Monday, September 26, 2022

बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा?



मशहूर शायर नवाब मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता का शेर, ‘हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम, बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा’ काफ़ी लोकप्रिय हुआ। इसका अर्थ है जिन्हें शोहरत की भूख होती है वो शोहरत पाने के लिए किसी भी हद तक जाने तैयार हो जाते हैं। ऐसा करने पर यदि उन्हें बदनामी भी मिले तो वे उसी में शोहरत के अवसर खोज लेते हैं। सुप्रीम कोर्ट की मीडिया ऐंकरों को पड़ी फटकार का कुछ ऐसा ही अर्थ निकाला जा सकता है। 


दरअसल हेट स्पीच के एक मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने टीवी एंकरों को कड़ी फटकार लगाई है। कोर्ट ने कहा कि नफरती भाषा एक जहर की तरह है जो भारत के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा रही है। पिछले कुछ समय से चैनलों पर बहस बेलगाम हो गई है। देश के राजनैतिक दल इस सब में भी लाभ खोज रहे हैं। अदालत ने कहा कि ऐसी नफ़रत फैलाने वाले दोषियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की जानी चाहिए। केंद्र सरकार से जवाब माँगते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या इसको लेकर सरकार का कानून बनाने का इरादा है या नहीं? मौजूदा क़ानून ऐसे मामलों में निपटने के लिए अपर्याप्त है। न्यायमूर्ति के एम जोसेफ और हृषिकेश रॉय की खंडपीठ ने कहा कि हेट स्पीच के मामलों में केंद्र को 'मूक दर्शक' नहीं बने रहना चाहिए। कोर्ट ने आगे कहा कि, पूरी तरह से स्वतंत्र प्रेस के बिना कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता है। एक मुक्त बहस होनी चाहिए। आपको यह भी पता होना चाहिए कि बहस की सीमा क्या है। बोलने की स्वतंत्रता वास्तव में श्रोता के लाभ के लिए है। एक बहस को सुनने के बाद श्रोता अपना मन बनाता है। लेकिन हेट स्पीच सुनने के बाद वह कैसे अपना मन बनाएगा।


आपको याद होगा कि जिस दिन से भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता रहीं नूपुर शर्मा के बयान पर विवाद खड़ा हुआ है उस दिन से देश में आग लग गई। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यकीनन टीवी चैनल ही इस अराजकता फैलाने के गुनहगार है। जो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लालच में आये दिन इसी तरह के विवाद पैदा करते रहते है। जानबूझ कर ऐसे विषयों को लेते है जो विवादास्पद हों और ऐसे ही वक्ताओं को बुलाते है जो उत्तेजक बयानबाजी करते हों। टीवी ऐंकर खुद सर्कस के जोकरों की तरह पर्दे पर उछल कूद करते है। जिस किसी ने बीबीसी के टीवी समाचार सुने होगें उन्हें इस बात का खूब अनुभव होगा कि चाहें विषय कितना भी विवादास्पद क्यों न हो, कितना ही गम्भीर क्यों न हो, बीबीसी के ऐंकर संतुलन नहीं खोते। हर विषय पर गहरा शोध करके आते है और ऐसे प्रवक्ताओं को बुलाते है जो विषय के जानकार होते है। हर बहस शालीनता से होती है। जिन्हें देखकर दर्शकों को उत्तेजना नहीं होती बल्कि विषय को समझने का संतोष मिलता है।


आज की स्थिति में मैं मानने लगा हूं कि टेलीविजन समाचारों पर नियंत्रण जरूरी है। खबरों को फूहड़ और बिकाऊ बनाने के लिए टीआरपी को बहाना बनाया जाता है और खबरों के नाम पर ज्यादातर चैनल जो कुछ परोस रहे हैं उसे झेलना बेहद मुश्किल हो गया है। एक समय था जब रात में सिर्फ एक बार नौ बजे खबरें प्रसारित होती थीं। पहले रेडियो पर और फिर टीवी पर। उस समय खबरें सुनने या जानने में जो दिलचस्पी होती थी वह क्या अब किसी में रह गई है। तब खबरें नई होती थीं वाकई खबर होती थीं। पर अब दिन भर चलने वाली खबरों को जानने के लिए वो उत्सुकता नहीं रहती है। एक तो संचार के साधन बढ़ने और लगातार सस्ते होते जाने से लोगों तक सूचनाएं बहुत आसानी से और बहुत कम समय में पहुंचने लगी हैं। ऐसे में दर्शकों को खबरों से जोड़ने के लिए कुछ नया और अभिनव किए जाने की जरूरत है। पर ऐसा नहीं करके ज्यादातर चैनल फूहड़पन पर उतर आए हैं।


