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Monday, June 8, 2020

क्या बाबा रामदेव ये हिम्मत करेंगे ?

20 बरस पहले बाबा रामदेव को देश में कोई नहीं जानता था। न तो योग के क्षेत्र में और न आयुर्वेद के क्षेत्र में। पर पिछले 15 सालों में बाबा ने भारत ही नहीं पूरी दुनिया में अपनी सफलता के झंडे गाड़ दिए। जहां एक तरफ़ उनके योग शिविर हर प्रांत में हज़ारों लोगों को आकर्षित करने लगे, दुनिया भर में रहने वाले हिंदुस्तानियों ने टेलिविज़न पर बाबा के बताए प्राणायाम और अन्य नुस्ख़े तेज़ी से अपनाना शुरू कर दिए। बाबा के अनुयाइयों की संख्या करोड़ों में पहुँच गई और उन सब के दान से बाबा रामदेव ने 2006 में हरिद्वार में पातंजलि योगपीठ का एक विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया। 

अपनी इस अभूतपूर्व कामयाबी को बाबा ने दो क्षेत्रों में भुनाया। एक तो आयुर्वेद के साथ-साथ उन्होंने अनेक उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन शुरू किया और दूसरा अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए देश भर में राजनैतिक जन-जागरण का एक बड़ा अभियान छेड़ दिया। उन्होंने काले धन और भ्रष्टाचार के मुद्दे को इस कुशलता से उठाया कि तत्कालीन यूपीए सरकार लगातार रक्षात्मक होती चली गई। बाबा के इस अभियान की सफलता के पीछे भाजपा और आरएसएस की भी बहुत सक्रिय भागीदारी रही। ‘बिल्ली के भाग से छींका’ तब फूटा जब लोकपाल के मुद्दे को लेकर अरविंद केजरीवाल ने ‘इंडिया अगेन्स्ट करपशन’ का आंदोलन शुरू किया। जिसमें मशहूर वकील प्रशांत भूषण, शांति भूषण, सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे, सेवानिवृत पुलिस अधिकारी किरण बेदी, हिंदी कवि डा. कुमार विश्वास, पूर्व न्यायधीश संतोष हेगड़े और तमाम अन्य सेलिब्रिटी भी जुड़ गए। इन सबका हमला यूपीए सरकार पर था, इसलिए बाबा राम देव के अभियान को और ऊर्जा मिल गई। इन सब ने मिल कर साझा हमला बोल दिया और अंततः यूपीए सरकार का पतन हो गया। 

केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार बनी तो दिल्ली में केजरीवाल की। जिसके बाद से इन सभी ने न तो भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया है, न काले धन का और न ही प्रभावी लोकपाल का। जिस आंदोलन ने दुनियाँ की नज़र में एक बड़ी राजनैतिक क्रांति का आगाज़ किया था, वो रातों रात हवा हो गई। 

उधर बाबा ने मोदी सरकार में अपनी राजनैतिक दख़लंदाज़ी सफल होते न देख पूरा ध्यान पातंजलि के कारोबार पर केंद्रित कर दिया। जिसके पीछे आचार्य बालकृष्ण पहले से खड़े थे। उनके इस साम्राज्य की इतनी तेज़ी से वृद्धि हुई कि प्रसाधनों के क्षेत्र में हिंदुस्तान लिवर जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी और आयुर्वेद के क्षेत्र में डाबर जैसी कम्पनियाँ भी कहीं पीछे छूट गईं। आज बाबा रामदेव का कारोबार हज़ारों करोड़ का है।

आर्थिक वृद्धि की इस तेज रफ़्तार के बीच बाबा के कुछ उत्पादनों की गुणवत्ता को लेकर कभी-कभी विवाद भी होते रहे और बाबा से ईर्ष्या रखने वाले कुछ लोग उन्हें ‘लाला रामदेव’ भी कहने लगे। पर इस सबसे बेपरवाह बाबा अपनी गति से आगे बढ़ते रहे हैं। क्योंकि उन्हें अपनी सोच और क्षमता पर आत्मविश्वास है। उनके इस जज़्बे का परोक्ष लाभ समाज और देश को भी मिला है। क्योंकि बाबा की प्रेरणा से बहुत बड़ी संख्या में भारतवासियों ने विदेशी उत्पादों को छोड़ कर स्वदेशी को अपना लिया है। दूसरा; इतने व्यापक स्तर पर योगाभ्यास करने से निश्चित रूप से करोड़ों लोगों को स्वास्थ्यलाभ भी हुआ है। तीसरा; पातंजलि के व्यावसायिक साम्राज्य ने लाखों लोगों को रोज़गार भी प्रदान किया है। जिसके लिए बाबा रामदेव की लोकप्रियता देश में आज भी कम नहीं हुई है। 

बाबा रामदेव का व्यवहार बड़ा आत्मीय और सरल होने के कारण, हर क्षेत्र में उनके मित्रों की संख्या भी बहुत है। पिछले दस वर्षों से मेरे सम्बंध भी बाबा से बहुत आत्मीय रहे हैं। अपने टेलिविज़न चैनल के माध्यम से उन्होंने ब्रज सजाने के हमारे विनम्र अभियान में मीडिया सहयोग भी किया है। पर खोजी पत्रकार की अपनी साफ़गोई की छवि के कारण जहां देश के बहुत से महत्वपूर्ण लोग मेरी बेबाक़ी  से विचिलित हो जाते हैं वहीं बाबा जैसे लोग, मेरी आलोचना को भी एक खिलाड़ी की भावना की तरह सहजता से हंसते हुए स्वीकार करते हैं। 

अपनी इसी साफ़गोई को माध्यम बना कर आज जो मैं बाबा से कहने जा रहा हूँ, वह देश की वर्तमान आर्थिक दुर्दशा को, व सामाजिक विषमता को दूर करने की दिशा में एक मील का पत्थर हो सकता है - अगर बाबा मेरे इस सुझाव को गम्भीरता से लें। 

निस्संदेह व्यक्तिगत तौर पर बाबा रामदेव और उनके मेधावी व कर्मठ सहयोगी आचार्य बालकृष्ण ने कल्पनातीत भौतिक सफलता प्राप्त कर ली है। पर भौतिक सफलता या चाहत की कभी कोई सीमा नहीं होती। अपनी पत्नी को 600 करोड़ रुपये का हवाई जहाज़ भेंट करने वाला उद्योगपति भी कभी भी अपनी आर्थिक उपलब्धियों से संतुष्ट नहीं होता। पर केसरिया वेश धारी सन्यासी तो वही होता है, जो अपनी भौतिक इच्छाओं को अग्नि में भस्म करके समाज के उत्थान के लिए स्वयं को होम कर देता है। इसलिए बाबा रामदेव को अब एक नया इतिहास रचना चाहिए। 

अपनी आर्थिक शक्ति व प्रबंधकीय योग्यता का उपयोग हर गाँव को आत्मनिर्भर बनाने के लिए करना चाहिए। यह तो बाबा और आचार्य जी भी जानते हैं कि आयुर्वेदिक या खाद्यान के उत्पादनों की गुणवत्ता  बड़े स्तर के कारख़ानों में नहीं बल्कि कुटीर उद्योग के मानव श्रम आधारित उत्पादन के तरीक़ों से बेहतर होती है। बैलों की मंथर गति से, सामान्य ताप पर, कोल्हू में पेरी गई सरसों का तेल, जिसे कच्ची घानी का तेल कहते हैं, कारख़ानों में निकाले गए तेल से कहीं ज़्यादा श्रेष्ठ होता है। इसी तरह दुग्ध उत्पादन हो, खाद्यान हो, मसाले हों, प्रसाधन हों या अन्य वस्तुएँ हों, अगर इनका उत्पादन विकेंद्रियकृत प्रणाली से व गाँव की आवश्यकता के अनुरूप हर गाँव में होना शुरू हो जाए तो करोड़ों ग़रीबों को रोज़गार भी मिलेगा और गाँव में आत्मनिर्भरता भी आएगी। जिसे अंग्रेज़ी हुकूमत ने 190 सालों में अपने व्यावसायिक लाभ के लिए बुरी तरह से ध्वस्त कर दिया था। विकेंद्रीकृत व्यवस्था  से गाँव की लक्ष्मी फिर गाँव को लौटेगी। स्पष्ट है कि तब लक्ष्मी जी की कृपावृष्टि पातंजलि के साम्राज्य  पर नहीं होगी, बल्कि उन ग़रीबों के घर पर होगी, जो भारी यातनाएँ सहते हुए, महानगरों से लुट-पिट कर और सेकडों किलोमीटर पैदल चल कर रोते-कलपते फिर से रोज़गार की तलाश में अपने गाँव लौट कर गए हैं। क्या सन्यास वेशधारी बाबा रामदेव लक्ष्मी देवी को अपने द्वार से लौटा कर इन गाँवों की ओर भेजने का पारमार्थिक कदम उठाने का साहस दिखा पाएँगे ?

