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Monday, December 16, 2024

मुसलमान ज़रा सोचें


हर जमात में शरीफ लोगों की कमी नहीं होती। मुसलमानों में भी नहीं है। चाहे भारत के हों या पाकिस्तान के। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इम्तियाज अहमद उन मुसलमानों में से थे जिन्होंने भारत में इस्लाम की हालत पर वर्षों गहन अध्ययन किया। इस अध्ययन के आधार पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। इस पुस्तकों में उन्होंने बताने की कोशिश की है कि भारत में रहने वाले मुसलमानों का सामाजिक जीवन, सोच और प्राथमिकतायें दूसरे देशों के मुसलमानों से भिन्न हैं और भारतीय हैं। उनका मानना है कि धर्मान्धता से ग्रस्त होकर विद्वेष की भावना रखने वाले मुसलमानों की संख्या बहुत थोड़ी है। भारत में रहने वाले ज्यादातर मुसलमान ये जानते हैं कि उनका जीवन पाकिस्तान में रह रहे मुसलमानों से कही बेहतर है। जितनी आजादी और आगे बढ़ने के अवसर उन्हें भारत में मिले हैं, उतने कट्टरपंथी पाकिस्तान में नहीं मिलते।



आमतौर पर यह माना जाता है कि पूरे देश का समाज हिन्दू और मुसलमान दो खेमों में बंटा है। इन दोनों खेमों के बीच स्थाई द्वेष और अपने अपने खेमे के भीतर भारी एकजुटता है। दोनों पक्षों के धर्मान्ध नेता इस मान्यता को बढ़ाने में काफी तत्पर रहते हैं। हकीकत यह नहीं है। कश्मीर के एक मुसलमान को यह देखकर आश्चर्य होगा कि तमिलनाडु के मुसलमानों के घर बारात का स्वागत केले के पत्ते, नारियल और इलायची से वैसे ही किया जाता है जैसे किसी हिन्दू के घर में। कश्मीर का मुसलमान तमिलनाडु के मुसलमान के घर का भोजन खाकर तृप्त नहीं होता ठीक वैसे ही जैसे तमिलनाडु का मुसलमान तमिल घर में भोजन खाकर ही प्रसन्न होता है। बात बात पर उत्तेजित हो जाने वाली बंगाल की आम जनता के साथ अगर आप रेलगाड़ी के साधारण डिब्बे में सफर कर रहे हैं और आपकी बहस किसी स्थानीय व्यक्ति से हो जाए तो आप अपने को अकेला पाएंगे। आपके विरोध में हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोग एकजुट होकर खड़े हो जायेंगे। वहां सवाल इस बात का नहीं होगा कि आप हिन्दू हैं या मुसलमान। आप गैर बंगाली हैं इसलिये आपके प्रति स्थानीय लोगों की हमदर्दी हो ही नहीं सकती। हर राज्य का यही हाल है। भाषा, पहनावा, भोजन, आचार विचार के मामले में भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों में रहने वाले लोग भिन्न भिन्न समुदायों में बंटै हैं मसलन तमिल, कन्नड, केरलीय, मराठी, गुजराती, उडि़या, बंगाली, असमिया, पंजाबी, बिहारी, हरियाणवी आदि। जब तक कोई धर्मान्धता की घुट्टी पिलाने न जाए स्थानीय जनता अपने धर्म के संकुचित दायरे में ही सिमट कर नहीं रहती बल्कि परदेशी के विरूद्ध स्थानीय लोगों की एकजुटता का प्रदर्शन करती है। इसलिये यह कहना कि सारे मुसलमान एक जैसे हैं, ठीक नहीं।



ठीक इसी तरह से ये सोचना भ्रम है कि इस्लाम धर्म के मानने वाले सभी लोगों में भारी एकजुटता होती है। कुरान शरीफ के मुताबिक खुदा की नजर में उसका हर बंदा एक समान हैसियत रखता है। कोई भेद नहीं। मुसलमान दावा भी करते हैं कि वे एक पंगत में बैठकर नमाज अदा करते हैं और एक ही पंगत में बैठकर खाते हैं पर यह भी हकीकत है कि उनकी यह एकजुटता कुछ खास मकसद तक सिमट कर रह जाती है। कायदे से मुसलमानों में जाति व्यवस्था नहीं होनी चाहिये पर चूंकि भारत में रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान स्थानीय मूल के ही लोग हैं जिन्होंने किन्हीं कारणों से इस्लाम स्वीकार कर लिया था और जब वे मुसलमान बने तो अपने साथ वे न सिर्फ अपनी जीवनशैली ले गये बल्कि जाति व्यवस्था को भी ले गये। इसीलिये मुस्लिम समाज में भी अनेक जातियां हैं। मसलन जुलाहे, बढ़ई, लुहार, धुनिया, नाई आदि। मुसलमानों में भी तथाकथित ऊंची और नीची जातियां होती हैं ऊंची जातियों में प्रमुख हैं- सैय्यद, लोधी, पठान वगैरह। अब अगर कोई गरीब मुसलमान जुलाहा किसी पठान या सैययद के बैटे से अपनी बेटी के निकाह का पैगाम लेकर जाए तो उसे कामयाबी नहीं मिलेगी। शायद इज्जत बचाकर लौटना भी मुश्किल होगा। ठीक वैसे ही जैसे हिन्दुओं में अगर कोई केवट जाति का पिता ब्राह्मण परिवार में अपनी कन्या का प्रस्ताव लेकर जाये तो उसके साथ भी ऐसा ही होगा। इसलिये यह मानना कि सारे हिन्दू एक तरफ हैं और सारे मुसलमान एक तरफ, गलत होगा।


हिन्दूओं की तरह ही मुसलमानों में बहुसंख्यक लोग ऐसे हैं जिन्हें मजहब से ज्यादा रोजी रोटी की फिक्र है। वे चाहे पाकिस्तान में रह रहे हों या भारत में। लाहौर में बसे राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर मुबारक अली बताते हैं कि पाकिस्तान की पढ़ी लिखी आबादी तालिबान की नीतियों की समर्थक नहीं है। उन्हें डर है कि अगर कठमुल्लापन इसी तरह बढ़ता गया और इसे रोका न गया तो पाकिस्तान की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था चूर चूर हो जाएगी


मिस्त्र, इरान, इराक, मलेशिया, इंडोनेशिया और तमाम दूसरे ऐसे देश हैं जो घोषित रूप से इस्लाम में आस्था रखने वाले देश हैं पर अगर इनकी तरक्की, वेशभूषा और आधुनिकता को देखा जाए तो यह आश्चर्य होगा कि मुसलमान होते हुए भी ये इतने प्रगतिशील कैसे हैं। इन देशों के संतुश्ट और खुशहाल नागरिक बताते हैं कि उन्होंने कुरान के मूल संदेश को अपनाया है। पर साथ ही हर मोर्चे पर आगे बढ़ने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता।


जिन लोगों को 1980 के मुरादाबाद के साम्प्रदायिक दंगों की याद है उन्हें ये भी याद होगा कि इन दंगों के बाद मुरादाबाद के कलात्मक बर्तनों के निर्यात में भारी कमी आयी थी। जिसके बाद हजारों हुनरमंद कारीगरों को बदहाली से मजबूर होकर अपने बच्चों के पेट पालने के लिये रिक्शा चलाना पड़ा। जो यह करने के बाद भी अपने बच्चों का पेट नहीं भर सके उन्होंने पूरे परिवार को तेजाब पिलाकर खुद भी पी लिया और खुदा को प्यारे हो गये। आज हालात फिर वैसे ही बन रहे हैं।


