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Monday, April 11, 2022

पाक अधिकृत कश्मीर का ख़ौफ़नाक सच


‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ में जो दिखाया गया है वो उस ख़ौफ़नाक सच के सामने कुछ भी नहीं है जो अब अमजद अय्यूब मिर्ज़ा ने पाक अधिकृत कश्मीर में हुए हिंदुओं के वीभत्स नरसंहार के बारे में केलिफ़ोरनिया के अख़बार में प्रकाशित किया है। अय्यूब मिर्ज़ा ने पिछले महीने 21 मार्च को प्रकाशित अपने लेख में ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ को एक दमदार फ़िल्म बताते हुए इस बात की तारीफ़ की है कि कैसे इस फ़िल्म ने पाकिस्तान समर्थित जिहादियों और श्रीनगर के स्थानीय कट्टरपंथियों के आतंक को रेखांकित किया गया है। इस लेख में मिर्ज़ा लिखते हैं कि ये तो प्याज़ की पहली परत उखाड़ने जैसा है। उनके अनुसार जम्मू कश्मीर से अल्पसंख्यक हिंदुओं व सिखों को मारने और भगाने का सिलसिला 1990 से ही नहीं शुरू हुआ। इसकी जड़ें तो 1947 के भारत-पाक बँटवारे के अप्रकाशित इतिहास में दबी पड़ी हैं।
 

अमजद अय्यूब मिर्ज़ा पाक अधिकृत कश्मीर के मीरपुर ज़िले के निवासी हैं । जो अपने स्वतंत्र विचारों व मानव अधिकारों की वकालत करने के कारण आजकल इंगलेंड में निष्कासित जीवन जी रहे हैं। इसलिए इनकी सूचनाओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता। 


मिर्ज़ा बताते हैं कि जम्मू कश्मीर के हिंदुओं पर मौत का तांडव 22 अक्तूबर 1947 से शुरू हुआ, जिस दिन पाकिस्तानी फ़ौज ने जम्मू कश्मीर पर हमला किया। उस वक्त आज के पाक अधिकृत कश्मीर में हिंदुओं और सिक्खों की बड़ी आबादी रहती थी और वे सब सुखी व सम्पन्न थे। जबकि स्निडन द्वारा 2012 में प्रकाशित जनसंख्या सर्वेक्षण में कहा गया है कि इस क्षेत्र में अब हिंदुओं और सिक्खों की आबादी का कोई आँकड़ा नहीं मिला है। या तो उन सब को भगा दिया या मार डाला गया। इस रिपोर्ट को पूरी दुनिया के शोधकर्ताओं और बुद्धिजीवीयों ने गम्भीरता से लिया है और माना है कि पाक अधिकृत कश्मीर में अब एक भी हिंदू या सिख नहीं है। इससे ये अनुमान लगाया है कि 1947 के पाकिस्तानी हमले के बाद वहाँ रह रहे 1,22,500 हिंदू और सिख उस इलाक़े से ग़ायब हो गए।

मिर्ज़ा लिखते हैं कि हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि बँटवारे के समय दोनों देशों के पंजाब प्रांतों में हो रहे भारी सांप्रदायिक दंगों से बचने के लिए बड़ी संख्या में सिख और हिंदुओं ने पंजाब की सीमा से सटे पाक अधिकृत कश्मीर में शरण ली थी। यहाँ के भिम्बर शहर में कम से कम 2000, मीरपुर में 15,000, राजौरी में 5,000 और कोटली में अनगिनित हिंदू और सिखों ने शरण ली थी। 

भिम्बर तहसील में 35 फ़ीसद आबादी हिंदुओं की थी। पर 1947 के पाकिस्तानी हमले में एक भी नहीं बचा। मिर्ज़ा लिखते हैं कि सबसे बड़ा नरसिंहार तो मेरे गृह नगर मीरपूर में हुआ जहां 25,000 हिंदू और सिखों को एक जगह एकत्र करके मारा-काटा गया। उनकी बहू-बेटियों को पाकिस्तानी  फ़ौज और धर्मांद लशकरियों ने ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ का नारा लगा कर अपनी वहशियाना  हवस का शिकार बनाया। उस नरसिंहार से बच कर उन लोगों के परिवारजन जो किसी तरह जम्मू पहुँच गए, वे आजतक 25 नवम्बर को ‘मीरपुर नरसिंहार दिवस’ के रूप में मनाते हैं। इस मनहूस दिन 1947 में पाकिस्तानी फ़ौज और लश्कर ने मीरपुर में जगह-जगह आगजनी, लूट और नरसंहार किया था और ‘काफिरों’ के घरों और दुकानों को जला दिया था।

मिर्ज़ा बताते हैं कि, सौभाग्य से इस मनहूस दिन से केवल दो दिन पहले ही 2,500 हिंदू और सिख जम्मू कश्मीर की सेना के संरक्षण में जम्मू तक सुरक्षित पहुँचने में कामयाब हो गए थे। जो पीछे रह गए उन्हें पाकिस्तानी फ़ौज अली बेग इलाक़े में ये कह कर ले गयी कि वहाँ एक गुरुद्वारे में शरणार्थियों के लिए कैम्प लगाया गया है। पर जिस पैदल मार्च को हिंदू और सिक्खों ने इस उम्मीद में शुरू किया कि अब उनकी जान बच जाएगी वो मौत का कुआँ सिद्ध हुआ। इस पैदल मार्च के रास्ते में ही 10,00 हिंदू और सिक्खों को क़त्ल कर दिया गया। इनकी 5,000 बहू बेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाने के बाद रावलपिंडी, झेलम और पेशावर के बाज़ारों में बेच दिया गया। इस तरह कुल 5000 हिंदू और सिख ही अली बेग तक पहुँच पाए। जहां पहुँच कर भी वे सुरक्षित नहीं रहे और उनके पहरेदारों ने ही उनका क़त्ल करना जारी रखा। इस तरह मीरपुर के 25,000 हिंदू और सिक्खों में से केवल 1600 बचे, जिन्हें ‘इंटरनैशनल कमेटी ओफ़ रेड क्रॉस’ वाले सुरक्षित रावलपिंडी ले गए जहां से फिर उन्हें जम्मू भेज दिया गया।

मिर्ज़ा बताते हैं कि 1951 में पाक अधिकृत कश्मीर में केवल 790 ग़ैर मुसलमान बचे थे। पर आज एक भी नहीं है। मीरपुर के इस नरसंहार  से भयभीत बहुत सी औरतों और आदमियों ने तो पहाड़ से कूद कर या ज़हर खा कर आत्महत्या कर ली थी। हिंदू और सिखों का ऐसा ही नरसंहार  राजौरी, बारामूला, व मुज़फ़्फ़राबाद में भी हुआ। इसलिए मिर्ज़ा का कहना है कि ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ में जो दिखाया गया है उससे कहीं ज़्यादा ख़ौफ़नाक नरसंहार 1947 के बाद पाक अधिकृत कश्मीर में हिंदुओं और सिक्खों को झेलना पड़ा था। 

