Monday, January 25, 2021

भंगेड़ी नहीं, सरकार समझे भांग के फायदे


आम शहरी भांग को नशा मान कर हिकारत से देखता है। पर भोलेनाथ शंकर और भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बलदाऊ जी के भक्त भांग का भोग लगा कर उसका प्रसाद पाते हैं। भांग से हमारे देश की गरीब जनता और अर्थव्यवस्था को कितना लाभ हो सकता है इसका नीति-निर्धारकों को शायद एहसास ही नहीं है। भांग एक अकेला ऐसा दैवीय पौधा है जिससे हमे भोज्य पदार्थ, कपड़ा, भवन और औषधि प्राप्त होती है। इसके औषधीय गुण वेदों से लेकर चरक संहिता तक में वर्णित है। भारत में भांग की खेती पर अंग्रेजी हुकूमत ने जो कुठाराघात किया था, उसकी मार हम आजतक झेल रहे हैं। जबकि चीन भांग पर आधारित उत्पादनों का निर्यात कर अरबों रुपए कमा रहा है। इजराइल, अमेरिका और कनाडा में भांग से बनी औषधि पर मोटा मुनाफा कमाया जा रहा है। आज इजराइल की भांग से सर्वश्रेष्ठ औषधीय कैनाबिस निकल रहा है जबकि हम इन दवाओं का 5000 साल से उपयोग कर रहे हैं। भांग के पौधे से 25000 तरह के उत्पाद बनते है जिसमें कपड़े से लेकर ईंट, दवा, प्रोटीन, एमिनो एसिड्स, कागज, प्लाईवुड, बायो फ्यूल और प्लास्टिक तक शामिल है। इसलिए भांग बिलियन डॉलर फसल है।

शिवप्रिया भांग, समुद्र मंथन के बाद शिव जी द्वारा विश्व को दिया गया प्रसाद है। भारत की शिवालिक पर्वतमालाओं से ही भांग पूरे विश्व मे फैली और भांग जिस-जिस देश मे गयी उस देश के हिसाब से उसने पिछली सदियों में अपने डीएनए में परिवर्तन किया। जिससे उसके औषधीय गुण बदलते चले गए, पर भारत मे उपलब्ध भांग आज भी अपने मूल वैदिक रूप में ही है। इससे औषधियां बनती हैं। भारत सरकार का आयुष मंत्रालय ही भांग से 400 तरह की औषधियां बनाने का लाइसेंस देता है।


उत्तराखंड राज्य की भांग नीति और एफ.एस.एस.ए.आई की भांग उत्पाद की लाइसेंस नीति में औपनिशिक मानसिकता से ग्रस्त अधिकारियों की गलती से हमारी देशी शिवप्रिया भांग, जिसे यजुर्वेद में विजया कहा गया है, उसे नष्ट करने की साजिश रची गयी है। जो राष्ट्रहित और हमारी सनातनी विचारधारा के खिलाफ है। यह नीति जीएम (आनुवंशिक परिवर्तित) बीज को प्रोत्साहित कर रही है, जो देश के लिए अति घातक है।

भारतीय भांग की कोई भी प्रजाति, उत्तराखंड सरकार और एफ.एस.एस.ए.आई की भांग नीति के मानकों को पूरा नहीं करती। जिससे भारत के भांग उत्पादक विदेशी भांग के बीज आयात आयात कर के बोने के लिए बाध्य हैं। मजबूरी में उन्हें जीएम बीज लगाने पड़ रहे हैं। अगर यह बीज भारत आया तो परागण करके हमारी सदियों पुरानी शुद्ध देशी भांग को नष्ट कर देगा। ऐसे ही बीजों से हमारी देसी भांग क्रॉस पोलिनेट हो रही है। अगले तीन वर्षों में हमारी औषधि युक्त भांग नष्ट हो जाएगी और खरपतवार रूपी विदेशी भांग भारत की नियति होगी।

