Friday, August 29, 2003

सरकार की नाक तले फर्जी डिगरियों का जोर


सूचना क्रान्ति, उदारीकरण और उपभोक्ता संस्कृति तीनों ने मिलकर गांव और कस्बों के नौजवानों के मन में कुछ नया सीखने और व्यावसायिक जगत में आगे बढ़ने की ललक पैदा कर दी है। उनकी इस ललक को बढ़ाने का काम कर रहे हैं देश भर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हजारों देसी व विदेशी उच्च शिक्षा संस्थान। इनकी दुकान जितनी ऊंची है, उतनी फीकी भी। यह किसी से छिपा नहीं है कि देश के बहुसंख्यक विद्यार्थियों को शिक्षा का सही वातावरण तक नहीं मिलता। शिक्षा के नाम पर खानापूर्ति ही ज्यादा होती है। ऐसे में कमजोर नींव पर खड़े इन नौजवानों को यह शिक्षा संस्थान सपने दिखाकर, झूठे वायदे करके और भ्रामक सूचनाएं देकर आकर्षित कर लेते हैं। इनके जाल में फंसने वाले नहीं जानते कि जिन फर्जी सर्टीफिकेट या डिग्रियों को बांटकर यह लोग सुनहरे भविष्य के सपने दिखा रहे हैं, उन्हें लेकर वे सिर्फ धक्के ही खाएंगे। इनकी बदौलत कोई ढंग की नौकरी मिलना मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं है। अगर एमबीए करके कपड़े की दुकान पर पन्द्रह सौ रुपये महीने की सेल्समैनशिप मिली, तो कौन सा तीर मार लिया। इतना ही नहीं, प्रोफेशनल कोर्स की पढ़ाई से आने वाला आत्मविश्वास भी यह डिग्रियां नहीं दे पातीं। 

इन संस्थानों में लाखों रुपये देकर पढ़ने वाले छात्रों के मन में हमेशा एक डर सा बना रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि पढ़कर भी नौकरी न मिले। यदि सर्वेक्षण किया जाए तो यह बात सिद्ध भी हो जाएगी कि लाखों रुपये लेकर दाखिला देने वाले इन इंजीनियरिंग, मेडिकल या मैनेजमेंट काॅलेजों के ज्यादातर छात्रों को बरसों तक माकूल रोजगार नहीं मिलता। यह तो उन लोगों की बात है जो जानते-बूझते हुए ऐसी डिग्रियां लेते हैं। लेकिन भारत में बहुत से ऐसे भी शिक्षण संस्थान भी हैं, जो असली होने का दावा करते हुए लाखों लोगों को सर्टीफिकेट और डिग्रियां बांट चुके हैं। जबकि है ये पूरे फर्जी। इनके काम करने के तौर तरीके देखकर कोई भी इन्हें असली मान बैठता है। पर, वास्तव में यह असली नहीं होते। कहने के लिए इनके पास देश की जानी-मानी संस्थाओं से संबद्धता के भी प्रमाण होते हैं और यह अपने यहां पढ़ने वाले लोगों को देश-विदेश की बेहतरीन कंपनियों में नौकरी दिलाने का भी पक्का वायदा करते हैं। इसी झांसे में आकर प्रतिवर्ष लाखों लोग इनके चंगुल में फंस जाते हैं और मोटी रकम चुकाकर एक डिग्री हासिल करते हैं, जो वास्तव में जाली होती है, जिसे जारी करने का भी अधिकार इन संस्थानों को नहीं होता।

विश्व विद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम 1956 की धारा 22 के मुताबिक, डिग्री प्रदान करने का अधिकार केवल उन्हीं विश्वविद्यालयों को है जो केन्द्र अथवा राज्य के कानूनों के तहत स्थापित किए गए हों या यूजीसी अधिनियम की धारा 3 के तहत यूनीवर्सिटी की मान्यता प्राप्त हो अथवा संसद द्वारा विशेष रूप से किसी संस्थान को डिग्री प्रदान करने की अनुमति दी गई हो। इसके अलावा अन्य कोई भी विश्वविद्यालय डिग्री प्रदान नहीं कर सकता। यदि वह ऐसा करता है तो कानूनन गलत है। यूजीसी एक्ट की धारा 23 के मुताबिक केन्द्र, राज्य अथवा प्रांतीय अधिनियम के अंतर्गत गठित विश्वविद्यालयों को छोड़कर किसी भी अन्य संस्थान को अपने नाम के साथ यूनीवर्सिटी या विश्वविद्यालय शब्द प्रयोग करने की अनुमति नहीं है। पर छोटे शहरों की छोेडें,़ प्रांतों की राजधानी तक में ऐसे तमाम फर्जी विश्वविद्यालयों के बोर्ड लगे मिल जाएंगे। स्थानीय सरकारें सब जानबूझकर भी खामोश बैठी रहती हैं। कारण साफ है। प्रायः इन काॅलेजों के संस्थापक या प्रबंधक क्षेत्र या प्रांत के प्रतिष्ठित राजनेता होते हैं, जिनकी रुचि शिक्षा के प्रसार में नहीं बल्कि बेरोजगारों की मजबूरी का फायदा उठाकर मोटी कमाई करने में होती है।

