Monday, December 26, 2022

कोरोना की नई लहर से कितना डर?



पिछले कुछ दिनों से चीन में कोरोना की नई लहर को लेकर काफ़ी भयावह दृश्य सामने आए हैं। कोरोना के नये वेरिअंट ने चीन में अपना आतंक दिखाना शुरू कर दिया है। चीन के अलावा कई और देशों में भी इस नये वेरिअंट के मरीज़ पाए गए हैं। दुनिया भर में डर का माहौल बना हुआ है। भारत समेत कई देशों ने कोरोना के इस नये जिन्न से निपटने के लिए सभी सावधानियाँ बरतनी शुरू कर दी हैं। भारत के सभी राज्यों के मुख्य मंत्री और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जनता से सावधान रहने की अपील कर रहे हैं। सबके मन में प्रश्न है कि हमें इस नए वेरिअंट से कितना डरना चाहिए? 

सोशल मीडिया पर चीन में आई कोरोना की नई लहर से ऐसे आँकड़े सुनने को मिल रहे हैं कि इस लहर में दस लाख से अधिक लोगों की मौत हो सकती है। चीन की 60 प्रतिशत आबादी इसकी चपेट में आ जाएगी। ये भी कि दुनिया भर की 10 प्रतिशत आबादी इस नई लहर का शिकार हो जाएगी। ये सब दावे कितने सच्चे है इस पर कोई भी आधिकारिक बयान किसी सरकार द्वारा अभी तक नहीं दिया गया है। चीन ने तो अब आँकड़े जारी करना ही बंद कर दिया है। 


1995 से अमरीका के पेंसिलवेनिया में डाक्टरी कर रहे, आंतरिक चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ रवींद्र गोडसे के अनुसार भारत को इस नई लहर से घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है। देश भर के कई टीवी चैनलों की चर्चाओं में डॉ गोडसे ने इस बात पर ज़ोर देते हुए कहा है कि न तो भारत में ये नई लहर आएगी और न ही यहाँ इसका कोई भारी असर पड़ेगा। वे कहते हैं कि चीन ने अपने यहाँ पनपे इस ख़तरनाक वायरस से निपटने के लिए अत्यधिक सावधानी बरती, परंतु इस घातक वायरस से छुटकारा नहीं पा सका। उदाहरण के तौर पर चीन में तीन साल तक लॉकडाउन रहा। इक्कीस बार टेस्टिंग की गयी। बावन दिनों का क्वारंटाइन किया गया। लेकिन इस सब से क्या हुआ? फिर भी वहाँ नई लहर आ ही गई। 

डॉ गोडसे अपनी बात दोहराते हुए यह भी कहते हैं कि जैसा दावा उन्होंने कोविड के ओमिक्रोन वेरिअंट को लेकर किया था, जो सच साबित हुआ। ठीक उसी तरह वे इस नये वेरिअंट के लेकर भी आश्वस्त हैं कि भारत पर इसका कोई बहुत बड़ा असर नहीं दिखाई देगा। अब इस वेरिअंट को रोकना किसी के लिए भी संभव नहीं है। 


डॉ गोडसे मानते हैं कि कोविड का ओमिक्रोन वेरिअंट भारत में एक वरदान साबित हुआ क्योंकि उससे देश भर में हर्ड इम्युनिटी हुई। कोविड के ओमिक्रोन ने कोविड के ख़िलाफ़ ही एक वैक्सीन का जैसा काम किया है। वे कहते हैं कि देश में जो भी लोग कोविड के प्रति ‘हाई रिस्क’ की श्रेणी में आते हैं उन्हें संभल कर रहने की ज़रूरत है। वे सभी सावधानियाँ बरतें और सुरक्षित रहें। 

एक शोध से पता चला है कि ओमिक्रोन मॉडीफ़ाइड वैक्सीन लेने से बचाव हो सकता है। भारत में कोरोना की मैसेंजर राइबोज न्यूक्लिक एसिड (mRNA) वैक्सीन को 15 दिसम्बर 2021 तक आना था। परंतु उसका अभी तक कुछ पता नहीं। इस वैक्सीन को पुणे की जेनोवा बायोफार्मास्युटिकल्स ने बनाया है। डॉ गोडसे पूछते हैं कि जब यह बात शोध से सिद्ध हो चुकी है कि कोरोना अपने रूप बदल कर हमला कर रहा है तो वैक्सीन में भी बदलाव क्यों नहीं किए जा रहे? 

जैसे ही चीन में लंबे लॉकडाउन के बाद जनता को बाहर आने दिया गया तभी से वहाँ कोरोना की नई लहर आई। इसका मतलब यह हुआ कि लॉकडाउन से कोरोना पर लगाम नहीं लगाई जा सकी। इसके साथ ही यह बात भी कही जा रही है कि जिन लोगों के शरीर में रोग से लड़ने की क्षमता कम है या जो लोग ‘हाई रिस्क’ के दायरे में आते हैं पहले उन पर सावधानी बरती जाए । न कि सभी को लॉकडाउन और मास्क जैसे नियम की बेड़ियों जकड़ा जाए। सामान्य तौर पर स्वस्थ व्यक्ति को मास्क लगा लेने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। डॉ गोडसे कहते हैं कि मास्क से कोविड की रोकथाम होती है, ऐसा कोई भी शोध उपलब्ध नहीं है। मास्क केवल डॉक्टर व अस्पताल में काम कर रहे अन्य लोगों को विभिन्न प्रकार के रोगियों के संपर्क में आने से होने वाले इन्फेक्शन से बचाता है।  

इसके साथ ही डॉ गोडसे इस बात पर भी ज़ोर दे रहे हैं कि कोविड के इस नये प्रारूप से पहले की तरह न तो तेज़ बुख़ार आता है और न ही ये हमारे शरीर में ऑक्सीजन की कमी होने देता है। केवल गले में ख़राश होती है और दो-तीन दिन में मरीज़ ठीक हो जाता है। उनके अनुसार इसलिए कोविड के इस नये अवतार से ज़्यादा डरने के ज़रूरत नहीं है। केवल वो लोग जिन्हें पहले से ही कोई गंभीर बीमारी है वे ज़रूर पूरी सावधानी बरतें। हमें सचेत रहने की ज़रूरत है घबराने कि नहीं। 

चीन में कोविड की नई लहर आने के पीछे वहाँ के बुरे प्रबंधन और वैक्सीन की गुणवत्ता हैं। यदि समय रहते चीन ने इस महामारी का सही से प्रबंधन किया होता तो यह प्रकोप दुनिया भर में नहीं फैलता। भारत जैसी आबादी वाले देश में यदि कोविड पर नियंत्रण पाया गया है तो उसके पीछे यहाँ की आम जानता कि प्रकृति से जुड़ी पारंपरिक दिनचर्या,  वैज्ञानिकों की मेहनत और कुछ हद तक सरकार का सही प्रबंधन भी है। चीन के लंबे लॉकडाउन लगने से यह बात साबित हो चुकी है कि इस महामारी से घर में क़ैद हो कर नहीं बचा जा सकता है। इसके लिए दवा और सावधानी दोनों का प्रयोग करना ही बेहतर होगा। 

डॉ गोडसे के अनुसार कोविड के वायरस से ज़्यादा हमें सोशल मीडिया पर चलाए जा रहे भ्रमित करने वाले मेसेज रूपी वायरस से बचने की ज़रूरत है। 

मिसाल के तौर पर सोशल मीडिया में ऐसा संदेश घूम रहा है कि कोविड का नया वायरस हवा से फैलता है। लेकिन आपके शरीर में कान, नाक और मुँह से नहीं प्रवेश नहीं करता, सीधा आपके फेफड़ों में घुसकर आपको निमोनिया कर देता है। डॉ गोडसे पूछते हैं कि यदि ये वायरस नाक और मुँह के रास्ते शरीर में प्रवेश नहीं करता तो फेफड़ों तक कैसे पहुँच सकता है? इसके साथ ही इस संदेश में यह भी कहा जा रहा है कि ये वायरस टेस्टिंग में नेगेटिव आता है परंतु आपके शरीर में रहता है। इस पर डॉ गोडसे सवाल उठाते हुए पूछते हैं की जो वायरस जाँच में पकड़ा नहीं जा सकता, वो कोविड का नया वायरस है ये कैसे पता चलता है? डॉ गोडसे के अनुसार ऐसे वायरस केवल सोशल मीडिया के माध्यम से ही फैलते हैं। इसलिए सचेत रहने के साथ-साथ ऐसे संदेशों से भी दूरी बनाए रखें और वायरस को फैलने से रोकें।  

Monday, December 19, 2022

माधवराव सिंधिया की ‘डायरी’ याद आई !


दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का टर्मिनल 3 भीड़ और अव्यवस्था को लेकर सुर्ख़ियों में है। वहाँ पर सवारियों की लंबी कतारें और बदहाली के चित्र व वीडियो सोशल मीडिया में कई दिनों से छाए हुए हैं। जैसे ही इस मामले ने तूल पकड़ा तो आनन-फ़ानन में केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया हरकत में आए। वे स्थिति का जायज़ा लेने अचानक टी 3 पर पहुँच गए। वहाँ उन्होंने सभी विभागों के अधिकारियों को कई निर्देश दे डाले। यात्रियों को भी भरोसा दिलाया कि स्थिति बहुत जल्द नियंत्रण में आ जाएगी। उनकी इस पहल को देख उनके स्वर्गवासी पिता और केंद्रीय मंत्री माधवराव सिंधिया की ‘डायरी’ याद आ गई। 


दरअसल, जब माधवराव सिंधिया 1986-89 तक भारत के रेल मंत्री थे तो मैं रेल मंत्रालय कवर करता था। वहाँ के वरिष्ठ अधिकारी रेल मंत्री माधवराव सिंधिया की ‘डायरी’ से बहुत घबराते थे। जब भी कभी सिंधिया जी अधिकारियों की बैठक लेते थे तो अपनी एक छोटी सी तारीख़ वाली ‘डायरी’ को सामने रखते थे। रेल मंत्रालय की तमाम योजनाओं पर जब विस्तार से चर्चा होती थी तो वे अधिकारियों से उस कार्य योजना के एक चरण का कार्य पूर्ण होने की अनुमानित तारीख़ तय करते थे। उस तारीख़ को वे अपनी छोटी ‘डायरी’ में लिख लेते थे और फिर वो महीना और तारीख़ आने पर, उस दिन उन अधिकारियों से उस कार्य की ‘अपडेट’ लेते थे। जैसे ही माधवराव सिंधिया अपनी ‘डायरी’ में किसी तारीख़ के आगे किसी कार्य से संबंधित कुछ लिखते थे, वैसे ही उस कार्य से संबंधित अधिकारियों के पसीने छूट जाते थे। रात-दिन मेहनत करके संबंधित अधिकारी ये सुनिश्चित कर लेते थे कि वह कार्य निर्धारित तारीख़ से पहले पूरा हो जाए। वरना मंत्री जी को मुँह दिखाना भारी पड़ जाएगा। 


पर लगता है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने पिता का वह गुण उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं किया। इसके हमारे पास अनेक प्रमाण हैं। मेरे सहयोगी पत्रकार रजनीश कपूर ने ‘नागर विमानन निदेशालय (डीजीसीए)’ व ‘नागरिक उड्डयन मंत्रालय’ में व्याप्त भ्रष्टाचार और अनियमितताओं की दर्जनों शिकायतें सप्रमाण ज्योतिरादित्य सिंधिया को भेजी हैं। जिन पर आज तक कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हुई। यह मंत्री महोदय की कार्यक्षमता का परिचायक है। इसी तरह दिल्ली के हवाई अड्डे पर अव्यवस्था फैलने से पहले यदि संबंधित अधिकारी नागरिक उड्डयन मंत्री को सही रिपोर्ट देते तो शायद ऐसा न होता। ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास दो-दो मंत्रालयों की ज़िम्मेदारी है। इसके साथ ही उन पर भाजपा के सदस्य होने के नाते भी कई ज़िम्मेदारियों हैं। ऐसे में यदि वे कुछ ‘चुनिंदा अधिकारियों’ के कहने में आ कर अपने मंत्रालयों के कामों को पार्टी के कामों से कम महत्व दें तो ये सही नहीं। दोनों ज़िम्मेदारियों में संतुलन बना कर ही उनको सभी काम कुशलता से करने होंगे। दिल्ली के टी 3 जैसे औचक निरीक्षण उन्हें कई जगह करने होंगे। अपने स्वर्गवासी पिता की तरह उन्हें भी एक ‘डायरी’ रखनी चाहिए, जिससे अधिकारियों की जवाबदेही तय हो सके। पार्टी से संबंधित कार्यों को लेकर केवल फ़ीता काटने और फ़ोटो खिंचवाने से कुछ नहीं होगा।


मिसाल के तौर पर दिल्ली हवाई अड्डे की अव्यवस्था को लेकर नागरिक उड्डयन मंत्रालय के नये कार्यक्रम ‘डिजि यात्रा’ को ही लें। कहा जा रहा है कि इस नई व्यवस्था से यात्रियों को सहूलियत मिलेगी। लम्बी-लम्बी क़तारों से मुक्ति मिलेगी। एक ही बार अपनी शक्ल दिखा कर उनकी हवाई यात्रा संबंधित सभी तरह की जानकारी सिस्टम पर दर्ज हो जाएगी। हवाई अड्डे के ई-गेट पर अपना बार कोड वाला बोर्डिंग पास स्कैन करना होगा, जिसके बाद वहां लगे फेशियल रिकग्निशन की मदद से आपकी पहचान की जाएगी। आपके फेस और आपके डॉक्यूमेंट को वैरिफाई किया जाएगा। इसके बाद आप आसानी से ईगेट के जरिए एयरपोर्ट और सिक्योरिटी चेक से गुजर सकेंगे। डिजी यात्रा का इस्तेमाल करने के लिए आपको ‘डिजी यात्रा’ ऐप डाउनलोड करना होगा। इसके बाद आपको अपनी डीटेल भरनी होगी। आपको अपनी जानकारी आधार बेस वैलिडेशन और सेल्फ इमेज के साथ डालनी होगी। आपके द्वारा दी गई जानकारी को सबसे पहले सत्यापित किया जाएगा। उड़ान से पहले वेब चेक इन करते वक्त आपको अपना टिकट इस ऐप पर अपलोड करना होगा। इस नई व्यवस्था की 1 दिसंबर से देश के कुछ एयरपोर्ट पर शुरूआत की गई है। ये व्यवस्था पूरी तरह से पेपरलेस है।

फिलहाल ये सेवा दिल्ली, बेंगलूरु और वाराणसी एयरपोर्ट पर शुरू की गई है, जिसका विस्तार दूसरे चरण में मार्च 2023 तक हैदराबाद, पुणे, विजयवाड़ा और कोलकाता के एयरपोर्ट पर किया जाएगा। दिल्ली के मुक़ाबले बेंगलुरु और वाराणसी के हवाई अड्डे छोटे हैं। इसलिए अभी तक वहाँ से कोई भीड़ और अव्यवस्था की खबर नहीं आई। दिल्ली के टी 3 पर ही ऐसी अव्यवस्था दिखाई दी। 

जानकारों के अनुसार, यदि इस नई सेवा को लागू करना ही था तो दिल्ली जैसे भीड़भाड़ वाले व्यस्त हवाई अड्डे से शुरुआत नहीं करनी चाहिए थी। यदि किन्ही कारणों से दिल्ली में ऐसा करना ज़रूरी था तो दिल्ली के ही छोटे व कम व्यस्त टर्मिनल को चुना जाना बेहतर होता। वहाँ भी केवल एक या दो गेटों पर ही इसे अनिवार्य करते। यात्रियों की सहायता के लिये एयरपोर्ट पर सहायकों को नियुक्त किया जाना चाहिए था। वो सब किया जाना चाहिए था जो मामले के तूल पकड़ने पर मंत्री जी के औचक निरीक्षण के बाद तय हुआ। जानकर इस अव्यवस्था को भी नोटबंदी के बाद एटीएम और बैंकों पर लगी लंबी कतारों की तरह मान रहे हैं। डिजी यात्रा के जल्दबाज़ी के इस निर्णय ने देश का नाम ख़राब किया है। इसका प्रयोग पहले देश के छोटे व कम व्यस्त एयरपोर्ट से होता तो बेहतर होता। जिससे इसकी ख़ामियों को भी दुरुस्त किया जा सकता था। ‘डिजी यात्रा’ के सफल होने का भरपूर प्रचार किया जाता और देश की जनता को इसके फ़ायदे बताए जाते। चरणबद्ध तरीक़े से इसे देश भर में लागू किया जाता।   

ऐसा लगता है कि शायद ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने पिता की तरह अफ़सरशाही को अपने काबू में नहीं कर पा रहे हैं। वरना ऐसी नौबत नहीं आती। अधिकारी केवल इसी बात की दुहाई दे रहे हैं कि कोविड के बाद यात्रियों की संख्या में अचानक बढ़ौतरी हुई है। ऐसे में छुट्टियों की भीड़ भी आग में घी डालने का काम कर रही है। ऐसे में ‘डिजी यात्रा’ को इस समय लागू करना क्या सही था?

Monday, December 12, 2022

आज के बड़े नेताओं के गंदे, हिंसक भाषण !

पिछले कुछ वर्षों से देश के एक प्रमुख राजनैतिक दल के बड़े नेताओं द्वारा चुनावी सभाओं में बहुत हिंसक व अपमान जनक भाषा का प्रयोग किया जा रहा है। इससे न सिर्फ राजनीति में कड़वाहट पैदा हो रही है बल्कि समाज में भी वैमन्स्य पैदा हो रहा है। जब से आजादी मिली है सैकड़ों चुनाव हो चुके है पर ऐसी भाषा का प्रयोग अपने विरोधी दलों के प्रति किसी बड़े नेता ने कभी नहीं किया। एक प्रथा थी कि चुनावी जन सभाओं में सभी नेता सत्तारूढ़ दल की नीतियों की आलोचना करते थे और जनता के सामने अपनी श्रेष्ठ छवि प्रस्तुत करते थे। सत्तारूढ़ दल के नेता अपनी उपलब्धियां गिनाते थे और भविष्य के लिये चुनावी वायदे करते थे। पर इस पूरे आदान प्रदान में भाषा की गरिमा बनी रहती थी। प्रायः अपने विपक्षी नेता के ऊपर व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी करने से बचा जाता था। इतना ही नही बल्कि एक दूसरे का इतना ख्याल रखा जाता था कि अपने विपक्षी दल के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के विरूद्व जानबूझ कर हल्के उम्मीदवार खड़े किये जाते थे, जिससे उस बड़े नेता को जीतने में सुविधा हो। ऐसा इस भावना से किया जाता था कि लोकसभा में देश के बड़े नेताओं की उपस्थिति से सदन की गरिमा बढ़ती है। 



आजकल लोकतंत्र की इन स्वस्थ परम्पराओं को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया है। जिसका बहुत बुरा असर समाज पर पड़ रहा है। जब किसी दल के बड़े नेता ही जनसभाओं में अभद्र भाषा का प्रयोग करेंगे तो उनके समर्थक और कार्यकर्ता कैसे शालीन व्यवहार करेगे? सोशल मीडिया में प्रयोग की जा रही अभद्र भाषा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। कुछ दलों की ट्रोल आर्मी दूसरे दलों के नेताओं के प्रति बेहद अपमानजनक और छिछली भाषा का प्रयोग करती है। उन्हें गाली तक देते है। उनके बारे में व्हाट्सएप यूनिवार्सिटी से झूठा ज्ञान प्राप्त करके उसका विपक्षियों के प्रति दुरूपयोग करते है। मसलन नेहरू खानदान को मुसलमान बताना जबकि इस बात के दर्जनों सबूत है नेहरू खानदान सदियों से सनातन धर्मी ही रहा है। जबकि उसे मुसलमान बताने वालों के नेताओं की नास्तिकता जग जाहिर है। इनके बहुत से नेताओं के पूर्वजों ने कभी कोई तीर्थयात्रा की हो, इसका कोई प्रमाण नही मिलता। 

