Monday, June 22, 2015

बहुसंख्यक मुसलमान आक्रामक क्यों हो जाते हैं

 धर्मांधता किसी की भी हो, हिंदू, सिक्ख, मुसलमान या ईसाई, मानवता के लिए खतरा होती है। जिस-जिस धर्म को राजसत्ता के साथ जोड़ा, वही धर्म जनविरोधी अत्याचारी और हिंसक बन गया। गत दो-तीन दशकों से इस्लाम धर्म के मानने वालों की हिंसक गतिविधियां पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं। 2005 में समाजशास्त्री डा.पीटर हैमण्ड ने गहरे शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की दुनियाभर में प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक है ‘स्लेवरी, टेररिज्म एण्ड इस्लाम - द हिस्टोरिकल रूट्स एण्ड कण्टेम्पररी थ्रेट’। इसके साथ ही द हज के लेखक लियोन यूरिस ने भी इस विषय पर अपनी पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला है। जो तथ्य निकलकर आए हैं, वह न सिर्फ चैंकाने वाले हैं, बल्कि चिंताजनक हैं।

 उपरोक्त शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश-प्रदेश क्षेत्र में लगभग 2 प्रतिशत के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसंद अल्पसंख्यक बनकर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते। जैसे अमेरिका में वे (0.6 प्रतिशत) हैं, ऑस्ट्रेलिया में 1.5 प्रतिशत, कनाडा में 1.9 प्रतिशत, चीन में 1.8 प्रतिशत, इटली में 1.5 प्रतिशत और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 1.8 प्रतिशत है। इसलिए यहां मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है।
 जब मुसलमानों की जनसंख्या 2 प्रतिशत से 5 प्रतिशत के बीच तक पहुँच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलम्बियों में अपना धर्मप्रचार शुरु कर देते हैं। जैसा कि डेनमार्क में उनकी संख्या 2 प्रतिशत है, जर्मनी में 3.7 प्रतिशत, ब्रिटेन में 2.7 प्रतिशत, स्पेन मे 4 प्रतिशत और थाईलैण्ड में 4.6 प्रतिशत मुसलमान हैं।
 जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश या क्षेत्र में 5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलम्बियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिये वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर ‘हलाल’ का मांस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि ‘हलाल’ का माँस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यतायें प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्केट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहाँ ‘हलाल’ का माँस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी धंधे को देखते हुए उनका कहा मान लेते हैं। इस तरह अधिक जनसंख्या होने का फैक्टर यहाँ से मजबूत होना शुरु हो जाता है। जिन देशों में ऐसा हो चुका वह है, वे फ्रांस, फिलीपीन्स, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो हैं। इन देशों में मुसलमानों की संख्या क्रमश: 5 से 8 फीसदी तक है। इस स्थिति पर पहुंचकर मुसलमान उन देशों की सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्रों में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाये। दरअसल, उनका अंतिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व शरीयत कानून के हिसाब से चले। जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश, प्रदेश, राज्य, क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिये परेशानी पैदा करना शुरु कर देते हैं, शिकायतें करना शुरु कर देते हैं, उनकी ‘आर्थिक परिस्थिति’ का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़फोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ्रांस के दंगे हों, डेनमार्क का कार्टून विवाद हो, या फिर एम्स्टर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवाद को समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है। ऐसा गुयाना (मुसलमान 10 फीसदी), इजराइल (16 फीसदी), केन्या (11 फीसदी), रूस (15 फीसदी) में हो चुका है।
 जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न ‘सैनिक शाखायें’ जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरु हो जाता है, जैसा इथियोपिया (मुसलमान 32.8 फीसदी) और भारत (मुसलमान 22 फीसदी) में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या के 40 प्रतिशत के स्तर से ऊपर पहुँच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याऐं, आतंकवादी कार्रवाईयाँ आदि चलने लगती हैं। जैसा बोस्निया (मुसलमान 40 फीसदी), चाड (मुसलमान 54.2 फीसदी)  और लेबनान (मुसलमान 59 फीसदी) में देखा गया है। शोधकर्ता और लेखक डॉ पीटर हैमण्ड बताते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब अन्य धर्मावलंबियों का ‘जातीय सफाया’ शुरु किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोड़ना, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है। जैसे अल्बानिया (मुसलमान 70 फीसदी), कतर (मुसलमान 78 प्रतिशत) व सूडान (मुसलमान 75 फीसदी) में देखा गया है।
 किसी देश में जब मुसलमान बाकी आबादी का 80 फीसदी हो जाते हैं, तो उस देश में सत्ता या शासन प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के हथकंडे अपनाकर जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बांग्लादेश (मुसलमान 83 फीसदी), मिस्त्र (90 प्रतिशत), गाजापट्टी (98 फीसदी), ईरान (98 फीसदी), ईराक (97 फीसदी), जोर्डन (93 फीसदी), मोरक्को (98 फीसदी), पाकिस्तान (97 फीसदी), सीरिया (90 फीसदी) व संयुक्त अरब अमीरात (96 फीसदी) में देखा जा रहा है।
 ये ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें बिना धर्मांधता के चश्मे के हर किसी को देखना और समझना चाहिए। चाहे वो मुसलमान ही क्यों न हों। अब फर्ज उन मुसलमानों का बनता है, जो खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हैं, वे संगठित होकर आगे आएं और इस्लाम धर्म के साथ जुड़ने वाले इस विश्लेषणों से पैगंबर साहब के मानने वालों को मुक्त कराएं, अन्यथा न तो इस्लाम के मानने वालों का भला होगा और न ही बाकी दुनिया का।

