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Monday, December 9, 2024

राजनेताओं के प्रेम प्रसंग


हमेशा की तरह राजनेताओं के प्रेम प्रसंग लगातार चर्चा में रहते हैं। ये बात दूसरी है कि ऐसे सभी मामलों को बल पूर्वक दबा दिया जाता है। जल्दी ही ऐसी घटनाएँ जनता के मानस से ग़ायब हो जाती हैं। पर दुनिया भर के राजनेताओं के चरित्र और आचरण पर जनता और मीडिया की पैनी निगाह हमेशा लगी रहती है। जब तक राजनेताओं के निजी जीवन पर परदा पड़ा रहता है, तब तक कुछ नहीं होता। पर एक बार सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। फिर तो उस राजनेता की मीडिया पर ऐसी धुनाई होती है कि कुर्सी भी जाती है और इज्जत भी। ज्यादा ही मामला बढ़ जाए, तो आपराधिक मामला तक दर्ज हो जाता है। विरोधी दल भी इसी ताक में लगे रहते हैं और एक दूसरे के खिलाफ सबूत इकट्ठे करते हैं। उन्हें तब तक छिपाकर रखते हैं, जब तक उससे उन्हें राजनैतिक लाभ मिलने की परिस्थितियाँ पैदा न हो जाऐं। मसलन चुनाव के पहले एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का काम जमकर होता है। पर यह भारत में ही होता हो, ऐसा नहीं है।
 



उन्मुक्त जीवन व विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध को मान्यता देने वाले अमरीकी समाज में भी जब उनके राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का अपनी सचिव मोनिका लेवांस्की से प्रेम सम्बन्ध उजागर हुआ तो अमरीका में भारी बवाल मचा था। इटली, फ्रांस व इंग्लैंड जैसे देशों में ऐसे सम्बन्धों को लेकर अनेक बार बड़े राजनेताओं को पद छोड़ने पड़े हैं। मध्य युग में फ्रांस के एक समलैंगिक रूचि वाले राजा को तो अपनी दावतों का अड्डा पेरिस से हटाकर शहर से बाहर ले जाना पड़ा। क्योंकि आए दिन होने वाली इन दावतों में पेरिस के नामी-गिरामी समलैंगिक पुरूष शिरकत करते थे, और जनता में उसकी चर्चा होने लगी थी। 



आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई मामले प्रकाश में आ चुके हैं, जहाँ मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों आदि के प्रेम प्रसंगों पर बवाल मचते रहे हैं। उड़ीसा के मुख्यमंत्री जी.बी. पटनायक पर समलैंगिकता का आरोप लगा था। आन्ध्र प्रदेश के राज्यपाल एन. डी. तिवारी का तीन महिला मित्रों के साथ शयनकक्ष का चित्र टी.वी. चैनलों पर दिखाया गया। अटल बिहारी वाजपयी का यह बयान कि वे न तो ब्रह्मचारी हैं और न ही विवाहित, काफी चर्चित रहा था। क्योंकि इसके अनेक मायने निकाले गए। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के सम्बन्धों को लेकर पार्टी में काफी विरोध हुआ था। ऐसे अनेक मामले हैं। पर यहाँ कई सवाल उठते हैं। 



घोर नैतिकतावादी विवाहेत्तर सम्बन्धों की कड़े शब्दों में भर्त्सना करते हैं। उसे निकृष्ट कृत्य और समाज के लिए घातक बताते हैं। पर वास्तविकता यह है कि अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना राजाओं और नेताओं को छोड़, संतों और देवताओं के लिए भी अत्यंत दुष्कर कार्य रहा है। महान तपस्वी विश्वामित्र को स्वर्ग की अप्सरा मेनका ने अपनी पायल की झंकार से विचलित कर दिया। यहाँ तक कि भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देखकर भोलेशंकर समाधि छोड़कर उठ भागे और मोहिनी से संतान उत्पत्ति की। इसी तरह अन्य धर्मों में भी संतो के ऐसे आचरण पर अनेक कथाऐं हैं। वर्तमान समय में भी जितने भी धर्मों के नेता हैं, वे गारण्टी से यह नहीं कह सकते कि उनका समूह शारीरिक वासना की पकड़ से मुक्त है। ऐसे में राजनेताओं से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे भगवान राम की तरह एक पत्नी व्रतधारी रहेंगे? विशेषकर तब जब सत्ता का वैभव सुन्दरियों को उन्हें अर्पित करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। ऐसे में मन को रोक पाना बहुत कठिन काम है।


प्रश्न यह उठता है कि यह सम्बन्ध क्या पारस्परिक सहमति से बना है या सामने वाले का शोषण करने की भावना से? अगर सहमति से बना है या सामने वाला किसी लाभ की अपेक्षा से स्वंय को अर्पित कर रहा है तो राजनेता का बहुत दोष नहीं माना जा सकता। सिवाय इसके कि नेता से अनुकरणीय आचरण की अपेक्षा की जाती है। किन्तु अगर इस सम्बन्ध का आधार किसी की मजबूरी का लाभ उठाना है, तो वह सीधे-सीधे दुराचार की श्रेणी में आता है। लोकतंत्र में उसके लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। यह तो राजतंत्र जैसी बात हुई कि राजा ने जिसे चाहा उठवा लिया। 


ऐसे सम्बन्ध प्रायः तब तक उजागर नहीं होते, जब तक कि सम्बन्धित व्यक्ति चाहे पुरूष हो या स्त्री, इस सम्बन्ध का अनुचित लाभ उठाने का काम नहीं करता। जब वह ऐसा करता है, तो उसका बढ़ता प्रभाव, विरोधियों में ही नहीं, अपने दल में भी विरोध के स्वर प्रबल कर देता है। वैसे शासकों से जनता की अपेक्षा होती है कि वे आदर्श जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। पर अब हालात इतने बदल चुके हैं कि राजनेताओं को अपने ऐसे सम्बन्धों का खुलासा करने में संकोच नहीं होता। फिर भी जब कभी कोई असहज स्थिति पैदा हो जाती है, तो मामला बिगड़ जाता है। फिर शुरू होता है, ब्लैकमेल का खेल। जिसकी परिणिति पैसा या हत्या दोनों हो सकती है। जो राजनेता पैसा देकर अपनी जान बचा लेते हैं, वे उनसे बेहतर स्थिति में होते हैं जो पैसा भी नहीं देते और अपने प्रेमी या प्रेमिका की हत्या करवाकर लाश गायब करवा देते हैं। इस तरह वे अपनी बरबादी का खुद इंतजाम कर लेते हैं। 


मानव की इस प्रवृत्ति पर कोई कानून रोक नहीं लगा सकता। आप कानून बनाकर लोगों के आचरण को नियन्त्रित नहीं कर सकते। यह तो हर व्यक्ति की अपनी समझ और जीवन मूल्यों से ही निर्धारित होता है। अगर यह माना जाए कि मध्य युग के राजाओं की तरह राजनीति के समर में लगातार जूझने वाले राजनेताओं को बहुपत्नी या बहुपति जैसे सम्बन्धों की छूट होनी चाहिए तो इस विषय में बकायदा कोई व्यवस्था की जानी चाहिए। ताकि जो बिना किसी बाहरी दबाव के, स्वेच्छा से, ऐसा स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें ऐसा जीने का हक मिले। पर यह सवाल इतना विवादास्पद है कि इस पर दो लोगों की एक राय होना सरल नहीं। इसलिए देश, काल और वातावरण के अनुसार व्यक्ति को व्यवहार करना चाहिए, ताकि वह भी न डूबे और समाज भी उद्वेलित न हो। 

Monday, November 18, 2024

रोज़गारपरक शिक्षा कैसे हो?


