Sunday, December 30, 2007

बेनजीर की हत्यk से सबक


Rajasthan Patrika 30-12-2007
पूरब की बेटी बेनजीर भुट्टो की असामयिक मौत से समूचा विश्व स्तब्ध है. इस हादसे से जहा¡ पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली पर एक बडा प्रश्नचिह्न लग गयk है वहीं भारत के समक्ष आतंकवाद के और अधिक भडक उठने का खतरा मॅंडराने लगा है. मिय नवाज शरीफ तो पहले ही पाकिस्तानी राजनीति में हाशिए पर लाए जा चुके हैं. उन्हीं की सरकार का तख्ता पलटकर पाकिस्तान के सैद ए आजम बने मिय मुशर्रफ को उन्हें दोबारा सत्ता में काबिज कराना आसानी से गले नहीं उतरेगा.

ऐसे बेकाबू होते हालातों में अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश का बयkन कि पाकिस्तान में चुनाव समय पर होने चाहिए और लोकतंत्र की बहाली को लेकर चल रहे प्रयkस और आतंक के खिलाफ लडाई जारी रहेगी पसोपेश में डालने वाला है. लोकतंत्र की वकालत करने वाले बुश शायद यह भूल रहे हैं कि पाकिस्तान में आखिर लोकतंत्र चाहता कौन है बेनजीर की हत्यk हो चुकी है नवाज शरीफ वैसे ही हाशिए पर लाए जा चुके हैं. अकेले इमरान खान ही एक विकल्प के रूप में उभरते हुए दिखाई देते हैं परन्तु उनकी पहचान भी एक सैलीब्रिटी के रूप में ही ज्यkदा है जमीन से जुडे हुए नेता के रूप में नहीं. लोकतंत्र की बहाली के लिए चुनाव जरूरी हैं और चुनावों के लिए एक माहौल की आवश्यकता होती है नेता की जरूरत होती है कानूनी व्यवस्था दरकार होती है. आज पाकिस्तान में इनमें से कोई भी मौजूद नहीं लगता.

लोकतंत्र बहाली के नाम अमरीका ने आज तक जहा¡ जहा¡ दादागिरि दिखाई है वह उसे मु¡ह की खानी पडी है. चाहे वह वियतनाम हो यk फिर कोसोवा यk फिर हाल ही के अफगानिस्तानी व इराकी प्रकरण. अपने निहित राष्ट्रीय स्वार्थों के चलते दूसरे मुल्कों की सार्वभौमिकता से छेडछाड करना अब अमरीका को भारी पडने लगा है. क्यsकि अब इन मुल्कों की जनता का आक्रोश आतंकवाद के रूप में उसके सामने आ रहा है.

आतंक के खिलाफ लडाई की दुहाई देने वाले बुश यह भी भूल जाते हैं कि उनके देश की अर्थव्यवस्था व राजनीति को काबू में करने वाली ला¡बी का अस्तित्व ही दहशत व हिंसा पर टिका हुआ है. यदि दुनियk में अमन बहाल हो जाएगा तो फिर उनके हथियkरों को कौन खरीदेगा. अतः आतंकवाद को जड से मिटाने की कवायद आ¡खों में धूल झksकने से ज्यkदा कुछ नहीं लगती. 

उधर डाइरेक्ट एक्शन की ताकत पर बने पाकिस्तान में पिछले 60 वर्षों से आवाम को सैनिक तानाशाहों की संगीनों व इस्लामी कट्टरपंथियks के खौफ के सायs में ही जीना पडा है. पाकिस्तान के राजनैतिक व सामाजिक हलकों में इस्लामी कट्टरपंथियks ने इस हद तक पैठ कर रखी है कि बिना सैन्य तानाशाही के 16 करोड का यह मुल्क चल ही नहीं सकता. दरअसल इस्लाम को आधार बना पाकिस्तान की परिकल्पना ही दोषपूर्ण रही है. दुनियk के सबसे बडे पलायन के बाद वजूद में आए मुल्क की जडें मजबूत हो ही कैसे सकती हैं. 24 साल के अन्दर ही मुल्क के दो फाड हो गए. अमरीका की बैसाखियks के सहारे आखिर कब तक यह मुल्क यk ही घिसटता रहेगा. पाकिस्तान के भ्रष्ट सैन्य अधिकारी जिन्होंने खरबों की अकूत दौलत जमा कर रखी है न तो पाकिस्तान की आर्थिक तरक्की चाहते हैं और न ही वे कभी पाकिस्तान में लोकतंत्र को कायम होने देंगे.

साथ ही सोचने वाली बात य्ाह भी है कि इस्लामी समाज में ही हमेशा से सत्ता को लेकर ऐसी मारकाट होती रही है. बेटों ने बाप के कत्ल करके राजसत्ताए¡ हासिल कीं तो भाइयks ने भाइयkss के गले काटे. कहीं ऐसा तो नहीं कि मजहब की आड में एक सियkसी विचारधारा पिछले 1400 वर्षों से दुनियk में अपना प्रभाव जमाती आई है. यsह सवाल इस्लाम के उन धर्मगुरूओं बुद्धिजीवियks और राजनेताओं के लिए महत्वपूर्ण होना चाहिए जो इस्लाम का मानवीय चेहरा दुनियk के सामने पेश करने की ईमानदार कोशिश करते हैं. सोचने वाली बात यह है कि जिन इस्लामी मुल्कों ने इस्लाम के कट्टरपन की चाहरदिवारी को ला¡घ कर खुले विचारों को अपनायk है वहा¡ अमन चैन और तरक्की तेजी से कायम हुई है. चाहे पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित तुर्की और इराक जैसे देश हों यk वैदिक संस्कृति से प्रभावित इण्डोनेशियk और मलेशियk जैसे देश.

जो भी हो यह पाकिस्तान के लिए ही नहीं पूरे दक्षिण एशियk के लिए एक संकट की घडी है. पाकिस्तान में हर उॅंगली परवेज मुशर्रफ की तरफ उठ रही है और उसके बाहर की दुनियk बडी उत्सुकता से वह की आन्तरिक उथल पुथल पर निगाहें लगाए बैठी है.

Sunday, December 23, 2007

वोटों के चक्कर में योजना आयोग

Rajasthan Patrika 23-12-2007
11वी पंचवर्षीय योजना के मसौदे पर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री काफी भड़के हुए थे पर राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के अलावा कोई नहीं बोला। योजना आयोग ने अल्पसंख्यकों के लिए 15 सूत्री कार्यक्रम का प्रस्ताव किया है। जाहिर है कि इससे राजनीति का धु्रवीकरण बढ़ेगा। हालांकि प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में सफाई देने की कोशिश की है। पर सवाल ये है कि ऐसा प्रावधान करने की जरूरत क्या थी।

अगला साल लोक सभा के आगामी चुनावों के लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए इंका अपना वोट बंैक सुदृढ़ करना चाहती है। इसीलिए उसने योजना आयोग से यह शगूफा छुड़वाया है। सरकार अल्पसंख्यकों को सपने दिखा रही है। ठीक वैसे ही जैसे अजादी के बाद से हर दल की सरकार गरीबों को दिखाती रही है। उन सपनों से नेता, अफसर और ठेकेदार तो मालामाल हो गए पर गरीब जनता बद से बदहाल हो गई। पहले अपने गांव में रूखी सूखी खाकर शुद्ध जल और हवा तो ले लेती थी। इस विकास ने उससे यह भी छीन लिया और ऐसे करोड़ों लोगों को महानगरों के फुटपाथ पर लाकर पटक दिया।

अल्पसंख्यकों को जो सपने दिखाये जा रहे हैं वो भी ऐसे ही होंगे ये बात अल्पसंख्यक भी जानते हैं। दरअसल अल्पसंख्यकों को बढा़वा देने या आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने की यह मानसिकता किसी का भला नहीं कर रही है। इससे केवल समाज में विघटन और द्वेष बढ़ रहा है। जहां तक विकास का प्रश्न है यह देखने में आया है कि सही अवसर और बुनियादी सुविधायें मिलने पर हर व्यक्ति अपनी तरक्की की सोचता है। आज देश में स्वरोजगार में लगे और तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहे करोड़ों नौजवान अपने बल पर खड़े हुए है। उन्होंने किसी आरक्षण या सरकारी सहायता की बाट नहीं जोही। किसी ने मैकेनिक का काम सीखा तो किसी ने ढाबा खोला। हर शहर और कस्बे में हजारों खोके नुमा दुकानें इन नौजवानों की देखी जा सकती हैं। पिछले दशक में जबसे भारत के हस्त कला उद्योग की विदेशों में मांग बढ़ी है तब से करोड़ों अल्पसंख्यक कारीगर से निर्यातक बन गए हैं। उनके कोठी बंगले और कारखाने खड़े हो गये है। उनके बच्चे देश के प्रतिष्ठित अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। पंजाब की तरक्की किसी आरक्षण की मोहताज नहीं रही। अगर सरकार चाहती है कि देश का आर्थिक विकास तेजी से हो तो उसे बुनियादी ढंाचे को सुधारने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए।