दूसरी ओर, नए और अपरिपक्व लोगों को समाचार संकलन और संप्रेषण जैसे काम में लगा दिए जाने का भी नुकसान है। किसी भी अधिकार के साथ जिम्मेदारी भी आती है। नए और युवा लोग अधिकार तो मांगते हैं पर जिम्मेदारी निभाने में चूक जाते हैं। उन्हें मीडिया की आजादी तो मालूम है पर इस आजादी के प्रभाव का अनुमान नहीं है। आपने देखा होगा कि दिन भर चलने वाले समाचार चैनल अपने प्रसारण में हिंसा और अपराध की खबरें खूब दिखाते हैं और कई-कई बार या काफी देर तक दिखाते रहते हैं। दर्शकों को आकर्षित करने के लिए ये अपने हिसाब से अपराधी तय कर लेते हैं और अदालत में मुकदमा कायम होने से पहले ही किसी को भी अपराधी साबित कर दिया जाता है। बाद में अगर वह निर्दोष पाया जाए तो उसकी कोई खबर दिखाई बताई नहीं जाती है। ऐसी खबरों से आहत होकर लोगों के आत्म हत्या कर लेने के भी मामले सामने आए हैं पर टेलीविजन चैनल संयम बरत रहे हों, ऐसा नहीं लगता है। दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में पीड़ितों से बेसिर-पैर के सवाल पूछे जाने के कई उदाहरण हैं। नए और गैरअनुभवी लोगों पर समाचारों के चयन और प्रसारण की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी डाल दिए जाने और टीआरपी की भूख से ऐसा हो रहा है। समय की मांग है समाचार चयन और चैनल का संचालन अनुभवी हाथों में हो और हम तक निष्पक्ष खबरें ही पहुंचें। 


जब भारत में कोई प्राईवेट टीवी चैनल नहीं था तब 1989 में देश की पहली हिन्दी विडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी करके मैंने टीवी पत्रकारिता के कुछ मानदंड स्थापित किये थे। बिना किसी औद्योगिक घराने या राजनैतिक दल की आर्थिक मदद के भी कालचक्र ने देश भर में तहलका मचा दिया था। हमने कालचक्र में जनहित के मुद्दों को गम्भीरता से उठाया और उन पर देश के मशहूर लोगों से बेबाक बहस करवाई। जिनकी चर्चा लगातार देश के हर अखबार में हुई। इसी तरह आज के साधन सम्पन्न टीवी चैनल अगर चाहें तो जनहित में अनेक गम्भीर मुद्दों पर बहस करवा सकते है। जैसे नौकरशाही या लालफीताशाही पर, शिक्षा व्यवस्था पर, न्याय व्यवस्था पर, पुलिस व्यवस्था पर, अर्थ व्यवस्था पर, पर्यावरण पर व स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे अनेक अन्य विषयों पर गम्भीर बहसें करवाई जा सकती हैं। जिनके करने से देश के जनमानस में मंथन होगा और उससे विचारों का जो नवनीत निकलेगा उससे समाज और राष्ट्र को लाभ होगा। आज की तरह देश में अराजकता, हिंसा और कुंठा नहीं फैलेगी।

Monday, September 19, 2022

सिर्फ़ उत्सवों से भूख नहीं मिटती


1789-90 में फ़्रांस में जब लोग भूखे मर रहे तो वहाँ की रानी मैरी एटोनी का ध्यान लोगों की बदहाली की ओर दिलाया गया। तो ऐशों आराम में लिप्त रानी बोली इनके पास रोटी खाने को नहीं है तो ये लोग केक क्यों नहीं खाते ? 