Monday, June 8, 2015

मैगी पर बवाल-रसोई में उबाल

जब देश में कोई प्राइवेट टीवी चैनल नहीं था, तब मैंने 1989 में देश की हिंदी टीवी समाचारों की पहली वीडियो मैगजीन कालचक्र जारी कर खोजी टीवी पत्रकारिता की भारत में शुरूआत की थी। उस समय हमारी इस वीडियो मैगजीन का उद्देश्य था कि जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले हर उस खाद्य या प्रसाधन, उत्पाद की जांच करना, जिसका बहुराष्ट्रीय कंपनियां व्यापक प्रचार प्रसार करती हैं। इसी क्रम में हमने एक खोजी रिपोर्ट जारी की थी ‘मैगी खाने के खतरे’। तब देश में निजी टीवी चैनल नहीं आए थे। केवल वीडियो लाइब्रेरी के जरिये लोग हमारी समाचार वीडियो कैसेट किराए पर लेकर अपने वीसीआर पर देखते थे। इसलिए हर व्यक्ति तक यह सूचना नहीं पहुंची। अगर तब से किसी टीवी चैनल ने इस रिपोर्ट पर ध्यान दिया होता, तो हालात आज इतने बेकाबू न होते।
 
दरअसल, खाद्य और प्रसाधन के जितने उत्पादन आज बाजार में बहुराष्ट्रीय कंपनियां बेच रही हैं। लगभग ये सब जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा है। इनके मूल्य, इनकी लागत से 50 गुना ज्यादा होते हैं। इनके जो गुण बताकर इन्हें बेचा जाता है, वे ज्यादातर फर्जी होते हैं। इनमें ऐसे तमाम रासायनिक तत्व मिलाए जाते हैं, जो हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक हैं और जिन्हें दुनिया के आर्थिक रूप से संपन्न देशों ने प्रतिबंधित कर रखा है। एक तो भारत में ऐसे अपराधों के विरूद्ध कड़े कानून नहीं हैं। दूसरा इन कानूनों को लागू करने वाले का आचरण पारदर्शी नहीं है। इसलिए मोटी रिश्वत लेकर हानिकारक पदार्थों को आसानी से बाजार में आने दिया जाता है। इस मामले में मोदी सरकार को ऐसे कानून बनाने चाहिए, जिससे जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले पदार्थों के निर्माताओं और विक्रेताओं को पकड़े जाने पर कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान हो। फिर वह चाहें बहुराष्ट्रीय कंपनियां हों या देशी कंपनियां।
 
