Sunday, September 27, 2009

दून स्कूल से नक्सलवाद तक


दिल्ली पुलिस की सतर्कता से पकड़े गये कोबाद घाँदी पर घोर माओवादी हिंसक गतिविधियों को संचालित करने के आरोप हैं। कोबाद घाँदी मुम्बई के धनी परिवार में जन्मे, देहरादून के धनाढ्यों के दून स्कूल, मुम्बई के प्रतिष्ठित जेवियर्स का¡लेज और विदेशों में शिक्षा पायी। पर चमक-दमक की जिंदगी से दूर नागपुर में मजदूरों के साथ उनका जैसा जीवन बिताया और आरोप है कि माओवादी विचारधारा को बढ़ाते हुए कई खतरनाक कारनामों को अंजाम दिया। आज से 15 वर्ष  पहले इसी तरह का एक जोड़ा अनूप और सुधा अक्सर मेरे पास आते थे और मैं भी उनके निमन्त्रण पर कई बार उनके कार्यक्षेत्र छत्तीसगढ़ में जनसभायें सम्बोधित करने गया। अनूप वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के बेटे और दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफन्स का¡लेज के छात्र रहे थे। जबकि सुधा मशहूर अर्थशास्त्री कृष्णा भरद्वाज की बेटी हैं। सुधा ने पढ़ाई आई़़ आई़ टी और लंदन स्कूल आ¡फ इका¡नोमिक्स से की। जब मैं भिलई में उनकी झौंपड़ी में गया तो देखकर दंग रह गया कि खान मजदूरों की बस्ती में रहने वाले इस युवा युगल की झौंपड़ी में दो-चार जोड़ी कपड़े, एल्यूमिनियम के बर्तन, एक चारपाई और मिट्टी के तेल का स्टोव कुल जमा इतने ही साधन थे जिसमें वे जीवन यापन कर रहे थे। घोर वामपंथी विचारधारा का यह युवा अनेक बार पुलिस की दबिश का शिकार भी होता था। उनका अपराध था मजदूरों को हक दिलाने की लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभाना।

गृहमंत्री पी.चिदम्बरम कोबाद घाँदी की गिरफ्तारी पर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने पुलिस को इसके लिए बधाई दी। उन्होंने नक्सलवाद से निपटने के लिए हवाई हमलों की मदद और पूरी फौजी मदद देने का आश्वासन पुलिसकर्मियों को दिया। नक्सलवादियों की विचारधारा वाकई इतनी खतरनाक है कि धनी लोगों और सत्ताधीशों को ही नहीं, आम शांतिप्रिय लोगों को भी डरा देती है। पर सोचने वाली बात ये है कि कोबाद घाँदी व अनूप और सुधा जैसे हजारों सम्पन्न और ऊँची पढ़ाई पढ़े हुये युवा इस ओर क्यों झुक जाते हैं? उत्तर सरल है। देश के करोड़ों लोग जिस बदहाली का जीवन जीते हैं। जिन अमानवीय दशाओं में काम करते हैं। जिस तरह ठेकेदार इनका शोषण करते हैं। जिस तरह पुलिस और कानून इनकी घोर उपेक्षा करता है। उसे ये संवेदनशील युवा बर्दाश्त नहीं कर पाते। इनके मन में सवाल उठते हैं कि हमें अच्छी जिंदगी जीने का क्या हक है जब हमारे देश के करोड़ों लोग भुखमरी में मर मर कर जी रहे हैं। जिस तरह भगवान बुद्ध राजपाट छोड़कर फकीर बन गए, जिस तरह साठ के दशक में अमरीका के अरबपतियों के बेटे-बेटियाँ हिप्पीबन गए, उसी तरह सम्पन्नता से अरूचि हो जाना और फिर जीवन के नये अर्थ तलाशना कोई अटपटी बात नहीं है। हजारों साल से ऐसा होता आया है। फर्क इतना है कि नक्सलवाद व्यवस्था के विरूद्ध खूनी क्रांति की वकालत करता है। जाहिर है कि ऐसी क्रांति केवल मजदूरों के कंधे पर बन्दूक रखकर नहीं की जा सकती। क्रांति के सूत्रधारों को खुद भी बलिदान देना होता है। कोबाद घाँदी व अनूप और सुधा जैसे हजारों नौजवान ऐसी ही क्रांति का सपना देखते हैं। उसके लिए अपना जीवन होम कर देते हैं। सफल हों या न हों, यह अनेक दूसरे कारकों पर निर्भर करता है।

