Monday, June 18, 2012

राष्ट्रपति चुनाव में बहुतों की फजीहत


ममता बनर्जी चाहे कितने ही जोर से कहे कि खेल अभी खत्म नहीं हुआ पर राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने अपनी पूरी फजीहत करवा ली। उन्होंने क्या सोचकर प्रधानमंत्री का नाम सुझाया ? जिसका उन्हें कोई हक नहीं था। डा. अब्दुल कलाम भी बिना जीत की गारंटी के अपनी फजीहत नहीं करवाना चाहते। सोमनाथ चटर्जी को पता है कि वामपन्थी दल और एन.डी.ए. सहित कोई उनके नाम पर सहमत नहीं है। फिर यह नाम क्यों उछाले गये ? मुलायम सिंह यादव तो यह कहकर किनारा कर गये कि यू.पी.ए. ने राष्ट्रपति के उम्मीदवार का नाम घोषित करने में देर की, इसलिए उन्होंने जो ठीक समझे नाम सुझा दिये। अब प्रणवदा चूंकि सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार हैं इसलिए सपा उनका समर्थन करेगी। पर दीदी क्यों अकड़ी रहीं ? यह जानते हुए भी कि बंगाल के लोगों को अपनी संस्कृति और अपने बंगाली होने का जितना गर्व है उतना शायद किसी दूसरे प्रान्त के निवासियों को नहीं होगा। बंगाली आज भी इस बात को भूले नहीं है कि सुभाष चन्द्र बोस को आजाद भारत में  अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने का मौका नहीं मिला। अब जबकि पहली बार एक बंगाली के राष्ट्रपति बनने का मौका आया है तो दीदी उसमें पलीता लगा रही हैं। इसका ममता बनर्जी को खासा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
वैसे राष्ट्रपति की उम्मीदवारी को लेकर जिस तरह दलित, महिला, या मुसलमान के चयन किये जाने की बातें अनेक दलों ने उठाई उससे इस गरिमामय पद की प्रतिष्ठा को आघात लगा है। राष्ट्रपति किसी दल, समुदाय, श्रेत्र या जाति का ना होकर पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधि होता है। देश मंे प्रधानमंत्री को सत्ता का प्रतीक माना जाता है। पर अन्तर्राष्ट्रीय जगत में  राष्ट्रपति को ही देश का सदर मानकर सम्मानित किया जाता है। अगर कोई यह कहे कि यह तो उनका राष्ट्रपति है, हमारा नहीं, तो फिर लोकतन्त्र का मायना क्या बचा ? विधानसभा या लोकसभा चुनाव में जीतने वाला प्रत्याशी 25-26 फीसदी मतों पर जीत जाता है। तो क्या उस विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र के लोग उसे उनका विधायक या सांसद कहते है या पूरे क्षेत्र का ? जाहिर है कि जीतने के बाद वह पूरे क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है और सबकी सुध लेता है। इसी तरह राष्ट्रपति भी चुन जाने के बाद पूरे देश का हो जाता है।
वैसे भी प्रणव मुखर्जी का व्यक्तित्व ऐसा नहीं है कि उनके बारे में किसी संशय हो। उनके विरोधियों को ही नहीं अपनों को भी पता हैं कि प्रणवदा कैसे आदमी हैं। दिल्ली के राजनैतिक गलियारों में यू.पी.ए 1 के समय से ही यह चर्चा रही कि प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार होने के बावजूद उन्हें यह जिम्मेदारी इसलिए नहीं मिल पाई क्योंकि वे अपनी स्वतन्त्र सोच रखते हैं। ऐसे में उनके दल के नेताओं को यह संशय रहा कि किसी नाजुक मोड़ पर प्रणवदा अलग भी निर्णय ले सकते हैं। यह बात विपक्षीदल भी जानते हैं। इसलिए उन्हें प्रणवदा का समर्थन करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। व्यक्तिगत स्तर पर भी प्रणवदा के सभी दलों के लोगों से मधुर सम्बन्ध हैं।