दुर्भाग्य से अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिये तमाम सियासती लोग और मजहबों के ठेकेदार देश की जनता को धार्मिक और जातीय खेमों में बांटते जा रहे हैं। जिसका भारी खामियाजा देश की आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। इसलिये ऐसे संवेदनशील माहौल में जब आतंकवाद का चारों तरफ तांडव हो रहा हो भारत के मुसलमानों को चाहिये कि वे वतनपरस्ती की एक ऐसी जलवाफरोशी करें कि उनके आलोचक भी दंग रह जायें। अक्सर यह सवाल उठाया जा सकता है कि इसी मुल्क में पैदा होने के बावजूद मुसलमानों से बार बार देश प्रेम का सबूत क्यों मांगा जाता है ? सवाल बिल्कुल जायज है। क्या ऐसा नहीं है कि देश के साथ अनेक मोर्चों पर गद्दारी करने वालों में विभिन्न प्रांतों के अनेक हिन्दू ही शामिल रहे हैं तो फिर ऐसी अपेक्षा मुसलमानों से ही क्यो? इसकी एक वजह है। पिछले कुछ वर्षों से देश में फैल रहे आतंकवाद में शामिल नौजवान मुस्लिम समाज से ही आये हैं। इसलिये अगर देश की शेष जनता मुस्लिम समुदाय और आतंकवादियों के बीच सीधा सम्बन्ध देखती है तो यह अस्वाभाविक नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे अमरीका में हुए आतंकवादी हमले के बाद अमरीकी जनता ने एक सरदार जी को इसलिये मार डाला क्योंकि उनकी शक्ल ओसामा बिन लादेन से मिलती थी। गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। 


इसलिये भारत के मुसलमानों को चाहिये कि वे कट्टरपंथी और दहशतगर्दों से बचकर रहे। इतना ही नहीं इनको पकड़वाने और इनके हौसले नाकामयाब करने में सक्रिय हों। देश भर में होने वाले आतंकी हमले, ख़ासकर जम्मू कश्मीर में होने वाले  भयानक विस्फोटों की निंदा सारे भारत में उसी तरह की जानी चाहिये जैसे अमरीका में रहने वाले हर धर्म के लोगों ने न्यूयार्क के हमले के विरोध में प्रदर्शन और प्रार्थनायें कीं। यदि ऐसा किया जाता है तो इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। न सिर्फ फिरकापरस्त सियासतदानों के हौसले पस्त होंगे बल्कि समाज में जानबूझकर पैदा कर दी गयी खाई भी पटने लगेगी। इसमें कोई बुरा मानने की बात नहीं है। मौके की नजाकत को देखकर कभी कभी हमें रोजमर्रा की जिंदगी से हटकर भी कुछ करना पड़ता है। इससे आवाम का ही फायदा होता है। उम्मीद की जानी चाहिये कि भारत के मुसलमान वक्त के इस नाजुक दौर में परिपक्वता और होशियारी का परिचय देंगे ताकि हर परिवार में खुशहाली और अमन चैन बढ़े, नफरत और बैर नहीं। 

Monday, June 3, 2024

पाकिस्तान में हिंदू विरासत कैसे बचे?


यूँ तो पश्चिमी पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी आज बढ़ कर 2.1 प्रतिशत हो गई है, जो आज़ादी के समय पाकिस्तान में 1.6 प्रतिशत थी। इसमें भी ज़्यादातर हिंदू कराची, सियालकोट और लाहौर में रहते हैं। इनमें भी ज़्यादा प्रतिशत दलित और पिछड़ी जातियों के हिंदू हैं, जो गाँव में रहते हैं और उनकी आर्थिक हालत काफ़ी कमज़ोर है। हालाँकि भारत सरकार ने बँटवारे के समय पाकिस्तान में रह गये हिंदुओं को भारत आ कर बसने और यहाँ की नागरिकता लेने की प्रक्रिया आसान कर दी है फिर भी अपेक्षा के विपरीत पाकिस्तान में बसे हिंदू भारत आ कर बसने को तैयार नहीं हैं। क्योंकि वे सदियों से वहीं रहते आए हैं और वही उनकी मातृभूमि है। 



बँटवारे से पहले पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू हर शहर में बसे थे और वे बड़े ज़मींदार व संपन्न व्यापारी थे। जिन्हें रातों रात सब कुछ छोड़ कर भारत में शरणार्थी बन कर आना पड़ा। इन हिंदुओं व जैनियों ने पाकिस्तान में अपने आराध्य के एक से एक बढ़ कर मंदिर बनवाये थे। जिनकी संख्या 1947 में 428 थी। जो आज घट कर मात्र 20 मंदिर रह गये हैं। इसी तरह पाकिस्तान के पंजाब सूबे में सैंकड़ों गुरुद्वारे थे जो बाद में भारत से गए मुसलमान शरणार्थियों के आशियाने बन गये। वैसे बलूचिस्तान में स्थित हिंगलाज देवी का मंदिर विश्व प्रसिद्ध है। क्योंकि ये 64 शक्तिपीठों में से एक है और यहाँ सारे वर्ष तीर्थ यात्रियों का आना-जाना लगा रहता है। इसके अलावा कराची की हिंदू आबादी के बीच जो मंदिर हैं वे भी सुरक्षित हैं और उनमें भगवान की नियमित सेवा पूजा और उत्सवों का आयोजन होता रहता है। पर इतनी बड़ी संख्या में मंदिरों और गुरुद्वारों का नष्ट हो जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। क्योंकि जब उनमें आस्था रखने वाले लोग ही नहीं रहे तो ये मंदिर और गुरुद्वारे कैसे आबाद रहते? 



इस स्थिति में बड़ा बदलाव तब आया जब 2011 में पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत के आदेश के बाद पेशावर के ऐतिहासिक गोरखनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार पाकिस्तान सरकार द्वारा करवाया गया। इसी तरह कराची में दरियालाल मंदिर का भी जीर्णोद्धार सरकार और भक्तों ने मिलकर किया। 2019 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधान मंत्री इमरान खाँ ने घोषणा की थी कि बँटवारे के समय जो 400 मंदिर पाकिस्तान में थे उन सभी का आधिग्रहण करके सरकार उनका जीर्णोद्धार करवायेगी। इसी क्रम में सियालकोट में 1947 से बंद पड़े शिवाला तेजसिंह मंदिर का जीर्णोद्धार भी वहाँ की सरकार ने करवाया। पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि वहाँ की फ़ौज लोकतंत्र को सफल नहीं होने देतीं। इमरान खाँ अपदस्त कर दिये गये और उसके साथ ही उनकी यह योजना भी खटाई पड़ गई। पर पाकिस्तान के पढ़े लिखे मध्यम वर्गीय मुस्लिम समाज में अपनी इन ऐतिहासिक धरोहरों को लेकर नव-जागृति आई है। आप यूट्यूब पर अनेक टीवी रिपोर्ट्स देख सकते हैं जिनमें इन स्थलों को खोजने और दिखाने में पाकिस्तान के युवा यूट्यूबर उत्साह से जुटे हैं। चूँकि भारत और पाकिस्तान के बीच के रिश्ते बहुत मधुर नहीं हैं, इसलिए दुनिया के अन्य देशों विशेषकर यूरोप व अमरीका में रहने वाले संपन्न हिंदुओं को पाकिस्तान में स्थित ऐतिहासिक हिंदू तीर्थ स्थलों का उदारता से जीर्णोद्धार करवाना चाहिए। बशर्ते कि पाकिस्तान की मौजूदा सरकार और स्थानीय लोग इस बात के लिए तैयार हों और इन स्थलों की रक्षा और व्यवस्था की ज़िम्मेदारी भी लें। 