जहां यह रिपोर्ट हर हिंदू का ही नहीं बल्कि हर इंसान का दिल दहला देती है, वहीं ये बात भी महत्वपूर्ण है अमजद अय्यूब मिर्ज़ा जैसे मुसलमान भी हैं, जो अपने धर्म के कट्टरवादियों की धमकियों के बावजूद एक सच्चे इंसान की तरह सच को सच कहने से नहीं डरते।ऐसे मुसलमान भारत में भी बहुत बड़ी तादाद में हैं और पाकिस्तान में भी इनकी संख्या कम नहीं है। दिक्कत इस बात की है कि इस्लाम धर्म और उसको बताने वाले कट्टरपंथी मुल्ला इन बातों को कभी अहमियत नहीं देते बल्कि लगातार ज़हर घोलते रहते हैं। जिससे कभी साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित हो ही नहीं पाता। ज़रूरत इस बात की थी कि जज़्बाती और समझदार मुसलमान इन मुल्लाओं की ख़िलाफ़त करने की हिम्मत दिखाते। जिसके प्रभावी न होने के कारण बहुसंख्यक हिंदू समाज उनके प्रति हमेशा सशंकित रहता है। इसलिये ये ज़िम्मेदारी मुस्लिम समाज के पढ़े-लिखे और प्रगतिशील वर्ग की है कि वे अपने सुरक्षित घरों से बाहर निकलें और भारत में इंडोनेशिया, मलेशिया और तुर्की जैसे प्रगतिशील मुस्लिम समाज की स्थापना करें, जिससे हर हिंदुस्तानी अमन और चैन के साथ जी सके। तभी भारत में शांति स्थापित हो पाएगी। इसी में सभी का हित है। 

Monday, October 25, 2021

कैसे सफल हो नई कश्मीर नीति ?


धारा 370 और 35 ए हटने के बाद कश्मीर घाटी में जो हुआ उसके सकारात्मक परिणाम आने लगे थे। विकास की तमाम योजनाएँ चालू हो गई थीं। आईआईटी, आईआईएम व एम्स जैसे नए नए संस्थान बनने लगे थे। इन निर्माण कार्यों में लाखों मज़दूर उत्तर प्रदेश और बिहार से कश्मीर पहुँच गए थे। प्रधान मंत्री मोदी की कश्मीर नीति के तहत देश के कई उद्योगपति कश्मीर में विनियोग की संभावनाएँ खोजने में उत्साह दिखा रहे थे। सीमा पर बीएसएफ़ और फ़ौज की सख़्ती के कारण हथियारों और आतंकवादियों का कश्मीर में घुसना मुश्किल हो गया था। स्थानीय निकायों के चुनावों की सफलता ने आतंकवादियों के हौंसले पस्त कर दिए थे। पत्थरबाज़ी की घटनाएँ और आए दिन होने वाले बंद नदारद हो गए थे। हुरियत जैसे संगठनों पर कसे गए शिकंजे से अलगाववादी राजनीति ठंडी पड़ गयी थी। राज्यपाल मनोज सिन्हा के आने से भी घाटी में कई सकारात्मक काम हुए, जिनका अच्छा असर पड़ने लगा था। इस सबका नतीजा यह हुआ कि घाटी में पर्यटन में भी तेज़ी से उछल आया। कोविड काल में तो पूरी दुनिया में ही पर्यटन ठप्प हो गया था। पर इस जुलाई से अब तक घाटी में 35 लख पर्यटक आया जो की एक रिकॉर्ड है। ज़ाहिर है इससे घाटीकी अर्थव्यवस्था को भी नई ऊर्जा प्राप्त हुई है। यह कहना है जम्मू कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे डॉ शेष पाल वैद का। इस सबकी वजह से आतंकवादियों ने अपनी रणनीति बदली है।


अफगानिस्तान में तालिबान की सफलता से आतंकवादियों के हौंसले दुनिया भर में बुलंद हुए हैं। उन्हें लगता है कि जब उन्होंने अमरीका जैसे सुपर पावर को हरा दिया तो वे दुनिया में किसी भी सरकार को नाकों चने चबवा सकते हैं। उधर पाकिस्तान भी तालिबान के साथ मिलकर दक्षिण एशिया में अपनी नई भूमिका को लेकर बहुत उत्साहित है। जग-ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में आतंकवाद के कारख़ाने चल रहे हैं और इसी के सहारे वहाँ की राजनीति चल रही है। ताज़ा उदाहरण आईएसआई का है, जिसके चीफ़ को पाकिस्तान की फ़ौज ने प्रधान मंत्री इमरान खान की बिना जानकारी के रातों-रात बदल दिया। आईएसआई के नए चीफ़ ने अपनी कश्मीर नीति में फ़ौरन बदलाव किया। क्योंकि पुरानी नीति आब कामयाब नहीं हो रही थी। पुरानी नीति के तहत आतंकवादियों को और हथियारों को कश्मीर की सीमाओं में घुसा कर बड़ी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा था। पर नई व्यवस्थाओं ने जब ऐसा करना मुश्किल कर दिया तो आईएसआई ने अपनी रणनीति बदल दी। 


नई रणनीति में खर्च भी कम है और जान गंवाने का ख़तरा भी कम है। इस नीति के तहत बजाय बड़े हमले करने के दो-दो आतंकवादियों के अनेक समूह बनाकर और उन्हें साधारण हथियार देकर घाटी में फैला दिया गया है। जो फ़ौज, पुलिस या सरकारी प्रतिष्ठानों पर बड़े हमले करने के बजाय ‘सॉफ़्ट टार्गेटस’ जैसे मज़दूरों, अध्यापकों, दुकानदारों या रेहड़ी वालों पर हमले कर रहे हैं। इन हमलों में एक-एक, दो-दो लोग ही मारे जा रहे हैं। दिखने में ये हमले छोटे लगते हैं। पर इनका असर गहरा पड़ा है। इन हमलों से मजदूरों और साधारण लोगों में अचानक भय व्याप्त हो गया है और एक बार फ़िर 90 के दशक की तरह अल्पसंख्यकों में घाटी से पलायन करने की होड़ लग गयी है। इसका सीधा असर विकास प्रक्रिया पर पड़ेगा। क्योंकि सारा निर्माण कार्य इन्हीं लोगों के द्वारा किया जा रहा है। स्थानीय कश्मीरी तो अपने बगीचों से सेब तुड़वाने को भी बिहार, यूपी से मज़दूर मंगाते रहे हैं। 