जहाँ तक इन नौजवानों के समर्पण, त्याग, निष्ठा और शहादत की भावना का सवाल है, उस पर कोई सन्देह नहीं कर सकता। जो सवाल इन्होंने उठाये हैं वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। दरअसल ये नौजवान उन्हीं सवालों को उठा रहे हैं, जिन्हें हमारे संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों ने इस लोकतंत्र का लक्ष्य माना है। यह विडम्बना है कि आज आजादी के 62 वर्ष बाद भी हम इन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाये हैं। देश के करोड़ों बदहाल लोगों की जिंदगी सुधारने के लिए सरकारें दर्जनों महत्वाकांक्षी योजनाऐं बनाती आयी है। इन पर अरबों रूपये के आवण्टन किये गये हैं। पर जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी कहती है। कार्यपालिका के अलावा भी लोकतंत्र के बाकी तीन खम्बे अपनी अहमियत और स्वतंत्रता का ढिंढोरा पीटने के बावजूद इस देश के करोड़ों बदहाल लोगों को न तो न्याय दिला पाये हैं और न ही उनका हक। इसलिए नक्सलवाद जन्म लेता है।

गृहमंत्री का सोचना उचित है। अगर कुछ लोग कानून और व्यवस्था को गिरवी बना दें तो उनके साथ कड़े से कड़ा कदम उठाना ही होता है। माओवादी हिंसा जिस तेजी से देश में फैल रही है, वह स्वाभाविक रूप से सरकार की चिंता का विषय होना चाहिए। पर यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है, क्या माओवाद का यह विस्तार आत्मस्फूर्त है या इसे चीन के शासनतंत्र की परोक्ष मदद मिल रही है? खुफिया एजेंसियों का दावा है कि भारत में बढ़ता माओवाद चीन की विस्तावादी रणनीति का हिस्सा है। जो देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए गम्भीर खतरा बन गया है। ऐसे में इन युवाओं को यह सोचना चाहिए कि वे किसके हाथों में खेल रहे हैं। अगर दावा यह किया जाये कि चीन सही मामलों में घोर साम्यवादी देश है तो यह ठीक नहीं होगा। जबसे चीन ने आर्थिक आदान-प्रदान के लिए अपने द्वार खोले हैं तबसे भारत से अनेक बड़े व्यापारी और उद्योग जगत के बड़े अफसर नियमित रूप से चीन जाने लगे हैं। बाहर की चमक-दमक को छोड़कर जब वे चीन के औद्योगिक नगरों में पहुँचते हैं तो वहाँ चीन के निवासियों की आर्थिक दुर्दशा देखकर दंग रह जाते हैं। बेचारों से बन्धुआ मजदूर की तरह रात-दिन कार्य कराया जाता है। लंच टाइम में उनके चावल का कटोरा और पानी सी दाल देखकर हलक सूख जाता है। हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते।रूस की क्रांति के बाद भी क्या रूस में सच्चा साम्यवाद आ सका? आ ही नहीं सकता, क्योंकि यह एक काल्पनिक आदर्श स्थिति है। धरातल की सच्चाई नहीं।