यही वजह है कि खुद को गुजरात का विकास पुरूष स्थापित करने वाले नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय विकास परिषद् की बैठक में योजना आयोग के इस प्रस्ताव की धज्जियां उड़ा दीं। उन्होंने जो मुद्दे उठाये उन पर देश में बहस की जरूरत है। सबके विकास की बात करना और फिर राजनैतिक हित साधने के लिए समाज को धर्म केे आधार पर बांटना धर्म निरपेक्षता नहीं होता। समाज को इसी तरह बांटने का एक षडयंत्र अंग्रेजी हुकूमत के समय मोरले मिंटो सुधारों के तहत किया गया था। जब हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग अलग चुनाव क्षेत्र घोषित किए गए। भारत के बटवारे की नींव इन्हीं सुधारों के बाद पड़ी। इस नासूर का दर्द हम आज तक भुगत रहे हैं।

आश्चर्य की बात यह है कि एक तरफ तो सरकार तो वैश्वीकरण और उदारीकरण की वकालत करके भारत को दुनिया की अर्थव्यवस्था से जोड़ने की जुगत में लगी है और दूसरी ओर वह ऐसे दकियानूसी शगूफे छोड़कर अपने मानसिक दिवालियापन का परिचय देती है। कुछ समय पहले ही सरकार ने भारतीय सेना में कार्यरत लोगों की धर्म के आधार पर गणना करने का प्रयास किया था। जिसे सेना प्रमुख व सेना के अन्य आला अफसरों के विरोध के कारण रोक देना पड़ा।

इंका व साम्यवादी दलों की ऐसी ही छद्म धर्म निरपेक्षता के कारण भाजपा को घर बैठे चुनावी मुद्दे मिल जाते हैं। तब ये दल भाजपा पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाते हैं। जबकि जरूरत विकास को केन्द्र में रखकर बहुजन हिताय नीतियों के निर्धारण की है। फिर चाहें कोई सत्ता में हो।

Sunday, December 16, 2007

आडवाणी जी को प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा का मतलब

Rajasthan Patrika 16-12-2007
भाजपा के संसदीय बोर्ड ने श्री लालकृष्ण आडवाणी को अपने दल का भावी प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाना तय किया है। इस अप्रत्याशित घोषणा को राजनैतिक हलकों में अलग-अलग तरह से देखा जा रहा है। भाजपा के ही कई बड़े नेता जो खुद को भावी प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं इस घोषणा से हतप्रभ हैं। उन्हें लगता है कि चीन के बूढ़े कम्यूनिस्ट नेताओं की तरह वाजपेयी एंड आडवाणी कंपनी प्राइवेट लिमिटेडभाजपा पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करना चाहती। इनके रहते पार्टी का मेधावी युवा नेतृत्व कभी आगे नहीं बढ़ पाएगा। उधर प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने इस घोषणा को गुजरात चुनाव में बढ़ रही भाजपा की हताशा का परिणाम बताया है।

इस बात पर सभी को आश्चर्य है कि यह घोषणा गुजरात के चुनावों के बीच अचानक क्यों की गई। क्या इसलिए कि इसका गुजरात के मतदाताओं पर असर पड़ेगा। क्योंकि श्री आडवाणी गांधीनगर से सांसद हैं और नरेन्द्र मोदी के हिमायती हैं। अगर इस घोषणा का मकसद गुजरात में इसका असर डालना है तो यह बात उल्लेखनीय है कि श्री आडवाणी गुजरात की चुनाव सभाओं में भीड़ नहीं खींच पाए। फिर यह घोषणा चुनाव को कैसे प्रभावित करेगी ?

दरअसल भाजपा में नेतृत्व के सवाल पर बहुत दिनों से अंदर ही अंदर कशमकश चल रही थी। कुछ दिनों पहले ही पार्टी अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह ने यह कहकर बबाल खड़ा कर दिया था कि लोकतांत्रिक प्रणाली में चुनाव में बहुमत मिलने के बाद विपक्षी दल का नेता ही प्रधानमंत्री बनता है। इस पर श्री आडवाणी जी काफी उत्तेजित हुए और मजबूरन श्री राजनाथ सिंह को अपना बयान वापिस लेना पड़ा। दरअसल राम जन्म भूमि आन्दोलन व राम रथ यात्रा के बाद आडवाणी जी को देश का भावी प्रधानमंत्री बनाकर ही पेश किया गया था। पर राजग के गठन के समय उनकी साम्प्रदायिक छवि व हवाला कांड में उनके आरोपित होने के कारण उस समय उन्हें यह मौका नहीं मिला। पर पिछले कुछ वर्षो में जिस तरह का ध्रुवीकरण भारत की राजनीति में हुआ है उसके फलस्वरूप अब राजग के घटक दलों को इस घोषणा से आपत्ति नहीं होगी। इसीलिए उन्होंने इसका विरोध भी नहीं किया। पर यह नहीं माना जा सकता कि अगले लोक सभा  चुनावों के बाद भी उनका यही रवैया रहेगा। हर घटक दल अपने नेता को प्रधानमंत्री बनाने की कोशिश करेगा।

यह भी उल्लेखनीय है कि इस घोषणा का कोई जनतांत्रिक आधार नहीं है। कांग्रेस पर वंशवादी व अधिनायकवादी दल होने का आरोप लगाने वाली भाजपा के संसदीय बोर्ड का यह निर्णय भी दल की लोकतांत्रिक व्यवस्था को दरकिनार करके लिया गया है। दल की ऐसी ही नीतियों के कारण आज गुजरात में भाजपा के 80 पूर्व विधायक केन्द्रीय नेतृत्व के फैसले से नाराज होकर श्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ खड़े हैं। ऐसा लगता है कि इस निर्णय का उद्ेश्य श्री आडवाणी की वर्षों की दबी इच्छा को पूरा करना है। क्योंकि गुजरात चुनाव के बाद जो भी परिणाम आएगा उससे श्री आडवाणी जी की इस इच्छा को ग्रहण लग सकता है। अगर श्री नरेन्द्र मोदी जीतते हैं तो संघ और भाजपा का कार्यकर्ता  श्री मोदी को ही देश का भावी प्रधानमंत्री देखना चाहेगा। अगर वे हारते हैं तो इसे श्री आडवाणी व मोदी की साझी हार माना जाएगा। तब पार्टी में नेतृत्व व उसकी नीतियों को लेकर एक नई लड़ाई छिड़ेगी। इसलिए गुजरात के चुनाव के नतीजों से पहले ही हड़बडा़हट में यह घोषणा कर दी गई है। जबकि अभी न तो लोक सभा चुनावों की घोषणा हुई है और ना ही गत 6 महीनों में देश का राजनैतिक परिदृश्य बदला है। इसलिए इस घोषणा का कोई औचित्य नजर आता।

महत्वपूर्ण बात यह है कि इस समय भाजपा में भारी विघटन, अन्तर कलह व दिशाहीनता की स्थिति बनी हुई है। दल के पास अपना कोई स्पष्ट ऐजेण्डा भी नहीं है। राम मंदिर से लेकर आंतकवाद तक और परमाणुसंधि से लेकर आर्थिक नीतियों तक हर मुद्दे पर भाजपा और खास कर श्री आडवाणी अपने बयान और अपनी नीतियां बार-बार बदलते रहे हैं जिससे दल के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में हताशा बढ़ी है। ऐसे में श्री आडवाणी को देश का भावी प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा से किसे फायदा मिलेगा यह सवाल हरेक की जुबान पर है।

Sunday, December 9, 2007

हर मतदाता को मिले हर महीने 1750 रुपए 134 सांसदों ने की यह मांग

Rajasthan Patrika 09-12-2007
भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार एक ऐसी घटना होने जा रही है जो शायद देश के हर मतदाता की तकदीर बदल दे। राज्य सभा के 21 व लोक सभा के 112 सांसदों की पहल पर अब संसद में इस बात पर बहस होगी कि क्यों न देश के हर मतदाता को सरकार 1750 रुपए महीने का भत्ता दे। पाठकों को यह अटपटा लगे पर यह हकीकत है। आगामी बजट सत्र में ही लोक सभा के नियम 193 के तहत इस पर बहस होगी। दरअसल यह प्रस्ताव उस मूल सोच पर आधारित है जिसके अनुसार विकसित देशों मे हर व्यक्ति को हर महीने बेरोजगारी भत्ता दिया जाता है। जिसमें वह ठाट बाट के साथ अपने परिवार का निर्वाह कर लेता है। इसके पीछे मान्यता यह है कि काम का अधिकार हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। खाली बैठकर कोई नहीं खाना चाहता। सरकार का कर्तव्य होता है कि वह हर आदमी को रोजगार के अवसर पैदा करके दे। विकास की आंधी ने हाथ के काम को अब हाशिए पर खड़ा कर दिया है और दिमाग के काम को मुंह मांगे पैसे मिलते हैं। इसलिए हाथ का काम करने वाले भारी तादाद में बेरोजगार होते जा रहे हैं। भारत के संविधान में नीति निर्देशक तत्व हर व्यक्ति को आजीविका का साधन मुहैया कराने का निर्देश देते हैं। पर आजादी के 60 वर्ष बाद भी हमारी सरकार न तो सबको रोजगार दे पायी है और न ही उसने हर मतदाता के लिए सम्मानजनक जीवन जीने की व्यवस्था की है।

