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Monday, September 5, 2016

क्या हो कश्मीर का समाधान

    सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के जाने के बावजूद कश्मीर की घाटी में अमन चैन लौटेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। हालात इतने बेकाबू हैं और महबूबा मुफ्ती की सरकार का आवाम पर कोई नियंत्रण नहीं है, क्योंकि घाटी की जनता इस सरकार को केंद्र का प्रतिनिधि मानती है। अगर भाजपा महबूबा को बाहर से समर्थन देती, तो शायद जनता में यह संदेश जाता कि भाजपा की केंद्र सरकार जम्मू कश्मीर के मामले में नाहक दखलंदाजी नहीं करना चाहती। पर अब तो सांप-छछुदर वाली स्थिति है। एक तरफ पीडीपी है, जिसे कश्मीरियत का प्रतिनिधि माना जाता है। जिसका रवैया भारत सरकार के पक्ष में कभी नहीं रहा। दूसरी तरफ भाजपा है, जो आज तक धारा 370 को लेकर उद्वेलित रही है और उसके एजेंडा में से ये बाहर नहीं हुआ है। ऐसे में कश्मीर की मौजूदा सरकार के प्रति घाटी के लोगों का अविश्वास होना स्वाभाविक सी बात है। 

    सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल क्या वाकई इस दुष्चक्र को तोड़ पाएगा ? दरअसल कश्मीर के मौजूदा हालात को समझने के लिए थोड़ा इतिहास में झांकना होगा। आजादी के बाद जिस तरह पं.जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुला को नजरबंद रखा, उससे संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान भारत पर हमेशा हावी रहा। कश्मीर की चुनी हुई सरकार को यह कहकर नकारता रहा कि ये तो केंद्र की थोपी हुई सरकार है। क्योंकि कश्मीरियों का असली नेता तो शेख अब्दुला हैं। जब तक शेख अब्दुला गिरफ्तार हैं, तब तक कश्मीरियों का नेतृत्व नहीं माना जा सकता। 

    पर जब भारत सरकार ने शेख अब्दुला को रिहा किया। वे चुनाव जीतकर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बने, तो पाकिस्तान का ये तर्क खत्म हो गया कि कश्मीर में कश्मीरियों की सरकार नहीं है। लेकिन बाद के दौर में 1984 में जिस तरह फारूख अब्दुला की जीती हुई सरकार को इंदिरा गांधी ने हटाया, उससे घाटी का आक्रोश केंद्र सरकार के प्रति प्रबल हो गया। बाद के दौर में तो आतंकवाद बढ़ता चला गया और स्थिति और भी गंभीर हो गई।

    अब तो वहां नई पीढ़ी है, जिसकी महत्वाकांक्षाएं आसमान को छूती हैं। उनके दिमागों को आईएसआई ने पूरी तरह भारत विरोधी कर दिया है। ऐसे में कोई भी समाधान आसानी से निकलना संभव नहीं है। चूंकि केंद्र जो भी करेगा, घाटी के नौजवान उसका विरोध करेंगे। आज वो चाहते हैं कि पुलिस और मिल्ट्री जनजीवन के बीच से हटा दी जाए। राज्य की सरकार पर केंद्र का कोई दखल न हो और उन्हें बडे़-बड़े पैकेज दिए जाएं। पर ऐसा सब करना सुरक्षा की दृष्टि से आसान न होगा। 

    इसका एक विकल्प है, वो ये कि सरकार एक बार फिर घाटी में चुनावों की घोषणा कर दे। कांग्रेस और भाजपा जैसे प्रमुख राष्ट्रीय दल इस चुनाव से अलग हट जाएं। ये कहकर कि कश्मीर के लोग कश्मीरी राजनैतिक दलों और अलगाववादी संगठनों के नेताओं के बीच में से अपना नेतृत्व चुन लें और अपनी सरकार चलाएं। तब जाकर शायद जनता का विश्वास उस सरकार में बने। वैसे भी तमिलनाडु में आज दशकों से कांग्रेस और भाजपा का कोई वजूद नहीं है। कभी डीएमके आती है, तो कभी एडीएमके। उनका मामला है, वही तय करते हैं। ऐसा ही कश्मीर में हो सकता है। जब पूरी तरह से उनके लोगों की सरकार होगी, तो वे केंद्र का विरोध किस बात के लिए करेंगे। ये बात दूसरी है कि नेपाल के विप्लवकारियों की तरह जब ऐसी सरकार अंतर्विरोधों के कारण नहीं चल पाएगी या जनता की आकांक्षों पर खरी नहीं उतरेगी, तो शायद कश्मीर की जनता फिर राष्ट्रीय राजनैतिक दलों की तरफ मुंह करे। पर फिलहाल तो उन्हें उनके हाल पर छोड़ना ही होगा। 

    जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि पाक अधिकृत कश्मीर, बलूचिस्तान व सिंध की आजादी का मुद्दा उठाकर प्रधानमंत्री मोदी ने तुरप का पत्ता फेंका है। जिससे पाकिस्तान बौखलाया हुआ है। लेकिन इससे घाटी के हालात अभी सुधरते नहीं दिख रहे। हां, अगर पाक अधिकृत कश्मीर में बहुत जोरशोर से भारत में विलय की मांग उठे, तब घाटी के लोग जरूर सोचने पर मजबूर होंगे। 

आश्चर्य की बात है कि जिस पाकिस्तान ने भारत से गए मुसलमानों को आज तक नहीं अपनाया, उन्हें मुजाहिर कहकर अपमानित किया जाता है। उस पाकिस्तान के साथ जाकर कश्मीर के लोगों को क्या मिलने वाला है ? खुद पाकिस्तान के बुद्धजीवी आए दिन निजी टेलीविजन चैनलों पर ये कहते नहीं थकते कि पाकिस्तान बांग्लादेश को तो संभाल नहीं पाया। सिंध-बलूचिस्तान अलग होने को तैयार बैठे हैं। पाकिस्तान की आर्थिक हालत खस्ता है। कर्जे के बोझ में पाकिस्तान दबा हुआ है। ऐसे में पाकिस्तान किस मुंह से कश्मीर को लेने की मांग करता है ? जो उसके पास है वो तो संभल नहीं रहा। 

    बात असली यही है कि पिछली केंद्र सरकारों ने कश्मीर के मामले में राजनैतिक सूझबूझ का परिचय नहीं दिया। बोया पेड़ बबूल तो आम कहा से हो। लोकतंत्र में सभी दलों को राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर एकजुटता दिखानी चाहिए। इसीलिए संसदीय प्रतिनिधिमंडल का कश्मीर जाना और कश्मीरियों से खुलकर बात करना एक अच्छा कदम है। ऐसा पहले भी होता आया है। पर इसका मतलब ये नहीं कि संसदीय मंडल के पास कोई जादू की छड़ी है, जिसे वे श्रीनगर में घुमाकर सबका दिल जीत लेंगे। फिर भी प्रयास तो करते रहना चाहिए। आगे खुदा मालिक।