विकास की प्रक्रिया बड़ी मात्रा में रोज़गार का सृजन करती। जबकि उसके रुक जाने से कश्मीर के युवाओं के भविष्य में मिलने वाले रोज़गार की संभावनाएँ धूमिल हो जाएँगी। जो अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवाद के विस्तार में मददगार होगी। क्योंकि इन बेरोज़गार युवाओं को ही फुसला कर आतंकवादी बनाया जाता रहा है। ये जग ज़ाहिर है कि चीन और पाकिस्तान मिल कर भारत को कमजोर करने की साज़िश कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को कई कड़े कदम उठाने होंगे। वैसे ये कदम पिछले 3 वर्ष में उठाने चाहिए थे, जिनकी ओर गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया गया। जिसके कारण आतंकवाद पर क़ाबू नहीं पाया जा सका है। 


सबसे पहले तो देश भर में चल रहे मदरसों पर शिकंजा कसने की ज़रूरत है। इन्हें कहाँ से और कैसा पैसा आता है इस पर कड़ी नज़र ज़रूरी है। इन मदरसों में क्या शिक्षा के नाम पर आतंकवाद का ज़हर तो नहीं पिलाया जा रहा? ये काम कश्मीर में अविलंब  हो चाहिए। जिससे जिहादी मानसिकता को पनपने से पहले ही रोका जा सकेगा। 


दूसरा काम जो नहीं किया गया वो था कश्मीर के युवाओं को आतंकवादियों के चंगुल में फँसने से बचाना। जहां एक तरफ़ विकास के कई काम घाटी में शुरू किए गए वहीं इस बात पर निगाह नहीं रखी गयी कि घाटी के बेरोज़गार नौजवानों को आतंकवादी संगठन किस तरह से फुसला कर प्रशिक्षित कर रहे हैं। इसको बहुत सख़्ती से रोकने की ज़रूरत है। जिससे इन नौजवानों की ऊर्जा रचनात्मक काम में लगे और ये आत्मघाती हमलों में अपनी जान न गँवाएँ। 


तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण काम जो नहीं किया गया, जिसे आईबी और मिलिटरी इंटेल्लीजेंस को करना चाहिए था, वो ये कि कश्मीर में सरकारी नौकरियों में जमाती मानसिकता के जो लोग घुस गए हैं, उन्हें पहचान कर नौकरी से अलग करना। जैसा हाल ही में गिलानी के पोते को हटाया गया है, जिसे बिना लोक सेवा आयोग की प्रक्रिया के सीधी भर्ती करके अफ़सर बना दिया गया था। कश्मीर में शिक्षा, प्रशासन, पुलिस, चिकित्सा आदि विभागों में काफ़ी तादाद में जमायती मानसिकता के लोगों की है, जो वेतन तो सरकार से लेते हैं और अलगाववादी ताक़तों को पालते पोसते हैं। इनकी छटनी किए बिना आतंकवाद पर क़ाबू नहीं पाया जा सकेगा। कश्मीर मामलों के कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि प्रधान मंत्री को फ़्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों की तरह कट्टरपंथियों और आतंकवादियों के विरूद्ध कुछ कड़ी नीतियाँ अपनानी होंगी। 


ये दावा तो कोई भी नहीं कर सकता कि हर नीति सफल होगी और आतंकवाद पर पूरी तरह क़ाबू पा लिया जाएगा पर जिस तरह तालिबान का अफगानिस्तान में उदय हुआ और उसके बाद उनकी हुकूमत अपने ही धर्म के मानने वाले पुरुष, स्त्रियों और बच्चों पर वहशियाना नीतियाँ थोप रही है उससे पूरी दुनिया में आतंकवाद को लेकर जो डर था वो और ज़्यादा बढ़ गया है। यहाँ यह कहना भी ज़रूरी है कि चाहे स्वरूप में अंतर हो पर आतंकवाद, अतिवाद और धर्मांदता हर धर्म के लिए घातक होती है, केवल इस्लाम के लिए ही नहीं। 