प्रश्न है कि देशी भांग नष्ट क्यों होगी? अन्य पौधों की तरह भांग भी परागण करती है। दस  किलोमीटर तक नर पौधे का पराग हवा में उड़ कर मादा पौधे को निषेचित करता है। इस तरह भारत अपनी सर्वश्रेष्ठ भांग को अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार कर नष्ट कर देगा। जैसे हमने अपनी देशी गाय को कृत्रिम गर्भाधान करवा कर उसकी शुद्ध नस्लों को खत्म कर दिया वैसे ही भांग का ये विदेशी पौधा हमारी देशी भांग को बर्बाद कर देगा।

गाय की पीढ़ी तो कम से कम चार साल में बदलती है। एक गाय के गर्भाधान के लिए एक इंजेक्शन जरूरी है, मतलब जितने इंजेक्शन उतनी गाय की अगली पीढ़ी वर्ण संकर होगी। पर भांग का एक पौधा दस किलोमीटर की भांग को निषेचित कर सकता है। भांग की एक पीढ़ी सिर्फ तीन महीने में बदल जाती है और भांग साल में तीन बार उगती है। जबकि गेंहू या चावल साल में एक बार ही पैदा होते हैं।


चूँकि गुणवत्ता की दृष्टि से हमारी भांग दुनिया की सर्वश्रेष्ठ भांग है, जिसको विदेशी कम्पनिया नष्ट कर अपने जीएम बीज बेच कर मोटा फायदा कमाना चाहती हैं। आयुर्वेद की फार्मोकोपिया में जिस भांग से दवा बनाने की विधियां है, वह देसी भांग है। विदेशी भांग से वही दवा बनाने पर हमारी आयुर्वेदिक दवाएं प्रभावी नहीं रहेगी जिससे हमारे आयुर्वेद को भी बहुत नुकसान होगा। जबकि देशी भांग को बचाने से हमारी जैव विविधता बचेगी। बेहतरीन भांग के उत्पादों के निर्माण से लघु व मध्यम उद्योग क्षेत्र, निर्यात, रोजगार और राजस्व बढ़ेंगे। हमारे उत्पाद के लाभ को विदेशी कम्पनियां प्रभावित नहीं कर पाएंगी।

जबकि भांग की देशी प्रजाति को बचा कर और विदेशी प्रजाति को भारत में आने से रोक कर ही सरकार की ‘किसानों की आय दो गुना’ करने की नीति, ‘वोकल फॉर लोकल’ और ‘लघु व मध्यम उद्योग क्षेत्र संवर्धन’ की नीति को साकार हो पाएगी। 

इसलिए सरकार को इस विषय पर देशी विशेषज्ञों का पैनल बना कर इस समस्या का तुरंत हल करना चाहिए। जिससे न सिर्फ देश में रोजगार बढ़ेगा बल्कि गाँवों से शहरों की ओर पलायन भी रुकेगा और केंद्र व राज्य सरकार के राजस्व में भारी वृद्धि होगी। हम भारत की श्रेष्ठ भांग का संरक्षण कर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में चीन के एकाधिकार को भी समाप्त कर सकते हैं। भारत के नीति-निर्धारकों को ये नहीं भूलना चाहिए कि पिछले 74 सालों में हमने कृषि, बागवानी व दुग्ध उत्पादन के क्षेत्रों में भारत की समृद्ध वैदिक ज्ञान परम्परा की उपेक्षा की है। ज्यादा उत्पादन के लालच में हम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रभाव में अपनी गुणवत्ता और जीवनी शक्ति को लगातार खोते जा रहे हैं। आज कोरोना से जहां  यूरोप और अमरीका में लाखों मौत हो रही हैं वहीं भारत जीतने में इसलिए सफल रहा है क्योंकि हमारा भोजन और जीवन आज भी मूलतः वैदिक परम्पराओं से ही संचालित होता है। इसलिए शिवप्रिय भांग को बचाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। 

Monday, January 18, 2021

देवदूत थे कमल मोरारका



74 वर्ष की आयु में सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश करते ही एक दीर्घ श्वास छोड़ कर इस नश्वर संसार से परलोक गमन कर गए कमल मोरारका। देश भर में हज़ारों साहित्यकार, कलाकार, समाजसेवी, पत्रकार, राजनेता व अन्य सैकड़ों लोग हैं, जो उन्हें इंसान नहीं फरिश्ता मानते हैं। आज उनके यूँ अचानक चले जाने से वे सब गमगीन हैं। भारत का कोई तीर्थ स्थल नहीं जहां उन्होंने सनातन धर्म की सेवा में उदारता से दान न दिया हो।