हर देश के हुक्मरान अपने देश की जनता को सम्बोधित करते हुए हमेशा बात तो करते हैं जनसेवा की, विकास की और अपने त्याग की लेकिन वास्तव में उनका आचरण वही होता है जो फ़्रांस में लुई सोलह और मैरी एटोनी कर रहे थे। ये सब नेता जनता के दुःख दर्द से बेख़बर रहकर मौज मस्ती का जीवन जीते हैं। इतना महँगा जीवन जीते हैं कि इनके एक दिन के खर्चे के धन से एक गाँव हमेशा के लिए सुधर जाए। जबकि आज राजतंत्र नहीं लोकतंत्र है। पर लोकतंत्र में भी इनके ठाठ बाट किसी शहंशाह से कम नहीं होते। हाँ इसके अपवाद भी हैं। 



पर आज मीडिया से प्रचार करवाने का ज़माना है। इसलिये बिलकुल नाकारा, संवेदना शून्य, चरित्रहीन और भ्रष्ट नेता को भी मीडिया द्वारा महान बता दिया जाता है। हम सब जानते हैं कि गाय के दूध की छाछ, नीबू की शिंकजी, संतरे, मोसंबी, बेल या फ़ालसे का रस, लस्सी या ताज़ा गर्म दूध सेहत के लिये बहुत गुणकारी होता है। इनकी जगह जो आज देश में भारी मात्रा में बेचा और आम जनता द्वारा डट कर पिया जा रहा है वो हैं रंग बिरंगे ‘कोल्ड ड्रिंक्स’। जिनमें ताक़त के तत्व होना तो दूर शरीर को हानि पहुँचाने वाले रासायनिकों की भरमार होती है। फिर भी अगर आप किसी को समझाओ कि भैया ये कोल्ड ड्रिंक्स न पियो न पिलाओ, तो क्या वो आपकी बात मानेगा? कभी नहीं। क्योंकि विज्ञापन के मायाजाल ने उसका दिमाग़ कुंद कर दिया है। उसके सोचने, समझने और तर्क को स्वीकारने की शक्ति पंगु कर दी है। 


यही हाल नेताओं का भी होता है। जो मीडिया के मालिकों को मोटे फ़ायदे पहुँचाकर, पत्रकारों को रेवड़ी बाँट कर, दिन-रात अपना यशगान करवाते हैं। कुछ समय तक तो लोग भ्रम में पड़े रहते हैं और उसी नेता का गुणगान करते हैं। पर जब इन्हें ये एहसास होता है कि उन्हें कोरे आश्वासनों और वायदों के सिवाय कुछ नहीं मिला तो वे नींद से जागते हैं। पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। हालात बद से बदतर हो चुके होते हैं। फिर कोई नया मदारी आकर बंदर का खेल दिखाने लगता है और लोग उसकी तरफ़ आकर्षित हो जाते हैं। ये सिलसिला तब तक चलता है जब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं आता। जब तक हर नागरिक और मीडिया अपने हुक्मरानों से कड़े सवाल पूछने शुरू नहीं करता। जब तक हर नागरिक मीडिया के प्रचार से हट कर अपने इर्दगिर्द के हालात पर नज़र नहीं डालता। 



विपक्षी दल सरकार को पूँजीपतियों का दलाल और जनता विरोधी बताते हैं। पर सच्चाई क्या है? कौनसा दल है जो पूँजीपतियों का दलाल नहीं है? कौनसा दल है जिसने सत्ता में आकर नागरिकों की आर्थिक प्रगति को अपनी प्राथमिकता माना हो? धनधान्य से भरपूर भारत का मेहनतकश आम आदमी आज अपने दुर्भाग्य के कारण नहीं बल्कि शासनतंत्र में लगातार चले आ रहे भ्रष्टाचार के कारण गरीब है। इन सब समस्याओं के मूल में है संवाद की कमी। जब तक सत्ता और जनता के बीच संवाद नहीं होगा तब तक गंभीर समस्याओं को नहीं सुलझाया जा सकता। इसलिए लगता है कि अब वो समय आ गया है कि जब दलों की दलदल से बाहर निकल कर लोकतंत्र को ज़मीनी स्तर पर मज़बूत किया जाए। जिसके लिए हमें 600 ई॰पू॰ भारतीय गणराज्यों से प्रेरणा लेनी होगी। जहां संवाद ही लोकतंत्र की सफलता की कुंजी था।  