इस चुनावी दंगल में एन.डी.ए. की फजीहत भी कम नहीं हुई। अपने उम्मीदवार की घोषणा एन.डी.ए. ने इसलिए नहीं की कि पहले यू.पी.ए. का नाम सामने आ जाये। उसकी फजीहत हो जाये तब हम अपनी शतरंज बिछायेंगे। पर पासा उल्टा पड़ गया, जिन अब्दुल कलाम को दुबारा राष्ट्रपति बनाने की बात एन.डी.ए. में चल रही थी, वे खुद ही आम सहमति के बिना चुनाव लड़ना नहीं चाहते। उधर प्रणव मुखर्जी के नाम पर देश में जैसी प्रतिक्रिया अब तक मिली है उससे साफ जाहिर है कि एन.डी.ए. के लिए अपना उम्मीदवार जिताना सम्भव न होगा। कमजोरी की हालत में यू.पी.ए. एन.डी.ए. से डील कर सकती थी कि राष्ट्रपति हमारा और उपराष्ट्रपति तुम्हारा। पर अब शायद इसकी जरूरत न पड़े। उधर भाजपा में दो खेमे हैं। प्रणवदा को जानने वाले कह रहे हैं कि एन.डी.ए. को उनका समर्थन करना चाहिए। पर दूसरा खेमा ऐसे मौके पर खुद को कांग्रेस के खिलाफ खड़ा दीखना चाहता है। अभी अंतिम निर्णय होना बाकी है।
इस चुनाव में पी.ए. संगमा और राम जेठमलानी जबरदस्ती कूदकर सस्ती प्रसिद्वि पाना चाहते हैं। संगमा को तो उनके ही दल राकापा का समर्थन नहीं है और जेठमलानी को कोई भी दल गम्भीरता से नहीं लेता। क्योंकि वो कब क्या कर बैठें किसी को पता नहीं। दरअसल राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर जैसी गम्भीरता और परिपक्वता राजनैतिक दलों को दिखानी चाहिए थी, वैसी उन्होंने नहीं दिखाई। अपने स्थानीय मतदाता को प्रभावित करने का मौका समझकर सब ने इस चुनाव को एक मखौल बना दिया। जो लोकतन्त्र के लिए स्वस्थ परम्परा नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रपति का चुनाव निर्विघ्न सम्पन्न हो और सभी दल चिन्तन करें कि भविष्य में राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति पद पर चयन आम सहमति से हो, इससे लोकतन्त्र की गरिमा बढ़ेगी। अल्पमत की साझी सरकारों के दौर में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की गरिमा बचाने का भी यही एक तरीका होगा।

Monday, June 11, 2012

विकास का पैसा कहाँ जाता है ?

केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ’वाटरशेड’ कार्यक्रम की प्रान्त सरकारों की रिपोर्ट से सहमत नहीं हैं। बन्जर भूमि, मरूभूमि व सूखे क्षेत्र को हराभरा बनाने के लिए केंन्द्र सरकार हजारों करोड़ रूपया प्रान्तीय सरकारों को देती आई है। जिले के अधिकारी और नेता मिली भगत से सारा पैसा डकार जाते हैं। झूठे आंकड़े प्रान्त सरकार के माध्यम से केन्द्र सरकार को भेज दिये जाते हैं पर आई.आई.टी. के पढे़ श्री रमेश को कागजी आंकड़ों से गुमराह नहीं किया जा सकता। उन्होंने उपग्रह कैमरे से हर राज्य की जमीन का चित्र देखा और पाया कि जहां-जहां सूखी जमीन को हरी करने के दावे किये गये थे, वो सब झूठे निकले। इसलिए प्रान्तीय ग्रामीण विकास मंत्रियों के सम्मेलन में उन्होंने अपनी खुली नाराजगी जाहिर की।