इससे क्षुब्ध होकर युवा चिंतक भरत गांधी ने एक 222 पृष्ठ का दस्तावेज तैयार किया जिसमें अनेक तर्कों और आर्थिक विश्लेषणों के माध्यम से यह स्थापित किया कि भारत सरकार को हर मतदाता को 1750 रुपया महीना भत्ता देना चाहिए। ‘मतदातावृत्ति’ या ‘वोटरशिप’ शीर्षक उनका यह दस्तावेज इतना झकझोरने वाला है कि इसको पढ़कर और श्री गांधी से इस विषय पर पूरी बात समझकर देश के 134 सांसद इसके समर्थन में उठकर खड़े हो गये। अब इन्हीं सांसदों की पहल पर इस पर संसद में बहस होने जा रही है।

लोकसभा व राज्यसभा में सांसदों द्वारा वोटरशिप याचिका में कहा गया है कि बाजार के व वैश्वीकरण के दबाव में देश के उद्योग-व्यापार के समक्ष यह मजबूरी पैदा हो गई है कि वे अपने मिल कारखाने व कार्यालय में इतने कम आदमियों से काम चलाये जितने कम आदमी विकसित देशों में काम करते है। वहाँ की तकनीकि उन्नत है, जनसंख्या कम है अतः उत्पादन के काम में कम से कम लोग लगें, यह उनकी जरूरत है। लेकिन यही धर्म जब भारत जैसे देश को निभाना पड़ रहा है, तो वह गले की फांस बन रही है। प्रधानमंत्री सड़क परियोजना व दिल्ली की मैट्रो रेल परियोजना-ये दोनों बहुत विशाल परियोजनाएं थी, जहाँ आशा की गई थी कि इसमें खर्च होने वाला धन आम लोगों के घरों में जाएगा, लेकिन विश्वव्यापी प्रतिस्पर्धा के कारण यह धन बड़े ठेकेदारों-इंजीनियरों व मशीन मालिकों के घर में गया। ठेकेदार के सामने मुसीबत यह है कि अगर वह मशीन की बजाय आदमी से काम करवाता है तो काम पूरा होने में बहुत समय लगेगा और ठेकेदार का मुनाफा भी बहुत कम हो जाएगा। इसलिए आम मेहनतकश अनपढ़ लोगों का काम बुल्डोजर जैसी मशीने लेती छीनती जा रही हैं और पढ़े-लिखे लोगों का काम कम्प्यूटर हथियाता जा रहा है। ऐसे में हर हाथ को काम देने व दिला पाने का नारा केवल एक गैर जिम्मेदार व्यक्ति ही उछाल सकता है, जिसे बदली हुई परिस्थितियों का पर्याप्त अध्ययन नहीं है। इसलिए कोई नेता या सांसद अब जनता को काम दिलाने की गांरटी नहीं दे सकता।

याचिका में निष्कर्ष निकाला गया है कि भारत सरकार की नीति यह नही होनी चाहिए कि वह हर हाथ को काम देने का सपना दिखए। बल्कि उन्हें बेरोजगारी भत्ता देना चाहिए। याचिका में कहा गया है कि 1750 रुपये सभी मतदाताओं को मिलेगा तो कोई व्यक्ति देश में ऐसा नही बचेगा जिसके दिमाग को रोजगार न मिल जाए। मानव के मनोविज्ञान की गहन छानबीन करते हुए याचिका में कहा गया है कि नियमित आमदनी व्यक्ति के मन को स्वस्थ तथा सक्रिय रखता है। जब मन सक्रिय होगा तो हाथ सक्रिय हुए बिना नहीं रह सकता। जब हाथ व मन दोनो सक्रिय हो जाएगा तो ऐसा व्यक्ति उत्पादन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका निभाने से बच ही नहीं सकता। जाने-अनजाने में हर व्यक्ति उत्पादक बन जाता है। जबकि बेरोजगार व्यक्ति जिसकी नियमित आमदनी का जरिया नहीं होता, उसके हाथ को तो काम होता ही नहीं, कुछ ही वर्षों में उसका दिमाग भी कुंद हो जाता है वह विध्वंसक बन जाता है। जिसका देश की अर्थव्यस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

सवाल है कि 1750 रुपये देने के लिए सरकार पैसे का प्रबंध कैसी करेगी? इसका तरीका भी याचिका में सरकार को बताया गया है। पूंजीवाद व साम्यवाद के झगड़े को खत्म करते हुए याचिका में कहा गया है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की गणना करते समय जीडीपी में मशीनों के प्रतिशत की अलग से गणना की जाये तथा इंसानों के परिश्रम की अलग से। याचिका कहती है कि मशीनों के परिश्रम से अर्थव्यवस्था में जो धन पैदा हो रहा है वह मतदाताओं के बीच साम्यवादी तरीके से नकद रुप में वितरित कर दिया जाये व इंसानों के हिस्से को पूंजीवादी तरीके से वितरित किया जाये। इससे वैश्वीकरण के कारण मशीनी अर्थव्यवस्था से पैदा होने वाला धन सभी लोगों में बंट जाएगा और वैश्वीकरण का लाभ चन्द लोग ही नहीं उठाते रहंेगे। जैसा आज हो रहा है। वोटरशिप के माध्यम से हर व्यक्ति उसमें भागीदार बन जाएगा। याचिका में कहा गया है कि वैश्वीकरण की सामाजिक स्वीकृति के लिए भी वोटरशिप आवश्यक हैै।

वोटरशिप संबंधी याचिका कहती है कि अगर कोई यह कहता है कि वोटरशिप की यह रकम तो बिना मेहनत का पैसा माना जाएगा तो सवाल उठेगा कि ब्याज में, मकानों व मशीनों के किराये में तथा संसद द्वारा बनाए गए उत्तराधिकार कानूनों से जो पैसा प्राप्त होता है वह भी तो बिना मेहनत का पैसा ही है। फिर तो इस आमदनी को भी बंद किया जाए।

उक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि इस याचिका में जो गम्भीर खोज की गई है उसका लाभ राष्ट्र मिले, इसके लिए आवश्यक है वोटरशिप के खिलाफ उग्र प्रतिक्रिया व्यक्त करने से पहले मामले का पूरा अध्ययन किया जाये। केप्लर नामक वैज्ञानिक ने जब पहली बार कहा कि 11.5 किलो मीटर प्रति सेकण्ड के वेग से आसमान में फेंका गया कोई पत्थर नीचे नही गिरेगा। तो उस समय यह बात सबको अटपटी लगी थी। यदि इस अटपटी बात को बिना पर्याप्त अध्ययन के खारिज कर दिया जाता तो आज उपग्रहों को आसमान में फंेककर उनको वहाँ टिकाये रहना संभव न हो पाता और रेडियो, टेलीवीजन, मोबाइल, इण्टरनेट जैसी सुविधाओं से आज भी मानवता को वंचित रहना पड़ता।

फिर भी बहुत लोगों के मन में यह शंका होगी कि आखिर घर बैठे सभी मतदाताओं को 1750 रुपए महीना क्यों देना चाहिए। दूसरी तरफ यह माने वाले भी कम नहीं हैं कि यदि आर्थिक उदारीकरण की नीतियों से पैदा हो रही समृद्धि वोटरशिप के माध्यम से नहीं बटेंगी तो फिर इतनी आर्थिक असमानता हो जाएगी कि समाज का शांतिमय जीवन जीना असंभव हो जाएगा और उदारीकरण ही बचाना संभव नहीं होगा। अब निजी सुरक्षा गार्डों की संख्या भारत सरकार की पुलिस व सैन्य बल से भी ज्यादा हो चुकी है। साफ है कि जनजीवन दिन प्रतिदिन असुरक्षित होता जा रहा है। अब देखना है कि संसद वोटरशिप के इस सवाल पर क्या रुख अपनाती है।

Sunday, December 2, 2007

किरण बेदी ने क्यk खोयk क्यk पायk


Rajasthan Patrika 02-12-2007
भारत की प्रथम आईपीएस महिला अधिकारी श्रीमती किरण बेदी ने भारतीय पुलिस सेवा से इस्तीफा दे दियk उन्हें इस बात पर नाराजगी है कि उन्हें दिल्ली का पुलिस आयqक्त नहीं बनायk गयk. जबकि वरीयता क्रम में उनका नम्बर आता था. हमेशा मीडियk की खबरों में छाई रहने वाली किरण बेदी का इस्तीफा भी सुर्खियks में है. किसी अधिकारी के इस्तीफे पर ऐसा लेख लिखने की जरूरत नहीं होती पर किरण बेदी का कायZdky और शख्सियत लोगों की उत्सुकता का विषय है. लोग जानना चाहते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय ख्यkति प्राप्त, कर्मठ व यksग्य अधिकारी होने के बावजूद किरण बेदी को दिल्ली का पुलिस आयqक्त क्यks नहीं बनायk गयk

सच्चाई यह है कि गृह मन्त्रkलय के आला अफसर ही नहीं किरण बेदी के साथ काम कर चुके तमाम वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी उन्हें पसंद नहीं करते. उनका कहना है कि किरण बेदी में टीम भावना नहीं है. वे हर कायZक्रम का नेतृत्व स्वय करना चाहती हैं. वे स्वय को सबसे यksग्य और सबसे सही समझती हैं. वे अपने से वरिष्ठ अधिकारियks का सम्मान नहीं करतीं. उनकी अवज्ञा करती हैं और उन्हें दरकिनार कर खुद ही श्रेय लेना चाहती हैं. वे काम से ज्यkदा यश की भूखी हैं और मीडियk के पीछे भागती हैं. वे यह भी कहते हैं कि किरण बेदी जैसा यk उनसे बेहतर काम करने वाले अनेक अधिकारी इसी व्यवस्था के अंग हैं और वे बिना शोरगुल मचाए अपना कर्तव्य भी निभाते हैं व ईमानदार भी हैं और व्यवस्था के अनुरूप अनुशासन में भी रहते हैं.