फर्जी विश्वविद्यालयों तथा जाली डिग्रियों को बांटने से रोकने के लिए संसदीय समिति द्वारा कुछ सुझाव दिए गए, हैं, जैसे यूजीसी या शिक्षा विभाग जाली विश्वविद्यालयों व संस्थानों की एक सूची बनाए, यूजीसी तथा शिक्षा विभाग अखबारों में छपने वाले फर्जी विश्वविद्यालयों के विज्ञापनों के बारे में प्रेस काउंसिल आॅफ इंडिया तथा एडीटर्स गिल्स को अवगत कराकर अखबारों में ऐसे विज्ञापनों को प्रतिबंधित करवाए, यूजीसी को दोषी संस्थानों के खिलाफ कार्रवाई करने के ज्यादा अधिकार दिए जाएं आदि-आदि। पर, ऐसी कितनी सूचनाएं हम तक पहंुचती हैं

यूजीसी ने तो अपने यहां एक विभाग सिर्फ ऐसे ही फर्जी विश्वविद्यालयों की गतिविधियों पर नजर रखकर रोक लगाने तथा उनके बारे में लोगों को जानकारी देने के लिए बनाया है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय ने भी दूरस्थ शिक्षा के क्षे़त्र में धोखेबाज संस्थाआंे का पता लगाने के लिए एक निगरानी दल गठित किया है। कुछ मामलों में यूजीसी ने ऐसी संस्थाओं पर रोक लगाने के लिए अदालत में भी याचिका दायर की हुई है। एक सितंबर 1998 को मानव संसाधन विकास मंत्री ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से यूजीसी अधिनियम का उल्लंघन करने वाली संस्थाओं पर कड़ी निगाह रखने तथा उनके विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए कहा था। इसके अलावा केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डाॅ. मुरली मनोहर जोशी ने जुलाई 1998 में एक टास्क फोर्स बनाकर यूजीसी एक्ट में आवश्यक संशोधन करने का काम उसे सौंपा। पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के पूर्व कुलपति प्रो. अमरीक सिंह की अध्यक्षता में बनी इस टास्क फोर्स ने जो सुझाव दिए उनमें यूजीसी एक्ट की धारा 22 और 23 का उल्लंघन करने वाले लोगों को दी जाने वाली सजा तथा जुर्माने में भारी बढ़ोत्तरी, यदि यह उल्लंघन किसी एसोसिएशन या लोगों के समूह द्वारा किया जाए तो सभी लोगों को समान रूप से दंडित करने के अलावा जो कोई ऐसी संस्थान से किसी भी प्रकार से संबंधित हो या उससे लाभ उठाता हो, उसे भी दंडित किए जाने की सिफारिश की गई। इसके अलावा इस अपराध को गंभीर तथा गैर जमानती बनाने, यूजीसी के मानकों के अनुरूप प्रदान की जाने वाली डिग्री, डिप्लोमा या सर्टीफिकेट की सूची बनाकर हर साल प्रकाशित करवाने, भारत में डिग्री, डिप्लोमा तथा सर्टीफिकेट देने वाली विदेशी विश्वविद्यालयों की गतिविधियों को भी यूजीसी के दायरे में लाने की बात कही गई।

इन धोखेबाज संस्थाओं के जाल में अक्सर वही छात्र फंसते हैं, जो छोटे शहरों या कस्बों में रहते हैं, जिन्हें ऐसी संस्थाओं के कारनामों की जानकारी नहीं होती। कई बार तो बहुत से विश्वविद्यालय, काॅलेज अथवा स्कूल अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर कहते हैं कि उनकी डिग्रियां फलाने संस्थान से मान्यता प्राप्त हैं, फलाने संस्थान से संबद्ध है। कई तो कुछ कदम आगे बढ़कर जाली नाम वाली विदेशी संस्थाओं से भी अपनी संबद्धता दिखा देते हैं। असलियत से बेखबर भोले भाले नौजवान इन संस्थाओं के तड़क-भड़क वाले जाल में फंसकर अपना पैसा तो बरबाद करते ही हैं, साथ ही अपने भविष्य में भी पलीता लगा लेते हैं। 

बहुत से संस्थान यूजीसी से मान्यता प्राप्त करने के लिए आवेदन करते हैं, परंतु यूजीसी द्वारा मान्यता नहीं देने पर भी वह अपना काम जारी रखते हैं। अभी तक इन धोखेबाजों पर लगाम कसने के लिए कोई भी प्रभावी साधन नहीं है। इस वजह से इनका धंधा खूब फल फूल रहा है। पकड़े जाने पर यह संस्थान किसी अन्य नाम से अपनी दुकान खोल लेते हैं और फिर शुरू कर देते हैं मासूम छात्रों को ठगने का धंधा। रोजगारपरक शिक्षा देने वाले संस्थानों की बाढ़ सी आई हुई है। भारी मात्रा में इन संस्थानों के खुल जाने से इन पर निगरानी रखना टेढी खीर हो गया है। पिछले कुछ सालों में रोजगारपरक शिक्षा की मांग में भारी इजाफा हुआ है। राज्य सरकार से सहायता प्राप्त संस्थाए इस मांग को पूरा करने में सक्षम नहीं है, इसलिए निजी, स्वपोषित संस्थाओं को रजिस्टर्ड करना जरूरी हो गया। यह सही है कि इन निजी संस्थाओं में छात्रों को सुविधाएं अधिक दी जाती हैं, परंतु सही और वैधानिक संस्थाओं की आड में कुछ नकली संस्थाएं भी छात्रों का शोषण करती हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। कुछ मामलों में तो देश के नामी गिरामी विश्वविद्यालयों के उच्च पदस्थ अधिकारी भी इन संस्थाओं के कामकाज में शामिल पाए गए। यूजीसी और अन्य रेगुलेटरी अथारिटी, एडवर्टाइजमेंट स्टेंडर्डस काउंसिल आॅफ इंडिया (एएससीआई), इंडियन न्यूजपेपर्स सोसायटी तथा मोनोपोलीज एंड रेस्ट्रिक्टिव ट्रेड प्रेक्टिसेज कमीशन को एकसाथ मिलकर एक ऐसी प्रक्रिया तैयार करनी चाहिए, जिनसे ऐसे धोखेबाज विज्ञापनों पर रोक लग सके।