Monday, November 4, 2019

मोदी जी योजनाओं की जांच करवायें

जब से श्री नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने, तब से नया भारतबनाने के लिए उन्होने अनेक जनोपयोगी क्रांतिकारी योजनाओं की घोषणाऐं की हैं। जैसे महिलाओं को गैस का सिलेंडर, निर्धनों के घरों में शौचालयों का निर्माण, जनधन योजना, आयुष्मान भारत, स्वच्छ भारत, जलशक्ति अभियान आदि। हर कोई मानता है कि मोदी जी ने एक बड़ा सपना देखा है और ये सारी योजनाऐं उसी सपने को पूरा करने की तरफ है एक-एक कदम हैं।
यंू तो देश का हर प्रधानमंत्री आज तक जनता के हित में कोई न कोई नई योजनाऐं घोषित करता रहा, पर मात्र 6 वर्ष में इतनी सारी योजनाऐं इससे पहले कभी किसी प्रधानमंत्री ने घोषित नहीं की थीं। 
इन योजनाओं में से कुछ योजनाओं का निश्चित रूप से लाभ आम आदमी को मिला है। तभी 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी जी को दोबारा इतना व्यापक जन समर्थन मिला। पर ये बात मोदी जी भी जानते होंगे और उनसे पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर चुके हैं कि जनता के विकास के लिए आवंटित धनराशि का जो प्रत्येक 100 रूपया दिल्ली से जाता है, वह जमीन तक पहुँचते-पहुँचते मात्र 14 रूपये रह जाता है। 86 रूपये रास्ते में भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाते हैं। इसलिए सारा विकास कागजों पर धरा रह जाता है।
जहाँ मोदी जी ने देश की अनेक दकियानूसी परंपराओं तोड़कर अपने लिए एक नया मैदान तैयार किया है, वहीं यह भी जरूरी है कि समय-समय पर इस बात का जायजा लेते रहें कि उनके द्वारा घोषित कार्यक्रमों का क्रियान्वयन कितने फीसदी हो रहा है।
जमीनी सच्चाई जानने के लिए मोदी जी को गैर पारंपरिक साधनों का प्रयोग करना पड़ेगा। ऐसे में मौजूदा सरकारी खूफिया एजेंसिया या सूचना तंत्र उनकी सीमित मदद कर पाऐंगे। प्रशासनिक ढांचे का अंग होने के कारण इनकी अपनी सीमाऐं हैं। इसलिए मोदी जी को गैर पारंपरिक फीड बैक मैकेनिज्मका भी सहारा लेना पड़ेगा, जैसा आज से 2300 साल पहले भारत के पहले सबसे बड़े मगध साम्राज्य के शासक अशोक महान किया करते थे। जो जादूगरों और बाजीगरों के वेश में अपने विश्वासपात्र लोगों को पूरे साम्राज्य में भेजकर जमीनी हकीकत का पता लगवाते थे और उसके आधार पर अपने प्रशासनिक निर्णय लेते थे। 
अगर मोदी जी ऐसा कुछ करते हैं, तो उन्हें बहुत बड़ा लाभ होगा। पहला तो ये कि अगले चुनाव तक उन्हें उपलब्धियों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर आंकड़ें प्रस्तुत करने वाली अफसरशाही और खुफिया तंत्र गुमराह नहीं कर पाऐगा। क्योंकि उनके पास समानान्तर स्रोत से सूचना पहले से ही उपलब्ध होगी। ऐसा करने से वे उस स्थिति से बच जाऐंगे, जो स्थिति हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों के परिणाम आने से पैदा हुई है। जहाँ भाजपा को तीन चैथाई स्पष्ट बहुमत मिलने का पूर्णं विश्वास था, लेकिन परिणाम ऐसे आऐ कि सरकार बनाना भी दूसरे के रहमों-करम पर निर्भर हो गया। ऐसी अप्रत्याशित स्थिति से निपटने का तरीका यही है कि अफसरशाही के अलावा जमीनी लोगों से भी हकीकत जानने की गंभीर कोशिश की जाए। ये पहल प्रधानमंत्री को ही करनी होगी।
ताजा उदाहरण मथुरा जिले का है। जहाँ 23 सितंबर 2019 को मथुरा में 1046 कुंडों (सरोवरों) को गहरा खोदने की घोषणा राष्ट्रीय स्तर पर की गई थी। पर जब हमने इस दावे की वैधता पर प्रश्न खड़े किये तो ये दावा करने वाले घबराकर भाग छूटे। अगर वास्तव में जलशक्ति अभियानके तहत 1046 कुंड खुदे होते तो दावा करने वालों को बगले नहीं झांकनी पड़ती। ये कहानी तो केवल एक मथुरा जिले की है और वो भी केवल एक जलशक्ति अभियानकी। अगर पूरे देश के हर जिले में प्रधानमंत्री की घोषित योजनाओं का जमीन पर मूल्यांकन किया जाए, तो पता नहीं कैसे परिणाम आऐंग? अच्छे परिणाम आते हैं, तो प्रधानमंत्री का हौसला बढ़ेगा और वो मजबूती से आगे कदम बढ़ाऐंगे। अगर परिणाम आशा के विपरीत या मथुरा में खोदे गए 1046 कुंडों के जैसे आते हैं, तो यह प्रधानमंत्री के लिए चिंता का विषय होगा। ऐसे में उन्हें अफसरशाही पर लगाम कसनी होगी। अभी उनके पास पूरे साढ़े चार वर्ष हैं। जो कमी रह गई होगी, वो इतने अरसे में पूरी की जा सकती है। साथ ही फर्जी आंकड़े देकर बयानबाजी करवाने वाली अफसरशाही के ऐसे लोग भी समय रहते बेनकाब हो जाऐंगे। तब प्रधानमंत्री को ढूँढने होंगे वे अफसर, जिनकी प्रतिष्ठा काम करके दिखाने की है, न कि भ्रष्टाचार या चाटुकारिता करने की ।

सोशल ऑडिटकरने का यह तरीका किसी भी लोकतंत्र के लिए बहुत ही फायदे का सौदा होता है। इसलिए जो प्रधानमंत्री ईमानदार होगा, पारदर्शिता में जिसका विश्वास होगा और जो वास्तव में अपने लोगों की भलाई और तरक्की देखना चाहेगा, वो सरकारी तंत्र के दायरे के बाहर इस तरह का सोशल ऑडिटकरवाना अपनी प्राथमिकता में रखेगा। चूंकि मोदी जी बार-बार जवाबदेहीपारदर्शितापर जोर देते हैं, इसलिए उन्हें यह सुझाव अवश्य ही पसंद आएगा। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले हफ्तों में हम जैसे हजारों देश के नागरिकों को प्रधानमंत्री के आदेश पर इस तरह का सोशल ऑडिटकरने के लिए आव्हान किया जाऐगा। इससे देश में नई चेतना और राष्ट्रवाद का संचार होगा और भ्रष्टाचार पर लगाम कसेगी।

Monday, May 28, 2018

मोदी जी की साफ नीयत: सही विकास

राजनेताओं द्वारा जनता को नारे देकर, लुभाने का काम लंबे समय से चल रहा है। ‘जय जवान-जय किसान’, ‘गरीबी हटाओ’, ‘लोकतंत्र बचाओ’, ‘पार्टी विद् अ डिफरेंस’ व पिछले चुनाव में भाजपा का नारा था, ‘मोदी लाओ-देश बचाओ’। जब से मोदी जी सत्ता में आऐ हैं, भारत को परिवर्तन की ओर ले जाने के लिए उन्होंने बहुत सारे नये नारे दिये, जिनमें से एक है, ‘साफ नीयत-सही विकास’। पिछले 15 वर्षों से ब्रज क्षेत्र में धरोहरों के जीर्णोंद्धार व संरक्षण का काम करने के दौरान जिला स्तरीय, प्रांतीय व केन्द्रीय सरकार से बहुत मिलना-जुलना रहा है। उसी संदर्भ में इस नारे को परखेंगे।

भगवान श्रीराधाकृष्ण की लीलाओं से जुड़े पौराणिक कुण्डों, वनों और धरोहरों के जीर्णोंद्धार का जैसा काम ‘ब्रज फाउंडेशन’ ने बिना सरकारी आर्थिक मदद के किया, वैसा काम देश के 80 फीसदी राज्यों के पर्यटन विभाग नहीं कर पाये। यह कहना है-भारत के नीति आयोग के सीईओ. अमिताभ कांत का। इसी तरह  प्रधानमंत्री मोदी से लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक और देश के सभी प्रमुख संतों ने व लाखों ब्रजवासियों ने ब्रज फाउंडेशन द्वारा सजाये गये गोवर्धन के रूद्र कुंड, ऋणमोचन कुंड व संकर्षण कुंड, जैंत का जय कुंड व अजयवन, वृंदावन के ब्रह्म कुंड, सेवाकुंज व रामताल, मथुरा का कोईले घाट और बरसाना का गहवन वन आदि लाखों तीर्थयात्रियों का मन लुभाते हैं। अवैध कब्जाधारियों से लड़ने, इनकी गंदगी साफ करने और इनको बनाने में करोड़ों रूपया खर्च हुआ। जो देश के प्रमुख उद्योगपतियों जैसे- श्री कमल मोरारका, श्री अजय पीरामल, श्री राहुल बजाज, श्री रामेश्वर राव और अनेकों कम्पनियों ने अपने ‘सीएसआर. फंड’ से दान दिया। परंपरानुसार सभी दानदाताओं के नामों के शिलालेख, इन स्थलों पर लगाये गये हैं। पिछले दिनों योगी सरकार के एक छोटे अधिकारी ने अपने तुगलकी फरमान जारी कर, इन सभी शिलालेखों पर पेंट कर दिया। ऐसा काम ब्रज में औरंगजेब के बाद पहली बार हुआ। प्रदेश में जब सरकारे बदलती हैं, तो पिछली सरकार की बनाई ईमारतों या शिलालेखों को हाथ नहीं लगाते। चाहे वे विरोधी दल के ही क्यों न हों। पूरी दुनिया में इस तरह के शिलालेख लगाने की परंपरा बहुत पुरानी है। जिससे आनी वाली पीढ़ियां इतिहास जान सकें।
इस दुष्कृत्य के पीछे उन स्वार्थीतत्वों का हाथ है, जो ब्रज फाउंडेशन की सफलता से ईष्र्या करते रहे हैं। ब्रज फाउंडेशन ने मोदी जी के ‘सही नीयत-सही विकास’ और ’स्वच्छ भारत’ के नारे को शब्दसह चरितार्थ किया है। इस संस्था को छह बार भारत की ‘सर्वश्रेष्ठ वाटर एनजीओ’ होने का अवार्ड भी मिल चुका है। इन सार्वजनिक स्थलों का जीर्णोंद्धार करने से पहले मौजूदा कानून की सभी प्रक्रियाओं को पारदर्शी रूप से पूरा किया गया। जिला प्रशासन से लेकर प्रांत और केंद्र सरकार तक का प्रशासनिक सहयोग, इन परियोजनाओं को पूरा करने में बार-बार लिया गया। फिर भी ‘एनजीटी’ के एक सदस्य ने प्रमाणों को अनदेखा करते हुए संस्था को इन स्थलों के रख-रखाव से अलग कर दिया। ये आदेश भी दिया कि ‘ भविष्य में सारे कुंड सरकार बनाये’।  ब्रजवासियों का कहना है कि, ‘जो शासन गत 70 वर्ष में एक भी धरोहर का जीर्णोंद्धार व संरक्षण ब्रज फाउंडेशन द्वारा बनाई गई स्थलियों के सामने 10 गुनी लागत लगाकर 10 फीसदी भी नहीं कर पाया। वो जिला प्रशासन ब्रज के 800 सौ से भी ज्यादा वीरान और सूखे पड़े कुंडों को आज तक क्यों नहीं बना पाया?
उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग के अनुदान पर अब तक कम से कम 200 करोड़ रूपया पिछले 70 सालों में ब्रज में लग चुका होगा। बावजूद इसके उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग एक भी धरोहर को दिखाने लायक नहीं बना पाया। तो भविष्य में क्या कर पायेगा, उसका अनुमान लगाया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के ‘हिंचलाल तिवारी केस’ मामले में सब जिलाधिकारियों को अपने जिले के सभी कुंडों पर से कब्जे हटवाकर, उनका जीर्णोंद्धार करना था। पर आज तक इस आदेश का अनुपालन नहीं हुआ। यह सीधा सीधा अदालत की अवमानना का मामला है।
इससे भी गंभीर प्रश्न ये है कि एक तरफ तो भारत सरकार उद्योगपतियों से अपने सीएसआर फंड को समाज के कामों में लगाने के लिए आह्वान करती है और दूसरी तरफ उसी भाजपा के मुख्यमंत्री की जानकारी में ऐसा काम करने  वालों के नामों निशान तक मिटा दिये जाते हैं। ऐसे में कोई क्यों सेवा करने सामने आऐगा? नीयत साफ वाले और ठोस काम करने वाले लोगों को अपमानित किया जाऐ और खोखले और नाकारा सलाहकारों को लाखों रूपये फीस देकर, उनसे वाहियात् परियोजनाऐं बनवाई जाऐ और उन पर बिना सोचे समझे, पानी की तरह पैसा बहा दिया जाऐ। तो कैसे होगा सही विकास?
इस संदर्भ में एक और अनुभव बड़ा रोचक हुआ। उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग ने ब्रज के 9 कुंडों के जीर्णोंद्धार के लिए 77 करोड़ रूपये का ठेका लखनऊ के ठेकेदारों को दे दिया। जबकि हमने बढ़िया से बढ़िया कुंड बनाने में ढाई, तीन करोड़ रूपये से ज्यादा खर्च नहीं किया। हमारे विरोध पर ठेका निरस्त करना पड़ा और हमसे कार्य योजना मांगी। अब यही 9 कुंड मात्र 27 करोड़ रूपये में बनेंगे। जाहिर है कि योगी सरकार के मंत्रीं और अधिकारी इस एक परियोजना में 50 करोड़ रूपये हजम करने की तैयारी करे बैठे थे, जो हमारे हस्तक्षेप से बौखला गये और साजिश करके उन्होंने पिछले हफ्ते इन सारी धरोहरों पर कब्जा कर लिया। जबकि ब्रज फाउंडेशन वहां निःस्वार्थ भाव से बाग-बगीचे, मंदिर आदि की इतनी सुंदर सेवा कर रही थी कि हर आदमी उसे देखकर गद्गद् था। पिछले चार साल में केंद्र सरकार और पिछले सवा साल में योगी सरकार तमाम शोर-शराबे के बावजूद एक भी परियोजना नहीं बना पाई। इसका कारण है, भ्रष्ट नौकरशाही, राजनैतिक दलालों का हस्तक्षेप और नाकरा सलाहकारों से परियोजनाऐं बनवाना।
हमने कई बार प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव केंद्र सरकार के मंत्रियों व सचिवों और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी और आला अफसरों के साथ बैठकें कर-करके प्रशासनिक व्यवस्था की खामियों को दूर करने के अनेक ठोस और व्यवहारिक सुझाव दिये। जिससे काम बेहतर और कलात्मक हो और लागत आधी से भी कम आए। पर कोई सुनने या बदलने को तैयार नहीं है। दावें और बातें बहुत बड़ी-बड़ी हो रही है, पर जिलास्तर पर हलातों में कोई बदलाव नहीं। बाकी प्रदेश को छोड़ो, भगवान श्रीकृष्ण, राम और शिव की भूमि में भी वही हाल है। दीवाली और होली मनाने से राजनैतिक प्रचाार तो मिल सकता है, पर जमीन पर ठोस काम नहीं होता है। ठोस काम होता है, ‘सही नीयत-सही विकास’ के नारे को अमल में लाने से। जो अभी तक कहीं दिखाई नहीं दे रहा है।