वे चंद्रशेखर सरकार के प्रधानमंत्री कार्यालय के मंत्री भी रहे और लम्बे समय तक क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के उपाध्यक्ष भी रहे। ब्रज क्षेत्र में कुंडों के जीर्णोद्धार में, राजस्थान, हिमाचल व अन्य राज्यों  में जैविक कृषि के प्रसार में, दिल्ली में अनेक साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के संरक्षण में, समाजवादी विचारधारा के लोगों को उनकी गतिविधियाँ चलाने में, नवलगढ़ में हवेलियों के संरक्षण में, वाइल्ड लाइफ़ फ़ोटोग्राफ़ी में, कई मीडिया प्रकाशनों को चलाने में और समकालीन राजनीति पर बेबाक़ी से अपने विचारों को व्यक्त करने में उनकी पूरे देश में अलग ही पहचान थी। 


‘देनहार कोई और है, देत रहत दिन रैन। लोग भरम मो पे करें, या सों नीचे नैन।।’ इस भावना को पूरी तरह चरितार्थ करने वाले कमल मोरारका की जिंदगी से जुडे़ ऐसे सैकड़ों किस्से हैं, जिन्हें उन्होंने कभी नहीं सुनाया, पर वो लोग सुनाते हैं, जिनकी इन्होंने मदद की। ये किस्सा सुनकर शायद आप यकीन न करें। पर है सच। मुंबई के मशहूर उद्योगपति कमल मोरारका अपने मित्रों के सहित स्वीट्जरलैंड के शहर जेनेवा के पांच सितारा होटल से चैक आउट कर चुके थे। सीधे एयरर्पोट जाने की तैयारी थी। तीन घंटे बाद मुंबई की फ्लाइट से लौटना था। तभी उनके निजी सचिव का मुंबई दफ्तर से फोन आया। जिसे सुनकर ये सज्जन अचानक अपनी पत्नी और मित्रों की ओर मुड़े और बोले, ‘आप सब लोग जाईए। मैं देर रात की फ्लाइट से आउंगा’। इस तरह अचानक उनका ये फैसला सुनकर सब चैंक गये। उनसे इसकी वजह पूछी, तो उन्होंने बताया कि, ‘अभी मेरे दफ्तर में कोई महिला आई है, जिसका पति कैंसर से पीड़ित है। उसे एक मंहगे इंजैक्शन की जरूरत है। जो यहीं जेनेवा में मिलता है। मैं वो इंजैक्शन लेकर कल सुबह तक मुबई आ जाउंगा। परिवार और साथी असमंजस्य में पड़ गये, बोले इंजेक्शन कोरियर से आ जायेगा, आप तो साथ चलिए। उनका जबाव था, ‘उस आदमी की जान बचाना मेरे वक्त से ज्यादा कीमती है’।


मोरारका जी का गोवा में भी एक बड़ा बंगला है। जिसके सामने एक स्थानीय नौजवान चाय का ढाबा चलाता था। वे हर क्रिसमस की छुट्ट्यिों में गोवा जाते थे। जितनी बार ये कोठी में घुसते और निकलते, वो ढाबे वाला दूर से इन्हें हाथ हिलाकर अभिवादन करता। दोनों का बस इतना ही परिचय था। एक साल बाद जब ये छुट्ट्यिों में गोवा पहंचे तो दूर से देखा कि ढाबा बंद है। इनके बंगले के चैकीदार ने बताया कि ढाबे वाला कई महीनों से बीमार है और अस्पताल में पड़ा है। इन्होंने फौरन उसकी खैर-खबर ली और मुंबई में उसके पुख्ता और बढ़िया इलाज का इंतेजाम किया।