आय दिन अख़बारों में पढ़ने में आता है जिसमें देश में चपरासी की नौकरी के लिए लाखों ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट, बी.टेक व एमबीए जैसी डिग्री धारकों की दुर्दशा का वर्णन किया जाता है। ऐसी हृदय विदारक खबर पर बहुत विचारोत्तेजक प्रतिक्रियाएं भी आती हैं। सवाल है कि जो डिग्री नौकरी न दिला सके, उस डिग्री को बांटकर हम क्या सिद्ध करना चाहते हैं। दूसरी तरफ दुनिया के तमाम ऐसे मशहूर नाम हैं, जिन्होंने कभी स्कूली शिक्षा भी ठीक से पूरी नहीं की। पर पूरी दुनिया में यश और धन कमाने में झंडे गाढ़ दिए। जैसे स्टीव जॉब्स, जो एप्पल कंपनी के मालिक हैं, कभी कालेज पढ़ने नहीं गए। फोर्ड मोटर कंपनी के संस्थापक हिनेरी फोर्ड के पास मैनेजमेंट की कोई डिग्री नहीं थी। जॉन डी रॉकफेलर केवल स्कूल तक पढ़े थे और विश्व के तेल कारोबार के सबसे बड़े उद्यमी बन गए। मार्क टुइन और शेक्सपीयर जैसे लेखक बिना कालेज की शिक्षा के विश्वविख्यात लेखक बने।



पिछले 25 वर्षों में सरकार की उदार नीति के कारण देशभर में तकनीकि शिक्षा व उच्च शिक्षा देने के लाखों संस्थान छोटे-छोटे कस्बों तक में कुकरमुत्ते की तरह उग आए। जिनकी स्थापना करने वालों में या तो बिल्डर्स थे या भ्रष्ट राजनेता। जिन्होंने शिक्षा को व्यवसाय बनाकर अपने काले धन को इन संस्थानों की स्थापना में निवेश कर दिया। एक से एक भव्य भवन बन गए। बड़े-बड़े विज्ञापन भी प्रसारित किए गए। पर न तो इन संस्थानों के पास योग्य शिक्षक उपलब्ध थे, न इनके पुस्तकालयों में ग्रंथ थे, न प्रयोगशालाएं साधन संपन्न थीं, मगर दावे ऐसे किए गए मानो गांवों में आईआईटी खुल गया हो। नतीजतन, भोले-भाले आम लोगों ने अपने बच्चों के दबाव में आकर उन्हें महंगी फीस देकर इन तथाकथित संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया। लाखों रूपया इन पर खर्च किया। इनकी डिग्रियां हासिल करवाई। खुद बर्बाद हो गए, मगर संस्थानों के मालिकों ने ऐसी नाकारा डिग्रियां देकर करोड़ों रूपए के वारे न्यारे कर लिए।



दूसरी तरफ इस देश के नौजवान मैकेनिकों के यहां, बिना किसी सर्टिफिकेट की इच्छा के, केवल हाथ का काम सीखकर इतने होशियार हो जाते हैं कि लकड़ी का अवैध खोखा सड़क के किनारे रखकर भी आराम से जिंदगी चला लेते हैं। हमारे युवाओं की इस मेधा शक्ति को पहचानकर आगे बढ़ाने की कोई नीति आजतक क्यों नहीं बनाई गई ? आईटीआई जैसी संस्थाएं बनाई भी गईं, तो उनमें से अपवादों को छोड़कर शेष बेरोजगारों के उत्पादन का कारखाना ही बनीं। क्योंकि वहां भी व्यवहारिक ज्ञान की बहुत कमी रही। इस व्यवहारिक ज्ञान को सिखाने और सीखने के लिए जो व्यवस्थाएं चाहिए, वे इतनी कम खर्चे की हैं कि सही नेतृत्व के प्रयास से कुछ ही समय में देश में शिक्षा की क्रांति कर सकती हैं। जबकि अरबों रूपए का आधारभूत ढांचा खड़ा करने के बाद जो शिक्षण संस्थान बनाए गए हैं, वे नौजवानों को न तो हुनर सिखा पाते हैं और न ज्ञान ही दे पाते हैं। बेचारा नौजवान न घर का रहता है, न घाट का।


कभी-कभी बहुत साधारण बातें बहुत काम की होती हैं और गहरा असर छोड़ती हैं। पर हमारे हुक्मरानों और नीति निर्धारकों को ऐसी छोटी बातें आसानी से पचती नहीं। एक किसान याद आता है, जो बांदा जिले से पिछले 20 वर्षों से दिल्ली आकर कृषि मंत्रालय में सिर पटक रहा है। पर किसी ने उसे प्रोत्साहित नहीं किया। जबकि उसने कुएं से पानी खींचने का एक ऐसा पंप विकसित किया है, जिसे बिना बिजली के चलाया जा सकता है और उसे कस्बे के लुहारों से बनवाया जा सकता है। ऐसे लाखों उदाहरण पूरे भारत में बिखरे पड़े हैं, जिनकी मेधा का अगर सही उपयोग हो, तो वे न सिर्फ अपने गांव का कल्याण कर सकते हैं, बल्कि पूरे देश के लिए उपयोगी ज्ञान उपलब्ध करा सकते हैं। यह ज्ञान किसी वातानुकूलित विश्वविद्यालय में बैठकर देने की आवश्यकता नहीं होगी। इसे तो गांव के नीम के पेड़ की छांव में भी दिया जा सकता है। इसके लिए हमारी केंद्र और प्रांतीय सरकारों को अपनी सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन करना पड़ेगा। शिक्षा में सुधार के नाम पर आयोगों के सदस्य बनने वाले और आधुनिक शिक्षा को समझने के लिए बहाना बना-बनाकर विदेश यात्राएं करने वाले हमारे अधिकारी और नीति निर्धारक इस बात का महत्व कभी भी समझने को तैयार नहीं होंगे, यही इस देश का दुर्भाग्य है। 


