Friday, March 28, 2003

बेकार का युद्ध


इराक पर जबरन थोपा गया युद्ध अमरीका द्वारा अपनी दादागीरी विश्व पर कायम रखने का ही एक प्रयास है। इराक पर हजारों बम गिराकर उसने जता दिया है कि वह जो चाहेगा, करेगा। चाहे विश्व समुदाय उसे सही माने या गलत, इससे उसे कोई मतलब नहीं। वैसे इसमें नई बात कुछ भी नहीं है। सत्ता के मद में शासक ऐसा बार-बार करते आए हैं। मानवता का इतिहास जर, जोरू और जमीन के लिए हुई सैकड़ों लड़ाइयों की दास्तानों से भरा पड़ा है। सिंकदर-ए-आजम ने छोटी सी उम्र में दुनिया के एक बड़े हिस्से को रौंद डाला था। पर, भारत की सीमा तक पहंुचते-पहंुचते उसे बोध हुआ ऐसे युद्धों की निरर्थकता का। जब एक फकीर ने उससे प्रश्न किया कि तुम अपने वतन से इतनी दूर तक लड़ते हुए क्यों चले आए ? तो सिकंदर का जवाब था कि वो पूरी दुनिया पर नियंत्रण करना चाहता है। फकीर हंसा और सिकंदर से कहा  कि तुम दुनिया पर क्या नियंत्रण करोगे, तुम तो जिस चमड़े पर खड़े हो वो भी तुम्हारी सत्ता को नहीं मानता। तुम जिधर पैर रखते हो दब जाता है। पर जहां से तुम्हारा पैर उठता है वहां चमड़ा भी फिर उठ खड़ा होता है। सिंकदर ने अपने पैरों के नीचे दबे सूखे चमड़े को देखा और उसे बोध हुआ। वो बिना आगे बढ़े लौट गया। कहते हैं कि जब सिकंदर का अंत समय आया तो उसने इच्छा जाहिर की कि उसके जनाजे के साथ उसकी दौलत का भी जनाजा निकाला जाए ताकि दुनिया को पता चले कि पूरी दुनिया का बादशाह जब दुनिया से गया तो उसके दोनों हाथ खाली थे। सदियों से सुनी जा रही यह कहानियां बेमानी नहीं हैं। इनके पीछे इक संदेश छिपा है। राष्ट्रपति बुश जैसे हुक्मरानों के लिए। सत्ता के मद में इतना अहंकार मत करो कि दुनिया  तबाह हो जाए। एक बार मैंने अमरीका के शहर विस्कोन्सिन में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान अमरीका के सबसे ज्यादा ताकतवर रक्षा सचिव रहे मैक नमारा से पूछा कि उन्होंने वियतनाम के विरुद्ध जो लंबी लड़ाई लड़ी उससे उन्हें क्या हासिल हुआ ? शायद श्री नमारा ऐसे सवाल पहले भी कई बार झेल चुके थे। उन्होंने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया, कि वो हमारी एक बड़ी भूल थी। पर, कुछ इंसानों की भूल केवल उनकी निजी जिंदगी को प्रभावित करती है और जब सत्ताधीश ऐसी बड़ी भूल करते हैं तो लाखों-करोड़ों जिंदगियां तबाह हो जाती हैं। बच्चे अनाथ हो जाते हैं। महिलाएं विधवा हो जाती हैं। बूढ़े मां-बाप अपने बुढ़ापे की लाठी खो देते हैं। शहर के शहर खंडहरों में तब्दील हो जाते हैं। इन युद्धों से केवल नफरत पैदा होती है। जो इन अनाथ बच्चों को अपराधी बना देती है। वे हिंसक हो जाते हैं। दशाब्दियां लगती हैं इन जख्मों के भरने में। वियतनाम ने अमरीकी सैनिकों की स्थानीय महिलाओं के साथ की गई जबरदस्ती के परिणामस्वरूप पैदा हुई हजारों अवैध संतानें आज तक सामान्य जीवन नहीं जी पा रही हैं। हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु हमले के बाद जो मौत का तांडव हुआ उसने पूरी दुनिया का दिल दहला दिया था। वहां आज भी मांएं पूरी तरह स्वस्थ बच्चों को जन्म नहीं देतीं। मानवता के विरुद्ध ऐसा जघन्य अपराध करने के बाद अगर श्री मैक नमारा जैसे जिम्मेदार लोग केवल इतना ही कहते हैं कि वह हमारी बड़ी भूल थी, तो इससे अगर जख्म न भरें, पर कम से कम यह तो मानना चाहिए कि समझदार आदमी दुबारा ऐसी भूल नहीं करेगा। दुख की बात है कि अमरीका यूं तो अपने को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ देश बताता है और आम अमरीकी एक गर्व और अहंकार की भावना के साथ जीता है, पर अमरीकी राष्ट्रपति और सत्ताधारी वर्ग को इतनी भी सामान्य समझ नहीं कि अपने जिस कदम को वो पहले अपनी भूल मान चुके हों वैसे कदम फिर न उठाएं। 