दूसरी तरफ किरण बेदी का आरोप है कि चू¡कि वह महिला हैं इसलिए पुरूष प्रधान व्यवस्था में उन्हें कोई पनपने नहीं देना चाहता. उनके मौलिक और जन उपयksगी विचारों को समझने और सराहने की कुव्वत पोंगा पंथी आला अफसरों में नहीं है. वे मानती हैं कि सुधार के लिए जो कडे कदम उठाने पडते हैं उन्हें उठाने से यह अधिकारी डरते हैं क्यksकि उन्हें अपने आकाओं के नाराज होने का खतरा होता है.इसीलिए कुछ बदलता नहीं सुधरता नहीं और आम आदमी को न्यk; नहीं मिलता.

किरण बेदी बेशक एक अनूठी महिला अधिकारी रहीं जिन्होंने का¡लेज के दिनों से ही हर क्षेत्र में पुरूषों को पछाडा जिससे उन्हें अपने साथी पुरूष अधिकारियks की ईष्यर का शिकार होना पडा. तिहाड जेल में किए गए सुधारों के लिए उन्हें मैगासेसे जैसे इनाम से नवाजा गयk दिल्ली ट्रैफिक पुलिस की उपायqक्त के पद पर रहते हुए उन्होंने जिस तरह से अनुशासन हीन वीआईपी गाडियks को उठवायk उससे उनका नाम के्रन बेदी हो गयk था. किरण बेदी का सबसे बडा यksगदान भारत की मध्यम वर्गीय यqवतियks के लिए रहा. आज से 37 वर्ष पूर्व जब भारत की यह यqवतिय खुली हवा में सा¡स लेने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाती थीं किरण बेदी ने आत्मविश्वास और सफलता के झण्डे गाढ कर इन महिलाओं के सामने एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कियk जिसकी वजह से फिर अनेक महिला पुलिस की नौकरी में आने लगीं और दूसरे ऐसे क्षेत्र में जाने की हिम्मत करने लगीं जिन्हें परम्परा से पुरूषों के लिए आरक्षित माना जाता था. शायद यही वजह है कि वे मध्य्म वर्ग के लिए एक सितारा बन गईं और उनके हर कदम को इसी मध्यम वर्ग ने हाथों हाथ लियk. मीडियk ने भी सुश्री बेदी को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाइ. इसलिए उनका समय से पहले नाराज होकर इस्तीफा देना उनके प्रशंसकों को अच्छा नहीं लगा.

किरण पिछले 15 वर्ष से मेरी अच्छी दोस्त रही हैं. देश के कई मंचों पर हम दोनों साथ साथ भाषण देने जाते रहे हैं. एक टीवी पत्रकार के रूप में मैंने सन् 1979 में ही उनके कायर्कलापों पर एक कायZक्रम दिल्ली दूरदर्शन पर बनाकर दिखायk था. इसलिए मुझs भी यह आश्चयर होता था कि गृह मन्त्रkलय के आला अधिकारी उनसे खुश क्यks नहीं हैं.

दरअसल कुछ हद तक यह बात ठीक है कि व्यवस्था क्रान्तिकारी व्यक्तित्व को सहन नहीं करती. चाहे वह सरकारी तन्त्र हो यk निजी क्षेत्र मीडियk के क्षेत्र में भी तो यही होता है. अपने को बहादुरी से सच बताने वाला दावा करने वाले समूह भी स्वतन्त्र सोच और क्रान्तिकारी विचारों के पत्रकारों को पनपने नहीं देते. लोकतन्त्र की वकालत करने वाले राजनैतिक दलों तक में लोकतन्त्र नहीं होता और तो और वैदिक परम्परा पर चलने का दावा करने वाले धर्मगुरू तक खरे प्रश्न करने वाले अनुयkf;ks और शिष्यks को बर्दाश्त नहीं करते. इसलिए वे लोग जो लीक से हटकर चलना चाहते हैं किसी व्यवस्था के अंग हो ही नहीं सकते. अगर बनते हैं तो उन्हें अपनी सीमा का ध्यkन रखना ही होगा. जैसे डा¡ मनमोहन सिंह हैं. खुद ईमानदार होकर भी वे अपने चारों तरफ होते आ रहे भ्रष्टाचार से आ¡खें मू¡द लेते हैं. अगर मु¡ह खोलते तो उन्हें वित्तमंत्रhk प्रधानमंत्रh कोई नहीं बनाता. इसलिए प्रशासन में जाने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि वे व्यवस्था का अंग बनकर क्रान्ति नहीं कर सकते. अगर क्रान्ति करनी है तो फाकामस्ती करनी पडेगी. यह नहीं हो सकता कि आप सरकारी बंगला, लाल बत्ती की गाडी और देश विदेश के सैर सपाटे करते हुए क्रान्तिकारी होने की छवि बनाए¡ सुरक्षा की गारण्टी सुनिश्चित करने के बाद क्रान्ति नहीं हुआ करती. किरण बेदी की यही गलती रही कि उन्होंने इस सच्चाई को समझने से इनकार कर दियk

Sunday, November 25, 2007

चैराहे पर वामपंथी

Rajasthan Patrika 25-11-2007
नंदीग्राम की हिंसा, उस पर मुख्यमंत्री बुद्ध्देव भट्टाचार्य का बयान, सी पी एम की चुप्पी और भाजपा का आक्रमक तेवर इस सब पर तो बहुत लिखा जा चुका है। जरूरत यह समझने की है कि इस घटना से वामपंथियों खासकर सी पी एम का कौन सा रूप सामने आया है?

वामपंथ की बुनियाद द्वेश, प्रतिषोध, हिंसा और काल्पनिक जगत के सपनों पर टिकी है। इस सदी के शुरू में वामपंथियों ने रूस और चीन में जो कामयाबी के झंडे गाढ़े थे उससे पूरी दुनियां हिल गई थी। एक बार तो हर पढ़े लिखे, चिंतनशील व्यक्ति को लगा कि यही सही रास्ता है। पूंजीवादी बुरी तरह घबड़ा गए थे। पश्चिम को वामपंथ का खौफ कई दशकों तक भयभीत किए रहा। पर जिस सदी में वामपंथ ने पैर जमाए उसी सदी में उसके डेरे तंबू उखड़ गए। अब जो रूस और चीन में बचा है वह वामपंथ की दसवीं कार्बन कापी भी नहीं है।

स्वभाविक है कि इन हालातों में भारत के वामपंथी दिग्भ्रमित हैं। उन्हें अपने को टिकाए रखने के लिए अब कोई ठोस आधार नहीं मिल रहा। जिससे वे अपनी श्रेश्ठता सिद्ध कर सके। इस प्रक्रिया में आज वामपंथियों व बाकी के राजनैतिक दलों में कोई अंतर नहीं बचा है। सर्वहारा की हित की बात करने वाला वामपंथी नेतृत्व आज सर्वहारा को कुचलकर हुकूमत चला रहा है। पर ऐसा पहली बार नहीं हुआ। मैं पिछले 20 वर्षाें से बंगाल के दौरे पर जाता रहा हूं। वहां हर आदमी यह कहता था कि वामपंथी आतंक और डंडे के जोर पर संगठन और सरकार चलाते हैं। अगर ऐसा न होता तो नक्सलवाद क्यों जन्म लेता? अगर सीपीएम वास्तव में सर्वहारा की हितैषी है तो उसके दो दशकों के शासन के बाद भी बंगाल की गरीबी क्यों दूर नहीं हुई? अगर सीपीएम धर्म निरपेक्ष है तो आज तक केवल हिन्दुओं का विरोध समर्थन क्यों करती रही? मैने दो दशकेां तक राजनीति के शीर्ष पर खोजी पत्रकारिता की है। और मैं बिना किसी राग द्वेश के यह कह सकता हूं कि कई नामी वामपंथियों का भी वैसा ही दोहरा जीवन है जैसा दूसरों का। वे भी उन्हीं पूंजीपतियों की खैरात पर पलते रहे हैं जिन पर दूसरे पलते हैं।

दरअसल वामपंथियों ने पश्चिमी बंगाल में जो आडंबर फैला रखा था उसके पीछे वही सब होता था जो अन्य राजनैतिक दल सत्ता में बने रहने के लिए करते हैं। हां आडंबर और संगठन इतना जोरदार रहा कि लोग बहकावे में आते रहे। पर नंदीग्राम जैसी घटनाओं ने सीपीएम के उस आडंबर को बेनकाब कर दिया है। देश में बुद्धिजीवियों, फिल्मी सितारों, लेखकों,  ायरों व पत्रकारों की एक लंबी फेहरिस्त है जो नंदीग्राम जैसी घटनाओं पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। टीवी चैनलों और सड़कों पर उतर आते हैं। सामने वाले को अमानवीय, साम्प्रदायिक, बुर्जुआ क्या कुछ नहीं कहते। पर आज ये सारे के सारे वाक्पटु लोगों को लकवा क्यों मार गया है?