प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी सभाओं के दौरान इस बात को पकड़ा था। पर ‘मेक इन इंडिया’ की जगह अगर वे ‘मेड बाई इंडिया’ का नारा देते, तो इस विचार को बल मिलता। ‘मेक इन इंडिया’ के नाम से जो विदेशी विनियोग आने की हम आस लगा रहे हैं, वे अगर आ भी गया, तो चंद शहरों में केंद्रित होकर रख जाएगा। उससे खड़े होने वाले बड़े कारखाने भारी मात्रा में प्रदूषण फैलाकर और प्राकृतिक संसाधनों का विनाश करके मुट्ठीभर लोगों को रोजगार देंगे और कंटेनरों में भरकर मुनाफा अपने देश ले जाएंगे। जबकि गांव की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को पुर्नस्थापित करके हम इस देश की नींव को मजबूत करेंगे और सुदूर प्रांतों में रहने वाले परिवारों को भी सुख, सम्मान व अभावमुक्त जीवन जीने के अवसर प्रदान करेंगे। अब ये फैसला तो प्रधानमंत्री जी और देश के नीति निर्धारकों को करना है कि वे औद्योगिकरण के नाम पर प्रदूषणयुक्त, झुग्गी झोपड़ियों वाला भारत बनाना चाहते हैं या ‘मेरे देश की माटी सोना उगले, उगले हीरे मोती’ वाला भारत। 

Monday, November 11, 2024

कैसे बने देश अपराध मुक्त ?


चुनाव संपन्न होने के बाद हर दल जो सरकार बनाता है या विपक्ष में होता है जनता के हित में किये गये चुनावी वादों को साकार करने की बात पर ज़ोर देता है। हाल ही में संपन्न हुए कुछ विधान सभा चुनावों और इससे पहले हुए लोकसभा 
के नतीजों से इस बात का स्पष्ट संकेत मिला है कि जनता नारों में बहकने वाली नहीं, उसे जिम्मेदार सरकार चाहिए। पिछले 75 वर्षों में हज़ारों अधिकारी जनता के पैसे पर अनेक प्रशिक्षण, अध्ययन व आदान-प्रदान कार्यक्रमों में दुनिया भर के देशों में जाते रहे हैं। पर वहाँ से क्या सीख कर आये, इसका देशवासियों को कुछ पता नहीं लगता। मुझे याद है 2009 में एक हवाई यात्रा के दौरान गुजरात के एक युवा आई.ए.एस. अधिकारी से मुलाकात हुई तो उसने बताया कि वह छः हफ्ते के प्रशिक्षण कार्यक्रम के बाद विदेश से लौटा है। प्रशिक्षण के बाद उसे अपने राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी व अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के सामने यह बताना है कि इन छः हफ्तों में उसने जो कुछ सीखा, उसका लाभ उसके राज्य को कैसे मिल सकता है। मेरे लिये ये यह एक रोचक किन्तु प्रभावशाली सूचना थी। जिसका उल्लेख मैंने तब भी इस कॉलम में किया था। 



हम भारतीयों की एक आदत है कि हम विदेश की हर चीज की तारीफ करते हैं। वहाँ सड़के अच्छी हैं। वहाँ बिजली कभी नहीं जाती। सफाई बहुत है। आम जीवन में भ्रष्टाचार नहीं है। सरकारी दफ्तरों में काम बड़े कायदे से होता है। आम आदमी की भी सुनी जाती है, वगैरह-वगैरह। मैं भी अक्सर विदेश दौरों पर जाता रहता हूँ। मुझे भी हमेशा यही लगता है कि हमारे देशवासी कितने सहनशील हैं जो इतनी अव्यवस्थाओं के बीच भी अपनी जिन्दगी की गाड़ी खींच लेते हैं। पर मुझे पश्चिमी जगत की चमक-दमक प्रभावित नहीं करती। बल्कि उनकी फिजूल खर्ची देखकर चिंता होती है। पिछले हफ्ते जब मैं सिंगापुर गया तो जो बात सबसे ज्यादा प्रभावित की, वह थी, इस देश में कानून और व्यवस्था की स्थिति। वहाँ की आबादी में चीनी, मलय व तमिल मूल के ज्यादा नागरिक हैं। जिनसे कोई बहुत अनुशासित और परिपक्व आचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती। पर आश्चर्य की बात है कि सिंगापुर की सरकार ने  कानून का पालन इतनी सख्ती से किया है कि वहाँ न तो कभी जेब कटती है, न किसी महिला से कभी छेड़खानी होती है, न कोई चोरी होती है और न ही मार-पिटाई। बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि सिंगापुर में अपराध का ग्राफ शून्य के निकट है। एक आम टैक्सी वाला भी बात-बात में अपने देश के सख्त कानूनों का उल्लेख करना नहीं भूलता। वह आपको लगातार यह एहसास दिलाता है कि अगर आपने कानून तोड़ा तो आपकी खैर नहीं।



हमें लग सकता है कि कानून का पालन आम आदमी के लिए होता होगा, हुक्मरानों के लिए नहीं। पर आश्चर्य की बात ये है कि बड़े से बड़े पद पर बैठा व्यक्ति भी कानून का उल्लंघन करके बच नहीं सकता। 1981-82 में सिंगापुर  के एक मंत्री तेह चींग वेन पर आठ लाख डॉलर की रिश्वत लेने का आरोप लगा। नवम्बर 1986 में सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने उसके विरूद्ध एक खुली जाँच करने सम्बन्धी आदेश पारित कर दिया। हालाँकि एटोर्नी जनरल को संबंधित कागजात 11 दिसम्बर को जारी किये गये। परन्तु फिर भी वह अपने आप को निर्दोष बताता रहा तथा 14 दिसम्बर को ही अपने बचाव हेतु पक्ष रखने से पूर्व उसने आत्महत्या कर ली।


आश्चर्य की बात ये है कि तेह चींग वेन सिंगापुर को विकसित करने के लिए जिम्मेदार और उसके 40 वर्ष तक प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति रहे, ली क्वान यू का सबसे ज्यादा चहेता था। दोनों में गहरी मित्रता थी। यदि ली चाहते तो उसे पहली गलती पर माफ कर सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। तेह चींग वेन अपने प्रधानमंत्री को मुँह दिखाने की हिम्मत नहीं कर सका और आत्महत्या कर ली। उसने आत्महत्या के नोट में लिखा, मैं बहुत ही बुरा महसूस कर रहा हूँ तथा पिछले दो सप्ताह से तनाव में हूँ। मैं इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिए अपने आप को जिम्मेदार मानता हूँ तथा मुझे लगता है कि इसकी सारी जिम्मेदारी मुझे ले लेनी चाहिए। एक सम्माननीय एवं जिम्मेदार नागरिक होने के नाते मुझे लगता है कि अपनी गलती के लिए मुझे बड़ी से बड़ी सजा मिलनी चाहिए।’’


उसके इस कदम से सिंगापुर वासियों का दिल पिघल गया। उन्हें लगा कि अब तो ली उसे माफ कर देंगे और उसके जनाजे में शिरकत करेंगे। पर ऐसा नहीं हुआ। लोगों को आश्चर्य हुआ कि अपने इतने प्रिय मित्र और लम्बे समय से सहयोगी के द्वारा प्रायश्चित के रूप में इतना कठोर कदम उठाने के बाद भी ली उसके जनाजे में शामिल क्यों नहीं हुए? इसका उत्तर कुछ दिन बाद ली ने यह कहकर दिया कि मैं अगर तेह चींग वेन के जनाजे में जाता तो इसका अर्थ होता कि मैंने उसकी गलती माफ कर दी। न जाकर मैं यह सन्देश देना चाहता हूँ कि जिस व्यवस्था को खड़ा करने में हमने 40 साल लगाये, वो एक व्यक्ति की कमजोरी से धराशायी हो सकती है। हम गैरकानूनी आचरण और भ्रष्टाचार के एक भी अपराध को माफ करने को तैयार नहीं है। ऐसा इसी सदी में, एशिया में ही हो रहा है, तो भारत में हमारे हुक्मरान अपने अफ़सरों और मंत्रियों पर ऐसे मानदण्ड क्यों नहीं स्थापित कर सकते?