Friday, August 22, 2003

पीने की आदत बदलें


अभी हाल ही में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कारगुजारियों को उजागर कर सेंटर फाॅर साइंस एंड एन्वायरन्मेंट (सीएसई) ने देश के करोड़ों लोगों की आंखों पर पड़ा पर्दा उठाने का काम किया है। प्रयोगों के जरिए सीएसई ने यह बताने की कोशिश की, कि आकर्षक विज्ञापनों के जरिए यह कंपनियों जिन शीतल पेयों को आम भारतीयों के गले के नीचे उतार रही हैं, वह सेहत के लिए बिल्कुल भी मुफीद नहीं हैं। संस्थान के वैज्ञानिकों का कहना है कि इन शीतल पेयों के जरिए हम ऐसे कीटनाशकों को निगल रहे हैं, जिनके लंबे समय तक सेवन करने से कैंसर, स्नायु और प्रजनन तंत्र को क्षति, जन्मजात शिशुओं में विकृति और इम्यून सिस्टम तक में खराबी आ सकती है। परंतु बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस बात का खंडन करती हैं। वास्तविकता क्या है, यह तो विस्तृत जांच पड़ताल के बाद ही पता चलेगा। पर, गैर सरकारी संगठन सीएसई का कहना है कि यह विदेशी कंपनियां भारत के साथ भेदभाव बरत रही हैं। अमेरिका और अन्य दूसरों देशों में इनके उत्पादों की गुणवत्ता का बारीकी से ध्यान रखा जाता है, जबकि भारत में यह पैसे बचाने के लिए कीटनाशकों का घोल जनता को पिला रही हैं। मजे की बात तो यह है कि शर्बत और लस्सी के देश भारत के अधिकांश लोग पश्चिमी बयार में बहकर खुद को माॅडर्नसाबित करने के लिए इन दूषितशीतल पेयों का जमकर उपयोग कर रहे हैं। सीएसई की रिपोर्ट आने के बाद सरकार और लोगों में कुछ जागरूकता तो आई है और वह इन बोतलबंद शीतल पेयों की गुणवत्ता को परखने के बाद ही बाजार में उतारने पर जोर दे रही हैं।

पर, पेय पदार्थों मंे अपशिष्ट पदार्थों की मिलावट सिर्फ विदेशी कंपनियों के इन शीतल पेयों तक ही सीमित नहीं है। अभी ज्यादा समय नहीं बीता। इसी साल फरवरी की बात है, जब बोतलबंद मिनरल वाटर के दूषित होने को लेकर काफी बबाल मचा था। सेंटर फाॅर साइंस एंड एन्वायरन्मेंट ने देसी-विदेशी विख्यात कंपनियों के बोतलबंद पानी के दिल्ली में 17 और मुंबई में 13 उत्पादों की जांच कर उनमें लिन्डेन, डीडीटी, क्लोरोपाइरोफोस, मेलाथियाॅन जैसे कीटनाशक पाए जाने की पुष्टि की थी। इसके बाद सरकार को होश आया और उसने भारतीय मानक ब्यूरो की सिफारिश के आधार पर बोतलबंद पानी की शुद्धता बरकरार रखने के लिए खाद्य अपमिश्रण कानून में कुछ फेरबदल कर पहली अपे्रल से इन्हें लागू करवा दिया। हालांकि भारत के अधिकांश लोग नगर पालिका या नगर निगम द्वारा आपूर्ति किया जाने वाला जल अथवा नदियों के पानी को ही पीते हैं। नगर पालिकाएं या नगर निगम इस पानी को स्वच्छ करने के लिए क्या कदम उठाती है, यह किसी से छिपा नही है। बाहरी जल की तो छोडि़ए, पृथ्वी पर बढ़ते प्रदूषण के कारण भूगर्भीय जल  भी अब स्वच्छ नहीं रहा है। कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोगों से अनाज, सब्जी और फल तक दूषित हो गए हैं। यदि इनकी बिना सफाई किए हुए यूं ही खा लिया जाए, तो यह सेहत बनाने के बजाए उसका बेड़ा गर्क कर देंगे। ज्यादा पैदावार के चक्कर में किसान रासायनिक खादों का बेतरतीबी से इस्तेमाल कर रहे है। इसके दुष्परिणाम भी उनके सामने आने लगे हैं। भूमि बंजर हो रही है। उपज की गुणवत्ता में कमी आई है। जमीन से उपयोगी तत्व नष्ट हो रहे हैं, आदि-आदि।