Monday, July 17, 2017

कहीं महंगाई का बहाना न बन जाए जीएसटी

जीएसटी ने रंग दिखाना शुरू कर दिया है। इसके लिए छोटे उद्योग और छोटे व्यापार करने वालों का बड़ा तबका रजिस्टेशन और काम धंधे का हिसाब किताब रखने और हर महीने सरकार को जानकारी देने के लिए कागज पत्तर तैयार करने में लग गया है। इसका तो खैर पहले से अंदाजा था। लेकिन दसियों टैक्स खत्म करके एक टैक्स करने का जो एक फायदा गिनाया गया था कि वस्तु और सेवा पर कुल टैक्स कम हो जाएगा और चीजें सस्ती हो जाएंगी, वह होता नज़र नहीं आया। बल्कि अपनी प्रवृति के अनुसान बाजार ने जीएसटी के बहाने अपनी तरफ से ही ज्यादा बसूली और शुरू कर दी। कानूनी और वैध तरीके अपनी जगह हैं लेकिन देश का ज्यादातर खुदरा व्यापार अभी भी असंगठित क्षेत्र में ही माना जाता है। सो जीएसटी के लक्ष्य हासिल होने में अभी से किंतु परंतु लगने लगे हैं। जीएसटी की आड़ लेकर आम जनता से ज्यादा दाम की अधोषित वसूली पहले दिन से ही शुरू हो गईं। 

जीएसटी लाए जाने का कारण और उसके असर का अंदाजा लगाया जाना जरूरी हो गया है। खासतौर पर इसलिए और जरूरी है क्योंकि नोटबंदी के विस्फोटक फैसले को हम पहले ही सदी का सबसे बड़ा कदम साबित करने में लगे थे। उसका असर का हिसाब अभी लग नहीं पाया। इसीबीच सदी का सबसे बड़ा टैक्स सुधार का धमाका और हो गया। स्वाभाविक रूप् से ऐसे फेसलों का चैतरफा और जबर्दस्त असर होने के कारण इसे चर्चा के बाहर करना मुश्किल होगा। नाकामी की सूरत में तो हायतौबा मचेगी ही लेकिन कामयाबी के बावजूद इसका प्रचार करने में बड़ी दिक्कत आएगी । इसका कारण यह कि जनता सबसे पहले यह देखती है कि उसे सीधे सीधे क्या मिला। जबकि नोटबंदी और जीएसटी में एक समानता यह थी कि इसमें आम जनता के लिए सीधे साीधे पाने का आश्वासन नहीं था। बल्कि अप्रत्यक्ष हासिल यह था कि बड़े लोगों की मौज कम हो जाएगी।

नोटबंदी से बड़े लोगों की मौज कितनी कम हुई इसका अभी  पता नहीं है। भ्रष्टाचार पर क्या असर पड़ा इसका ठीक ठीक आकलन होने में लंबा वक्त लगेगा। सो नोट बंदी के नफे नुकसान का हिसाब अभी नहीं लग सकता। लेकिन जीएसटी ऐसा फेसला था जिसका असर तत्काल होना लाजिमी था। और वह हुआ।
ज्यादा से ज्यादा मुनाफे की चाह में रहने वाले बाजार की प्रवृत्ति ही होती है कि उसे दात बढा़ने के बहाने की तलाश होती है। कभी टकों की हड़ताल कभी पेटोल पंपों की तो कमी खराब  मौसम का बहाना यानी आवश्यक सामान की सप्लाई कम होने के बहाने से दाम हमेशा बढ़ाए जाते हैं। लेकिन दसियों साल बाद जीएसटी से क्रांतिकारी सुधार ने तो बाजार को जैसे सबसे बड़ा बहाना दे दिया। ठंडक में बैठकर साफसुथरे ढंग से खाने वालों को जब बिल में यह देखने को मिलता है कि 18 फीसद यानी दो सौ रूप्ए की थाली लेने में 36 रूप्ए सरकारी खजाने में चले गए तो एक बार वह खुद को यह दिलासा दे लेता है कि चलो साफसुथरी जगह खाना खाना देश के हित में काम आएगा। लेकिन जब वह ये देखता है कि इस बीच सामान के दाम भी बढ़ गए तो उसे समझ में नहीं आता कि सारे टेक्स खुद ही देने के बाद उसे अतिरिक्त पैसे किस बात के देने पड़ रहे हैं।

बड़े गौर करने की बात है कि रोजमर्रा के बहुत से सामान ऐसे हैं कि अगर औसत तबके के खरीददार को महंगे लगते हैं तो वह उसे नहीं भी खरीदता है या कम मात्रा में खरीदकर कर काम चला लेता है। लेकिन पैकेटबंद खाने की चीजें या उम्दा क्लालिटी की चीजें हमेंशा ही बेमौके भी महंगी होती जाती हैं। और उनकी बिक्री पर भी असर नहीं पड़ता। इनका इस्तेमाल करने वाला तबका इतना संपन्न है कि वह कम से कम खाने पीने में किफायत की बात बिल्कुल ही नहीं सोचता। लेकिन वहां बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई है जहां तंवाकू, सिगरेट और हल्के नशे की दूसरी चीजों के दाम बढ़ने ने दसियों साल के रिकार्ड तोड़ दिए। जिन्हें लत पड़ चुकी है उनके लिए अव ये चीजें आवश्यक वस्तु की ही श्रेणी में हैं। खुदरा दुकानदार का तर्क होता है कि पैकेट या डिब्बे पर नए रेट आने वाले हैं तब तक थोक में अलग से पैसे देने पड़ रहे हैं। चलिए हफते दो हफते या ज्यादा से ज्यादा महीने दो महीने इस बहाने से ज्यादा दाम वसूली चल भी सकती है। लेकिन देखा यह गया है कि एक बार किसी भी बहाने से महंगाई बढ़ने के बाद उसे नीचे उतारने का कोई तरीका काम नहीं आता। सप्लाई का बहाना बनाकर अरहर की दाल जब चालीस से बढ़कर साठ हुई थी तो सरकार की हरचंद कोशिश के बाद वह नीचे तो आई ही नहीं बल्कि दो सौ रूप्ए तक की महंगाई छू आई।

यहां जीएसटी और महंगाई की बात एक साथ करने की तर्क यह है कि सरकारी एलानों और सरकारी इरादों में जनता से ज्यादा टैक्स की उगाही का मकसद भले न हो लेकिन बाजार में जीएसटी के बहाने अगर ज्यादा मुनाफा वसूली शुरू हो गई तो गली गली में महंगाई की चर्चा शुरू होने में देर नहीं लगेगी। 

Monday, July 10, 2017

योगी आदित्यनाथ जी हकीकत देखिए !

ऑडियो विज्युअल मीडिया ऐसा खिलाड़ी है कि डिटर्जेंट जैसे प्रकृति के दुश्मन जहर को ‘दूध सी सफेदी’ का लालच दिखाकर और शीतल पेय ‘कोला’ जैसे जहर को अमृत बताकर घर-घर बेचता है, पर इनसे सेहत पर पड़ने वाले नुकसान की बात तक नही करता । यही हाल सत्तानशीं होने वाले पीएम या सीएम का भी होता है । उनके इर्द-गिर्द का कॉकस हमेशा ही उन्हें इस तरह जकड़ लेता है कि उन्हें जमीनी हकीकत तब तक पता नहीं चलती, जब तक वो गद्दी से उतर नहीं जाते ।


टीवी चैनलों पर साक्षात्कार, रोज नयी-नयी योजनाओं के उद्घाटन समारोह, भारतीय सनातन पंरपरा के विरूद्ध महंगे-महंगे फूलों के बुके, जो क्षण भर में फेंक दिये जाते हैं, फोटोग्राफरों की फ्लैश लाईट्स की चमक-धमक में योगी आदित्यानाथ जैसा संत और निष्काम राजनेता भी शायद दिग्भ्रमित हो जाता है और इन फ़िज़ूल के कामों में उनका समय बर्बाद हो जाता है । फिर उन्हें अपने आस-पास, लखनऊ के चारबाग स्टेशन के चारों तरफ फैला नारकीय साम्राज्य तक दिखाई नहीं देता, तो फिर प्रदेश में दूर तक नजर कैसे जाएगी? जबकि प्रधानमंत्री के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का शोर हर तरफ इतना बढ़-चढ़कर मचाया जा रहा है ।

