Monday, February 25, 2019

लोकतंत्र चैराहे पर

चुनाव सिर पर हैंद्य भाजपा समर्थक मीडिया पाकिस्तान के विरुद्ध उन्माद पैदा करने में जुटा है। अंदेशा है कि प्रधान मंत्री मोदी भी कुछ ऐसा कर सकते हैं जो हवा उनकी तरफ बहने लगे। सम्विधान की धारा 35370 को राष्ट्रपति के अध्यादेश से खत्म करवाना, ऐसा ही एक कदम है। धारा 35 हटने से कश्मीर के बाहर के भारतीय नागरिक वहां स्थाई संपत्ति खरीद पायेंगे और 370 हटने से कश्मीर को मिला विशेष दर्जा समाप्त हो जाएगा। ये दोनों ही बातें ऐसी हैं जिनकी मांग संघ व भाजपा के कार्यकर्त्ता शुरू से करते आ रहे हैं। जाहिर है कि अगर मोदी जी ऐसा करते हैं तो इसे चुनावों में भुनाने की पुरजोर कोशिश की जायेगी जिसका जाहिरन काफी लाभ भाजपा को मिल सकता है। किन्तु इसमें कुछ पेंच हैं। संविधान का कोई भी संशोधन संसद की स्वीकृति के बिना स्थाई नहीं रह सकता। क्योंकि राष्ट्रपति अध्यादेश की अवधि 6 महीने की होती है। आवश्यक नहीं कि अगली लोक सभा इसे पारित करे। उस स्थिति में यह अध्यादेश निरस्त हो जाएगा। पर इस बीच में जो राजनैतिक लाभ भाजपा चाहती है वह तो ले ही लेगी।
एक दूसरा पेंच यह है कि जम्मू कश्मीर का सृजन ही धारा 370 के तहत हुआ है। अगर यह धारा समाप्त कर दी जाती है तो कश्मीर भारत का अंग नहीं रह पायेगा और 1948 की स्थिति में एक स्वतंत्र राष्ट्र हो जाएगा। इसलिए अगर मोदी जी यह अध्यादेश लाते भी हैं तो दर्जनों बड़े वकील इसपर स्थगन आदेश लेने सर्वोच्च न्यायालय दौड़ेंगे। अगर अदालत ने स्थगन आदेश दे दिया तो सरकार की किरकिरी हो जाएगी।
इस समय लोकतंत्र एक ऐसा चैराहे पर खड़ा है, जहां एक तरफ मोदी-अमित शाह की जोड़ी है। जो जिहाद के मूड में है। उन्हें किसी भी तरह ये चुनाव जीतना है और इसके लिए उनके पास धन बल, सत्ता बल व अन्य सभी तरह के बल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इसलिए मोदी जी कोई जोखिम उठाने से हिचकेंगे नहीं। क्योंकि उन्होंने अपने मन में ठान ली है, ‘करो या मरो’। कानूनी या राजनैतिक विवाद जो भी उठेंगे, उन्हें चुनावों के बाद साध लिया जाऐगा, यह सोचकर मोदी-अमित शाह की जोड़ी कोई भी जोखिम उठाने के लिए रूकेगी नहीं। चाहे वो पाकिस्तान पर हमला ही क्यों न हो।