पूरे भारत पर अपनी विजय पताका फहराने के बाद मौर्यवंशी सम्राट अशोक को कलिंग के युद्ध के बाद जो ग्लानि हुई, उसने उसे बौद्ध धर्म अपनाने को प्रेरित किया। देवानाम प्रियदस्सी अशोक ने उसके बाद बहुजन हिताय जीवन जिया। मानव ही नहीं प्राणी मात्र के कल्याण के लिए शेष जीवन जुटा रहा। राजा होते हुए भी एक बौद्ध भिक्षुक जैसा जीवन अपना लिया। गलती करना इतनी बुरी बात नहीं, जितना गलती से सबक न लेना है। आज अमरीका ईराक में जो कुछ कर रहा है वह केवल उसके अहंकार का प्रदर्शन है। पूरी दुनिया इस वक्त अमरीका के इस अमानवीय कृत्य का विरोध कर रही है। दूसरे देशों के लोगों की उसे परवाह न भी हो तो भी ये कम महत्वपूर्ण नहीं कि बहुसंख्यक अमरीकी समाज जार्ज बुश के इस कृत्य से बेहद दुखी है। लाखों अमरीकी स्त्री-पुरुष-नौजवान अमरीका के हर शहर की सड़कों पर अपने ही राष्ट्रपति की ईराक नीति का विरोध कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ में पहले ही बुश का विरोध हो चुका है। बावजूद इसके अगर अमरीका ईराक में तबाही मचाने पर आमादा है और उसके लड़ाकू विमान ईराक के सामान्य नागरिकों को निशाना बना रहे हैं। इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है कि लोकतंत्र और मानवीय स्वतंत्रता का सबसे बड़ा रक्षक और दावेदार अमरीका इस किस्म का वहशियाना कृत्य करे और लोकतांत्रिक तरीके से उसके विरुद्ध  दुनिया भर में हो रहे जन प्रदर्शनों की उपेक्षा कर दे ? साफ जाहिर है कि समानता, स्वतंत्रता और लोकतंत्र का अमरीका केवल ढकोसला करता है। उसका इन मूल्यों में कोई विश्वास नहीं है। होता तो जन भावनाओं की ऐसी उपेक्षा करने का नैतिक बल उसमें न होता। 