35 वर्ष केंद्रीय सत्ता की राजनीति को इतने निकट से देखा है और देश की राजनीति में अपनी निडर पत्रकारिता से ऐतिहासिक उपस्थिति भी कई बार दर्ज करवाई है । इसलिए यह सब असमान्य नहीं लगता । पर चिंता ये देखकर होती है कि देश में मोदी जैसे सशक्त नेता और उ.प्र. में योगी जैसे संत नेता को भी किस तरह जमीनी हकीकत से रूबरू नहीं होने दिया जाता ।

हाँ अगर कोई ईमानदार नेता सच्चाई जानना चाहे तो इस मकड़जाल को तोड़ने का एक ही तरीका हैं, जिसे पूरे भारत के सम्राट रहे देवानामप्रियदस्सी मगध सम्राट अशोक मौर्य ने अपने आचरण से स्थापित किया था । सही लोगों को ढू़ंढ-ढू़ंढकर उनसे अकेले सीधा संवाद करना और मदारी के भेष में कभी-कभी घूमकर आम जनता की राय जानना ।

देश के विभिन्न राज्यों में छपने वाले मेरे इस कॉलम के पाठकों को याद होगा कि कुछ हफ्ते पहले, मैंने प्रधानमंत्री जी से गोवर्धन पर्वत को बचाने की अपील की थी । मामला यह था कि एक ऐसा हाई-फाई सलाहकार, जिसके खिलाफ सीबीबाई और ई.डी. के सैकड़ों करोड़ों रूपये के घोटाले के अनेक आपराधिक मामले चल रहे हैं, वह बड़ी शान शौकत से ‘रैड कारपेट’ स्वागत के साथ, योगी महाराज और उनकी केबिनेट को गोवर्धन के विकास के साढ़े चार हजार करोड़ रूपये के सपने दिखाकर, टोपी पहना रहा था । मुझसे यह देखा नहीं गया, तो मैंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा, लेख लिखे और उ.प्र. के मीडिया में शोर मचाया । प्रधान मंत्री और मुख्य मंत्री ने लगता है उसे गम्भीरता से लिया । नतीजतन उसे लखनऊ से अपनी दुकान समेटनी पड़ी । वरना क्या पता गोवर्धन महाराज की तलहटी की क्या दुर्दशा होती ।

इसी तरह पिछले कई वर्षों से विश्व बैंक बड़ी-बड़ी घोषाणाऐं ब्रज के लिए कर रहा था । हाई-फाई सलाहकारों से उसके लिए परियोजनाऐं बनवाई गईं, जो झूठे आंकड़ों और अनावश्यक खर्चों से भरी हुई थी । भला हो उ.प्र. पर्यटन मंत्री रीता बहुगुणा और प्रमुख सचिव पर्यटन अवनीश अवस्थी का, कि उन्होंने हमारी शिकायत को गंभीरता से लिया और फौरन इन परियोजनाओं का ठेका रोककर  हमसे उनकी गलती सुधारने को कहा । इस तरह 70 करोड़ की योजनाओं को घटाकर हम 35 करोड़ पर ले आये । इससे निहित स्वार्थों में खलबली मच गई और हमारे मेधावी युवा साथी को अपमानित व  हतोत्साहित करने का प्रयास किया गया । संत और भगवतकृपा से वह षड्यंत्र असफल रहा, पर उसकी गर्माहट अभी भी अनुभव की जा रही है।

हमने तो देश में कई बड़े-बड़े युद्ध लड़े है । एक युद्ध में तो देश का सारा मीडिया, विधायिका, कानूनविद् सबके सब सांस रोके, एक तरफ खड़े होकर तमाशा देख रहे थे, जब सं 2000 में मैंने अकेले भारत के मुख्य न्यायाधीश के 6 जमीन घोटाले उजागर किये । मुझे हर तरह से प्रताड़ित करने की कोशिश की गई। पर कृष्णकृपा मैं से टूटा नहीं और यूरोप और अमेरिका जाकर उनके टीवी चैनलों पर शोर मचा दिया । इस लड़ाई में भी नैतिक विजय मिली ।

मेरा मानना है कि, यदि आपको अपने धन, मान-सम्मान और जीवन को खोने की चिंता न हो और आपका आधार नैतिक हो तो आप सबसे ताकतवर आदमी से भी युद्ध लड़ सकते हैं। पर पिछले 15 वर्षों में मै कुरूक्षेत्र का भाव छोड़कर श्रीराधा-कृष्ण के प्रेम के माधुर्य भाव में जी रहा हूं और इसी भाव में डूबा रहना चाहता हूँ। ब्रज विकास के नाम पर अखबारों में बड़े-बड़े बयान वर्षों से छपते आ रहे हैं। पर धरातल पर क्या बदलाव आता है, इसकी जानकारी हर ब्रजवासी और ब्रज आने वालों को है। फिर भी हम मौन रहते हैं।

लेकिन जब भगवान की लीलास्थलियों को सजाने के नाम पर उनके विनाश की कार्ययोजनाऐं बनाई जाती हैं, तो हमसे चुप नहीं रहा जाता । हमें बोलना पड़ता है । पिछली सरकार में जब पर्यटन विभाग ने मथुरा के 30 कुण्ड बर्बाद कर दिए तब भी हमने शोर मचाया था । जो कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगता । पर ऐसी सरकारों के रहते, जिनका ऐजेंडा ही सनातन धर्म की सेवा करना है, अगर लीलास्थलियों पर खतरा आऐ, तो चिंता होना स्वभाविक है ।
आश्चर्य तो तब होता है, जब तखत पर सोने वाले विरक्त योगी आदित्यनाथ जैसे मुख्यमंत्री को घोटालेबाजों की प्रस्तुति तो ‘रैड कारपेट’ स्वागत करवा कर दिखा दी जाती हो, पर जमीन पर निष्काम ठोस कार्य करने वालों की सही और सार्थक बात सुनने से भी उन्हें बचाया जा रहा हो । तो स्वभाविक प्रश्न उठता है कि इसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाए, उन्हें जो ऐसी दुर्मति सलाह देते हैं या उन्हें, जो अपने मकड़जाल तोड़कर मगध के सम्राट अशोक की तरह सच्चाई जानने की उत्कंठा नहीं दिखाते?

Monday, July 3, 2017

नौकरशाही की बदलती भूमिका

पिछले दिनों उ.प्र. में एक अजीब वाकया हुआ। एक युवा महिला आईएएस अधिकारी ने, जो कि मुख्य विकास अधिकारी के पद पर तैनात है, एक संस्कारवान युवा को अकारण 4 घंटे के लिए अवैध रूप से अपमानित करके थाने में बिठवाया और जब थाने ने बाइज्जत उस युवा को जाने दिया, तो इस महिला अधिकारी ने एक झूठी एफआईआर लिखवाकर मीडिया में बयान दिये कि इस युवा ने उसको धमकाया, उस पर चीखा चिल्लाया, उसे आक्रामक अंगुली दिखाई और सरकारी काम में बाधा पैदा की।

अगले दिन जब अखबारों से उस युवा को यह पता चला कि उसके खिलाफ एक प्राथमिकी दर्ज हो गयी है। तो उसने सिलसिलेवार पूरे घटनाक्रम का ब्यौरा लिखकर उसी जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को ईमेल से अपनी काउंटर एफआईआर भेजी। जिसका एक मुख्य बिंदु यह भी था कि उस अधिकारी के कमरे में उस सुबह के 11 बजे उस वक्त सामान्य वीडियो रिकॉडिंग चल रही थी। युवक ने मांग की पुलिस इस विडियो रिकॉर्डिंग को अपने कब्जे में ले ले, तो दूध का दूध और पानी का पानी समाने आ जायेगा। इस पर वह महिला अधिकारी समझौते की मुद्रा में आ गयी और जिलाधिकारी की पहल पर दोनों पक्षों के बीच सौहार्दपूर्ण समझौता हो गया। हालांकि इस प्रक्रिया में उस युवक और उसकी प्रतिष्ठित संस्था को मीडिया में बदनाम करने का असफल प्रयास किया गया, जो तथ्यों के अभाव में टिक नहीं पाया।

उल्लेखनीय है कि वह युवा आईआईटी से बीटैक, एम टैक कम्प्यूटर सांइस से करके, सामाजसेवा के कार्यों में लगा है। उसकी पत्नी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (दिल्ली) से पढ़कर डॉक्टर हैं। उस युवा के श्वसुर 1978 बैच के आईएएस अधिकारी रहे हैं। जिस संस्था के लिए वह युवा कार्य करता है, वह एक अति प्रतिष्ठित संस्था है। जिसकी उपलब्धियों की प्रशंसा स्वयं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री करते हैं। जो भारत सरकार और उ.प्र. सरकार की सलाहकार है। जिसने अपने क्षेत्र में बिना सरकारी व विदेशी आर्थिक मदद के विकास के बड़े-बड़े काम किये हैं।

मुझे जब इस घटना की जानकारी मिली, तो मैंने दोनों पक्षों के बयानों को, अपने हजारों अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्कों को भेज दिया, यह मूल्यांकन करने के लिए कि वे तय करें कि कौन सही है और कौन गलत। चूंकि उस महिला अधिकारी के आरोपों का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है और पुलिस के बार-बार मांगने पर वह अपने कमरे की वीडियो रिकॉर्डिंग देने को तैयार नहीं है। इसी से सिद्ध हो जाता है कि उसने द्वेष की भावना से यह अपराध किया। वैसे भी उसके आचरण की प्रसिद्धि यही है कि वह महिला अपने 5 साल की नौकरी में हर पोस्टिंग पर इसी तरह के नाहक विवाद खड़ी करती रही है और बार-बार उसके तबादले होते रहे हैं।

यहां रोचक बिंदु यह है कि जहां देशभर के 300 से ज्यादा आईएएस अधिकारियों ने इस महिला के अहमकपन की भत्र्सना की, वहीं उ.प्र. के आईएएस अधिकारियों में से कुछ ने अपने व्हाट्एप्प ग्रुप में यह बात उठाई कि इस तरह तो कोई भी युवक हमें धमका कर चला जायेगा। इसलिए हमें एकजुट होकर अपनी साथी महिला का साथ देना चाहिए। पर उस महिला के दुव्र्यवहार की ख्याति पूरे प्रदेश में फैल चुकी है, इसलिए इस प्रस्ताव पर उ.प्र. के आईएएस अधिकारी सहमत नहीं हुए और मामला ठंडा पड़ गया।

चिंता का विषय यह है कि क्या कोई भी आईएएस अधिकारी ऐसे झूठे आरोप लगाकर, ऐसी पृष्ठभूमि के मेधावी युवक को 4 घंटे तक अवैध रूप से थाने में बिठा सकता है? क्या वे बिना सबूत के किसी भी नागरिक पर सरकारी काम में बाधा पहुंचाने का झूठा आरोप लगा सकते हैं? क्या वे खुद ही शुरू करवाई गई, पुलिस की जांच में सहयोग न करके वीडियो रिकाॅर्डिग जैसे प्रमाण दबा सकते हैं ? क्या ऐसा दुराचरण करने वाली महिला आईएएस अधिकारी के आचरण की बिना जांच किये, उसके साथी, उसकी रक्षा में खड़े होकर नैतिकता का परिचय दे रहे थे? अगर इन प्रश्नों के उत्तर ‘नहीं’ में हैं, तो ऐसे अधिकारी के खिलाफ क्या प्रशासनिक कदम उठाये जा सकते है, जो वह ऐसा अपराध दोबारा न करे?