दरअसल यह कोई नई बात नहीं है। विकास योजनाओं के नाम पर हजारों करोड़ रूपया इसी तरह वर्षों से प्रान्तीय सरकारों द्वारा पानी की तरह बहाया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का यह जुमला अब पुराना पड़ गया कि केन्द्र के भेजे एक रूपये मे से केवल 14 पैसे जनता तक पहुंचते हैं। सूचना का अधिकार कानून भी जनता को यह नहीं बता पायेगा कि उसके इर्द-गिर्द की एक गज जमीन पर, पिछले 60 वर्षों में कितने करोड़ रूपये का विकास किया जा चुका है। सड़क निर्माण हो या सीवर, वृक्षारोपण हो या कुण्डों की खुदाई, नलकूपों की योजना हो या बाढ़ नियन्त्रण, स्वास्थ सेवाऐं हों या शिक्षा का अभियान की अरबो-खरबों रूपया कागजों पर खर्च हो चुका है। पर देश के हालात कछुए की गति से भी नहीं सुधर रहे। जनता दो वख्त की रोटी के लिए जूझ रही है और नौकरशाही, नेता व माफिया हजारो गुना तरक्की कर चुके है। जो भी इस क्लब का सदस्य बनता है, कुछ अपवादों को छोड़कर, दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की करता है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, लोकपाल व अदालतें उसका बाल भी बाकां नहीं कर पाते।
जिले में योजना बनाने वाले सरकारी कर्मी योजना इस दृष्टि से बनाते हैं कि काम कम करना पड़े और कमीशन तगड़ा मिल जाये। इन्हें हर दल के स्थानीय विधायकों और सांसदों का संरक्षण मिलता है। इसलिए यह नेता आए दिन बड़ी-बड़ी योजनाओं की अखबारों में घोषणा करते रहते है। अगर इनकी घोषित योजनाओं की लागत और मौके पर हुए काम की जांच करवा ली जाये तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। यह काम मीडिया को करना चाहिए था। पहले करता भी था। पर अब नेता पर कॉलम सेन्टीमीटर की दर पर छिपा भुगतान करके बड़े-बड़े दावों वाले अपने बयान स्थानीय अखबारों में प्रमुखता से छपवाते रहते है। जो लोग उसी इलाके में ठोस काम करते है, उनकी खबर खबर नहीं होती पर फर्जीवाडे़ के बयान लगातार धमाकेदार छपते है।
उधर जिले से लेकर प्रान्त तक और प्रान्त से लेकर केन्द्र तक प्रोफेशनल कन्सलटेन्ट का एक बड़ा तन्त्र खड़ा हो गया है। यह कन्सलटेन्ट सरकार से अपनी औकात से दस गुनी फीस वसूलते है और उसमें से 90 फीसदी तक काम देने वाले अफसरों और नेताओं को पीछे से कमीशन मे लौटा देते है। बिना क्षेत्र का सर्वेक्षण किये, बिना स्थानीय अपेक्षाओं को जाने, बिना प्रोजेक्ट की सफलता का मूल्यांकन किये केवल खानापूरी के लिए डीपीआर (विस्तृत कार्य योजना) बना देते है। फिर चाहे जे.एन.आर.यू.एम. हो या मनरेगा, पर्यटन विभाग की डीपीआर हो या ग्रामीण विकास की सबमें फर्जीवाडे़ का प्रतिशत काफी ऊॅचा रहता है। यही वजह है कि योजनाऐ खूब बनती है, पैसा भी खूब आता है, पर हालात नहीं सुधरते।
आज की सूचना क्रान्ति के दौर में ऐसी चोरी पकड़ना बायें हाथ का खेल है। उपग्रह सर्वेक्षणों से हर परियोजना के क्रियान्वयन पर पूरी नजर रखी जा सकती है और काफी हदतक चोरी पकड़ी जा सकती है। पर चोरी पकड़ने का काम  नौकरशाही का कोई सदस्य करेगा तो अनेक कारणों से सच्चाई छिपा देगा। निगरानी का यही काम देशभर में अगर प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संगठनों या व्यक्तियों से करवाया जाये तो चोरी रोकने में पूरी नहीं तो काफी सफलता मिलेगी। जयराम रमेश ही नहीं हर मंत्री को तकनीकि क्रान्ति की मदद लेनी चाहिए। योजना बनाने में आपाधापी को रोकने के लिए सरल तरीका है कि जिलाधिकारी अपनी योजनाएँ वेबसाइट पर डाल दें और उनपर जिले की जनता से 15 दिन के भीतर आपत्ती और सुझाव दर्ज करने को कहें। जनता के सही सुझावों पर अमल किया जाये। केवल