इसी क्रम में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की नील घाटी में पौराणिक शारदापीठ एक ऐसा तीर्थस्थल है जिसका विकास कश्मीरी पंडित व अन्य हिंदू ही नहीं, नील घाटी में रहने वाले मुसलमान भी करवाना चाहते हैं। क्योंकि श्री करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तरह विकसित हो जाने पर उन्हें यहाँ अपनी आर्थिक समृद्धि की असीम संभावनाएँ दिखाई देती हैं। भौगौलिक रूप से भी यह तीर्थ भारत की मौजूदा सीमा के परलीपार स्थित है। पाक नियंत्रण वाले इसी कश्मीर के मुज़फ्फराबाद जिले की सीमा के किनारे से पवित्र "कृष्ण-गंगा" नदी बहती है। कृष्ण-गंगा नदी वही है जिसमें समुद्र मंथन के पश्चात् शेष बचे अमृत को असुरों से छिपाकर रखा गया था और उसी के बाद ब्रह्मा जी ने उसके किनारे माँ शारदा का मंदिर बनाकर उन्हें वहां स्थापित किया था।


जिस दिन से माँ शारदा वहां विराजमान हुई उस दिन से ही सारा कश्मीर "नमस्ते शारदादेवी कश्मीरपुरवासिनी / त्वामहंप्रार्थये नित्यम् विदादानम च देहि में" कहते हुये उनकी आराधना करता रहा है और उन कश्मीरियों पर माँ शारदा की ऐसी कृपा हुई कि आष्टांग योग और आष्टांग हृदय लिखने वाले वाग्भट वहीं जन्में,नीलमत पुराण वहीं रची गई, चरक संहिता, शिव-पुराण, कल्हण की राजतरंगिणी, सारंगदेव की संगीत रत्नकार सबके सब अद्वितीय ग्रन्थ वहीं रचे गये, उस कश्मीर में जो रामकथा लिखी गई उसमें मक्केश्वर महादेव का वर्णन सर्व-प्रथम स्पष्ट रूप से आया। शैव-दार्शनिकों की लंबी परंपरा कश्मीर से ही शुरू हुई। 


चिकित्सा, खगोलशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन, विधि, न्यायशास्त्र, पाककला, चित्रकला और भवनशिल्प विधाओं का भी प्रसिद्ध केंद्र था कश्मीर क्योंकि उसपर माँ शारदा का साक्षात आशीर्वाद था। ह्वेनसांग के अपने यात्रा विवरण में लिखा है शारदा पीठ के पास उसने ऐसे-ऐसे विद्वान् देखे जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि कोई इतना भी विद्वान् हो सकता है। शारदापीठ के पास ही एक बहुत बड़ा विद्यापीठ भी था जहाँ दुनिया भर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन करने आते थे।


माँ शारदा के उस पवित्र पीठ में न जाने कितने सहस्त्र वर्षों से हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी के दिन एक विशाल मेला लगता था जहाँ भारत के कोने-कोने से वाग्देवी सरस्वती के उपासक साधना करने आते थे। भाद्रपद महीने की अष्टमी तिथि को शारदा अष्टमी इसीलिये कहा जाता था। शारदा तीर्थ श्रीनगर से लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा है और वहां के लोग तो पैदल माँ के दर्शन करने जाया करते थे। 


इस तीर्थ के जीर्णोद्धार और इस संपूर्ण क्षेत्र के विकास के लिए शारदापीठ कश्मीर के शंकराचार्य स्वामी अमृतनंद देव तीर्थ कई वर्षों से सक्रिय हैं। उनके प्रशासनिक और राजनैतिक स्तर पर अच्छे संबंध हैं और उन्हें सनातन धर्मियों का उदार समर्थन प्राप्त है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में भक्तों की ये भावना पूरी होगी ही और श्री करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तरह ‘शारदा देवी कॉरिडोर’ का निर्माण हो सकेगा।  

Monday, April 15, 2024

इस चुनाव में मुद्दे और माहौल क्या हैं?


इस बार का चुनाव बिलकुल फीका है। एक तरफ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा हिंदू, मुसलमान, कांग्रेस की नाकामियों को ही चुनावी मुद्दा बनाए हुए हैं। वहीं चार दशक में बढ़ी सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी, किसान को फसल के उचित दाम न मिलना, बेइंतहा महंगाई और तमाम उन वायदों को पूरा न करना जो मोदी जी 2014 व 2019 में किए थे - ऐसे मुद्दे हैं जिन पर भाजपा का नेतृत्व चुनावी सभाओं में कोई बात ही नहीं कर रहा। ‘सबका साथ सबका विकास’ नारे के बावजूद समाज में जो खाई पैदा हुई है, वो चिंताजनक है। रोचक बात यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव को मोदी जी ने गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचार मुक्त शासन और विकास के मुद्दे पर लड़ा था। पता नहीं 2019 में और इस बार क्यों वे इनमें से किसी भी मुद्दों पर बात नहीं कर रहे हैं? इसलिए देश के किसान, मजदूर, करोड़ों बेरोजगार युवाओं, छोटे व्यापारियों यहां तक कि उद्योगपतियों को भी मोदी जी के भाषणों में रूचि खत्म हो गई है। उन्हें लगता है कि मोदी जी ने उन्हें वायदे के अनुसार कुछ भी नहीं दिया। बल्कि बहुत से मामलों में तो जो कुछ उनके पास था, वो भी छीन लिया गया। इसलिए यह विशाल मतदाता वर्ग भाजपा सरकार के विरोध में है। हालांकि वह अपना विरोध खुलकर प्रकट नहीं कर रहा। पर यहाँ ये उल्लेख करना भी ज़रूरी है कि प्रतिव्यक्ति हर महीने 5 किलो अनाज मुफ़्त बाँटने का मोदी जी का फार्मूला कारगर रहा है। जिन्हें ये अनाज मिल रहा है वे कहते हैं कि इससे पहले कभी किसी सरकार ने उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिया। इसलिए वे मोदी जी के समर्थन में हैं।
 



पर इस मुद्दे पर बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों की राय भिन्न है। वे कहते हैं कि अगर मोदी जी ने अपने वायदे के अनुसार हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोज़गार दिया होता तो अब तक 20 करोड़ युवाओं को रोज़गार मिल जाता। तब हर युवा अपने परिवार के कम से कम पाँच सदस्यों का भरण पोषण कर लेता। इस तरह भारत के 100 करोड़ लोग सम्मान की ज़िंदगी जी रहे होते। जबकि आज 80 करोड़ लोग 5 किलो राशन के लिए भीख का कटोरा लेकर जी रहे हैं।  


दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो मोदी जी के अन्धभक्त हैं। जो हर हाल में मोदी सरकार फिर से लाना चाहते हैं। वे मोदी जी के 400 पार के नारे से आत्ममुग्ध हैं। मोदी सरकार की सब नाकामियों को वे कांग्रेस शासन के मत्थे मढ़कर पिंड छुड़ा लेते हैं। क्योंकि इन प्रश्नों का कोई उत्तर उनके पास नहीं है। अभी यह बताना असंभव है कि इस कांटे की टक्कर में ऊंट किस करवट बैठेगा। क्या विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी या मोदी जी की? सरकार जिसकी भी बने, चुनौतियां दोनों के सामने बड़ी होंगी। मान लें कि भाजपा की सरकार बनती है, तो क्या हिंदुत्व के ऐजेंडे को इसी आक्रामकता से, बिना सनातन मूल्यों की परवाह किये, बिना सांस्कृतिक परंपराओं का निर्वहन किये सब पर थोपा जाऐगा, जैसा पिछले 10 वर्षों में थोपने का प्रयास किया गया। इसका मोदी जी को सीमित मात्रा में राजनैतिक लाभ भले ही मिल जाऐ, हिंदू धर्म और संस्कृति को स्थाई लाभ नहीं मिलेगा।