मुख्य विकास अधिकारी का काम कानून व्यवस्था बनाना नहीं, बल्कि क्षेत्र का विकास करना होता है। मुख्य विकास अधिकारियों के कार्यालयों में प्रायः हर प्रोजेक्ट में, हर स्तर पर जो कमीशन खाया जाता है, उसकी जानकारी प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर जिले के छुटभैये ठेकेदार तक को होती है। उसके बाद भी ऐसी सीनाजोरी?

विकास का कार्य कोई सरकार अकेले नहीं कर सकती। इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं और निजी क्षेत्र की भागीदारी जरूरी होती है। पर इस रवैये से तो विकास नहीं किया जा सकता। आज जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार सवा सौ से ज्यादा उच्च अधिकारियों को कामचोरी के आरोप में जबरन सेवानिवृत्त कर चुकी है और बाकी का मूल्यांकन जारी है, तो क्या ये जरूरी नहीं होगा कि भारत सरकार का कार्मिकी विभाग इस हादसे की पूरी निष्पक्षता से जांच या अध्ययन करवाये और इसे आईएएस की ट्रेनिंग में एक केस स्टडी की तरह पढ़ाया जाए? नागरिकों के अधिकारों का हनन कर, समाज की निष्काम सेवा करने वालों को अपमानित कर और दलालो व रिवश्वत देने वालों को महत्व देकर कोई भी सरकार विकास नहीं करवा सकती। योगी जी को इस मामले को गंभीरता से लेना चाहिए, जिससे उनकी प्रजा के साथ ऐसी बदसलूकी करने की कोई हिम्मत न करे। आईएएस अधिकारियों को भी आत्म विश्लेषण करना चाहिए की ऐसी परिस्थिति में वे सच का साथ देंगे या झूठ का?

Monday, May 22, 2017

अब ग्रामोद्योग के जरिए पांच करोड़ रोजगार की बात

बेरोज़गारी भारत की सबसे बड़ी समस्या है। करोड़ों नौजवान रोज़गार की तलाश में भटक रहे हैं। हर सरकार इसका हल ढूंढने के दावा करती आई है पर कर नहीं पाई। कारण स्पष्ट है: जिस तरह सबका ज़ोर भारी उद्योगों पर रहा है और जिस तरह लगातार छोटे व्यापारियों और कारखानेदारों की उपेक्षा होती आई है| उससे बेरोज़गारी बढ़ी है। आज तक सब जमीनी सोच रखने वाले और अब  बाबा रामदेव भी ये सही कहते हैं कि अगर रोज़मर्रा के उपभोग के वस्तुओं को केवल कुटीर उद्योंगों के लिए ही सीमित कर दिया जाय तो बेरीज़गारी तेज़ी से हल हो सकती है। पर उस मॉडल से नहीं जिस पर आगे बढ़कर चीन भी पछता रहा है। अंधाधुंध शहरीकरण ने पर्यावरण का नाश कर दिया। जल संकट बढ़ गया और आर्थिक प्रगति ठहर गई।

इसलिए शायद अब  खादी उद्योग में पांच साल में पांच करोड़ लोगों को रोजगार दिलाने की योजना बनी है। इस सूचना की विश्वसनीयता पर सोचने की ज्यादा जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि यह जानकारी खुद केंद्र सरकार के राज्यमंत्री गिरिराज सिंह ने मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान दी है।

पांच साल में पांच करोड़ लोगों को रोजगार की बात सुनकर कोई भी हैरत जता सकता है। खासतौर पर तब जब मौजूदा सरकार से इसी मुददे पर जवाब मांगने की जोरदार तैयारी चल रही है। सरकार के आर्थिक विकास के दावे को झुठलाने के लिए भी रोजगार विहीन विकास का आरोप लगाया जा रहा है।

यह बात सही है कि मौजूदा सरकार ने सत्ता में आने के पहले अपने चुनाव प्रचार के दौरान हर साल दो करोड़ रोजगार पैदा करने का आश्वासन दिया था। सरकार के अब तक तीन साल गुजरने के बाद इस मोर्चे को और टाला भी नहीं जा सकता था। सो हो सकता है कि अब तक जो सोचविचार किया जा रहा हो उसे लागू करने की स्थिति वाकई बन गई हो। लेकिन सवाल यह है कि पांच साल में पांच करोड रोजगार की बात सुनकर ज्यादा हलचल क्यों नहीं हुई। इससे एक प्रकार की अविश्वसनीयता तो जाहिर नहीं हो रही है।

पांच करोड लोगों को रोजगार दिलाने की सूचना देने का काम जिस कार्यक्रम में हुआ वह रेमंड की खादी के नाम से आयोजित था। यानी इस कार्यक्रम में निजी और सरकारी भागीदारी के माडल की बात दिमाग में आना स्वाभाविक ही था। सो राज्यमंत्री ने यह बात भी बताई कि खादी ग्रामोद्योग ने रेमंड और अरविंद जैसी कपड़ा बनाने वाली कंपनियों से भागीदारी की है। जाहिर है कि निजीक्षेत्र के संसाधनों से खादी उद्योग को बढ़ावा देने की योजना सोची गई होगी। लेकिन यहां फिर यह सवाल पैदा होता है कि क्या निजी क्षेत्र किसी सामाजिक स्वभाव वाले लक्ष्य में इतना बढ़चढ़ कर भागीदारी कर सकता है। वाकई पांच करोड़ लोगों के लिए रोजगार पैदा करने की भारी भरकम योजना के लिए उतने ही भारी भरकम संसाधनों की जरूरत पड़ेगी। फिर भी अगर बात हुई है तो इसका कोई व्यावहारिक या संभावना का पहलू देखा जरूर गया होगा।

राज्यमंत्री ने इसी कार्यक्रम के बाद पत्रकारों से बातचीत में इसका भी जिक्र किया कि देश में खादी उत्पादों की बिक्री के सात हजार से ज्यादा शोरूम हैं। इन शो रूम में बिक्री बढ़ाई जा सकती है। इसी सिलसिले में उन्होंने यह भी बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खादी कपड़ों की गुणवत्ता बढाने के लिए जीरो डिफैक्ट जीरो अफैक्ट योजना शुरू की है। इसके पीछे खादी को विश्व स्तरीय गुणवत्ता का बनाने का इरादा है। जाहिर है कि विश्वस्तरीय बनाने के लिए आधुनिक प्रौद्योगिकी की इस्तेमाल की बातें भी शुरू हो जाएंगी। और फिर हाथ से और देसी तकनीक के उपकरणों से बने उत्पादों को मंहगा होने से कौन रोक पाएगा। हां फैशन की बात अलग है। जिस तरह से खादी कपड़ों और दूसरे उत्पादों को बनाने में फैशन डिजायनरों को शामिल कराने की योजना है उससे खादी उत्पादों को आकर्षक बनाकर बेचना जरूर आसान बनाया जा सकता है। लेकिन पता नहीं डिजायनर खादी के दाम के बारे में सोचा गया है या नहीं।

खैर अभी पांच करोड़ रोजगार की बात कहते हुए खादी उत्पादों को विश्वस्तरीय बनाने की बात हुई। यानी उत्पाद की मात्रा की बजाए गुणवत्ता का तर्क दिया गया है। लेकिन आगे हमें बेरोजगारी मिटाने की मुहिम में बने खादी उत्पादों को खपाने यानी उसके लिए बाजार विकसित करने पर लगना पड़ेगा। यहां गौर करने की बात यह है कि इस समय भारतीय बाजार में सबसे ज्यादा जो माल अटा पड़ा है वह कपड़े ही हैं। उधर विश्व में आर्थिक मंदी के इस दौर में विदेशी कपड़ों और दूसरे माल ने देशी उद्योग और व्यापार को पहले से बेचैन कर रखा है। यानी आज के करोड़ों बेरोजगार अगर कल कोई माल बनाएंगे भी तो उसे निर्यात करने के अलावा हमारे पास कोई चारा होगा नहीं। लेकिन रोना यह है कि इस समय सबसे बड़ी समस्या यही है कि दुनिया में अपने सामान को दूसरे देशों में बेचने के लिए हद दर्जे की होड़ मची है। क्या सबसे पहले इस मोर्चे पर निश्चिंत होने की कोशिश नहीं होनी चाहिए।

Monday, January 30, 2017

प्रधान मंत्री जी कुछ सोचिए

आपकी दबंगाई और भारत को सशक्त राष्ट्र बनाने का जुनून ही था जिसने सारे हिंदुस्तान को 2014 में आपके पीछे खड़ा कर दिया। इन तीन वर्षों में अपने कामों और विचारों से आपने यह संदेश दिया है कि आप लीक से हटकर सोचते हैं और इतिहास रचना चाहते हैं। आशा है कि आप लोगों की अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे। पर कुछ बुनियादी बात है जिन पर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। जब तक योजना बनाने और उसे लागू करने के तरीके में बदलाव नहीं आयेगा, आपके सपने जमीन पर नहीं उतर पाऐंगे। आज भी केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों तक कन्सल्टेंसी के नाम पर तमाम नामी कंपनियां देश को चूना लगा रही है। इन्हें इनका नाम देखकर मोटी फीस दी जाती है। जबकि ये बुनियादी सर्वेक्षण भी नहीं करती, फर्जी आकड़ों से डीपीआर बनाकर उसे पारित करवा लेती हैं। जिससे धन और संसाधन दोनों की बर्बादी होती है। वांछित लाभ भी नहीं मिल पाता। हमारे जैसे बहुत से लोग जो धरोहरों के संरक्षण का वर्षों से ठोस और बुनियादी काम कर रहे हैं, उन्हें उनकी बैलेंसशीट भारी भरकम न होने के कारण मौका नहीं दिया जाता। इस दुष्चक्र को तोड़े बिना सार्थक, बुनियादी, किफायती और जनउपयोगी प्रोजेक्ट नहीं बन पाते। जो विकास के नाम पर खड़ा किया जाता है वो लिफाफों से ज्यादा कुछ नहीं होता। आप चाहें तो आपको इसके प्रमाण भेजे जा सकते हैं।

    दूसरी समस्या इस बात की है कि इन योजनाओं के क्रियान्वयन में उन ठेकेदारों को पुरातात्विक संरक्षण के ठेके दिये जाते हैं जिन्हें केवल नाली, खड़जे बनाने का ही अनुभव होता है। भला उनका कलात्मक धरोहरों से क्या नाता? इसमें एक बुनियादी परिवर्तन तब आया जब आपकी प्रेरणा से शहरी विकास मंत्रालय ने, आपकी प्रिय ‘हृदय योजना’ के लिए मुझे राष्ट्रीय सलाहाकार चुना और मैंने वेंकैया नायडू जी से कहकर एक नीतिगत सुधार करवाया कि ‘हृदय योजना’ के तहत ठेके देने और बिल पास करने का काम जिला प्रशासन बिना ‘सिटी एंकर’ की लिखित अनुमति के नहीं करेगा। ‘सिटी एंकर’ का चुनाव मंत्रालय ने योग्यता और अनुभव के आधार पर राष्ट्रव्यापी, पारदर्शी प्रक्रिया से किया था। इस एक सुधार के अच्छे परिणाम सामने आ रहे हैं।