कभी जहां इस देश में दूध-दही की नदियां बहा करती थीं, अब वहां हर चीज में मिलावट का आलम है। यहां तक कि दूध भी इससे अछूता नहीं रह गया है। थोड़े से लाभ के लिए लोग सेहत के लिए बेहद नुकसानदेह पदार्थों से नकली दूध तैयार कर लोगों को पिला रहे हैं। यूरिया, साबुन, और तेल जैसी खतरनाक चीजों को मिलाकर बनने वाले इस दूध में दूध नाम की कोई चीज ही नहीं होती। लोग अज्ञानतावश मानव सभ्यता के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। इन्हें नहीं पता कि इस दूध को पीकर हमारे नौनिहाल, जो देश का भविष्य हैं, कितनी बीमारियों के चंगुल में फंस जाएंगे। डाॅ. वर्गीज कुरियन ने भी भारत में आॅपरेशन फ्लड शुरू करते समय यह नहीं सोचा होगा कि आम लोगों को दूध मुहैया कराने के लिए वह जिन डेयरियों को खुलवाने की बात कह रहे हैं, उनमें बरती जाने वाली लापरवाही गाय और भैंसों के लिए तो जानलेवा साबित होंगी ही, साथ ही वहां से मिलने वाला दूध भी आम आदमी के लिए मुफीद नहीं रहेगा। भारत में डेयरियों की हालत ज्यादा अच्छी नहीं है। ज्यादा दूध लेने के चक्कर में गायों को हर साल गर्भवती करवा दिया जाता है, क्योंकि बच्चा होने के बाद दस माह तक वह ज्यादा दूध देती हैं। हर रोज उन्हें आॅक्सीटोसिन के इंजेक्शन लगाए जाते हैं ताकि वे ज्यादा दूध दे सकें। परंतु यह इंजेक्शन उनके लिए कितने हानिकारक हैं, यह दूध दुहने वाले और डेयरी मालिक शायद नहीं जानते। अगर उन्हें पता है तो वह और भी गंभीर अपराध कर रहे हैं, क्योंकि जानबूझकर किसी को मौत के मुंह में धकेलना, भारतीय ही नहीं विदेशी कानून में भी अपराध की श्रेणी में आता है। यह सभी तरीके इन बेजुबान जानवरों के लिए तो खतरनाक है हीं, साथ ही इनका दूध पीने वालों के लिए भी कम नुकसानदेह नहीं हैं।

इंडियन काउन्सिल आॅफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) द्वारा सात साल के शोध के बाद निकाले नतीजों में पाया कि जिस गाय के दूध को सदियों से हम पूर्ण आहार मानकर पीते चले आ रहे हैं, वह भी कीटनाशकों से भर गया है। उसमें भी डाईक्लोरो डाई फिनाइल ट्राइक्लोरोईथेन (डीडीटी), हैक्साक्लोरो साइक्लोहैक्सेन (एचसीएच), डेल्ड्रिन, एल्ड्रिन जैसे खतरनाक कीटनाशक भारी मात्रा में मौजूद हैं। रिपोर्ट कहती है कि यदि अल्सर से पीडि़त किसी व्यक्ति को डेयरी का दूध और उसके उत्पाद खाने-पीने को दिए जाएं तो उसे दिल का दौरा पड़ने की संभावना दो से छह गुना तक बढ़ जाती है। भारतीय खाद्य अपमिश्रण कानून एक किलो में केवल 0.01 मिलीग्राम एचसीएच की अनुमति देता है, जबकि आईसीएमआर की रिपोर्ट में यह 5.7 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम निकला। इसके अलावा वैज्ञानिकों को दूध में आर्सेनिक, कैडमियम और सीसा जैसे खतरनाक अपशिष्ट भी मिले। यह इतने खतरनाक हैं कि इनसे किडनी, दिल और दिमाग तक क्षतिग्रस्त हो सकते हैं।

बात सिर्फ गाय और भैंस के दूध तक ही सीमित नहीं है। खेती के दौरान भारी मात्रा में कीटनाशकों के प्रयोग से बच्चे के लिए अमृत कहा जाने वाला मां का दूध भी शुद्ध नहीं रह गया है। अमेरिका में हुए एक शोध मंे अमेरिकी औरत के दूध में कीटनाशकों के साथ-साथ सौ से भी ज्यादा औद्योगिक रसायन पाए गए। इस शोध में तो यहां तक कहा गया कि यदि इस दूध को बोतल में बंद करके बाजार में बेचने की कोशिश की जाए तो, अमेरिकी सरकार इसकी इजाजत नहीं देगी। पर, अनेक नुकसानदेह रसायनों के बावजूद मां का दूध बच्चे के पोषण के लिए बहुत जरूरी है। यह नवजात शिशु को अनेक बीमारियों से लड़ने की ताकत प्रदान करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि प्रतिवर्ष करीब दो लाख लोग कीटनाशकों को खाकर काल के गाल में समा जाते हैं। यह संख्या पिछले दस-12 सालों में लगभग सात गुनी हो गई है। संगठन की रिपोर्ट के अनुसार हर साल करीब 30 लाख लोग इन जहरों की चपेट में आते हैं और खास बात है कि इनमें से ज्यादातर बच्चे होते हैं।

कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से पैदा हुई इन स्थितियों को देखते हुए अनेक देशों ने तो इनका प्रयोग लगभग बंद ही कर दिया है और वे प्राकृतिक खाद और कीटनाशकों का उपयोग करने लगे हैं। पर, भारत अभी पश्चिम की कदमताल कर रहा है। जिस तकनीक को वे उपयोग कर उसके बुरे प्रभावों को देखकर त्याग चुके हैं, भारतीय उनका अंधानुकरण कर रहे हैं। वे हमारी पुरातन संस्कृति और सभ्यता के गुणों से परिचित होकर उनका अध्ययन कर गूढ़ रहस्य को समझकर अपने जीवन में उतारने की कोशिश में लगे हैं, वहीं भारतवासी अपनी समृद्ध संपदा को छोड़कर पश्चिमी चकाचैंध के पीछे दीवाने हुए जा रहे हैं। तकनीक को अपनाना, चाहे वह अपने देश की हो या विदेश की, गलत नहीं है, पर उसके अच्छे और बुरे प्रभावों को जाने बिना उसका अंधानुकरण करना सही नहीं कहा जा सकता।

