Friday, December 21, 2001

क्या पाक पर हमला जरूरी है ?

सारे देश में बहस छिडी है कि भारत को पाक अधिकृत कश्मीर पर हमला करना चाहिए या नहीं? दोनों ही पक्षों में अलग-अलग तरह के तर्क दिए जा रहे हैं। दरअसल संसद पर आतंकवादी हमले के बाद देश का निजाम बुरी तरह हिल गया है। आशंका तो थी पर ये न मालूम था कि हमलावर इतनी आसानी से लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था में घुसे चले आएंगे। अगर उपराष्ट्रपति के काफिले से आतंकवादियों की कार अचानक टकराई न होती तो बहुत बड़ा हादसा हो सकता था। इसीलिए विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पर हमला बोल रखा है। उनका कहना है कि जब यह बात मालूम थी कि आंतकवादियों के निशाने पर संसद है तो क्यों नहीं सावधानी बरती गई ? आतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई में सरकार का हर तरह से साथ देने को तैयार विपक्ष यह स्वीकारने को तैयार नहीं है कि संसद पर हमले में सरकार ने अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय दिया। भारी दुर्घटना को टाल देने के लिए सभी एकमत से उन सुरक्षाकर्मियों की तारीफ कर रहे हैं जिन्होंने अपनी जान पर खेल कर संसद की रक्षा की। उधर सरकार आतंकवादियों के इस दुस्साहस के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार मानकर उस पर हमला करने का मन बना रही है।

सभी ये मानते हैं कि भारत में आतंकाद फैलने में सबसे बड़ी भूमिका पाकिस्तान की रही है। इस बात के तमाम सबूत भारत सरकार के पास मौजूद हैं। कुछ सबूत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत करके भारत ने अपने प्रति दुनिया भर की सहानुभूति बटोरी है। यह हमारी विदेश नीति की सफलता है। विदेश मंत्री जसवंत सिंह कारगिल युद्ध के समय से ही अपनी भूमिका को बखूबी अंजाम देते आए हैं। 11 सितंबर के हमले के बाद तो अमरीका का रवैया भी बदला है। कश्मीर में फैले आतंकवाद को आज तक आजादी की लड़ाई मानने वाले देश अब यह समझ गए हैं कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है उसमें स्थानीय नागरिकांे की नहीं बल्कि भाड़े के आयातित आतंकवादियों की भूमिका ज्यादा है। जिन्हें पाकिस्तान की संस्था आईएसआई बाकायदा प्रषिक्षण, धन और हथियार देकर भारत भेजती रही है। इसलिए पाकिस्तान के प्रति कड़ा रूख अपनाना जरूरी है। पर देश के रक्षा विशेषज्ञ इस बारे में एकमत नहीं हैं। उनका मानना है कि ऐसा करना अपरिपक्वता का निशानी होगा। क्योंकि 11 सितंबर के बाद अब पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवादियों के शिविर हटा दिए गए हैं। इसलिए हमला करके भी कुछ मिलने वाला नहीं है। अमरीका अफगानिस्तान के विरूद्ध युद्ध में इसलिए कामयाब हो सका क्योंकि उसने इस युद्ध में भारी तादात में संसाधन भेजे, मगर सामने से लड़ने वाले अफगानी संसाधन हीन थे। फिर उसने अफागानियों से लड़वाया भी अफगानियों को ही। जबकि पाक अधिकृत कश्मीर पर अगर भारत हमला करता है तो पाकिस्तान चुप नहीं बैठेगा। वह भी पूरी ताकत लगा कर लड़गा। चीन भी शायद उसकी मदद को कूद पड़े। ऐसे में भारत एक लंबी लड़ाई में उलझ सकता है। जिसका विपरीत असर पहले से लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है। पर इस लड़ाई से भाजपा को उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में फायदा नजर आ रहा है। उसे उम्मीद है कि अगर विहिप राम मंदिर का सवाल उठा ले और भारत पाक के बीच संघर्ष हो जाए तो उसका काम बन जाएगा। लोगों की भावनाएं भड़काने में माहिर भाजपा यह नहीं चाहती कि किसी भी कीमत पर उत्तर प्रदेश की गद्दी उसके हाथ से छिने। अगर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा अच्छा प्रदर्शन नहीं करती तो उसकी केंद्र सरकार को भी भारी खतरा पैदा हो जाएगा। क्याकि तब भाजपा की केंद्र सरकार के सहयोगी दल अपने प्रांतों में होने वाले चुनावों में अपनी स्थिति बचाने के लिए भाजपा से पलड़ा छुड़ाना चाहेंगे। सत्तरूढ दल के लोग यह बात अच्छी तरह से जानते हैं इसलिए पाकिस्तान पर हमले की मांग को सबसे पहले भाजपा सांसदों ने ही हवा दी। उनका यह उत्साह भावनाएं तो भड़का सकता है पर आतंकवाद का समाधान नहीं निकाल सकता। भारत में आतंकवाद की समस्या बड़ी पेचिदा है। आतंकवाद के पनपने में कई चीजें काम करतीं हैं। मसलन धार्मिक स्कूलों या मदरसों में दी जा रही एकतरफा शिक्षा। गरीब युवाओं की बेरोजगारी जो उन्हें आतंकवादियों के सरगनाओं से मदद लेने को प्रेरित करती है। पैसे के लालच में ये युवा अपना सब कुछ गंवाने को तैयार रहते हैं। मजहब के नाम पर इनकी ऐसी दिमागी धुलाई की जाती है कि ये आतंकवाद को जेहाद का हिस्सा मानते हैं और अपने धर्म की रक्षा के लिए अपनी जान तक कुर्बान करने के लिए तैयार रहते हैं। संसद पर हमले में शामिल आतंकवादी युवा खासे पढ़े-लिखे थे। वल्र्डट्रेड सेंटर पर हमले के बाद जब अमरीकी सरकार ने उन हमलों में शामिल आतंकवादियों के अतीत की जांच करवाई तो उसे यह जानकर काफी हैरानी हुई कि ये नौजवान पढ़े-लिख और संपन्न घरों से थे। अमरीका में इस बात पर सघन अध्ययन किया जा रहा है कि पढ़े-लिखे आधुनिक लोग भी इस तरह मजहब के नाम पर अपनी जान कुर्बान करने के लिए कैसे तैयार हो जाते हैं ? यही सवाल भारत के सामने भी है। अगर पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत हमला करके कामयाबी भी हासिल कर ले तो भी आतंकवाद की घटनाओं से बचा नहीं जा सकता। कारण स्पष्ट है- आतंकवादी किसी एक संगठन या इलाके से जुड़े हुए नहीं हैं। सारे देश और विदेशों में फैले हैं। उन्हें आसानी से पकड़ा भी नहीं जा सकता क्योंकि उन्हंे कुछ स्थानीय नागरिकों का संरक्षण भी प्राप्त है। उनकी रणनीति गुरिल्ला है। वे मार कर गायब हो जाते हैं। चूंकि हवाला के जरिए देश में अरबों रूपया रात दिन आकर आतंकवादियों के बीच बंटता रहता है इसलिए वे निश्चिंत होकर अपने नापाक इरादों को अंजाम देने में लगे रहते हैं। संसद पर हमला करने वालों को भी हवाला के जरीए लाखों रूपया बाहर से आया था। इसलिए जब तक देश के भीतर आतंकवादियों के आर्थिक नेटवर्क को नहीं तोड़ा जाता तब तक कुछ खास होने वाला नहीं है। आज भारत ही नहीं पूरी दुनिया में इस बात की खुल कर चर्चा हो रही है कि आतंकवाद को अगर रोकना है तो हवाला नेटवर्क को रोकना होगा। क्योंकि पूरी दुनियां में आतंकवादियों को पैसे हवाला के जरिए ही पहुंच रहे हैं। पर भारत सरकार इस मामले पर खतरनाक चुप्पी साधे बैठी है। बड़े दुख की बात है कि 1991 में सीबीआई को कश्मीर के आतंकवादियों पर मारे गए एक छापे में मिले तमाम सबूतों के बावजूद हवाला कांड को हर स्तर पर बड़ी बेशर्मी से दबा दिया गया। जिसके तमाम सबूत हमारे पास मौजूद हैं। पर उनका जिक्र भर करने से संन्नाटा छा जाता है। सारे राजनैतिक नाटक बेनकाब हो जाते हैं। इस कोताही का नतीजा यह हुआ कि आतंकवादियों के बीच यह संदेश चला गया कि भारत की सरकार और उसकी जांच एजेंसियां आतंकवाद के हवाला स्रोतों को पकड़ने में रूचि नहीं ले रही हैं। आतंकवादियों को यह भी समझ में आ गया कि हवाला के इस अवैध तंत्र से फायदा उठाने वालों में देश के बड़े राजनैतिक दलों के सबसे सशक्त राजनेता भी शामिल हैं। इसीलिए उन्होंने जैन हवाला कांड जैसे महत्वपूर्ण मामले को दबवा दिया। इससे आतंकवादियों के हौसले और बढ़ गए। अगर 1991 से ही जैन हवाला कांड की ईमानदारी से जांच की गई होती तो आज आतंकवाद इस हद तक न फैल पाता। क्योंकि तब हवाला के पूरे नेटवर्क का पर्दाफाश हो जाता। आश्चर्य की बात है कि देश के बड़े नेता और वकील टीवी चैनलों पर आकर पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात तो कह रहे है पर आज तक किसी ने किसी चैनल पर या संसद में या फिर पत्रकारों के सामने जैन हवाला कांड की जांच में हुई कोताही का जिक्र नहीं किया, क्यों ? उन्होंने भी नहीं जिनके दल के नेताओं का नाम इसमें नहीं आया था। अन्य सभी घोटालों पर शोर मचाने वालों को हवाला कांड पर चुप रह जाना उनकी राजनैतिक मजबूरी है तो फिर वे किसी आधार पर आकर एक-दूसरे को कोसने का नाटक करते रहते हैं ?