भाजपा व संघ दोनों ही हिंदू धर्म के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं, पर सनातन हिंदू धर्म की मूल सिद्धांतों से परहेज करते हैं। सैंकड़ों वर्षों से हिंदू धर्म के स्तंभ रहे शंकराचार्य ये मानते हैं कि जिस तरह का हिंदूत्व मोदी और योगी राज में पिछले कुछ वर्षों में प्रचारित और प्रसारित किया गया, उससे हिंदू धर्म का मजाक ही उड़ा है। केवल नारों और जुमलों में ही हिंदू धर्म का हल्ला मचाया गया। हाँ उज्जैन, काशी, अयोध्या, केदारनाथ आदि धर्मस्थलों पर भगवान के विशाल मंदिरों के निर्माण से हिंदू समाज में अपनी पहचान के लिए जागरूकता बढ़ी है। पर इसके अलावा जमीन पर ठोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिससे ये सनातन परंपरा पल्लवित-पुष्पित होती। इस बात का हम जैसे सनातनधर्मियों को अधिक दुख है। क्योंकि हम साम्यवादी विचारों में विश्वास नहीं रखते। हमें लगता है कि भारत की आत्मा सनातन धर्म में बसती है और वो सनातन धर्म विशाल हृदय वाला है। जिसमें नानक, कबीर, रैदास, महावीर, बुद्ध, तुकाराम, नामदेव सबके लिए गुंजाइश है। वो संघ और भाजपा की तरह संकुचित हृदय नहीं है, इसलिए हजारों साल से पृथ्वी पर जमा हुआ है। जबकि दूसरे धर्म और संस्कृतियां अपनी अहंकारी नीतियों के कारण कुछ सदियों के बाद धरती के पर्दे पर से गायब हो गए।


संघ और भाजपा के राजनैतिक हिंदू ऐजेंडा से उन सब लोगों का दिल टूटता है, जो हिंदू धर्म और संस्कृति के लिए समर्पित हैं, ज्ञानी हैं, साधन-संपन्न हैं पर उदारमना भी है। क्योंकि ऐसे लोग धर्म और संस्कृति की सेवा डंडे के डर से नहीं, बल्कि श्रद्धा और प्रेम से करते हैं। जिस तरह की मानसिक अराजकता पिछले 5 वर्षों में भारत में देखने में आई है, उसने भविष्य के लिए बड़ा संकट खड़ा दिया है। अगर ये ऐसे ही चला, तो भारत में दंगे, खून-खराबे और बढ़ेगे। जिसके परिणामस्वरूप भारत का विघटन भी हो सकता है। इसलिए संघ और भाजपा को इस विषय में अपना नजरिया क्रांतिकारी रूप में बदलना होगा। तभी आगे चलकर भारत अपने धर्म और संस्कृति की ठीक रक्षा कर पायेगा, अन्यथा नहीं। अलबत्ता हिंदू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अगर संघ का संगठन सक्रिय रहता है तो सनातनधर्मियों को अच्छा लगेगा।


जहां तक ‘इंडिया’ गठबंधन की बात है, ये आश्चर्यजनक तथ्य है कि समय और अवसर दोनों प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हुए भी इस गठबंधन का सामूहिक नेतृत्व वो एकजुटता और आक्रामकता नहीं दिखा पा रहा जो उसे बड़ी सफलता की ओर ले जा सकती थी। फिर भी ‘इंडिया’ के समर्थकों का विश्वास है कि इस बार का चुनाव ‘विपक्ष बनाम भाजपा’ नहीं बल्कि आम ‘जनता बनाम भाजपा’ की तर्ज़ पर लड़ा जाएगा, जैसा आपातकाल के बाद 1977 में लड़ा गया था। वैसे अगर राज्यवार आँकलन किया जाए तो गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक राजस्थान को छोड़ कर कोई भी प्रांत ऐसा नहीं है जहां भाजपा विपक्षी दलों के सामने कमज़ोर नहीं है। ऐसे में कुछ भी हो सकता है। 


लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि मतभेदों का सम्मान किया जाए, समाज के हर वर्ग को अपनी बात कहने की आजादी हो, चुनाव जीतने के बाद, जो दल सरकार बनाए, वो विपक्ष के दलों को लगातार कोसकर या चोर बताकर, अपमानित न करें, बल्कि उसके सहयोग से सरकार चलाए। क्योंकि राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं। चुनावी बाँड के तथ्य उजागर होने के बाद यह स्पष्ट है कि मोदी जी की सरकार भी इसकी अपवाद नहीं रही। इसलिए और भी सावधानी बरतनी चाहिए।

Monday, February 12, 2024

मंदिर-मस्जिद का झगड़ा कब तक चलेगा?


अयोध्या में भगवान श्री राम की भव्य प्राण प्रतिष्ठा के बाद अब हिदुत्व की शक्तियों का ध्यान काशी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि मस्जिद पर केंद्रित हो गया है। विपक्षी दल इस बात से चिंतित हैं कि धर्म के नाम पर भाजपा हिंदू मतदाताओं के ऊपर अपनी पकड़ बढ़ाती जा रही है। इन दो धर्मस्थलों पर से मस्जिद हटाने की ज़िद्द का भाजपा को पहले की तरह चुनावों में लाभ मिलता रहेगा। दूसरी तरफ़ धर्म निरपेक्षता को आदर्श मानने वाले विपक्षी दल चाह कर भी भावनाशील हिंदुओं को आकर्षित नहीं कर पाएँगे। इन धर्म निरपेक्ष राजनेताओं का सनातन धर्म में आस्था का प्रदर्शन इन्हें वांछित परिणाम नहीं दे पा रहा। क्योंकि भावनाशील हिंदुओं को लगता है कि ऐसा करना अब इन दलों की मजबूरी हो गया है। इसलिए वो इन्हें गंभीरता से नहीं ले रहे। दूसरी तरफ़ जो आम जनता की ज़िंदगी से जुड़े ज़रूरी मुद्दे हैं जैसे बेरोज़गारी, महंगाई, सस्ती स्वास्थ्य व शिक्षा सेवाएँ, इन पर ज़ोर देकर विपक्ष मतदाताओं को धर्म के दायरे से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा है। कितना सफल होगा, यह तो 2024 के चुनावी परिणाम बताएँगे। 



जहां तक बात काशी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में श्री कृष्ण जन्मस्थान मस्जिद की है तो यह कोई नया पैदा हुआ विवाद नहीं है। सैंकड़ों बरस पहले जब ये दोनों मस्जिदें बनीं तो हिंदुओं के मदिर तोड़ कर बनीं थीं, इसमें कोई संदेह नहीं है। तब से आजतक सनातन धर्मी अपने इन प्रमुख तीर्थस्थलों पर से मुस्लिम आक्रांताओं के इन अवशेषों को हटा देने के लिए  संघर्षशील रहे हैं। नरेंद्र मोदी जी के प्रधान मंत्री बनने के बाद से वृहद् हिंदू समाज में एक नया उत्साह पैदा हुआ है। उसे विश्वास है कि इन दोनों तीर्थस्थलों पर से भी ये मस्जिदें आज या कल हटा दी जाएँगी। उधर मुस्लिम पक्ष पहले की तरह उत्तेजना दिखा रहा है। ऐसे में दोनों पक्षों के बीच टकराव होना स्वाभाविक है। जो दोनों ही पक्षों के लिये घातक साबित होगा। भलाई इसी में है कि दोनों पक्ष बैठ कर शांतिपूर्ण तरीक़े से इसका हल निकाल लें। हालाँकि दोनों पक्षों के सांप्रदायिक नेता आसानी से ऐसा होने नहीं देंगे। इसलिए यह ज़िम्मेदारी दोनों पक्षों के समझदार लोगों की ही है कि वे इन दोनों मस्जिदों के विवाद को बाबरी मस्जिद विवाद की तरह लंबा न खिंचने दें। 