Friday, August 8, 2003

लोकतंत्र के प्रहरियों को फिर से जगाना होगा


जनवरी 2001 में प्रकाशित हुए जुझारू पत्रकारों की कमर तोड़ दी जाती है पंजाब मेंशीर्षक वाले लेख में मैंने पंजाब के एक पत्रकार की जीवटता का जिक्र किया था। छोटे से अखबार से पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखने वाले इस नौजवान ने जब पंजाब पुलिस की गुंडागर्दी तथा स्वास्थ्य तथा अन्य विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कच्चे चिट्ठे खोले, तो पुलिस के साथ‘-साथ कुछ सफेदपोश भी उसके दुश्मन बन गए। उस पर तथा उसके परिवार पर कई बार जानलेवा हमले हुए। सब कुछ जानकर भी पुलिस मूकदर्शक बनी रही। जब किसी भी तरह यह नौजवान इन लोगों की यातनाओं के आगे न झुका तो एक लड़की के अपहरण और बलात्कार के मामले में उसे और उसके पूरे परिवार को फंसा दिया गया। करीब दो साल मुकदमा लड़ने के बाद अब फास्ट ट्रैक अदालत ने इस नौजवान पत्रकार और उसके परिजनांे को निर्दोष मानते हुए सभी आरोपों से मुक्त कर दिया है। 

यह कहानी सिर्फ एक पत्रकार की नहीं है बल्कि लगभग हर उस कलमकार की स्थिति को बयां करती है, जो समाज से बुराइयों को मिटाने के लिए कमर कस चुका है। परेशानियों का स्वरूप बदल सकता है, मगर यह जान लेना चाहिए कि देशसेवा की राह आसान नहीं है। यह सही है कि सच्चाई कभी न कभी सामने आ ही जाती है, मगर अंग्रेजी में एक कहावत है जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड। मतलब, यदि न्याय मिलने में देरी होती है तो उसका कोई महत्व नहीं रह जाता। इस पत्रकार का यह मुकदमा सुनने में तो बहुत साधारण सा प्रतीत होता है, मगर यह कई महत्वपूर्ण सवाल हमारे बीच छोड़ जाता है। मसलन, अदालती कार्यवाही के दौरान झूठे मुकदमें मंे फंसे लोगों को होने वाली परेशानियों के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को आखिर सजा क्यों नहीं मिलती? इन लोगों का कीमती समय, जो अदालतों और पुलिस के चक्कर काटने में बरबाद होता है, उसकी भरपाई कौन करेगा? थोड़े से लाभ के लिए लोगों के भविष्य से खिलवाड़ करने वाली पुलिस के खिलाफ कार्रवाई करने वाला कोई है क्या?

पत्रकारों को समाज का दर्पण कहा जाता है। उनकी लेखनी से निकले एक-एक शब्द समाज को अंदर तक हिला देने की ताकत रखते हैं। मगर क्या हमने कभी गौर किया है कि कितनी परेशानियों को झेलते हुए वे सामाजिक बुराइयों को मिटाने का प्रयास करते हुए समाज को एकजुट रखते हैं। आज भारतीय समाज में जिस तेजी से बदलाव आ रहा है, उनके बीच हमारे पुरातन जीवन मूल्य खो से गए हैं। जिस सभ्यता पर हमें गर्व हुआ करता था, आज हम उसकी अनदेखी कर पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण करने में जुट गए हैं। हम यह भूल गए हैं कि उसी संस्कृति की वजह से भारत को विश्व का सिरमौर माना जाता है। जैसे-जैसे बाजारीकरण हम पर हावी हुआ, हमारी नीयत में भी फर्क आ गया। हम सिर्फ अपने तक सीमित होकर रह गए। पहले जहां लोग कोई काम करने से पहले खुद के साथ-साथ समाज के अन्य लोगों के बारे में भी सोचते थे, अब यह सोच पूरी तरह लुप्त हो गई है। स्वार्थसिद्धि की इसी आदत ने आज समाज को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां व्यक्ति सिर्फ अपने हित साधने के लिए काम करता है। उसे इससे कोई मतलब नहीं कि उसके ऐसे काम से दूसरे को कितनी तकलीफ होगी या उसका कितना नुकसान होगा। हो सकता है उसका जीवन भी तबाह हो जाए। ऊंचे ऊंचे पदों पर बैठे लोग भी सिर्फ अपने तक सीमित हो गए हैं। समाज के प्रति उसके दायित्व अब दूसरे पायदान पर आ गए हैं। समाज की यह स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती। खासकर ऐसे समय में जब भारत परिवर्तन के ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां समूचे विश्व की नजर उस पर लगी हुई है। 

देखा जाए तो लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहे जाने वाले पत्रकार भी समाज में आए बदलाव से अछूते नहीं रह गए हैं। समय का पहिया घूमने के साथ साथ पत्रकारिता के उद्देश्य और मायने भी बदल गए हैं। अब पत्रकारिता ने समाज सुधारक का चोला उतारकर व्यवसायिकता का लबादा ओढ़ लिया है। उसकी प्राथमिकताओं की सूची में व्यक्तिगत हित ऊपर आ गए हैं। इसकी वजह भी बहुत साफ है। पहले जो लोग पत्रकारिता करते थे, वे इसे कमाई का साधन नहीं बल्कि देश सेवा का एक जरिया मानते थे। वे जानते थे कि उनकी कलम में वह ताकत है, जो समाज को आंदोलित भी कर सकती है, तो उसमें फूट भी डाल सकती है। कलम की ताकत कम नहीं हुई है बल्कि सही मायने में इसमें इजाफा ही हुआ है, मगर इसकी धार आज कुंद हो गई है। आजादी से पहले जब किसी अखबार में ब्रिटिश सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ कोई समाचार प्रकाशित होता था तो ब्रिटिश सरकार परेशान हो जाती थी। वह तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर देशभक्त पत्रकारों पर कहर बरपाया करती थी। अंग्रेजी सरकार के नुमाइंदे यह चाहते थे कि पत्रकार सिर्फ वही लिखें, जो उन्हें पसंद हो। 