इन हालातों में यह जरूरी है कि देश की भावनाओं को भड़काए बिना पूरी स्थिति का ठंड़े दिमाग से मूल्यांकन किया जाए। आतंकवाद से निपटने के लिए श्रीकेपीएस गिल जैसे लोगों को देश का सुरक्षा सलाहकार बनाया जाए और जैन हवाला कांड जैसे कांडों को दबाने के लिए जिम्मेदार पुलिस अफसरों व नेताओं के खिलाफ ईमानदारी से जांच करवा कर अपराधियों को सजा दी जाए। यदि ऐसा होता है तो पूरे देश के पुलिस अधिकारियों के सामने एक आदर्श संदेश जाएगा। वह यह कि अगर किसी ने भी आतंकवादियों या उन्हें संरक्षण और मदद देने वालों को पकड़ने में कोताही की तो उस पुलिसकर्मी को आतंकवादियों से मिला हुआ मानकर सजा दी जाएगी। संत तुलसी दास जी कह गए हैं, ‘भय बिन होय न प्रीत।’ इसलिए प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का यह कहना महत्वपूर्ण है कि अब वे आतंकवाद से निपटने में मात्र शब्दों से ही काम नहीं चलाएंगे बल्कि कुछ कर दिखाएंगे। अगर वाकई ऐसा होता है तो निसंदेह उसकी छवि सुधरेगी। पर इसके साथ यह अनिवार्य शर्त होगी कि आतंकवाद को अवैध आर्थिक मदद पहुंचाने के तंत्र का पर्दाफाश करने वाले जैन हवाला कांड जैसे कांडों की भी निष्पक्ष जांच करवाई जाए। इससे भारत सरकार की गरिमा और विश्वसनीयता बढ़ेगी। अगर ऐसा नहीं होता तो यह साफ हो जाएगा कि आतंकवाद से लड़ने के नाम पर सत्तारूढ़ दल केवल राजनैतिक लाभ कमाना चाहता है। उसकी रूचि आतंकवाद को खत्म करने की नहीं है। यह बहुत दुखद स्थिति होगी। इसलिए पाक पर हमले से पहले हम अपने गिरबां में झांकें कि क्या हमने देश के भीतर ही आतंकवाद को रोकने के सभी वांछित कदम उठा लिए है ? अगर नहीं तो क्यों नहीं ?

Friday, November 30, 2001

उत्तर प्रदेश में दंगल की तैयारी


 30-11-2001_PK
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह की मेहनत रंग ला रही है। प्रदेश की हवा बदलने लगी है। कुछ महीनों पहले तक उत्तर प्रदेश के मतदाता भाजपा के शासन से खुश नहीं थे। इसलिए लगता था कि आगामी विधान सभा चुनावों में भाजपा काफी पीछे छूट जायेगी। चूंकि इंका कोई विकल्प देने की स्थिति में नहीं आ पाई इसलिए मुलायम सिंह को सपा के लिए रास्ता साफ दिखाई दे रहा था। पर जब से राजनाथ सिंह ने मोर्चा संभाला है तब से लोगों को लगा कि प्रदेश सरकार का तौर तरीका    सुधरने लगा। इसीलिए भाजपा खेमे में उम्मीद बंधी कि चुनावी हवा उनके पक्ष में भी हो सकती है। आमतौर पर सत्तारूढ़ दल से मतदाता नाराज रहता है और उसके विरोधी दल को चुनना पसंद करता है। पश्चिमी बंगाल इसका एक अपवाद रहा है। लेकिन उत्तर प्रदेश में कोई भी दल अकेले सरकार बनाने की हैसियत नहीं रखता। दलितों की एक खास जाति के वोट मायावती की बसपा के लिए समर्पित है जिनके आधार पर बसपा की सीटें जीतना तय है। यही कारण है कि पिछले कई वर्षों से उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने या गिराने में बसपा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आगामी विधान सभा चुनाव में बसपा की यही स्थिति बनी रहने की पूरी सम्भावना है।
उधर इंका का प्रदेश नेतृत्व इतना ढीला है कि न तो वह प्रदेश में अपनी पहचान बना पाया है और न ही इंका के कार्यकर्ताओं का उसमें विश्वास है। हर शहर और गांव में इंका से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए लोगों की कमी नहीं है। पर ये तमाम पुराने कांगे्रसी दिशा निर्देशन और नेतृत्व के अभाव में निष्क्रिय हुए बैठे हैं। इसीलिए सपा का रास्ता साफ होता चला जा रहा है। हालांकि सपा के नेता व लोक सभा सांसद बलराम यादव पार्टी नेता पर भाई-भतीजावाद और कुनबा परस्ती का आरोप लगाते हैं। उनका कहना है कि बड़े औद्योगिक घरानों से जुड़े अमर सिंह सरीखे लोग सपा को लोहिया के विचारों से काफी दूर ले गये हैं। उन्हें संशय है कि फिल्म कलाकारों की भीड़ दिखाकर मतदाताओं को रिझाया जा सकता है। वे मानते हैं कि फिल्म कलाकारों को देखने  को जो भीड़ उमड़ती है वह सब की सब वोटों में तबदील नहीं होती। केन्द्र में मंत्री रह चुके लोकसभा सांसद बलराम सिंह यादव को नहीं लगता कि अपनी तमाम लोकप्रियता के बावजूद सिने अभिनेता अमिताभ बच्चन मुलायम सिंह के लिए वोट इकट्ठे कर पायेंगे। उनका तर्क है कि इलाहाबाद की जनता को 1984 के आम चुनाव में लम्बे चैड़ सपने दिखाकर अधर में छोड़ जाने वाले श्री बच्चन का जनता कैसे विश्वास करे ? बलराम सिंह यादव के निकट सूत्रों के अनुसार वे सपा के विरूद्ध और भाजपा के पक्ष में चुनाव प्रचार करने का मन बना चुके हैं। जबकि सपा के सूत्रों का कहना है कि बलराम सिंह यादव यह घुड़की सिर्फ इसलिए दे रहे हैं ताकि आगामी चुनाव में उनके चहेतों को टिकटें दिलवाई जा सकें।
उधर यात्राऐं निकाल कर, इंका वैसे तो हाथ-पैर मार रही है पर उसके पास प्रदेश स्तर पर न तो कुशल नेतृत्व है और न ही कोई ठोस कार्यक्रम। माधव राव सिंधिया और राजेश पायलट की असमय मृत्यु ने उसके दो लोकप्रिय नेता छीन लिए हैं। ले देकर अब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह बचे हैं जिनसे उत्तर प्रदेश में जादू करने की उम्मीद की जा रही है। यूं तो देश में दिग्विजय सिंह के प्रभावशाली नेता और कुशल प्रशासक होने का काफी प्रचार किया गया है, पर मध्यप्रदेश की जनता कुछ और ही कहानी कहती है। छत्तीस गढ़ राज्य बन जाने के बाद मध्यप्रदेश में उर्जा का भारी संकट पैदा हो गया है। वैसे तो छत्तीगढ़ में भी इंका की ही सरकार है और उसके मुख्यमंत्री अजीत जोगी दिग्विजय सिंह को अपना बड़ा भाई बताते हैं पर असलियत में दोनों एक दूसरे के लिए मुश्किलें बढ़ाने में जुटे रहते हैं। ऐसा मध्यप्रदेश इंका के लोग ही बताते हैं। हालत इतनी बुरी है कि मध्यप्रदेश में बिजली का संकट विकट होता चला जा रहा है। आये दिन पावर कट होते रहते हैं। यहां तक कि दीपावली के दिन भी ऐन लक्ष्मी पूजन के समय प्रदेश की राजधानी भोपाल में 4 घंटे बिजली नहीं आई। सारा शहर अन्धकार में डूबा रहा। जिस पंचायत राज व्यवस्था को लेकर दिग्विजय सिंह चुनाव जीते थे वह पंचायत राज व्यवस्था मध्यप्रदेश सरकार के दीवालियापन के कारण कागजों पर ही रह गई है। लिहाजा मध्यप्रदेश के गांव-गांव में भी इंका की प्रदेश सरकार को लेकर काफी निराशा है। ऐसे में अगर इंका दिग्विजय सिंह को उत्तर प्रदेश के मतदाता के सामने एक आदर्श मुख्यमंत्री के रूप में पेश करती है तो मतदाता यह पूछ सकते हैं कि जब मध्यप्रदेश का इतना बुरा हाल है तो उत्तर प्रदेश में नेतृत्व विहीन इंका क्या कमाल कर देगी ? खास कर तब जबकि उसका ढांचा बिल्कुल चरमराया हुआ है। हां अगर आज इंका उत्तर प्रदेश में एक साफ और नया नेतृत्व दे पाती तो शायद लोगों को उम्मीद बंधती। पर ऐसा लगता है कि इंका के ही कुछ दिग्गज यह नहीं चाहते कि उनके दल की अध्यक्षा सोनिया गांधी के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में इंका मजबूत हो। शायद उन्हें डर है कि देश के सबसे बड़े प्रान्त में अगर इंका के पैर जम गये तो सोनिया गांधी पार्टी पर भारी पड़ेंगी। उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों के लिए इंका के पास तुर्फ का दूसरा पत्ता प्रियंका गांधी हैं। कुछ लोगों का मानना है कि अगर प्रियंका गांधी चुनाव प्रचार में उतरती हैं तो वे हवा बना सकती हैं। पर इंका के प्रदेश संगठन की हालत देखकर तो ऐसा नहीं लगता कि यह संभव हो पायेगा। वैसे भी शायद प्रियंका गांधी पूरी तरह से राजनीति में लोकसभा के चुनावों के दौरान ही उतरना चाहेंगी। इसलिए इस वक्त उत्तर प्रदेश में इंका की हालत सबसे पतली है।
वैसे भी एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकों में मामूली परिवर्तन को लेकर जो तूल इंका सहित दूसरे विपक्षी दल दे रहे हैं उसका कोई विशेष लाभ चुनाव में उन्हें मिलने नहीं जा रहा है। जनता के लिए यह कोई अहम सवाल नहीं है। हां अगर, सपा और इंका जैसे दलों ने भाजपा के मुकाबले जनता के प्रति ज्यादा समर्पित होने का सकारात्मक प्रयास किया होता तो शायद उत्तर प्रदेश का मतदाता इन्हें भाव देता। पर इन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उधर सपा अपनी छवि सुधारने में जुटी है। मुलायम सिंह यादव अच्छे और प्रतिष्ठित लोगों को अपने दल में लाकर यह सन्देश देना चाहते हैं कि सपा अपराधियों का दल नहीं है। उनके पिछले शासनकाल में अपराध बढ़ने के आरोप लगते रहे हैं। अपने मित्रों की मदद करने को किसी भी सीमा तक जाने वाले मुलायम सिंह यादव पर अपराधियों को खुला संरक्षण देने के आरोप लगते रहे हैं। अब वे इस छवि से पीछा छुड़ाना चाहते हैं। पिछले दिनों अपने जन्मोत्सव की एक दावत में मुलायम सिंह यादव इतने मस्त हो गये कि उन्होंने नाच गाने तक में भाग लिया। उनकी यह बर्थ-डे पार्टी सारी रात चली। लोहिया के अनुयायी और जमीन से जुड़े नेता मुलायम सिंह यादव का यह आधुनिकरण उनके सहयोगी अमरसिंह की देन माना जा रहा है। सारी कोशिश स्वयं को आधुनिक और खुले दिमाग का दिखाने के लिए की जा रही है। अपने को शुद्ध समाजवादी मानने वाले कुछ लोहियावादी मुलायम सिंह यादव की कड़ी आलोचना करते हैं। उनका आरोप है कि फिल्मी सितारों की तड़क-भड़क और नाच गाने से उत्तर प्रदेश के नौजवानों को रोजगार मिलने नहीं जा रहा है। प्रदेश की समस्याऐं इतनी व्यापक और गहरी हैं कि उन्हें नाच-गाकर हल नहीं किया जा सकता। उन समस्याओं को दूर करने के लिए दूरदृष्टि और दिमाग में विकास का नक्शा होना आवश्यक होता है। इसलिए उन्हें नहीं लगता कि सपा अपने बूते पर उत्तर प्रदेश में कोई प्रभावशाली सफलता हासिल कर पायेगी। यह बात दूसरी है कि सपा के महासचिव अमरसिंह टी.वी. चैनलों पर यह दावा कर रहे हैं कि आगामी विधान सभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में उनके दल को पूर्ण बहुमत मिलेगा। 
ऐसे विरोधाभासी दावों के बीच उत्तर प्रदेश की राजनीति का दंगल चालू है। प्रदेश की आर्थिक स्थिति से चिंतित लोगों को राजनीतिज्ञों की बयान बाजी देखकर भारी निराशा हो रही है। समाज के प्रति जागरूक इस वर्ग का मानना है कि प्रदेश का चुनाव सरकारी फिजूलखर्ची रोकने, आधारभूत ढांचे को सुव्यवस्थित करने और अर्थव्यवस्था सुधारने के सवालों पर होना चाहिए न कि राजनीतिक स्टेंटबाजी पर। इन लोगों को डर है कि भावनात्मक मुद्दों को भड़काकर सभी राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा करेंगे। ऐसे में उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के सामने बड़ी दुविधा पैदा हो जायेगी। इसलिए इस चुनाव के भविष्य का अभी से कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

