्यास नदी के दो किनारे जो कभी सुंदर वृक्षों से आच्छादित थे, आज होटलों और इमारतों भरे हैं। जिनके पिछवाड़े की सब गंदगी व्यास नदी में जा रही है। पूरे इलाके में 'स्वच्छ भारत अभियान' का कोई प्रमाण नहीं दिखाई दिया। जगह-जगह कूड़े के पहाड़, पहाड़ के ढलानों पर कूड़े के झरनेनुमा एक बदनुमा दाग की तरह दिखाई देते हैं। 

माना कि पूरे हिंदुस्तान में शहरीकरण  पिछले चार दशकों में काफी तेजी से हुआ है और कमोबेश इसी तरीके से हुआ है। पर कम से कम पर्यटक स्थलों को तो एक दूरदृष्टि के साथ विकसित किया जा सकता था। हर शहर के लिए राज्य सरकारों ने विकास प्राधिकरण बनाएं, जिनका काम शहरी विकास को नियोजित करना था। बजाय इसके यह भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं। पैसे देकर कोई भी अवैध निर्माण स्वीकृत कराया जा सकता है, फिर चाहे वह प्राकृतिक पर्यटक स्थल हों, ऐतिहासिक या फिर धार्मिक। सबकी दुर्गति एक जैसी हो रही है। जिसका जहां मन कर रहा है, जैसा मन कर रहा है, वैसा निर्माण अंधाधुंध कर रहा है। उसमें न तो कलात्मकता है और न ही स्थानीय वास्तुकला की छाप। रेशम के कपड़ों पर टाट के पैबंद लगाए जा रहे हैं। 

हिमाचल के तो सभी शहरों का यही हाल है, चाहे वो शिमला, विलासपुर ह, मंडी या कांगड़ा हो सबका बेतरतीब विकास हो रहा है। वैसे तो हिमाचल सरकार 'ग्रीन टैक्स' भी लेती है, जिसका उद्देश्य हिमाचल के पर्यावरण की सुरक्षा करना है, पर ऐसा कोई प्रयास सरकार की तरफ से किया गया हो, नहीं दिखाई देता। 

नदियों और पहाड़ों के किनारे आधुनिक इंजीनियरिंग तकनीकि से कंक्रीट के बनाए गए बहुमंजिलीय भवन पर्यावरण के लिए तो खतरा हैं ही, नागरिकों के जीवन के लिए भी खतरा हैं। केदारनाथ की महाप्रलय हमारी आंखों से अभी ओझल नहीं हुई है। हिमाचल के शहरों को देखकर यही आशंका प्रबल हुई कि कहीं किसी दिन केदारनाथ जैसी प्रलय का सामना  हिमाचलवासियों को न करना पड़े। हिमाचल में घर बनाने की पारंपरिक तकनीकि सदियों पुरानी है। लकड़ी के लट्ठों के बीच पत्थर फंसाकर, उसमें मिट्टी का प्लास्टर लगा कर जो घर बनाए जाते थे, वो वहां के मौसम के अनुकुल थे। जाड़े में गरम और गरमी में ठंडे। इन मकानों की खास बात यह है कि सैकड़ों सालों में आए बार बार  भूचालों में भी इनकी चूलें तक नहीं हिलीं। जबकि आधुनिक भवन भूकंप के हल्के से झटके से भरभराकर गिर सकते हैं और गिरते हैं। इसके अलावा हिमाचल के लोग प्रायः मकान को एक-दूसरे से सटाकर नहीं बनाते थे। हर मकान के चारों तरफ खुला इलाका होता था, जिससे उसका सौंदर्य और भी बढ़ जाता था। पर आज जो निर्माण हो रहा है, वो एक-दूसरे से सटाकर हो रहा है। इससे धरती पर दबाव तो बढ़ ही रहा है, पर नागरिकों को भी प्रकृति प्रदत्त प्राकृतिक आनंद से वंचित रहना पड़ता है।  क्योंकि अब ये मकान दिल्ली के ओखला इलाके में बने ऐसे ही अवैध निर्माणों का प्रतिबिंब हैं।

सवाल है कि मोटा वेतन लेने वाले सरकारी अधिकारी क्यों आंख बंद किए बैठे हैं? नेता भी कम दोषी नहीं, जो अपने कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए हर तरह का अवैध निर्माण प्रोत्साहित करते हैं। 