देश के नेताओं के पास जब जनता को उपलब्धियों के नाम पर बताने को कुछ ठोस नहीं होता तो वे आये दिन रंग बिरंगे नए-नए उत्सव या कार्यक्रम आयोजित करवा कर जनता का ध्यान बटाते रहते हैं। इन कार्यक्रमों में गरीब देश की जनता का अरबों रुपया लगता है पर क्या इनके आयोजन से उसे भूख, बेरोज़गारी और मँहगाई से मुक्ति मिलती है? नहीं मिलती। उत्सव इंसान कब मनाता है जब उसका पेट भरा हो। 


आज हमारे देश को ही लें चारों ओर गंदगी का साम्राज्य बिखरा पड़ा है। करोड़ों देशवासी नारकीय स्थिति में, झुग्गी झोपड़ियों में, कीड़े-मकोड़ों की तरह ज़िंदगी जी रहे हैं। जब लोग मजबूर होते हैं तो नौकरी की तलाश में अपने गाँव को छोड़कर शहरों में बसने चले आते हैं। इससे वो गाँव तो उजड़ते ही हैं शहर भी नारकीय बन जाते हैं। 


सनातन धर्म में राजा से अपेक्षा की गयी है कि वो राजऋषि होगा। उसके चारों तरफ़ कितना ही वैभव क्यों न हो वो एक ऋषि की तरह त्याग और तपस्या का जीवन जिएगा। वो प्रजा को संतान की तरह पालेगा। खुद तकलीफ़ सहकर भी प्रजा को सुखी रखेगा। आज ऐसे कितने नेता आपकी नज़र में हैं? मीडिया के प्रचार से बचकर अपने सीने पर हाथ रखकर अगर ठीक से सोचा जाए तो एक भी नेता ऐसा नहीं मिलेगा। 75 वर्ष के आज़ाद भारत के इतिहास में कितने नेता हुए हैं जिनका जीवन लाल बहादुर शास्त्री जैसा सादा रहा हो? 


भगवान गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि ‘महाजनों येन गताः स पंथः’। महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं वो अनुकरणीय बन जाता है। आज हमने नेताओं को ही महापुरुष मान लिया है। इसलिये उनके आचरण की नक़ल सब कर रहे हैं। फिर कहाँ मिलेगा त्याग-तपस्या का उदाहरण। हर ओर भोग का तांडव चल रहा है। फिर चाहे पर्यावरण का तेज़ी से विनाश हो, बेरोज़गारी व महंगाई चरम पर हो, शिक्षा के नाम पर वाट्सऐप विश्वविद्यालय चल रहे हों - तो देश तो बनेगा ही ‘महान’।


ज़रूरत है कि हम सब जागें, मीडिया पर निर्भर रहना और विश्वास करना बंद करें। अपने चारों ओर देखें कि क्या ख़ुशहाली आई है या नहीं? नहीं आई तो आवाज़ बुलंद करें। तब मिलेगा जनता को उसका हक़ और तब बनेगा भारत सोने की चिड़िया। केवल थोथे वायदों और प्रचार पर भरोसा करना बंद करें और अपने दिल और दिमाग़ से पूछें कि क्या देख रहे हो? तब नेता भी सुधरेंगे और देश भी। 

 

Monday, September 12, 2022

देश में कई ट्रॉमा सेंटर होने चाहिए

 


टाटा समूह के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री की एक सड़क दुर्घटना में हुई मृत्यु से देश भर में सड़क सुरक्षा को लेकर कई सवाल उठने लगे हैं। सड़क दुर्घटना में चोटिल व्यक्ति को यदि समय पर प्राथमिक उपचार मिल जाए तो अधिकतर मामलों में घायल व्यक्ति की जान बचाई जा सकती है। साइरस मिस्त्री की मृत्यु के बाद एक ओर जहां सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गड़करी ने एक आदेश जारी किया है जिसके तहत अब से कार में पीछे बैठने वाले अगर सीट बेल्ट नहीं लगाएँगे तो उनका भी चालान होगा। वहीं सड़क सुरक्षा को लेकर अन्य कई सवाल भी उठने लग गए हैं। इनमें से अहम है देश में ट्रॉमा सेंटर्स की भारी कमी का होना। 