Monday, February 10, 2020

शिकारा: कश्मीरी प्रेम कथा

कश्मीर की घाटी से 30 बरस पहले भयावह परिस्थतियों में पलायन करने वाले कश्मीरी पण्डितों को उम्मीद थी कि विधु विनोद चोपड़ा की नई फिल्म ‘शिकारा’ उनके दुर्दिनों पर प्रकाश डालेगी।वो देखना चाहते थे कि किस तरह हत्या, लूट, बलात्कार, आतंक और मस्जिदों के लाउडस्पीकरों पर दी जा रही धमकियों के माहौल में 24 घंटे के भीतर लाखों कश्मीरी पण्डितों को अपने घर, जमीन-जायदाद, अपना इतिहास, अपनी यादें और अपना परिवेश छोड़कर भागना पड़ा। वे अपने ही देश में शरणार्थी हो गये । 
जिसके बाद जम्मू और अन्य शहरों के शिविरों में उन्हें बदहाली की जिंदगी जीनी पड़ी। 25 डिग्री तापमान से ज्यादा जिन्होंने जिंदगी में गर्मी देखी नहीं थी, वो 40 डिग्री तापमान में ‘हीट स्ट्रोक’ से मर गऐ। जम्मू के शिविरों में जहरीले सर्पदंश से भी कुछ लोग मर गए। कोठियों में रहने वाले टैंटों में रहने को मजबूर हो गऐ। 1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद ये सबसे बड़ी त्रासदी थी, जिस पर आज तक कोई बॉलीवुड फिल्म नहीं बनी। उन्हें उम्मीद थी कि कश्मीर के ही निवासी रहे विधु विनोद चोपड़ा इन सब हालातों को अपनी फिल्म में दिखाऐंगे, जिनके कारण उन्हें भी कश्मीर छोड़ना पड़ा। वो दिखाऐंगे कि किस तरह तत्कालीन सरकार ने कश्मीरी पण्डितों की लगातार उपेक्षा की। वो चाहती तो इन 5 लाख कश्मीरीयों को देश के पर्वतीय क्षेत्रों में बसा देती। पर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। 
कश्मीरी पण्डित आज भी बाला साहब ठाकरे को याद करते हैं। जिन्होने महाराष्ट्र के कॉलेजों में एक-एक सीट कश्मीरी शरणार्थियों के लिए आरक्षित कर दी। जिससे उनके बच्चे अच्छा पढ़ सके। वो जगमोहन जी को भी याद करते हैं, जिन्होंने उनके लिए बुरे वक्त में राहत पहुँचवायी । वो ये जानते हैं कि अब वो कभी घाटी में अपने घर नहीं लौट पाऐंगे। लेकिन उन्हें तसल्ली है कि धारा 370 हटाकर मोदी सरकार ने उनके जख्मों पर कुछ मरहम जरूर लगाया है । उन्हें इस फिल्म  से बहुत उम्मीद थी कि ये उनके ऊपर हुए अत्याचारों को विस्तार से दिखाऐगी। उनका कहना है उनकी ये उम्मीद पूरी नहीं हुई। 
दरअसल हर फिल्मकार का कहानी कहने का एक अपना अंदाज होता है, कोई मकसद होता है। विधु विनोद चोपड़ा ने ‘शिकारा’ फिल्म बनाकर इस घटनाक्रम पर कोई ऐतिहासिक फिल्म बनाने का दावा नहीं किया है। जिसमें वो ये सब दिखाने पर मजबूर होते। उन्होंने तो इस ऐतिहासिक दुर्घटना के परिपेक्ष में एक प्रेम कहानी को ही दिखाया है। जिसके दो किरदार उन हालातों में कैसे जिए और कैसे उनका प्रेम परवान चढ़ा। 
इस दृष्टि से से अगर देखा जाऐ, तो ‘शिकारा’ कम शब्दों में बहुत कुछ कह देती है। माना कि उस आतंकभरी रात की विभिषिका के हृदय विदारक दृश्यों को विनोद ने अपनी फिल्म में नहीं समेटा, पर उस रात की त्रासदी को एक परिवार पर बीती घटना के माध्यम से आम दर्शक तक पहुंचाने में वे सफल रहे हैं।यह उनके निर्देशन की सफलता है । 
इन विपरीत परिस्थितियों में भी कोई कैसे जीता है और चुनौतियों का सामना करता है, इसका उदाहरण हैं  ‘शिकारा’ के मुख्य पात्र, जो हिम्मत नहीं हारते, उम्मीद नहीं छोड़ते और एक जिम्मेदार नागरिक भूमिका को निभाते हुए, उस कड़वेपन को भी भूल जाते हैं जिसने उन्हें आकाश से जमीन पर पटक दिया। 
फिल्म के नायक का अपनी पत्नी के स्वर्गवास के बाद पुनः अपने गाँव कश्मीर में लौट जाना और अकेले उस खण्डित घर में रहकर गाँव के मुसलमान बच्चों को पढ़ाने का संकल्प लेना, हमें जरूर काल्पनिक लगता है, क्योंकि आज भी कश्मीर में ऐसे हालात नहीं हैं। पर विधु विनोद चोपड़ा ने इस आखिरी सीन के माध्यम से एक उम्मीद जताई है कि शायद भविष्य में कभी कश्मीरी पण्डित अपने वतन लौट सके।
पिछले दिनों नागरिकता कानून को लेकर जो देशव्यापी धरने, प्रदर्शन और आन्दोलन हुए हैं, उनमें एक बात साफ हो गई कि देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज हो या अल्पसंख्यक सिक्ख समाज, सभी वर्गों से खासी तादाद में लोगों ने मुसलमानों के साथ इस मुद्दे पर  कंधे से कंधा मिलाकर  समर्थन किया। ये अपने आप में काफी है कश्मीर की घाटी के मुसलमानों को बताने के लिए कि जिन हिंदुओं को तुमने पाकिस्तान के इशारे पर अपनी नफरत का शिकार बनाया था, जिनकी बहु-बेटियों को बेइज्जत किया था, जिनके घर लूटे और जलाए, जिनके हजारों मंदिर जमीदोज कर दिये, वो हिंदू ही तुम्हारे बुरे वक्त में सारे देश में खुलकर तुम्हारे समर्थन में आ गऐ। उनका ये कदम सही है  गलत ये भी नहीं सोचा और हमदर्दी में साथ दिया । कश्मीर के पण्डित कश्मीर की घाटी में फिर लौट सके, इसके लिए माहौल कोई फौज या सरकार नहीं बनाऐगी। ये काम तो कश्मीर के मुसलमानों को ही करना होगा। उन्हें समझना होगा कि आवाम की तरक्की, फिरकापरस्ती और जिहादों से नहीं हुआ करती। वो आपसी भाईचारे और सहयोग से होती है। मिसाल दुनियां के सामने है। जिन मुल्कों में भी मजहबी हिंसा फैलती है, वे गर्त में चले जाते हैं और लाखों घर तबाह हो जाते हैं। रही बात ‘शिकारा’ फिल्म की तो ये एक ऐतिहासिक ‘डॉक्युमेंटरी’ न होकर केवल प्रेम कहानी है, जो एहसास कराती है, कि नफरत की आग कैसे समाज और परिवारों को तबाह कर देती है। 
जहाँ तक ऐतिहासिक तथ्यों की बात है पिछले दो दशकों में ‘जोधा अकबर’, ‘पद्मावत’ जैसी कई फिल्में आईं हैं, जिनमें ऐतिहासिक घटनाओं का संदर्भ लेकर प्रेम कथाओं को दिखाया गया है। जब भी ऐसी फिल्में आती हैं, तो समाज का वह वर्ग आन्दोलित हो जाता है, जिनका उस इतिहास से नाता होता है और तब वे फिल्म का डटकर विरोध करते हैं, कभी-कभी तोड-फोड़ और हिंसा भी करते हैं, जैसा पद्मावत के दौर पर हुआ। फिल्म उद्योग को समझने वाले इसके अनेक कारण बताते हैं। 
कुछ मानते हैं कि ऐसा फिल्म निर्माता के इशारे पर ही होता है। क्योंकि जितना फिल्म को लेकर विवाद बढ़ता है, उतना ही उसे देखने की उत्सुकता बढ़ जाती है। जिसका सीधा लाभ निर्माता को मिलता है। पर इन विवादों का एक कारण लोगों की भावनाओं का आहत होना भी होता है। जाहिर है कि जिस पर बीतती है, वही जानता है। ऐसा ही कुछ फिल्म ‘शिकारा’ के संदर्भ में माना जा सकता है। क्योंकि कश्मीरी पण्डितों के साथ पिछले तीस सालों में भारत सरकार या देश के बुद्धिजीवियों और क्रांतिकारियों ने कभी कोई सहानुभूति नहीं दिखाई, कभी उनके मुद्दे पर हल्ला नहीं मचाया, कभी उन पर कोई सम्मेलन और गोष्टियाँ नहीं की गई और कभी उन पर कोई फिल्म नहीं बनी, इसलिए शायद उन्हें ‘शिकारा’ से बहुत उम्मीद थी। पर सारी उम्मीदें एक ही फिल्म निर्माता से करना या तीस बरस के सारे कष्टों को एक ही फिल्म में दिखाने की माँग  करना, कश्मीरी पण्डितों की आहत भावना को देखते हुए उनके लिए स्वाभाविक ही है। पर निर्माता के लिए संभव नहीं है। ‘शिकारा’ ने कश्मीरी पण्डितों की समस्या पर भविष्य में एक नहीं कई फिल्में बनाने की जमीन तैयार कर दी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले सालों में हमें उन अनछूए पहलूओं पर भी तथ्य परख फिल्में देखने को मिलेंगी। तब तक ‘शिकारा’ काफी है हमें भावनात्मक रूप से कश्मीर की इस बड़ी समस्या को समझने और महसूस कराने के लिए। इसलिए ये फिल्म अपने मकसद में कामयाब रही है। जिसे देश और विदेश में आम दर्शक पसंद करेंगे।

Monday, August 12, 2019

अब कश्मीर में क्या होगा?