Friday, October 5, 2001

भले मुसलमानों की जिम्मेदारी

हर जमात में शरीफ लोगों की कमी नहीं होती। मुसलमानों में भी नहीं है। चाहे भारत के हों या पाकिस्तान के। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इम्तियाज अहमद उन मुसलमानों में से हैं जिन्होंने भारत में इस्लाम की हालत पर वर्षों गहन अध्ययन किया है। इस अध्ययन के आधार पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। इस पुस्तकों में उन्होंने बताने की कोशिश की है कि भारत में रहने वाले मुसलमानों का सामाजिक जीवन, सोच और प्राथमिकतायें दूसरे देशों के मुसलमानों से भिन्न हैं और भारतीय हैं। उनका मानना है कि धर्मान्धता से ग्रस्त होकर विेद्वेष की भावना रखने वाले मुसलमानों की संख्या बहुत थोड़ी है। भारत में रहने वाले ज्यादातर मुसलमान ये जानते हैं कि उनका जीवन पाकिस्तान में रह रहे मुसलमानों से कही बेहतर है। जितनी आजादी और आगे बढ़ने के अवसर उन्हें भारत में मिले हैं, उतने कट्टरपंथी पाकिस्तान में नहीं मिलते।

आमतौर पर यह माना जाता है कि पूरे देश का समाज हिन्दू और मुसलमान दो खेमों में बंटा है। इन दोनों खेमों के बीच स्थाई द्वेष और अपने अपने खेमे के भीतर भारी एकजुटता है। दोनों पक्षों के धर्मान्ध नेता इस मान्यता को बढ़ाने में काफी तत्पर रहते हैं। हकीकत यह नहीं है। कश्मीर के एक मुसलमान को यह देखकर आश्चर्य होगा कि तमिलनाडु के मुसलमानों के घर बारात का स्वागत केले के पत्ते, नारियल और इलायची से वैसे ही किया जाता है जैसे किसी हिन्दू के घर में। कश्मीर का मुसलमान तमिलनाडु के मुसलमान के घर का भोजन खाकर तष्प्त नहीं होता ठीक वैसेही जैसे तमिलनाडु का मुसलमान तमिल घर में भोजन खाकर ही प्रसन्न होता है। बात बात पर उत्तेजित हो जाने वाली बंगाल की आम जनता के साथ अगर आप रेलगाड़ी के साधारण डिब्बे में सफर कर रहे हैं और आपकी बहस किसी स्थानीय व्यक्ति से हो जाए तो आप अपने को अकेला पाएंगे। आपके विरोध में हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोग एकजुट होकर खड़े हो जायेंगे। वहां सवाल इस बात का नहीं होगा कि आप हिन्दू हैं या मुसलमान। आप गैर बंगाली हैं इसलिये आपके प्रति स्थानीय लोगों की हमदर्दी हो ही नहीं सकती। हर राज्य का यही हाल है। भाषा, पहनावा, भोजन, आचार विचार के मामले में भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों में रहने वाले लोग भिन्न भिन्न समुदायों में बंटै हैं मसलन तमिल, कन्नड, केरलीय, मराठी, गुजराती, उडि़या, बंगाली, असमिया, पंजाबी, बिहारी, हरियाणवी आदि। जब तक कोई धर्मान्धता की घुट्टी पिलाने न जाए स्थानीय जनता अपने धर्म के संकुचित दायरे में ही सिमट कर नहीं रहती बल्कि परदेशी के विरूद्ध स्थानीय लोगों की एकजुटता का प्रदर्शन करती है। इसलिये यह कहना कि सारे मुसलमान एक जैसे हैं, ठीक नहीं।

ठीक इसी तरह से ये सोचना भ्रम है कि इस्लाम धर्म के मानने वाले सभी लोगों में भारी एकजुटता होती है। कुरान शरीफ के मुताबिक खुदा की नजर में उसका हर बंदा एक समान हैसियत रखता है। कोई भेद नहीं। मुसलमान दावा भी करते हैं कि वे एक पंगत में बैठकर नमाज अदा करते हैं और एक ही पंगत में बैठकर खाते हैं पर यह भी हकीकत है कि उनकी यह एकजुटता कुछ खास मकसद तक सिमट कर रह जाती है। कायदे से मुसलमानों में जाति व्यवस्था नहीं होनी चाहिये पर चूंकि भारत में रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान स्थानीय मूल के ही लोग हैं जिन्होंने किन्हीं कारणों से इस्लाम स्वीकार कर लिया था और जब वे मुसलमान बने तो अपने साथ वे न सिर्फ अपनी जीवनशैली ले गये बल्कि जाति व्यवस्था को भी ले गये। इसीलिये मुस्लिम समाज में भी अनेक जातियां हैं। मसलन जुलाहे, बढ़ई, लुहार, धुनिया, नाई आदि। मुसलमानों में भी तथाकथित ऊंची और नीची जातियां होती हैं ऊंची जातियों में प्रमुख हैं- सैय्यद, लोधी, पठान वगैरह। अब अगर कोई गरीब मुसलमान जुलाहा किसी पठान या सैययद के बैटे से अपनी बेटी के निकाह का पैगाम लेकर जाए तो उसे कामयाबी नहीं मिलेगी। शायद इज्जत बचाकर लौटना भी मुश्किल होगा। ठीक वैसे ही जैसे हिन्दुओं में अगर कोई केवट जाति का पिता ब्राह्मण परिवार में अपनी कन्या का प्रस्ताव लेकर जाये तो उसके साथ भी ऐसा ही होगा। इसलिये यह मानना कि सारे हिन्दू एक तरफ हैं और सारे मुसलमान एक तरफ, गलत होगा।
हिन्दूओं की तरह ही मुसलमानों में बहुसंख्यक लोग ऐसे हैं जिन्हें मजहब से ज्यादा रोजी रोटी की फिक्र है। वे चाहे पाकिस्तान में रह रहे हों या भारत में। लाहौर में बसे राजनीति शास्.त्र के प्रोफेसर मुबारक अली बताते हैं कि पाकिस्तान की पढ़ी लिखी आबादी तालिबान की नीतियों की समर्थक नहीं है। उन्हें डर है कि अगर कठमुल्लापन इसी तरह बढ़ता गया और इसे रोका न गया तो पाकिस्तान की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था चूर चूर हो जाएगी