इस युद्ध का प्रभाव केवल ईराक के लोगों पर ही पड़ेगा, ऐसी बात नहीं है। युद्ध के बादल दुनिया भर के पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित करेंगे। पर्यावरणविद् अनेक आशंकाओं से भयभीत हैं। दुनिया भर के अखबार उनके वैज्ञानिक आंकलन से भरे पड़े हैं। इस युद्ध का दुनिया की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा। खुद अमरीका की अर्थव्यवस्था भी काफी हद तक हिल जाएगी। इतनी भारी कीमत चुकाकर आखिर अमरीका को हासिल क्या होगा ? ईराक के तेल के कुओं पर नियंत्रण ही तो। एक धु्रवीय विश्व व्यवस्था कायम हो जाने के बाद अमरीका पहले से ही दुनिया का ठेकेदार बना हुआ है। किसी की मजाल नहीं जो उससे निगाह मिलाकर बात कर ले। सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था ही नहीं बल्कि खानपान और संस्कृति पर भी अब अमरीकी दबाव बढ़ता जा रहा है। ऐसे में दुनिया का आर्थिक दोहन करने की असीम संभावनाएं अमरीका के पास हैं। अगर एक सद्दाम कब्जे में नहीं आ रहा तो कौन सा आसमान फटा पड़ रहा है ? पर इन बातों से क्या फायदा ? जिसने अपने मन की ही करने की ठान ली हो उसे भगवान भी नहीं समझा सकता। यह बात दूसरी है कि 11 सितंबर के हमले के बाद से आम अमरीकी बेहद डरा हुआ है तथा भय और आतंक के बीच जी रहा है। ईराक पर हमला करके अमरीका ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। कहीं ऐसा न हो कि ईराक के बागी जवान दुनिया में जगह जगह अमरीका के लोगों को अपने आक्रोश का निशाना बनाएं। हो सकता है कि जार्ज बुश, सद्दाम को नेस्तनाबूद कर दें और यह भी हो सकता है कि वियतनाम की तरह अमरीका को इस युद्ध में भी मुंह की खानी पड़े। तब फिर सेवानिवृत्त जार्ज बुश भी मैक नमारा की तरह किसी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में किसी पत्रकार के प्रश्न पर यही कहेंगे कि ईराक का युद्ध मेरे जीवन की बहुत बड़ी भूल थी। उनकी इस भूल की भारी कीमत दुनिया को आज चुकानी पड़ रही है। कितनी अजीब बात है कि संयुक्त राष्ट्र संघ, सशक्त मीडिया और राष्ट्रों के अनेक संगठनों के बावजूद पूरी दुनिया आज कितनी असहाय है कि एक अडि़यल जार्ज बुश को सद्बुद्धि नहीं दे सकती। फिर इन संस्थाओं और संगठनों का क्या औचित्य ? क्यों इन पर गरीब देशों का अरबों रुपया खर्च किया जाता है ? अगर दुनिया की राजनीति में जिसकी लाठी उसकी भैंस ही चलनी है तो इस सब नाटक की क्या जरूरत ? विश्व समुदाय के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण सवाल है। फिर कोई अडि़यल राष्ट्रपति ऐसा न कर पाए इसलिए दुनिया भर के संवेदनशील लोगों को कोई रास्ता निकालना होगा।

Friday, March 14, 2003

मुलायम माया में तकरार


समाजवादी पार्टी के नेता श्री मुलायम सिंह यादव ने सुश्री मायावती की उनके विधायकों के साथ अंतरंग बैठक का वीडियो टेप जारी करके बसपा के खेमे में हड़कंप मचा दिया। टीवी चैनलों पर बार-बार प्रसारित किए गए इन टेपों में सुश्री मायावती को अपने दल के विधायकों व सांसदों से विकास निधि का एक हिस्सा दल के कोष में नियमित देने का आदेश देते हुए दिखाया गया है। भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून के तहत यह मांग अनुचित ही नहीं, अपराध भी है। इस टेप के सार्वजनिक प्रदर्शन के बाद बौखलाई सुश्री मायावती ने सपा पर पलटवार करने शुरू किए। साथ ही श्री यादव को यह धमकी भी दी कि उनकी सरकार के पास मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल के दौरान किए गए घोटालों की पूरी फेहरिस्त है, जिसका खुलासा वे निकट भविष्य में करेंगी। अपनी सफाई में सुश्री मायावती ने टेपों में लगे आरोपों को बेबुनियाद और तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करने वाला बताया है। वहीं दूसरी ओर सपा के नेताओं पर उत्तर प्रदेश सरकार के छापे और धरपकड़ मंे अचानक तेजी आ गई है। विपक्षी दलों ने संसद में सुश्री मायावती के इस्तीफे की मांग बड़ी जोर शोर से उठाई तो सुश्री मायावती दौड़ी-दौड़ी दिल्ली आईं और प्रधानमंत्री से मिलकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की घोषणा कर दी।