बातें सब बड़ी-बड़ी करते हैं। पर एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार देश के 58 फीसदी लोग मानते हैं कि आजतक हमारे हुक्मरान बेहद भ्रष्ट रहे हैं। हर दल भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने का वायदा करके सत्ता में आता है और सत्ता में आने के बाद अपने असहाय होने का रोना रोता है। इस देश का आम आदमी जानता है कि कानून सिर्फ उस पर लागू होता है। हुक्मरानों और उनके साहबजादों पर नहीं। सी.बी.आई. और सी.वी.सी. इस बात के गवाह हैं कि ताकतवर लोगों की रक्षा में इस लोकतंत्र का हर स्तम्भ मजबूती से खड़ा है और वे कितना भी बड़ा जुर्म क्यों न करें, उन्हें बचाने का रास्ता निकाल ही लेता है। इसीलिए हमारे यहाँ अपराध बढ़ते जा रहे हैं। सच्चाई तो ये है कि जितने अपराध होते हैं, उसके नगण्य मामले पुलिस के रजिस्टरों में दर्ज होते हैं। ज्यादातर अपराध प्रकाश में ही नहीं आने दिये जाते। फिर गुड गवर्नेंस कैसे सुनिश्चित होगी? क्या हमारे नेता सिंगापुर के निर्माता व चार दशक तक प्रधानमंत्री रहे, ली क्वान यू से कोई सबक लेंगे? आम जनता को लगातार क़ानून का डर दिखाने से पहले हुक्मरानों का आचरण, उनके निर्णय और उनकी नीतियाँ पारदर्शी व आम जनता के हित में होनी चाहिए। 

भगवतगीता के तीसरे अध्याय के 21वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ अर्थात्- श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, वैसा ही व्यवहार अन्य लोग भी करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण छोड़ देता है, लोग उसी के अनुसार आचरण करते हैं।माना कि हमारा देश बहुत बड़ा है और तमाम विविधताओं वाला है, पर ‘जहाँ चाह वहाँ राह।’ 

Monday, October 21, 2024

क्या विकास के पैसे सही दिशा में ख़र्च होते हैं?


बन्जर भूमि, मरूभूमि व सूखे क्षेत्र को हरा-भरा बनाने के लिए केंन्द्र सरकार हजारों करोड़ रूपया प्रान्तीय सरकारों को देती आई है। जिले के अधिकारी और नेता मिली भगत से सारा पैसा डकार जाते हैं। झूठे आंकड़े प्रान्त सरकार के माध्यम से केन्द्र सरकार को भेज दिये जाते हैं पर इस विषय के जानकारों को कागजी आंकड़ों से गुमराह नहीं किया जा सकता। आज हम उपग्रह कैमरे से हर राज्य की जमीन का चित्र देख कर यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि जहां-जहां सूखी जमीन को हरी करने के दावे किये गये, वो सब कितने सच्चे हैं। 



दरअसल यह कोई नई बात नहीं है। विकास योजनाओं के नाम पर हजारों करोड़ रूपया इसी तरह वर्षों से प्रान्तीय सरकारों द्वारा पानी की तरह बहाया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का यह जुमला अब पुराना पड़ गया कि केन्द्र के भेजे एक रूपये मे से केवल 14 पैसे जनता तक पहुंचते हैं। सूचना का अधिकार कानून भी जनता को यह नहीं बता पायेगा कि उसके इर्द-गिर्द की एक गज जमीन पर, पिछले 70 वर्षों में कितने करोड़ रूपये का विकास किया जा चुका है। सड़क निर्माण हो या सीवर, वृक्षारोपण हो या कुण्डों की खुदाई, नलकूपों की योजना हो या बाढ़ नियन्त्रण, स्वास्थ्य सेवाऐं हों या शिक्षा का अभियान की अरबों-खरबों रूपया कागजों पर खर्च हो चुका है। पर देश के हालात कछुए की गति से भी नहीं सुधर रहे। जनता दो वख्त की रोटी के लिए जूझ रही है और नौकरशाही, नेता व माफिया हजारो गुना तरक्की कर चुके है। जो भी इस क्लब का सदस्य बनता है, कुछ अपवादों को छोड़कर, दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, लोकपाल व अदालतें उसका बाल भी बाकां नहीं कर पाते।



जिले में योजना बनाने वाले सरकारी कर्मी योजना इस दृष्टि से बनाते हैं कि काम कम करना पड़े और कमीशन तगड़ा मिल जाये। इन्हें हर दल के स्थानीय विधायकों और सांसदों का संरक्षण मिलता है। इसलिए यह नेता आए दिन बड़ी-बड़ी योजनाओं की अखबारों में घोषणा करते रहते है। अगर इनकी घोषित योजनाओं की लागत और मौके पर हुए काम की जांच करवा ली जाये तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। यह काम मीडिया को करना चाहिए था। पहले करता भी था। पर अब नेता पर कॉलम सेन्टीमीटर की दर पर छिपा भुगतान करके बड़े-बड़े दावों वाले अपने बयान स्थानीय अखबारों में प्रमुखता से छपवाते रहते है। जो लोग उसी इलाके में ठोस काम करते है, उनकी खबर खबर नहीं होती पर फ़र्ज़ीवाड़े के बयान लगातार धमाकेदार छपते है। इन भ्रष्ट अफ़सरों और निर्माण कम्पनियों का भांडा तब फूटता है जब लोकार्पण के कुछ ही दिनों बाद अरबों रुपए की लागत से बने राजमार्ग या एक्सप्रेस-वे गुणवत्ता की कमी के चलते या तो धँस जाते हैं या बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसी धांधली केवल सड़क मार्गों पर ही होती है। ऐसा भी देखने को मिला है जब रेल की पटरियाँ भी धँस गई और रेल दुर्घटना हुई।     