इस परिप्रेक्ष्य में आजादी के पहले की और आज की स्थिति में बहुत ज्यादा फर्क नहीं आया है। सरकारें बदल गई, सामाजिक व्यवस्था में भी परिवर्तन हो गया मगर आज भी ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग वही देखना, सुनना और पढ़ना चाहते हैं जो उन्हें पसंद हो। चाहे वह कितने भी घोटाले कर लें, देश की गरीब जनता की गाढ़ी कमाई का लाखों-करोड़ों रुपया हजम कर जाएं, पर उनके खिलाफ आवाज नहीं उठनी चाहिए। जो पत्रकार ऐसा करने की हिम्मत दिखाते हैं, उनकी राह कांटों से भर दी जाती है। उन पर तरह-तरह से अंकुश लगाने का प्रयास किया जाता है। अपना रौब गालिब कर पुलिस से उन्हें प्रताडि़त करवाया जाता है। समाज की रक्षक कहलाने वाली पुलिस भी भक्षक बन जाती है। उन्हें झूठे मुकदमों में फंसा दिया जाता है। ऐसी परेशानियों के मकड़जाल में उलझेे अधिकतर पत्रकार अपने उद्देश्यों से भटक जाते हैं। जो डटे रहे हैं, वे जाबांज कहलाते हैं। मगर परेशानियों से लोहा लेते हुए समाज के नासूर को उखाड़ फंेकने का जज्बा बहुत ही कम लोग दिखा पाते हैं।
लोकतंत्र की सजग प्रहरी कही जाने वाली पुलिस का यह कर्तव्य है कि वह समाज में होने वाले अपराधों पर कड़ी निगाह रखे और उनकी रोकथाम के लिए समुचित कार्रवाई करे। पर, सवाल यह उठता है कि क्या पुलिस अपने दायित्वों का सही तरीके से निर्वहन करती है? क्या वह देश में लागू नियम कानूनों द्वारा प्रदत्त अधिकारों का सही उपयोग करती है? क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए कुछ पुलिसवाले अपने अधिकारों का दुरुपयोग करके अनैतिक काम करने से भी बाज नहीं आते। ऐसे पुलिसकर्मियों की वजह से पूरे विभाग पर कालिख पुत जाती है। उनके अच्छे कामों को भी नजरंदाज कर दिया जाता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए ऐसे ही धनलोलुप पुलिसकर्मी निर्दोष लोगों को भी ऐसे मामलों में फंसा देते हैं, जिनसे उनका कभी कोई सरोकार ही नहीं रहा। आए-दिन पुलिस के उच्चाधिकारियों और अदालतों के सामने ऐसी अर्जियां आती हैं जिनमें कहा गया होता है कि फलां इलाके की पुलिस, अपराधियों से मिलकर निर्दोष लोगों का उत्पीड़न कर रही है। सब सबूत होते हुए भी वह उन्हें धमका रही है। आखिर ऐसा क्यों होता है ? क्या पुलिसवालों में इतनी भी गैरत बाकी नहीं रह गई है कि वह अच्छे और बुरे में फर्क कर सकें? किसी निर्दोष को फंसाकर वह तीन तरह से समाज को नुकसान पहुंचाते हैं। पहला तो वह, जिसे झूठे मुकदमें में फंसाया जाता है, उसका जीवन बर्बाद करके। दूसरे, उसके परिवारीजनों का चैन छीनकर और तीसरा समाज को गलत संदेश देकर। जो लोग झूठे मुकदमों में फंसते हैं, उनका अधिकांश समय कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने में ही बीत जाता है। मानसिक परेशानी होती है वह अलग। इन परेशानियों के चलते वह यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि आखिर क्यों उन्होंने समाज में फैली बुराइयों को दूर करने के लिए कदम उठाया? जो जाबांज होते हैं, वह तो गलत व्यवस्थाओं से लड़ते रहते हैं, मगर अधिकांश टूट जाते हैं। सामने आई परेशानियों से घबराकर अपने कदम वापस खींच लेते हैं।
आज समाज को जरूरत है पंजाब के उस नौजवान पत्रकार जैसे जीवट लोगों की, जो सामने आने वाली समस्याओं न डिगते हुए समाज से बुराइयों को उखाड़ फेंकने के अपने काम में जुटे रहते हैं। पर यह काम अकेले का नहीं है, इसके लिए सभी को एकजुटता के साथ आगे आना होगा। यदि ऐसा हो गया तो एक बार फिर से भारत को विश्व का सिरमौर बनने से कोई नहीं रोक सकता।

Friday, August 1, 2003

किसने कहा सीबीआई आजाद है ?