नंदीग्राम का एक सच और भी है जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया। गत तीन दशकों में बांग्लादेशियों की अवैध घुसपैठ ने पश्चिमी बंगाल का समाजिक ताना बाना बदल दिया है। एक  साजिश के तहत बांग्लादेशियों को पश्चिमी बंगाल के  हरों में भेजा गया  और सीपीएक सरकार ने उन्हें वोटों के लालच में जानते हुए भी अवैध रूप से बसने दिया। अपनी आलोचना और गृहमंत्रालय की चेतावनियों की परवाह नहीं की। धीरे धीरे यही अल्पसंख्यक समुदाय सीपीएम पर हावी होने लगा। अब उसका नेतृत्व फिरकापरस्तोें ने संभाल लिया। जिससे जाहिरन सीपीएम को खतरा लगने लगा कि जो लोग कल तक पनाह मांग रहे थे वे आज काबू के बाहर हो चुके हैं और अपनी जा-बेजा हर मांग मनवा लेते हैं। तस्लीमा नसरीन को निकलवाना इसका एक उदाहरण है। इसलिए सीपीएम के काडर ने नंदीग्राम में रहने वाले अल्पसंख्यक समाज को अपनी हिंसा के प्रदशन से एक चेतावनी दी है।

दरअसल जीवन के षश्वत सत्य व मनुश्य के मूल चरित्र को समझे बिना केवल द्वेश, हिंसा और प्रतिशोध की भावना से जिस राजनैतिक विचारधारा का जन्म हुआ हो उससे सिर्फ यही निकलेगा। समाज बनेगा, पनपेगा नहीं टूटेगा और बिखरेगा। नंदीग्राम की घटना ने सीपीएम के पूरे चरित्र को बेनकाब कर दिया है।

Sunday, November 18, 2007

हिंसक हो रहे हैं पैसे वाले

Rajasthan Patrika 18-11-2007
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, नोएडा और गुड़गांव जैसे इलाकों में नए पैसे वाले हिंसक होते जा रहे है। सुनने में यह अटपटा लगेगा क्याsकि माना यही जाता है कि ज्यों-ज्यों आदमी का धन बढता हैं त्यों-त्यों उसमें असुरक्षा की भावना बढ़ती जाती है। पर पिछले कुछ वर्षों से इसका उल्टा नजारा महानगरों की सड़कों पर देखने को मिल रहा है। नए पैसे वालों के साहबजादे बड़ी-बड़ी महंगी गाडि़यों में मदमस्त होकर आए दिन आम लोगों को कुचलने और मारने लगे हैं। अंग्रेजी अखबार इसे रोड रेज कहते हैं। यानी सड़क पर गुस्सा।

होता यह है कि जब कोई वाहन चालक चाहे वह बुजुर्ग हो या अधेड़, युवा हो या स्त्री सड़कों पर शालीनता से अपनी गाड़ी चलाते हुए जाता है तो ये रईसजादे उन्हें नाहक रौंद देते हैं। क्योंकि ये तेज गति से भीड़ चीरते हुए सबसे आगे निकलना चाहते हैं। अपनी गाड़ी के सामने कोई अवरोध इन्हें बर्दाश्त नहीं होता। चाहे सामने वाला हालात से मजबूर होकर ही वह अवरोध कर रहा हो। ऐसे में यह लोग अपनी गाड़ी से उतर कर दूसरी गाड़ी वाले को बाहर खींच लेते हैं। उसकी बुरी तरह धुनाई करते हैं। उसकी गाड़ी पर बार-बार जानबूझ कर टक्कर मारते हैं। कई बार तो उस पर गाड़ी सीधी चढाकर उसे मार डालते हैं। आए दिन राजधानी के अखबार ऐसी खौफनाक खबरों से भरे रहते हैं। इस रोड रेज में निरपराध आम नागरिक रोज शिकार होते हैं। पुलिस कुछ भी नहीं कर पाती। क्योंकि घटना स्थल पर तब पहुंचती हैं जब ये कांड हो चुकते हैं।

एडमिरल नन्दा का पोता बीएमडब्ल्यू कांड में फंसा हो या फिल्मी सितारा सलमान खान फुटपाथ पर सोने वालों को कुचलने का आरोप झेल रहा हो तो ये कोई अपवाद नहीं है। ऐसे नौजवानों की तादाद बहुत तेजी से बढ़ रही है। घर में आती अकूत दौलत, माता-पिता का कोई नियंत्रण न होना, नशे की आदत, जिम जाकर बनाई अपनी मांसपेशियों के प्रदर्शन की चाहत, फिल्मी हिंसा का असर सड़कों पर बढती करों की संख्या व तंग होती सड़कें कुछ ऐसे कारण हैं जो इस तरह की हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं।

मौजूदा कानून सड़क दुर्घटना के लिए जिम्मेदार लोगों को कड़ी सजा नहीं दे पाता। सजा मिलने में भी 10-12 वर्ष से भी ज्यादा का वक्त लग जाता है। इसलिए इन बिगडै़ल साहबजादों के मन में कानून का कोई डर नहीं है। आधुनिकता ने नाम पर इन महानगरों में अब फार्महाउसों पर रात भर डांस पार्टियां चलती हैं। जिनमें शराब और अश्लीलता का नंगा नाच होता है और इनमें शिरकत करते हैं ताकतवर और पैसे वालों के बेटे-बेटियां। रात के डेढ-दो बजे जब ये पार्टियां खत्म होती हैं तब ये सड़कों पर खूब हंगामा काटते हैं। खाली सड़कों पर नाहक अपनी गाडि़यों के वीआईपी सायरन जोर-जोर से बजा कर आस-पास के घरों में सोने वाले लोगों की नींद में खलल डालते हैं। शहर की सड़कों को कार रेस का मैदान बना देते हंै। गाडि़यों में बजने वाले कान फोडू संगीत से पूरे इलाके में शोर मचा देते हैं। इसी मदमस्ती की हालत में अपनी गाड़ी में बैठी लड़कियों को प्रभावित करने के लिए ये बिगडै़ल साहबजादे सड़क चलते लोगों को रांैदते, पीटते और डराते हुए चलते हैं। पर इनका कोई इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। इस तरह का आतंक रात में ही नहीं दिन में भी आए दिन देखने को मिलता है। पिटने वाला पिटता रहता है और कोई तमाशबीन मदद को सामने नहीं आता।

उधर पिछले दो दशकों में महानगरों में बढ़ते भवन निर्माण के कारण गांवों की जमीनें कई गुने दाम पर बिकने से अचानक इन गांवों में भारी दौलत आ गई है। जिसे संभालने की समझ, अनुभव व योग्यता इन परिवारों के पास नहीं थी। इनकी कृषि योग्य भूमि चली जाने से अब इनके लिए कोई रोजगार बचा नहीं। इनके लड़के इतने पढ़े-लिखे नहीं हैं कि अच्छी नौकरी पा सकें। इसलिए जमीनें बेच कर कमाए गए मोटे पैसे को यह नौजवान दारू, मौज-मस्ती और सड़कों पर गाडि़यां दौड़ाने में बिगाड़ रहे हैं। ये नौजवान तो पहले से ही मजबूत कदकाठी के होते हैं। पारिवारिक संस्कार देहाती होते हैं जिनमें आधुनिक समाज के सड़क के नियमों का पालन करना अपनी तौहीन समझा जाता है। फिर नए पैसे का मद। इसलिए जब ये सड़कों पर आम जनता की धुनाई करते हैं तो तमाषबीनों की रूह कांप जाती है।

हमारी आर्थिक प्रगति के ऊंचे दावों और आधुनिकता के नशे में हम अपनी सभ्यता और मानवीयता भूलते जा रहे हैं। हम अंधे बनकर पश्चिमी देशों के उन समाजों का अनुसरण कर रहे हैं जहां इस तरह की अनियंत्रित जीवनशैली ने समाज और परिवार दोनों को तोड़ा और हिंसा, बलात्कार व आत्महत्या जैसी प्रवृत्ति को आम बना दिया। सौभाग्य से भारतीय समाज अभी भी इस पश्चिमी प्रभाव से बहुत हद तक अछूता है। क्योंकि पश्चिमीकरण की आंधी ने गांवों और कस्बों में रहने वाली भारत की बहुसंख्यक आबादी को अभी प्रभावित नहीं किया है। आवश्यकता इस बात की है कि महानगरों में रहने वाले मां-बाप, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता व राजनेता इस तरह की उद्दंडता की खुलेआम भत्र्सना करें। उसे अपनी पूरी ताकत से रोकें और ऐसा करने वालो को सुधारे या कड़ा दंड देने का प्रावधान करें। वरना हालात काबू के बाहर हो जाएंगे और रोड रेज, रोड रेज न रहकर एक नए किस्म का आतंकवाद बन जाएगी।