मुसलमानों के प्रति बिना किसी दुराग्रह के मेरा यह शुरू से मानना रहा है कि मथुरा, अयोध्या और काशी में जब तक मस्जिदें हमारे इन प्रमुख तीर्थस्थलों पर बनी रहेंगी तब तक सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित नहीं हो सकता। क्योंकि भगवान कृष्ण, भगवान राम और भोलेनाथ सनातन धर्मियों के मुख्य आराध्य हैं। दुनिया भर के करोड़ों हिंदू पूरे वर्ष इन तीर्थों के दर्शन करने जाते रहे हैं। जहां खड़ी ये मस्जिदें उन्हें उस दुर्भाग्यशाली क्षण की याद दिलाती हैं, जब आतताइयों ने यहाँ खड़े भव्य मंदिरों को बेरहमी से नेस्तनाबूत कर दिया था। इन्हें वहाँ देख कर हर बार हमारे ज़ख़्म हरे हो जाते हैं। ये बात मैं अपने लेखों और टीवी रिपोर्ट्स में पिछले 35 वर्षों से इसी भावना के साथ लगातार कहता रहा हूँ। जो धर्म निरपेक्ष दल ये तर्क देते हैं कि गढ़े मुर्दे नहीं उखाड़ने चाहिए क्योंकि इस सिलसिले का कोई अंत नहीं होगा? आज हिंदू पक्ष तीन स्थलों से मस्जिदें हटाने की माँग कर रहा है, कल को तीस या तीन सौ स्थलों से ऐसे माँगें उठेंगी तो देश के हालात क्या बनेंगे, उनसे मैं सहमत नहीं हूँ। एक तरफ़ तो मक्का मदीना है जहां ग़ैर मुसलमान जा भी नहीं सकते और दूसरी तरफ़ तपोभूमि भारत है जहां सब को अपने-अपने धर्मों का पालन करने की पूरी छूट है। पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों को नीचा दिखाएं या उस ख़ौफ़नाक मंजर की याद दिलाएँ जब उन्होंने अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को आहत किया था। 



दशकों से चले अयोध्या प्रकरण और उसे लेकर 1984 से विश्व हिन्दू परिषद के आक्रामक अभियान से निश्चित रूप से भाजपा को बहुत लाभ हुआ है। आज भाजपा विकास या रोज़गार की बात नहीं करती। 2024 का चुनाव केवल अयोध्या में राम मंदिर और हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ा जा रहा है। हिंदुओं में आए इस उफान की जड़ में है मुसलमानों की असंवेदनशीलता। जब 1947 में धर्म के आधार पर भारत का बँटवारा हुआ तो भी भारत ने हर मुसलमान को पाकिस्तान जाने के लिए बाध्य नहीं किया। ये बहुसंख्यक हिंदू समाज की उदारता का प्रमाण था। जबकि कश्मीर घाटी, पाकिस्तान, बांग्लादेश और हाल के दिनों में अफ़ग़ानिस्तान में हिंदुओं पर जो अत्याचार हुए और जिस तरह उन्हें वहाँ से निकाला गया, उसके बाद भी ये आरोप लगाना कि विहिप, संघ और भाजपा मुसलमानों के प्रति हिंदुओं में उत्तेजना को बढ़ा रहे हैं, सही नहीं है।


भाजपा हिंदुओं के उस वर्ग प्रतिनिधित्व करती है जो मुसलमानों के सार्वजनिक आचरण से विचलित रहे हैं। दरअसल धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, बैसाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्रांति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों को मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभा यात्राएं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगर-कीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते कि इन्हें मर्यादित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, आयोजित किया जाए। किन्तु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज पढने की जो प्रवृत्ति रही है, उससे हिंदुओं में मुसलमानों के प्रति आक्रोश बढ़ा है। ठीक वैसे ही जैसा आक्रोश आज यूरोप के देशों में मुसलमानों के इसी रवैये के प्रति पनप रहा है। इसलिए अब समय आ गया है कि मुस्लिम समाज बिना हील-हुज्जत के मथुरा और काशी के धर्मस्थलों से मस्जिदों को ख़ुद ही हटा कर स:सम्मान दूसरी जगह स्थापित कर दें, जैसा अनेक इस्लामिक देशों में किया भी जा चुका है। इससे दोनों पक्षों के बीच सौहार्द बढ़ेगा और किसी को भी सांप्रदायिकता भड़काने का मौक़ा नहीं मिलेगा।  

Monday, January 22, 2024

कैसे सार्थक हो श्री राम की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा?


हर राष्ट्र के इतिहास में कोई पल ऐसा आता है जो मील का पत्थर बन जाता है। आज पूरी दुनिया के सनातन धर्मी हिंदुओं के जीवन में वो क्षण आया है जब जन-जन के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की जन्मस्थली व राजधानी अयोध्या जी पूरे वैभव के साथ विश्व के मानचित्र पर सदियों बाद पुनः प्रगट हुई है। इसलिए देश और विदेश में रहने वाले हिंदुओं के मन उल्लास से भरे हैं।यह सही है कि श्रीराम जन्मभूमि पर से बाबरी मस्जिद को हटाने में सदियों से हज़ारों लोगों ने बलिदान दिया और सैंकड़ों ने इस आंदोलन में अपनी क्षमता अनुसार महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पर पूरे अयोध्या नगर को जो भव्य रूप आज मिला है वो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की कल्पनाशीलता और दृढ़ इच्छा शक्ति का परिणाम है। 



इसलिए मोदी जी की आलोचना करने वालों की बात का भाजपा समर्थक हिंदू समाज पर वैसा असर नहीं पड़ रहा जैसी उनकी अपेक्षा रही होगी। इसका अर्थ यह नहीं कि जिन मुद्दों को विपक्ष के नेता उठा रहे हैं वे कम महत्वपूर्ण हैं। निःसंदेह देश के युवाओं के लिए बेरोज़गारी विकराल रूप धारण करके खड़ी हुई है। दस बरस पहले मोदी जी ने हर वर्ष दो करोड़ युवाओं को रोज़गार देने का वायदा किया था। यानी अब तक बीस करोड़ युवाओं को रोज़गार मिल जाना चाहिए था। जबकि आज भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले 45 वर्षों में सबसे ज़्यादा है। ऐसे ही अन्य मुद्दे भी हैं जिनको लेकर विपक्ष मोदी सरकार पर हमलावर है। विपक्ष का यह भी आरोप है कि मंदिर निर्माण पूरा हुए बिना ही इतना भव्य उद्घाटन करने का उद्देश्य केवल 2024 का लोकसभा चुनाव जीतना है। इसलिए विपक्ष के नेता इसे राजनैतिक कार्यक्रम मान रहे हैं और इसलिए श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के न्योते पर 22 तारीख़ को अयोध्या नहीं गये। उनका कहना है कि भगवान श्री राम के दर्शन करने वे अपनी श्रद्धा अनुसार भविष्य में अवश्य जाएँगे। 