भगवान की इच्छा, पहले मामले में उस आदमी की जान बच गई। वो दोनों पति-पत्नी एक दिन इनका धन्यवाद करने इनके दफ्तर पहुंचे। स्वागत अधिकारी ने इन्हें फोन पर बताया कि ये दो पति-पत्नी आपको धन्यवाद करने आये हैं। इनका जबाव था कि, ‘उनसे कहो कि मेरा नहीं, ईश्वर का धन्यवाद करें‘ और ये उनसे नहीं मिले। गोवा वाले मामले में, ढाबे वाला आदमी, बढ़िया इलाज के बावजूद मर गया। जब इन्हें पता चला, तो उसकी विधवा से पुछवाया कि हम तुम्हारी क्या मदद कर सकते हैं। उसने बताया कि मेरे पति दो लाख रूपये का कर्जा छोड़ गये हैं। अगर कर्जा पट जाये, तो मैं ढाबा चलाकर अपनी गुजर-बसर कर लूंगी। उसकी ये मुराद पूरी हुई। वो भी बंगले में आकर धन्यवाद करना चाहती थी। इन्होंने उसे भी वही जबाव भिजवा दिया कि मेरा नहीं भगवान का धन्यवाद करो। इसे कहते हैं, ‘नेकी कर, दरिया में डाल’।


दरअसल भारत के पूंजीवाद और पश्चिम के पूंजीवाद में यही बुनियादी अंतर है। पश्चिमी सभ्यता में धन कमाया जाता है, मौज-मस्ती, सैर-सपाटे और ऐश्वर्य प्रदर्शन के लिए। जबकि भारत का पारंपरिक वैश्य समाज ‘सादा जीवन, उच्च विचार के सिद्धांत को मानता आया है। वो दिन-रात मेहनत करता रहा और धन जोड़ता रहा है। पर उसका रहन-सहन और खान-पान बिलकुल साधारण होता था। वो खर्च करता तो सम्पत्ति खरीदने में या सोने-चांदी में। इसीलिए भारत हमेशा से सोने की चिड़िया रहा है। दुनिया की आर्थिक मंदी के दौर भी भारत की अर्थव्यवस्था को झकझोर नहीं पाये। जबकि उपभोक्तावादी पश्चिमी संस्कृति में क्रेडिट कार्ड की डिजिटल इकॉनौमी ने कई बार अपने समाजों को भारी आर्थिक संकट में डाला है। 


अमरिका सहित ये तमाम देश आज खरबों रूपये के विदेशी कर्ज में डूबे हैं। वे सही मायने में चार्वाक के अनुयायी हैं, ‘जब तक जियो सुख से जियो, ऋण मांगकर भी पीना पड़े तो भी घी पियो‘। यही कारण है कि डिजिटल अर्थव्यवस्था की नीतियों को भारत का पारंपरिक समाज स्वीकार करने में अभी हिचक रहा है। उसे डर है कि अगर हमारी हजारों साल की परंपरा को तोड़कर हम इस नई व्यवस्था को अपना लेंगे, तो हम अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक माफियाओं के जाल में फंस जायेंगे। अब ये तो वक्त ही बतायेगा कि लोग बदलते हैं, कि नीतियां।


हम बात कर रहे थे, इंसानी फरिश्तों की। आधुनिकता के दौर में मानवीय संवेदनशीलता भी छिन्न-भिन्न हो जाती है। ऐसे में किसी साधन संपन्न व्यक्ति से मानवीय संवेदनाओं की अपेक्षा करना, काफी मुश्किल हो जाता है। जबकि नई व्यवस्था में सामाजिक सारोकार के हर मुद्दे पर बिना बड़ी कीमत के राहत मुहैया नहीं होती। इससे समाज में हताशा फैलती है। संरक्षण की पुरानी व्यवस्था रही नहीं और नई उनकी हैसियत के बाहर है। ऐसे में इंसानी फरिश्ते ही लोगों के काम आते हैं, पर उनकी तादाद अब उंगलियों पर गिनी जा सकती है। कमल मोरारका एक ऐसी शख्सियत थे, जिनकी जितनी तारीफ की जाये कम है। बहुत याद आएँगे वे।