विधायक और सांसदों की राशि से कमीशन लिया जाता है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। सुश्री मायावती से संबंधित वीडियो टेपों ने इसे और भी पुष्ट कर दिया है। यह सही है कि सभी सांसद और विधायक अपनी विकास राधि में से कमीशन नहीं लेते, पर अगर गुप्त रूप से जांच कराई जाए तो पता चलेगा कि बहुसंख्यक विधायक और सांसद ऐसे हैं जिनके बारे में इस राशि को लेकर उनके ही संसदीय क्षेत्र में तमाम तरह की बातें कही जाती हैं। दरअसल जिस तरीके से यह कोष बनाया गया है और जिस तरह से इसका मनमाना इस्तेमाल होता है उससे इसके औचित्य पर सवालिया निशान लगना स्वाभाविक ही है। विधायकों और सांसदों का काम कानून बनाना होता है। उनका काम जन भावनाओं को सरकार के समक्ष रखना होता है। विधायिका के सदस्य होने के नाते कार्यपालिका के कामकाज पर कड़ी निगरानी रखने का जिम्मा भी विधायकों या सांसदों के जिम्मे ही होता है। लेकिन संविधान के निर्माताओं ने कहीं भी इस तरह का संकेत नहीं दिया था कि भविष्य में विधायिका कार्यपालिका की भूमिका निभाने लगेगी। अगर संविधान निर्मात्री समिति इस बात की जरूरत समझती तो वह निश्चित रूप से सांसद और विधायकों के लिए विकास कोष की व्यवस्था किए जाने की वकालत करती। पर उनके दिमाग साफ थे और वे जानते थे कि विधायिका के सदस्यों द्वारा कार्यपालिका की भूमिका को जांचते परखते रहना ही उनका मुख्य दायित्व होना चाहिए। फिर क्यों इस कोष की स्थापना की गई ?
जहां एक तरफ देश के आम लोगों को बुनियादी जरूरतें मुहैया कराना भी साधनों के अभाव में सरकार के लिए मुश्किल होता जा रहा है और हर आदमी को यह कहकर चुप कर दिया जाता है कि सरकार आर्थिक संकट से गुजर रही है, वहीं सांसदों और विधायकों को यह कोष देकर इसको मनमाने तरीके से खर्च करने की छूट दे दी गई है। जहां कुछ सांसद और विधायक इस कोष का सही योजनाओं में इस्तेमाल कर रहे हैं वहीं ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि इस कोष के धन से कम उपयोगी या निजी हितों को साधने वाले काम होते हैं। जबकि इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण योजनाएं धन के अभाव में रुकी पड़ी रहती हैं। सांसद और विधायक लगातार इस राशि को बढ़ाने की मांग करते रहते हैं। पिछले कुछ वर्षों में ये राशि प्रति सांसद एक करोड़ से बढ़कर तीन करोढ़ रुपये तक पहंुच गई है। चूंकि इस राशि का उपयोग भी स्थानीय प्रशासन की निगरानी में ही होता है इसलिए अब जनप्रतिनिधियों को प्रशासन से तालमेल बिठाकर चलना पड़ता है। खासकर उनको जिनका इरादा इस राशि में से या तो कमीशन खाना होता है या अपने चहेतों को काम दिलवाना। माना तो ये जाता है कि लोकतंत्र मंे जनता सर्वोपरि होती है इसलिए निर्वाचित जनप्रतिनिधि कार्यपालिका से श्रेष्ठ स्थिति में होता है। पर इस कोष के चलते विधायिका के सदस्य अब कार्यपालिका के प्रति वैसा कड़ा रवैया नहीं अपना पाते जैसा वे तब अपनाते थे जब उनकी भूमिका केवल कानून बनाने तक सीमित थी। तब प्रशासन में उनका डर होता था। आज प्रशासन उन्हें उंगलियों पर नचाता है। बहुत दिन नहीं हुए जब सपा नेता फूलन देवी का मिर्जापुर के जिलाधिकारी से इसी तरह के लेन-देन को लेकर झगड़ा हुआ था और यह विवाद बहुत दिनों तक अखबारों में छाया रहा था। ऐसे माहौल में जब हमाम में सभी नंगे हों तो सपा के शोर मचाने से कुछ सिद्ध होने वाला नहीं है।