जरूरत इस बात की है कि चिदम्बरम जी के संवदेनशील अधिकारी इन माओवादी समूहों के नेताओं का बातचीत के रास्ते इनका दिमाग पलटने का प्रयास करें। इन्हें जो भी आश्वासन दिया जाये वह समय से पूरा किया जाये। व्यवस्था को लेकर इनकी शिकायतों पर गम्भीरता से ध्यान दिया जाये। ताकि इनके आक्रोश का ज्वालामुखी फटने न पाये। अगर हमारे देश के कर्णधार ईमानदारी से गरीब के मुद्दों पर ठोस कदम उठाना शुरू कर दें तो नक्सलवाद खुद ही निरर्थक बन जायेगा। पर फिलहाल तो यह बड़ी चुनौती है। जिससे जल्दी निपटना होगा वरना हालात बेकाबू होते जायेंगे। भारत आतंकवाद, पाकिस्तान, चीन से तो सीमाओं पर उलझा ही रहता है, अगर घरेलू स्थिति को माओवादी अशांत कर देंगे तो सरकार के लिए भारी मुश्किल पैदा हो जायेगी। माओवाद या नक्सलवाद से जुड़े लोग अपराधी नहीं हैं। वे व्यवस्था के द्वारा किये गये अपराध का प्रतिरोध कर रहे हैं। इसलिए उनसे निपटने के तरीके भी अलग होने चाहिए। मेरे जैसे अध्यात्म में रूचि रखने वाले लोग नक्सलवाद का कभी समर्थन नहीं कर सकते पर हम उनसे सिर्फ इसलिए घृणा नहीं करेंगे क्योंकि वे भी अपने जीवन में परमार्थ के लिए काफी बलिदान कर रहे हैं।

Sunday, September 13, 2009

राजस्थान कैसे बने हरित प्रदेश?


राजस्थान के मुख्यमंत्री राजस्थान को हरा-भरा बनाना चाहते हैं। रेगिस्तान और सूखे से घिरे राजस्थान के लिए यह अभियान संजीवनी बूटी की तरह सिद्ध हो सकता है बशर्ते इसकी योजना संजीदगी से बनाई जाए और इस अभियान के रास्ते में आने वाली रूकावटों को दूर किया जाए। यह निर्विवाद है कि पेड़ों से हमारे जीवन की रक्षा होती है। भू-जल स्तर ऊंचा होता है। वर्षा की मात्रा और निरंतरता बढ़ती है। वन्य उपज से रोजगार बढ़ता है। वन्य जीवन बढ़ता है। कुल मिलाकर खुशहाली आती है। अगर अशोक गहलोत अपने इस अभियान में सफल हो जाते हैं तो वे एक नया इतिहास रचेंगे। पर इसके लिए उन्हें कुछ क्रांतिकारी कदम उठाने पड़ेगें।

राजस्थान के भरतपुर जिले की डीग व कामा तहसील में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से जुड़े पर्वतों की श्रृखलायें हैं जिन पर गत कुछ वर्षां से भारी मात्रा में अवैध खनन चल रहा था। बरसाना के विरक्त संत रमेश बाबा की प्रेरणा से मानगढ़ के साधुओं, ब्रज रक्षक दल के स्वयं सेवकों, मीडिया, विधायकों व सांसदों के साझे प्रयास से एक लंबा संघर्ष चला। आखिर इस पूरे क्षेत्र को वन विभाग को सौंप दिया गया। पर चिंता की बात यह है कि इसके बावजूद यहां आज भी क्रेशर मशीनें हटी नहीं है। अवैध खनन कम हुआ है पर खत्म नहीं। साधू व स्थानीय जनता आज भी संघर्षरत है। पिछले दिनों ब्रज रक्षक दल के उपाध्यक्ष राधाकांत शास्त्री वनमंत्री रामलाल जाट से मिले थे। जिन्होंने इस दिशा में ठोस कार्यवाही करने का अश्वासन दिया है। उन्हें जानकर आश्चर्य हुआ कि ब्रज क्षेत्र से थोड़ा हटकर राजस्थान में ही पहाड़ी नामक गांव में ऐसे पहाड़ हैं जहां वैध खनन की अनुमति दी जा सकती है।