दूसरी तरफ विपक्ष बिखरा हुआ है, अपने-अपने अहम और अंहकार में क्षेत्रिय दलों के सत्रप एकजुट नहीं हो पा रहे हैं। उन्हें भ्रम है कि वे अपने-अपने क्षेत्र में अपने मतों पर पकड़ बनाऐ रखेंगे। वे ये नहीं सोच पा रहे कि जब मोदी का कश्मीर या पाकिस्तान ऑपरेशन सफल हो जाऐगा, तो फिर से मीडिया देश में देशभक्ति का गुबार पैदा करने में जुट जाऐगा। जिससे चुनाव की पूरी हवा भाजपा के पक्ष में रहेगी औ विपक्षी दलों के नेता चुनावों के बाद औंधे पड़े होंगे। विपक्ष का भविष्य तभी सुरक्षित, जब सभी विपक्षी दल अपने अहम को पीछे छोड़कर, एक साझा मंच बनाये और भाजपा से सीधा मुकाबला करे।
उधर पाकिस्तान पर हमला करने के कुछ जोखिम भी हैं। एक तो ये कि पाकिस्तान को सऊदी अरब, चीन और अमरिका की खुली मदद मिल रही है। चीन ने पाक अधिकृत कश्मीर से करांची के बंदरगाह तक जो अपनी सड़क पहुचाई है, उस पर वो किसी किस्म का खतरा बर्दाश्त नहीं करेगा। क्योंकि यह सड़क उसके लिए सामरिक और व्यापारिक हित साधने का सबसे बड़ा साधन है। ठंडे पानी के चीन सागर से करांची के गर्म पानी के अरब सागर तक पहुंचने का उसका रास्ता अब साफ हो गया है। इसके अलावा भी अन्य कई कारण हैं, जिससे चीन पाकिस्तान के साथ खड़ा है, चाहे चीन के राष्ट्रपति मोदी जी के साथ कितनी ही झप्पी डालें। अगर भारत पाकिस्तान पर हमला करता है, तो चीन भी भारत पर तगड़ा हमला कर सकता है। उधर पाकिस्तान के सेना नायकों को अगर फितूर चढ़ गया और उन्होंने एक एटम बम भारत की तरफ फेंक दिया, तो उत्तर भारत में तबाही मच जाऐगी। जनता हाहाकार करेगी। उधर फिर भारत भी चुप नहीं बैठेगा और इस तरह एक आणविक युद्ध छिड़ जाने का खतरा है।
हो सकता है कि कुछ भावुक लोग मेरी इस बात को कायराना समझें। पर सोचने वाली बात ये है कि क्या एक बार पाकिस्तान पर हमला करने से आतंकवाद खत्म हो जाऐगा? जबकि भारत में आतंकवादियों को पैसा पश्चिमी ऐशिया, बांग्लादेश, अरूणाचल और नेपाल के रास्ते भी आता है। आयरलैंड जैसा देश दशकों तक आतंकवाद पर काबू नहीं पा पाया था।
दरअसल आतंकवाद के अन्य बहुत से कारण भी हैं। जिन पर रातों-रात काबू नहीं पाया जा सकता। इसलिए सरकार जो भी कदम उठाये, उसमें किसी दल का हित न देखकर, राष्ट्र का हित देखना चाहिए। ऐसा न हो कि चुनाव की हड़बड़ी में ऐसे कदम उठा लिये जाऐ, जिनका समाज और देश की अर्थव्यवस्था पर बरसों तक उल्टा असर पड़े और आतंकवाद खत्म होने की बजाय देश में साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ जाऐ। देश की शांति व्यवस्था भंग हो जाऐ और करोबार ठप्प होने की स्थिति में आ जाऐ। आशा की जानी चाहिए कि मोदी जी जो भी करेंगे, सही लोगों की सलाह लेकर करेंगे और अपने राजनैतिक स्वार्थ की बजाय राष्ट्र के हित को सर्वोपरि रखेंगे।