सार्थक, उपयोगी और ठोस योजनाऐं ही केन्द्र सरकार व राज्य को भेजी जाये। योजनाओं के क्रियान्वयन की साप्ताहिक प्रगति के चित्र भी वेबसाइट पर डाले जायें। जिससे उसकी कमियां जागरूक नागरिक उजागर कर सकें। इससे आम जनता के बीच इन योजनाओं पर हर स्तर पर नजर रखने में मदद मिलेगी और अपना लोकतन्त्र मजबूत होगा। फिर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसे लोगों को सरकारों के विरूद्व जनता को जगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
आज हर सरकार की विश्वसनीयता, चाहें वो केन्द्र की हो या प्रान्तों की, जनता की निगाह में काफी गिर चुकी है और अगर यही हाल रहे तो हालत और भी बिगड़ जायेगी। देश और प्रान्त की सरकारों को अपनी पूरी सोच और समझ बदलनी पड़ेगी। देशभर में जिस भी अधिकारी, विशेषज्ञ, प्रोफेशनल या स्वयंसेवी संगठन ने जिस क्षेत्र में भी अनुकरणीय कार्य किया हो, उसकी सूचना जनता के बीच, सरकारी पहल पर, बार-बार, प्रसारित की जाये। इससे देश के बाकी हिस्सों को भी प्रेरणा और ज्ञान मिलेगा। फिर सात्विक शक्तियां बढेंगी और लुटेरे अपने बिलों में जा छुपेंगे। अगर राजनेताओं को जनता के बढ़ते आक्रोश को समय रहते शीतल करना है तो ऐसी पहल यथाशीघ्र करनी चाहिए। नहीं तो देश में अराजकता फैलने के आसार पैदा हो जायेंगे।

Monday, June 4, 2012

बाबा राम देव ने क्या खोया क्या पाया ?

जन्तर मन्तर पर बाबा रामदेव के नेतृत्व मे टीम अन्ना ने एक बार फिर दिन भर का धरना किया। इस धरने से बाबा ने क्या खोया क्या पाया इस पर अलग अलग विचार है। धरने की जरूरत इसलिए पड़ी कि पिछले छः महीने से भ्रष्टाचार के विरूद्व बाबा रामदेव व अन्ना हजारे की मुहीम ठण्डी पड़ रही थी। जनता इन आन्दोलनों के नेतृत्व लेकर, अनेक कारणों से, पहले की तरह उत्साहित नहीं थी। इधर मीडिया भी इन आन्दोलनों में अपनी रूचि खो चुका था। इसलिए आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं में हताशा व्याप्त थी। उनको अपने नेतृत्व पर दबाव था कि कुछ ऐसा किया जाये जो आन्दोलन ठण्डा न पड़े। इसलिए बाबा ने इस धरने का फैसला किया और इसके लिए दो महीने तक देशभर में जी जान लगाकर लोगों को उत्साहित करने की कोशिश की। इस बीच अन्ना हजारे को अपनी ही टीम के बीच हो रहे रोज के झगड़ों ने परेशान कर दिया। अन्ना को लगा कि अगर टीम अन्ना के चक्कर में ही फंसे रहे तो रही सही साख भी जाती रहेगी। इसलिए उन्होनें बाबा की शरण ली। जो टीम अन्ना को नागवार गुजरा। उनके बयान इस फैसले के खिलाफ आये। इससे असमंजस की स्थिति पैदा हुई। अन्ततः टीम अन्ना को लगा कि बाबा के धरने में न जाकर उनका घाटा ही है इसलिए सब वहाँ जाकर खड़े हो गये।
बाबा रामदेव के मंच से जो कुछ कहा गया उसमें पुरानी बातो को ही दोहराया गया। काले धन को लाने और भ्रष्टाचार को रोकने के बारे में जो भी बयान दिये गये उनमें ऐसी रोशनी दिखाई नहीं दी जिससे इन समस्याओं का हल निकाला जा सके। आगे का जो आव्हान किया गया है उसमें राजनैतिक दलों के अध्यक्षों और सासंदो का समर्थन जुटाने की बात की गई है। साथ ही आन्दोलन और धरनों के दौर को बनाये रखने का भी संकल्प लिया गया है। जोकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जायज तरीका है। पर क्या इस प्रक्रिया से हल निकल पायेगा?