मिस्त्र, इरान, इराक, मलेशिया, इंडोनेशिया और तमाम दूसरे ऐसे देश हैं जो घोषित रूप से इस्लाम में आस्था रखने वाले देश हैं पर अगर इनकी तरक्की, वेशभूषा और आधुनिकता को देखा जाए तो यह आश्चर्य होगा कि मुसलमान होते हुए भी ये इतने प्रगतिशील कैसे हैं। इन देशों के संतुश्ट और खुशहाल नागरिक बताते हैं कि उन्होंने कुरान के मूल संदेश को अपनाया है। पर साथ ही हर मोर्चे पर आगे बढ़ने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता।

जिन लोगों को 1980 के मुरादाबाद के साम्प्रदायिक दंगों की याद है उन्हें ये भी याद होगा कि इन दंगों के बाद मुरादाबाद के कलात्मक बर्तनों के निर्यात में भारी कमी आयी थी। जिसके बाद हजारों हुनरमंद कारीगरों को बदहाली से मजबूर होकर अपने बच्चों के पेट पालने के लिये रिक्शा चलाना पड़ा। जो यह करने के बाद भी अपने बच्चों का पेट नहीं भर सके उन्होंने पूरे परिवार को तेजाब पिलाकर खुद भी पी लिया और खुदा को प्यारे हो गये। आज हालात फिर वैसे ही बन रहे हैं।

दुर्भाग्य से अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिये तमाम सियासती लोग और मजहबों के ठेकेदार देश की जनता को धार्मिक और जातीय खेमों में बांटते जा रहे हैं। जिसका भारी खामियाजा देश की आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। इसलिये ऐसे संवेदनशील माहौल में जब आतंकवाद का चारों तरफ तांडव हो रहाहो भारत के मुसलमानों को चाहिये कि वे वतनपरस्ती की एक ऐसी जलवाफरोशी करें कि उनके आलोचक भी दंग रह जायें। अक्सर यह सवाल उठाया जा सकता है कि इसी मुल्क में पैदा होने के बावजूद मुसलमानों से बार बार देश प्रेम का सबूत क्यों मांगा जाता है ? सवाल बिल्कुल जायज है। क्या ऐसा नहीं है कि देश के साथ अनेक मोर्चों पर गद्दारी करने वालों में विभिन्न प्रांतों के अनेक हिन्दू ही शामिल रहे हैं तो फिर ऐसी अपेक्षा मुसलमानों से ही क्यो ? इसकी एक वजह है। पिछले कुछ वर्षों से देश में फैल रहे आतंकवाद में शामिल नौजवान मुस्लिम समाज से ही आये हैं। इसलिये अगर देश की शेष जनता मुस्लिम समुदाय और आतंकवादियों के बीच सीधा सम्बन्ध देखती है तो यह अस्वाभाविक नहीं है। ठीक वेैसे ही जैसे अमरीका में हुए आतंकवादी हमले के बाद अमरीकी जनता ने एक सरदार जी को इसलिये मार डाला क्योंकि उनकी शक्ल ओसामा बिन लादेन से मिलती थी। गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। इसलिये भारत के मुसलमानों को चाहिये कि वे कट्टरपंथी और दहशतगर्दों से बचकर रहे। इतना ही नहीं इनको पकड़वाने और इनके हौसले नाकामयाब करने में सक्रिय हों। श्रीनगर विधानसभा के बाहर हुए भयानक विस्फोट की निंदा सारे भारत में उसी तरह की जानी चाहिये जैसे अमरीका में रहने वाले हर धर्म के लोगों ने न्यूयार्क के हमले के विरोध में प्रदर्शन और प्रार्थनायें कीं। यदि ऐसा किया जाता है तो इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। न सिर्फ फिरकापरस्त सियासतदानों के हौसले पस्त होंगे बल्कि समाज में जानबूझकर पैदा कर दी गयी खाई भी पटने लगेगी। इसमें कोई बुरा मानने की बात नहीं है। मौके की नजाकत को देखकर कभी कभी हमें रोजमर्रा की जिंदगी से हटकर भी कुछ करना पड़ता है। इससे आवाम का ही फायदा होता है। उम्मीद की जानी चाहिये कि भारत के मुसलमान वक्त के इस नाजुक दौर में परिपक्वता और होशियारी का परिचय देंगे ताकि हर परिवार में खुशहाली और अमन चैन बढ़े, नफरत और बैर नहीं।

Friday, September 28, 2001

क्या तीसरा विश्वयुद्ध होगा ?

एन्थोनी गोल्डस्मिथ का यह कथन महत्वपूर्ण है कि, ”तीसरे विश्वयुद्ध की यह खासियत होगी कि इसका उल्लेख किसी इतिहास की पुस्तक में नहीं होगा।यह सच्चाई है कि अगर तीसरा विश्वयुद्ध होता है तो पूरी दुनिया में आणविक हथियारों की मार से ऐसी तबाही मचेगी कि इतिहास लिखने के लिए कोई जिन्दा ही नहीं बचेगा। आज पूरी दुनिया की निगाह व्हाइट हाउस पर टिकी है। वहां क्या विचार चल रहा है ? क्या अमरीका वाकई लम्बी लड़ाई लड़ने जा रहा है ? अगर हां, तो यह लड़ाई कब शुरू होगी और कब तक चलेगी ? इस लड़ाई की रणभूमि क्या होगी ? भारत पर इसका क्या असर पड़ेगा ? पाकिस्तान इस लड़ाई मे कहां खड़ा होगा ? इससे पहले कि हम मौजूदा हालात पर चिन्तन करें, बेहतर होगा कि युद्ध के बारे में हम कुछ दार्शनिकों की सुप्रसिद्ध उक्तियों को याद कर लें। हैरोडोट्स ने कहा था कि, ”शांति काल में पुत्र पिता को दफनाते हैं जबकि युद्ध काल में पिता पुत्रों को दफनाते हैं।इसी तरह विक्टर ह्यूगो का कहना है कि यह कैसा विरोधाभास है, ”एक युद्ध की सफलता का आकलन इस बात से किया जाता है कि उसने कितना विध्वंस किया।कुछ दिन पहले तक लग रहा था कि अमरीका, अफगानिस्तान और उसके समर्थक देशों पर भारी हमला शुरू करने वाला है, पर अब कुछ दूसरी तरह के संकेत मिल रहे हैं।

वल्र्ड टेªड सेन्टर, पेन्टागन आदि पर घातक हमला करके आतंकवादियों ने अमरीकी स्वाभिमान को झकझोर दिया। उनकी आर्थिक और सैन्य शक्ति के गढ़ को ध्वस्त करके आतंकवादियों ने यह बता दिया है कि दुनिया की एकमात्र सुपर पावर अमरीका की सुरक्षा अभेद नहीं है। इस अपमान का बदला लेने को अमरीका का नेतृत्व ही नहीं बल्कि आम जनमानस भी पूरी तरह से उत्तेजित है। उधर अफगानिस्तान के सदियों से लड़ने वाले कबिलाई लोग अमरीका की धमकी से बेखौफ हैं। पिछले बीस वर्ष में अफगानिस्तान की भारी तबाही हुई। अब उनके पास गंवाने को कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। अफगानिस्तान की पहाडि़यां और वहां के पठानों का लड़ाकू जज्बा किसी भी आक्रमणकारी को भारी पड़ता रहा है। अंगे्रजों ने भी जब यह देख लिया कि अफगानिस्तान को जीतना संभव नहीं है तो उन्होंने अफगानियों के बीच कबिलाई झगड़े करवा कर उन्हें कमजोर किया। अपुष्ट खबरे मिल रही हैं कि अमरीका के कुछ रणनीतिकारों का मानना है कि अमरीका को चाहिए बजाय अफगानिस्तान पर सीधा हमला करने के उसके लालची, घमंडी और लड़ाकू अमीरों को मोटी रिश्वत देकर अफगानियों के बीच आपसी लड़ाई करवायें। इससे अमरीका को कई लाभ होंगे। एक तो बिना जानमाल बर्बाद किए ही अफगानिस्तान की तबाही सुनिश्चित हो सकेगी। दूसरा अमरीका आतंकवादियों खासकर कट्टरपंथियों का कोप भाजन नहीं बनेगा। तीसरा उसके अपने इलाके में आतंकवादी हमलों की सम्भावनाएं काफी कम हो जायेंगी। इस तरह उसका मकसद भी पूरा हो जायेगा और बिना ज्यादे घाटे के वह अपने दुश्मन को औकात बता सकेगा। पर क्या ऐसा होगा ? इस विषय पर मिलीजुली राय है। जिनके परिवार के सदस्य 11 सितम्बर को अकाल काल के गाल में समा गये, वे जाहिरन अपराधियों को सज़ाये मौत दिलवाना चाहते हैं। पर इसमें शक नहीं कि यदि यह लड़ाई छिड़ी तो अमरीका का जनजीवन भी भारी खतरे में फंस जायेगा। जहां मैकेनिक भी दूसरे शहर कार मरम्मत करने हवाई जहाज से जाता हो, जहां हवाई यात्रा आम बात हो वहां हवाई यात्रा ही अगर खतरे में पड़ जाये तो सारा जनजीवन ही रुक जायेगा। मौजूदा हालात में दुनिया का हर हवाई जहाज एक उड़ता हुआ बम है जिसे कोई भी सिरफिरा आतंकवादी किसी भी भवन पर ले जाकर विस्फोट कर सकता है। कितनी भी सुरक्षा क्यों न हो अमरीका की परिवहन व्यवस्था  और गगन चुम्बी अट्टालिकाओं का अस्तित्व ऐसे युद्धकाल में भारी खतरे के बीच रहेगा। लोग ऊंची इमारतों में जाने से डरेंगे। न जाने कब क्या हादसा हो जाए। जब हमले की कार्यवाई शुरू भी नहीं हुई तभी मैनहेट्टन शहर में अफरा-तफरी मची है। हर दिन किसी न किसी बड़ी इमारत में बम रखे होने की अफवाह से वहां भगदड़ मच जाती है। युद्धकाल में तो ऐसी घटनाएं आए दिन होंगी। फिर कैसे जनजीवन सामान्य तरीके से चल पायेगा ?