ये सही है कि पर्यटन बढ़ने से हिमाचल के लोगों की आमदनी बहुत बढ़ी है। पर ऐसी आमदनी का क्या लाभ, जो जीवन के नैसर्गिक सुख और सौंदर्य को छीन ले। कुल्लू और मनाली को देखकर मुझे वही शेर याद आया कि ‘जिसे सदियों से संजों रखा था, उसे अब भुलाने को दिल चाहता है...’। 

ये तर्क ठीक नहीं आबादी या पर्यटन बढ़ने से यह नुकसान हुआ है। गत 34 वर्षों से कई बार यूरोप के पर्वतीय पर्यटन क्षेत्र स्विट्जरलैंड जाने का मौका मिला है। पर इन 34 वर्षों में इस तरह की गिरावट का एक भी चिह्न देखने को वहां नहीं मिला। स्विट्जरलैंड की सरकार हो या यूरोप के अन्य पर्यटन केंद्रों की सरकारें, अपने प्राकृतिक और सांस्कृतिक वैभव को बिगड़ने नहीं देती। पर्यटन वहां भी खूब बढ़ रहा है, पर नियोजित तरीके से उसको संभाला जाता है और धरोहरों और प्रकृति से छेड़छाड़ की अनुमति किसी को नहीं है। हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते ?

यह प्रश्न मैंने ब्रज के विकास के संदर्भ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों और भारत के प्रधानमंत्रियों के समक्ष पिछले 15 वर्षों में अलग-अलग स्तर पर, अलग-अलग माध्यम से कई बार उठाया है कि ब्रज की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत की अवहेलना करके उसे विकास के नाम पर विद्रूप किया जा रहा है। नवगठित 'ब्रज तीर्थ विकास परिषद् ' भी नई बोतल में पुरानी शराब है। जो योजनाएं ये बना रहे हैं, उससे ब्रज ब्रज नहीं रहेगा। 

जरूरत इस बात की है कि भारत के तीर्थांटन और पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्णस्थलों के विकास की अवधारणा को एक राष्टव्यापी बहस के बाद ठोस मूर्त रूप दिया जाए और उससे हटने की आजादी किसी को न हो। कम से कम भविष्य का विकास (?) विनाशकारी तो न हो। क्या कोई हमारी बात सुनेगा या फिर भारत की महान धरोहरों का डंका पीट-पीटकर उन्हें गंदी बस्तियों में परिवर्तित करता रहेगा ?