ट्रॉमा सेंटर एक ऐसा अस्पताल होता है जो ऊँचाई से गिरने, सड़क दुर्घटना, हिंसा आदि जैसे हादसों में घायल रोगियों की प्राथमिक चिकित्सा व देखभाल के लिए विशेष स्टाफ़ से लैस रहता है। आम तौर पर ट्रॉमा सेंटर में केवल गम्भीर रूप से चोटिल व्यक्तियों का ही इलाज चलता है। प्राथमिक उपचार के बाद यदि किसी मरीज़ को किसी अन्य विशेषज्ञ से इलाज की ज़रूरत होती है तो उसे आम अस्पताल में भेज दिया जाता है। यानी ट्रॉमा सेंटर में रोज़मर्रा के मरीज़ नहीं देखे जाते।



असल में दर्दनाक चोट अपने आप में एक रोग प्रक्रिया है, जिसके लिए विशेष और अनुभवी उपचार और विशेष संसाधनों की आवश्यकता होती है। यदि ऐसे उपचारों को आम अस्पतालों में ही किया जाए तो आम मरीज़ों की भीड़ के चलते ट्रॉमा सेंटर की विशेष प्रक्रिया में असर पड़ सकता है। दुनिया का पहला ट्रॉमा सेंटर बर्मिंघम दुर्घटना अस्पताल था जो 1941 में बर्मिंघम, इंग्लैंड में खोला गया था। इस अस्पताल को आम रोगियों के बजाए गम्भीर रूप से घायलों के इलाज के लिए विशेष रूप से स्थापित किया गया था। ट्रॉमा सेंटर के उच्चतम स्तर पर विशेषज्ञ चिकित्सा और नर्सिंग देखभाल तक पहुंच है, जिसमें आपातकालीन चिकित्सा, आघात सर्जरी, महत्वपूर्ण देखभाल, न्यूरोसर्जरी, आर्थोपेडिक सर्जरी, एनेस्थिसियोलॉजी और रेडियोलॉजी के साथ-साथ अत्यधिक विशिष्ट और परिष्कृत सर्जिकल और नैदानिक उपकरण की एक विस्तृत विविधता शामिल है। 


आज हमारे देश में यदि कोई बड़ा हादसा हो तो उससे निपटने के लिए देश में कितने ट्रॉमा सेंटर हैं? मौजूदा अस्पतालों को सही ढंग से चलाने में सरकारें कितनी कामयाब हैं इसका अंदाज़ा निजी अस्पतालों की लोकप्रियता से लगाया जा सकता है। आम तौर पर यदि कोई व्यक्ति किसी सरकारी अस्पताल में जाता है तो या तो वहाँ पर डाक्टरों की कमी होती है या फिर वहाँ लगे उपकरण ठीक से नहीं चलते। मजबूरन जाँच करवाने के लिए मरीज़ों को निजी क्लिनिक या अस्पतालों का रुख़ करना पड़ता है जो उनकी जेब पर भारी पड़ता है। यदि मरीज़ों को सरकारी अस्पतालों में सभी सुविधाएँ उपलब्ध हो जाएं तो भला वे निजी अस्पतालों में क्यों जाएं? हमारी सरकारें और अफ़सर बात-बात में यूरोप और अमरीका का उदाहरण देते हैं। जबकि वहाँ सबको सरकारी स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध हैं और हमारी सरकारें अपने सरकारी अस्पतालों को बैंड करती जा रही हैं। जबकि हमारे देश में ग़रीबों की संख्या कहीं ज़्यादा है और वो निजी अस्पताल का खर्च वहन नहीं कर सकते। 