दूसरी तरफ अगर अमरीका कुछ नहीं करता तो न सिर्फ उसकी जनता उत्तेजित होगी बल्कि आतंकवादियों के हौसले भी बेइन्तहा बढ़ जायेंगे। इसीलिए दुनिया का लगभग हर सभ्य समाज अमरीका की सैनिक कार्यवाई का समर्थन कर रहा है। साथ ही दुनिया में आतंकवाद को बढ़ाने में अमरीका की भूमिका को ही याद किया जा रहा है। सब जानते हैं कि ओसामा विन लादेन अमरीका के इशारों पर काम करता था। आज वही उनका जानी दुश्मन बना हुआ है। मुसलमान देशों के लोग आरोप लगाते हैं कि रूस के पतन के बाद अमरीका ने पूरी दुनिया में अपने डंडे का जोर चला रखा है। इन मुसलमानों का कहना है कि अमरीका को उसके किए की सजा मिली है। इसलिए उनके यहां जश्न का माहौल है। फिलहाल तो यही लगता है कि अमरीका आतंकवादियों के ठिकानों पर हमला करने में झिझकेगा नहीं। हां, यह बात दूसरी है कि ये हमले प्रतीकात्मक ही हों। इस बात का दोनों पक्षों को डर है कि इस युद्ध में आणविक हथियारों का प्रयोग हो सकता है। कहीं ये हथियार सिरफिरे आतंकवादियों के हाथ लग गये तो वे पूरी दुनिया में तबाही मचा देंगे। समझदार मुसलमान 11 सितम्बर की कार्यवाई को उचित नहीं मानते। वे इसे इस्लाम के सिद्धांन्तों के विरूद्ध भी मानते हैं। साथ ही वे याद दिलाते हैं कि आज अपने निर्दोष अमरीकी नागरिकों की हत्या पर आंसू बहाने वाले अमरीका ने अमरीका के मूल निवासी रैड इंडियन्स को किस बेदर्दी से मार डाला था। हजारों रैड इंडियन्स की अमानवीय हत्या करके उनकी जमीन और उनके संसाधनों पर कब्जा जमा लिया था। ये लोग यह आरोप भी लगाते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह अमरीका हर क्षेत्रीय संघर्ष में बिन बुलाए दखल देता है और दादागिरी करता है उससे दुनिया के छोटे देशों के लोग उससे चिढ़ने लगे हैं। दूसरी तरफ सारी दुनिया में आतंकवाद के पीछे मुसलमान नौजवानों की बढ़ती संख्या को देखकर गैर-इस्लामी देश व कुछ इस्लामी देश भी चिंतित हैं और इसे रोकना चाहते है। वे आतंकवाद को निर्मूल करने के लिए कड़े से कड़ा कदम उठाने की सलाह दे रहे हैं। इसलिए पूरी दुनिया में आक्रोश, भय, उत्सुक्ता और तनाव का वातावरण है।

प्रश्न उठता है कि क्या अमरीका यीशू मसीह के बताये करुणा के सिद्धान्त का पालन करके इन कार्यवाहियों के दोषी लोगों या उन्हें संरक्षण देने वालो देशों को माफ करने को तैयार है ? अमरीका का जनमत सर्वेक्षण इसके विरुद्ध है। सवाल यह भी उठता है कि आतंकवाद से यह लड़ाई कितने दिन चलेगी ? आतंकवाद कोई एक देश की सरकार तो है नहीं, जिससे लड़कर निपट लिया जाये। आतंकवाद तो किसी एक नेता या एक संगठन से बंधा हुआ नहीं है। इसके सदस्य धर्म में अपनी दृढ़ आस्था से प्रेरित हैं। वे मजहब के नाम पर बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने को तैयार हैं। ऐसे आत्मघाती, जुझारू नौजवानों की फौज से जूझने का मतलब होगा एक लम्बे युद्ध की तैयारी। जिनका कोई एक देश या ठिकाना तो है नहीं जहां हमले करके उन्हें परास्त कर दिया जाए। सारी दुनिया में फैले सिरफिरे आतंकवादी कभी भी कहीं भी हमला बोलने में सक्षम हैं चाहे इससे उन्हें कुछ भी हासिल न हो। इसलिए कुछ लोगों का यह भी कहना है कि अमरीका उत्तेजना में अपरिपक्व कार्यवाई न करे। पर इसका अर्थ यह नहीं कि आतंकवादियों के आगे घुटने टेक दिए जाऐं। जरूरत तो आतंकवाद को निर्मूल करने की है। पर हर कार्यवाई काफी सोच-समझ कर करनी चाहिए। भारत के लोगों को इस बात की शिकायत है कि जब दाउद इब्राहिम के लोगों ने 1993 में मुम्बई में बमों की श्रृंखला खड़ी कर दी थी और भारी तबाही मचाई थी तब अमरीका ने आतंकवाद के विरुद्ध निर्णायक युद्ध का ऐलान क्यों नहीं किया ? कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद अब तक हजारों बेगुनाहों को मौत के घाट उतार दिया तब अमरीका क्यों चुप रहा ? तमाम प्रमाण हैं यह सिद्ध करने के लिए कि इस आतंकवाद को पाकिस्तान से सीधा समर्थन मिलता रहा है। दरअसल तो पाकिस्तान को वर्षों पहले आतंकवादी देश करार दे दिया जाना चाहिए था। फिर भी अमरीका पाकिस्तान से क्यों मदद मांग रहा है। भारतीयों के मन में यह आशंका भी है कि कहीं अमरीका भारत का इस्तेमाल करके अपना काम निकलवाकर चला न जाये। पीछे से भारत इस बात पर हाथ मलता रह जाये कि वे इस प्रक्रिया में कुछ भी हासिल न कर पाए - न तो कश्मीर में शांति और न पाकिस्तान को सबक। इतने सारे पेंच हैं कि गुत्थी आसानी से सुलझने वाली नहीं। इन हालातों में लगता तो नहीं कि तीसरे विश्वयुद्ध के आसार बनेंगे, बाकि वक्त ही बतायेगा। पर इसमें शक नहीं कि कट्टरपंथी आतंकवाद को अगर आज कुचला न गया तो भविष्य में ये लोग किसी को चैन से जीने न देंगे।

Friday, June 29, 2001

शाकाहारी नहीं हैं अंडे

अंडे शाकाहारी नहीं हैं। इसकी खपत बढ़ाने के लिए ”संडे हो या मंडे, रोज खाओ अंडे“ का नारा तो दिया ही जाता है इसे शाकाहारी भी बता दिया जाता है। अंडे का उपयोग बढ़ाने के लिए इसे प्रोटीन का बढि़या स्रोत बताया जाता है। प्रोटीन की मात्रा बहुत सारी शाकाहारी चीजों में भी काफी ज्यादा है पर इस विवाद में नहीं भी पड़ा जाए तो यह तथ्यात्मक रूप से गलत है कि अंडा शाकाहारी है। इसलिए शाकाहारियों के लिए अंडे को लोकप्रिय बनाने के लिए किए जाने वाले प्रचार का उल्टा नारा लगाया जा सकता है - संडे हो या मंडे, कभी न खाओ अंडे। कोई क्या खाए और क्या नहीं इसमें बहुत कुछ आदमी की अपनी पसंद और जीवनशैली के साथ-साथ कई अन्य बातों पर निर्भर करता है। फिर भी आप जो चीज खाते हैं या किसी कारण से नहीं खाते हैं उसके बारे में आपको आवश्यक जानकारी होनी चाहिए। सरकारी स्वास्थ्य बुलेटिन के अनुसार ही 100 ग्राम अंडों में जहाँ 13 ग्राम प्रोटीन होगा, वहीं पनीर में 24 ग्राम, मूँगफली में 31 ग्राम, दूध से बने कई पदार्थों में तो इससे भी अधिक एवं सोयाबीन में 53 ग्राम प्रोटीन होता है। यही तथ्य कैलोरी के बारे में है। जहाँ 100 ग्राम अंडों में 173 कैलोरी, मछली में 93 कैलोरी व मुर्गे के गोश्त में 194 कैलोरी प्राप्त होती है, वहीं गेहूँ व दालों में 300 कैलोरी, सोयाबीन में 350 कैलोरी व मूंगफली में 550 कैलोरी और मक्खन निकले दूध एवं पनीर से लगभग 350 कैलोरी प्राप्त होती है तो हम यह निर्णय ले सकते हैं कि स्वास्थ्य के लिए क्या चीज जरूरी है ? यह स्पष्ट करना भी उचित रहेगा कि अधिक कोलेस्ट्रोल शरीर के लिए लाभदायक नहीं है। 100 ग्राम अंडों में कोलेस्ट्रोल की मात्रा 500 मिलीग्राम है और मुर्गी के गोश्त में 60 है तो वही कोलेस्ट्रोल सभी प्रकार के अन्न, फलों, सब्जियों आदि में शून्य है। अमेरीका के विश्व-विख्यात विशेषज्ञ डाॅ. माइकेल कलेपर का कहना है कि अंडे का पीला भाग विश्व में कोलेस्ट्रोल एवं जमी चिकनाई का सबसे बड़ा स्रोत है जो स्वास्थ्य के लिए घातक है। उन्होंने यह भी साबित किया है कि जो व्यक्ति माँस या अंडे खाते हैं उनके शरीर में ‘रिस्पटरों’ की संख्या में कमी हो जाती है जिससे रक्त के अन्दर कोलेस्ट्रोल की मात्रा अधिक हो जाती है। इससे हृदय रोग शुरू हो जाता है और गुर्दे के रोग एवं पथरी जैसी बीमारियों को भी बढ़ावा मिलता है।