विपक्ष का यह आरोप सही है कि आज का कार्यक्रम लोकसभा के चुनाव की दृष्टि से आयोजित किया गया है। पर इसमें अनहोनी बात क्या है? लोकतंत्र में हर राजनेता जो कुछ करता है वो वोटों पर नज़र रख कर ही करता है। कांग्रेस के शासन काल में भी ऐसे अनेक बड़े आयोजन हुए या फ़ैसले लिये गये जिनकी उस समय यही उपयोगिता थी कि उनसे कांग्रेस को वोट जुटाने में मदद मिले। अभी पिछले ही हफ़्ते हिंदुओं के चार धामों में से एक जगन्नाथ पुरी  में जगन्नाथ जी के मंदिर के नये बने भव्य कॉरिडोर का उद्घाटन बीजू जनता दल के नेता और उड़ीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक ने किया। निःसंदेह उनका यह प्रयास दुनिया भर के सनातन धर्मियों, विशेषकर भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों को आह्लादित करने वाला है। पर परोक्ष रूप से उद्देश्य तो इसका भी उड़ीसा का चुनाव जीतना है, जो इस वर्ष के अंत में होने वाला है।



इस तरह की राजनैतिक टीका-टिप्पणियाँ तो हर दल अपने विरोधियों पर हमेशा करता ही आया है। भाजपा ने भी विपक्ष में रह कर हमेशा यही किया जो आज विपक्ष भाजपा के विरोध में कर रहा है। इसलिए इस राजनैतिक बहसबाजी में न पड़ कर आज हम अपना मंथन अयोध्या के धार्मिक पक्ष पर ही केंद्रित रखना चाहेंगे। क्योंकि आज हम सब ‘राममय’ भाव में आकंठ डूबे हुए हैं। अयोध्या का यह विकास भारत के सनातन धर्मियों की आस्था के साथ ही हमारी सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ा हुआ है। पर उत्साह के अतिरेक में हमें अपनी भावनाओं को ग़लत दिशा में जाने से रोकना होगा। अन्यथा हमारी बयानबाज़ी और ट्विटरबाज़ी सनातन धर्म के लिए आत्मघाती होगी। जिस तरह ह्वाट्सऐप यूनिवर्सिटी के प्रभाव में आकर अशोभनीय तरीक़े से सनातन धर्म के आधारस्तम्भ परम श्रद्धेय शंकराचार्यों पर तथ्यहीन और छिछली टिप्पणियाँ की जा रही हैं, उनके घातक परिणाम भविष्य में सामने आयेंगे। 


अयोध्या मामले की इलाहाबाद उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय में लगातार पैरवी करने वाले वरिष्ठ वकील डॉ पी एन मिश्रा ने एक न्यूज़ चैनल को दिये साक्षात्कार में स्पष्ट कहा है कि श्री राम जन्मभूमि के पक्ष में जो अदालत के निर्णय आए उसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका द्वारिका पीठ के वर्तमान शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की रही। उन्हीं के द्वारा दिये गये प्रमाणों को न्यायाधीशों ने अकाट्य माना और इसलिए स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी के नाम का उल्लेख अपने लिखित आदेश में भी किया। डॉ मिश्रा ने इसी इंटरव्यू में बताया कि श्रद्धेय रामभद्राचार्य जी के तर्कों को अदालत ने प्रामाणिक न मानते हुए ख़ारिज कर दिया था। इसका अर्थ यह हुआ कि राम मंदिर निर्माण के लिए अदालत से जो आदेश मिला उसमें स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। पर विडंबना देखिए कि सड़क छाप लोग श्रद्धेय शंकराचार्यों से पूछ रहे हैं कि उन्होंने राम मंदिर निर्माण के लिए क्या किया? दूसरी तरफ़ श्रद्धेय रामभद्राचार्य जी को इस तरह महिमा मंडित किया जा रहा है, मानो कि अदालत का फ़ैसला उन्हीं के कारण मिला हो। 


कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति या क़ानून का जानकार अयोध्या मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को पढ़ कर तथ्य जान सकता है। इसलिए चाहे शंकराचार्यों की बात हो या रामभद्राचार्य जी जैसे अन्य संतों की बात हो, हमें अपने संतों प्रति ऐसी छिछली टिप्पणी करने से बचना चाहिए। यथासंभव सभी संतों का सम्मान करना चाहिए। यदि कोई असहमति का बिंदु हो तो उसे मर्यादा में रहकर ही निवेदन करना चाहिए।


निःसंदेह मोदी जी के प्रयासों से आज भारत में हिंदू नव-जागरण हुआ है। जिसका प्रमाण है तीर्थों बढ़ती श्रद्धालुओं की अपार भीड़। पर इसके साथ ही सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों का अनेक मामलों में हनन भी हो रहा है। जिससे आस्थावान सनातन धर्मीं और शंकराचार्य जैसे निष्ठावान संत व्यथित हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि ‘गुरु, सचिव और वैद्य शासक को प्रसन्न करने के लिए यदि झूठ बोलते हैं तो वे उसका अहित ही करते हैं।’ आदरणीय शंकराचार्यों द्वारा आज की जा रही कुछ टिप्पणियों को भी इसी परिपेक्ष में देखा जाना चाहिए। वैसे भी बिना किसी संगठन के, बिना राजनैतिक कार्यकर्ताओं की फ़ौज के और बिना मीडिया के प्रोपेगंडा के 500 वर्ष पहले भगवान श्रीराम को भारत के हर घर में पहुँचाने का काम गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस लिख कर किया था। इसलिए भी भाजपा व संघ के नेतृत्व को गोस्वामी तुलसीदास जी का सम्मान करते हुए और भारत की सनातन परम्परा का निर्वाह करते हुए अपनी आलोचना को उदारता से स्वीकार करना चाहिए और जहां उनकी कमी हो उसे सुधारने का प्रयास करना चाहिए। तभी सार्थक होगी भगवान श्री राम की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा। फ़िलहाल प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव पर सबको बधाई।    

Monday, January 15, 2024

अयोध्या: प्राण प्रतिष्ठा में विवाद क्यों?

आगामी 22 जनवरी को अयोध्या में भगवान श्री राम के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर जो विवाद पैदा हुए हैं उसमें सबसे महत्वपूर्ण है शंकराचार्यों का वो बयान जिसमें उन्होंने इस समारोह का बहिष्कार करने का निर्णय लिया है। उनका विरोध इस बात को लेकर है कि इस प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में वैदिक नियमों की अवहेलना की जा रही है। गोवर्धन पीठ (पुरी, उड़ीसा) के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी का कहना है कि, मंदिर नहीं, शिखर नहीं, शिखर में कलश नहीं - कुंभाभिषेक के बिना मूर्ति प्रतिष्ठा?” प्राण प्रतिष्ठा के बाद प्रभु श्री राम के शीर्ष के ऊपर चढ़ कर जब राज मज़दूर शिखर और कलश का निर्माण करेंगे तो इससे भगवान के विग्रह का निरादर होगा। बाक़ी शंकराचार्यों ने भी वैदिक नियमों से ही प्राण प्रतिष्ठा की माँग की है और ऐसे ही कई कारणों से स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी ने भी इस समारोह की आलोचना की है। इस विवाद के दो पहलू हैं जिन पर यहाँ चर्चा करेंगे। 



पहला पक्ष यह है कि ये चारों शंकराचार्य निर्विवाद रूप से सनातन धर्म के सर्वोच्च अधिकृत मार्ग निर्देशक हैं। सदियों से पूरे देश का सनातन धर्मी समाज इनकी आज्ञा को सर्वोपरि मानता आया है। किसी धार्मिक विषय पर अगर संप्रदायों के बीच मतभेद हो जाए तो उसका निपटारा भी यही शंकराचार्य करते आये हैं। इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि ये संन्यास की किस परंपरा से आते हैं। आदि शंकराचार्य ने ही इस भेद को समाप्त कर दिया था। जब उन्होंने, अहम् ब्रह्मास्मिका तत्व ज्ञान देने के बावजूद विष्णु षट्पदी स्तोत्रकी रचना की और भज गोविन्दमगाया। इसलिए पुरी शंकराचार्य जी का ये आरोप गंभीर है कि 22 जनवरी को होने वाला प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम सनातन हिंदू धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है। इसलिए हिंदुओं का वह वर्ग जो सनातन धर्म के सिद्धांतों में आस्था रखता है, पुरी शंकराचार्य से सहमत है। शंकराचार्य जी ने इस तरह किए जा रहे प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के भयंकर दुष्परिणाम सामने आने की चेतावनी भी दी है। 