    तीसरी समस्या सांसद निधि को लेकर है। विभिन्न राजनैतिक दलों के हमारे कितने ही साथी और मित्र सांसद हैं और हमारे अनुरोध पर विभिन्न विकास योजनाओं के लिए अपनी सांसद निधि से, बिना कोई कमीशन लिए, सहर्ष आवंटन कर देते हैं। पर जिलों के स्तर पर इस पैसे में से मोटा कमीशन वसूल लिया जाता है। न सांसद कमीशन खा रहे हैं और न प्रेरणा देने वाली संस्था ही भ्रष्ट है, फिर क्यों राज्य सरकारों केे वेतनभोगी अधिकारी सांसद निधि में से मोटा कमीशन वसूलने को तैयार बैठे रहते हैं? जिस तरह आप  निर्धनों के बैंक खातों में सब्सिडी की रकम सीधे डलवाने की जोरदार योजना लाने की तैयारी में हैं, उसी तरह आपके सांख्यिकी मंत्रालय को चाहिए कि वो शहरी विकास मंत्रालय की तरह ही राष्ट्रव्यापी व पारदर्शी व्यवस्था के तहत कार्यदायी संस्थाओं का चयन उनकी योग्यता और अनुभव के आधार पर कर लें। फिर वे चाहें धमार्थ संस्थाऐं ही क्यों न हों। इस चयन के बाद सांसद निधि से धन सीधा इनके खातों में डलवा दिया जायें जिससे प्रशासन का बिचैलियापन समाप्त हो जायेगा।

    चैथी समस्या है कि कला, संस्कृति, पर्यावरण जैसे अनेक मंत्रालयों से जुड़ी अनेक संस्थाऐं और समीतियों में सदस्यों के नामित किये जाने की है। जिनमें समाज के अनुभवी और योग्य लोगों को नामित किया जाना चाहिए। आपके आलोचक काफी हल्ला मचा रहे हैं कि आपने अनेक राष्ट्रीय स्तर की अनेक संस्थाओं में अपने दल से जुड़े अयोग्य लोगों को महत्वपूर्णं पदों पर बैठा दिया है। मैं इन लोगों की आलोचना से सहमत नहीं हूँ। क्योंकि मैंने गत 35 वर्ष के पत्रकारिता जीवन में यही देखा कि जिसकी सरकार होती है, उसके ही लोग ऐसी जगहों में बिठा दिये जाते हैं। चाहें वे कितने ही अयोग्य क्यों न हों। पर आपसे शिकायत यह है कि जो लोग सिद्धातः किसी राजनैतिक दल से नही जुड़े हैं लेकिन पूरी निष्ठा, ईमानदारी और कुशलता के साथ अपने-अपने क्षेत्रों में योगदान दे रहें हैं। लेकिन उन्हें किसी भी महत्वपूर्णं जिम्मेदारी से केवल इसलिए वंचित किया जा रहा है क्योंकि वे आपके दल से जुड़े हुए नहीं हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि ऐसे योग्य, निष्ठावन और अनुभवी लोगों को तो कभी ऐसा मौका मिलेगा ही नहीं? क्योंकि जो भी दल सत्ता में आयेगा वो यही कहेगा कि आप हमारे दल के नहीं हो। कम से कम गुणों के पारखी नरेन्द्र मोदी की सरकार में तो ये बदलना चाहिए। हमने तो सुना था कि आप योग्य व्यक्तियों को बुलाकर काम सौंपते हो चाहे उसके लिए आपको नियमों और नौकरशाही के विरोध को भी दरकिनार करना पड़े। बिना ऐसा किये इन संस्थाओं की गुणवत्ता नहीं बदलेगी। आजादी के बाद कांग्रेस का दामन पकड़कर साम्यवादी इन संस्थाओं पर हावी रहे और इनका मूल भारतीय स्वरूप ही नष्ट कर दिया। अब मौका आया है तो आप दल के मोह से आगे बढ़कर राष्ट्रहित में काम हो, ऐसी नीति बनाओ।

    पांचवी समस्या है कि एक ही क्षेत्र के विकास के लिए केंद्र सरकार की अनेक योजनाऐं अलग-अलग मंत्रालयों से जारी होते हैं। समन्वय के अभाव में नाहक पैसा बर्बाद होता है। वांछित परिणाम नहीं मिलता। होना यह चाहिए कि केंद्र सरकार की ऐसी सभी योजनाऐं समेकित नीति के तहत जारी हों और उनकी गुणवत्ता और क्रियान्वयन पर जागरूक नागरिकों की निगरानी की व्यवस्था हो। ऐसे अनेक छोटे लेकिन दूरगामी परिणाम वाले कदम उठाकर आप अपनी सरकार से वो हासिल कर सकते हो, जिसका सपना लेकर आप प्रधानमंत्री बने हो। जाहिर है आप अपनी कुर्सी अपने किसी पप्पू को सौंपने तो आये नहीं हो, कुछ कर दिखाना चाहते हो, तो कुछ अनूठा करना पड़़ेगा।

Monday, July 25, 2016

दुनिया का सुखी देश कैसे बने

    पिछले हफ्ते मैं भूटान में था। चीन और भारत से घिरा ये हिमालय का राजतंत्र दुनिया का सबसे सुखी देश है। जैसे दुनिया के बाकी देश अपनी प्रगति का प्रमाण सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) को मानते हैं, वैसे ही भूटान की सरकार अपने देश में खुशहाली के स्तर को विकास का पैमाना मानती है। सुना ही था कि भूटान दुनिया का सबसे सुखी देश है। पर जाकर देखने में यह सिद्ध हो गया कि वाकई भूटान की जनता बहुत सुखी और संतुष्ट है। पूरे भूटान में कानून और व्यवस्था की समस्या नगण्य है। न कोई अपराध करता है, न कोई केस दर्ज होता है और न ही कोई मुकद्मे चलते हैं। निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक वकील और जज अधिकतम समय खाली बैठे रहते हैं। 

ऐसा नहीं है कि भूटान का हर नागरिक बहुत संपन्न हो। पर बुनियादी सुविधाएं सबको उपलब्ध हैं। यहां आपको एक भी भिखारी नहीं मिलेगा। अधिकतम लोग कृषि व्यवसाय जुड़े हैं और जो थोड़े बहुत सर्विस सैक्टर में है, वे भी अपनी आमदनी और जीवनस्तर से पूरी तरह संतुष्ट हैं। 

    लोगों की कोई महत्वाकांक्षाएं नहीं हैं। वे अपने राजा से बेहद प्यार करते हैं। राजा भी कमाल का है। 33 वर्ष की अल्पायु में उसे हर वक्त अपनी जनता की चिंता रहती है। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर, जहां कार जाने का कोई रास्ता न हो, उन पहाड़ों पर चढ़कर युवा राजा दूर-दूर के गांवों में जनता का हाल जानने निकलता है। लोगों को रियायती दर या बिना ब्याज के आर्थिक मदद करवाता है। 

    भूटान में कोई औद्योगिक उत्पादन नहीं होता। हर चीज भारत, चीन या थाईलैंड से वहां जाती है। वहां की सरकार प्रदूषण को लेकर बहुत गंभीर है। इसलिए कड़े कानून बनाए गए हैं। नतीजतन वहां का पर्यावरण स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभप्रद है। लोगों का खानापीना भी बहुत सादा है। दिन में तीन बार चावल और उसके साथ पनीर और मक्खन में छुकीं हुई बड़ी-बड़ी हरी मिर्च, ये वहां का मुख्य खाना है। पूरा देश बुद्ध भगवान का अनुयायी है। हर ओर एक से एक सुंदर बौद्ध विहार में हैं। जिनमें हजारों साल की परंपराएं और कलाकृतियां संरक्षित हैं। किसी दूसरे धर्म को यहां प्रचार करने की छूट नहीं है, इसलिए न तो यहां मंदिर हैं, न मस्जिद, न चर्च। 

विदेशी नागरिकों को 3 वर्ष से ज्यादा भूटान में रहकर काम करने का परमिट नहीं मिलता। इतना ही नहीं, पर्यटन के लिए आने वाले विदेशियों को इस बात का प्रमाण देना होता है कि वे प्रतिदिन लगभग 17.5 हजार रूपया खर्च करेंगे, तब उन्हें वीजा मिलता है। इसलिए बहुत विदेशी नहीं आते। दक्षिण एशिया के देशों पर खर्चे का ये नियम लागू नहीं होता, इसलिए भारत, बांग्लादेश आदि के पर्यटक यहां सबसे ज्यादा मात्रा में आते हैं। भूटान की जनता इस बात से चिंतित है कि आने वाले पर्यटकों को भूटान के परिवेश की चिंता नहीं होती। जहां भूटान एक साफ-सुथरा देश है, वहीं बाहर से आने वाले पर्यटक जहां मन होता है कूड़ा फेंककर चले जाते हैं। इससे जगह-जगह प्राकृतिक सुंदरता खतरे में पड़ जाती है। 

    एक और बड़ी रोचक बात यह है कि मकान बनाने के लिए किसी को खुली छूट नहीं है। हर मकान का नक्शा सरकार से पास कराना होता है। सरकार का नियम है कि हर मकान का बाहरी स्वरूप भूटान की सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप हो, यानि खिड़कियां दरवाजे और छज्जे, सब पर बुद्ध धर्म के चित्र अंकित होने चाहिए। इस तरह हर मकान अपने आपमें एक कलाकृति जैसा दिखाई देता है। जब हम अपने अनुभवों को याद करते हैं, तो पाते हैं कि नक्शे पास करने की बाध्यता विकास प्राधिकरणों ने भारत में भी कर रखी है। पर रिश्वत खिलाकर हर तरह का नक्शा पास करवाया जा सकता है। यही कारण है कि भारत के पारंपरिक शहरों में भी बेढंगे और मनमाने निर्माण धड़ल्ले से हो रहे हैं। जिससे इन शहरों का कलात्मक स्वरूप तेजी से नष्ट होता जा रहा है। 

    भूटान की 7 दिन की यात्रा से यह बात स्पष्ट हुई कि अगर राजा ईमानदार हो, दूरदर्शी हो, कलाप्रेमी हो, धर्मभीरू हो और समाज के प्रति संवेदनशील हो, तो प्रजा निश्चित रूप से सुखी होती है। पुरानी कहावत है ‘यथा राजा तथा प्रजा’। यह भी समझ में आया कि अगर कानून का पालन अक्षरशः किया जाए, तो समाज में बहुत तरह की समस्याएं पैदा नहीं होती। जबकि अपने देश में राजा के रूप में जो विधायक, सांसद या मंत्री हैं, उनमें से अधिकतर का चरित्र और आचरण कैसा है, यह बताने की जरूरत नहीं। जहां अपराधी और लुटेरे राजा बन जाते हों, वहां की प्रजा दुखी क्यों न होगी ? 