जिन दलों ने चुनावी राजनीति को इस कदर गिरा दिया है उन्हें सोचना चाहिये कि ये सब करने से क्या उन्हें हमेशा वांछित फल मिल रहे है ? नहीं मिल रहे। अक्सर अपेक्षा के विपरीत बहुत अपमान जनक परिणाम भी मिल रहे हैं। फिर ये सब करने की क्या जरूरत है। ये सही है कि प्रचार प्रसार पर अरबों रूपया खर्च करके हानिकारक पेय पदार्थों जैसे पेप्सी कोला को घर-घर बेचा जाता है वैसे ही चुनावी प्रचार प्रसार में नकारा और असफल राजनेताओं को भी महान बनाकर बेचा जाता है। अब ये तो मतदाता की बुद्वि और विवेक पर निर्भर करता है कि वह किसे अपना मत देता है। अक्सर अपराधी, भ्रष्टाचारी और माफिया चुनाव जीत जाते है और सच्चरित्र उम्मीदवारों की जमानत तक जप्त हो जाती है। इसका मतलब यह हुआ कि चुनाव का परिणाम क्या होगा इसका कोई पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में अपमानजनक, आक्रामक व छिछली भाषा में अपने प्रतिद्वन्दियों पर हमला करने वाले नेता अपने ही छिछले व्यक्तित्व का परिचय देते है। उन्हें सोचना चाहिये कि राजनैतिक जीवन में  इस गन्दगी को घोल कर वे स्वयं ही गन्दे हो रहे है। आश्चर्य तो तब होता है जब देश के महत्वपूर्ण पदों पर विराजे बड़े राजनेता ऐसी भाषा का प्रयोग करने में संकोच नही करते। जो भाषा उनके पद की गरिमा के अनुकूल नही होती। मुझे याद है कि 1971 के भारत-पाक युद्व के दौरान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भुट्टों ने बयान दिया, ‘‘हम एक हजार साल तक भारत से युद्व लड़ेंगे’’। इस उत्तेजक बयान को सुनकर भी भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने कोई उत्तेजना नही दिखाई। कोई भड़काऊ बयान नही दिया। जब वे एक विशाल जनसभा को सम्बोधित कर रही थी तो उन्होंने बड़े आम लहजे में कहा, ‘‘वे कहते है कि हम एक हजार साल तक लड़ेंगे। हम कहते है कि हम शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व से रहेंगे’’। इस सरल से वक्तव्य में कितनी शालीनता थी। न भुट्टों का नाम लिया न पाकिस्तान का, न अभद्र भाषा का प्रयोग किया और न कोई उत्तेजना दिखाई। इससे जहां एक ओर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भुट्टो की अंतर्राष्ट्रीय छवि धूमिल हुई वहीं इन्दिरा गांधी ने संयमित रहकर अपनी बड़ी लकीर खींच दी।


ऐसे व्यक्तित्व के कारण उस दौर में भी इन्दिरा गांधी की छवि पूरी दुनिया में एक ताकतवर नेता की थी। जिन्होंने अपनी इसी क़ाबिलियत के बल पर पड़ोसी देश सिक्किम का भारत में विलय कर लिया और बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग करवा दिया। 1947 से आजतक इतनी बड़ी अंतर्राष्ट्रीय सफलता भारत के किसी प्रधानमंत्री को कभी प्राप्त नहीं हुई। इससे यह स्पष्ट होता है कि शालीन भाषा बोलकर भी कोई राजनेता अपने प्रतिद्वन्दियों को परास्त कर सकता है। इसलिये उसे अपनी भाषा पर संयम रखना चाहिये। इसका एक और उदाहरण समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया और पं. जवाहरलाल नेहरू के बीच सम्बन्धों का है। लोकसभा में लोहिया जी पं. नेहरू की नीतियों की कड़ी आलोचना करते थे। पर सत्र के बीच जब दोपहर के भोजन का अवकाश होता तो पं. नेहरू लोहिया जी के कंधे पर हाथ रखकर कहते कि तुमने मेरी खूब आलोचना कर ली चलो अब भोजन साथ-साथ करते हैं। 

लोकतंत्र की यही स्वस्थ परम्परा कुछ वर्ष पहले तक चली आ रही थी। राजनैतिक विचारधाराओं में विपरीत होने के बावजूद सभी दल के नेता एक दूसरे के प्रति मित्र भाव रखते थे और एक दूसरे का सम्मान करते थे। अपने को सर्वश्रेष्ठ मानकर अहंकार और दूसरे दलों और नेताओं के प्रति तिरिस्कार का भाव रखने वाले न तो अच्छे नेता ही बन सकते है और न उच्च पद पर बैठने योग्य व्यक्ति। फिर ऐसे व्यक्ति का युगपुरूष बनना तो असंम्भव है। इसलिये भारत के चुनावों और लोकतांत्रिक परम्पराओं में आ रही इस गिरावट को फौरन रोकना चाहिये। 

Monday, December 5, 2022

‘पप्पू’ में बहुत गहराई है- प्रियंका गांधी



कुछ हफ़्तों पहले सोशल मीडिया पर प्रियंका गांधी का एक अंग्रेज़ी वीडियो जारी हुआ। उसमें उन्होंने अपने भाई राहुल गांधी के व्यक्तित्व के बारे में काफ़ी कुछ कहा। उनके इस वक्तव्य से राहुल गांधी के व्यक्तित्व की अनेक उन बातों का पता चला जिनकी चर्चा कभी एकतरफ़ा हो चुके मीडिया ने नहीं की। इन दिनों जब राहुल की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ काफ़ी चर्चा में हैं, तो पाठकों के साथ इस वीडियो का ज़िक्र करना उचित होगा।


प्रियंका गांधी अपने भाई को अपना सबसे करीबी मित्र बताते हुए अपने बचपन को याद करती हैं। किस तरह उनका बचपन दर्दनाक हादसों और हिंसा का साक्षी रहा। इन दोनों ने अपनी दादी, इंदिरा गांधी को दूसरी माँ के रूप में पाया। 1984 में इंदिरा जी की हत्या के समय राहुल की उम्र मात्र 14 साल की थी। वे कहती हैं कि चार जनों के एक छोटे परिवार के पारस्परिक स्नेह ने ही उनको सभी कठिनाइयों का सामना करने की ताक़त दी। 


1991 में जब राजीव गांधी की हत्या हुई तो राहुल विदेश में पढ़ रहे थे। इस निर्मम हत्या कांड ने बहन भाई को झकझोर कर रख दिया था। उस कठिन समय में भी राहुल ने प्रियंका से कहा कि उनके मन में किसी तरह का गुस्सा नहीं है। राहुल को अक्सर उनके मुक्त विचारों के लिये विपक्ष से निंदा का सामना करना पड़ता है। उनके साहस का मज़ाक़ उड़ाया जाता रहा। इसके बावजूद वे कभी भी क्रोधित नहीं हुए और न ही अपने अंदर किसी के प्रति घृणा को उत्पन्न होने दिया। 



विपक्ष द्वारा हर रोज़ उन्हें पप्पू कहकर अपमानित किया जाता रहा, उनकी पढ़ाई लिखाई पर सवाल उठाए गये। सवाल भी उन लोगों ने उठाए जिनके बड़े-बड़े नेता भी अपने पढ़े लिखे होने का सही प्रमाण आज तक नहीं दे पाये।


प्रियंका कहती हैं कि बावजूद इस सबके राहुल ने सूझबूझ और हिम्मत दिखा कर विपक्षी नेताओं को गले लगाने का साहस भी दिखाया। बहुत कम लोग जानते हैं कि राहुल ने धार्मिक किताबें भी पढ़ी हैं। फिर वो चाहे हिंदू, इस्लाम, बौद्ध या ईसाई धर्म की किताबें हों। राहुल ने वेद, शैव और उपनिषदों को जानने का भी प्रयास किया है।


अपने निजी जीवन में वे एक साधारण व्यक्तित्व वाले आम इंसान हैं। प्रियंका याद करते हुए बताती हैं कि एक दिन जब वे उनके घर गईं तो वे अपनी अलमारी की सफ़ाई कर रहे थे। प्रियंका के पूछने पर राहुल ने बताया कि वे अपने सामान को केवल दस वस्तुओं में सिमेट रहे हैं। वे बताती हैं तब से राहुल के पास न तो उन दस वस्तुओं से अधिक कुछ है न ही उससे अधिक रखने कि इच्छा है। किसी ने कभी राहुल गांधी को महँगे कपड़े या चश्मे पहने नहीं देखा होगा। 


राहुल जापानी आत्मरक्षा ‘आइकीडो’ में ‘ब्लैक बेल्ट’ हासिल कर चुके हैं। साथ ही वे अपने पिता की ही तरह एक योग्य पायलट भी हैं।


कम लोगों को पता होगा कि राहुल गांधी प्रशिक्षक स्तर के गोताखोर होने के नाते एक साँस में 75 मीटर गहराई तक समुद्र में छलाँग लगा सकते हैं। उनकी शारीरिक क्षमता का अनुमान इससे ही लगाया जा सकता है कि वे भारत तिब्बत सीमा पुलिस द्वारा आयोजित पर्वतारोहण के कार्यक्रम में भी भाग ले चुके हैं। 



सामाजिक आंदोलनों व विभिन्न संस्कृति के लोगों को समझने की नीयत से राहुल दुनिया के कई देशों में यात्रा कर चुके हैं। प्रियंका गांधी के अनुसार राहुल को अपने सहयोगियों व समर्थकों के लिए सामाजिक न्याय, सच्चाई व समानता बहुत महत्व रखती है। वे लोकतंत्र में पूरा विश्वास रखते हैं। वे अभिव्यक्ति की आज़ादी, धर्म, भाषा व संस्कृति की आज़ादी में भी पूरा विश्वास रखते हैं। उनका मानना है कि इस राष्ट्र के वास्तविक स्वरूप की स्थापना जनता द्वारा और जनता के लिए ही हुई।