उधर जिले से लेकर प्रान्त तक और प्रान्त से लेकर केन्द्र तक प्रोफेशनल कन्सलटेन्ट का एक बड़ा तन्त्र खड़ा हो गया है। यह कन्सलटेन्ट सरकार से अपनी औकात से दस गुनी फीस वसूलते है और उसमें से 90 फीसदी तक काम देने वाले अफसरों और नेताओं को पीछे से कमीशन मे लौटा देते है। बिना क्षेत्र का सर्वेक्षण किये, बिना स्थानीय अपेक्षाओं को जाने, बिना प्रोजेक्ट की सफलता का मूल्यांकन किये केवल ख़ानापूर्ति के लिए डीपीआर (विस्तृत कार्य योजना) बना देते है। फिर चाहे जे.एन.आर.यू.एम. हो या मनरेगा, पर्यटन विभाग की डीपीआर हो या ग्रामीण विकास की सबमें फ़र्ज़ीवाड़े का प्रतिशत काफी ऊँचा रहता है। यही वजह है कि योजनाएँ खूब बनती है, पैसा भी खूब आता है, पर हालात नहीं सुधरते।



आज की सूचना क्रान्ति के दौर में ऐसी चोरी पकड़ना बायें हाथ का खेल है। उपग्रह सर्वेक्षणों से हर परियोजना के क्रियान्वयन पर पूरी नजर रखी जा सकती है और काफी हदतक चोरी पकड़ी जा सकती है। पर चोरी पकड़ने का काम नौकरशाही का कोई सदस्य करेगा तो अनेक कारणों से सच्चाई छिपा देगा। निगरानी का यही काम देशभर में अगर प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संगठनों या व्यक्तियों से करवाया जाये तो चोरी रोकने में पूरी नहीं तो काफी सफलता मिलेगी। ग्रामीण विकास के मंत्री ही नहीं बल्कि हर मंत्री को तकनीकी क्रान्ति की मदद लेनी चाहिए। योजना बनाने में आपाधापी को रोकने के लिए सरल तरीका है कि जिलाधिकारी अपनी योजनाएँ वेबसाइट पर डाल दें और उनपर जिले की जनता से 15 दिन के भीतर आपत्ति और सुझाव दर्ज करने को कहें। जनता के सही सुझावों पर अमल किया जाये। केवल सार्थक, उपयोगी और ठोस योजनाएँ ही केन्द्र सरकार व राज्य को भेजी जाये। योजनाओं के क्रियान्वयन की साप्ताहिक प्रगति के चित्र भी वेबसाइट पर डाले जायें। जिससे उसकी कमियां जागरूक नागरिक उजागर कर सकें। इससे आम जनता के बीच इन योजनाओं पर हर स्तर पर नजर रखने में मदद मिलेगी और अपना लोकतन्त्र मजबूत होगा। फिर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसे लोगों को सरकारों के विरुद्ध जनता को जगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।


आज हर सरकार की विश्वसनीयता, चाहें वो केन्द्र की हो या प्रान्तों की, जनता की निगाह में काफी गिर चुकी है और अगर यही हाल रहे तो हालत और भी बिगड़ जायेगी। देश और प्रान्त की सरकारों को अपनी पूरी सोच और समझ बदलनी पड़ेगी। देशभर में जिस भी अधिकारी, विशेषज्ञ, प्रोफेशनल या स्वयंसेवी संगठन ने जिस क्षेत्र में भी अनुकरणीय कार्य किया हो, उसकी सूचना जनता के बीच, सरकारी पहल पर, बार-बार, प्रसारित की जाये। इससे देश के बाकी हिस्सों को भी प्रेरणा और ज्ञान मिलेगा। फिर सात्विक शक्तियां बढ़ेंगी और देश का सही विकास होगा। अभी भी सुधार की गुंजाइश है। लक्ष्य पूर्ति के साथ गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाए। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि इन घोषणाओं के चलते किए गए ये दावे गुणवत्ता के पैमाने पर कितने खरे उतरते हैं? चूँकि ऐसी योजनाओं में भ्रष्टाचार तों अपने पाँव पसारता ही है? ऐसे में जनहित का दावा करने वाले नेता क्या वास्तव में जनहित करे पाएँगे?

 

Monday, June 17, 2024

नीट परीक्षा: हंगामा क्यों है बरपा?



जब भी कभी हम किसी प्रतियोगी परीक्षा के पेपर लीक होने की खबर सुनते हैं तो सबके मन में व्यवस्था को लेकर काफ़ी सवाल उठते हैं। इससे  पूरी व्यवस्था में फैले हुए भारी भ्रष्टाचार का प्रमाण मिलता है।

पिछले कुछ वर्षों में ऐसी खबरें कुछ ज़्यादा ही आने लगी हैं। सोचने वाली बात है कि इससे  देश के युवाओं पर क्या असर पड़ेगा? महीनों तक परीक्षा के लिए मेहनत करने वाले विद्यार्थियों के मन में इस बात का डर बना रहेगा कि रसूखदार परिवारों के बच्चे पैसे के बल पर उनकी मेहनत पर पानी फेर देंगे? मद्य प्रदेश में हुए व्यापम घोटाले के बाद अब एक बार फिर मेडिकल कॉलेजों में दाख़िले के लिए ‘नीट परीक्षा’ में हुए घोटाले पर जो बवाल मचा है उससे तो यही लगता है कि चंद भ्रष्ट लोगों ने लाखों विद्यार्थियों के भविष्य को अंधकार में धकेल दिया है। 



साल 2016 में पहली बार मेडिकल एंट्रेंस के लिए ‘नेशनल एंट्रेंस कम एलिजिबिलिटी टेस्ट’ यानी नीट की शुरुआत हुई।  पहले तीन सालों में इसे सीबीएसई द्वारा संचालित किया गया। परंतु वर्ष 2019 से इन इम्तहानों की ज़िम्मेदारी नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) को दी गई। जब से नीट की परीक्षा लागू हुई है ऐसा पहली बार हुआ है कि इस परीक्षा की कटऑफ इतनी हाई गई है। यदि एनटीए की मानें तो नीट कट ऑफ कैंडिडेट्स की ओवरऑल परफॉर्मेंस पर निर्भर करती है। कटऑफ बढ़ने का मतलब है कि परीक्षा कंपटीटिव थी और बच्चों ने बेहतर परफॉर्म किया परंतु क्या ये बात सही है? 