Monday, February 18, 2019

आतंकवाद के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो

जम्मू कश्मीर के पुलवामा में हुए आत्मघाती हमले से पूरा भारत आज दुखी है और आक्रोश में है। इस त्रासदी के समय हम सब प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के साथ हैं। देशवासी चाहते हैं कि आतंकी वारदात पर कड़़ी कार्यवाही हो। पर सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कड़ी कार्यवाही तो पहले भी होती रही है। प्रश्न है कि जब सुरक्षाबलों का काफिला चलता है, तो उस मार्ग को पहले सुरक्षित कर दिया जाता है। जब ढाई्र हजार जवानों का आधा किलोमीटर लंबा काफिला एक जगह से दूसरी जगह सड़क मार्ग से जा रहा था, तो क्या उस पर ड्रोन से नजर, हेलिकॉप्टर से निगरानी रखते हुए, सुरक्षा कवच नहीं होना चाहिए था? ताकि अगल-बगल से कोई अनाधिकृत गाड़ी या बारूद से भरी कार, बस द्वारा किसी तरह की संदिग्ध गतिविधि न हो। आश्चर्य है कि इतनी भारी मात्रा विस्फोटक का प्रयोग कैसे कर लिया गया? कैसे इन विस्फोटक अतिसंवेनशील क्षेत्र में आतंकवादी तक पहुंचा? हमारी रक्षा और गृह मंत्रालय की खुफिया ऐजेंसी क्या कर रही थी?
अब सवाल उठता है कि देश में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाए। हमारा देश ही नहीं दुनिया के तमाम देशों का आतंकवाद के विरुद्ध इकतरफा साझा जनमत है। ऐसे में सरकार अगर कोई ठोस कदम उठाती है, तो देश उसके साथ खड़ा होगा। उधर तो हम सीमा पर लड़ने और जीतने की तैयारी में जुटे रहें और देश के भीतर आईएसआई के एजेंट आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहें तो यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। मैं कई वर्षों से लिखता रहा हूं कि देश की खुफिया एजेंसियों को इस बात की पुख्ता जानकारी है कि देश के 350 से ज्यादा शहरों और कस्बों की सघन बस्तियों में आरडीएक्स, मादक द्रव्यों और अवैध हथियारों का जखीरा जमा हुआ है जो आतंकवादियों के लिए रसद पहुँचाने का काम करता है। प्रधानमंत्री को चाहिए कि इसके खिलाफ एक ‘आपरेशन क्लीन स्टार’ या ‘अपराधमुक्त भारत अभियान’ की शुरुआत करें और पुलिस व अर्धसैनिक बलों को इस बात की खुली छूट दें जिससे वे इन बस्तियों में जाकर व्यापक तलाशी अभियान चलाएं और ऐसे सारे जखीरों को बाहर निकालें।
आतंकवाद को रसद पहुंचाने का दूसरा जरिया है हवाला कारोबार। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के तालिबानी हमले के बाद से अमरीका ने इस तथ्य को समझा और हवाला कारोबार पर कड़ा नियन्त्रण कर लिया। नतीजतन तब से आज तक वहां आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुइ। जबकि भारत में पिछले 23 वर्षों से हम जैसे कुछ लोग लगातार हवाला कारोबार पर रोक लगाने की मांग करते आये हैं। पर ये भारत में बेरोकटोक जारी है। इस पर नियन्त्रण किये बिना आतंकवाद की श्वासनली को काटा नहीं जा सकता। तीसरा कदम संसद को उठाना है द्य ऐसे कानून बनाकर जिनके तहत आतंकवाद के आरोपित मुजरिमों पर विशेष अदालतों में मुकदमे चला कर 6 महीनों में सजा सुनाई जा सके। जिस दिन मोदी सरकार ये 3 कदम उठा लेगी उस दिन से भारत में आतंकवाद का बहुत हद तक सफाया हो जाएगा।
अगर आतंकवाद पर राजनीतिकों की दबिश की समीक्षा करें तो यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि सरकारें अब तक आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर उपाय कर नहीं पायी है। राजनीतिक तबका आतंकवाद को व्यवस्था के खिलाफ एक अलोकतांत्रिक यंत्र ही मानता रहा है और बेगुनाह नागरिकों की हत्याओं के बाद येही कहता रहा है कि आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। होते होते कई दशक बीत जाने के बाद भी विश्व में आतंकवाद के कम होने या थमने का कोई लक्षण हमें देखने को नहीं मिलता।
नए हालात में जरूरी हो गया है कि आतंकवाद के बदलते स्वरुप पर नए सिरे से समझना शुरू किया जाए। हो सकता है कि आतंकवाद से निपटने के लिए बल प्रयोग ही अकेला उपाए न हो। क्या उपाय हो सकते हैं उनके लिए हमें शोधपरख अध्ययनों की जरूरत पड़ेगी। अगर सिर्फ 70 के दशक से अब तक यानी पिछले 40 साल के अपने सोच विचारदृष्टि अपनी कार्यपद्धति पर नजर डालें तो हमें हमेशा तदर्थ उपायों से ही काम चलाना पड़ा ह। इसका उदाहरण कंधार विमान अपहरण के समय का है जब विशेषज्ञों ने हाथ खड़े कर दिए थे कि आतंकवाद से निपटने के लिए हमारे पास कोई सुनियोजित व्यवस्था ही नहीं है।
यदि विश्वभर के शीर्ष नेतृत्त्व एकजुट होकर कुछ ठोस कदम उठाऐं, तो उम्मीद है कि हम आतंकवाद के साथ भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, शोषण और बेरोजगारी जैसी समस्याओं का भी समाधान पा लें।
देश इस समय गंभीर हालत से गुजर रहा है। मातम की इस घड़ी में रोने के बजाए सीमा सुरक्षा पर गिद्धदृष्टि और दोषियों को कड़ा जबाब देने की कार्यवाही की जानी चाहिए। पर ये भी याद रहे कि हम जो भी करें, वो दिलों में आग और दिमाग में बर्फ रखकर करें।