Monday, June 6, 2016

सोच बदलने की जरूरत

नरेन्द्र भाई मोदी के अधीन काम करने वाले अफसर हर वक्त अपने पंजों पर खड़े रहते है। क्योंकि उन्हें हर काम लक्ष्य से पहले और अच्छी गुणवत्ता का चाहिए। देश की सांस्कृतिक धरोहरों के जीर्णोंद्धार, संरक्षण और संवर्धन के लिए मोदी सरकार ने कई योजनाएं शुरू की है। पर अफसरशाही की दकियानूसी के चलते पुराने काम के ढर्रे में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है। पहले भी फाइलें ज्यादा दौड़ती थी और जमीन पर काम कम होता था। आज भी वहींे हालत है। इसका एक कारण तो यह है कि केन्द्र सरकार के अनुदान का क्रियान्वयन प्रान्तीय सरकारें करती है। जिन पर केन्द्र सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता। दूसरा कारण यह है कि अलग-अलग राज्यों में भ्रष्टाचार के स्तर अलग-अलग है। किसी राज्य में 100 में 70 फीसदी खर्च होता है। बाकी कमीशन और प्रशासनिक व्यय में खप जाता है। जबकि ऐसे भी राज्य हैं जहां 70 से 80 फीसदी रूपया केवल कमीशन और प्रशासनिक व्यय में खपता है। बचे 20 फीसदी में से 10 फीसदी ठेकेदार का मुनाफा होता है यानि 100 रूपये में से 16 रूपया ही जमीन तक पहुंचता है।
    1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने यही बात कहीं थी। तब उनके इस वक्तव्य को बहुत हिम्मत का काम माना गया था। क्योंकि आजादी के बाद पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने इस हकीकत को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था। दुख की बात यह है कि आज 32 साल बाद भी हालात बदले नहीं है। सवाल है क्या मोदी जी को इसकी जानकारी नहीं है ? क्या उनके पास इसका कोई हल नहीं है ? क्या इस हालत को बदलने की उनमें इच्छाशक्ति नहीं है ? तीनों ही प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक है। जानकारी भी होगी, हल भी है और इच्छाशक्ति भी है। केवल रूकावट है तो नौकरशाही के औपनिवेशिक रवैये की। जो वैश्वीकरण के इस दौर में भी यह मानने को तैयार नहीं कि उससे बेहतर सोच और समाधान आम लोगों के पास भी हो सकते है। इसलिए नौकरशाही कोई भी नये विचार को अपनाने को तैयार नहीं है। एक दूसरा कारण केन्द्रीय सतर्कता आयोग की लटकती तलवार भी है। जो हर ऐसे नवीन कदम या पहल पर निहित स्वार्थ का आरोप लगाकर जोखिम उठाने वाले अफसर को तलब कर सकता है। इसलिए कोई अफसर नये प्रयोगों का जोखिम उठाना नहीं चाहता।
    पर मोदी जी के बारे में गुजरात के दिनों में यह शोहरत थी कि वे किसी भी अच्छा काम करने वाले को कहीं से भी ढूंढकर पकड़ लाते है और फिर अपनी नौकरशाही को उस व्यक्ति के अनुसार कार्य करने की हिदायत देते है। नतीजतन काम बढ़िया भी होता है और उसकी गुणवत्ता पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता।
    सरकार के अलावा निजी क्षेत्र में या निजी रूप में अद्भुत कार्य कर चुके लोगों की कमी नहीं है। देश के विकास में अपने बूते पर योगदान देने वालों की संख्या अच्छी खासी है। ये वो लोग हैं जिन्होंने कई दशाब्दियों से सामाजिक स्तर पर विभिन्न-विभिन्न क्षेत्रों में अपने अभिनव प्रयोगों, निस्वार्थ कर्मयोग और समाज के प्रति संवेदनशीलता के साथ बहुत बड़े-बड़े काम किये हैं। पर ऐसे लोगों को नौकरशाही का तंत्र नापसन्द करता है। क्योंकि उसे उनकी सफलता देखकर अपना अस्तित्व खतरे में नजर आता है। इसलिए जरूरी है कि मोदी जी कुछ पहल करें।
    प्रधानमंत्री कार्यालय के पास हर ऐसे व्यक्ति के बारे में सूचना का भण्डार है और अगर उसमें कुछ कमी है तो वे अपने प्रभाव से उस सूचना को कहीं से भी मंगा सकते है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रधानमंत्री ऐसे अलग-अलग क्षेत्रों के महारथी, स्वयंसेवकों को अपने पास बुलायें और उनसे उनके अनुभव के आधार पर समाधान पूछें और उन समाधानों को लागू करने में अपनी पूर्णक्षमता का प्रयोग करें। इस नूतन प्रयोग से लक्ष्य भी पूरे होंगे और पारदर्शिता भी आयेगी।
    पुरातात्विक संरक्षण के क्षेत्र में, बिना सरकार की आर्थिक मदद के हमारी संस्था ब्रज फाउण्डेशन ने भी ब्रज क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य किये है। जिनकी जानकारी प्रधानमंत्री जी को हैं। क्योंकि वे हमारे काम में लम्बे समय से रूचि लेते रहे है। इस लेख के माध्यम से मैं उन तक यह बात पहुंचाना चाहता हूं कि बिना लालफीताशाही को काटे भारत को मजबूत राष्ट्र बनाने का उनका सपना पूरा नहीं हो सकता। मोदी सरकार को चाहिए कि ऐसे नामचीन लोग जो कभी किसी लाभ के लालच में सत्ता के गलियारों में चक्कर नहीं लगाते, उनको बुलाकर उनकी बात सुनें और इस समस्या का स्थायी हल ढूढ़े। जिससे जनता के पैसे का दुरूपयोग रूके और समाज के हित में कुछ ठोस काम हो जायें।