प्रियंका के इस वीडियो को देख कर राहुल गांधी के बारे में बहुत कुछ ऐसा पता चला जो शायद देश के ज़्यादातर लोगों को पता नहीं होगा। सोचा क्यों इसे व्हाट्सएप पर अपने साढ़े सात हज़ार संपर्कों को भी भेजा जाए। इस पर बहुत सारी रोचक प्रतिक्रियाएँ आईं। अधिकतर लोगों का कहना था कि राहुल गांधी अपने पिता की तरह एक साफ़ दिल इंसान हैं। उनके व्यक्तित्व में झूठ बोलने या अपने बारे में बढ़-चढ़ कर दिखावा करने की प्रवृत्ति नहीं है। पर इन टिप्पणीयों के साथ ही कई टिप्पणियाँ ऐसी भी आईं जिन में कहा गया कि राहुल गांधी एक अच्छे इंसान तो हैं पर कुशल राजनेता नहीं हैं। कुछ की राय यह थी कि राहुल गांधी को नाहक राजनीति में धकेला जा रहा है। प्रश्न है कि देश की राजनीति में सत्ताधारी भाजपा को मिलाकर कितने नेता ऐसे हैं जिनका व्यक्तित्व राहुल गांधी के निकट भी हो। बहुत से अपराधी, बलात्कारी, माफ़ियाओं और कम पढ़े लिखे लोगों को चुनने वाली इस देश की जनता के लिए क्या राहुल गांधी इतने बेकार हैं कि उन्हें राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए? लोकतंत्र में अगर समाज विरोधियों की भूमिका है, तो राहुल गांधी जैसे व्यक्ति की क्यों नहीं हो सकती?



दिन-रात एक ही दल और उसके नेता की चारण भाटों की तरह प्रशंसा और गुणगान करने वाला मीडिया आज राहुल गांधी की इतनी सफल ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर कोई विस्तृत रिपोर्टिंग नहीं कर रहा। पर यही मीडिया पिछले कुछ वर्षों से राहुल गांधी को ‘पप्पू’ सिद्ध करने में कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहा। जबकि ये तथाकथित ‘पप्पू’ हर दिन, हर मोड़ पर बड़ी बेबाक़ी से मीडिया का सामना करता आ रहा है। जो हिम्मत पिछले बरसों में इस देश के कई बड़े नेता एक बार भी नहीं दिखा पाए। अगर उनमें सच्चाई और नैतिक बल है तो वे प्रेस से इतना डरते क्यों हैं? ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की समाप्ति के बाद राहुल गांधी राजनीति में क्या हासिल कर पाएँगे ये तो भगवान या इस देश के मतदाता ही जानते हैं। पर इस लंबी यात्रा में चल कर और आम जनता से घुलमिल कर राहुल गांधी ने वो प्राप्त किया है जो भारत के सैंकड़ों वर्षों के इतिहास में किसी ने प्राप्त नहीं किया। क्योंकि उन्होंने ऐसी हिम्मत ही नहीं दिखाई। इस देश की राजनीति में कभी भी विपक्ष का सत्ता पक्ष द्वारा इतना अपमान नहीं किया गया जितना पिछले आठ वर्षों में सार्वजनिक मंचों से किया गया है। अगर ऐसी अपमानजनक टिप्पणियाँ करने वाले नेताओं और दल के दामन बेदाग़ होते तो उनकी बात का असर पड़ता। पर असर नहीं पड़ा तभी तो ब्लैकमेलिंग के हमले सह कर भी विपक्ष सीना तान कर खड़ा है। यूँ राजनीति में दूध का धुला तो कोई नहीं होता।   

Monday, November 28, 2022

सर्वोच्च न्यायालय की चुनाव आयोग पर तीखी टिप्पणी


पिछले आठ वर्षों से चुनाव आयोग की कार्यशैली को लेकर विपक्षी दलों में ही नहीं बल्कि लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर जागरूक नागरिक के मन में भी अनेक प्रश्न खड़े हो रहे थे। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अचानक चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति की फाइल माँग कर भारत सरकार की स्थिति को असहज कर दिया है। पर इसका सकारात्मक संदेश देश में गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग की विवादास्पद भूमिका पर टिप्पणी करते हुए 1990-96 में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टी एन शेषन को याद किया है और कहा है, देश को टी एन शेषन जैसे व्यक्ति की ज़रूरत है। ये इत्तिफ़ाक़ ही है कि पिछले कुछ वर्षों में जो भी मुख्य चुनाव आयुक्त बने या चुनाव आयुक्त बने उन सबसे मेरी अच्छी मित्रता रही है। इस मित्रता का लाभ उठा कर मैंने उन्हें बार-बार सचेत किया कि उनकी छवि वैसी नहीं बन पा रही जैसे शेषन की थी। उन्होंने बुरा तो नहीं माना पर कुछ ऐसा किया भी नहीं जिससे आयोग के प्रति विपक्षी दलों का विश्वास बढ़ता। इसीलिए आज ये नौबत आ गई कि चुनाव आयोग पर सर्वोच्च न्यायालय को टिप्पणी करनी पड़ी। 



अरुण गोयल की नियुक्ति कि फाइल माँगने पर सरकार का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय को ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। यहाँ मैं याद दिला दूँ कि अपने कार्यकाल में एक समय ऐसा आया था जब टी एन शेषन को भी सर्वोच्च न्यायालय की फटकार सहनी पड़ी थी। उस दिन वे बहुत आहत थे। रोज़ की तरह जब मैं दिल्ली के पंडरा रोड स्थित उनके निवास पर गया तो वे मेरे कंधे पर सिर रख कर कुछ क्षणों के लिए रो पड़े थे। क्योंकि उनके अहम को चोट लगी थी। मैंने उन्हें ढाढ़स बंधाते हुए कहा कि आप भी एक संवैधानिक पद पर हैं इसलिए आपको इसका प्रतिकार करना चाहिए। पर उनके वकीलों ने उन्हें समझाया कि लोकतंत्र के हर ख़म्बे का काम एक दूसरे पर निगाह रखना होता है। कोई भी खम्बा अगर निरंकुश होता है तो लोकतंत्र कमज़ोर हो जाता है। बात वहीं समाप्त हो गई। यहाँ इस घटना का उल्लेख करना इसलिए ज़रूरी है कि आज कार्यपालिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने जो टिप्पणी की है या जो फाइल मंगाई है, उसका एक ठोस आधार है और इसलिए सरकार को पूरी ज़िम्मेदारी से अदालत के साथ सहयोग करना चाहिए। 



सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी 2018 से लंबित कई जनहित याचिकाओं की संवैधानिक पीठ के सामने चल रही सुनवाई के दौरान की है। इन याचिकाओं में माँग की गई है कि चुनाव आयोग के सदस्यों का चयन भी एक कॉलोजियम की प्रक्रिया से होना चाहिये। इस बहस के दौरान पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जोसेफ ने कहा कि ये चयन सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ फ़ैसले के अनुरूप भी क्यों नहीं हो सकता है? जिससे चयनकर्ता समिति में तीन सदस्य हों, भारत के मुख्य न्यायाधीश, प्रधान मंत्री व लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष। यह माँग सर्वथा उचित है क्योंकि चुनाव आयोग का वास्ता देश के सभी राजनैतिक दलों से पड़ता है। अगर उसके सदस्यों का चयन केवल सरकार करती है तो जाहिरन ऐसे अधिकारियों को चुनेगी जो उसके इशारे पर चले। वैसे तो
  टी एन शेषन का चुनाव भी मौजूदा प्रणाली से ही हुआ था। पर तब केंद्र में अल्पमत की चंद्रशेखर सरकार थी। शायद इसलिए भी शेषन चुनाव सुधारों के लिए वो सब कर सके जो किसी एक बड़े दल के द्वारा चुने जाने पर कर पाना शायद उनके लिए संभव नहीं होता।    

       

उल्लेखनीय है कि टी एन शेषन के पहले तो चुनाव आयोग का वजूद तक आम आदमी नहीं जानता था। शेषन ने चुनाव आयोग को काफी विस्तृत रूप दे दिया। क्योंकि उनके इस ऐतिहासिक प्रयास में कुछ भौमिक मेरी और मेरे सहयोगी पत्रकार रजनीश कपूर की भी थी। इसलिए हम उस वक्त के साक्षी हैं जब श्री शेषन ने यह अभूतपूर्व कार्य किया। उन दिनों चुनावों में हिंसा और बूथ कैप्चरिंग एक आम बात हो चुकी थी। राजनीति में अचानक गुंडे और माफ़ियाओं का दखल बहुत बढ़ने लगा था। जिससे पूरे देश में चिंता व्यक्त की जा रही थी। इस माहौल को बदलने के लिए श्री शेषन ने चुनाव सुधार करने की ठानी। 