आवश्यकता इस बात की है कि सांसदों और विधायकों की इस निधि को तुरंत समाप्त किया जाए और उनसे कहा जाए कि आप लोग अपना ध्यान कार्यपालिका की कार्यकुशलता पर केंद्रित करें। जहां तक राजनीति में भ्रष्टाचार का सवाल है यह विषय अब इतना संवेदनशील नहीं रहा। जिस तरह पिछले दस वर्षों में एक के बाद एक घोटाले उजागर हुए, और सबमें देश के हर दल के बड़े नेताओं के नाम शामिल रहे उससे अब इस बात में कोई संदेह नहीं रह गया है कि राजनीति और भ्रष्टाचार एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। अंतर केवल मात्रा का हो सकता है। कोई ज्यादा भ्रष्ट, तो कोई कम भ्रष्ट। ईमानदार लोग तो राजनीति में कामयाब ही नहीं हो पाते या व्यवस्था से दरकिनार कर दिए जाते हैं। इन घोटालों की जांच में कोताही होना और नेताओं का उनसे छूट जाना न्यायपालिका और जांच एजेंसियांे को सवालों के घेरे में खड़ा करता रहा है। धीरे धीरे जनता का विश्वास जांच की इन प्रक्रियाओं से उठता जा रहा है और जनता यह मान चुकी है कि कितना भी बड़ा घोटाला क्यों न सामने आए आरोपित व्यक्ति का कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है। इससे देश में जहां एक ओर हताशा बढ़ी है वहीं राजनैतिक भ्रष्टाचार में निर्लज्जता भी खूब बढ़ी है। ऐसे माहौल में चाहे चारा घोटाला उछले या हवाला, तहलका टेप कांड हो या मायावती टेप कांड, किसी से भी व्यवस्था में सुधार नहीं होता। जब किसी एक दल के कुछ राजनेता ऐसे घोटालों में फंसते हैं तो उनके राजनैतिक विरोधी शोर मचाकर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। संसद की कार्यवाही तक नहीं चलने देते। पर जब उनके सहयोगी दल के भ्रष्टाचार के मामले सामने आते हैं तो वे खामोश हो जाते हैं। मसलन, हवाला कांड में लगभग सभी बड़े राजनैतिक दलों के नेता आरोपित थे इसलिए किसी भी दल ने इस कांड को लेकर न तो शोर मचाया और न ही उसकी ईमानदारी से जांच की मांग की। आज भी जो शोर मच रहा है वो इसी तरह का है। अगर श्री मुलायम सिंह यादव को सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता की इतनी सख्त जरूरत महसूस हो रही है तो क्या वजह है कि भ्रष्टाचार के सवाल पर वे हमेशा ऐसा रुख नहीं अपनाते। अनेक मामलों में पूरी खामोशी अख्तियार कर लेते हैं। यही हाल दूसरे दल के नेताओं का भी है। सब केवल अपने विरोधियों के भ्रष्टाचार के मामले पर शोर मचाकर राजनीतिक फायदा उठाना चाहते हैं। भ्रष्टाचार को दूर करने में किसी की रुचि नहीं है। ऐसे में मायावती और मुलायम सिंह यादव को विवाद सर्कस के तमाशे की तरह कुछ ही दिनों में आंखों के आगे से ओझल हो जाएगा। सब कुछ यथावत चलता रहेगा। इसलिए इन घोटालों के उछलने से कोई उद्वेलित नहीं होता।