ग़ौरतलब है कि इस बार की नीट परीक्षा में 67 ऐसे युवा हैं जिन्हें 720 अंकों में से 720 अंक मिलते हैं। इसके साथ ही ऐसे कई युवा भी हैं जिन्हें 718 व 719 अंक प्राप्त हुए हैं, जो कि परीक्षा पद्धति के मुताबिक़ असंभव है। 720 के टोटल मार्क्स वाली नीट परीक्षा में हर सवाल 4 अंक का होता है। गलत उत्तर के लिए 1 अंक कटता है। अगर किसी स्टूडेंट ने सभी सवाल सही किए तो उसे 720 में से 720 मिलेंगे। अगर एक सवाल का उत्तर नहीं दिया, तो 716 अंक मिलेंगे। अगर एक सवाल गलत हो गया, तो उसे 715 अंक मिलने चाहिए। लेकिन 718 या 719 किसी भी सूरत में नहीं मिल सकते। ज़ाहिर है तगड़ा घोटाला हुआ है। 



जिन विद्यार्थियों ने इस वर्ष नीट परीक्षा दी उनसे जब यह पूछा गया कि इस बार की परीक्षा कैसी थी? तो उनका जवाब था कि इस बार की परीक्षा काफ़ी कठिन थी, कटऑफ काफ़ी नीचे रहेगी। एनटीए द्वारा एक और स्पष्टीकरण भी दिया गया है जिसके मुताबिक़ इस बार टॉप करने वाले कई बच्चों को ग्रेस मार्क्स भी दिये गये हैं। इसका कारण है कि फिजिक्स के एक प्रश्न के दो सही उत्तर हैं। ऐसा इसलिए है कि फिजिक्स की एक पुरानी किताब जिसे 2018 में हटा दिया गया था, वह अभी भी पढ़ी जा रही थी। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि आजकल के युग में जहां सभी युवा एक दूसरे के साथ सोशल मीडिया के किसी न किसी माध्यम से जुड़े रहते हैं या फिर जहां कोचिंग लेते हैं वहाँ पर सबसे संपर्क में रहते हैं फिर ये कैसे संभव है कि छह साल पुरानी किताब  को सही नहीं कराया गया होगा? 


अगला सवाल यह भी उठता है कि एनटीए द्वारा किस आधार पर ग्रेस मार्क्स दिये गये? जबकि मेडिकल परीक्षाओं में ग्रेस मार्क्स देने का कोई प्रावधान नहीं है। एनटीए ने ग्रेस मार्क्स देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के 2018 के एक आदेश का संज्ञान लिया है, जिसके अनुसार यदि प्रशासनिक लापरवाही के कारण परीक्षार्थी का समय ख़राब हो तो किन विद्यार्थियों को किन परिस्थितियों में कितने ग्रेस मार्क्स दिये जा सकते हैं। परंतु ग़ौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के जिस फ़ैसले का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है वह कॉमन लॉ एडमिशन टेस्ट (सीएलएटी) के लिए था, उसी आदेश में यह साफ़-साफ़ लिख है कि यह आदेश मेडिकल और इंजीनियरिंग की परीक्षाओं पर लागू नहीं होगा। परंतु एनटीए ने न जाने किस आधार पर इस आदेश को संज्ञान में लिया और ग्रेस मार्क्स दे दिये ?



नीट परीक्षा का ये मामला अब सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है और अदालत ने नीट परीक्षा करवाने वाली एजेंसी एनटीए को व केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब माँगा है। देखना होगा कि ये दोनों कोर्ट में क्या जवाब दाखिल करते हैं? परंतु जिस तरह इस मामले ने तूल पकड़ा है, इस पर राजनीति भी होने लग गई है। इतना ही नहीं जिस तरह एनटीए ने परीक्षा से पहले ही इसके पंजीकरण में ढील बरती है वह भी सवालों के घेरे में है। टॉपर्स की लिस्ट में कम से कम 6 विद्यार्थी ऐसे हैं जो एक ही सेंटर के हैं। इस सेंटर को इसलिए भी शक की नज़र से देखा जा रहा है, जहां विद्यार्थी देश के दूसरे कोने से परीक्षा देने आए। इसके साथ ही बिहार, गुजरात व अन्य राज्यों में नीट परीक्षा के पेपर लीक के मामले भी सामने आए हैं जिन पर जाँच चल रही है। 


सोचने वाली बात है कि देश का भविष्य माने जाने वाले विद्यार्थी, जो आगे चल कर डॉक्टर बनेंगे, यदि इस प्रकार भ्रष्ट तंत्र के चलते किसी मेडिकल कॉलेज में दाख़िला पा भी लेते हैं तो क्या भविष्य में अच्छे डॉक्टर बन पायेंगे या पैसे के बल पर वहाँ भी पेपर लीक करवा कर ‘मुन्ना भाई एम बी बी एस ’ की तरह सिर्फ़ डिग्री ही हासिल करना चाहेंगे चाहे उन्हें कोई ज्ञान हो या न हो? 


सवाल सिर्फ़ नीट की परीक्षा का ही नहीं है, पिछले कुछ वर्षों से अनेक प्रांतों में होने वाली सरकारी नौकरियों की प्रतियोगी परीक्षाओं में भी लगातार घोटाले हो रहे हैं। जिनकी खबरें आए दिन मीडिया में प्रकाशित होती रहती हैं। इससे देश के युवाओं में भारी निराशा फैल रही है। नतीजा यह हुआ है कि पिछले 40 बरसों में आज भारत में बेरोज़गारी की दर सबसे अधिक हो गई है। 


एक मध्यम वर्गीय या निम्न वर्गीय परिवार के पास अगर ख़ुद की ज़मीन-जायदाद, खेतीबाड़ी या कोई दुकान न हो तो नौकरी ही एकमात्र आय का सहारा होती है। घर के युवा को मिली नौकरी उसके माँ-बाप का बुढ़ापा, बहन-भाई की पढ़ाई और शादी, सबकी ज़िम्मेदारी सम्भाल लेती है। पर अगर बरसों की मेहनत के बाद घोटालों के कारण देश के करोड़ों युवा इस तरह बार-बार धोखा खाते रहेंगे तो सोचिए कितने परिवारों का जीवन बर्बाद हो जाएगा? ये बहुत गंभीर विषय है जिस पर केंद्र और राज्य सरकारों को फ़ौरन ध्यान देना चाहिए। 

Monday, April 22, 2024

लोकतंत्र अभी और परिपक्व हो


अभी आम चुनाव का प्रथम चरण ही पूरा हुआ है पर ऐसा नहीं लगता कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव जैसी कोई महत्वपूर्ण घटना घट रही है। चारों ओर एक अजीब सन्नाटा है। न तो गाँव, कस्बों और शहरों में राजनैतिक दलों के होर्डिंग और पोस्टर दिखाई दे रहे हैं और न ही लाऊडस्पीकर पर वोट माँगने वालों का शोर सुनाई दे रहा है, चाय के ढाबों और पान की दुकानों पर अक्सर जमा होने वाली भीड़ भी खामोश है। जबकि पहले चुनावों में ये शहर के वो स्थान होते थे जहाँ से मतदाताओं की नब्ज पकड़ना आसान होता था। आज मतदाता खामोश है। इसका क्या कारण हो सकता है। या तो मतदाता तय कर चुके हैं कि उन्हें किसे वोट देना है पर अपने मन की बात को ज़ुबान पर नहीं लाना चाहते। क्योंकि उन्हें इसके सम्भावित दुष्परिणामों का खतरा नजर आता है। ये हमारे लोकतंत्र के स्वस्थ के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। जनसंवाद के कई लाभ होते हैं। एक तो जनता की बात नेता तक पहुँचती है दूसरा ऐसे संवादों से जनता जागरूक होती है। अलबत्ता शासन में जो दल बैठा होता है वो कभी नहीं चाहता कि उसकी नीतियों पर खुली चर्चा हो। इससे माहौल बिगड़ने का खतरा रहता है। हर शासक यही चाहता है कि उसकी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर मतदाता के सामने पेश किया जाए। इंदिरा गाँधी से नरेन्द्र मोदी तक कोई भी इस मानसिकता का अपवाद नहीं रहा है। 