Monday, January 11, 2021

वॉशिंगटन से सबक़


हारे हुए अहमक राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प के समर्थकों ने अमरीकी संसद भवन ‘कैपिटौल’ पर जो गुंडागर्दी की उसे देख कर सारी दुनिया दंग रह गई। हर दूसरे देश को लोकतंत्र का सबक़ सिखाने की आत्मघोषित ‘नैतिक ज़िम्मेदारी’ का दावा करने वाले दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र का यह विद्रूप चेहरा अमरीकी नागरिकों को ही नही ख़ुद ट्रम्प के चहेते उप-राष्ट्रपति माइकल पेंस, मंत्रियों व सांसदों को भी नागवार गुज़रा। अमरीकी संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के चुनावी नतीजों पर संसद के दोनों सदनों को स्वीकृति की मुहर लगानी होती है। जिसके लिए वे गत बुधवार को कैपिटौल में जमा हुए थे। हार से बौखलाए ट्रम्प ने अपने उप-राष्ट्रपति, मंत्रियों व सांसदों पर भारी दबाव डाला कि वे इन नतीजों को अस्वीकार कर लौटा दें। ग़नीमत है कि इन लोगों ने अपने नेता और अमरीका के मौजूदा राष्ट्रपति के इस ग़ैर-संविधानिक आदेश को मानने से मना कर दिया और डेमोक्रेटिक पार्टी के जीते हुए उम्मीदवार जो बाइडेन की जीत पर स्वीकृति की मुहर लगा दी। उप-राष्ट्रपति ने तो ट्रम्प से साफ़-साफ़ कह दिया कि वे अमरीका के उप-राष्ट्रपति हैं ट्रम्प के नहीं। इसलिए वे संविधान की अपनी शपथ के अनुसार उसकी रक्षा का काम करेंगे, उसके विरुद्ध नहीं। ट्रम्प सरकार की शिक्षा मंत्री निक्की हेली ने सत्ता हस्तांतरण से 12 दिन पहले मंत्रीपद से यह कहते हुए इस्तीफ़ा दे दिया कि,
जो कुछ हुआ वो शर्मनाक है। सारे देश के विद्यार्थियों ने भीड़ के तांडव को देखा, जिसका उनके मन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा होगा। मैं इस सब से व्यथित हो कर अपने पद से इस्तीफ़ा दे रही हूँ। 



रिपब्लिकन पार्टी के इन नेताओं का हृदय परिवर्तन अमरीकी जनता और लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण हैं। अगर यह लोग चुनाव नतीजे आने के बाद ही जाग जाते और ट्रम्प को वो सब हरकतें करने से रोक देते जो इस सिरफिरे राष्ट्रपति ने पिछले दो महीने में की हैं तो रिपब्लिकन पार्टी की ऐसी जग-हँसाई नहीं होती। अब जब पानी सिर से ऊपर गुज़र गया तो इस घबराहट में इन सब ने डॉनल्ड ट्रम्प से पल्ला झाड़ा क्योंकि इन्हें भविष्य में अपने राजनैतिक कैरियर पर ख़तरा नज़र आ गया। ‘देर आयद दुरुस्त आयद’। दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों ने कैपिटौल पर हुए हमले के लिए ट्रम्प के समर्थकों की कड़े शब्दों में आलोचना की है। अब भविष्य में ट्रम्प के साथ जो भी खड़ा होगा वो अपनी कब्र खुद खोदेगा। 


भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को भी ट्वीट करके अमरीका में सत्ता हस्तांतरण को शांतिपूर्ण ढंग से किए जाने की अपील करनी पड़ी। ज़ाहिर है मोदी जी को इस बात पर पछतावा हुआ होगा कि उन्होंने अमरीका में जा कर ऐसे अहमक आदमी के लिए चुनाव प्रचार किया। उनका दिया नारा, ‘अबकि बार ट्रम्प सरकार’ उल्टा पड़ गया। मोदी जी ने शायद अमरीका और भारत के सम्बन्धों को और प्रगाढ़ बनाने के उद्देश्य से ऐसा किया होगा। पर जब उन्होंने ये नारा दिया था तो न सिर्फ़ अमरीकी समाज और मीडिया बल्कि भारतीय समाज पर भी इस पर आश्चर्य व्यक्त किया गया था। इससे पहले भारत के या किसी अन्य देश के प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति ने दूसरे देश में जाकर उसके राष्ट्रपति का चुनाव प्रचार कभी नहीं किया था। चूँकि अब अमरीका में डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार है तो ये शंका व्यक्त करना निर्मूल न होगा कि मोदी जी के इस कदम से अमरीका में सत्तरूढ होने जा रही पार्टी में मोदी सरकार के विरुद्ध तल्ख़ी हो। हालंकि अपने व्यावसायिक हितों को ध्यान में रख कर बाइडेन की नई सरकार इस बात की उपेक्षा कर सकती है। क्योंकि अमरीका के लिए अपने व्यावसायिक हित पहले होते हैं। उधर बाइडेन ने यह साफ़ कह दिया है कि वे वैचारिक, धार्मिक या सामाजिक दृष्टि से बटे हुए अमरीकी समाज को जोड़ने का काम करेंगे क्योंकि वे हर अमरीकी के राष्ट्रपति हैं न कि केवल उनके जिन्होंने उन्हें वोट दिया।

 

कैपिटोल की घटना से विचलित होकर मैंने भी एक ट्वीट किया था जिसे नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, शरद पवार, सुखविंदर सिंह बादल, अखिलेश यादव, मायावती, जयंत चौधरी, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, नीतीश कुमार व शरद यादव आदि को भी टैग किया। जिसमें मैंने इन सभी राजनैतिक दलों के नेताओं को वाशिंगटन की इस निंदनीय घटना से सबक़ सीखने की सलाह दी। ये कहते हुए कि किसी भी मुद्दे पर अपने चहेतों को इस तरह उकसा कर भीड़ का हिंसक हमला करवाना बहुत ख़तरनाक प्रवृत्ति है। जिससे न केवल लोकतंत्र ख़तरे में पड़ेगा बल्कि गुंडे और मवाली सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाएँगे। इसलिए भारत के हर राजनैतिक दल को इस ख़तरनाक प्रवृति को पनपने से पहले कुचलने का काम करना चाहिए। वरना भविष्य में स्थितियाँ उनके हाथ में नहीं रहेंगी। शांतिपूर्ण प्रदर्शन और धरना करना या क़ानून व्यवस्था को भंग किए बिना नारे, पोस्टर लगाना या हड़ताल करना लोकतंत्र का स्वीकृत अंग है। जिसे पुलिस के डंडे से कुचलना अमानवीय और लोकतंत्र विरोधी होता है। हाँ विरोध प्रदर्शन में हिंसा या तोड़फोड़ बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए। 


ग़नीमत है आज़ादी से आजतक भारतीय लोकतंत्र में सत्ता का परिवर्तन शांतिपूर्ण ढंग से होता आया है और होता रहना चाहिए। तभी लोकतंत्र सुरक्षित रह पाएगा। जो भारत जैसी भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व सामाजिक विषमता वाले देश के लिए बहुत ज़रूरी है। दो दशक पहले, अपने इसी कॉलम में मैंने लोकतंत्र को भीड़तंत्र कहकर केंद्रीयकृत सत्ता का समर्थन किया था। क्योंकि तब मुझे लगता था कि बहुत सारे विवादास्पद विषयों का कड़े नेतृत्व से ही समाधान हो सकता है, लोकतंत्र से नहीं। पर पिछले 20 वर्षों के अनुभव के बाद केंद्रीयकृत नेतृत्व के ख़तरे समझ में आने लगे हैं। शासक की जवाबदेही, विपक्ष के साथ लगातार संवाद और सामूहिक निर्णय लेने की प्रक्रिया को अगर निष्ठा से अपनाया जाए तो लोकतंत्र ही समाज का हित कर सकता है, अधिनायकवाद नहीं। डोनाल्ड ट्रम्प के अधिनायकवादी रवैए से इस मान्यता की पुनः पुष्टि हुई है। वाशिंगटन में जो कुछ हुआ, वो किसी भी देश में कभी न हो इसके लिए हर राजनैतिक दल को सजग और सचेत रहना चाहिए। 

Monday, January 4, 2021

खेती के असली मुद्दों पर ध्यान क्यों नहीं?