Monday, February 11, 2019

सौगंध राम की खाते हैं-हम मंदिर वहीं बनाएंगे

आरएसएस व विहिप द्वारा अर्ध कुम्भ में बुलाई गई धर्म संसद में जमकर हंगामा हुआ। मंच से संघ, विहिप और उनके बुलाये संतों के मुख से ये सुनकर कि अयोध्या में श्री राम मंदिर बनाने में जल्दी नहीं की जाएगी। कानून और संविधान का पालन होगा। अभी पहले चुनाव हो जाने दें। आप सब भाजपा को वोट दें जिससे जीतकर आई नई सरकार फिर मंदिर बनवा सके।

इतना सुनना था कि पहले से ही आधा खाली पंडाल आक्रामक होकर मंच की तरफ दौड़ा। श्रोता, जिनमे ज्यादातर विहिप के कार्यकर्ता थे, आग बबूला हो गए और मंचासीन वक्ताओं को जोर जोर से गरियाने लगे। उनका कहना था की तीस वर्षों से उन्हें उल्लू बनाकर मंदिर की राजनीति की जा रही है। अब वो अपने गांव और शहरों में जनता को क्या मुँह दिखाएंगे ?
उल्लेखनीय है कि गत कुछ महीनों से संघ, विहिप और भाजपा लगातार मंदिर की राजनीति को गर्माने में जुटे थी। इस मामले की बार-बार तारीख बढ़ाने पर कार्यकर्ता और उनका प्रायोजित सोशल मीडिया सर्वोच्च न्यायालय पर भी हमला कर रहे थे। मुख्य न्यायाधीश को हिन्दू विरोधी बता रहे थे। मंदिर निर्माण के लिये कानून अपने हाथ मे लेने की धमकी दे रहे थे। सरकार से अध्यादेश लाने को कह रहे थे। फिर उन्होंने अचानक धर्म संसद में ये पलटी क्यों मार ली गई ?
दरअसल पिछले कई महीनों से संघ व भाजपा के अंदरूनी जानकारों का कहना था कि मंदिर निर्माण को लेकर ये संगठन और सरकार गम्भीर नहीं हैं। वे इस मुद्दे को जिंदा तो रखना चाहते हैं, पर मंदिर निर्माण के इस पचड़े में पड़ना नहीं चाहते। उधर सर्वोच्च न्यायालय के हाल के कई फैसलों का रुख देखने के बाद ये आश्चर्य भी व्यक्त किया जा रहा था कि जब लगभग हर मामले में सर्वोच्च अदालत यथासंभव सरकार के हक में ही फैसले दे रही है तो राम मंदिर का मामला क्यों टाला जा रहा है ? कहीं सरकार ही तो इसे गुपचुप टलवा नहीं रही ?
सरकार के इस टालू रवैये को देखकर ही शायद दो पीठों के शंकराचार्य स्वरूपानंद जी ने पिछले हफ्ते अर्ध कुम्भ में धर्म संसद बुलाकर मंदिर निर्माण की तारीख की घोषणा तक कर डाली। उन्होंने संतों और भक्तो का आव्हान किया कि वे 21 फरवरी को मंदिर का शिलान्यास करने अयोध्या पहुंचें। 