Friday, March 7, 2003

शिमला का संदेश


हिमाचल प्रदेश का चुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण था इसलिए सारे देश की निगाह इस पर लगी थी। गुजरात के बाद जहां भाजपा में हिंदुत्व के एजेंडे पर अति उत्साह था वहीं इंका असमंजस में थी कि वो क्या करे ? नर्म हिंदुत्व अपनाए या धर्मनिरपेक्षतावाद पर ही चलती रहे। हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजों ने यह सिद्ध किया कि केवल हिन्दुत्व के नाम पर मतदाता को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। कुशल और पारदर्शी प्रशासन देना भी उतना ही जरूरी है जितना भविष्य के सुनहरे सपने दिखाना। हिमाचल प्रदेश के 99 फीसदी मतदाता हिन्दू हैं और भाजपा हिमाचल प्रदेश को अपना गढ मानती आई है फिर भी वहां के मतदाताओं ने कांग्रेस की सरकार बनाना तय किया और भाजपा को धूल चटा दी।

प्रधानमंत्री इसके लिए पार्टी की आंतरिक कलह को दोषी ठहराते हैं। यह सही है कि आज भाजपा में जितनी आंतरिक कलह है उतनी चार-पांच वर्ष पहले नहीं थी। अगर कोई मतभेद थे भी तो वे शीर्ष स्तर के राजनेताओं के बीच में थे। भाजपा का सामान्य कार्यकर्ता हिंदुत्व के लिए समर्पित था। त्याग करने को तैयार था और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कड़ी टेªनिंग के कारण कम खर्चे मेें काम चलाने का अभ्यस्त था। वाजपेयी जी को सोचना चाहिए कि उनका कार्यकर्ता आज देश सेवा की उसी भावना से काम क्यों नहीं कर रहा ? शायद वाजपेयी जी को मालूम हो कि जबसे केन्द्र और राज्यों में भाजपा की सरकार बनी है तब से भाजपा की सरकारों ने भ्रष्टाचार के पुराने सभी रिकार्ड तोड़ दिए हैं। सत्ता की मोहिनी अच्छे-अच्छे तपस्वियों का ईमान डिगा देती है। भाजपा से जुड़ा हर व्यक्ति जानता है कि इस भ्रष्टाचार की नदी में डूबने वाले भाजपा के हर स्तर के नेता अपने कार्यकर्ताओं से रिश्वत और लूट की रकम नहीं बांटते। भाजपा के जो नेता सत्ता में रह लिए है उनका जीवन स्तर रातो रात कई गुना बढ़ गया है। जबकि आम कार्यकर्ता जस के तस हैं। इससे उनके मन में भारी आक्रोश है। भाजपा में चल रही अंदरूनी गुटबाजी का यही कारण है। पुरानी कहावत है कि, ‘हम भी खेलेंगे, नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे।सो, इन कार्यकर्ताओं ने भाजपा का हिमाचल प्रदेश में खेल बिगाड़ दिया। अन्य राज्यों में भी भाजपा की स्थिति कोई अच्छी नहीं। वहां भी इसी तरह की अंतर-कलह चल रही है। जिसे अगर रोका न गया तो भाजपा को हिमाचल प्रदेश से भी ज्यादा बड़ी पराजय का मुंह देखना पड़ सकता है।

मुश्किल ये है कि एक तरफ तो संघ है जो त्याग, तपस्या और राष्ट्रनिर्माण की शिक्षा देता है और दूसरी तरफ सत्ता की मोहिनी है। जिसकी काजल कोठरी में जो भी जाता है वह हाथ काले किए बिना नहीं रहता। यहां तक कि संघ से आए हुए राजनेता भी भाजपा में आकर वहीं करते हैं, जो एक सामान्य भ्रष्ट राजनेता करता है। पर उपदेश कुशल बहुतेरेइस उक्ति को चरितार्थ करने वाले भाजपाई नेता आए दिन अपने कार्यकर्ताओं को देश और धर्म के लिए बड़े-बड़े त्याग करने का आह्वाहन करते रहते हैं और खुद पांच सितारा जिंदगी का मजा उड़ाते हैं।