एक समय था जब भारत को अपन पेट भरने के लिए अनाज की भीख माँगने विदेश जाना पड़ता था। हरित क्रांति के बाद हालात बदल गए। अब भारत में अनाज के भंडार भर गए। पर क्या इससे बहुसंख्यक, छोटी जोत वाले किसानों की आर्थिक स्थिति सुधरी? क्या वजह है कि आज भी देश में इतनी बड़ी तादाद में किसानों को आत्महत्या करनी पड़ रही है? गेहूं का कटोरा माने जाने वाले पंजाब तक में ज़मीन की उर्वरकता घटी है और अविवेकपूर्ण दोहन के कारण भूजल स्तर 700 फुट नीचे तक चला गया है। दरअसल, यह सब हुआ उस कृषि क्रांति के कारण जिसके सूत्रधार थे अमेरिका के कृषि विशेषज्ञ नॉर्मन बोरलोह, जिन्होंने रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों का उपयोग कर एवं ट्रैक्टर से खेत जोत कर कृषि उत्पादन को दुगना चौगुना कर दिखाया। इधर
भारत में कृषि वैज्ञानिक डॉ स्वामीनाथन ने तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी को राजी कर लिया और बड़े पैमाने पर रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाओं का आयात शुरू हो गया। इसके साथ ही कुछ देसी कंपनियों ने ट्रेक्टर ओर अन्य कृषि उपकरण बनाने शुरू कर दिए। शास्त्री जी के बाद जो सरकारें आईं उन्होंने इसे आमदनी का अच्छा स्रोत मान कर इन कंपनियों के साथ सांठगांठ कर भारत के किसानों को रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशक दवाओं की ओर ले जाने का काम किया। नतीजतन सदियों से गाय, गोबर और गो मूत्र का उपयोग कर नंदी से हल चलाने वाले किसान ने महंगी खाद और उपकरणों के लिए ऋण लेना शुरू किया।


इससे एक तरफ़ तो कृषि महंगी हो गई क्योंकि उसमें भारी पूँजी की ज़रूरत पड़ने लगी। दूसरा किसान बैंकों के क़र्ज़े के जाल फँसते गए। तीसरा, सदियों से कृषि की रीढ़ बने बैल अब कृषि पर भार बन गए। जिससे उन्हें बूचड़खानों की तरफ़ खदेड़ा जाने लगा। इस सब प्रक्रिया में ग्रामीण बेरोज़गारी भी तेज़ी से बढ़ी। क्योंकि इससे गाँव की आत्मनिर्भरता का ढाँचा ध्वस्त हो गया। अब हर गाँव शहर के बाज़ार पर निर्भर होता गया। जिससे गाँव की आर्थिक स्थिति कमजोर होती चली गई। क्योंकि उपज के बदले जो आमदनी गाँव में आती थी उससे कहीं ज़्यादा खर्चा महंगे उपकरणों, रासायनिक खाद, कीटनाशक, डीज़ल आदि पर होने लगा। इस सबके दुष्परिणाम स्वरूप सीमांत किसान अपने घर और ज़मीन से हाथ धो बैठा। मजबूरन उसे शहरों की ओर पलायन करना पड़ा। इस तरह भारतीय कृषि व्यवस्था और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने का बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का षड्यंत्र सफल हो गया।  


चिंता की बात यह है कि आज की भारत सरकार को भी भारत की कृषि की कमर तोड़ने के इस अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र के बारे में सब कुछ पता है। मगर इन कंपनियों ने शायद सबके मुँह पर दशकों से चांदी का जूता मार रखा है। इसीलिए ये लोग दिखाने को यूरिया में नीम मिला कर देने की बात करते है। पर उर्वरक मंत्रालय केमिकल मंत्रालय के साथ जुड़ा हुआ है। जबकि उर्वरक कृषि मंत्रालय का विषय है।