Sunday, November 11, 2007

बढ़ रही है धर्म की भूमिका


पाकिस्तान में आपात्काल सिर्फ इसलिए नहीं लगा कि परवेज मुशर्रफ अपनी कुर्सी बचाना चाहते हैं। बल्कि इस लिए भी लगाना पड़ा क्योंकि कट्टरपंथी और जेहादी किसी तरह काबू में नहीं आ रहे थे। केरल में स्वयं सेवक संघ, चर्च और इस्लामी राजनीति वामपंथियों पर हावी रही है। रूस में साम्यवाद के ढीला पड़ने के बाद धार्मिक संगठनों और केन्द्रों की बाढ़ आ गयी है। राम मंदिर के सवाल पर जनता की अपेक्षाओं का जनाजा निकालने वाली भाजपा राम सेतु के मुद्दे पर देश भर में रातों रात माहौल खड़ा कर देती है। पश्चिम एशिया के धर्म युद्ध चाहे वे मुसलमानों और यहूदियों के बीच हो या शिया और सुन्नियों के बीच अब केवल पश्चिम एशिया तक सीमित नहीं रह गये। इस्लामी आंतकवाद ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। अमरीका जैसी महाशक्ति की जड़ों को ओसामा बिन लादेन हिला चुका है। पंजाब में सिक्ख आतंकवाद ने एक लंबा खूनी दौर देखा है। आसाम की घाटी और शेष भारत के 300 से भी अधिक शहर सांप्रदायिकता की दृष्टि से काफी संवेदनशील हैं। तार्किक सोच, निरीश्वरवाद व साम्यवादी विचारधारा की वकालत करने वाले दुनिया में उठ रही धर्म की आंधी के आगे टिक नहीं पा रहे हैं।

लगता तो यही है कि इस सदी मे धर्म दुनिया की राजनीति का केन्द्र बिन्दु बन कर रहेगा। चाहे अनचाहे देशों की सरकारों और राजनैतिक दलों को अपनी राजनीति में धर्म की उपेक्षा करना संभव न होगा। समाजिक वैज्ञानिक इसी उधेड़बुन में लगे है कि सूचना क्रान्ति और वैश्वीकरण के इस दौर में धर्म निर्रथक होने की बजाय इतना महत्वपूर्ण क्यों होता जा रहा है। उन्हे इसका जबाब नहीं मिल रहा। दरअसल राज्य, सत्ता व राजनैतिक दलों के माध्यम से   लोगों के समाजिक कल्याण का जो स्वप्न जाल पिछली सदी में बुना गया था वह पिछले कुछ दशकों में चूर चूर हो गया। व्यक्ति, परिवार और समाज अपने अस्तित्व के लिए अब इन से हट कर विकल्पों की ओर देख रहा है। ऐसे में धर्म उसे एक सशक्त विकल्प के रूप में नजर आता है। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते है कि चार किस्म के लोग मेरी शरण में आते हैंःआर्त यानी दुखियारे, अर्थातु यानी कामना रखने वाले, जिज्ञासु यानी ब्रहम को जानने की इच्छा रखने वाले और ज्ञानी जो इस संसार की नश्वरता को समझ गये हैं। आज के दौर में जो लोग विभिन्न धर्मों की शरण में दौड रहें है वे पहली श्रेणी के लोग हंै। दुखी हैं, हताश हैं, दिशाहीन हैं इसलिए वे धर्म गुरूओं की शरण में जा रहे है। जिन्ंहे ये निहित स्वार्थ चाहे वे विभिन्न धर्मों के आत्मघोषित धर्म गुरू हों या राजनेता सभी अपने चंगुल में फंसा लेते हैं और उनका जमकर दोहन करते हैं।

धर्म का वास्तविक स्वरूप है रूहानियत या अध्यात्म। खुद को जानना। जीवन का लक्ष्य समझना। शरीर की जरूरतों के अलावा अपनी आत्मा की जरूरतों को पूरा करना। ऐसा धर्म मानने वाले तलवारें नहीं खींचा करते। बम नहीं फोड़ते। निरीह लोगों की हत्या नहीं करते। दूसरे के संसाधनों पर बदनियती से कब्जा नहीं करते। बल्कि सर्वे भवन्तु सुखिनः की भावना से त्याग, तप और संयम का जीवन जीते हैं। दुर्भाग्य से धर्म के सही मायने समाज को बताने वाले समाज में नहीं जगंलों और कंदराओं में रहते है। वे गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, ईसा मसीह, गुरू नानक देव और कबीर दास की तरह विरक्तों का जीवन जीते हैं, महलों का नहीं। पैंसे खर्च करके अपने को महान संत बताने वाला, प्रचार करवाने वाले  अपने शिष्यों को वैसा ही माल देंगे जैसा शीतल पेय बनाने वाली कंपनियां देती है। विज्ञापन जबरदस्त पर वस्तु पोषक तत्वों से हीन। जिसका सेवन कुपोषण और रोग देता है।

इन हालातों में लोगों के लिए यह बहुत बडी चुनौती है कि वे धर्म को बेचने वालों से कैसे बचें और कैसे रूहानियत को अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा बनायें। तब धर्म से समाज को लाभ ही लाभ होगा। खतरा नहीं जैसा आज पैदा हो गया है।अगर मौजूदा ढर्रे पर धर्म और उसका उन्माद फैलता गया तो पूरे विश्व के लिए यह आत्मघाती स्थिति होगी। तब हम धर्म के नाम पर लड़कर करोंड़ों लोगों का खून बहायेगें और अंत में मध्य युग से भी बदतर हालात में पहुंच जायेगे। क्या हममें इतना धैर्य और इतनी तीव्र इच्छा है कि हम धर्म के मर्म को जाने और उसके लबादे के उतार फेंके ?

Sunday, November 4, 2007

स्टिंग आ¡परेशन से नरेन्द्र मोदी को फायदा

Rajasthan Patrika 4-11-2007
पिछले दिनों एक टीवी चैनल पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक स्टिंग आ¡परेशन दिखाया गया। जिसमें उन्ही के कुछ सहयोगियों ने यह स्वीकारा कि गुजरात में गोधरा के बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों में नरेन्द्र मोदी का पूरा हाथ था। यह कोई नया आरोप नहीं हैं। इन दंगों के बाद से ही विपक्षी दल, कई तरह के स्वयंसेवी संगठन और मीडिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा नरेन्द्र मोदी पर गुजरात में दंगे करवाने का और अल्पसंख्यकों के साथ अमानवीय व्यवहार करवाने का आरोप लगाते रहे हैं। इन आरोपों में कितनी सच्चाई है उसे जानने के लिए केन्द्रीय सरकार और अदालत समय-समय पर जांच करवाती रहीं हैं। जिनके विषय में यहां चर्चा की आवश्यकता नहीं।

असली बात तो यह है कि इस स्टिंग आ¡परेशन को इस वक्त दिखाने का मकसद क्या विशुद्ध खोजी पत्रकारिता था या इसके पीछे कोई और कारण है ? खुद स्टिंग आॅपरेशन करने वालों ने माना कि उन्होंने यह खोज कई महीने पहले पूरी कर ली थी। फिर क्यों इसे चुनाव के पहले तक रोक कर रखा गया ? इसका उत्तर ये लोग टेलीविजन की वार्ताआंे में नहीं दे पाए। इससे भाजपा को ये कहने का पर्याप्त आधार मिला कि यह स्टिंग आॅपरेशन विपक्षी दल के इशारे पर और चुनावांे को ध्यान में रख कर किया गया है। जो भी हो विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या इस स्टिंग आॅपरेशन से नरेन्द्र मोदी की छवि खराब हुई है ? वामपंथी या खुद को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले राजनैतिक लोग यही कहेंगे। पर जमीनी हकीकत कुछ और है। इस स्टिंग आ¡परेशन से गुजरात के बहुसंख्यक मतदाताओं के बीच नरेन्द्र मोदी की छवि सुधरी है। गुजरात के अनेक नगरों में मैने विभिन्न तबके के लोगों से बात की तो पता चला कि ये लोग नरेन्द्र मोदी को एक योग्य और सक्षम नेता मानते हS। उनका कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से गुजरात के शहरों में बढ रहे कठमुल्लापन पर नरेन्द्र मोदी ने लगाम कसी और गोधरा के बाद के दंगों से यह संदेश दिया कि अल्पसंख्यक होने का अर्थ उद्दंडता और आतताई होना स्वीकारा नहीं जाएगा। इस बात का सीधा प्रमाण यह है कि नरेन्द्र मोदी के इस शासनकाल में गुजरात में कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। दूसरी ओर आर्थिक प्रगति के इच्छुक लोगों को नरेन्द्र मोदी के शासन में मदद ही मिली है। चाहे वे अल्पसंख्यक ही क्यों न हों।

गुजरात के बहुसंख्यकों का कहना है कि मीडिया और खुद को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले राजनैतिक दल हमेशा मुसलमान का पक्ष लेते हैं और हिन्दू हितों का उपेक्षा करते हैं। गुजरात के लोग यह प्रश्न करते हैं कि जब कश्मीर के हिन्दू मारे जा रहे थे या मुसलमान आतंकवादियों द्वारा आज भी देश में बड़ी संख्या में हिन्दू मारे जा रहे हैं तब यह लोग क्यों नहीं उतने ही मुखर होते जितने की मुसलमानों के पिटने पर होते हैं ? इसलिए स्टिंग आॅपरेशन के बावजूद गुजरात के लोगों में चाहे-अनचाहे यह बात बैठ गई है कि अगर गोधरा कांड के बाद हुए दंगों में नरेन्द्र मोदी या उनकी सरकार का कोई हाथ है भी तो इसमें कोई बुराई नहीं। क्योंकि अगर ऐसा न होता तो गुजरात का बहुसंख्यक समाज अल्पसंख्यकों के उद्दंड व्यवहार से अशांत और असुरक्षित ही रहता।