इस मामले में हमारी अपनी कमी का भी उल्लेख करना जरूरी है। आज हम विज्ञापन की चकाचैंध में इतने बह जाते हैं कि अपनी छोड़ अपने बच्चों की सेहत तक का हमें ख्याल नहीं रहता। पिछले दो दशक में देश की कितनी करोड़ माताओं ने बड़े उत्साह से अपने बच्चों को मैगी बनाकर खिलायी होगी। माताएं क्यों नौकरीपेशा नौजवान जो पराए शहर में बिन ब्याहे रहते हैं, अक्सर मैगी खाकर अपना रात्रि भोज पूरा कर लेते हैं। ऊपर से कोकाकोला या पेप्सीकोला जैसे हानिकारक पेय पीकर मस्त हो जाते हैं। हमें सोचना चाहिए कि भारत की गर्म जलवायु में जब घर का बना ताजा खाना सुबह से शाम तक में सड़ने लगता है, तो ये पैकेट बंद खाद्य कैसे सड़े बिना रह जाते हैं। जाहिर है कि इनमें ऐसे प्रिजरवेटिव और रसायन मिलाए जाते हैं, जो इन्हें हफ्तों और महीनों सड़ने नहीं देते। पर यही प्रिजरवेटिव और रसायन हमारी आंत में जाकर उसे जरूर सड़ा देते हैं, कैंसर जैसी बीमारियां पैदा कर देते हैं। पर इस जंक फूड को खाने से पहले हम एक बार भी नहीं सोचते कि हम क्या खा रहे हैं ? क्यों खा रहे हैं ? इसका हमारे स्वास्थ्य पर कितना बुरा असर पड़ेगा ? देखा जाए तो शहरों के ज्यादातर लोग आज फास्ट फूड के नाम पर जहर खा रहे हैं और सोच रहे हैं कि हम आधुनिक हो गए। जबकि हमारे गांव में रहने वाले परिवार दकियानूसी हैं, क्योंकि वहां आज भी चूल्हे पर ताजा दाल, सब्जी और रोटी पकाकर खायी जाती है। अगर पेयजल के प्रदूषण की समस्या को दूर कर लिया जाए, तो हमारे गांव में रहने वाले भाई-बहिन स्वास्थ्य के मामले में हर शहरी हिंदुस्तानी से 10 गुना बेहतर मिलेंगे। इस चुनौती को कहीं भी परखा जा सकता है। फिर हम क्यों जान-बूझकर मूर्खता कर रहे हैं ?
 
मजे की बात यह है कि जिन देशों में फास्ट फूड के नाम पर जंक फूड पनपा था, वहां आज सभ्य समाज ने इसका पूरी तरह बहिष्कार कर दिया है। पहले जब हम यूरोप या अमेरिका के डिपार्टमेंटल स्टोरर्स में रसोई का सामान खरीदने जाते थे, तो हर चीज बंद डिब्बों में सजा-संवारकर बेची जाती थी। पर अब स्वास्थ्य की चिंता से उन देशों के लोगों ने खेतों से आयी ताजा सब्जी और अनाज खरीदना शुरू कर दिया है। ठीक वैसे ही जैसे भारत के हर शहर की एक सब्जी मंडी होती है, जहां ताजा सब्जियों के ढ़ेर लगे होते हैं। इन देशों के महंगे डिपार्टमेंटल स्टोरर्स में भी सब्जियों के ढ़ेर उसी तरह लगे दिखाई देते हैं। यानि काल का पहिया जहां से चला, वहीं पहुंच गया।
 
मैगी नूडल्स को लेकर मचा बवाल निराधार नहीं है। समय आ गया है कि हम जागें। हवा प्रदूषित हो चुकी है, जल प्रदूषित हो चुका है, खाद्यान कीटनाशक दवाओं और रसायनिक उर्वरकों से जहरीले होते जा रहे हैं। ऐसे में हमें अपने पारंपरिक खाने की ओर लौटना होगा। जिसमें संपूर्णता है, सदियों की अपनाई हुई प्रमाणिकता है और हमारे स्वास्थ्य को दुरूस्त रखने की क्षमता है। हमें अपनी परंपराओं के प्रति सम्मान पैदा करना होगा। जिससे हमारे बच्चे मैगी और पेप्सी जैसे हानिकारक पदार्थों की जगह पौष्टिक भोजन में फिर से रूचि लेने लगें, वरना यह विवाद भी कुछ दिनों की अखबारी सुर्खियां बटोर कर ठंडा पड़ जाएगा और हम फिर से मैगी खाने में फक्र का अनुभव करेंगे।