दरअसल सरकारी तंत्र आसानी से कोई क्रांतिकारी काम नहीं होने देता इसलिए श्री शेषन ने चुनाव सुधारों को मूर्त रूप देने के लिए एक ‘थिंक टैंक’ के रूप में ‘देशभक्त ट्रस्ट’ की स्थापना की। जिसके अध्यक्ष वे स्वयं बने और उनकी पत्नी श्रीमती जयालक्ष्मी शेषन और मैं ट्रस्टी बने। इस ट्रस्ट का पंजीकृत कार्यालय हमारे 'कालचक्र समाचार’ के दिल्ली में हौज़ ख़ास स्थित कार्यालय ही था। हमारे कार्यालय में श्री शेषन के साथ इन विषयों पर गंभीर चर्चा करने देश भर से बुद्धिजीवी, मीडिया समूहों के मालिक, सामाजिक कार्यकर्ता, उद्योगपति व वरिष्ठ अधिकारी गण नियमित रूप से आते थे। श्री शेषन और मैं लगातार देश के कोने-कोने में जा कर विशाल जनसभाओं को चुनाव सुधारों के बारे में जागृत करते थे। इस मैराथन प्रयास का बहुत अच्छा असर हुआ और सारे देश में चुनाव आयोग की एक नई और मज़बूत छवि बनी। पर श्री शेषन के कड़े रवैये से राजनैतिक दलों में खलबली मच गई। जब शेषन दंपत्ति एक महीने के अमरीकी प्रवास पर थे तो नरसिंह राव सरकार ने चुनाव आयोग को एक से बढ़ा कर तीन सदस्यी कर दिया। ये दो नये सदस्य, शेषन के पर कतरने के लिए लाए गये थे। श्री शेषन ने अमरीका से फ़ोन करके मुझ से कहा कि, नरसिंह राव ने मेरे साथ बहुत बड़ा धोखा किया है। मैं बहुत आहत हूँ। क्या करूँ? तुम सोच कर रखो हम अगले हफ़्ते तक भारत लौट रहे हैं। 


चूँकि 1993 से जैन हवाला कांड को उजागर कर मैं भी देश में राजनीतिक शुचिता के लिए संघर्ष कर रहा था इसलिए उनके आने पर मैंने सुझाव दिया कि हम देश भर में हर क़स्बे, नगर और प्रांत में ‘जन चुनाव आयोगों’ का गठन करें जिनमें उस क्षेत्र के उन प्रथिष्ठित लोगों को सदस्य बनाया जाए जिनका कभी किसी राजनैतिक दल से कोई नाता न रहा हो। इन सैंकड़ों चुनाव आयोगों का गठन इस उद्देश्य से किया जाना था कि ये अपने इलाक़े के हर चुनाव पर निगाह रखें और उनमें नैतिकता लाने का प्रयास करें। श्री शेषन को यह सुझाव बहुत पसंद आया और हम सब ने मिलकर इसकी विस्तृत नियमावली तैयार की और उसके हज़ारों पर्चे छपवाकर देश भर में बँटवाए। इसका अच्छा असर हुआ और देश के अलग-अलग हिस्सों में ‘जन चुनाव आयोगों’ का गठन भी होने लगा। मेरा सुझाव था कि सेवानिवृत हो कर शेषन ‘जन चुनाव आयोग’ के मुख्य चुनाव आयुक्त बनें जिससे देश में स्थापित हो चुकी उनकी ब्रांडिंग का लाभ उठा कर चुनाव सुधारों को एक जन आंदोलन का रूप दिया जा सके। पर श्री राव के रवैये से आहत होने के बावजूद शेषन इस्तीफ़ा देने को तैयार नहीं थे। इसलिए इस दिशा में बहुत सीमित सफलता ही मिल पाई। अलबत्ता ये ज़रूर है कि उन्होंने भारत के चुनाव आयोग की छवि को बहुत ऊँचाइयों तक पहुँचाया और भावी चुनाव आयोगों के लिए मानदंड स्थापित कर दिये। इसीलिए आज 26 बरस बाद भी सर्वोच्च न्यायालय को शेषन का महत्व रेखांकित करना पड़ा है।

Monday, November 21, 2022

इतने बड़े घोटालों की जाँच में पक्षपात क्यों हो रहा है?



बैंकों का धन लूटकर विदेशों में धन शोधन करने वाले बड़े औद्योगिक घरानों की जाँच को लेकर जाँच एजेंसियाँ आए दिन विवादों में घिरी रहती हैं। मामला नीरव मोदी का हो, विजय माल्या का हो या मेहुल चोक्सी का हो, इन भगोड़े वित्तीय अपराधियों को जेल की सलाख़ों के पीछे भेजने में हमारे देश की बड़ी जाँच एजेंसियाँ लगातार विफल रही हैं। ऐसी नाकामी के कारण ही इन एजेंसियों पर चुनिन्दा आरोपियों के ख़िलाफ़ ही कारवाई करने के आरोप भी लगते रहे हैं। 


पिछले दिनों कानपुर की रोटोमैक पेन कंपनी के खिलाफ केंद्रीय जांच ब्यूरो ने 750 करोड़ रुपए से अधिक के बैंक फ्रॉड का मामला दर्ज किया है। पेन बनाने वाली इस नामी कंपनी पर आरोप है कि इन्होंने कई बैंकों से ऋण लेकर आज तक नहीं लौटाए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 7 बैंकों के समूह के लगभग 2919 करोड़ रुपये इस कंपनी पर बकाया हैं। ग़ौरतलब है कि बैंक फ्रॉड का यह मामला नया नहीं है। बैंक को चूना लगाने वाली यह कंपनी जून 2016 में ही नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) घोषित कर दी गई थी। छह साल बाद 2022 में जब सीबीआई द्वारा इस कंपनी पर कार्यवाही शुरू हुई तब तक कंपनी के कर्ताधर्ता विक्रम कोठारी का निधन भी हो चुका था। जाँच और कार्यवाही में देरी के कारण बैंकों को करोड़ों का चूना लग चुका था। 


देश में कोठारी जैसे अनेक लोग हैं जो बैंक से लोन लेते हैं। यदि वो छोटे-मोटे लोन लेने वाले व्यापारी होते हैं तो उनके ख़िलाफ़ बहुत जल्द कड़ी कार्यवाही की जाती है। परंतु आमतौर पर ऐसा देखा गया है कि बैंकों के धन की बड़ी चोरी करने वाले आसानी से जाँच एजेंसियों के हत्थे नहीं चढ़ते। इसका कारण, बैंक अधिकारी और व्यापारी की साँठ-गाँठ होता है। ऋण लेने वाला व्यापारी बैंक के अधिकारी को मोटी रिश्वत के भार के तले दबा कर अपना काम करा लेता है और किसी को कानों-कान खबर नहीं होती। जब ऋण और उस पर ब्याज मिला कर रक़म बहुत बड़ी हो जाती है तो तेज़ी से कार्यवाही करने का नाटक किया जाता है। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। 



रोटोमैक कांड के आरोपियों की सूची में कानपुर का एक और समूह है जिस पर जाँच एजेंसियों की कड़ी नज़र नहीं पड़ी। आरोप है कि इस समूह ने विभिन्न बैंकों के साथ सात हज़ार करोड़ से अधिक रुपये का घोटाला किया है। इस समूह ने फ़र्ज़ी कंपनियों का जाल बिछा कर बैंकों के साथ धोखा किया है। इस समूह के मुख्य आरोपीयों, उदय देसाई और सरल वर्मा की कंपनियाँ - एफटीए एचएसआरपी सोल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड और एग्रोस इम्पेक्स इंडिया लिमिटेड, रोटोमैक कांड के सह-अभियुक्त भी हैं। इसके चलते इनकी गिरफ़्तारी भी हुई थी। लेकिन कोविड और स्वास्थ्य कारणों के चलते इन्हें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ज़मानत दी गई। ग़ौरतलब है कि सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और गंभीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय (एसएफ़आईओ) में इस समूह के ख़िलाफ़ 2019 से विभिन्न बैंकों द्वारा 8 एफ़आईआर दायर हो चुकी हैं। परंतु वर्मा और देसाई बंधुओं पर आज तक कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई।  


उदय देसाई ने दिल्ली उच्च न्यायालय में विदेश जाने की गुहार लगा कर एक याचिका दायर की। कोर्ट ने जुलाई 2022 के अपने आदेश में याचिका रद्द करते हुए इस बात का विशेष रूप से उल्लेख किया कि विभिन्न जाँच एजेंसियों में लंबित पड़े अनेक गंभीर मामलों के बावजूद आरोपियों को केवल एक ही बार पूछताछ के लिए बुलाया गया। जाँच एजेंसियों ने सघन जाँच और पूछताछ की शुरुआत ही नहीं की। 



सोचने वाली बात है कि हज़ारों करोड़ के घोटाले के आरोपियों को केवल एक ही बार बुला जाँच एजेंसियों को इस बात का इत्मीनान हो गया कि आरोपियों को दोबारा पूछताछ के लिए नहीं बुलाना चाहिए? क्या एक ही बार में पूछताछ से जाँच एजेंसियाँ संतुष्ट हो गई? क्या आरोपी एक ही बार में एजेंसियों के ‘कड़े सवालों’ का संतोषजनक जवाब दे पाये? क्या ये प्रमुख जाँच एजेंसियाँ सभी आरोपियों से ऐसे ही, केवल एक बार ही जाँच और पूछताछ करती हैं? इस से कहीं छोटे मामलों में विपक्षी नेताओं या नामचीन लोगों के ख़िलाफ़ भी इन एजेंसियों का क्या यही रवैया रहता है? क्या इन आरोपियों की करोड़ों संपत्ति को ज़ब्त किया गया? क्या इनकी बेनामी संपत्तियों तक ये एजेंसियाँ पहुँच पाईं? सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमयी मृत्यु के बाद जिस तरह बॉलीवुड के सितारों को लगातार पूछताछ के लिए बुलाया गया था क्या वैसा कुछ इनके भी साथ हुआ? अगर नहीं तो क्यों नहीं? 