Monday, November 10, 2014

ऐसे नाटक ज्यादा घातक



दिल्ली भाजपा के अधयक्ष सतीश उपाध्याय और उनके साथ शाजिया इल्मी के स्वच्छता अभियान वाले नाटक से नरेन्द्र मोदी के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम को बड़ी चोट पहुंची है | यह मामला वैसे तो कोई बड़े महत्त्व का नहीं है लेकिन नई सरकार के आने के बाद जिन कार्यक्रमों की जोर-शोर से शुरुवात करने की कोशिश हुई है उसकी कमज़ोर कड़ियाँ दिखने लगी हैं |
दिल्ली के चमचमाते इलाके में ऐसे आयोजन की आखिर ज़रूरत क्या आन पड़ी थी ? इस सिलसिले में कोई अगर यह कहे कि उपाध्याय को यह इलाका किसी ने अपने हिसाब सुझा दिया होगा और उपाध्याय ने महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के तहत आने वाले किसी भी आयोजन के लिए बिना सोचे समझे हामी भर दी होगी तो यह बात गले नहीं उतरती | टीवी चैनलों पर जिस तरह से व्यंग और उपहास करते हुए पहले सूखे पत्ते और फूल बिखेरते हुए दिखाया गया और बाद में उपाध्याय के साथ इल्मी को झाड़ू लगाने के समारोह में भाग लेते हुए दिखाया गया उससे तो पूरे अभियान पर सवाल उठाना स्वाभाविक है | इतने महत्वपूर्ण और सार्थक अभियान के मकसद पर उठ रहे सवाल सभी को सोचने को मजबूर कर रहे हैं |
कोई ऐसा भी कह सकता है कि नरेंद्र मोदी की प्राथमिकता वाले इस अभियान का यह प्राथमिक चरण है | यानी यह सिर्फ योजना बनाने वाला चरण है | लिहाज़ा योजना बनाने में ऐसे अंदेशों का भी निराकरण कर लिया जायेगा | लेकिन यहाँ इस बात पर गौर ज़रूरी है कि दिल्ली अब विधान सभा चुनाव की तैयारियों के दौर में पहुँच चुकी है | ऐसे में दिल्ली भाजपा अधयक्ष की छीछालेदर होना छोटी बात नहीं है | अनुमान कर सकते हैं कि भाजपा के केन्द्रीय स्तर पर इसे ज़रूर ही लेखे में ले लिया गया होगा |
इस प्रकरण के बहाने हमारे पास स्वच्छता अभियान के कुछ और महत्वपूर्ण पहलुओं पर कहने का मौका है | वैसे महीने भर पहले 6 अक्टूबर को इसी कॉलम में इसी मुद्दे पर लिखा गया था | वह 2 अक्टूबर के 4 दिन बाद का समय था | यानी तब स्वच्छता के प्रति नई सरकार की गंभीरता के रुझान बताने की शुरुआत थी | तब इस कॉलम में लिखा गया था कि सडकों और गलियों में फैले कूड़े कचरे को समेट कर एक जगह ढेर बना देने से काम पूरा नहीं हो सकता | समस्या इलाके से निकले कूड़े को शहर या गाव से बाहर फेंकने की है और उससे भी बड़ी समस्या यह कि गाव या शहर के बाहर कहाँ फेंके ? पिछले तीस साल में हर तरह से सोच के देख लिया गया और पाया गया कि कूड़े के अंतिम निस्तारण के लिए कोई भी विश्वसनीय उपाय उपलब्ध नहीं हो पाया है | जितने भी निरापद उपाय सोचे गए वे इतने खर्चीले हैं कि बेरोज़गारी और महंगाई सी जूझता देश वह खर्चा उठा नहीं सकता | अब यदि स्वच्छता को नई सरकार की प्राथमिकता में रखा ही गया है तो सबसे पहले योजनाकारों को यह हिसाब लगाना होगा कि इतने महत्वपूर्ण अभियान के लिए हम कितने धन का प्रबंध कर सकते हैं ? हो सकता है कि पांच महीने पुरानी हो गयी नई सरकार के बड़े अफसरों ने बड़ी तेज़ी से काम करके यह हिसाब लगा लिया हो | लेकिन नई सरकार की पहल या उसके क़दमों का पल-प्रतिपल हिसाब रखने वाले मीडिया में इस बारे में कोई सूचना दिखाए नहीं दी |
लोगों के बीच होने वाली बातों को देखें तो नरेंद्र मोदी के इरादों पर लोग अभी भी यकीन कर रहे हैं | बहुमत के साथ बनी सरकार का अर्थ ही ये है कि ज्यादातर लोग मन से चाहते हैं कि नई सरकार की योजनाएं परीयोजनाएं सफल हों | और अगर वे ऐसा चाहते हैं तो अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी निभाने में लोग पीछे क्यों रहेंगे ? और इस बात से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि अभिनेता या बड़े नेता या दूसरे सेलिब्रिटी सड़कों पर झाड़ू लगाते दिख रहे हैं या नहीं दिख रहे | वैसे ये मनोविज्ञान का मामला है | प्रचार में अभिनेताओं – नेताओं के इस्तेमाल की बात ठीक भी हो सकती है | फिर भी यह सवाल अपनी जगह है कि जागरूकता का लक्ष्य हासिल करने के बाद हमें कूड़े कचरे के जो बड़े बड़े ढेर उपलब्ध होंगे उनका निस्तारण हम कैसे करेंगे ?
अभियान का औपचारिक एलान हुए महीना भर हुआ है | अगर अभियान वाकई जोर पकड़ गया तो हमें फ़ौरन ही ठोस कचरा प्रबंधन का कोई नवोनवेशी उपाय ढूंढना पड़ेगा | बेहतर हो कि कचरा प्रबंधन के क्षेत्र में शोध परियोजनाएं अभी से शुरू कर ली जाएँ और कचरा प्रबंधन के लिए संसाधनों के इंतज़ाम पर सोचना शुरू कर दिया जाए | अभी से हिसाब लगा लिया जाए कि स्वच्छता अभियान को प्राथमिकता सूची में कहाँ रखा जाए | इन सुझावों को अभियान के पूर्व की सतर्कता की श्रेणी में रखा जा सकता है वरना उपाध्याय और इल्मी जैसे और भी प्रकरण सामने आते रह सकते हैं | कूड़े कचरे के बड़े बड़े ढेरों के पास कोई भी नहीं फटकना चाहेगा |