राजनेताओं द्वारा अक्सर मतदाताओं को लुभाने के लिए ऐसे वादे कर दिए जाते हैं जो पूरे नहीं होते। चुनावी वादों में स्वास्थ्य सम्बन्धी योजनाएँ भी ऐलान की जाती हैं। इन योजनाओं में करोड़ों की लागत से बनने वाले बड़े-बड़े अस्पताल और ट्रॉमा सेंटर भी शामिल होते हैं। लेकिन ज़रूरत इस बात की है कि करोड़ों रुपए के नए-नए अस्पतालों को बनाने की बजाय मौजूदा अस्पतालों को दुरुस्त किया जाए। उनकी दशा सुधारी जाए। उनमें मेडिकल उपकरण, दवाओं और जेनरेटर जैसी सुविधाएँ दी जाएं क्योंकि अक्सर छोटे शहरों में बिजली की आपूर्ति नियमित नहीं होती। राजमार्गों पर निश्चित दूरी पर ट्रॉमा सेंटर या अस्पतालों की सुविधा भी बनाई जाए और इनका व्यापक प्रचार भी किया जाए। जैसे हमें राजमार्गों और एक्सप्रेसवे पर जगह-जगह पेट्रोल पम्प और विश्राम स्थल की जानकारी के बोर्ड दिखाई देते हैं वैसे ही इन अस्पतालों/ ट्रॉमा सेंटर की जानकारी भी उपलब्ध होनी चाहिए। 


दिल्ली के प्रतिष्ठित ‘एम्स’ अस्पताल के अधीन जयप्रकाश नारायण एपेक्स ट्रॉमा सेंटर को देश का सर्वश्रेष्ठ ट्रॉमा सेंटर माना जाता है। कई सालों से इस ट्रॉमा सेंटर में कई जटिल उपचार सफलता पूर्वक किए गए हैं। इनमें से एक चर्चित मामला ऐसा था जो शायद आपको भी याद होगा। 19 अप्रेल 2010 को दिल्ली के ग्रेटर कैलाश के पास गाड़ी चला रहे कुवात्रा अदामा नाम के एक विदेशी नागरिक की गाड़ी सरियों से लदे ट्रक में जा भिड़ी। दुर्घटना में ट्रक से लटकते हुए सरिए अदामा की छाती के आर-पार हो गए। दुर्घटना में सरिए इस कदर शरीर के आर-पार हुए कि अदामा और उनके पीछे बैठे मित्र दोनों को अपनी चपेट में ले लिया। इन दोनों घायलों को एम्स के ट्रॉमा सेंटर लाया गया। एम्स ट्रॉमा सेंटर के वरिष्ठ ट्रॉमा सर्जन डॉ अमित गुप्ता की टीम ने इस चुनौतीपूर्ण सर्जरी को सफलतापूर्वक किया। इस घटना को याद करते हुए डॉ गुप्ता बताते हैं कि यह एक ऐसा मामला था जहां दुर्घटना की शिकार गाड़ी को डाक्टरों की निगरानी में अस्पताल के अंदर ही काटा गया। चूँकि सरिए इस तरह से आर-पार हुए थे कि मरीज़ को लेटाना भी संभव नहीं था। लेकिन एम्स ट्रॉमा सेंटर के अनुभवी डाक्टरों की टीम ने इसे सफलतापूर्वक कर दिखाया और अदामा और उनके मित्र को एक नया जीवन दिया। 


सवाल यह है कि देश में एम्स ट्रॉमा सेंटर जैसे कितने अस्पताल हैं? शायद हम उन्हें उँगलियों पर ही गिन लें। इसलिए इनकी संख्या बढ़ाने की ज़रूरत है। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी हो गया है क्योंकि देश में उच्च गुणवत्ता वाले राष्ट्रीय राजमार्गों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। इसके साथ ही बढ़ रही है नवीनतम मॉडल की कारों की संख्या। इन चमचमाती गाड़ियों और चिकनी साफ़ सड़कों पर तेज रफ़्तार से गाड़ी दौड़ने का लोभ युवा पीढ़ी रोक नहीं पाती है और आय दिन ख़तरनाक दुर्घटनाओं का शिकार होती है। इसलिए ट्रॉमा सेण्टरों की संख्या बढ़ाना और इसके साथ ही अति आधुनिक ट्रॉमा एम्बुलेंसों की तैनाती इन राजमार्गों पर कर दी जाए तो बहुत सी क़ीमती जाने बच सकती हैं। 

Monday, September 5, 2022

तेलंगाना : प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या?