अयोध्या मामले में उप प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी, मानव संसाधन विकास मंत्री डाॅ. मुरली मनोहर जोशी, सुश्री उमा भारती व अन्य लोगों पर लगा आपराधिक साजिश का आरोप सीबीआई ने वापस ले लिया है। इससे विपक्ष काफी उत्तेजित है। उसका आरोप है कि सीबीआई ने सरकार के दबाव के चलते ऐसा किया है और वह मुक्त होकर कार्य नहीं कर रही। पर इसमें उत्तेजित होने की कोई बात नहीं है। जो भी सीबीआई के काम करने के तरीके को जानता है, उसे पता है कि सीबीआई भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांच करने वाली एक निष्पक्ष एजेंसी नहीं है बल्कि यह तो सत्ता पक्ष के हाथ में अपने विरोधियों को डराने धमकाने और सीधा रखने का एक औजार है। यही कारण है कि सीबीआई की स्वायत्तता को लेकर जब जब मांग उठी, तब तब उसे माना नहीं गया। 

यह रोचक तथ्य है कि 10 फरवरी 2000 को जी टीवी पर प्राइम टाइमकार्यक्रम में हवाला कांड की जांच से जुड़े रहे सीबीआई के पूर्व संयुक्त निदेशक व हरियाणा पुलिस के तत्कालीन महानिदेशक श्री बीआर लाल ने जोर देकर यह बात कही कि हवाला कांड में तमाम बड़े राजनेताओं के विरूद्ध सबूत मौजूद थे, पर सीबीआई के निदेशक के आदेश व ऊपर से पड़ रहे दबाव के चलते उन्हें अदालत के सामने पेश नहीं करने दिया गया। यह बात उन्होंने इसी शो में मौजूद सीबीआई के तत्कालीन निदेशक श्री जोगिंदर सिंह की उपस्थिति में कही। आश्चर्य की बात है कि सीबीआई,सरकार व सर्वोच्च न्यायालय ने इतने महत्वपूर्ण रहस्योद्घाटन पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। यहां तक कि देश के मीडिया ने भी इतनी महत्वपूर्ण खबर को कोई तरजीह नहीं दी। अगर ऐसा किया होता तो श्री लाल सारे प्रमाण अदालत के सामने रखकर ये सिद्ध कर देते कि हवाला कांड को किस तरह दबाया गया। 

5 फरवरी 2000 को जब मैंने स्टार न्यूज के बिग फाइट शोमें कंेद्रीय सतर्कता आयुक्तश्री एन. विट्ठल से पूछा कि वे देश से भ्रष्टाचार मिटाने की घोषणाएं तो कर रहे हैं, पर जिस हवाला कांड के कारण उन्हें यह पद मिला है उसकी जांच में हुए भ्रष्टाचार को दूर करने से वे क्यों कतराते हैं ? मजबूरन श्री विट्ठल को घोषणा करनी पड़ी कि वे हवाला कांड की जांच फिर से करवाएंगे। इसके तुरंत बाद देश की राजनीति में तूफान खड़ा हो गया। तीन हफ्ते तक संसद और अखबारों में यह शोर मचता रहा कि श्री विट्ठल को यह जांच करवाने का कोई अधिकार नहीं है। अंततः श्री विट्ठल के पर कतर दिए गए। उल्लेखनीय है कि अगस्त 1997 में जब हवाला कांड को पुनः ठंडे बस्ते में डालकर, भविष्य में सीबीआई को स्वायत्तता देने की बात सर्वोच्च न्यायालय में की जा रही थी, तभी मैंने लिखकर अदालत से अपना विरोध दर्ज किया था। मेरा तर्क था कि जब पूर्ण रूप से स्वायत्त संस्था सर्वोच्च न्यायालय ही आतंकवाद से जुड़े इस गंभीर कांड की जांच नहीं करवा पा रही है तो भविष्य में सरकार द्वारा नियुक्त सीवीसी नुमा कोई अधिकारी यह कैसे करवा पाएगा ? वही बात इस घटना के बाद सामने आई। 

दरअसल सीबीआई के गठन को लेकर कोई अलग कानून नहीं है। इसका कानूनी नाम दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट (डीएसपीई) है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान युद्ध एवं  आपूर्ति विभाग में होने वाले भ्रष्टाचार की जांच करने के लिए भारत की अंग्रेज सरकार ने 1941 में इसकी स्थापना की थी। विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद केन्द्र सरकार के विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार की जांच के लिए 1946 में दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट बनाकर डीएसपीई को केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन कर दिया गया। इसी के साथ केन्द्र सरकार के सभी विभाग अब इसकी जांच के दायरे में आ गए। केन्द्रशासित प्रदेश और जरूरत पड़ने पर राज्यों को भी डीएसपीई की सेवाएं लेने की अनुमति दी गई। 1 अप्रेल 1963 से इसे सीबीआई कहा जाने लगा। पहले यह गृह मंत्रालय के अधीन था, फिर इसकी महत्ता को समझते हुए श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसे अपने अधीन कर लिया। तब से यह प्रधानमंत्री के ही अधीन चला आ रहा है। 

यूं सीबीआई ने कई बड़े कांड पकड़े हैं। पर बड़े पदों पर बैठे राजनेताओं, खासकर आला अफसरों को सजा दिलवा पाने में इसकी सफलता नगण्य रही है। अक्सर ऐसा होता है कि जब राज्य की पुलिस भ्रष्टाचार करे और जांच में कोताही बरते तो सीबीआई को तलब किया जाता है। पर अगर सीबीआई ही भ्रष्टाचार करे या तथ्यों को दबाए और अपराधियों को संरक्षण दे तो कहां जाया जाए? ऐसी ही समस्या तब सामने आई जब 1993 में मुझे पता चला कि सीबीआई जैन हवाला केस को 1991 से दबाए बैठी है। मैं देशद्रोह के इस मामले में जांच की मांग लेकर सर्वोच्च अदालत में गया। अदालत ने जांच करवाई और भारत की राजनीति में हड़कंप मच गया। पर फिर सीबीआई को भविष्य में स्वायत्ता दिए जाने के आदेश जारी करके केस को फिर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। 