ये गंभीर बात है कि मीडिया के प्रति बहुसंख्यकों के मन में यह बात घर कर गई है कि वह हिन्दुओं के हित नहीं साधता। जबकि मीडिया की छवि यथा संभव निष्पक्ष ही होनी चाहिए। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि वैदिक परंपराओं के वैज्ञानिक आधार सिद्ध हो जाने के बावजूद इस देश का पढ़ा-लिखा प्रगतिशील वर्ग स्वयं को हिन्दू मानने से बचता है। उसे लगता है कि धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा ओढे बिना कुलीन समाज में उसे स्वीकारा नहीं जाएगा। इसलिए उसे दोहरे मापदंड अपनाने पड़ते हैं। पर मतदाता अपना अच्छा-बुरा खुद सोच लेता हैं। वह मीडिया के नियंत्रित ‘टाॅक-शो’ ‘ओपिनियन पोल’ और राजनैतिक विश्लेषणों से प्रभावित नहीं होता। मीडिया की उपक्षा के बावजूद मायावती की चुनावी फतह इसका उदाहरण है। यही वजह है कि मायावती मीडिया की परवाह नहीं करतीं। लालू यादव भी नहीं करते थे और अब नरेन्द्र मोदी भी नहीं करते। ये तीनों ही नेता अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए मीडिया पर निर्भर नहीं है। लोकतंत्र के लिए मीडिया का इस तरह निरर्थक हो जाना शुभ संकेत नहीं है। मीडियाकर्मियांे और अखबार व टीवी चैनलों के मालिकों को गंभीरता से सोचना होगा। अगर मतदाता और नेता दोनों उससे प्रभावित नहीं हो रहे तो स्पष्ट है कि मीडिया के कुछ हिस्से ने अपनी सार्थकता खो दी है। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ किया गया स्टिंग आॅपरेशन भी इसीलिए उनके हक मे गया है। जिसका लाभ नरेन्द्र मोदी को आगामी विधान सभा चुनाव में देखने को मिल सकता है।

Sunday, October 28, 2007

जागो कृष्ण भक्तों

 Rajasthan Patrika 28-10-2007
भारत सरकार की पर्यटन मंत्री श्रीमती अम्बिका सोनी हर मंच पर घोषणा करती हैं कि वे देश में धार्मिक व सांस्कृतिक पर्यटन को बढाने के लिए तत्पर हैं। राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान के हर तीर्थ पर जाकर शीश नवाती हैं। हरियणा सरकर ने भी धार्मिक तीर्थाटन के महत्व को समझ कर अपने राज्य कुरूक्षेत्र जैसे अनेक तीर्थों को सुधारा व संवारा है। पर्यटन आज वैश्वीकरण के दौर में एक तेजी से पनपता उद्योग बन चुका है। माॅरीशस, मलेशिया, हवाई जैसे तमाम देश पर्यटन पर आधारित अर्थ व्यवस्था चला रहे हैं। पर दुःख की बात है कि भारत ने आज अभी भी अपने धार्मिक पर्यटन की संभावनाओं को विकसित नहीं किया है। केवल ताज महल ही ऐसा स्थल नहीं जिसके पीछे पूरी दुनिया भारत आती है। अगर हम अपने सांस्कृतिक महत्व के तीर्थ स्थलों की ओर ध्यान दें तो ताज महल से कहीं ज्यादा पर्यटक इन स्थलों की ओर आएंगे। क्योंकि दुनिया आज भी भारत को विश्व का आध्यात्मिक गुरू मानती है। ताज महल के निकट है, ब्रज क्षेत्र जहां 5 हजार वर्ष का सांस्कृतिक वैभव बिखरा पड़ा है। ब्रज में उत्तर प्रदेश का मथुरा जिला, राजस्थान के भरतपुर जिले की डीग व कामा तहसील और हरियाणा के फरीदाबाद जिले की होडल तहसील भी आती हैं।



कश्मीर से कन्याकुमारी और आसाम से गुजरात तक कृष्ण भक्त बिखरे हुए हैं। भारत की जितनी नृत्य कलाएं हैं, काव्य रचनाएं हैं, चित्र कलाएं हैं, वास्तु कलाएं हैं व संगीत कलाएं हंै, सब पर भगवान श्री राधाकृष्ण के प्रणय प्रसंगों की व लीलाओं की छाप स्पष्ट है। इसलिए ब्रज भारत की सांस्कृतिक राजधानी है। यही वह क्षेत्र है जहां 5 हजार वर्ष पहले भगवाने श्री राधाकृष्ण ने अनेक लीलाएं की। जबसे टीवी चैनलों पर भागवत कथाओं की बाढ आई है तब से ब्रज प्रेमियों की संख्या भी तेजी से बढ़ती जा रही है। पर इसके साथ ही बढता जा रहा है ब्रज का विनाश भी।



भागवतम् के दशम स्कंध के चोबीसवें अध्याय के 24वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण नंद बाबा से कहते हैं, ‘बाबा हम नगरों और गांवों के रहने वाले नहीं। हमारे घर तो ब्रज के वन और पर्वत हैं।ब्रज भक्ति विलास ग्रंथ के अनुसार 137 वन ब्रज में थे। जहां भगवान ने लीलाएं की। इनमें से अब मात्र 3 बचे हैं। शेष में धूल उड़ती है। लताआंे, वृक्षों व निकुंजों का नामोनिशान तक नहीं है। ब्रज में 72 वर्ग किलो मीटर क्षेत्र में पर्वत श्रृखलाएं हंै। जिन पर भगवान ने गो-चारण किया। वंशीवादन किया। रास किया व अनेक लीलाएं की। दुर्भाग्यवश राजस्थान की सरकार इन पर्वतों को खनन उद्योग के हवाले कर रात-दिन इनका विनाश करवा रही है। उधर गोवर्द्धन की परिक्रमा हो या बरसाने की वाटिकाएं। वृंदावन के निकंुज हों या जमुना जी के घाट, हर ओर विनाश का तांडव चल रहा है। अनेक भागवताचार्य एक ओर तो माया का मोह छोडने का उपदेश देते हैं और दूसरी ओर अपने यजमानों को ब्रज वास का लालच दिखा कर ब्रज में प्लाॅट व फ्लेट बेचने में जुटे हैं। दिल्ली और आसपास के बिल्डर्स भी बड़ी तादाद में ब्रज में फ्लैट व मकान बनवा रहे हैं ताकि ब्रज के प्रेम को पैसे में भुनाया जा सके।



इस प्रक्रिया में ब्रज के नैसर्गिक सौंदर्य का तेजी से विनाश हो रहा है। इन मकानों मंे 90 फीसदी से ज्यादा पूरे वर्ष खाली पड़े रहते हैं। दरअसल ब्रज जैसे तीर्थ स्थल के विकास और संवर्द्धन की तीनों ही प्रांतीय सरकारों व केन्द्रीय सरकार के पास न तो कोई दृष्टि है और नही ही कोई ठोस योजना। यहां तैनात प्रशासनिक अधिकारी भी ब्रज को आम शहरों की तरह अपनी कमाई का धंधा बना लेते हैं। स्थानीय नेताओं को भी केवल वोटों से मतलब हैं। उनके वोटर चाहे धरोहरों को नीलाम करें या उन पर अवैध कब्जें करें, वे विरोध नहीं करते। इसके विपरीत कब्जा करने वालों का ही साथ देते हैं। इन हालातों में जब दुनिया भर के करोडों कृष्ण भक्त यहां आते हैं तो यहां चल रही विनाश लीला और यहां की दुर्दशा देख कर धक्क रह जाते हैं।



पर कृष्ण भक्त भी इस विनाश के लिए कोई कम जिम्मेदार नहीं। कृष्ण भक्त देश-विदेश के नगरों में भगवत कथाओं में, छप्पनभोगों में, फूल बंगलों में, मंदिर निर्माणों में व भंडारों में करोडों रूपया पानी की तरह बहा देते हैं। अपने घर का मंदिर तो सजाते हैं पर भगवान के नित्यधाम ब्रज को सजाने के लिए कुछ नहीं करते। आलोचना करने से क्या कुछ बदल जाएगा ? अगर ब्रज को सजाना है तो कृष्ण भक्तों को अपनी सोच बदलनी होगी। मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध व जैन धर्मावलंबी अपने तीर्थों को सजा-सवार कर रखते हैं। पर कृष्ण भक्त ब्रज को सड़ा कर छोड जाने में ही गर्व का अनुभव करते हैं। भंडारे करने, मंदिर और फ्लैट बनवाने से कहीं ठोस सेवा है ब्रज को सजाना और संवारना। सरकारें यह कार्य करती नहीं। भागवताचार्य अपनी कमाई अपने ही ऐश्वर्य में लगा देते हैं। अगर भक्त ही नहीं जागे तो कौन सुधारेगा ब्रज की  दशा घ् ब्रज फाउंडेशन जैसी कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं ब्रज में बहुत ऐतिहासिक कार्य कर रही हैं। जिनसे सलाह लेकर कृष्ण भक्त ब्रज को सजाने, संवारने का काम कर सकते हैं। अगर कृष्ण भक्त नहीं जागे तो ब्रज की इतनी बुरी दशा हो जाएगी कि भला आदमी वहां जाने की हिम्मत भी नहीं करेगा। सरकारों को भी नारे नहीं ठोस योजनाएं देनी चाहिए। वरना हम देश में धार्मिक, सांस्कृतिक पर्यटन की असीम संभावनाओं को विकसित होने से पहले ही कुचल देंगे।

Sunday, October 21, 2007

कौन चाहता है कि पुलिस सुधरे ?