जहाँ सारा देश मोदी सरकार के कश्मीर कदम से बमबम है वहीं अलगाववादी तत्वों के समर्थक अभी भी मानते हैं कि घाटी के आतंकवादी फिलिस्तानियों की तरह लंबे समय तक आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहेंगे। जिसके कारण अमरीका जैसे-शस्त्र निर्माता देश भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव को बढ़ाकर हथियारों बिक्री करेंगे। उनका ये भी मानना है कि केंद्र के निर्देश पर जो पूंजी निवेश कश्मीर में करवाया जाएगा, उसका सीधा लाभ आम आदमी को नहीं मिलेगा और इसलिए कश्मीर के हालात सामान्य नहीं होंगे। पर ये नकारात्मक सोच है।

इतिहास गवाह है कि मजबूत इरादों से किसी शासक ने जब कभी इस तरह के चुनौतीपूर्णं कदम उठाये हैं, तो उन्हें अंजाम तक ले जाने की नीति भी पहले से ही बना ली होती है।

कश्मीर में जो कुछ मोदी और शाह जोड़ी ने किया, वो अप्रत्याशित और ऐतिहासिक तो है ही, चिरप्रतिक्षित कदम भी है। हम इसी कॉलम में कई बार लिखते आए हैं, कि जब कश्मीरी सारे देश में सम्पत्ति खरीद सकते हैं, व्यापार और नौकरी भी कर सकते हैं, तो शेष भारतवासियों को कश्मीर में ये हक क्यों नहीं मिले?

मोदी है, तो मुमकिन है। आज ये हो गया। जिस तरह का प्रशासनिक, फौजी और पुलिस बंदोबस्त करके गृहमंत्री अमित शाह ने अपनी नीति को अंजाम दिया है, उसमें अलगावादी नेताओं और आतंकवादियों के समर्थकों के लिए बच निकलने का अब कोई रास्ता नहीं बचा। अब अगर उन्होंने कुछ भी हरकत की, तो उन्हें बुरे अंजाम भोगने होंगे। जहां तक  कश्मीर की बहुसंख्यक आबादी का प्रश्न है, वो तो हमेशा ही आर्थिक प्रगति चाहती है। जो बिना अमन-चैन कायम हुए संभव नहीं है। इसलिए भी अब कश्मीर में अराजकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची।

कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर, गृहमंत्री ने वहंा की कानून व्यवस्था पर अपना सीधा नियंत्रण स्थापित कर लिया है। अब जम्मू-कश्मीर पुलिस की जबावदेही वहां के मुख्यमंत्रियों के प्रति नहीं, बल्कि केंद्रीय गृहमंत्री के प्रति होगी। ऐसे में अलगाववादी शक्तियों से निपटना और भी सरल होगा।

जहां तक स्थानीय नेतृत्व का सवाल है। कश्मीर की राजनीति में मुफ्ती मोहम्मद सईद और मेहबूबा मुफ्ती ने सबसे ज्यादा नकारात्मक भूमिका निभाई है। अब ऐसे नेताओं को कश्मीर में अपनी जमीन तलाशना मुश्किल होगा। इससे घाटी में से नये नेतृत्व के उभरने की संभावनाऐं बढ़ गई हैं। जो नेतृत्व पाकिस्तान के इशारे पर चलने के बजाय अपने आवाम के फायदे को सामने रखकर आगे बढ़ेगा, तभी कामयाब हो पाऐगा।

जहां तक कश्मीर की तरक्की की बात है। आजादी के बाद से आज तक कश्मीर के साथ केंद्र की सरकार ने दामाद जैसा व्यवहार किया है। उन्हें सस्ता राशन, सस्ती बिजली, आयकर में छूट जैसी तमाम सुविधाऐं दी गई और विकास के लिए अरबों रूपया झोंका गया। इसलिए ये कहना कि अब कश्मीर का विकास तेजी से करने की जरूरत है, सही नहीं होगा। भारत के अनेक राज्यों की तुलना में कश्मीरीयों का जीवन स्तर आज भी बहुत बेहतर है।

जरूरत इस बात है कि कश्मीर के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना वहाँ पर्यटन, फल-फूल और सब्जी से जुड़े उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए और देशभर के लोगों को वहां ऐसे उद्योग व्यापार स्थापित करने में मदद दी जाऐ। ताकि कश्मीर की जनता शेष भारत की जनता के प्रति द्वेष की भावना से निकलकर सहयोग की भावना की तरफ आगे बढ़े।
आज तक सबसे ज्यादा प्रहार तो कश्मीर में हिंदू संस्कृति पर किया गया। जब से वहां मुसलमानों का शासन आया, तब से हजारों साल की हिंदू संस्कृति को नृशंस तरीके से नष्ट किया गया। आज उस सबके पुनरोद्धार की जरूरत है। जिससे दुनिया को एक बार फिर पता चल सके कि भारत सरकार कश्मीर में ज्यात्ती नहीं कर रही थी, जैसा कि आज तक दुष्प्रचार किया गया, बल्कि मुस्लिम आक्रांताओं ने हिंदूओं पर अत्याचार किये, उनके शास्त्र और धम्रस्थल नष्ट किये और उन्हें खदेड़कर कश्मीर से बाहर कर दिया। जिसे देखकर सारी दुनिया मौन रही। श्रीनगर के सरकारी संग्रहालय में वहाँ की हिंदू संस्कृति और इतिहास के अनेक प्रमाण मौजूद हैं पर वहाँ की सरकारों ने उनको उपेक्षित तरीकों से पटका हुआ है। जब हमने संग्रहालय के धूप सेंकते कर्मचारियों से संग्रहालय की इन धरोहरों के बारे में बताने को कहा तो उन्होंने हमारी ओर उपेक्षा से देखकर कहा कि वहाँ पड़ी हैं, जाकर देख लो। वो तो गनीमत है कि प्रभु कृपा से ये प्रमाण बचे रह गए, वरना आतंकवादी तो इस संग्रहालय को ध्वस्त करना चाहते थे। जिससे कश्मीर के हिंदू इतिहास के सबूत ही नष्ट हो जाएँ। अब इस सबको बदलने का समय आ गया है। देशभर के लोगों को उम्मीद है कि मोदी और शाह की जोड़ी के द्वारा लिए गए इस ऐतहासिक फैसले से ऐसा मुमकिन हो पायेगा।