आवश्यकता है कि इन पर्वतों पर ही नहीं बल्कि पूरे राजस्थान में वृक्षारोपण के कार्य के लिए प्रतिष्ठित स्वयं सेवी संस्थाओं की मदद ली जाए। आज राजस्थान का हरित क्षेत्र मात्र 7 फीसदी है। जिसे श्री गहलोत 23 फीसदी तक ले जाना चाहते हैं। जबकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश का औसत हरित क्षेत्र 21 फीसदी है। देश को स्वस्थ रहने के लिए उसके 33 फीसदी भू-भाग पर हरित पट्टी होनी चाहिए। चूंकि मैदानों में ज्यादा जगह बची नहीं। कब्जे हो गये या पट्टे काट दिये गये या फिर बढ़ती आबादी जंगल की जमीन लील गई। पहाड़ एक ऐसी जगह है जहां पेड़ यदि लगाये जाए और कुछ समय तक जल खाद और सुरक्षा मुहैया कराई जाए तो मात्र 4 वर्ष में एक पहाड़ हरा-भरा जंगल बन जाता है। गुजरात की स्वयं सेवी संस्था समस्त महाजन ने अपने जैन गुरू की प्रेरणा से पालिताना जिले में अपने ही साधनों से 84 हजार हेक्टेयर सूखे पर्वतों को हरा-भरा जंगल बना दिया है। यह संस्था पश्चिमी राजस्थान में भी कार्य कर रही है। इसी तरह अनेक अन्य प्रतिष्ठित स्वयं सेवी संथाएं हैं जो इस काम में अनुभव प्राप्त हैं और राजस्थान सरकार के साथ सहयोग कर सकती है।

इस क्रम में देहरादून का उदाहरण काफी प्रेरणास्पद है। दो दशक पहले तक यहां के पहाड़ों पर चूना पत्थर का इतना बड़ा खनन हो रहा था कि सारी हरियाली नष्ट हो गई। देहरादून शहर के ऊपर सफेद प्रदूषक धूल की पर्त हमेशा जमी रहती थी। आम जनता में टीबी फैल रही थी। एक जनहित याचिका के जवाब में सर्वोच्च न्यायालय ने यहां खनन पर पाबंदी लगाई। फिर फौज से निकले अधिकारियों और जवानों की संस्था ईको टा¡स्क फोर्स को इन पहाड़ांे को हरा-भरा बनाने का जिम्मा दिया गया। इस फोर्स ने रात-दिन मेहनत से काम किया और कुछ ही समय में इस वीरान खनन क्षेत्र को सघन वन बना दिया। आज यहां फिर से हाथी जैसे बड़े-बड़े जंगली जानवर मस्ती में विचरण करते हैं। सैलानी पूरे वर्ष इन वनों का आनंद लेने आते हैं। जब यह देहरादून में हो सकता है तो राजस्थान में क्यों नहीं?

जमीन को हरा-भरा बनाने के लिए मिट्टी की जांच और उपयुक्त पौधों का चयन करना होगा। साथ ही ऐसे पौधे लगाने होंगे जिन्हें कम पानी की आवश्यकता हो और जिनके फलों, पत्तियों व छाल से औषधियां बन सके। मुश्किल यह आती है कि मुख्यमंत्री की चाहे कितनी भी सद्इच्छा क्यों न हों यदि वन विभाग के अधिकारी नकारात्मक, भ्रष्ठ या आलसी रवैया लेकर बैठे रहेंगे तो उत्साही संस्थाएं हताश होकर लौट जायेंगी। मुख्यमंत्री को यह सुनिश्चित करना होगा कि जो भी सामाजिक संस्था, स्वयं सेवी संस्था, औद्यौगिक घराना, शिक्षा संस्थान या जागरूक नागरिक अपने इलाके को अगर हरा-भरा करने के लिए आगे आते हैं तो उन्हें धक्के न खाने पड़े। उनके काम में रोड़े न अटकाये जाएं। उनकी समस्याएं प्राथमिकता से हल की जाए। इससे एक फिजा़ बनेगी। हरित प्रदेश का अभियान एक आन्दोलन का रूप ले लेगा। पिछले दो दशकों में बढ़ते पानी के संकट, घटते हरित क्षेत्र और बढ़ते प्रदूषण से त्रस्त होकर अब आम लोग भी पर्यावरण की रक्षा के महत्व को समझने लगे हैं।