उधर दूसरा पक्ष अपने तर्क लेकर खड़ा है। इस पक्ष का मानना है कि प्रधान मंत्री श्री मोदी ने एक प्रबल इच्छा शक्ति का प्रदर्शन करते हुए और सभी संवैधानिक व्यवस्थाओं को अपने लक्ष्य-प्राप्ति के लिये साधते हुए, इस भव्य मंदिर का निर्माण करवाया है और इस तरह भाजपा समर्थक हिंदू समाज को एक चिर प्रतीक्षित उपहार दिया है। इसलिए उनके प्रयासों में त्रुटि नहीं निकालनी चाहिए। इस पक्ष का यह भी कहना है कि पिछली दो सहस्राब्दियों में भारत में जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सनातन धर्म, सिख धर्म या इस्लाम तभी व्यापक रूप से फैल सके जब उन्हें राजाश्रय प्राप्त हुआ। जैसे सम्राट अशोक मौर्य ने बौद्ध धर्म फैलाया, सम्राट चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म को अपनाया और फिर इसके विस्तार में सहयोग किया। कुषाण राजा ने पहले सनातन धर्म अपनाया फिर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। इसी तरह मुसलमान शासकों ने इस्लाम को संरक्षण दिया और अंग्रेज़ी हुक्मरानों ने ईसाईयत को। इसी क्रम में आज नरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा राजसत्ता का उपयोग करके हिंदुत्व की विचारधारा को स्थापित कर रही है। इसलिए हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण भाग इनके साथ कमर कस के खड़ा है। पर इसके साथ ही देश में ये विवाद भी चल रहा है कि हिंदुत्व की इस विचारधारा में सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों की उपेक्षा हो रही है। जिसका उल्लेख हिंदू धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज ने साठ के दशक में लिखी अपनी पुस्तक आरएसएस और हिंदू धर्ममें शास्त्रों के प्रमाण के आधार पर बहुत स्पष्टता से किया था। 



जिस तरह के वक्तव्य पिछले दो दशकों में आरएसएस के सरसंघचालक और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने दिये हैं उससे स्पष्ट है कि हिंदुत्व की उनकी अपनी परिकल्पना है, जिसके केंद्र में है हिंदू राष्ट्रवाद। इसलिए वे अपने हर कृत्य को सही ठहराने का प्रयास करते हैं। चाहे वो वैदिक सनातन धर्म की मान्यताओं और आस्थाओं के विपरीत ही क्यों न हो। आरएसएस और सनातन धर्म के बीच ये वैचारिक संघर्ष कई दशकों से चला आ रहा है। अयोध्या का वर्तमान विवाद भी इसी मतभेद के कारण उपजा है। 



फिर भी हिंदुओं का यह वर्ग इसलिए भी उत्साहित है कि प्रधान मंत्री मोदी ने हिंदुत्व के जिन लक्ष्यों को लेकर गांधीनगर से दिल्ली तक की दूरी तय की थी, उन्हें वे एक-एक करके पाने में सफल हो रहे हैं। इसलिए हिंदुओं का ये वर्ग मोदी जी को अपना हीरो मानता है। इस अति उत्साह का एक कारण यह भी है कि पूर्ववर्ती प्रधान मंत्रियों ने धर्म के मामले में सहअस्तित्व को केंद्र में रख कर संतुलित नीति अपनाई। इस सूची में भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल हैं। जिन्होंने राज धर्मकी बात कही थी। पर मोदी जी दूसरी मिट्टी के बने हैं। वो जो ठान लेते हैं, वो कर गुजरते हैं। फिर वे नियमों और आलोचनाओं की परवाह नहीं करते। इसीलिए जहां नोटबंदी, बेरोज़गारी और महंगाई जैसे मुद्दों पर वे अपना घोषित लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाए, वहीं दूसरे कुछ मोर्चों पर उन्होंने अपनी सफलता के झंडे भी गाड़े हैं। ऐसे में प्राण प्रतिष्ठा समारोह को अपनी तरह आयोजित करने में उन्हें कोई हिचक नहीं है। क्योंकि ये उनके राजनैतिक लक्ष्य की प्राप्ति का एक माध्यम है। देश की आध्यात्मिक चेतना को विकसित करना उनके इस कार्यक्रम का उद्देश्य नहीं है। 


रही बात परमादरणीय शंकराचार्यों के सैद्धांतिक मतभेद की तो बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हिंदू समाज ने इन सर्वोच्च धर्म गुरुओं से वैदिक आचरण सीखने का कोई प्रयास नहीं किया। उधर पिछले सौ वर्षों में शंकराचार्यों की ओर से भी वृहद हिन्दू समाज को जोड़ने का कोई प्रयास नहीं किया गया। कारण: सनातन धर्म के शिखर पुरुष होने के नाते शंकराचार्यों की अपनी मर्यादा होती है, जिसका वे अतिक्रमण नहीं कर सकते थे। इसका एक कारण यह भी है कि बहुसंख्यक हिंदू समाज की न तो आध्यात्मिक गहराई में रुचि है और न ही उनकी क्षमता। उनके लिए आस्था का कारण अध्यात्म से ज़्यादा धार्मिक मनोरंजन व भावनात्मक सुरक्षा पाने का माध्यम है। पर अगर राजसत्ता वास्तव में सनातन धर्म की स्थापना करना चाहती तो वह शंकराचार्यों को यथोचित सम्मान देती। पर ऐसा नहीं है। हिंदुत्व की विचारधारा भारत के हज़ारों वर्षों से चले आ रहे सनातन धर्म के मूल्यों की स्थापना के लिए समर्पित नहीं है। यह एक राजनैतिक विचारधारा है जिसके अपने नियम हैं और अपने लक्ष्य हैं। श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन को खड़ा करने के लिए आरएसएस, विहिप व भाजपा ने हर संत और सम्प्रदाय का द्वार खटखटाया था। सभी संतों और सम्प्रदायों ने सक्रिय होकर इस आन्दोलन को विश्वसनीयता प्रदान की थी। यह दुर्भाग्य है कि आज शंकराचार्यों जैसे अनेक सम्मानित संत और विहिप, आरएसएस व भाजपा आमने सामने खड़े हो गये हैं।


Monday, December 25, 2023

क्यों जरुरी था अयोध्या का भव्य विकास?