वास्तविकता यह है कि 1962 में यूनीसेफ ने एक पुस्तक प्रकाशित की तथा अंडों को लोकप्रिय बनाने के लिए अनिषेचित (इन्र्फटाइल) अंडों को शाकाहारी अंडे (वेजीटेरियन) जैसा मिथ्या नाम देकर भारत के शाकाहारी समाज में भ्रम फैला दिया। 1971 में मिशिगन यूनीवर्सिटी (अमेरिका) के वैज्ञानिक डाॅ. फिलिप जे. स्केन्ट ने यह सिद्ध किया कि:

1. अनिषेचित अंडे किसी भी प्रकार से शाकाहारी नहीं होते क्योंकि वे न तो पेड़ों पर उगते हैं और न किसी पौधे पर बल्कि वे सब मुर्गी के पेट में से ही उत्पन्न होते हैं। एक वैज्ञानिक प्रयोग के आधार पर यह देखा गया है कि विद्युत धारा के द्वारा अंडों को आंका जा सकता है। अनिषेचित अंडे में निषेचित अंडे की भाँति ही यह विद्युत धारा होती है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि निर्जीव वस्तु में कभी भी विद्युत धारा का अंकन नहीं किया जा सकता।

2. विज्ञान ने यह साबित कर दिया है कि किसी भी प्राणी के जीवन का आधार मात्र लैंगिक प्रजनन क्रिया ही नहीं है बल्कि अलैंगिक प्रजनन के द्वारा भी जीवन हो सकता है जैसे अमीबा और अनेक एककोशीय प्राणी बिना निषेचन क्रिया के उत्पन्न होते रहते हैं। इसी प्रकार से ”टैस्ट ट्यूब बेबी“ या उसके द्वारा उत्पन्न प्राणी निर्जीव नहीं गिने जा सकते।

3. अनिषेचित अंडों का दूसरा हिस्सा शुक्राणु होते हैं जो सूक्ष्मदर्शी यंत्र के द्वारा नीचे चलते-फिरते नज़र आते हैं। यही शुक्राणु अंडाशय अर्थात् ओवरीज में चलकर मुर्गी के गर्भाशय अर्थात् यूट्रस तक पहुँचते हैं और इन अंडों में क्रोमोसोम्स की संख्या निषेचन के बाद दोगुनी हो जाती है। तो क्या निषेचित अंडे निर्जीव कहे जा सकते हैं ?
4. अंडों के मोटे छोर पर एक वायु क्षेत्र होता है जो कि बहुत महत्वपूर्ण है। यह क्षेत्र अंडे की दो कवच-झिल्लियों को अलग करता है और भू्रण को श्वास की सुविधा देते हुए बाहरी दुनिया से जोड़ता है। यह सभी प्रकार के अंडों में होता है। अंडों के गर्भ से बाहर आते ही उसमें विदलन (क्लीवेज) शुरू हो जाता है।

5. श्वास लेने की क्रिया जीवन की निशानी है। प्रत्येक अंडे के ऊपरी भाग पर लगभग 15,000 सूक्ष्म छिद्र होते हैं जिनसे अंडे का जीव साँस लेता है। और, जब कोई अंडा श्वास लेना बन्द करता है तो वह अंडा सड़ने लगता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि हर अंडा वह चाहे निषेचित हो या अनिषेचित, उसमें जीव होता है।

6. श्री फिलिप जे. स्कैंम्बल ने अपनी विख्यात पुस्तक ”पोल्टरी फीड्स एंड न्यूट्रीशन“ के पृष्ट 15 पर साफ-साफ लिखा है कि ”अंडा बहुत नाजुक होता है। यह प्रतिकूल वातावरण के प्रति भी संवेदनशील होता है। वस्तुतः अंडे की उत्पत्ति बच्चे के सृजन के निमित्त होती है, मनुष्य की खुराक के लिए नहीं। अंडे में हवा के आने-जाने की नैसर्गिक व्यवस्था है। सफेद खोल के अन्दर बने सूक्ष्म छिद्रों में होकर आक्सीजन अन्दर आती है और चर्बी की भाप कार्बन डाइआक्साइड को बाहर फैंकती है, जिससे अंडे का भू्रण जीवित होकर विकास करता है। वही बात अन्य फर्टीलाइज्ड अंडों पर भी लागू होती है।“

सच्चाई यह है कि अंडे दो प्रकार के होते हैं एक वे जिनसे बच्चे निकल सकते हैं तथा दूसरे वे जिनसे बच्चे नहीं निकलते। मुर्गी यदि मुर्गे के संसर्ग में न आए तो भी जवानी में अंडे दे सकती है। इन अंडों की तुलना स्त्री के रजः स्राव से की जा सकती है। जिस प्रकार स्त्री के मासिक धर्म होता है। उसी तरह मुर्गी के भी यह धर्म अंडों के रूप में होता है। यह अंडा मुर्गी की आन्तरिक गन्दगी का परिणाम है। मुर्गियाँ जो अंडे देती हैं वे सब अपनी स्वेच्छा से या स्वभावतया नहीं देतीं ! बल्कि उन्हें विशिष्ट हार्मोन्स और एग-फम्र्युलेशन के इन्जेक्शन दिये जाते हैं। इन इन्जेक्शनों के कारण ही मुर्गियाँ लगातार अंडे दे पाती हैं। अंडे के बाहर आते ही उसे इंक्यूबेटर (सेटर) में डाल दिया जाता है ताकि उसमें से 21 दिन की जगह 18 दिनों में ही चूज़ा बाहर आ जाए। मुर्गी का बच्चा जैसे ही अंडे से बाहर निकलता है नर तथा मादा बच्चों को अलग-अलग कर लिया जाता है। मादा बच्चों को शीघ्र जवान करने के लिए एक खास प्रकार की खुराक दी जाती है और इन्हें चैबीसों घंटे तेज़ प्रकाश में रखकर सोने नहीं दिया जाता ताकि ये दिन रात खा-खा कर जल्दी ही रजः स्राव करने लगें और अंडा देने लायक हो जाऐं। अब इन्हें ज़मीन की जगह तंग पिंजरों में रख दिया जाता है। इन पिंजरों में इतनी अधिक मुर्गियां भर दी जाती हैं कि वे पंख भी नहीं फड़फड़ा सकतीं। तंग जगह के कारण आपस में चोंचें मारती हैं, जख़्मी होती हैं, गुस्सा करती हैं व कष्ट भोगती हैं। जब मुर्गी अंडा देती है तो अंडा जाली में से किनारे पड़कर अलग हो जाता है और उसे अपनी अंडे सेने की प्राकृतिक भावना से वंचित रखा जाता है ताकि वह अगला अंडा जल्दी दे। जिन्दगी भर पिंजरे में कैद रहने व चल फिर न सकने के कारण उसकी टांगे बेकार हो जाती हैं। जब उसकी उपयोगिता घट जाती है, तो उसे कत्लखाने भेज दिया जाता हैै। इस प्रकार से प्राप्त अंडे अहिंसक व शाकाहारी कैसे हो सकते हैं ?