एक ओर कृषि मंत्रालय, ‘नेशनल सेन्टर फ़ॉर आर्गेनिक फार्मिंग’ के केंद्र हर जगह स्थापित कर रहा है। दूसरी तरफ़ यही केंद्र जोर शोर से ‘वेस्ट डिकॉम्पोज़र’ का प्रचार भी कर रहा हैं। वहीं सारे एग्रीकल्चर कॉलेजों के पाट्यक्रम में रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के प्रयोग का विधि सिखाई जाती है न कि प्राकृतिक कृषि की। आप किसी भी एग्रीकल्चर कॉलेज का यूट्यूब वीडियो देख लें, वे आपको रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के ही प्रयोग की विधि बताएंगे।


क्योंकि रासायनिक खाद, कीटनाशक और तथाकथित उन्नत किस्म के बीज का एक अंतरराष्ट्रीय माफिया काम कर रहा है। जो कृषि प्रधान भारत को दूसरे देशों पर निर्भर होने के लिए मजबूर कर रहा है। इस माफिया के साथ प्रशासन के लोगों की भी साँठ-गाँठ है। अगर इस माफिया पर भारत सरकार का नियंत्रण होता तो देश मे दस लाख किसान आत्महत्या नहीं करते। आँकड़ों की मानें तो अकेले महाराष्ट्र में साढ़े तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अब इस माफियाओं के गुट में एक और माफिया शामिल हो गया है जो शराब बनाने वाले कम्पनियों और राजनीतिज्ञों की साँठ गाँठ से सक्रिय है। एक ओर गरीब लोग मुट्ठी भर अनाज के लिए तरसते हैं, तो वहीं गेंहू 20 किलो के दर से खरीद कर ‘भारतीय खाद्य निगम’ के गोदामों या खुले मैदानों में सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। फिर उसी गेंहू को 2.00 किलो के भाव से शराब बनाने वाली इन कम्पनियों को बेच दिया जाता हैं। 


इस पूरी दानवी व्यवस्था का विकल्प महात्मा गांधी अपनी पुस्तक ‘ग्राम स्वराज’ में बता चुके हैं। कैसे गाँव की लक्ष्मी गाँव में ही ठहरे और गान के लोग स्वास्थ्य, सुखी और निरोग बनें। इसके लिए ज़रूरत है भारतीय गोवंश आधारित कृषि की व्यापक स्थापना की। हर गाँव या कुछ गाँव के समूह के बीच भारतीय गोवंश के संरक्षण व प्रजनन की व्यवस्था होनी चाहिए। गाँव के राजस्व रिकोर्ड में दर्ज चारागाहों की भूमि को पट्टों और अवैध क़ब्ज़ों से मुक्त करवा कर वहाँ गोवंश के लिए चारे का उत्पादन करना चाहिए। इस उपाय से गाँव के भूमिहीन लोगों को रोज़गार भी मिलेगा।  


देश मे सात लाख गाँव है और अगर दस-दस समर्थक भी एक एक गाँव के लिए काम करें तो केवल 70 लाख समर्थकों की मदद से हर गाँव में गौ विज्ञान केंद्र की स्थापना हो सकती है। क्या हम सब पहल कर एक एक गांव को इसके लिए प्रेरित नहीं कर सकते? सड़कों व जंगलों में छोड़ दिए गए गौवंश को बूचड़खाने की तरफ़ न भेज कर क्या उनके गोबर और गौमूत्र से जैविक खेती करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकते? 


आशा है सभी किसान हितैषी संघटन इस सुझाव पर ध्यान देंगे। जैसा मैंने इस कॉलम में पहले भी लिखा है कि गौवंश की रक्षा गौशालाएँ बनाकर नहीं हो सकती। क्योंकि ये तो ज़मीन हड़पने और भ्रष्टाचार के केंद्र बन जाते हैं। गौवंश की रक्षा तभी होगी जब हर किसान के घर कम से कम एक या दो गाय ज़रूर पाली जाएं। इससे न सिर्फ़ भारतीय कृषि उत्पादनों की गुणवत्ता बढ़ेगी बल्कि उस कृषक का परिवार भी स्वस्थ और सम्पन्न बनेगा।