दिसंबर 1997 में जैन हवाला केस के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण फैसले के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को सीबीआई को स्वायत्ता दिए जाने के निर्देश दिए। इस व्यवस्था के तहत उसे केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त के अधीन काम करना था। केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त का चुनाव एक पारदर्शी प्रक्रिया से होना था और कानून बनाकर उसके अधिकार काफी व्यापक किए जाने थे। पर सीबीसी नाम का यह बिल वर्षों संसद में फुटबाॅल की तरह उछलता रहा। अंत में जो कानून बना वो सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश की धज्जियां उड़ाने वाला था। न तो सीबीआई को स्वायत्ता ही मिली और न ही सीवीसी को सीबीआई से खुलकर काम कराने के अधिकार। अब तो सीबीआई पहले से भी और पंगु हो गई है।

ऐसे माहौल में अगर उसने अयोध्या मामले में श्री आडवाणी, डाॅ. जोशी, सुश्री उमा भारती व अन्य लोगों के खिलाफ आरोप वापस ले लिए हैं तो इसमें उत्तेजित होने की कोई बात ही नहीं। संसद के जो सदस्य भी इस कार्रवाई के खिलाफ हैं, उन्हें चाहिए कि वे इस मामले पर शोर मचाने के साथ ही इस बात का माहौल बनाएं कि 18 दिसंबर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के तहत सीबीआई और सीवीसी को पूर्ण स्वायत्ता दी जाए। ऐसा होने पर सीबीआई के सरकार के दबाव में आने की संभावना लगभग समाप्त हो जाएगी। पर कोई ऐसा नहीं करेगा। कोई दल नहीं चाहता कि सीबीआई जैसा सशक्त हथियार हाथ से जाने दिया जाए। जो आज सत्ता पक्ष कर रहा है वही कल वे दल करेंगे जो आज विपक्ष में बैठे हैं। इसलिए शोर चाहे जितना मचे, होना जाना कुछ नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे पिछले पचास सालों में कितने ही घोटालों पर कितना बवंडर मचा, पर अंत में रहे वही ढाक के तीन पात। हां, यह जरूर होगा कि कुछ दिनों तक अखबारों के पन्ने विपक्ष और पक्ष के आरोप प्रत्यारोंपों से भरे रहेंगे। टीवी के न्यूज चैनलों पर त्योंरियां चढ़ा चढ़ाकर गरमागरम बहसें होंगी। विपक्ष सरकार को हर तरह से सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करेगा, और इस सबका मकसद होगा केवल राजनैतिक लाभ कमाना। क्योंकि कोई भी दल नहीं चाहता कि सीबीआई इतनी सशक्त हो जाए कि वह निरंकुश होकर किसी भी बड़े आदमी के खिलाफ किसी भी सीमा तक जाकर जांच कर सके। 

वैसे भी अयोध्या मामले पर जनता की राय बंटी हुई है। हिन्दु भावना से प्रभावित लोग मानते हैं कि बाबरी मस्जिद को गिरवाकर भाजपा के नेताओं कोई अनैतिक कृत्य नहीं किया। उन्होंने तो ‘‘हिन्दुओं के सोए हुए स्वाभिमान’’ को जगाया। पर कानून की नजर में इन नेताओं का अपराध वास्तव में अपराध है क्योंकि उन पर सत्ता के विरुद्ध लोगों को भड़काने का आरोप बनता है। उन्होंने ऐसा कि इसके तमाम प्रमाण देश में मौजूद हैं। वैसे भी अपने पद की गोपनीयता और संविधान की शपथ खाकर केन्द्र में मंत्री बनने वाले व्यक्तियों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे खुद ही कानून को तोड़ने वाले होंगे। पर यह केवल बौद्धिक चर्चा का विषय है। बड़ोदा डायनामाइट में आरोपित श्री जार्ज फर्नांडीज हों या दूसरे कांडों में फंसे दूसरे नेता जब जीतकर आते हैं और सत्ता पक्ष में होते हैं तो वे आमतौर पर उनके विरुद्ध आरोप पत्र दबा दिए जाते हैं। जब वे विपक्ष में आते हैं तो सत्ता पक्षा उन्हें नियंत्रण में रखने के लिए उनके खिलाफ आरोपों को उछालता रहता है। ठीक वैसे ही जैसे बोफोर्स कांड को उछलते हुए आज सोलह वर्ष हो गए और नतीजा कुछ भी नहीं निकला। हर चुनाव के पहले कांग्रेस के विरोधी दल इस मामले को उछाल देते हैं ताकि श्रीमती सोनिया गांधी की छवि को धूमिल किया जा सके। पर ईमानदारी से जांच वे भी नहीं करवाना चाहते। इसका साफ प्रमाण है कि इस घोटाले में फंसे बड़े अफसरों के खिलाफ जांच की अनुमति को प्रधानमंत्री कार्यालय बरसों दबाए बैठा रहा। 

ऐसा नहीं है कि सीबीआई को यह सब करने दिया जाए और देशवासी खामोशी से देश की शीर्ष जांच एजेंसी के पतन और दुरुपयोग का तमाशा देखते रहें। अगर हम चाहते हैं कि सीबीआई वास्तव में जांच करे और अपराधियों को सजा दिलवाए तो हमें सीबीआई की स्वायत्ता के लिए जनमत तैयार करना चाहिए ताकि भविष्य में सीबीआई आजादी से और निरंकुश रहकर भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी बड़ी जांच कर सके। आज देश के सामने जो सुरसा की तरह फैलते भ्रष्टाचार की समस्या है उसका निदान यही होगा कि सीबीआई को उसका काम करने दिया जाए। आज तो भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच करने वाली एजेंसी नहीं बल्कि बड़े घोटालों का कब्रगाह है। हर कुछ महीने बाद एक नए घोटाले की कब्र सीबीआई में बन जाती है। अयोध्या मामले की कब्र को बनते देखकर चीखने चिल्लाने से क्या फायदा ?