इस तरह अपने पारम्परिक धार्मिक अधिकार के आधार पर उन्होंने मंदिर की राजनीति करने वालों को अचानक बुरी तरह से झकझोर दिया। उनके लिये एक बड़ी चुनौती खडी कर दी। अगर वे शंकराचार्य जी को राम जन्मभूमि की ओर बढ़ने से रोकते हैं तो देश विदेश में ये संदेश जाएगा कि केंद्र और राज्य में भाजपा की बहुमत सरकारों ने भी संतों को मंदिर नहीं बनाने दिया । जबकि केंद्र सरकार ने खुद पिछले 5 वर्षों में इस ओर कोई प्रयास किया ही नहीं। अगर सरकार उन्हें नहीं रोकती है तो कानून और व्यवस्था की स्थिति पैदा हो जाएगी। इस मामले में स्वामी स्वरूपानंद जी शंकराचार्य को यदि गिरफ्तार या नजरबंद करना पड़ा तो ये सरकार को और भी भारी पड़ेगा। क्योंकि अपनी सत्ता और पैसे के बल पर सरकार चाहे जितने अवसरवादी संत मंच पर जोड़ ले, वे शंकराचार्य जैसी सदियों पुरानी धार्मिक पीठ की हैसियत तो प्राप्त नहीं कर सकते ?
इसीलिये हड़बड़ाहट में संघ व विहिप नेतृत्व को भी धर्म संसद बुलाकर फिलहाल मंदिर की मांग टालने की घोषणा करनी पड़ी। पर इसकी जो तुरंत प्रतिक्रिया पंडाल में हुई या अब जो जनता में होगी, जब ये संदेश उस तक पहुंचेगा, तो भाजपा की मुश्किल और बढ़ जाएगी। क्योंकि उसकी और उसके सहोदर संगठनों की ये छवि तो मतदाता के मन मे पहले से ही बनी है कि ये सब संगठन केवल चुनाव में वोट लेने के लिए राम मंदिर का मामला हर चुनाव के पहले उठाते है, जन भावनाएं भड़काते हैं, और फिर सत्ता में आने के बाद मंदिर निर्माण को को भूल जाते हैं। ये ही सिलसिला गत तीस वर्षों से चल रहा है।
दरअसल इस सबके पीछे एक कारण और भी हैं। बाबरी मस्जिद विध्वंस को लगभग तीस वर्ष हो गए। जो पीढी उसके बाद जन्मी उसे मंदिर उन्माद का कुछ पता नहीं। उसे तो इस बात की हताशा है कि उसे आज तक रोजगार नहीं मिला। भारत सरकार के ही सांख्यकी विभाग की एक हाल में लीक हुई रिपोर्ट के अनुसार आज भारत मे गत 42 वर्षों की तुलना में सबसे ज्यादा बेरोजगारी बढ़ चुकी है। जिससे युवाओं में भारी हताशा और आक्रोश है। उन्हें धर्म नहीं रोजी रोटी चाहिए। इसलिए भी शायद संघ व भाजपा नेतृत्व को लगा हो कि कहीं इस चुनावी माहौल में मंदिर की बात करना भारी न पड़ जाय, तो क्यों न इसे फिलहाल  टाल दिया जाय।
जो भी हो ये तय है कि पिछले इतने महीनों से अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण की हवा बना रहा भाजपा और संघ परिकर अब इस मुद्दे पर पतली गली से बाहर निकल चुका है। उसकी कोशिश होगी कि वो इस मुद्दे पर से मतदाताओं का ध्यान हटा कर किसी नए मुद्दे पर फंसा दे, जिससे चुनावी वैतरणी पार हो जाय। पर मतदाता इस पर क्यानिर्णय लेता है, ये तो आगामी लोकसभा चुनाव के परिणाम से ही पता चलेगा।