अपने भाषणों व संदेशों के माध्यम से मुख्यमंत्री को प्रदेश की जनता को इस काम के लिए सक्रिय करना होगा। दिल्ली, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों ने लगातार जनता से सीधा संवाद कायम कर ऐसी हवा बनाई कि प्रशासन भी जिम्मेदारी से व्यवहार करने लगा। स्वयं सेवी संस्थाओं की भूमिका को इन मुख्यमंत्रियों ने काफी महत्व दिया। इससे सत्ता निरंकुश होने से बच गई और इन संगठनों व संस्थाओं ने निगेबान का काम किया। जिसका लाभ इन नेताओं को मिला जो दुबारा शानदार तरीके से जीतकर आए। सूखे इलाके को हरा बनाना सबाब का ही नहीं फायदे का भी काम है। इसलिए कोई किसी मज़हब या जात का हो इस काम में पीछे नहीं हटेगा। बशर्तें कि राज्य सरकार उसको प्रेरित कर सके।

Sunday, September 6, 2009

‘पावर’ के मामले में नितीश कुमार पिछड़े


बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार पिछले हफ्ते जब दिल्ली में रेल मंत्री से मिलने आये तो ममता बनर्जी ने चार मंजिल नीचे आकर हा¡ल में उनकी आगवानी की। किसी केन्द्रीय मंत्री का राज्य के मुख्यमंत्री का इस तरह स्वागत करना सामान्य बात नहीं है। चुनाव के दौरान भी इंका के युवा नेता राहुल गाँधी ने नितीश कुमार के कामों की तारीफ करके राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया। विरोधी दल के नेता का अच्छा काम सराहे जाने की परम्परा अभी भारतीय लोकतंत्र में स्थापित नहीं हो पायी है। अन्तर्राष्ट्रीय जगत में अपनी सूझबूझ से माइक्रोसाफ्ट को दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनी बनाने वाले बिल गेट्स भी नितीश कुमार के मुरीद हैं और उनसे कई बार मुलाकात कर चुके हैं। यह सम्मान है नितीश के काम करने के तरीके का। सादगी, सच्चाई, ईमानदारी, भलमनसाहत और आम आदमी के दर्द को समझते हुए सरकार चलाना, नितीश के कुछ ऐसे गुण हैं जिन्होंने उन्हें बहुत जल्दी बिहार का नक्शा बदलने में सफल कर दिया है। पर पा¡वरके मामले में नितीश पिछड़ गये हैं। इस बिन्दु पर बाद में आगे आयेंगे, पहले कुछ और बिन्दुओं पर नजर डाल लें।

विपक्षियों का आरोप था कि बिहार की सत्ता जंगलराज से चल रही है। व्यापारी और उद्योगपति बड़ी तादाद में बिहार से पलायन कर रहे थे। लोगों का कहना था कि उनका जीवन वहाँ सुरक्षित नहीं था। अपहरण की घटनाऐं आम थीं। विकास के नाम पर बिहार में औद्योगिकरण तो दूर, बुनियादी ढांचे तक का अभाव था। परन्तु पिछले साढ़े तीन साल में नितीश कुमार ने बिहार को अभय प्रदान की है। कानून का राज कायम किया है। सड़कों का जाल बिछा दिया है। कृषि के क्षेत्र में अनूठे प्रयोग करके किसानों की हालत सुधारने का प्रयास किया है। प्रशासन को जिम्मेदार बनाने की कोशिश की है। अपने उदाहरण से उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार पर लगाम कसी है। ग्रामीण रोजगार की दिशा में भी अच्छा काम किया है। पर पावरके मामले में नितीश कुमार बहुत पिछड़ गये हैं।

पावरयानि बिजली। पटना को छोड़ दे तो बिहार के शहरों, कस्बों और गाँवों में बिजली की भारी समस्या है। कभी-कभी तो तीन-तीन दिन तक बिजली नहीं आती। बिजली औद्योगिक विकास की रीढ़ होती है। जब बिजली ही नहीं होगी तो औद्योगिक उत्पादन कैसे होगा? रोजगार कैसे बढ़ेगा? खुशहाली कैसे आयेगी? किसान की जरूरतें कैसे पूरी होंगी? ऐसे सवाल बिहार के लोग आज नितीश कुमार के शासन से पूछते हैं।