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(ट्विटर) पर एक पोस्ट देखी जिसमें अयोध्या में रामलला के विग्रह को रज़ाई उढ़ाने का मज़ाक़ उड़ाया गया है। उस पर मैंने निम्न पोस्ट लिखी जो शायद आपको रोचक लग। वैष्णव संप्रदायों में साकार ब्रह्म की उपासना होती है। उसमें भगवान के विग्रह को पत्थर, लकड़ी या धातु की मूर्ति नहीं माना जाता। बल्कि उनका जागृत स्वरूप मानकर उनकी सेवा- पूजा एक जीवित व्यक्ति के रूप में की जाती है।


ये सदियों पुरानी परंपरा है। जैसे श्रीलड्डूगोपाल जी के विग्रह को नित्य स्नान कराना, उनका शृंगार करना, उन्हें दिन में अनेक बार भोग लगाना और उन्हें रात्रि में शयन कराना। ये परंपरा हम वैष्णवों के घरों में आज भी चल रही है। ‘जाकी रही भावना जैसी-प्रभु मूरत देखी तीन तैसी।’


इसीलिए सेवा पूजा प्रारंभ करने से पहले भगवान के नये विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। इसका शास्त्रों में संपूर्ण विधि विधान है। जैसा अब रामलला के विग्रह की अयोध्या में भव्य रूप से होने जा रही है।



यह सही है कि हर राजनैतिक दल अपना चुनावी एजेंडा तय करता है और उसे इस आशा में आगे बढ़ाता है कि उसके जरिये वह दल चुनाव की वैतरणी पार कर लेगा। ‘गरीबी हटाओ’, ‘चुनिए उन्हें जो सरकार चला सकें’ या ‘बहुत हुई महंगाई की मार-अबकी बार मोदी सरकार’ कुछ ऐसे ही नारे थे जिनके सहारे कांग्रेस और भाजपा ने लोक सभा के चुनाव जीते और सरकारें बनाई। इसी तरह ‘सौगंध राम की खाते हैं, हम मंदिर वहीं बनाएंगे’ ये वो नारा था जो संघ परिवार और भाजपा ने 90 के दशक से लगाना शुरू किया और 2024 में उस लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। इसलिए आगामी 22 जनवरी को अयोध्या के निर्माणाधीन श्रीराम मंदिर में भगवान के श्री विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा का भव्य आयोजन किया जा रहा है। स्वाभाविक है कि मंदिर का निर्माण पूर्ण हुए बिना ही बीच में इतना भव्य आयोजन 2024 के लोक सभा चुनावों को लक्ष्य करके आयोजित किया जा रहा है। पर ये कोई आलोचना का विषय नहीं हो सकता। 



विगत 33 वर्षों में श्रीराम जन्मभूमि को लेकर जितने विवाद हुए उनपर आजतक बहुत कुछ लिखा जा चुका है। हर पक्ष के अपने तर्क हैं। पर सनातन धर्मी होने के कारण मेरा तो शुरू से यही मत रहा है कि अयोध्या, काशी और मथुरा में हिन्दुओं के धर्म स्थानों पर मौजूद ये मस्जिदें कभी सांप्रदायिक सद्भाव नहीं होने देंगी। क्योंकि अपने तीन प्रमुख देवों श्रीराम, श्री शिव व श्री कृष्ण के तीर्थ स्थलों पर ये मस्जिदें हिन्दुओं को हमेशा उस अतीत की याद दिलाती रहेंगी जब मुसलमान आक्रांताओं ने यहां मौजूद हिन्दू मंदिरों का विध्वंस करके यहां मस्जिदें बनाईं थीं। अपने इस मत को मैंने इन 33 वर्षों में अपने लेखों और टीवी रिपोर्ट्स में प्रमुखता से प्रकाशित व प्रसारित भी किया। इसलिए आज अयोध्या में भव्य मंदिर का निर्माण हर आस्थावान हिन्दू के लिए हर्षोल्लास का विषय है।



हर्ष का विषय है कि प्रभु श्रीराम के जन्म से लेकर राज्याभिषेक की साक्षी रही अयोध्या नगरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भव्य स्तर पर विकसित करने का संकल्प लिया और उसी प्रारूप पर आज अयोध्या का विकास हो रहा है ताकि दुनिया भर से आने वाले भक्त और पर्यटक अयोध्या का वैभव देखकर प्रभावित व प्रसन्न हों। भगवान श्री राम की राजधानी का स्वरूप भव्य होना ही चाहिए।  


एक बात और कि जब मोदी जी प्रधान मंत्री बने और मुझे उनकी ‘ह्रदय योजना’ का राष्ट्रीय सलाहकार नियुक्त किया गया, तब से यह बात मैं सरकार के संज्ञान में सीधे और अपने लेखों के माध्यम से ये बात लाता रहा हूँ कि अयोध्या, काशी और मथुरा का विकास उनकी सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप होना चाहिए एकरूप नहीं। जैसे अयोध्या राजा राम की नगरी है इसलिए उसका स्वरुप राजसी होना चाहिए।  जबकि काशी औघड़ नाथ की नगरी है जहां कंकड़-कंकड़ में शंकर बसते हैं। इसलिए उसका विकास उसी भावना से किया जाना चाहिए था न कि काशी कॉरिडोर बनाकर। क्योंकि इस कॉरिडोर में भोले शंकर की अल्हड़ता का भाव पैदा नहीं होता बल्कि एक राजमहल का भाव पैदा होता है। ऐसा काशी के संतों, दार्शनिकों व सामान्य काशीवासियों का भी कहना है। इसी तरह मथुरा-वृन्दावन में जो कॉरिडोरनुमा निर्माण की बात आजकल हो रही है वह ब्रज की संस्कृति के बिलकुल विपरीत है। यह बात स्वयं  बालकृष्ण नन्द बाबा से कह रहे हैं, नः पुरो जनपदा न ग्रामा गृहावयम्, नित्यं वनौकसतात् वनशैलनिवासिनः (श्रीमदभागवतम, दशम स्कंध, 24 अध्याय व 24 वां श्लोक), बाबा ये पुर, ये जनपद, ये ग्राम हमारे घर नहीं हैं। हम तो वनचर हैं। ये वन और ये पर्वत ही हमारे निवासस्थल हैं। इसलिए ब्रज का विकास तो उसकी प्राकृतिक धरोहरों जैसे कुंड, वन, पर्वत और यमुना का संवर्धन करके होना चाहिए, जहां भगवान श्री राधा-कृष्ण ने अपनी समस्त लीलाएं कीं। पर आज ब्रज तेजी से कंक्रीट का जंगल बनता जा रहा है। इससे ब्रज के रसिक संत और ब्रज भक्त बहुत आहत हैं। हमारे यहां तो कहावत है, ‘वृन्दावन के वृक्ष को मरम न जाने कोय, डाल-डाल और पात पे राधे लिखा होय।’  



यहां एक और गंभीर विषय उठाना आवश्यक है। वह यह कि नव निर्माण के उत्साह में प्राचीन मंदिरों के प्राण प्रतिष्ठित विग्रहों को अपमानित या ध्वस्त न किया जाए, बल्कि उन्हें ससम्मान दूसरे स्थान पर ले जाकर स्थापित कर दिया जाए।यहाँ ये याद रखना भी आवश्यक है कि किसी भी प्राण प्रतिष्ठित विग्रह की उपेक्षा करना, उनका अपमान करना या उनका विध्वंस करना सनातन धर्म में जघन्य अपराध माना जाता है। इसे ही तालिबानी हमला कहा जाता है। जैसा अनेक मुसलमान शासकों ने मध्य युग में और हाल के वर्षों में कश्मीर, बांग्लादेश व अफ़ग़ानिस्तान में मुसलमानों ने किया। इतिहास में प्रमाण हैं कि कुछ हिंदू राजाओं ने भी ऐसा विध्वंस बौद्ध विहारों का किया था।


अगर किसी कारण से किसी प्राण प्रतिष्ठित विग्रह को या उसके मंदिर को विकास की योजनाओं के लिए वहाँ से हटाना आवश्यक हो तो उसका भी शास्त्रों में पूरा विधि-विधान है। जिसका पालन करके उन्हें श्रद्धा पूर्वक वहाँ से नये स्थान पर ले ज़ाया जा सकता है।

पर उन्हें यूँ ही लापरवाही से उखाड़ कर कूड़े में फेंका नहीं जा सकता। ये सनातन धर्म के विरुद्ध कृत्य माना जाएगा। हर हिंदू इस पाप को करने से डरता है।