केंद्र में जो भी सरकार रही हो, उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। जैसा हमने पिछली बार भी लिखा था कि मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो कुछ चुनिन्दा लोगों पर, अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। जाँच एजेंसियों में लंबित पड़े अन्य मामलों को छोड़ अगर देसाई और वर्मा बंधुओं के मामले को ही लें तो यह बात सच साबित होती है। 


दिल्ली के ‘कालचक्र समाचार ब्यूरो’ के प्रबंधकीय संपादक रजनीश कपूर को जब एफटीए एचएसआरपी सोल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड और एग्रोस इम्पेक्स इंडिया लिमिटेड के घोटालों से संबंधित सभी दस्तावेज़ मिले तो उन्होंने इन आरोपों को सही पाया। कपूर ने 6 मई 2022 को इन सभी एजेंसियों को सप्रमाण पत्र लिख कर देसाई और वर्मा द्वारा किए गए हज़ारों करोड़ रुपये के घोटालों की जाँच की माँग की थी। 


ऐसे में अपनी ‘योग्यता’ के लिए प्रसिद्ध देश की प्रमुख जाँच एजेंसियाँ शक के घेरे में आ जाती हैं। इन एजेंसियों पर विपक्ष द्वारा लगाए गए ‘ग़लत इस्तेमाल’ के आरोप सही लगते हैं। मामला चाहे छोटे घोटाले का हो या बड़े घोटाले का, एक ही अपराध के लिए दो मापदंड कैसे हो सकते हैं? यदि देश का आम आदमी या किसान बैंक द्वारा लिये गये ऋण चुकाने में असमर्थ होता है तो बैंक की शिकायत पर पुलिस या जाँच एजेंसियाँ तुरंत कड़ी कार्यवाही करती हैं। उसकी दयनीय दशा की परवाह न करके कुर्की तक कर डालती हैं। परंतु बड़े घोटालेबाजों के साथ ऐसी सख़्ती क्यों नहीं बरती जाती? 


घोटालों की जाँच कर रही एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत ज़रूरी है। एक जैसे अपराध पर, आरोपी का रुतबा देखे बिना, अगर एक सामान कार्यवाही होती है तो जनता के बीच ऐसा संदेश जाता है कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्तता और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। सिद्धांत ये होना चाहिये कि किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा। चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा।

Monday, November 14, 2022

जाँच एजेंसियाँ विवादों में क्यों?



पिछले कुछ समय से विवादों में घिरी सरकार की दो जाँच एजेंसियाँ, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई विपक्ष का निशाना बनी हुई हैं। इस विवाद में ताज़ा मोड़ तब आया जब हाल ही में मुंबई की एक विशेष अदालत ने पात्रा चॉल पुनर्विकास से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी द्वारा शिवसेना के सांसद संजय राउत की गिरफ्तारी को ‘अवैध’ और ‘निशाना बनाने’ की कार्रवाई करार दिया। इसके साथ ही राउत की जमानत भी मंजूर कर ली गई। अदालत के इस आदेश ने विपक्ष को और उत्तेजित कर दिया है। राज्यों में चुनावों के दौरान ऐसे फ़ैसले से विपक्ष को एक और हथियार मिल गया है। विपक्ष अपनी चुनावी सभाओं में इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाने की तैयारी में है। सारा देश देख रहा है कि पिछले आठ साल में भाजपा के एक भी मंत्री, सांसद या विधायक पर सीबीआई या ईडी की निगाह टेढ़ी नहीं हुई। क्या कोई इस बात को मानेगा कि भाजपा के सब नेता दूध के धुले हैं और भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हैं?



हालाँकि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और उसे जाँच एजेंसियों के समकक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता, फिर भी ये ध्यान देने योग्य है कि उत्तर प्रदेश के समाजवादी नेता आज़म खाँ के मामले में भारत के चुनाव आयोग को भी अदालत की तीखी टिप्पणी झेलनी पड़ी। जिस तरह चुनाव आयोग ने अतितत्पर्ता से आज़म खाँ की सदस्यता निरस्त कर उपचुनाव की घोषणा भी कर डाली उस सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल खड़ा किया कि ऐसी क्या मजबूरी थी कि जो आयोग को तुरत-फुरत फ़ैसला लेना पड़ा और आज़म खाँ को अपील करने का भी मौक़ा नहीं मिला। न्याय की स्वाभाविक प्रक्रिया है कि आरोपी को भी अपनी बात कहने या फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करने का हक़ है। जबकि इसी तरह के एक अन्य मामले में मुजफ्फरनगर जिले की खतौली विधानसभा से भाजपा विधायक विक्रम सैनी की सदस्यता रद्द करने में ऐसी फुर्ती नहीं दिखाई गई। एक ही अपराध के दो मापदंड कैसे हो सकते हैं?    


जहां तक जाँच एजेंसियों की बात है दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फ़ैसले के तहत इन जाँच एजेंसियों को निष्पक्ष व स्वायत्त बनाने की मंशा से काफ़ी बदलाव लाने वाले निर्देश दिये गये थे। इसी फ़ैसले की तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जाँच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिज़बुल मुजाहिद्दीन की हवाला के ज़रिए हो रही दुबई और लंदन से फ़ंडिंग की जाँच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उसपर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में क़ानून बने।


परंतु पिछले कुछ समय से ऐसा देखा गया है कि ये जाँच एजेंसियाँ सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले की भावना की उपेक्षा कर कुछ चुनिंदा लोगों के ख़िलाफ़ ही कार्यवाही कर रही है। इतना ही नहीं इन एजेंसियों के निदेशकों की सेवा विस्तार देने के ताज़ा क़ानून ने तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की अनदेखी कर डाली। इस नए क़ानून से यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। क्या शायद इसीलिए यह महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन रही हैं? 


केंद्र में जो भी सरकार रही हो उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। 


पर यहाँ सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फ़ैसला इन जाँच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दख़ल के अपना काम कर सके। क्योंकि सीबीआई को सर्वोच्च अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। इसी फ़ैसले के तहत इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया था। यदि ये एजेंसियाँ अपना काम सही से नहीं कर रहीं तो सीवीसी के पास ऐसा अधिकार है कि वो अपनी मासिक रिपोर्ट में जाँच एजेंसियों की ख़ामियों का उल्लेख करे।  


प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री श्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 8 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमख़म के साथ कहते हैं न खाऊँगा न खाने दूँगा। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच करने वाली ये एजेंसियाँ सरकार के दख़ल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो विपक्ष द्वारा मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा। 


हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 8 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। ये बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लम्बी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उसकी निष्पक्ष जाँच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं बल्कि शुभचिंतक माना जाए। क्योंकि संत कह गए हैं कि, ‘निंदक नियरे  राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’ 


मामला संजय राउत का हो, आज़म खाँ का हो, केजरीवाल सरकार के शराब घोटाले का हो या मोरबी पुल की दुर्घटना का हो, जाँच एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत महत्वपूर्ण है। जानता के बीच ऐसा संदेश जाना चाहिए कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्त और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा। 

Monday, November 7, 2022

हर साल जहरीली धुंध से क्यों घिर जाता है एनसीआर?


हर साल दिवाली के आसपास पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा पराली जलाने से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र जहरीली धुंध से घिर जाता है। हमेशा की तरह इस साल भी इस धुंध ने यहाँ के रहने वालों के होश उड़ा दिए हैं। दिल्ली और उसके नजदीकी दूसरे शहरों में हाहाकार मचा हुआ है। आंखों को उंगली से रगड़ते और खांसते लोगों की तदाद बढ़ती जा रही है। सबसे ज़्यादा ख़तरा तों छोटे बच्चों के लिये हो गया है। केंद्र और दिल्ली सरकार किमकर्तव्य विमूढ़ हो गई है। वैसे यह कोई पहली बार नहीं है। कई साल पहले 1999 में ऐसी ही हालत दिखी थी। तब क्या सोचा गया था और अब क्या सोचना चाहिए? इसकी जरूरत एक बार फिर से आन पड़ी है।


पर्यावरण विशेषज्ञ, नेता और संबंधित सरकारी विभागों के अफसर हर साल की तरह इस साल भी इस समस्या को लेकर सिर खपा रहे हैं।उन्होंने अब तक के अपने सोच विचार का नतीजा यह बताया है कि खेतों में फसल कटने के बाद जो ठूंठ बचते हैं उन्हें खेत में जलाए जाने के कारण ये धुंआ बना है जो एनसीआर के उपर छा गया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि यह तो हर साल ही होता है तो नए जवाबों की तलाश क्यों हो रही है? 



दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण को हम कई सालों से सुनते आ रहे हैं। एक से एक सनसनीखेज वैज्ञानिक रिपोर्टो की बातों को हमें भूलना नहीं चाहिए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा करकट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया। सरकार यही सोचने में लगी है कि यह पूरा का पूरा कूड़ा कहां फिंकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तार यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को चोरी छुपे जलाने के अलावा और क्या चारा बचता होगा? इस गैरकानूनी हरकत से उपजे धुंए और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है इसका कोई हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं लगाया जा रहा है।


हवा के माणकों में 0-50 के बीच एक्यूआई को ‘अच्छा’, 51-100 को ‘संतोषजनक’, 101-200 को ‘मध्यम’, 201-300 को ‘खराब’, 301-400 को ‘बहुत खराब’ और 401-500 को ‘गंभीर’ श्रेणी में माना जाता है। पिछले गुरुवार सुबह छह बजे ही दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) 408 के खतरनाक स्तर पर पहुंच गया।यानि भयावह स्तर का प्रदूषण था। इसी से इस समय की गम्भीरता का अनुमान लगाया जा सकता है।


सांख्यिकी की एक अवधारणा है कि कोई भी प्रभाव किसी एक कारण से पैदा नहीं होता। कई कारण अपना-अपना प्रभाव डालते हैं और वे जब एक साथ जुड़कर प्रभाव दिखने लायक मात्रा में हो जाते हैं तो वह असर अचानक दिखने लगता है। दिल्ली में रिकार्ड तोड़ती जहरीली धुंध इसी संचयी प्रभाव का नतीजा हो सकती है। खेतों में ठूंठ जलाने का बड़ा प्रभाव तो है ही लेकिन चोरी छुपे घरों से निकला कूड़ा जलाना, दिल्ली में चकरडंड घूम रहे वाहनों का धुंआ उड़ना, हर जगह पुरानी इमारतों को तोड़कर नई-नई इमारते बनते समय धूल उड़ना, घास और हिरयाली का दिन पर दिन कम होते जाना और ऐसे दर्जनों छोटे बड़े कारणों को जोड़कर यह प्राणांतक धुंध तो बनेगी ही बनेगी।