एक बात यह भी समझ में आयी कि बड़ी-बड़ी गाड़ियां, बड़े-बड़े मकान और आधुनिकता के तमाम साजो-सामान जोड़कर खुशी नहीं हासिल की जा सकती। जो खुशी एक किसान को अपना खेत जोतकर या अपने पशुओं की सेवा करके सहजता से प्राप्त होती है, उसका अंशभर भी उन लोगों को नहीं मिलता, जो अरबों-खरबों का व्यापार करते हैं और कृत्रिम जीवन जीते हैं। कुल मिलाकर माना जाए, तो सादा जीवन उच्च विचार और धर्म आधारित जीवन ही भूटान की पहचान है। जबकि यह सिद्धांत भारत के वैदिक ऋषियों ने प्रतिपादित किए थे, पर हम उन्हें भूल गए हैं। आज विकास की अंधी दौड़ में अपनी जल, जंगल, जमीन, हवा, पानी और खाद्यान्न सबको जहरीला बनाते जा रहे हैं। भूटान से हमें बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।

Monday, June 27, 2016

अच्छे मानसून के बावजूद कितने निश्चिंत हैं हम ?

देश में मानसून की स्थिति पर नजर रखने वालों का ध्यान लगता है कि कहीं और लगा है। हर साल मौसम विभाग भी बहुत चैकस दिखता था। लेकिन इस बार मानसून आने के एक महीने पहले जो पूर्वानुमान मौसम विभाग ने बताए थे उसके बाद वह अपनी साप्ताहिक विज्ञप्ति जारी करने के अलावा ज्यादा कुछ बता नहीं पा रहा है। उसकी साप्ताहिक विज्ञप्तियों को देखें तो इस मानसून में अब तक औसत बारिश औसत से दस फीसद कम हुई है। जबकि मानसून के चार महीनों का अनुमान नौ फीसद ज्यादा बारिश होने का लगा था।

मानसून की अबतक की स्थिति का विश्लेषण करें तो दो अंदेशे पैदा हो गए हैं। एक यह कि अगर पूरे मानसून का अनुमान सही होने पर विश्वास करके चलें तो अब बाकी के दिनों में भारी बारिश का अंदेशा है और अगर अब तक के आंकड़ों के हिसाब से मानसून के मिजाज का अंदाजा लगाएं तो इस बार लगातार तीसरे साल  बारिश औसत से  कम होने का डर भी है।

अगर बारिश का अनुमान सही निकला तो आज की स्थिति यह है कि देश में एक साथ ज्यादा पानी गिरने से बाढ़ की आशंका सिर पर आकर खड़ी हो गई है। विशेषज्ञ जल विज्ञानी के के जैन के मुताबिक देश में सूखे पड़ने की आवृत्ति बढ़ रही है। आंकड़े बता रहे हैं कि पहले जहां 16 साल में एक बार सूखा पड़ता था वहां पिछले तीन दशकों से हर सोलह साल में तीन बार सूखा पड़ने लगा है। विशेषज्ञों की इस बात पर गौर करने का समय आ गया है कि बदलते हालात में हमें बारिश के पानी को बाकी के आठ महीनों के लिए रोक कर रखने के फौरन ही अतिरिक्त प्रबंध करने होंगे।

उधर इन विशेषज्ञों का यह अध्ययन भी ध्यान देने लायक हो गया है कि देश में जल संचयन या जल भंडारण की क्षमता बढ़ाने से हम बाढ़ की समस्या पर भी काबू पा लेंगे। अभी जो ज्यादा बारिश होने से अतिरिक्त पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में जाता है वह देश की 32 करोड़ हैक्टेयर जमीन पर जहां तहां कुंडों और पोखरों में जमा होकर नदियों को उफनने से रोक देगा और यही पानी सिंचाई की जरूरतों के दिनों में भी काम आने लगेगा। इससे बड़ी शर्मिंदगी की बात क्या हो सकती है कि किसी देश में उसी साल बाढ़ आए और उसी साल सूखा भी पड़ने लगे। सन् 2016 का यह साल इस जल कुप्रबंधन का जीता जागता उदाहरण बनने वाला है। हद की बात यह है कि वर्षा के सटीक अनुमान लगाने में सक्षम होने के बाद हमारी यह स्थिति है।

यह साल इस मायने में भी हमारी पोल खोलने जा रहा है कि अगर बाढ़ के हालात बने तो जानमाल का भारी नुकसान होगा। और अगर वर्षा का अनुमान गलत निकला, यानी पानी कम गिरा तो लगातार तीसरे साल सूखे के हालात को भुगतना पड़ेगा। तीसरी स्थिति सामान्य बारिश की बनती है। यह भी सुखद स्थिति का आश्वासन नहीं दे रही है। इसका तर्क यह है कि देश की आबादी हर साल दो करोड़ की रफ्तार से बढ़ रही है। यानी हमें हर साल डेढ़ फीसद ज्यादा पानी का प्रबंध करना ही करना है।

जल विज्ञानी बताते हैं कि अभी हमारी जल संचयन क्षमता सिर्फ 253 घन किलोमीटर पानी को रोककर रखने की है। यह पानी खेती की कुल जमीन में से आधे खेतों तक को सींचने के लिए पर्याप्त नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो खेती लायक देश की आधी से जयादा जमीन पर बारिश के भरोसे ही खेती हो रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण हो या अपने जल कुप्रबंध के कारण हो या फिर बढ़ती आबादी के कारण हो, यह बात सामने दिखने लगी है कि जरूरत के दिनों में पानी कम पड़ने लगा है।

भले ही अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के लिहाज से भारत आज जल विपन्न देशों की श्रेणी में आ गया हो, लेकिन आंकड़े बता रहे है कि अभी भी हमारे पास पांच सौ घन किलोमीटर पानी रोकने की गुंजाइश बाकी है। यानी हम अपनी जल भंडारण क्षमता दुगनी करने लायक अभी भी हैं। बस दिक्कत यही है कि जल परियोजनाओं पर खर्चा बहुत होता है। मोटा अनुमान है कि जल के संकट से उबरने के लिए कम से कम एकमुश्त पांच लाख करोड़ का निवेश चाहिए। इससे कम में अब काम इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि फुटकर-फुटकर जो काम हम इस समय कर रहे हैं वह तो बढ़ती आबादी की न्यूनतम जरूरत पूरी करने के लिए भी नाकाफी है।

इन तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस बार मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही निकलने के बाबजूद हम देश में पर्याप्त अनाज, दालों और दूसरे कृषि उत्पादन को लेकर निश्चिंत नहीं हैं। कृषि प्रधान देश में जहां दो तिहाई आबादी आज भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर हो, वहां देश की मुख्य नीति अगर कृषि को केंद्र में रखकर न हो तो आने वाले दिनों में संकट को कौन रोक सकता है ?

Monday, May 2, 2016

हेमामालिनी ब्रज की अभूतपूर्व सांसद बन सकती है

जब हेमा मालिनी का नाम लोकसभा चुनावों में मथुरा से सांसद के प्रत्याशी के रूप में घोषित हुआ, तो भाजपा के विरोधी खेमों में ही नहीं, बल्कि भाजपा में भी यह सुगबुगाहट थी कि एक फिल्मी अदाकारा ब्रज की क्या सेवा करेगी? लोग ये कहते थे कि वोट लेने के बाद हेमामालिनी के दर्शन अगले पांच वर्ष तक नहीं होंगे। अभी चुनाव हुए 2 वर्ष ही हुए है, लेकिन हर ब्रजवासी की जुबान पर हेमामालिनी का नाम हैं। इसलिए नहीं कि वे आये दिन ब्रज में हर मौके पर उपस्थित रहकर अपने ब्रजप्रेम का प्रदर्शन करती हैं। इसलिए भी नहीं कि उन्होंने ब्रज के गांवों के विकास की अपेक्षाओं को पूरा कर दिया, ऐसा तो वो क्या कोई भी सांसद नहीं कर सकता। बल्कि इसलिए कि उन्होंने ब्रज के लिए जो किया है, वैसा आजतक कोई सांसद नहीं कर पाया था।

यह भ्रान्ति है कि सांसद का काम सड़क और नालियां बनवाना है। झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड में फंसने के बाद प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने सांसदों की निधि की घोषणा करने की जो पहल की, उसका हमने तब भी विरोध किया था। सांसदों का काम अपने क्षेत्र की समस्याओं के प्रति संसद और दुनिया का ध्यान आकर्षित करना हैं, कानून बनाने में मदद करना हैं, न कि गली-मौहल्ले में जाकर सड़क और नालियां बनवाना। कोई सांसद अपनी पूरी सांसद निधि भी अगर लगा दे तो एक गांव का विकास नहीं कर सकता। इसलिए सांसद निधि तो बन्द कर देनी चाहिए। यह हर सांसद के गले की हड्डी है और भ्रष्टाचार का कारण बन गई है।

हेमा मलिनी ने ब्रज को न सिर्फ समझा हैं, गले लगाया है बल्कि उसे अपने हृदय में उतार लिया है। पिछले दिनों उन्होंने वृन्दावन में अपनी दो नृत्य नाटिकाएं प्रस्तुत की, ’यशोदा कृष्ण ’व’ राधा-रासबिहारी’। इन प्रस्तुतियों में ब्रज का जो नैसर्गिक और सांस्कृतिक भाव हेमा जी ने प्रस्तुत किया, उसे देखकर हर ब्रजवासी मंत्रमुग्ध हो गया। इसमें आधुनिक तकनीकि का व्यापक इस्तेमाल किया गया। जो इस तरह के नाट्य बैले में उनकी संस्था ’नाट्य विहार कला केन्द्र, मुम्बई’ आज तक करती आई है। पर इसके साथ ही वृन्दावन की ’कान्हा एकेडमी’ के संचालक अनूप शर्मा ने अपना बौद्धिक सहयोग करके इस नृत्य नाटिका में ब्रज की माखन मिसरी घोल दी। दोनों के संयुक्त प्रयास से जो कुछ मंच पर प्रस्तुत किया गया वह काफी है पूरी दुनिया का ध्यान ब्रज की ओर आकर्षिक करने के लिए।

हेमाजी से जब भी ब्रज के विषय में चर्चा होती है, वे अपनी पीड़ा व्यक्त करना नहीं भूलती। उन्हें दुख है कि भगवान श्रीराधाकृष्ण की लीलास्थलियों वाला ब्रज इतनी दुर्दशा को कैसे प्राप्त हो गया ? यही कारण है जब उन्होंने ’ब्रज फाउण्डेशन’ के जीर्णोंद्धार कार्यों को देखा तो वे दंग रह गई और सार्वजनिक मंच से कहा कि अब मैं ब्रज फाउण्डेशन के साथ मिलकर ब्रज सजाने का काम करूंगी। क्योंकि ब्रज फाउण्डेशन पिछले 15 वर्षों से ब्रज की जीर्ण-शीर्ण हो गई, लीलास्थलियों को ढूंढने, संवारने, सजाने और संरक्षण करने का काम बड़ी तत्परता और कलात्मकता से कर रही है। जिसकी सराहना वर्तमान प्रधानमंत्री व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक सार्वजनिक रूप से करते हैं।