दरअसल बिहार की दशा इतनी खराब थी कि नितीश कुमार को उसे ढर्रे पर लाने में ही काफी वक्त लग गया। अब उनके पास अगले चुनाव से पहले काफी कम समय बचा है। ऐसा नहीं है कि उन्हें चुनौती देने वाला कोई मजबूत दल सामने खड़ा हो। पर यह भी सही है कि इस सवाल पर नितीश को मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है। वे चाहते तो छोटे-छोटे शहरों में गैस पा¡वर प्लांट लगाकर बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित कर सकते थे। बड़े पाॅवर प्लांट्स के लिए रेल मंत्रालय से बात करके कोयला खानों और पा¡वर प्लांटों के बीच रेल कोल लिंकेज  करवा सकते थे। जिससे इन प्लांटों को नियमित कोयले की आपूर्ति होती और बिहार की बिजली उत्पादन क्षमता बढ़ पाती। हो सकता है कि विरोधी दल का मुख्यमंत्री होने के नाते केन्द्र सरकार उनके साथ सहयोग न करती। पर चूंकि कोयले से लदी सभी मालगाड़ी बिहार से होकर जाती हैं, अगर अपने दल के कार्यकर्ताओं को छिपा इशारा करके नितीश इन गाडि़यों को रूकवा लेते तो देशभर में हल्ला मच जाता और सरकार को उनकी मांग माननी पड़ती। पर लगता ये है कि इस ओर उनका ध्यान ही नहीं गया। ऐसे बयान या प्रयास नहीं देखे गये जब नितीश कुमार ने बिहार की बिजली समस्या को दूर करने के कोई ठोस कदम उठाये हों।

अभी भी कोई बहुत समय नहीं निकला है। देश-विदेश में ऐसी तमाम कम्पनियाँ हैं जो छोटे, मझले और बड़े पाॅवर प्लांट भारत में लगाने को अधीर हैं। यहाँ तक कि क्लीन एनर्जीवाले प्लांट लगाने वाली कम्पनियाँ भी हैं जो पर्यावरण के सवाल को ध्यान में रखकर बिजली का उत्पादन करती हैं। ऐसी कम्पनियों को बुलाकर बिहार के कस्बों और शहरों में छोटे-छोटे से पाॅवर प्लांट लगाये जा सकते हैं। आज जब बिजली जाती है तो एक शहर में सैंकड़ांे जेनरेटर चल पड़ते हैं। उससे कितना प्रदूषण होता है? कितना शोर मचता है और पैसे की कितनी बर्बादी होती है? इससे कहीं कम लागत में ये लोग बिजली प्राप्त कर सकते हैं।

छोटे पा¡वर प्लांट लगाने में छह से आठ महीने का समय लगता है। लागत भी ज्यादा नहीं आती और तुरन्त उत्पादन शुरू हो जाता है। इससे एक लाभ और होगा कि बिहार के बड़े उद्योगों की मांग के अनुसार बिजली उपलब्ध हो पायेगी क्योंकि छोटे और मझले उद्योगो के लिए बड़े पा¡वर प्लांटों की बिजली को खींचना नहीं पड़ेगा। इससे औद्योगिक और आर्थिक प्रगति में गति आयेगी। आज बिजली की कमी के कारण भागलपुर के जुलाहे परेशान हैं। उनके कुटीर उद्योग बन्द होने की कगार पर हैं। ऐसे ही प्रदेश के अन्य हिस्सों में भी बिजली का संकट बेरोजगारी का कारण बन रहा है। जिसपर नितीश कुमार को प्राथमिकता से ध्यान देना चाहिए।

पानी और बिजली दो ऐसी जरूरतs हैं जो जनता को बहुत जल्दी परेशान कर देती हैं। जिनकी कमी पर जन आक्रोश भड़क उठता है। आज नितीश कुमार अपने अच्छे कामों से यश कमा रहे हैं। पर पा¡वरमें बने रहने के लिए जो पा¡वरउन्हें चाहिए उसका उत्पादन वे नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए सत्ता में होते हुए भी कहा जा सकता है कि नितीश कुमार पा¡वरके मामले में पिछड़ रहे हैं।