इस पूरे आन्दोलन की आधार रेखा यह है कि सरकार ही भ्रष्टाचार के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। सरकार काला धन बाहर नहीं निकालना चाहती। सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कानून नहीं बनाना चाहती। पर यह बात पूरी तरह से सही नही है। निश्चित रूप से सरकार की ज्यादा जिम्मेदारी होती है। पर क्या यह सही नही है कि किसी भी दल की सरकार क्यों न हो उसका रवैया एक सा ही रहता है। अगर आन्दोलनकारी सरकार का मतलब केवल केन्द्र सरकार मानते है और दावा करते है कि उन्हें अनेक विपक्षी दलों का समर्थन हासिल है तो सोचने वाली बात है कि इन विपक्षी दलों की इन प्रान्तों में सरकारे हैं, क्या वे प्रान्त भ्रष्टाचार से मुक्त है ? दरअसल भ्रष्टाचार का कारण हमारी चुनाव व्यवस्था, न्याय प्रणाली, औद्यौगिक हित, हमारा मूल चरित्र व इस देश का प्रशासनिक ढांचा है। जिसमें बुनियादी बदलाव की जरूरत है। कोई एक दल की सरकार अकेले इस काम को नहीं कर सकती। इस बात को आन्दोलनकारी या तो समझते नहीं या जान बूझकर अनदेखा कर रहे है। अगर समझते नही तो वे इस आन्दोलन को कोई सकारात्मक दिशा नही दे पायेंगें और अगर समझते है फिर भी सार्वजनिक रूप से स्वीकारते नही, तो उनकी मंशा पर शक किया जायेगा।
निसंदेह बाबा रामदेव ने पिछले दो सालों में इन मुद्दों पर देशभर में जिज्ञासा जगाई है। यह उनकी सबसे बड़ी उपलब्धी है। अब उनका उदेश्य व्यवस्था परिवर्तन के लिए जमीन तैयार करना होना चाहिए। जो भी राजनैतिक दल बाबा को समर्थन का आश्वासन दे रहे है उनसे दो बातें कही जायें। पहली अपने दल द्वारा शासित राज्य को भ्रष्टाचार को मुक्त करके दिखायें। दूसरा संसद के मानसून सत्र में इन मुददों पर लगातार खुली बहस चलायें। केवल रस्म आदायगी न करें। उधर बाबा को जनजागरण का अपना अभियान जारी रखना चाहिए। पर उसका तेवर लोगो को समाधान देना होना चाहिए। समाधान ऐसा हो कि लोग उससे इतने सहमत हों कि उसके समर्थन में पूरी ताकत से उठ खड़े हों । इससे व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को बल मिलेगा। यह एक धीमी पर सतत प्रक्रिया होगी। जिसके परिणाम जल्दी तो नही आयेंगे पर दूरगामी होंगे।
पिछले कुछ महीनों से देशभर के अनेक सामाजिक कार्यकर्ता बाबा रामदेव से जुड़े हैं। ये वो लोग हैं जो पिछले तीन दशकों से देश के अलग अलग हिस्सो में, अगल अलग विचारधारा से सामाजिक सरोकार के मुददों पर संघर्षशील रहे है। इन लोगों ने गांवों से जिलों तक व्यवस्था के प्रभाव को देखा है और व्यवस्था से भिड़े है। इसलिए उनकी जमीनी समझ अच्छी है। पर राष्ट्रीय स्तर की समझ सैद्वान्तिक तो है पर व्यवहारिक अनुभव की कमी है। इसलिए यह लोग कभी एकजुट होकर देश में कोई बड़ा आन्दोलन नहीं खडा़ कर पाये। अब बाबा के संसाधनों की छत्र छाया में इन्हें मौका मिला है। पर अभी तक इनकी बाबा के साथ पूरी जुगलबन्दी नहीं हुई है। इनका मानना है कि बाबा आत्मकेन्द्रित हैं। जबकि बाबा चाहते हैं कि यह सब उनके नेतृत्व में एक जुट हो जायें। इसलिए अन्दरूनी रस्साकशी जारी है। देखना होगा कि आने वाले समय में अन्ना, सामाजिक संगठन, बाबा रामदेव के अनुयायी कहां तक एकमत हो पाते हंै। देखना यह भी होगा कि बाबा और उनका कोरगु्रप काले धन और भ्रष्टाचार के मामले पर अपनी रणनीति को व्यवहारिक और दलनिपेक्ष बना पाते हैं या नहीं ? इस पर ही इस आन्दोलन का भविष्य निर्भर करेगा।