इस समस्या को लेकर होने वाली आपात बैठकें सोच विचार कर बड़ा रोचक नतीजा निकालती हैं। खासतौर पर लोगों को यह सुझाव कि ज्यादा जरूरत न हो तो घर से बाहर न निकलें। इस सुझाव की सार्थकता को विद्वान लोग ही समझ और समझा सकते हैं। वे ही बता पाएंगे कि क्या यह सुझाव किसी समाधान की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक कार्रवाई सरकार ने यह की है कि कुछ दिनों के लिए निर्माण कार्य पर रोक लगा दी है। सिर्फ निर्माण कार्य का धूल धक्कड़ ही तो भारी होता है जो बहुत दूर तक ज्यादा असर नहीं डाल पाता। कारों पर ओड-ईवन की पाबंदी फौरन लग सकती थी। लेकिन हाल का अनुभव है कि यह योजना कुछ अलोकप्रिय हो गई थी। सो इसे फौरन फिर से चालू करने की बजाए आगे के सोच विचार के लिए छोड़ दिया गया। हां कूड़े कचरे को जलाने पर कानूनी रोक को सख्ती से लागू करने पर सोच विचार हो सकता था। लेकिन इससे यह पोल खुलने का अंदेशा रहता हे कि यह कानून शायद सख्ती से लागू हो नहीं पा रहा है। साथ ही यह पोल खुल सकती थी कि ठोस कचरा प्रबंधन का ठोस काम दूसरे प्रचारात्मक कामों की तुलना में ज्यादा खर्चीले हैं।


बहरहाल अभी तक व्यवस्था के किसी भी विभाग या स्वतंत्र कार्यकर्ताओं की तरफ से कोई भी ऐसा सुझाव सामने नहीं आया है जो जहरीले धुंध का समाधान देता हो। वैसे भी भाग्य निर्भर होते जा रहे भारतीय समाज में हमेशा से भी कुदरत का ही आसरा रहा है। उम्मीद लगाई जा सकती है कि हवा चल पड़ेगी और सारा धुंआ और ज़हरीली धुंध उड़ा कर कहीं और ले जाएगी। यानी अभी जो अपने कारनामों के कारण राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्रों में जहरीला धुंआ उठ  रहा है उसे शेष भारत से आने वाली हवाएं हल्का कर देंगी और आगे भी करती रहेंगी।ये शेख़चिल्ली के सपने जैसा है। 


वक्त के साथ हर समस्या का समाधान खुद ब खुद हो ही जाता है यह सोचने से हमेशा ही काम नहीं चलता। जल,जंगल और जमीन का बर्बाद होना शुरू हो ही गया है । अब हवा की बर्बादी का शुरू होना एक गंभीर चेतावनी है। ये ऐसी बर्बादी है कि यह अमीर गरीब का फर्क नहीं करेगी। महंगा पानी और महंगा आर्गनिक फूड धनवान लोग खरीद सकते हैं। लेकिन साफ हवा के सिलेंडर या मास्क या एअर प्यूरीफायर वायु प्रदूषण का समाधान दे नहीं सकते। इसीलिए सुझाव है कि विद्वानों और विशेषज्ञों को समुचित सम्मान देते हुए उन्हें विचार के लिए आमंत्रित कर लिया जाए। खासतौर पर फोरेंसिक साइंस की विशेष शाखा यानी विष विज्ञान के विशेषज्ञों का समागम तो फौरन ही आयोजित करवा लेना चाहिए। यह समय इस बात से डरने का नहीं है कि वे व्यवस्था की खामियां गिनाना शुरू कर देंगे। जब सरकारें खामियां जानने से बचेंगी तो समाधान कैसे ढूंढेंगे? 

Monday, October 31, 2022

परदेस में कितने देसी नेता


क्या आप जानते हैं कि इंग्लैंड के अलावा भी कई देशों में भारतीय मूल के प्रधान मंत्री हैं? दीपावली के दिन जैसे ही ये खबर आई कि ऋषि सौनक निर्विरोध ब्रिटेन के प्रधान मंत्री चुन लिए गये हैं, तो विश्व भर के हिंदुओं में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी, विशेषकर भारत में। लोग बल्लियों उछलने लगा। मानो भारत ने इंग्लैंड को जीत लिया हो। औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त रहे भारतीयों के लिए निश्चय ही ये एक गर्व का विषय है कि ऋषि सौनक उन गोरों के प्रधान मंत्री हैं जो कभी भारतीयों को शासन करने में नाकारा बताते थे। यह भी सही है की ऋषि सौनक के पूर्वजों की जड़ें पूर्वी पाकिस्तान और भारत से जुड़ी हैं और वे इंफ़ोसिस के संस्थापक नारायणमूर्ति के दामाद हैं। इससे भी ज़्यादा यह कि वे स्वयं को हिंदू घोषित कर चुके हैं और उन्होंने अपनी सांसदीय शपथ भी भगवद् गीता पर हाथ रख कर ली थी। इससे आगे ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिये भारत के कुछ लोग इतने उत्साहित हैं।


ऋषि सौनक को ये संस्कार श्रील ए॰सी॰ भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा स्थापित इस्कॉन ने दिए हैं, जो मानता है कि हम हिंदू नहीं, हमारी पहचान सनातन धर्मी के रूप में है। जबकि कुछ संगठन सभी सनातन शास्त्रों व मान्यताओं के विपरीत चलते हुए अपना ही बनाया ‘हिंदुत्व’ सब पर थोपते हैं। लंदन के इस्कॉन मन्दिर में ऋषि सौनक ने सपरिवार जा कर गौ माता का पूजन किया तो कुछ लोग इसे इंग्लैंड में भारतीय संस्कृति के प्रसार की संभावना मान कर अति उत्साहित हो गये। पर अगले ही दिन ऋषि सौनक ने ट्विटर पर लिखा कि मेरा संसदीय क्षेत्र गाय और बकरों के मांस का व्यापार करने वालों का है। ये एक बढ़िया उद्योग है। कोई क्या खाए, ये उसकी पसंद से तय होता है। इसलिए मैं इस उद्योग को पूरा बढ़ावा दूँगा- देश में भी और विदेश में भी। 



इसके बाद ही ऋषि सौनक के श्वसुर नारायणमूर्ति व सास सुधा नारायण मूर्ति के काफ़ी निकट के मित्र, प्रधान मंत्री मोदी जी व आरएसएस के नेताओं के भी ख़ास सहयोगी व सलाहकार, बेंगलुरु के मशहूर उद्योगपति मोहन दास पाई ने ट्वीटर पर लिखा कि ऋषि सौनक इंग्लैंड के नागरिक हैं और उनका समर्पण इंग्लैंड के प्रति है। वे यूके के हित के सामने भारत के लिए कुछ भी नहीं करने जा रहे। भारत उनसे कोई आशा न रखे। उन्होंने ये भी लिखा कि ऋषि सौनक का भारत के प्रति कड़ा तेवर रहने वाला है इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिये।  


पिछले हफ़्ते सोशल मीडिया पर छाये रहे इस पूरे प्रकरण से कुछ बातें समझनी चाहिए। पहली बात तो यह है कि भारतीय मूल के जो युवा विदेशों में पैदा हुए और पले बढ़े और वहीं के नागरिक हैं, उनका भारत के प्रति न तो वह भाव है और न ही वह आकर्षण, जो उनके माता-पिता या पूर्वजों का रहा है, जो भारत में जन्में थे और बाद में विदेशों में जा बसे। 


ऋषि सौनक भारतीय उपमहाद्वीप मूल के पहले युवा नहीं हैं जो इस ऊँचाई तक पहुँचे हैं। अमरीका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की ननिहाल तमिल नाडू में है। उन्हें दक्षिण भारतीय खाना पसंद है और वे अपने मौसी-मामाओं से जुड़ी रहती हैं। पर भारत के प्रति कमला हैरिस का रवैया वही है जो आम अमरीकी का है। मसलन वे कश्मीर को मानवाधिकार का विषय मानती हैं। जो भारतीय दृष्टिकोण के विरुद्ध है।


हम में से कितने लोग यह जानते हैं कि 2017-2020 तक आयरलैंड के प्रधान मंत्री रहे लिओ वराडकर के माता-पिता मुंबई के पास वसई के रहने वाले हैं। लिओ ने 2003 में मुंबई के केईएम अस्पताल से इण्टर्नशिप पूरी की थी। उनकी माँ आयरिश हैं और पिता भारतीय। लिओ वराडकर की इस प्रभावशाली सफलता का भारत में कोई ज़िक्र क्यों नहीं करता? क्या इसलिए कि वे ईसाई हैं? ये बहुत ओछि  मानसिकता का परिचायक है। 



इसी तरह पुर्तगाल के मौजूदा प्रधान मंत्री एंटोनियो कोस्टा भी भारतीय मूल के हैं। उनके माता-पिता का जन्म गोवा में हुआ था। ये दूसरी बार प्रधान मंत्री चुने गये हैं। विडंबना देखिए कि न तो भारत के मीडिया को इसकी खबर है और ना ही देश की जनता को। तो फिर भारत माँ के इन सपूतों की इस उपलब्धि पर जश्न कौन मनाएगा? जबकि एंटोनियो कोस्टा तो आज भी ओसीआई कार्ड के धारक हैं और लिओ वराडकर अक्सर अपने रिश्तेदारों से मिलने महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले में आते रहते हैं। पर इसकी मीडिया में कहीं कोई चर्चा क्यों नहीं होती? ये प्रमाण हैं इस बात का कि देश का मीडिया कितना संकुचित और कुंद हो गया है। ये रवैया भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि और लोकतंत्र के लिए घातक है।


पिछले कुछ वर्षों से हिंदुत्व को लेकर जो अभियान चलाया जा रहा है उसे लेकर देश के करोड़ों सनातन धर्मियों के मन में अनेक प्रश्न खड़े हो रहे हैं, जिनका संतुष्टि पूर्ण उत्तर संघ परिवार के सर्वोच्च पदाधिकारियों को देना चाहिए। एक तरफ़ तो सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत जी ऐसे वक्तव्य देते हैं जिससे लगता है कि संघ अपने कट्टरपंथी चोले से बाहर आ रहा है। जैसे मुसलमानों और हिंदुओं का डीएनए एक है। अब मस्जिदों में और शिव लिंग खोजना बंद करें। दूसरी तरफ़ संघ प्रेरित सोशल मीडिया का दिन-रात हमला मुसलमानों के विरुद्ध भावनाएँ भड़काने के लिए होता रहता है। ये विरोधाभास क्यों? 