Friday, April 27, 2001

भारत बंग्लादेश सीमा काण्ड केवल मानसूनी देशभक्ति ही काफी नहीं


भारत के रहमोकरम पर आज़ादी हासिल करने वाला आमार सोनार बंग्लादेश आज वो कर रहा है जो दुश्मन भी नहीं करता। उसके अर्द्धसैनिक संगठन बंग्लादेश रायफल्स ने न सिर्फ मेघालय सीमा पर बसे गांव परडीवाह पर कब्ज़ा ही किया बल्कि सत्रह भारतीय सिपाहियों को अमानवीय यातनाएं देकर बड़ी क्रूरता से मार भी डाला। इतनी क्रूरता से कि उनके शव तक पहचानना मुश्किल था। नतीजतन बंग्लादेश की सीमा पर मारे गए सत्रह शहीदों के परिवारों को अपने सपूतों की अंतिम झलक भी नसीब नहीं हुई। उनके शरीरों की ज़जऱ्र हालत देखते हुए यही बेहतर समझा गया कि उन्हें अपने परिवारजनों और घर से दूर सीमा पर ही अग्नि को समर्पित कर दिया जाए। सेनानायकों की उपस्थिति में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। सुहाग का सिन्दूर माथे पर सज़ाए कुछ पत्नियां अभी भी इन्तज़ार में हैं कि उने पति लौट आएंगे। मातम का माहौल और तमाम अंतिम रिवायतें पूरी होने के बावजूद वो अपना सिन्दूर मिटाने के लिए तैयार नहीं हैं। ताउम्र पति का साथ निभाने के लिए वचनबद्ध भारतीय नारी पति की लाश अपनी आंखों से देखे बिना माने भी तो कैसे माने कि अब वो विधवा हो गई है। उन सिपाहियों के नौनिहाल पिता को मुखाग्नि देने के अपने अधिकार से भी वंचित रह गये। कोई दुश्मन भी हमारे जवानों के साथ ऐसा घिनौना सलूक नहीं करता जैसा हमारे दोस्त बांग्लादेश ने किया।
आखिर ऐसा हुआ क्यों ? सत्ता के गलियारों में डोलने वाले अलग अलग बातें कह रहे हैं। कुछ लोग यह खबर फैला रहे हैं कि यह इंकाईयों की साजिश का परिणाम है। तहलका के बाद यह काण्ड करवाकर वे भारत सरकार की नेतृत्व क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगाना चाहते हैं। इन लोगों का दावा है कि अब से अगले संसदीय चुनाव तक इंकाई देश के सामने भाजपा सरकार की छवि बिगाड़ने में जुटे रहेंगे। ऐसा दावा करने वाले यह बताना चाहते हैं कि शेख हसीना पर इंदिरा गांधी परिवार के जो एहसानात हैं उनके चलते वे नेहरू खानदान के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहती हैं। इंकाई इसे कोरी बकवास बताते हैं। वे पलटकर आरोप लगाते हैं कि तहलका के बाद उठे विवाद से देश का ध्यान बटाने के लिए भाजपा सरकार ने ही यह चाल चली है। सच्चाई जो भी हो, जो कुछ हुआ वह बहुत दर्दनाक है। इसके सही कारणों की निष्पक्षता से खोज की जानी चाहिए। ताकि भविष्य में ऐसी दुर्घटनाएं न हों। फिलहाल इस घटना ने एकबार फिर देशभर में मानसूनी देशभक्तों को सक्रिय कर दिया है। वे देश के अलग-अलग हिस्सों में अपनी देशभक्ति का सबूत सड़कों पर प्रदर्शन करके दे रहे हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। पर सवाल है कि हमारी देशभक्ति पिटने के बाद ही क्यों जागृत होती है ? भारत-चीन युद्ध हो या भारत-पाक युद्ध हम बरसाती मेंढकों की तरह अचानक एक ही रात में चारों तरफ से देशभक्ति की टर्र-टर्र शुरू कर देते हैं। तनाव के बादल छंटते ही हम या तो उदासीन होकर बैठ जाते हैं या खुद ही गद्दारी के कामों में जुट जाते हैं। एक बार फिर मानसूनी देशभक्तों का देशपे्रम उफान लेने लगा है। आज हर कोई बयानबाजी करने में जुटा है। कोई बंग्लादेश को मुंहतोड़ जवाब देने की बातें कर रहा है तो कोई भारत में घुसपैठ करके जीवनयापन करने वाले करोड़ों बंग्लादेशियों को उखाड़ फेंकने की मांग कर रहा है। पर सोचने वाली बात यह है कि ऐसी दुर्घटनाएं क्यों होती हैं ? कहीं ये हमारी ढुलमुल नीतियों और कमजोरी का नतीजा तो नहीं। 1999 में लद्दाख सीमा पर पाकिस्तानी सेना की बर्बरता का शिकार हुए छः जवानों के बाद हमारे कान खड़े हो जाने चाहिए थे। पर ऐसा नहीं हुआ और शायद इसीलिए हमें नीचा दिखाने की मंशा रखने वालों के हौसले इतने बढ़ गये कि उन्होंने फिर ऐसा कांड कर डाला। यह कांड अबकी बार हमारे पारम्परिक शत्रु देश पाक सीमा पर नहीं बल्कि मित्र देश बंग्लादेश की सीमा पर हुआ। मई 1999 में जम्मू-कश्मीर की लद्दाख सीमा पर हमारे छः जवानों को ऐसी ही क्रूर यातनाएं देकर मार डाला गया था। लोग प्रश्न पूछ रहे हैं कि देश के नेतृत्व में ऐसी दुखद घटनाओं को रोकने के लिए कौन से कड़े कदम उठाए ? वैसे कारगिल की घटनाओं को बीते अभी बहुत समय नहीं हुआ कि यह नया कांड हो गया।
ऐसी दुर्घटनाओं में सिपाहियों और स्थानीय जनता के मनोविज्ञान का अध्ययन करने वाले बताते हैं कि प्रायः सीमा पर तैनात जवानों के साथ ऐसी घटनाऐं स्थानीय आक्रोश का विस्फोट बन कर सामने आती हैं। अक्सर आरोप लगाया जाता है कि किसी भी देश की सीमाओं की रक्षा करने वाले सिपाही क्यों न हों वे सब अपने घरों से दूर रहते-रहते इतने उकता जाते हैं कि स्थानीय जनता से अपने व्यवहार में शालीनता की सीमाऐं लांघ जाते हैं। जिन देशों की सीमाओं पर बसने वाले नागरिक दब्बू किस्म के होते हैं वे अपने माल, अस्मिता और स्वाभिमान की कीमत पर भी सिपाहियों की अनुचित मांगों का शिकार बनते रहते हैं। पर जिन सीमाओं पर रहने वाले स्थानीय लोग स्वभाव से ही आक्रामक प्रवृत्ति के होते हैं वे सिपाहियों की अनुचित मांगों का डटकर विरोध करते हैं और कभी-कभी क्रोध के अतिरेक में वे सीमाओं पर तैनात सिपाहियों को अकेले में घेर कर उसके साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार करते हैं। ताजा घटना में परडीवाह गांव में हुई हिंसा के पीछे ऐसे कोई कारण नहीं हैं। पर प्रायः ऐसी दुर्घटनाओं के पीछे यह काफी महत्वपूर्ण कारण होता है। ताजा घटनाओं के तथ्य तो केवल निष्पक्ष जांच के बाद ही सामने आयेंगे।
इस घटनाक्रम से देश की जनता में काफी उत्तेजना है। उसे देश के नेतृत्व की क्षमता पर शक हो रहा है। वह सवाल पूछ रही है कि अखण्ड भारत की बात करने वाले विखंडित भारत की रक्षा तो कर नहीं पा रहे फिर अखंड राष्ट्र कैसे बनायेंगे। देश की जनता राजनेताओं की ढुलमुल नीतियों से नाखुश है। आज तिब्बत और चीन के मामले में पंडित नेहरू की तथाकथित उदारता के खामियाजे को भी याद किया जा रहा है। लोग अब वह भी घटना याद कर रहे हैं जब पंडित नेहरू ने 1963 में पड़ौस के देश बर्मा (म्यांमार) को सर्वदीप हथेली पर रखकर भेंट कर दिया था। 1972 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसी तरह विवाद के बाद श्रीलंका को कच्चटीब नाम का टापू उपहार स्वरूप दे दिया था। 1971 में पाकिस्तान को करारी शिकस्त देने के बाद जिस तरह श्रीमती गांधी ने जीता हुआ इलाका लौटाया उससे देश में कोई भी सहमत नहीं था, न तो नागरिक ही न ही रक्षा सेनाऐं। 1971 में ही बांग्लादेश में भारत का अरबों रूपया और हजारों शहादतें देने के बाद भी बंग्लादेश को आजाद छोड़ देने की बात किसी हिन्दुस्तानी के गले नहीं उतरी। 1974 में इन्हीं शेख हसीना के वालिद साहब शेख मुजीबुर्रहमान को बचाने के प्रयासों में 21 सेना नायकों और तीन हेलिकाप्टरों को भारत ने बलि चढ़ा दिया था। 1975 में शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या के बाद भारत ने शेख हसीना को वर्षों शाही मेहमान की तरह पलकों पर बिठा कर रखा। वही शेख हसीना आज बंग्लादेश की प्रधानमंत्री हैं और गृह मंत्रालय उनके ही अधीन है। यानी हमारे सिपाहियों के साथ ऐसा बर्बरतापूर्ण वीभत्स व्यवहार करने वाली बंग्लादेश रायफल्स सीधे बेगम शेख हसीना के अधीन है। फिर भी वे बड़ी मासूमियत से कह रही हैं कि जो कुछ हुआ उसकी उन्हें कोई जानकारी नहीं है। बंग्लादेश रायफल्स के महा निदेशक या अन्य उच्च अधिकारी अगर इतने उदण्ड हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर कूटनीतिज्ञ संवेदनशीलता को समझे बिना मनमाने आदेश दे देते हैं जिनकी जानकारी बेगम साहिबा को नहीं होती तो ऐसे अधिकारियों को एक क्षण भी अपने पद पर रहने का कोई अधिकार नहीं है। फिर क्या वजह है कि बेगम शेख हसीना सब कुछ देख सुनकर भी इतनी भोली बन रही हैं कि अभी भी वे मात्र जांच कराने की बात ही कर रही हैं, क्या वजह है कि वे बंग्लादेश रायफल्स के महानिदेशक को हटाने में संकोच कर रही हैं। वे इसे अपना अन्दरूनी मामला बताकर भारत को इस सबसे दूर रखना चाहती है। दूसरी तरफ हमारी गुप्तचर ऐजेंसियों का दावा है कि उल्फा और नागा आतंकवादियों को मदद बांग्लादेश से ही मिल रही है। जहां बाकायदा आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर चलाये जा रहे हैं। फिर हमारा नेतृत्व इतना ढीला क्यों है ?
इंका से लेकर भाजपा तक देश के उदारवादी नेता भले ही अपने पड़ौसी देशों को उपहार स्वरूप दिए गए इलाकों को भूल जाएं पर बंग्लादेश वाले इतनी जल्दी कैसे भूल गए कि भारत ने उन्हें कितनी कुर्बानी करके आजाद करवाया था ? लम्बे विवाद के बाद 1998 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल ने बंग्लादेश को गंगा के पानी और पेट्रोलियम उत्पादों की नियामतें भी बख्शी थीं। कल अगर भारत में नौकरी का अधिकार प्राप्त नैपाली लोग भी ऐसा करने लगें तो हम क्या करेंगे ? श्रीलंका की मदद करने गये राजीव गांधी खुद लिट्टे के बम का शिकार हो गये। यही सिलसिला चला आ रहा है। हम पिटते भी जाते हैं और गुर्राते तक नहीं। एक तरफ ऐसा ढीलापन है तो दूसरी तरफ देश में मानसूनी देशभक्ति का बुखार चढ़ना शुरू हो गया है। बहुत अर्सा नहीं बीता जब कारगिल घटनाक्रम के बाद देश में तमाम तरह की देशभक्ति का सैलाब उमड़ पड़ा था। छोटे-बड़े नेता ही नहीं अभिनेता तक भी खुद को दूसरे से ज्यादा बड़ा देशभक्त साबित करने में जुट गये थे। चूहा देखकर भी डर जाने वाले लोग दावा करने लगे थे कि अगर सरकार उन्हें शस्त्र मुहैया कराए तो वे सीमा पर जाकर लड़ने को तैयार हैं। यही नहीं दाल में कंकड़, गर्म मसाले में लीद, आटे में गन्ने की खोई का बुरादा और पेट्रोल में सस्ता केमिकल मिलाने वाले भी शहीदों के परिवारों को लाख-लाख रूपये देने की घोषणा करने लगे। भले ही युद्ध के बाद अपने धंधों कों और ज्यादा दो नम्बरी बनाना पड़े पर किसी भी तरह मुनाफा कमाने के लिए तत्पर रहने वाले बहुत से लोग भी देशभक्ति का दावा करने से नहीं चूकते।
दरअसल भारतीय राजनेताओं की सहृदयता और लोगों की मानसूनी देशभक्ति ही ऐसी समस्याओं का मूल कारण है। भारत के लोगों में देशभक्ति भी मानसून की तरह युद्ध के मौसम में ही फूटती है। देशभक्ति एक ज़ज़्बा है, एक जुनून है जिसे हर दिन, हर पल जिन्दा रखना होता है। वैसे ही जैसे जापान के लोग जिन्दा रखते हैं। कारगिल के घुसपैठिये लौट गये तो देशभक्तों के बरसाती बादल भी लौट गये। बंग्लादेशी भी लौट गये हैं। कुछ दिन में फिलहाल पनपी देशभक्ति भी ठंडी पड़ जायेगी। पर देश की आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा से जुड़े तमाम प्रश्न अनसुलझे ही रह जाऐंगे। आज मुल्क जिस चैराहे पर खड़ा है उस पर से उसे आगे ले जाने के लिए हिम्मत वाले जांबाज़ देशभक्तों की हर स्तर और हर क्षेत्र में जरूरत है। ऐसे देशभक्त जो केवल भावावेष में बन्द मुट्ठियां ही हवा में न लहरायें बल्कि कुर्बानी की हद तक जाने को तत्पर हों। तभी देश मौजूदा मकड़जाल से निकल पायेगा। वर्ना देश की राजनीति पर विभिन्न रंगों और नामों के बैनर लेकर छाये रहने वाले लोग ही ताश के पत्तों की तरह आपस में फिटते रहेंगे। कुछ नहीं बदलेगा। क्योंकि अन्धे अपनों को ही रेवड़ी बांटते रहेंगे और मुल्क बेइन्तहा समस्याओं की आग में झुलसता रहेगा।