Monday, October 8, 2018

लद्दाख और श्रीनगर घाटी में अंतर

भारत का मुकुटमणि राज्य तीन हिस्सों में बंटा है- लेह लद्दाख, श्रीनगर की घाटी व आसापास का क्षेत्र और जम्मू। तीनों की संस्कृति और लोक-व्यवहार में भारी अंतर है। जबकि तीनों क्षेत्रों में एकसा ही नागरिक प्रशासन और सेना की मौजूदगी है। तीनों ही क्षेत्रों में आधारभूत ढांचे का विकास, आपातकालीन स्थितियों से निपटना और दुर्गम पहाड़ों के बीच क्षेत्र की सुरक्षा और नागरिक व्यवस्थाऐं सुनिश्चित करना, इन सब चुनौती भरे कार्यों में सेना की भूमिका रहती है।



जहां एक ओर कश्मीर की घाटी के लोग भारतीय सेना के साथ बहुत रूखा और आक्रामक रवैया अपनाते हैं, वहीं दूसरी ओर जम्मू में सेना और नागरिक आपसी सद्भभाव के साथ रहते हैं। लेकिन सबसे बढ़िया सेना की स्थिति लेह लद्दाख क्षेत्र में ही है। जहां के लोग सेना का आभार मानते हैं कि उसके आने से सड़कों व पुलों का जाल बिछ गया और अनेक सुविधाओं का विस्तार हुआ।



लेह लद्दाख की 80 फीसदी आबादी बौद्ध लोगों की है, शेष मुसलमान, थोड़े से ईसाई और हिंदू हैं। मूलतः लेख लद्दाख का इलाका शांति प्रिय रहा है। किंतु समय-समय पर पश्चिम से मुसलमान आक्रातांओं ने यहां की शांति भंग की है और अपने अधिकार जमाऐं हैं।



लेख लद्दाख के लोग भारतीय सेना से बेहद प्रेम करते हैं और उनका सम्मान करते हैं। उसका कारण यह है कि दुनिया के सबसे ऊँचे पठार और रेगिस्तान से भरा ये क्षेत्र इतना दुर्गम है कि यहां कुछ भी विकास करना ‘लोहे के चने चबाने’ जैसा है। ऊँचे-ऊँचे पर्वत जिन पर हरियाली के  नाम पर पेड़ तो क्या घास भी नहीं उगती, सूखे और खतरनाक हैं। इन पर जाड़ों में जमने वाली बर्फ कभी भी कहर बरपा सकती है। जोकि बड़े हिम खंडों के सरकने से और पहाड़ टूटकर गिरने से यातायात के लिए खतरा बन जाते हैं। तेज हवाओं के चलने के कारण यहां हैलीकाप्टर भी हमेशा बहुत सफल नहीं रहता।



ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों की श्रृंखला एक तरफ प्रकृति प्रेमियों को आकर्षित करती है, वहीं दूसरी तरफ आम पर्यटक को रोमांचित भी करती हैं। लद्दाख के लोग बहुत सरल स्वभाव के हैं, संतोषी हैं और कर्मठ भी। फिर भी यहां ज्यादा आर्थिक विकास नहीं हो पाया है। कारण यह है कि उन दुर्गम परिस्थतियों में उद्योग-व्यापार करना बहुत खर्चीला और जोखिम भरा होता है। वैसे भी जम्मू-कश्मीर राज्य में बाहरी प्रांत के लोगों को जमीन-जायदाद खरीदने की अनुमति नहीं है। लोग सामान्यतः अपने काम से काम रखते हैं। पर उन्हें एक शिकायत हम मैदान वालों से है।



आजकल भारी मात्रा में पर्यटक उत्तर-भारत से लेह लद्दाख जा रहे हैं। इनमें काफी बड़ी तादात ऐसे उत्साही लोगों की है, जो ये पूरी यात्रा मोटरसाईकिल पर ही करते हैं। हम मैदान के लोग उस साफ-सुथरे राज्य में अपना कूड़ा-करकट फैंककर चले आते हैं और इस तरह उस इलाके के पर्यावरण को नष्ट करने का काम करते हैं। अगर यही हाल रहा, तो आने वाले वर्षों में लेह लद्दाख के सुंदर पर्यटक स्थल कचड़े के ढेर में बदल जाऐंगे। इसके लिए केंद्र सरकार को अधिक सक्रिय होकर कुछ कदम उठाने चाहिए। जिससे इस सुंदर क्षेत्र का नैसर्गिक सौंदर्य नष्ट न हो।



लेह जाकर पता चला कि इस इलाके के पर्वतों में दुनियाभर की खनिज सम्पदा भरी पड़ी है। जिसका अभी तक कोई दोहन नहीं किया गया है। यहां मिलने वाले खनिज में ग्रेनाइट जैसे उपयोगी पत्थरों के अलावा भारी मात्रा में सोना, पन्ना, हीरा और यूरेनियम भरा पड़ा है। इसीलिए चीन हमेशा लेह लद्दाख पर अपनी गिद्ध दृष्टि बनाये रखता है। बताया गया कि जापान सरकार ने भारत सरकार को प्रस्ताव दिया था कि अगर उसे लेह लद्दाख में खनिज खोजने की अनुमति मिल जाऐ, तो वे पूरे लेह लद्दाख का आधारभूत ढांचा अपने खर्र्चे पर विकसित करने को तैयार है। पर भारत सरकार ने ऐसी अनुमति नहीं दी। भारत सरकार को चिंता है कि लेह लद्दाख के खनिज पर गिद्ध दृष्टि रखने वाले चीन से इस क्षेत्र की सीमाओं की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाऐ? क्योंकि आऐ दिन चीन की तरफ से घुसपैठिऐ इस क्षेत्र में घुसने की कोशिश करते रहते हैं। जिससे दोनों पक्षों के बीच झड़पैं भी होती रहती है।



जम्मू-कश्मीर की सरकार तमाम तरह के कर तो पर्यटकों से ले लेती है, पर उसकी तरफ से पूरे लेह लद्दाख में पर्यटकों की सुविधा के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया जाता है। जबसे आमिर खान की फिल्म ‘थ्री इडियट’ की शूटिंग यहां हुई है, तबसे पर्यटकों के यहां आने की तादात बहुत बढ़ गई है। पर उस हिसाब से आधारभूत ढांचे का विस्तार नहीं हुआ। एक चीज जो चैंकाने वाली है, वो ये कि पूरे लेह लद्दाख में पर्यटन की दृष्टि से हजारों गाड़ियों और सामान ढोने वाले ट्रक रात-दिन दौड़ते हैं। इसके साथ ही होटल व्यवसाय द्वारा भारी मात्रा में जेनरेटरों का प्रयोग किया जाता है। पर पूरे इलाके में दूर-दूर तक कहीं भी कोई पैट्रोल-डीजल का स्टेशन दिखाई नहीं देता। स्थानीय लोगों ने बताया कि फौज की डिपो से करोड़ों रूपये का पैट्रोल और डीजल चोरी होकर खुलेआम कालाबाजार में बिकता है। क्या रक्षामंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमन इस पर ध्यान देंगी?