 Rajasthan Patrika  21-10-2007
नोएडा की श्रीमती नीमा गोयल आज संतोष के आंसू बहा रही हैं। दस वर्ष पहले दिल्ली के क्नाट प्लेस में पुलिस की फर्जी मुठभेड़ में निरअपराध मारे गए उनके युवा पति प्रदीप गोयल के हत्यारे, दिल्ली पुलिस के सहायक आयुक्त एसएस राठी सहित सभी 10 पुलिस कर्मियों को अदालत ने हत्या का दोषी करार दिया है। देशवासी प्रसन्न हैं कि आखिर दोषी पुलिस कर्मियों को सजा मिलेगी। मिलनी भी चाहिए। तभी तो इस तरह की अहमक हरकत करने वाले पुलिसकर्मी सुधरेंगे।

अक्सर आरोप लगते हैं कि पुलिस अमानवीय व्यवहार करती है। पुलिस थाने में बलात्कार करती है। पुलिस आधी रात में वर्दी में डकैती करती है। पुलिस लाचार लोगों की संपत्ति पर जबरन कब्जा करती है। पुलिस रिपोर्ट लिखने के लिए भी रिश्वत मांगती है। पुलिस जातिगत द्वेष की भावना से काम करती है। पुलिस सांप्रदायिकता से ग्रस्त है। पुलिस को आम आदमी रक्षक नहीं भक्षक मानता है। ऐसे ही आरोपों के इर्द-गिर्द देश के हर प्रांत की पुलिस से जुड़ी खबरें अक्सर आती रहती हैं। पर क्या कभी हमने जानने की कोशिश की कि पुलिस इतनी गैर-जिम्मेदार क्यों है ?
अजमेर की दरगाह शरीफ में आतंकवादी बम का विस्फोट होता है तो हम पुलिस पर लापरवाही का दोष लगाते हैं। अगर पुलिस मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे या चर्च कहीं भी घुसती हैं तो हमारी धार्मिक भावनाओं को ठेस लगती हैं। पुलिस को हम अपने धर्म स्थान में घुसने नहीं देंगे। उधर आतंकवादी नमाजी या भक्त बन कर घुस जाएंगे। फिर जब विस्फोट होगा तो हम इसे पुलिस की लापरवाही बताएंगे। योग्य उम्मीदवारों की उपेक्षा करके रिश्वत में मोटी रकम लेकर अगर सिपाहियों की भर्ती होगी तो हम कैसे उम्मीद करें कि वे अपने जीवन में धर्मराज युधिष्ठिर की तरह आचरण करेंगे ? यदि मुख्यमंत्री अपनी जाति के लोगों को थोक में पुलिस में भर्ती करेंगे तो कैसे इन पुलिस वालों से उम्मीद की जाए कि वे जातिगत द्वेष नहीं पालेंगे। जब पुलिसकर्मी अपनी आंखों से रातदिन देखते हैं कि अनेक बड़े नेता और मंत्री खुलेआम अपराधियों को प्राश्रय दे रहे हंै और स्वयं भी व्यभिचार में लिप्त हैं तो इन पुलिस वालों से सदाचरण की आशा कैसे की जा सकती है? जब पुलिस वाले देखते हैं कि अदालतांे में खुलेआम रिश्वत देकर अपराधी छूट जाते हैं तो उनसे कैसे उम्मीद की जाए कि वे जान जोखिम में डालकर अपराधियों को पकड़े ? वीआईपी सुरक्षा के नाम पर जब पुलिस का दुरूपयोग राजनेताआंे की झूठी शान बढाने में हो रहा हो तो वे कैसे जनता को सुरक्षा मुहैया कराएंगे? जब पुलिस के बड़े हाकिम लाटसाहबों की सी जिंदगी जीते हों और सिपाही को 24 घंटे पिलने के बाद भी दिवाली और ईद की छुट्टी बमुश्किल मिलती हों तो वो कैसे अपना मानसिक संतुलन कायम रख पाएगा ? जब थानों पर तैनाती पुलिस कप्तान को हर महीने मोटी थैली पहुंचाने की एवज में होती तो उस थाने का चार्ज लेकर दरोगा अपराध का ग्राफ कम क्यों करवाएगा ?

दरअसल भारत में पुलिस राज सत्ता के हाथ में जनता के दमन का औजार मात्र है। इसकी जवाबदेही जनता के प्रति नहीं केवल सरकार के प्रति है। दरसल भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 हमारे संविधान की मूल भावना के विरूद्ध है। भारत का संविधान भारत की जनता को सर्वोच्च मानता है। उसको ही समर्पित है। भारतीय गणराज्य की समस्त संस्थाएं जनता की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। किंतु भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में कहीं भी जनता शब्द का उल्लेख नहीं आता। 1857 के गदर के बाद जब ब्रितानी हुकूमत ने ईस्ट इंडिया कंपनी से हिंदुस्तान की बागडोर ली तो उसे ऐसे कानून की जरूरत थी जिसकी मदद से वह भारत की जनता का दमन कर सके। इसीलिए उसने यह कानून बनाया था। पर आश्चर्य की बात तो यह है कि 1947 में आजादी मिलने के बाद और 1950 में नए संविधान के लागू होने के बाद भी पुलिस अधिनियम में संशोधन नहीं किया गया।

1977 में जनता पार्टी की सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग बनाया। जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों को पुलिस सुधार का मसौदा बनाने का काम दिया गया। इस आयोग ने बड़ी मेहनत से काम किया। इसकी रिपोर्ट रोंगटे खडे़ कर देती है। जिसे पढने के बाद हर आदमी यह मान लेगा कि दोष पुलिस का नहीं हमारे राजतंत्र का है। इस रिपोर्ट में पुलिस व्यवस्था में आमूलचूल परिर्वतन की सिफारिश की गई है। संक्षेप में रिपोर्ट कहती है कि पुलिस की कार्यप्रणाली पर लगातार निगाह रखी जाए। पुलिस कर्मियों के प्रशिक्षण और काम की दशा पर संवेनदशीलता से ध्यान दिया। उनका दुरूपयोग रोका जाए। उन पर राजनीतिक नियंत्रण समाप्त किया जाए। उनकी जवाबदेही निर्धारित करने के कड़े मापदंड हों। पुलिस महानिदेशकों का चुनाव केवल राजनैतिक निर्णयों से प्रभावित न हो बल्कि उसमें न्यायपालिका व समाज के अन्य महत्वपूर्ण वर्गों का भी प्रतिनिधित्व हो। पुलिस वालांे के तबादलों की व्यवस्था पारदर्शी हो। उन पर निगरानी रखने के लिए स्वायत्त नागरिक समितियां गठित हांे। पर दुख की बात है कि पिछले 30 वर्षों से पुलिस आयोग की सिफारिशें धूल खा रही है। 1998 में महाराष्ट्र के मशहूर पुलिस अधिकारी श्री जेएफ रिबैरो की अध्यक्षता में पुलिस सुधारों का अध्ययन करने के लिए एक और समिति का गठन किया गया। जिसने मार्च 1999 में अपनी रिपोर्ट दे दी। वह भी धूल खा रही है। इसके बाद पद्मनाभैया समिति का गठन हुआ। पर रहे वही ढाक के तीन पात।

पुलिस व्यवस्था में क्या सुधार किया जाए ये तो इन समितियों की रिपोर्ट से साफ है पर लाख टके का सवाल यह है कि यह सुधार लागू कैसे हो ? यह कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना ये हो नहीं सकता। सच्चाई यह है कि हर राजनैतिक दल पुलिस की मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट हैं। क्योंकि पूरा पुलिस महकमा राजनेताओं की जागीर की तरह काम कर रहा है। इसलिए भारत के गृहमंत्री पुलिस महानिदेशकों की सालाना बैठकों में बडबोले ऐलान करते रहेंगे और जनता यूं ही पुलिस से प्रताडि़त होती रहेगी। अगर जनता चाहती है कि पुलिस का रवैया बदले और वे भक्षक की जगह रक्षक बने, तो उसे अपने क्षेत्र के सांसद को पकड़ना होगा। हर सांसद को जनता इस बात के लिए तैयार करे कि वह संसद में पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने का जोरदार अभियान चलाए। अगले आम चुनावों से पहले पूरे देश में इन सुधारों को लागू करने का महौल बनाया जाए। तभी कुछ बदलेगा। क्या हम ये करंेगे ?