संघ की भी अजीब प्रवृत्ती है। इसके वरिष्ठ नेता केवल अपनी महानताका महिमा मंडनसुनना चाहते हैं। उनकी आलोचना करने वाले शुभचिंतक भी उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाते। जबसे भाजपा प्रांतों और केन्द्र के सत्ता में आई है तब से हर जिले में संघ के ही कुछ नेता सत्ता की दलाली करने में ही लग गए हैं, यह बात उन शहरों के आम मतदाता भी जानते हैं। इसलिए यह मानने का कोई कारण नहीं कि संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी इस पतन से अनभिज्ञ हों। दुख की बात तो ये है कि सब जानते हुए भी वे खामोश रहते हैं और सुधार का कोई प्रयास नहीं करते। अब से कुछ वर्ष पहले तक तो संघ वाले अपनी आलोचना तक सुनने को तैयार नहीं होते थे। अब चिंतन शिविरों में स्वयं सेवकों को बंद कमरे में अपनी भड़ास निकालने दी जाती है। पर यह जरूरी नहीं कि इस तरह सामने आईं कमियों को दूर करने का कोई प्रयास किया जाए। इसीलिए भाजपा और उससे जुडे़ संगठनों में दरार पड़ती जा रही है। गुटबाजी बढ़ रही है।

गुजरात का चुनाव एक अजीबो-गरीब माहौल में लड़ गया। लोगों की भावनाएं भड़काने की पुरजोर कोशिश की गई। पर बाकी राज्यों में ऐसे हालात बन पाएंगे, कहना मुश्किल है। हिमाचल प्रदेश उसका ताजा उदाहारण है। जहां एक तरफ इंका और उसके सहयोगी दलों को इस बात का संतोष है कि हिमाचल प्रदेश के मतदाताओं ने नरेन्द्र मोदी ब्रांड पाॅलिटिक्सको अस्वीकार कर दिया वहीं भाजपा की चिंता का विषय है कि अब वो ऐसा क्या करें कि मतदाताओं को लुभाया जा सके। हिंदुत्व के मुद्दे के अलावा उसके पास दूसरा कोई एजेंडा नहीं है जो इस देश के करोड़ों मतदाओं का मन जीत सके। पर हिंदुत्व के नाम पर भाजपा के शिखर नेतृत्व ने सत्ता में आने के बाद जो रवैया अपनाया था उससे हिदुवादियों का मन टूट गया। नरेन्द्र मोदी की रणनीति अगर गुजरात में सफल न हुई होती तो भाजपा का शिखर नेतृत्व अभी भी धर्म के मामले में भ्रामक और अतंरविरोधी बयानबाजी करता रहता। भाजपा की चिंता का यह अहम विषय है कि अब वो किस रास्ते चले। जो जनता को एक बार फिर बहका कर सत्ता में बने रहा जाए।

अनेक पत्रकारों ने अपने स्तंभों के माध्यम से समय-समय पर भाजपा को उसके गिरते ग्राफ के प्रति सचेत किया है पर भाजपा का नेतृत्व सत्ता के दलालों से इस तरह घिरा है कि उसे सही और गलत का फर्क नजर नहीं आता। केवल चुनाव हारने के बाद मंथन किया जाता है, जीतने के बाद नहीं। दरअसल अपने संगठन को चुस्त-दुरूस्त बनाना भाजपा के लिए कोई असंभव कार्य नहीं था बशर्ते कि उनकी मंशा ऐसी होती। कम्युनिस्टों के अलावा संघ के पास ही समर्पित कार्यकर्ताओं की एक लंबी फौज मौजूद है। पर जब उन्हें गंगोत्री में से पतनाला बहता हुआ दिखाई देता है तो वे भी निराश हो जाते हैं। पार्टी महासचिव श्री प्रमोद महाजन ने भावी चुनावों की रणनीति बनाने पर जो दिया है। भाजपा का ध्यान अब मध्य प्रदेश और राजस्थान की तरफ लगा है। दोनों प्रमुख हिन्दी भाषी राज्य है। इन प्रांतों में भाजपा धार्मिक मुद्दे उछाल कर मतदाताओं को मोहना चाहती है। पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह सरीखे इंका नेता, भाजपा को उसके ही मुद्दों में उलझा कर पटकनी देने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसे में भाजपा की राह आसान न होगी।