आमतौर पर यह माना जाता था कि मीडिया सचेतक की भूमिका निभाएगा। पर मीडिया को भी खरीदने और नियंत्रित करने पर हर राजनैतिक दल अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च करता है। जिससे उसका प्रचार होता रहे। पत्रकारिता में इस मानसिकता के जो अपवाद होते हैं वे यथा संभव निष्पक्ष रहने का प्रयास करते हैं। ताकि परिस्थितियों और समस्याओं का सही मूल्यांकन हो सके। पर इनकी पहुँच बहुत सीमित होती है, जैसा आज हो रहा है। ऐसे में मतदाता तक सही सूचनाएँ नहीं पहुँच पातीं। अधूरी जानकारी से जो निर्णय लिए जाते हैं वो मतदाता, समाज और देश के हित में नहीं होते। जिससे लोकतंत्र कमजोर होता है।   


सब मानते हैं कि किसी भी देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था ही सबसे अच्छी होती है क्योंकि इसमें समाज के हर वर्ग को अपनी सरकार चुनने का मौका मिलता है। इस शासन प्रणाली के अन्तर्गत आम आदमी को अपनी इच्छा से चुनाव में खड़े हुए किसी भी प्रत्याशी को वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होता है। इस तरह चुने गए प्रतिनिधियों से विधायिका बनती है। एक अच्छा लोकतन्त्र वह है जिसमें  राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी है। देश में यह शासन प्रणाली लोगों को सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान करती हैं।


आज भारत में जो परिस्थिति है उसमें जनता भ्रमित है। उसे अपनी बुनियादी समस्याओं की चिंता है पर उसके एक हिस्से के दिमाग में भाजपा और संघ के कार्यकर्ताओं ने ये बैठा दिया है कि नरेन्द्र मोदी अब तक के सबसे श्रेष्ठ और ईमानदार प्रधान मंत्री हैं इसलिए वे तीसरी बार फिर जीतकर आएंगे। जबकि ज़मीनी हकीकत अभी अस्पष्ट है। क्षेत्रीय दलों के नेता काफी तेज़ी से अपने इलाके के मतदाताओं पर पकड़ बना रहे हैं। और उन सवालों को उठा रहे हैं जिनसे देश का किसान, मजदूर और नौजवान चिंतित है। इसलिए उनके प्रति आम जनता की अपेक्षाएं बढ़ी हैं इसलिए ‘इंडिया’ गठबंधन के नेताओं की रैलियों में भरी भीड़ आ रही है। जबकि भाजपा की रैलियों का रंग फीका है। हालाँकि चुनाव की हवा मतदान के 24 घंटे पहले भी पलट जाती है इसलिए कुछ कहा नहीं जा सकता। 


70 के दशक में हुए जयप्रकाश आन्दोलन के बाद से किसी भी राजनैतिक दल ने आम मतदाताओं को लोकतंत्र के इस महापर्व के लिए प्रशिक्षित नहीं किया है। जबकि अगर ऐसा किया होता तो इन दलों को चुनाव के पहले मतदाताओं को खैरात बाँटने और उनके सामने लम्बे चौड़े झूठे वायदे करने की नौबत नहीं आती। हर दल का अपना एक समर्पित काडर होता। जबकि आज काडर के नाम पर पैसा देकर कार्यकर्ता जुटाए जाते हैं या वे लोग सक्रिय होते हैं जिन्हें सत्ता मिलने के बाद सत्ता की दलाली करने के अवसरों की तलाश होती है। ऐसे किराये के कार्यकर्ताओं और विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव ही दल बदल का मुख्य कारण है। इससे राजनेताओं की और उनके दलों की साख तेज़ी से गिरी है। एक दृष्टि से इसे लोकतंत्र के पतन का प्रमाण माना जा सकता है। हालाँकि दूसरी ओर ये मानने वालों की भी कमी नहीं है कि इन सब आंधियों को झेलने के बावजूद भारत का लोकतंत्र मजबूत हुआ है। उसके करोड़ों आम मतदाताओं ने बार-बार राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया है। जब उसने बिना शोर मचाये अपने मत के जोर पर कई बार सत्ता परिवर्तन किये हैं। मतदाता की राजनैतिक परिपक्वता का एक और प्रमाण ये है की अब निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रभाव लगभग समाप्त हो चला है। 1951 के आम चुनावों में 6% निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे जबकि 2019 के चुनाव में इनकी संख्या घटकर मात्र 0.11% रह गई। स्पष्ट है कि मतदाता ऐसे उम्मीदवारों के हाथ मजबूत नहीं करना चाहता जो अल्पमत की सरकारों से मोटी रकम ऐंठकर समर्थन देते हैं। मतदाताओं की अपेक्षा और विश्वास संगठित दलों और नेताओं के प्रति है यदि वे अपने कर्तव्य का सही पालन करें तो। इसलिए हमें निराश नहीं होना है। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हमारे परिवार और समाज में राजनीति के प्रति समझ बढ़े और हर मतदाता अपने मत का प्रयोग सोच समझकर करे। कोई नेता या दल मतदाता को भेड़-बकरी समझकर हाँकने की जुर्रत न करे। 

Monday, April 15, 2024

इस चुनाव में मुद्दे और माहौल क्या हैं?


इस बार का चुनाव बिलकुल फीका है। एक तरफ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा हिंदू, मुसलमान, कांग्रेस की नाकामियों को ही चुनावी मुद्दा बनाए हुए हैं। वहीं चार दशक में बढ़ी सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी, किसान को फसल के उचित दाम न मिलना, बेइंतहा महंगाई और तमाम उन वायदों को पूरा न करना जो मोदी जी 2014 व 2019 में किए थे - ऐसे मुद्दे हैं जिन पर भाजपा का नेतृत्व चुनावी सभाओं में कोई बात ही नहीं कर रहा। ‘सबका साथ सबका विकास’ नारे के बावजूद समाज में जो खाई पैदा हुई है, वो चिंताजनक है। रोचक बात यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव को मोदी जी ने गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचार मुक्त शासन और विकास के मुद्दे पर लड़ा था। पता नहीं 2019 में और इस बार क्यों वे इनमें से किसी भी मुद्दों पर बात नहीं कर रहे हैं? इसलिए देश के किसान, मजदूर, करोड़ों बेरोजगार युवाओं, छोटे व्यापारियों यहां तक कि उद्योगपतियों को भी मोदी जी के भाषणों में रूचि खत्म हो गई है। उन्हें लगता है कि मोदी जी ने उन्हें वायदे के अनुसार कुछ भी नहीं दिया। बल्कि बहुत से मामलों में तो जो कुछ उनके पास था, वो भी छीन लिया गया। इसलिए यह विशाल मतदाता वर्ग भाजपा सरकार के विरोध में है। हालांकि वह अपना विरोध खुलकर प्रकट नहीं कर रहा। पर यहाँ ये उल्लेख करना भी ज़रूरी है कि प्रतिव्यक्ति हर महीने 5 किलो अनाज मुफ़्त बाँटने का मोदी जी का फार्मूला कारगर रहा है। जिन्हें ये अनाज मिल रहा है वे कहते हैं कि इससे पहले कभी किसी सरकार ने उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिया। इसलिए वे मोदी जी के समर्थन में हैं।
 