Monday, February 4, 2019

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारार्थ कुछ प्रश्न

पिछले हफ्ते ट्वीटर पर मैंने सरसंघचालक जी से एक खुले पत्र के माध्यम से विनम्रता से कहा कि मुझे लगता है कि संघ कभी-कभी हिन्दू धर्म की परंपराओं को तोड़कर अपने विचार आरोपित करता है।  जिससे हिंदुओं को पीड़ा होती है। जैसे हम ब्रजवासियों के 5000 वर्षों की परंपरा में वृन्दावन और मथुरा का भाव अलग था, उपासना अलग थी व दोनों की संस्कृति भिन्न थी। पर आपकी विचारधारा की उत्तर प्रदेश सरकार ने दोनों का एक नगर निगम बनाकर इस सदियों पुरानी भक्ति परम्परा को नष्ट कर दिया, ऐसा क्यों किया ?
इसका उत्तर मिला कि संघ का सरकार से कोई लेना देना नहीं है। देश की राजनीति, पत्रकारिता या समाज से सरोकार रखने वाला कोई भी व्यक्ति क्या यह मानेगा कि संघ का सरकार से कोई संबंध नहीं होता ? सच्चाई तो यह है कि जहां-जहां भाजपा की सरकार होती है, उसमें संघ का काफी हस्तक्षेप रहता है। फिर ये आवरण क्यों ? यदि भाजपा संघ की विचारधारा व संगठन से उपजी है तो उसकी सरकारों में हस्तक्षेप क्यों न हो ? होना ही चाहिए तभी हिन्दू हित की बात आगे बढ़ेगी।
मेरा दूसरा प्रश्न था कि हम सब हिन्दू वेदों, शास्त्रों या किसी सिद्ध संत को गुरु मानते हैं, ध्वज को गुरु मानने की आपके यहां ये परंपरा किस वैदिक स्रोत से ली गई है ? इसका उत्तर नागपुर से मुकुल जी ने संतुष्टिपूर्ण दिया। विभिन्न संप्रदायों के झगड़े में न पड़के संघ ने केसरिया ध्वज को धर्म, संस्कृति, राष्ट्र की प्रेरणा देने के लिये प्रतीक रूप में गुरु माना है। वैसे भी ये हमारी सनातन संस्कृति में सम्मानित रहा है।
मेरा तीसरा प्रश्न था कि हमारी संस्कृति में अभिवादन के दो ही तरीके हज़ारों वर्षों से प्रचलित हैं ; दोनों हाथ जोड़कर करबद्ध प्रणाम (नमस्ते) या धरती पर सीधे लेटकर दंडवत प्रणाम। तो संघ में सीधा हाथ आधा उठाकर, उसे मोड़कर,  फिर सिर को झटके से झुकाकर ध्वज प्रणाम करना किस वैदिक परंपरा से लिया गया है ? इसका कोई तार्किक उत्तर नहीं मिला। हम जानते हैं कि अगर बहता न रहे तो रुका जल सड़ जाता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। संघ ने दशाब्दियों बाद नेकर की जगह हाल ही में पेंट अपना ली है। तो प्रणाम भी हिन्दू संस्कृति के अनुकूल ही अपना लेना चाहिए। भारत ही नहीं जापान जैसे जिन देशों में भी भारतीय धर्म व संस्कृति का प्रभाव हैं वहां भी नमस्ते ही अभिवादन का तरीका है। माननीय भागवत जी को इस पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। क्योंकि अभी जो ध्वज प्रणाम की पद्ति है, वो किसी के गले नहीं उतरती। क्योंकि इसका कोई तर्क नहीं है। जब हम बचपन मे शाखा में जाते थे तब भी हमें ये अटपटा लगता था।
मेरा चौथा प्रश्न था कि वैदिक परंपरा में दो ही वस्त्र पहनना बताया गया है ; शरीर के निचले भाग को ढकने के लिए 'अधोवस्त्र' व ऊपरी भाग को ढकने के लिए 'अंग वस्त्र' । तो ये खाकी नेकर/पेंट, सफेद कमीज़ और काली टोपी किस हिन्दू परंपरा से ली गई है ? आप प्राचीन व मध्युगीन ही नहीं आधुनिक भारत का इतिहास भी देखिए तो पाएंगे कि अपनी पारंपरिक पोशाक धोती व बगलबंदी पहन कर योद्धाओं ने बड़े-बड़े युद्ध लड़े और जीते थे। तो संघ क्यों नहीं ऐसी पोषक अपनाता जो पूर्णतःभारतीय लगे। मौजूदा पोषक का भारतीयता से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।
सोशल मीडिया पर वायरल हुए मेरे इन प्रश्नों के जवाब में मुझे आसाम से 'विराट हिन्दू संगठन' के एक महासचिव ने ट्वीटर पर जान से मारने की खुली धमकी दे डाली। ये अजीब बात है। दूसरे धर्मों में प्रश्न पूछने पर ऐसा होता आया है। पर भारत के वैदिक धर्म ग्रंथों में प्रश्न पूछने और शास्तार्थ करने को सदैव ही प्रोत्साहित किया गया है। मैं नहीं समझता कि माननीय डॉ मोहन भागवत जी को मेरे इन प्रश्नों से कोई आपत्ति हुई होगी ? क्योंकि वे एक सुलझे हुए, गम्भीर और विनम्र व्यक्ति हैं। पर उन्हें भी सोचना चाहिए कि मुझ जैसे कट्टर सनातनधर्मी की भी विनम्र जिज्ञासा पर उनके कार्यकर्ताओं को इतना क्रोध क्यों आ जाता है ? भारत का समाज अगर इतना असहिष्णु होता तो भारतीय संस्कृति आज तक जीवित नहीं रहती। भारत वो देश है जहां झरनों का ही नहीं नालो का जल भी मां गंगा में गिरकर गंगाजल बन जाता है। विचार कहीं से भी आएं उन्हें जांचने-परखने की क्षमता और उदारता हम भारतीयों में हमेशा से रही है।
संघ के कार्यकर्ताओं का इतिहास, सादगी, त्याग और सेवा का रहा है। पर सत्ता के संपर्क में आने से आज उसमें तेज़ी से परिवर्तन आ रहा है। ये चिंतनीय है। अगर संघ को अपनी मान-मर्यादा को सुरक्षित रखना है, तो उसे इस प्रदूषण से अपने कार्यकर्ताओं को बचाना होगा। मुझे विश्वास है कि डॉ साहब मेरे इन बालसुलभ किंतु गंभीर प्रश्नों पर विचार अवश्य करेंगे। वंदे मातरम।