Monday, October 6, 2014

सफाई की समस्या का व्यावहारिक समाधान ढूंढना होगा

देश में नई सरकार की प्राथमिकताएं दिखनी शुरू हो गयी हैं | पिछले हफ्ते स्वच्छता की बात उठी | जितनी तीव्रता से इस विचार को सामने लाया गया उससे नई सरकार के योजनाकार भी भोचक हैं | खास तौर पर इस बात पर कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सफाई के काम को छोटा सा काम बताया | जबकि अबतक का अनुभव बताता है की सफाई का काम उन बड़े बड़े कामों से कम खर्चीला नहीं है जिनके लिए हम हमेशा पैसा कि कमी का रोना रोते रहे हैं|

देश के 50 बड़े शहरों में साफ़ सफाई के लिए क्या कुछ करने कोशिश नहीं की गई ? 600 से ज्यादा जिला मुख्यालयों में जिला प्रशासन और स्थानीय प्रशासन अगर वाकई किसी मुद्दे पर आँखे चुराते हुए दिखता है तो वह साफ सफाई ही है | और उधर 7 लाख गावों को इस अभियान से जुड़ने के लिए हम न जाने कितने साल से लगे हैं | यानी कोई कहे कि इतने छोटे से काम पर पहले किसी का ध्यान नहीं गया तो यह बात ठीक नहीं होगी | महत्वपूर्ण बात यह होगी कि इस सर्वभौमिक समस्या के समाधान के लिए व्यवहारिक उपाय ढूंढने के काम पर लगा जाय |

गांधी जयन्ती पर नई सरकार के तमाम मंत्री किस तरह खुद झाड़ू लेकर सड़कों पर सफाई करते दिखे उससे लगता है कि इस समस्या को कर्तव्यबोध बता कर निपटाने की बात सोची गयी है | यानी हम मान रहे हैं कि नागरिक जबतक अपने आसपास का खुद ख़याल नहीं रखेंगे तबतक कुछ नहीं होगा | इस खुद ख्याल रखने की बात पर गौर ज़रूरी है |

शोधपरख तथ्य तो उपलब्ध नहीं है लेकिन सर्वभौमिक अनुभव है कि देश के मोहल्लों / गलियों में इस बात पर झगड़े होते हैं कि ‘मेरे घर के पास कूडा क्यों फेंका’ यानी समस्या यह है कि घर का कूड़ा कचरा इकठा करके कहाँ ‘फेंका’ जाय ?