अपनी नृत्य नाटिका के साथ ही अगर हेमामालिनी ब्रज फाउण्डेशन की एक पावर पॉइंट प्रस्तुति भी करवाती हैं तो दर्शकों को पता चलेगा कि जिस कोईलेघाट से वसुदेव जी बालकृष्ण को लेकर यमुना पार गोकुल गये थे, वो कैसा था और अब उसे फाउण्डेशन ने कैसा सुंदर बना दिया। इसी तरह जब हेमाजी की नृत्य नाटिका में कालियामर्दन की लीला का दृश्य आयेगा तो उसके बाद ही दर्शकों को दिखाया जाए कि इस लीला स्थली का स्वरूप कैसा था और अब उसे कितना निखार दिया गया। इस तरह एक तरफ कला व संगीत के साथ सौन्दर्यबोध कराया जायेगा तो दूसरी तरफ लीलास्थलियों की दुर्दशा की वास्तविक स्थिति दिखाकर पूरी दुनिया के कृष्णभक्तों और भारत प्रेमियों को ब्रज को सजाने-संवारने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। यदि हेमामालिनी ऐसा कर पाती हैं तो ब्रज विकास के कामों में गति आयेगी। यही एक सांसद का कार्य भी है कि वह अपने क्षेत्र के प्रति दुनिया का ध्यान आकर्षित करें। ब्रज में वैसे उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के अलावा, राजस्थान का भरतपुर व हरियाणा के पलवल जिले का कुछ क्षेत्र भी आता है। प्रयास ऐसा होना चाहिए कि पूरे ब्रज का सौन्दर्यीकरण साथ हो। चाहे वो किसी भी राज्य के हिस्से में क्यों न हो। क्योंकि कान्हा की लीलास्थलियां पूरे ब्रज में हैं।

इससे पहले जो मथुरा के सांसद बने, वे सद्इच्छा रखते हुए भी राजनीतिज्ञ थे। कोई कलामर्मज्ञ या भक्त नहीं थे। इसलिए उनसे ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। हेमामालिनी कहने को राजनीतिज्ञ हैं। पर वास्तव वे एक उच्चकोटि की कलाकार और उससे भी उच्चकोटि की भक्त है। ऐसी शख्सियत आज ब्रज का संसद में प्रतिनिधित्व कर रही हैं, यह ब्रजवासियों के लिए गर्व की बात होनी चाहिए। हेमामालिनी को भी अपनी शख्सियत के अनुसार ब्रज की ब्रान्ड एम्बेंसडर बनने की भूमिका और जोरदार तरीके से निभानी चाहिए।

पर प्रायः होता यह है कि मशहूर और शक्तिशाली लोगों से निहित स्वार्थ इस तरह चिपक जाते हैं, कि वे उनके चारों ओर एक दीवार खड़ी कर देते हैं। उन्हें गलत सूचनाएं देते हैं, उनकी ऊर्जा का अपव्यय करवाते हैं और उनसे अपने व्यावसायिक हित साधते हैं। हेमा जी को ऐसे लोगों से सावधान रहना होगा और तलाशने होंगे वो लोग जिनका एकमात्र ध्येय ब्रज को सजाना और संवारना है। ऐसे लोगों के साथ जुड़कर वे ब्रज को बहुत कुछ दे सकती है। जो पहले कोई सांसद न दे पाया। कोई वजह नहीं कि ऐसा करने के बाद ब्रज की जनता उन्हें दुबारा संसद में न भेजें।

Monday, February 15, 2016

आधुनिक विकास के असली मायने

आज चारों ओर देश में दो तरह का माहौल है। एक तरफ तो विकास के लंबे-चैड़े लक्ष्य निर्धारित किए जा रहे है और दूसरी ओर राष्ट्रवादी सनातन चिंतन से जुड़े लोग इस बात को लेकर परेशान हैं कि हम इतना कुछ खोकर भी विकास के पश्चिमी माॅडल को पकड़े बैठे हैं। जिससे विकास होना तो दूर आम हिंदुस्तानी के नैसर्गिक अधिकार तक छिनते जा रहे हैं। आज साफ पानी, हवा और जमीन सपने की बात हो गई है।
 
पिछले 60 वर्षों से या यूं कहिए कि जब से रूस में समाजवादी क्रांति हुई है, तब से दुनिया में योजनाबद्ध विकास का एजेंडा तय हो गया है। भारत ने भी पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विकास का कार्यक्रम तय किया। पर तीसरी योजना आते-आते 1966 में ये महसूस हुआ कि इस माॅडल से वांछित परिणाम नहीं आ रहे। इसलिए तीन वर्ष का विकास अवकाश कर दिया गया। चैथी योजना 1969 में कृषि पर जोर देते हुए शुरू हुई। पर यहां भी हरित क्रांति का नारा देकर भारत की देशी कृषि को मटियामेट कर दिया गया। आज इसी का परिणाम है कि कृषि न तो पेट भरने का माध्यम रह गई और न ही आर्थिक प्रगति का।
 
दरअसल विकास की आधुनिक अवधारणा ही भ्रामक है। वुल्फगांग झेकस की अंग्रेजी पुस्तक ‘द आर्कियोलाॅजी आॅफ डेवलपमेंट आइडिया’ (विकास के खंडहर) में इस अवधारणा की बड़ी रोचक व्याख्या की गई। उसका अवलोकन करना हम सबके हित में रहेगा। झेकस कहते हैं कि विकास का अर्थ है - प्राकृतिक संपदा के सर्जनहार के विरूद्ध युद्ध का शंखनाद। प्राकृतिक संपदा के उपयोग के लिए ऋषि-मुनियों द्वारा स्थापित तर्कपूर्ण व न्यायिक विश्व व्यवस्था को भंग करना। अपने स्वार्थ के लिए हिंसा और शोषण के तौर-तरीके और घातक हथियारों को बनाना और उनकी मदद से दुनियाभर की प्राकृतिक संपदाओं की दैत्यकारी लूट करना। जिससे पूरी दुनिया की प्राकृतिक संपदा का तेजी से विनाश हो रहा है।
 
झेकस आधुनिक विकास की परिभाषा देते हुए आगे कहते हैं कि इस विकास में आध्यात्मिक गुणों के विकास के लिए कोई भी संभावना नहीं है। इतना ही नहीं जो कुछ आध्यात्मिक ताना-बाना किसी भी समाज में उपलब्ध है, चाहे वह हिंदू समाज हो, मुसलमान समाज हो या बौद्ध समाज हो, उसे नष्ट-भ्रष्ट कर देना और उसकी जगह हिंसा, सेक्स और शोषण का विस्तार करना। ताकि आम जनता इन्हीं मकड़जालों में उलझकर रह जाए और क्रमशः महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी एवं दुराचारिता की चक्की में पिसती चली जाए।
 
इसके साथ ही आधुनिक विकास का एक और घिनौना चेहरा है कि वह झूठ के प्रचार प्रसार को मान्यता देता है। वह भी इतने कलात्मक और रोचक तरीके से कि आपको जहर भी अमृत बताकर बेच दिया जाए। यह सारा विज्ञापन जगत इसी का सहारा लेकर हम सबके जीवन में विष घोल रहा है। अब से 50 वर्ष पहले भी प्रजा के सामने राजा का झूठ बोलना घोर अनैतिकता माना जाता था। चाहे वो गांव का प्रधान हो, सूबे का मुख्यमंत्री हो या देश का राजा हो। उसे अपने आचरण में नैतिक मूल्यों को सम्मान देना होता था। पर आधुनिक विकास तकनीकि और संचार के आधुनिक माध्यमों का सहारा लेकर प्रजा को मूर्ख बनाने की छूट देता है। आप टेलीविजन के माध्यम से झूठे भाषण भी इस तरह दे सकते हैं कि सामने वाला आपकी बात पर विश्वास कर ले। इसलिए अब हमारे नेताओं को सामाजिक स्वीकृति की चिंता नहीं होती।
 
संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के गठन के बावजूद आधुनिक विकास विश्वशांति के नाम पर विश्व अशांति का कारोबार करता है। क्योंकि इन सब संस्थाओं का नियंत्रण अप्रत्यक्ष रूप से हथियार निर्माताओं के हाथ में रहता है, जो दुनिया में सैकड़ों जगह युद्ध कराने का कारण हैं। लड़े कोई, हारे-जीते कोई, मुनाफा इनका ही होता है और उन देशों की संपदा और मानव हानि ऐसे युद्धों में कई गुना बढ़ जाती है।
 
आधुनिक विकास का एक और छद्म चेहरा है पूरी दुनिया को एक करना। एक-सा शासन, एक-सा कानून, एक-सी मुद्रा और एकीकृत व्यापार की स्थापना। इस प्रक्रिया में स्थानीय परंपराओं, सामाजिक ताने-बाने, सदियों से संजोया गया अनुभवजन्य ज्ञान, धार्मिक विश्वास, नैतिक व्यवस्थाएं और भौगोलिक विभिन्नता, सबको तिलांजलि दी जा रही है। सारी दुनिया एक-सी विद्रूप और घुटनभरी बनती जा रही है। विकास की इस व्यवस्था में न्याय की भी बलि दे दी जाती है।
 
न्यायिक संस्थाओं के नाम पर अन्यायपूर्ण कानूनों की स्थापना की जाती है और न्याय केवल पैसे से खरीदा जा सकता है। इसलिए कितना भी विनाश एवं अत्याचार दुनिया में क्यों न हो, पर इसको करने वाले बड़े लोग कभी पकड़े नहीं जाते। जबकि मजबूरी में छोटी-मोटी आपराधिक गतिविधि करने वाले आम आदमी इस कानून की बलि चढ़ा दिए जाते हैं।
 
आधुनिक विकास में सबसे बड़ी दानवीय यह आधुनिक बैकिंग व्यवस्था है, जो छद्म संपत्ति का सृजन कर पूरी दुनिया को मूर्ख बना रही है और आम आदमी को प्लास्टिक के कार्ड पकड़ाकर कर्जे में फंसाती जा रही है। इस हद तक कि गरीब किसान ही नहीं, व्यापारी और उद्योगपति तक इस जाल में फंसने के बाद आत्महत्या के अलावा और कोई विकल्प नहीं सोच पाता। इस सबसे स्पष्ट है कि आधुनिक विकास धर्म का विनाश कर अधर्म का विकास कर रहा है।
 
विकास के इस नाटक को केवल भारत की सनातन संस्कृति और शिक्षा पद्धति के माध्यम से तोड़ा जा सकता है। ऐसे ही विषयों पर आगामी 27-28 फरवरी को अहमदाबाद के हेमचंद्राचार्य संस्कृत पाठशाला (गुरूकुलम) में देशभर के 500 विद्वान इकट्ठा हो रहे हैं। मुझे इस महासंगम में विद्वानों के विचार सुनने की बहुत उत्सुकता है। इस संगम के बाद उन विचारों के मंथन से जो माखन प्राप्त होगा, उसे आकर आप सबसे बांटूंगा।