पर इस मुद्दे पर बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों की राय भिन्न है। वे कहते हैं कि अगर मोदी जी ने अपने वायदे के अनुसार हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोज़गार दिया होता तो अब तक 20 करोड़ युवाओं को रोज़गार मिल जाता। तब हर युवा अपने परिवार के कम से कम पाँच सदस्यों का भरण पोषण कर लेता। इस तरह भारत के 100 करोड़ लोग सम्मान की ज़िंदगी जी रहे होते। जबकि आज 80 करोड़ लोग 5 किलो राशन के लिए भीख का कटोरा लेकर जी रहे हैं।  


दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो मोदी जी के अन्धभक्त हैं। जो हर हाल में मोदी सरकार फिर से लाना चाहते हैं। वे मोदी जी के 400 पार के नारे से आत्ममुग्ध हैं। मोदी सरकार की सब नाकामियों को वे कांग्रेस शासन के मत्थे मढ़कर पिंड छुड़ा लेते हैं। क्योंकि इन प्रश्नों का कोई उत्तर उनके पास नहीं है। अभी यह बताना असंभव है कि इस कांटे की टक्कर में ऊंट किस करवट बैठेगा। क्या विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी या मोदी जी की? सरकार जिसकी भी बने, चुनौतियां दोनों के सामने बड़ी होंगी। मान लें कि भाजपा की सरकार बनती है, तो क्या हिंदुत्व के ऐजेंडे को इसी आक्रामकता से, बिना सनातन मूल्यों की परवाह किये, बिना सांस्कृतिक परंपराओं का निर्वहन किये सब पर थोपा जाऐगा, जैसा पिछले 10 वर्षों में थोपने का प्रयास किया गया। इसका मोदी जी को सीमित मात्रा में राजनैतिक लाभ भले ही मिल जाऐ, हिंदू धर्म और संस्कृति को स्थाई लाभ नहीं मिलेगा।



भाजपा व संघ दोनों ही हिंदू धर्म के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं, पर सनातन हिंदू धर्म की मूल सिद्धांतों से परहेज करते हैं। सैंकड़ों वर्षों से हिंदू धर्म के स्तंभ रहे शंकराचार्य ये मानते हैं कि जिस तरह का हिंदूत्व मोदी और योगी राज में पिछले कुछ वर्षों में प्रचारित और प्रसारित किया गया, उससे हिंदू धर्म का मजाक ही उड़ा है। केवल नारों और जुमलों में ही हिंदू धर्म का हल्ला मचाया गया। हाँ उज्जैन, काशी, अयोध्या, केदारनाथ आदि धर्मस्थलों पर भगवान के विशाल मंदिरों के निर्माण से हिंदू समाज में अपनी पहचान के लिए जागरूकता बढ़ी है। पर इसके अलावा जमीन पर ठोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिससे ये सनातन परंपरा पल्लवित-पुष्पित होती। इस बात का हम जैसे सनातनधर्मियों को अधिक दुख है। क्योंकि हम साम्यवादी विचारों में विश्वास नहीं रखते। हमें लगता है कि भारत की आत्मा सनातन धर्म में बसती है और वो सनातन धर्म विशाल हृदय वाला है। जिसमें नानक, कबीर, रैदास, महावीर, बुद्ध, तुकाराम, नामदेव सबके लिए गुंजाइश है। वो संघ और भाजपा की तरह संकुचित हृदय नहीं है, इसलिए हजारों साल से पृथ्वी पर जमा हुआ है। जबकि दूसरे धर्म और संस्कृतियां अपनी अहंकारी नीतियों के कारण कुछ सदियों के बाद धरती के पर्दे पर से गायब हो गए।


संघ और भाजपा के राजनैतिक हिंदू ऐजेंडा से उन सब लोगों का दिल टूटता है, जो हिंदू धर्म और संस्कृति के लिए समर्पित हैं, ज्ञानी हैं, साधन-संपन्न हैं पर उदारमना भी है। क्योंकि ऐसे लोग धर्म और संस्कृति की सेवा डंडे के डर से नहीं, बल्कि श्रद्धा और प्रेम से करते हैं। जिस तरह की मानसिक अराजकता पिछले 5 वर्षों में भारत में देखने में आई है, उसने भविष्य के लिए बड़ा संकट खड़ा दिया है। अगर ये ऐसे ही चला, तो भारत में दंगे, खून-खराबे और बढ़ेगे। जिसके परिणामस्वरूप भारत का विघटन भी हो सकता है। इसलिए संघ और भाजपा को इस विषय में अपना नजरिया क्रांतिकारी रूप में बदलना होगा। तभी आगे चलकर भारत अपने धर्म और संस्कृति की ठीक रक्षा कर पायेगा, अन्यथा नहीं। अलबत्ता हिंदू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अगर संघ का संगठन सक्रिय रहता है तो सनातनधर्मियों को अच्छा लगेगा।


जहां तक ‘इंडिया’ गठबंधन की बात है, ये आश्चर्यजनक तथ्य है कि समय और अवसर दोनों प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हुए भी इस गठबंधन का सामूहिक नेतृत्व वो एकजुटता और आक्रामकता नहीं दिखा पा रहा जो उसे बड़ी सफलता की ओर ले जा सकती थी। फिर भी ‘इंडिया’ के समर्थकों का विश्वास है कि इस बार का चुनाव ‘विपक्ष बनाम भाजपा’ नहीं बल्कि आम ‘जनता बनाम भाजपा’ की तर्ज़ पर लड़ा जाएगा, जैसा आपातकाल के बाद 1977 में लड़ा गया था। वैसे अगर राज्यवार आँकलन किया जाए तो गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक राजस्थान को छोड़ कर कोई भी प्रांत ऐसा नहीं है जहां भाजपा विपक्षी दलों के सामने कमज़ोर नहीं है। ऐसे में कुछ भी हो सकता है। 


लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि मतभेदों का सम्मान किया जाए, समाज के हर वर्ग को अपनी बात कहने की आजादी हो, चुनाव जीतने के बाद, जो दल सरकार बनाए, वो विपक्ष के दलों को लगातार कोसकर या चोर बताकर, अपमानित न करें, बल्कि उसके सहयोग से सरकार चलाए। क्योंकि राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं। चुनावी बाँड के तथ्य उजागर होने के बाद यह स्पष्ट है कि मोदी जी की सरकार भी इसकी अपवाद नहीं रही। इसलिए और भी सावधानी बरतनी चाहिए।