एक तरफ़ तो संघ परिवार हिंदुत्व की जमकर पैरवी करता है और दूसरी तरफ़ सनातन धर्म की परंपराओं, वैदिक शास्त्रों और शंकराचार्य जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं के विरुद्ध आचरण भी करता है। ये विरोधाभास क्यों? ऐसे में हमारे जैसा एक आस्थावान सनातन धर्मी किस मार्ग का अनुसरण करे? ये भ्रम जितनी जल्दी दूर हो उतना ही हमारे समाज और राष्ट्र के हित में होगा। वरना हम इसी तरह ऋषि सौनक की उपलब्धि पर तो बल्लियों उछलेंगे और एंटोनियो कोस्टा व लिओ वराडकर की उपलब्धियों से मूर्खों की तरह बेख़बर बने रहेंगे। भागवत जी के वक्तव्य को यदि गंभीरता से लिया जाए तो ये खाई अब पटनी चाहिए।  

Monday, October 24, 2022

स्वच्छता अभियान कहाँ अटक गया ?


2014 में जब देश में मोदी जी
  ने सत्ता में आते ही स्वच्छता के प्रति ज़ोर-शोर से एक अभियान छेड़ा था तो सभी को लगा कि जल्द ही इसका असर ज़मीन पर भी दिखेगा। इस अभियान के विज्ञापन पर बहुत मोटी रक़म खर्च की गयी। कुछ ही महीनों में मोदी सरकार की प्राथमिकताएं दिखनी भी शुरू हो गईं। जितनी तीव्रता से इस विचार को सामने लाया गया उससे नई सरकार के योजनाकार भी भौचक्के रह गए। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने सफाई के काम को छोटा सा काम बताया था। पर अब तक का अनुभव बताता है की सफाई का काम उन बड़े-बड़े कामों से कम खर्चीला नहीं है जिनके लिए सरकारें हमेशा पैसा कि कमी का रोना रोते रहे हैं। आज आठ साल बाद भी देश की राजधानी दिल्ली के ही पॉश इलाक़ों तक में पर्याप्त सफ़ाई नहीं दिखती। जगह जगह कूड़े के ढेर  दिखाई दिखते हैं। 


प्रश्न है कि क्या इसके लिए केवल सरकार ज़िम्मेदार है? क्या स्वच्छता के प्रति हम नागरिकों का कोई दायित्व नहीं है? सोचने वाली बात है कि अगर देश की राजधानी का यह हाल है तो देश के बाक़ी हिस्सों में क्या हाल होगा?


देश के 50 बड़े शहरों में साफ़ सफाई के लिए क्या कुछ करने कोशिश नहीं की गई? रोचक बात ये है कि 600 से ज्यादा जिला मुख्यालयों में जिला प्रशासन और स्थानीय प्रशासन अगर वाकई किसी मुद्दे पर आँखें चुराते हुए दिखता है तो वह साफ सफाई का मामला ही है। उधर देश के 7 लाख गावों को इस अभियान से जोड़ने के लिए हम न जाने कितने साल से लगे हैं। यानी कोई कहे कि इतने छोटे से काम पर पहले किसी का ध्यान नहीं गया तो यह बात ठीक नहीं होगी। महत्वपूर्ण बात यह होगी कि इस सार्वभौमिक समस्या के समाधान के लिए व्यवहारिक उपाय ढूंढने के काम पर लगा जाए तो शायद सही दिशा में अच्छे परिणाम आएँगे। इसके लिए नागरिकों और सरकार की सहभागिता के बिना कुछ नहीं होगा। 



गांधी जयन्ती पर केंद्र या राज्य सरकार के तमाम मंत्री किस तरह खुद झाड़ू लेकर सड़कों पर सफाई करते दिखाई देते हैं उससे लगता है कि इस समस्या को कर्तव्यबोध बता कर निपटाने की बात सोची गई थी। यानी हम मान रहे हैं कि नागरिक जब तक अपने आसपास का खुद ख़याल नहीं रखेंगे तब तक कुछ नहीं होगा। इस खुद ख्याल रखने की बात पर भी गौर करना ज़रूरी है।


शोधपरख तथ्य तो उपलब्ध नहीं है लेकिन सार्वभौमिक अनुभव है कि देश के मोहल्लों या गलियों में इस बात पर झगड़े होते हैं कि ‘मेरे घर के पास कूडा क्यों फेंका’? यानी समस्या यह है कि घर का कूड़ा कचरा इकट्ठा करके कहाँ ‘फेंका’ जाए?


निर्मला कल्याण समिति जैसी कुछ स्वयमसेवी संस्थाओं के पर्यीवेक्षण है कि उपनगरीय इलाकों में घर का कूड़ा फेकने के लिए लोगों को आधा किलोमीटर दूर तक जाना पड़ता है। ज़ाहिर है कि देश के 300 कस्बों में लोगों की तलाश बसावट के बाहर कूड़ा फेंकने की है। खास तौर पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का अनुभव यह है कि हमारे बेशकीमती जल संसाधन मसलन तालाब, कुण्ड और कुँए – कूड़ा कचरा फेंकने के खड्ड बन गए हैं। इन नए घूरों और खड्डों की भी अपनी सीमा थी। पर अब हर जगह ये घूरे और कूड़े से पट गए हैं। आने वाले समय में नई चुनौती यह खड़ी होने वाली है कि शहरों और कस्बों से निकले कूड़े-कचरे के पहाड़ हम कहाँ-कहाँ बनाए? उसके लिए ज़मीने कहाँ ढूंढें? दिल्ली जैसे महानगर में भी कूड़ा इकट्ठा करने के स्थान भर चुके हैं और यहाँ भी कूड़ा इकट्ठा करने के लिए नए स्थान खोजे जा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय पूर्वी दिल्ली में बने कूड़े के पहाड़ों को लेकर दिल्ली सरकार की खिंचाई कर रहा है। 


गाँव भले ही अपनी कमज़ोर माली हालत के कारण कूड़े कचरे की मात्रा से परेशान न हों लेकिन जनसँख्या के बढते दबाव के चलते वहां बसावट का घनत्व बढ़ गया है। गावों में तरल कचरा पहले कच्ची नालियों के ज़रिये भूमिगत जल में मिल जाता था। अब यह समस्या है कि गावों से निकली नालियों का पानी कहाँ जाए। इसके लिए भी गावों की सबसे बड़ी धरोहर पुराने तालाब या कुण्ड गन्दी नालियों के कचरे से पट चले हैं।



यह कहने की तो ज़रूरत है ही नहीं कि बड़े शहरों और कस्बों के गंदे नाले यमुना जैसी देश की प्रमुख नदियों में गिराए जा रहे हैं। चाहे विभिन्न प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हों और चाहे पर्यावरण पर काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाएँ – और चाहे कितनी भी चिंतित सरकारें – ये सब गंभीर मुद्रा में ‘चिंता’ करते हुए दिखते तो हैं लेकिन सफाई जैसी ‘बहुत छोटी’ या बहुत बड़ी समस्या पर गम्भीर कोई नहीं दिखता। अगर ऐसा होता तो ठोस कचरा प्रबंधन, औद्योगिक कचरे के प्रबंधन, नदियों व सरोवरों या कुंडों के प्रदूषण स्वच्छता और स्वास्थ्य के सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी हमें बड़े अकादमिक आयोजन होते ज़रूर दिखाई देते। 


विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दिवसों और राष्ट्रीय दिवसों पर सरकारी पैसे से कुछ सेमीनार और शोध सम्मेलन होते ज़रूर हैं। लेकिन उनमें समस्याओं के विभिन्न पक्षों की गिनती से ज्यादा कुछ नहीं हो पाता। ऐसे आयोजनों में आमंत्रित करने के लिए विशेषज्ञों का चयन करते समय लालच यह रहता है कि सम्बंधित विशेषज्ञ संसाधनों का प्रबंध करने में भी थोड़ा बहुत सक्षम हो। और होता यह है कि ऐसे समर्थ विशेषज्ञ पहले से चलती हुई यानी चालु योजना या परियोजना के आगे सोच ही नहीं पाते। जबकि जटिल समस्याओं के लिए हमें नवोन्मेषी मिज़ाज के लोगों की ज़रूरत पड़ती है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थानों, प्रबंधन प्रौद्योगिकी संस्थानों और चिंताशील स्वयंसेवी संस्थाओं के समन्वित प्रयासों से, अपने-अपने प्रभुत्व के आग्रह को छोड़ कर, एक दूसरे से मदद लेकर ही स्वच्छता जैसी बड़ी समस्या का समाधान खोजा जा सकता है। पर हर समस्या को समस्या बनाकर रखने की अभ्यस्त नौकरशाही इस समस्या को भी अपनी लालफ़ीताशाही की फ़ाइलों में क़ैद रखने में ही अपनी कामयाबी समझती है। इसलिये कोई हल नहीं निकल पाता। 


हिमाचल प्रदेश की मनोरम घाटी हों या सागर के रमणीक तट, तेज़ रफ़्तार से दौड़ती रेलगाड़ियों की खिड़की के दोनों ओर की रेल विभाग की ज़मीने, हर ओर कूड़े का विशाल साम्राज्य देख कर कलेजा मुँह को आता है। पश्चिमी देशों की नज़र में भारत सबसे गंदे देशों में से एक है। ये हम सबके लिये शर्म की बात है। हम सबको सोचना और कुछ ठोस करना चाहिये।