Monday, June 1, 2015

सरस्वती नदी थी और आज भी है

वैदिक काल में उत्तर भारत की प्रमुख नदियों में से एक सरस्वती नदी विद्वानों के लिए यह हमेशा उत्सुकता का विषय बनी रही है। हाल के दिनों में हरियाणा में कुछ वैज्ञानिकों के प्रयास से सरस्वती नदी के विषय में पुनः उत्सुकता पैदा हो गई है जहां कई प्रमाण भी मिल रहे हैं। फिर भी बहुत से लोग मानते हैं कि सरस्वती केवल एक काल्पनिक नदी थी। इतिहासकार हर्ष महान कैरे अपने शोध के आधार पर बताते हैं कि वेदों में सरस्वती नदी के विषय में बहुत से संदर्भ आए हैं। जो इस तथ्य को स्थापित करते हैं कि सरस्वती भारत की एक प्रमुख नदी थी। इन संदर्भों में उसकी भौगोलिक स्थिति के विषय में भी स्पष्ट संकेत मिलते हैं। ऋगवेद के दूसरे मंडल के 41वें सूक्त की 16वीं ऋचा में कहा गया है कि सरस्वती माताओं में सर्वोत्तम है, नदियों में सर्वोत्तम है और देवियों में सर्वोत्तम है। इससे स्पष्ट होता है कि सरस्वती देवी के अतिरिक्त एक नदी भी थी।
 
छठें मंडल के छठे सूक्त की 14वीं ऋचा में कहा गया है कि उत्तर भारत में सात बहिनों के रूप में सात नदियां हैं। उन सभी नदियों में सबसे ज्यादा विस्तार से सरस्वती नदी का ही वर्णन आता है, जो ‘सप्त सिंधु’ की एक प्रमुख अंग थी। सातवें मंडल के 36वें सूक्त की छठी ऋचा में कहा गया है कि सरस्वती सातवीं नदी है और वो अन्य सारी नदियों की माता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इन सात नदियों के एक छोर पर सरस्वती नदी मौजूद थी, जो इस परिस्थति में पूर्व की ओर आखिरी नदी रही होगी। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ये अन्य नदियों से बड़ी थी, तभी तो इसे माता माना गया। सातवें मंडल के 95वें सूक्त की दूसरी ऋचा में लिखा हुआ है कि सरस्वती मुक्त एवं पवित्र नदी है, जो पहाड़ से सागर तक बहती है।
 
इन कुछ उद्धरणों से पता चलता है कि सरस्वती सप्त सिंधु का एक हिस्सा थी, जो सिंधु घाटी की सभ्यता का क्षेत्र है और भारत के पश्चिमी हिस्से तक सीमित था। गंगा-यमुना का दोआब इस ‘सप्त सिंधु’ का हिस्सा नहीं था, क्योंकि यह उस समय आर्यवर्त कहलाता था। इन उद्धरणों में यह भी कहा गया है कि सरस्वती सात बहिनों में से एक बहिन थी। जिसका अर्थ हुआ कि यह अन्य छह नदियों की तरह उसी दिशा में बहकर अरब सागर में गिरती थी जैसे व्यास, सतलज, झेलम, रावी, चिनाब आदि नदियां गिरती हैं। वह पर्वत से सागर तक अलग बहती थी, जिससे स्पष्ट होता है कि वो सिंधु नदी से नहीं मिलती थी। अगर इस इलाके के भूगोल को देखा जाए, तो यह स्पष्ट होगा कि इन मैदानी इलाकों के पूर्व में अरावली पर्वत श्रृंखला है। इसके हिसाब से सरस्वती नदी को अरावली के पश्चिम में और अन्य छह नदियों के पूर्व में होना पड़ेगा। इससे एक ही रास्ता सरस्वती नदी के लिए बचता है कि ये शिवालिक पर्वत श्रृंखला से निकलकर ‘रन आॅफ कच्छ’ में जाकर समुद्र से मिले।
 