उधर इंका नेता श्रीमती सोनिया गांधी का यह कहना कि हिमाचल प्रदेश की हार भाजपा के हिंदुवादी एजेंडे ही हार है, ठीक नहीं है। दरअसल, श्रीमती गांधी को कहना यह चाहिए था कि भाजपा की हार उसके छद्म हिंदुवाद की हार है। अगर भाजपा वास्तव में हिन्दू धर्म के लिए समर्पित दल है तो क्या वजह है कि बहु संख्यक हिंदू संत समाज  भाजपा से इतना नाराज है कि अब पहले की तरह उसके मंचों पर उसका समर्थन करने को तैयार नहीं हैंै। श्रीमती गांधी को केवल धर्मनिरपेक्षता का राग ही नहीं अलापना चाहिए। इस मामले में हिन्दुओं की भावनाओं की भी कद्र की जानी चाहिए। चाहे वह गौ हत्या का प्रश्न हो या मंदिर निर्माण का, सच्चाई तो यह है कि इंका के तमाम वरिष्ठ नेता भाजपा और संघ के नेताओं से धार्मिक मामलों में कहीं पीछे नहीं है बल्कि कई जगह तो आगे हैं। पर इंकाई नेता         धर्मनिरपेक्षता के बैनर तले अपनी धार्मिक भावनाओं को सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त नही करना चाहते। उन्हें डर लगता है कि इससे कहीं अल्प संख्यक नाराज न हो जाएं। दरअसल अब समय आ गया है कि जब इंका अपनी         धार्मिक नीति में थोड़ा बदलाव लाए और सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारे कि भारत की जनता की धार्मिक मान्यताओं की उपेक्षा करके समाज में शांति और सौहार्द पैदा नहीं किया जा सकता। साम्प्रदायिकता का विरोध हो,  धर्मांधता को कुचला जाए पर देश की रूहानियत को दबाया नहीं, बढ़ाया जाना चाहिए। बड़ी अजीब बात है कि व्यक्तिगत रूप से हम सब किसी न किसी आध्यात्मिक सोच से ऊर्जा और शांति लेते हैं पर समूचे राष्ट्र के लिए धर्महीनता का नारा बुलंद करते हैं। इंका के आदर्श शिखर पुरूष महात्मा गांधी तक ने यह लिखा है कि धर्मनिरपेक्ष कोई नहीं हो सकता। एक कलम भी नहीं, उसका धर्म लिखना है। आग का धर्म जलाना है। जल का धर्म प्यास बुझाना है। मां का धर्म बालक को पालना है। इसी तरह मानव का भी धर्म है। जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।

जैसे विकास के सवाल हैं। रोजगार के सवाल हैं। भ्रष्टाचार के सवाल हैं वैसे ही धर्म के भी सवाल हैं। भाजपा केवल धर्म के सवाल को लेकर ही चलती रही है। इसलिए उसकी ऐसी पहचान बनी। पर इंका दूसरे सवालों को लेकर चलती रही है। पर धर्म के मामले में उसने अपनी छवि ऐसी बना ली मानो वह धर्म विरोधी दल हो। जबकि सच्चाई यह है कि धर्म के मामले में जितना काम कांग्रेस की सरकारों में हुआ है वैसा भाजपा नहीं कर पाई। जो केवल गाल बजाती रही। इसलिए दोनों प्रमुख दल इंका और भाजपा को आत्म विश्लेषण करने की जरूरत है। क्योंकि भारतीय लोकतंत्र में यही दो प्रमुख दल रहने वाले हैं। हिमाचल प्रदेश का नतीजा तो गुजरात के जख्मों में मरहम है। आने वाले चुनावों में अपनी जीत को लेकर न इंका  आश्वस्त है और न भाजपा। दोनों को ही मुकाबले के लिए डटकर तैयारी करनी पडे़गी।