लेह लद्दाख का युवा अब ये जागने लगा है और अपने हक की मांग कर रहा है। पर अभी हमारा ध्यान उधर नहीं है। अगर भारत सरकार ने उस पर ध्यान नहीं दिया, तो कश्मीर का आतंकवाद लेह लेद्दाख को भी अपनी चपेट में ले सकता है।

Monday, October 3, 2016

आतंकवाद से निपटने के लिए और क्या करें



छप्पन इंच का सीना रखने वाले भारत के लोकप्रिय प्रधान मंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने वो कर दिखाया जिसका मुझे 23 बरस से इंतज़ार था | उन्होंने पाकिस्तान को  ही चुनौती नही दी बल्कि आतंकवाद से लड़ने की दृढ इच्छा शक्ति दिखाई है | जिसके लिए वे और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलहाकार अजीत डोभाल दोनों बधाई के पात्र हैं | यहाँ याद दिलाना चाहूँगा कि 1993 में जब मैंने कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन को दुबई और लन्दन से आ रही अवैध आर्थिक मदद के खिलाफ हवाला काण्ड को उजागर कर सर्वोच्च न्यायलय में जनहित याचिका दायर की थी, तब किसी ने इस खतरनाक और लम्बी लड़ाई में साथ नहीं दिया | तब न तो आतंकवाद इतना बढ़ा था और न ही तब इसने अपने पैर दुनिया भर में पसारे थे | तब अगर देश के हुक्मरानों, सांसदों, जांच एजेंसियों और मीडिया ने आतंकवाद के खिलाफ इस लड़ाई में साथ दिया होता तो भारत को हजारों बेगुनाह और जांबाज़ सिपाहियों और अफसरों की क़ुरबानी नहीं देनी पड़ती | आज टीवी चैनलों पर जो एंकर परसन और विशेषज्ञ उत्साह में भर कर आतंकवाद के खिलाफ लम्बे चौड़े बयान दे रहे हैं वे 1993 से 1998 के दौर में अपने लेखों और वक्तव्यों को याद करें तो पायेंगे कि उन्होंने उस वक्त अपनी ज़िम्मेदारी का ईमानदारी से निर्वाह नहीं किया |

हवाला काण्ड उजागर करने के बाद से आज तक देश विदेश के सैंकड़ों मंचों पर, टीवी चैनलों पर और अखबारों में मैं इन सवालों को लगातार उठाता रहा हूँ | मुम्बई पर हुए आतंकी हमले के बाद देश के दो दर्जन बड़े उद्योगपतियों ने मुझे मुम्बई बुलाया था वे सब बुरी तरह भयभीत थे | जिस तरह आतंकवादियों ने ताज होटल से लेकर छत्रपति शिवाजी स्टेशन तक भारी नरसंहार किया उससे उनका विश्वास देश की पुलिस और सुरक्षा व्यवस्था पर से हिला हुआ था | वे मुझसे जानना चाहते थे कि देश में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाय| जो बात तब मैंने उनके सामने रखी वही आज एक बार फिर दोहराने की जरूरत है | अंतर इतना है कि आज देश के भीतर और देश के बाहर श्री नरेंद्र मोदी को आतंकवाद से लड़ने में एक मजबूत नेतृत्व के रूप में देखा जा रहा है | साथ ही देशवासियों और दुनिया के तमाम देशों का आतंकवाद के विरुद्ध इकतरफा साझा जनमत है | ऐसे में प्रधान मंत्री अगर कोई ठोस कदम उठाते हैं तो उसका विरोध करने वालों को देशद्रोही समझा जायेगा और जनता ऐसे लोगों को सडकों पर उतर कर सबक सिखा देगी | हम सीमा पर लड़ने और जीतने की तय्यारी में जुटे रहें और देश के भीतर आईएसआई के एजेंट आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहें तो यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती | देश की ख़ुफ़िया एजेंसियों को इस बात की पुख्ता जानकारी है कि देश के 350 से ज्यादा शहरों और कस्बों की सघन बस्तियों में आरडीएक्स, मादक द्रव्यों और अवैध हथियारों का जखीरा जमा हुआ है जो आतंकवादियों के लिए रसद पहुँचाने का काम करता है | प्रधान मंत्री को चाहिए कि इसके खिलाफ एक ‘आपरेशन क्लीन स्टार’ या ‘अपराधमुक्त भारत अभियान’ की शुरुआत करें और पुलिस व अर्धसैनिक बलों को इस बात की खुली छूट दें जिससे वे इन बस्तियों में जाकर व्यापक तलाशी अभियान चलाएं और ऐसे सारे जखीरों को बाहर निकालें|

आतंकवाद को रसद पहुंचाने का दूसरा जरिया है हवाला कारोबार | वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के तालिबानी हमले के बाद से अमरीका ने इस तथ्य को समझा और हवाला कारोबार पर कड़ा नियन्त्रण कर लिया | नतीजतन तब से आज तक वहां आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुई | जबकि भारत में पिछले 23 वर्षों से हम जैसे कुछ लोग लगातार हवाला कारोबार पर रोक लगाने की मांग करते आये हैं | पर ये भारत में बेरोकटोक जारी है | इस पर नियन्त्रण किये बिना आतंकवाद की श्वासनली को काटा नहीं जा सकता | तीसरा कदम संसद को उठाना है | ऐसे कानून बनाकर जिनके तहत आतंकवाद के आरोपित मुजरिमों पर विशेष अदालतों में मुकदमे चला कर 6 महीनों में सज़ा सुनाई जा सके | जिस दिन मोदी सरकार ये 3 कदम उठा लेगी उस दिन से भारत में आतंकवाद का बहुत हद तक सफाया हो जाएगा |

आज के माहौल में ऐसे कड़े कदम उठाना मोदी सरकार के लिए मुश्किल काम नहीं है | क्योंकि जनमत उसके पक्ष में है | आतंकवाद से पूरी दुनिया त्रस्त है | भारत में ही नहीं पाकिस्तान तक में आम जनता का जीवन आतंकवादियों ने खतरे में डाल दिया है | कौन जाने कब, कहाँ और कैसे आतंकवादी हमला हो जाय और बेकसूर लोगों की जानें चली जाएं | इसलिए हर समझदार नागरिक, चाहे किसी भी देश या धर्म का हो, आतंकवाद को समाप्त करना चाहता है | उसकी निगाहें अपने हुक्मरानों पर टिकी हैं | मोदी इस मामले में अपने गुणों के कारण सबसे आगे खड़े हैं | आतंकवाद से निपटने के लिए वे सीमा के पार या सीमा के भीतर जो भी करेंगे सब में जनता उनका साथ देगी |
जामवंत कहि सुन हनुमाना | का चुप साध रह्यो बलवाना ||