सरस्वती नदी के लुप्त होने का रहस्य इन्हीं तथ्यों से समझना पड़ेगा। वेदों में संकेत है कि इस नदी का पानी धीरे-धीरे कम हुआ और उसके बाद ये नदी लुप्त हो गई। इतनी बड़ी नदी सूखती नहीं है। वह केवल अपना मार्ग बदलती है। यदि इस नदी का शिवालिक से मैदान में उतरने का स्थान खोजा जाए, तो इस विषय पर काफी प्रकाश पड़ेगा। उत्तर भारत के मैदानी इलाके को यदि एक सरसरी नजर से देखा जाय, तो पश्चिम से पूर्व तक यह एक-सा भौगोलिक समतल क्षेत्र लगता है, किंतु पानी के बहाव की दृष्टि से यह दो भागों में बंटा हुआ है। चंडीगढ़ से पूर्व में एक रेखा उत्तर से दक्षिण में शिवालिक तक जाती है, जो इसेे दो भागों में बांट देती है। इसके पश्चिम में जो पानी गिरेगा, वो दक्षिण-पश्चिम की ओर बहता हुआ अरब सागर में गिरेगा और जो उसके पूर्व में गिरेगा, वो पूर्व की ओर बहता हुआ बंगाल की खाड़ी में गिरेगा।
 
जिस स्थान पर सरस्वती पहाड़ों से उतरकर मैदानी क्षेत्रों में आती थी, वह इस बिंदु के बहुत करीब है। थोड़ा सा पश्चिम में बहने पर वह अरब सागर की ओर बहेगी और थोड़ा-सा पूर्व में बहने पर वह बंगाल की खाड़ी की ओर बहेगी। ऐसा प्रतीत होता है कि घघ्घर नदी के सूखे हुए मार्ग पर किसी समय सरस्वती दक्षिण पश्चिम की ओर बहती हुई ‘रन आॅफ कच्छ’ में गिरती थी। भौगोलिक इतिहास के किसी काल में शिवालिक के इन पर्वतों पर कोई बड़ी हलचल हुई होगी या किसी बड़े भूकंप के कारण या फिर भारी बाढ़ के कारण सरस्वती नदी की मुख्य धारा टूटकर एक दूसरे मार्ग पर बहने लगी होगी। ये जब मैदानी क्षेत्र में उतरी तो पूर्व की ओर बहने वाले मैदानी क्षेत्र में थी और ये धारा पूर्व की ओर बहने लगी। धीरे-धीरे यही नई धारा मुख्यधारा बन गई और सरस्वती नदी के मुख्य मार्ग पर कुछ समय तक तो  थोड़ा पानी जाता रहा और अंत में एक स्थिति ऐसी आ गई कि पश्चिम की तरफ जाने वाला सारा पानी रूक गया और सरस्वती नदी पूर्णतः पूर्व की ओर बहने लगी।
 
यह नई नदी यमुना के अतिरिक्त कोई दूसरी नदी नहीं हो सकती। क्योंकि ये मैदानी क्षेत्रों में उस स्थान के बहुत समीप है, जहां पर घघ्घर नदी उतरती थी। पुराणों में जो उल्लेख मिलता है, उससे यह संकेत मिलते हैं कि यमुना एक नई नदी है। पुराणों में कहा गया है कि यमुना आरंभ में बहुत चंचल (वाइब्रेंट) थी और बाद में उसके भाई यमराज ने अपने हल से उसके लिए एक मार्ग बनाया, जिसके बाद वह एक निर्धारित मार्ग पर चलने लगी। आज भी प्रयागराज (इलाहबाद) में यही मान्यता है कि वहां दो नदियों का नहीं, बल्कि तीन नदियों का संगम है और यह तीसरी नदी सरस्वती भी वहीं आकर मिल रही है। इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि यमुना केवल अपना ही जल नहीं ला रही है, बल्कि सरस्वती का जल भी उसमें समाहित है।