कहावत है कि क्रिकेट और राजनीति अनिश्चिताओं का खेल होते है। क्रिकेट में पारी की आख़री बॉल टीम को जीता भी सकती है और हरा भी सकती है। क्या किसी ने कभी सोचा था कि चरण सिंह, वी पी सिंह, चंद्रशेखर, आई के गुजराल और एच डी देवेगोड़ा भारत के प्रधान मंत्री बनेंगे। जबकि किसी के पास प्रधान मंत्री बनने लायक सांसद तो क्या उसका पाँचवाँ हिस्सा भी सांसद नहीं थे। आई के गुजराल तो ऐसे प्रधान मंत्री थे जो अपने बूते एक लोक सभा की सीट भी नहीं जीत सकते थे। फिर भी ये सब प्रधान मंत्री बने। वो अलग बात है कि इनका प्रधान मंत्री बनना किसी अखिल भारतीय आंदोलन की परिणिति नहीं था बल्कि उस समय की राजनैतिक परिस्थितियों ने इन्हें ये मौक़ा दिया। 


एक बार फिर देश के हालत ऐसे हो रहे हैं कि देश की बहुसंख्यक आबादी शायद सत्ता परिवर्तन देखना चाहती है। एक तरफ़ वो लोग हैं जो मानते हैं कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता घटी नहीं है और भाजपा के समान ताक़त, पैसा और संगठन किसी दल के पास नहीं है। इसलिए 2024 का चुनाव एक बार फिर मोदी के पक्ष में ही जाएगा। 



पर दूसरी तरफ़ वो राजनैतिक विश्लेषक हैं जो यह बताते हैं की देश की कुल 4139 विधान सभा सीटों में से भाजपा के पास केवल 1516 सीटें ही हैं। जिनमें से 950 सीटें 6 राज्यों में ही हैं। आज भी देश की 66 फ़ीसद सीटों पर भाजपा को हार का मुँह  देखना पड़ा है। इसलिए उनका कहना है कि देश में भाजपा की कोई लहर नहीं है। इसलिये मुख्य धारा की मीडिया के द्वारा भाजपा का रात-दिन जो प्रचार किया जाता है वह ज़मीनी हक़ीक़त से कोसों दूर है। इनका यह भी कहना है कि मतदाता का भाजपा से अब तेज़ी से मोह भंग हो रहा है। पहले पाँच साल तो आश्वासनों और उम्मीद में कट गए, लेकिन एनडीए 2 के दौर में किसानों की दुर्दशा, महंगाई व बेरोज़गारी जैसी बड़ी समस्याओं का कोई हाल अभी तक नज़र नहीं आ रहा। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों के अनुसार भारत में  पिछले वर्ष दिहाड़ी मज़दूरों की आत्महत्याएँ तेज़ी से बढ़ी हैं। हर आत्महत्या करने वालों में चौथा व्यक्ति दिहाड़ी मज़दूर है, जो देश के ग़रीबों की दयनीय दशा का प्रमाण है। 


सरकार द्वारा करोड़ों लोगों को मुफ़्त का राशन दिया जाना यह सिद्ध करता है कि देश में इतनी ग़रीबी है कि एक परिवार दो वक्त पेट भर कर भोजन भी नहीं कर सकता। स्वास्थ्य और शिक्षा की बात तो भूल जाइए। इस दुर्दशा के लिए आज़ादी के बाद से आई हर सरकार ज़िम्मेदार है। ‘ग़रीबी हटाओ’ का बरसों नारा देने वाली कांग्रेस पार्टी ग़रीबी नहीं हटा पाई। इसलिए उसे ‘मनरेगा' जैसी योजनाएँ लाकर ग़रीबों को राहत देनी पड़ी। ये वही योजना है जिसका भाजपा की सरकार ने शुरू में कांग्रेस पर कटाक्ष करते हुए खूब मज़ाक़ उड़ाया था। पर इस योजना को बंद करने का साहस भाजपा भी नहीं दिखा सकी। कोविड काल में तो ‘मनरेगा’ से ही सरकार की इज़्ज़त बच पाई। मतलब ये कि ‘सबका साथ सबका विकास’ का भाजपा का नारा भी ‘ग़रीबी हटाओ’ के नारे की तरह हवा-हवाई ही रहा? 



हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि पिछले आठ बरसों में हमारे देश के एक उद्योगपति गौतम आडानी दुनिया के तीसरे सबसे धनी व्यक्ति बन गये। जबकि आठ बरस पहले दुनिया के धनी लोगों की सूची में उनका नाम दूर-दूर तक कहीं नहीं था। अगर इतनी अधिक न सही पर इसके आस-पास की भी आर्थिक प्रगति भारत के अन्य औद्योगिक घरानों ने की होती या औसत हिंदुस्तानी की आय थोड़ी भी बढ़ी होती तो आँसूँ पौंछने लायक स्थिति हो जाती। तब यह माना जा सकता था कि वर्तमान सरकार की नीति ‘सबका साथ और सबका विकास’ करने की है। 


इन हालातों में दक्षिण भारत का छोटा से राज्य तेलंगाना के आर्थिक विकास का उदाहरण धीरे-धीरे देश में चर्चा का विषय बनता जा रहा है। देश का सबसे युवा प्रदेश तेलंगाना आठ बरस पहले जब अलग राज्य बना तो इसकी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी। कृषि, उद्योग, रोज़गार, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे हर मामले में ये एक पिछड़ा राज्य था। पर लम्बा संघर्ष कर तेलंगाना राज्य को बनवाने वाले के चंद्रशेखर राव (केसीआर) नये राज्य के मुख्य मंत्री बन कर ही चुप नहीं बैठे। उन्होंने किसानी के अपने अनुभव और दूरदृष्टि से सीईओ की तरह दिन-रात एक करके, हर मोर्चे पर ऐसी अद्भुत कामयाबी हासिल की है कि इतने कम समय में तेलंगाना भारत का सबसे तेज़ी से विकसित होने वाला प्रदेश बन गया है। 


पिछले हफ़्ते पटना में बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार और उप मुख्य मंत्री तेजस्वी यादव ने भी सार्वजनिक रूप से तेलंगाना की प्रगति की प्रशंसा की। उससे एक हफ़्ता पहले देश के 26 राज्यों के किसान संगठनों के 100 से अधिक किसान नेता तेलंगाना पहुँचे, ये देखने कि केसीआर के शासन में तेलंगाना का किसान कितना खुशहाल हो गया है। ये सब किसान नेता उसके बाद इस संकल्प के साथ अपने-अपने प्रदेशों को लौटे हैं कि अपने राज्यों की सरकारों पर दबाव डालेंगे कि वे भी किसानों के हित में तेलंगाना के मॉडल को अपनाएँ। 


मैंने खुद तेलंगाना के विभिन्न अंचलों में जा कर तेलंगाना के कृषि, सिंचाई, कुटीर व बड़े उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण के क्षेत्र में जो प्रगति देखी वो आश्चर्यचकित करने वाली है। दिल्ली में चार दशक से पत्रकारिता करने के बावजूद न तो मुझे इस उपलब्धि का कोई अंदाज़ा था और न ही केसीआर के बारे में सामान्य से ज़्यादा कुछ भी पता था। लेकिन अब लगता है कि विपक्षी एकता का प्रयास या 2024 का लोक सभा चुनाव तो एक सीढ़ी मात्र है, केसीआर की योजना तो पूरे भारत में तेलंगाना जैसी प्रगति करके दिखाने की है। चुनाव में कौन जीतता है, कौन प्रधान मंत्री बनता है, ये तो मतदाता के मत और उस व्यक्ति के भाग्य पर निर्भर करेगा। पर एक बार शेष भारत के हर पत्रकार का इस प्रगति को देखने के लिए तेलंगाना जाना तो ज़रूर बनता है। क्योंकि कहावत है कि ‘प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता’ नहीं होती। प्रांतीय सरकारों को ही नहीं भाजपा की केंद्र सरकार को भी केसीआर से दुश्मनी मानने के बजाय उनके काम का निष्पक्ष मूल्यांकन करके उनसे कुछ सीखना चाहिए।