Monday, September 5, 2016

क्या हो कश्मीर का समाधान

    सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के जाने के बावजूद कश्मीर की घाटी में अमन चैन लौटेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। हालात इतने बेकाबू हैं और महबूबा मुफ्ती की सरकार का आवाम पर कोई नियंत्रण नहीं है, क्योंकि घाटी की जनता इस सरकार को केंद्र का प्रतिनिधि मानती है। अगर भाजपा महबूबा को बाहर से समर्थन देती, तो शायद जनता में यह संदेश जाता कि भाजपा की केंद्र सरकार जम्मू कश्मीर के मामले में नाहक दखलंदाजी नहीं करना चाहती। पर अब तो सांप-छछुदर वाली स्थिति है। एक तरफ पीडीपी है, जिसे कश्मीरियत का प्रतिनिधि माना जाता है। जिसका रवैया भारत सरकार के पक्ष में कभी नहीं रहा। दूसरी तरफ भाजपा है, जो आज तक धारा 370 को लेकर उद्वेलित रही है और उसके एजेंडा में से ये बाहर नहीं हुआ है। ऐसे में कश्मीर की मौजूदा सरकार के प्रति घाटी के लोगों का अविश्वास होना स्वाभाविक सी बात है। 

    सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल क्या वाकई इस दुष्चक्र को तोड़ पाएगा ? दरअसल कश्मीर के मौजूदा हालात को समझने के लिए थोड़ा इतिहास में झांकना होगा। आजादी के बाद जिस तरह पं.जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुला को नजरबंद रखा, उससे संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान भारत पर हमेशा हावी रहा। कश्मीर की चुनी हुई सरकार को यह कहकर नकारता रहा कि ये तो केंद्र की थोपी हुई सरकार है। क्योंकि कश्मीरियों का असली नेता तो शेख अब्दुला हैं। जब तक शेख अब्दुला गिरफ्तार हैं, तब तक कश्मीरियों का नेतृत्व नहीं माना जा सकता। 

    पर जब भारत सरकार ने शेख अब्दुला को रिहा किया। वे चुनाव जीतकर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बने, तो पाकिस्तान का ये तर्क खत्म हो गया कि कश्मीर में कश्मीरियों की सरकार नहीं है। लेकिन बाद के दौर में 1984 में जिस तरह फारूख अब्दुला की जीती हुई सरकार को इंदिरा गांधी ने हटाया, उससे घाटी का आक्रोश केंद्र सरकार के प्रति प्रबल हो गया। बाद के दौर में तो आतंकवाद बढ़ता चला गया और स्थिति और भी गंभीर हो गई।

    अब तो वहां नई पीढ़ी है, जिसकी महत्वाकांक्षाएं आसमान को छूती हैं। उनके दिमागों को आईएसआई ने पूरी तरह भारत विरोधी कर दिया है। ऐसे में कोई भी समाधान आसानी से निकलना संभव नहीं है। चूंकि केंद्र जो भी करेगा, घाटी के नौजवान उसका विरोध करेंगे। आज वो चाहते हैं कि पुलिस और मिल्ट्री जनजीवन के बीच से हटा दी जाए। राज्य की सरकार पर केंद्र का कोई दखल न हो और उन्हें बडे़-बड़े पैकेज दिए जाएं। पर ऐसा सब करना सुरक्षा की दृष्टि से आसान न होगा। 

    इसका एक विकल्प है, वो ये कि सरकार एक बार फिर घाटी में चुनावों की घोषणा कर दे। कांग्रेस और भाजपा जैसे प्रमुख राष्ट्रीय दल इस चुनाव से अलग हट जाएं। ये कहकर कि कश्मीर के लोग कश्मीरी राजनैतिक दलों और अलगाववादी संगठनों के नेताओं के बीच में से अपना नेतृत्व चुन लें और अपनी सरकार चलाएं। तब जाकर शायद जनता का विश्वास उस सरकार में बने। वैसे भी तमिलनाडु में आज दशकों से कांग्रेस और भाजपा का कोई वजूद नहीं है। कभी डीएमके आती है, तो कभी एडीएमके। उनका मामला है, वही तय करते हैं। ऐसा ही कश्मीर में हो सकता है। जब पूरी तरह से उनके लोगों की सरकार होगी, तो वे केंद्र का विरोध किस बात के लिए करेंगे। ये बात दूसरी है कि नेपाल के विप्लवकारियों की तरह जब ऐसी सरकार अंतर्विरोधों के कारण नहीं चल पाएगी या जनता की आकांक्षों पर खरी नहीं उतरेगी, तो शायद कश्मीर की जनता फिर राष्ट्रीय राजनैतिक दलों की तरफ मुंह करे। पर फिलहाल तो उन्हें उनके हाल पर छोड़ना ही होगा। 

    जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि पाक अधिकृत कश्मीर, बलूचिस्तान व सिंध की आजादी का मुद्दा उठाकर प्रधानमंत्री मोदी ने तुरप का पत्ता फेंका है। जिससे पाकिस्तान बौखलाया हुआ है। लेकिन इससे घाटी के हालात अभी सुधरते नहीं दिख रहे। हां, अगर पाक अधिकृत कश्मीर में बहुत जोरशोर से भारत में विलय की मांग उठे, तब घाटी के लोग जरूर सोचने पर मजबूर होंगे। 

आश्चर्य की बात है कि जिस पाकिस्तान ने भारत से गए मुसलमानों को आज तक नहीं अपनाया, उन्हें मुजाहिर कहकर अपमानित किया जाता है। उस पाकिस्तान के साथ जाकर कश्मीर के लोगों को क्या मिलने वाला है ? खुद पाकिस्तान के बुद्धजीवी आए दिन निजी टेलीविजन चैनलों पर ये कहते नहीं थकते कि पाकिस्तान बांग्लादेश को तो संभाल नहीं पाया। सिंध-बलूचिस्तान अलग होने को तैयार बैठे हैं। पाकिस्तान की आर्थिक हालत खस्ता है। कर्जे के बोझ में पाकिस्तान दबा हुआ है। ऐसे में पाकिस्तान किस मुंह से कश्मीर को लेने की मांग करता है ? जो उसके पास है वो तो संभल नहीं रहा। 

    बात असली यही है कि पिछली केंद्र सरकारों ने कश्मीर के मामले में राजनैतिक सूझबूझ का परिचय नहीं दिया। बोया पेड़ बबूल तो आम कहा से हो। लोकतंत्र में सभी दलों को राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर एकजुटता दिखानी चाहिए। इसीलिए संसदीय प्रतिनिधिमंडल का कश्मीर जाना और कश्मीरियों से खुलकर बात करना एक अच्छा कदम है। ऐसा पहले भी होता आया है। पर इसका मतलब ये नहीं कि संसदीय मंडल के पास कोई जादू की छड़ी है, जिसे वे श्रीनगर में घुमाकर सबका दिल जीत लेंगे। फिर भी प्रयास तो करते रहना चाहिए। आगे खुदा मालिक।