निर्मला कल्याण समिति जैसी कुछ स्वयमसेवी संस्थाओं के पर्यीवेक्षण है कि उपनगरीय इलाकों में घर का कूड़ा फेकने के लिए लोगों को आधा किलोमीटर दूर तक जाना पड़ रहा है | ज़ाहिर है कि देश के 300 कस्बों में लोगों की तलाश बसावट के बाहर कूड़ा फेंकने की है | खास तौर पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का अनुभव यह है कि हमारे बेशकीमती जलसंसाधन मसलन तालाब, कुण्ड और कुँए – कूड़ा कचरा फेंकने के खड्ड बन गए हैं | इन नए घूरों और खड्डों की भी अपनी सीमा थी पर अब हर जगह ये घूरे और कूड़े से पट गए हैं| आने वाले समय में नई चुनौती यह खड़ी होने वाली है कि शहरों और कस्बों से निकले कूड़े-कचरे के पहाड़ हम कहाँ-कहाँ बनाए ? उसके लिए ज़मीने कहाँ ढूंढें ?

गाँव भले ही अपनी कमज़ोर माली हालत के कारण कूड़े कचरे की मात्रा से परेशान न हों लेकिन जनसँख्या के बढते दबाव के चलते वहां बसावट का धनत्व बढ़ गया है | गावों में तरल कचरा पहले कच्ची नालियों के ज़रिये भूमिगत जल में मिल जाता था | अब यह समस्या है कि गावों से निकली नालियों का पानी कहाँ जाए | इसके लिए भी गावों की सबसे बड़ी धरोहर पुराने तालाब या कुण्ड गन्दी नालियों के कचरे से पट चले हैं |

यह कहने की तो ज़रूरत है ही नहीं कि बड़े शहरों और कस्बों के गंदे नाले यमुना जैसी देश की प्रमुख नदियों में गिराए जा रहे हैं | चाहे विभिन्न प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हों और चाहे पर्यावरण पर काम करने वाली स्वयमसेवी संस्थाएँ – और चाहे कितनी भी चिंतित सरकारें – ये सब गंभीर मुद्रा में ‘चिंता’ करते हुए तो दिखते हैं लेकिन सफाई जैसी बहुत छोटी ? या बहुत बड़ी ? समस्या पर ‘चिंताशील’ कोई नहीं दिखता | अगर ऐसा होता तो ठोस कचरा प्रबंधन, औद्योगिक कचरे के प्रबंधन, नदियों के प्रदूषण स्वच्छता और स्वास्थ के सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी हमें बड़े अकादमिक आयोजन ज़रूर दिखाई देते हैं | विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दिवसों और राष्ट्रीय दिवसों पर सरकारी पैसे से कुछ सेमीनार और शोध सम्मलेन होते ज़रूर हैं लेकिन उनमें समस्याओं के विभिन्न पक्षों की गिनती से ज्यादा कुछ नहीं हो पाता | ऐसे आयोजनों में आमंत्रित करने के लिए विशेषज्ञों का चयन करते समय लालच यह रहता है कि सम्बंधित विशेषज्ञ संसाधनों का प्रबंध करने में भी थोड़ा बहुत सक्षम हो | और होता यह है कि ऐसे समर्थ विशेषज्ञ पहले से चलती हुई यानी चालु योजना या परियोजना के आगे सोच ही नहीं पाते | जबकि जटिल समस्याओं के लिए हमें नवोन्मेषी मिज़ाज के लोगों की ज़रूरत पड़ती है | विज्ञान और प्रोद्योगिकी संस्थानों, प्रबंधन प्रोद्योगिकी संस्थानों और चिंताशील स्वयंसेवी संस्थाओं के समन्वित प्रयासों से, अपने अपने प्रभुत्व के आग्रह को छोड़ कर, एक दुसरे से मदद लेकर ही स्वच्छता जैसी बड़ी समस्या का समाधान खोजा जा पायेगा |