Friday, April 13, 2001

तहलका के बाद संघ परिवार और इंका में आत्मनिरीक्षण


पिछले दिनांे तहलका हमले से निपटने की रणनीति के तहत भाजपा ने देश भर में जनसभाएं आयोजित करने का फैसला किया। कुछ नगरों में यह जनसभाऐं आयोजित की भी गईं। पर अपने ही कार्यकत्र्ताओं में जोश की कमी और जनता की तरफ से उदासीनता के कारण फिलहाल इन रैलियों का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया है। जनसभाओं की जगह अब अपने कार्यकत्र्ताओं का मन टोहने के लिये राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा स्थानीय स्तरों पर अनेक गोष्ठियां गोपनीय रूप से आयोजित की जा रही हैं। इन गोष्ठियों में कई नई बातें देखने में आई हैं। मसलन अब इन गोष्ठियों में कार्यकत्र्ताओं को खुलकर बोलने और अपने मन की बात बिना संकोच कहने की छूट दी जा रही है। इतना ही नहीं वर्षों बाद संघ के उन कार्यकत्र्ताओं को भी बुलावा भेजा गया जिनकी लम्बे समय से ऐसी गोष्ठियों में उपेक्षा की जा रही थी। उनकी उपेक्षा का कारण था उनकी स्पष्टवादिता। सत्ता प्राप्ति के उत्साह में लगे संघ के प्रचारकों को ऐसी आलोचनात्मक शैली झेलने की फुर्सत नहीं थी। उन्हें सत्ता जितनी निकट आती दिख रही थी उतनी ही अपने पारम्परिक मूल्यों से उनकी दूरी बढ़ती जा रही थी। तर्क यह था कि लक्ष्य की प्राप्ति के लिये छोटे-मोटे समझौते तो करने ही पड़ते हैं। एक बार सत्ता मिल जाये और दूसरों से बेहतर काम करके दिखा दिया जाए फिर जनता हमेशा हमारा ही वरण करेगी। इस प्रक्रिया में नतीजा यह हुआ कि जिस तरह आजादी के बाद समर्पित और त्यागी प्रवृत्ति के कांगे्रस जनों को दरकिनार करके सत्तालोलुप लोग कांगे्रस पर हावी हो गये थे, ठीक उसी तरह सत्ता प्राप्ति के इस दौर में भाजपा के उन कार्यकत्र्ताओं और नेताओं को दरकिनार कर दिया गया जिनका पूरा जीवन डा. हेडगेवार के विचारों और उद्देश्यों के प्रति समर्पित रहा था। जिन्होंने न सिर्फ त्यागमय जीवन से बल्कि अपने आचरण से अपने वोट बैंक को स्वर्णिम भविष्य के लिये आश्वस्त किया था। पर जिन हालातों में राजग की सरकार बनी उसमें संघ की विचारधारा को पीछे हट जाना पड़ा। पीछे हटने का यह क्रम इस कदर आगे बढ़ गया कि भाजपा के ज्यादातर नेताओं के आचरण में ऐसा कुछ भी शेष न रहा जिसके सपने लोगों को दिखाये गये थे। सत्ता का भी जो रूप सामने आया वह वही था जो देश की जनता पिछले पचास वर्षों से देखती आ रही है। सरकारी धन की बर्बादी, सामन्ती ठाटबाट, भाई-भतीजावाद, आपसी कलह और गुटबन्दियां, किराये की भीड़, नारे, झूठे आश्वासन, कड़वी सच्चाई पर पर्दा डालना, राग-रंग और उत्सवों में जनता का ध्यान बंटाकर असली मुद्दों की अपेक्षा कर देना, गरीब के हक के लिए काम करने का नाटक करके केवल अति सम्पन्न वर्ग के हितों में नीतियों का निर्धारण करना, हर स्तर पर बुरी तरह फैल चुके भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के कोई ठोस और क्रांतिकारी कदम न उठाना, चुनाव घोषणा-पत्र के मुद्दों को पूर्ववर्ती दलों की तरह ही भूल जाना, कुछ ऐसे काम हैं जो यह भाजपा के कार्यकत्ताओं को यह बताते हैं कि देश की मौजूदा सरकार पूर्ववर्ती सरकारों से किसी भी मायने मे भिन्न नहीं है। इतना ही नहीं हिन्दू धर्म और संस्कृति से जुड़े जिन मुद्दों के लिए भाजपा का एक समर्पित वोट बैंक था, उन मुद्दों को भी फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। इसलिए भाजपा के समर्थकों को यह समझ में नहीं आ रहा कि आखिर इस सरकार में ऐसा क्या नया है जो पहले की सरकारों में नहीं था। शायद यही कारण है कि तहलका के प्रकरण से सबसे ज्यादा आहत और क्रोधित भाजपा का कार्यकत्र्ता ही हुआ है। जब उससे कहा गया कि वह जनता को यह बताए कि कांगे्रस की सरकारें इससे कहीं ज्यादा भ्रष्ट थीं तो उसके मन में कोई उत्साह पैदा नहीं हुआ। इसीलिए भाजपा की रैलियां फ्लाप हो गईं। कार्यकत्र्ता ये सोच रहा है कि कहां तो हमने पारदर्शी और दूसरों से कहीं बेहतर सरकार देने का वायदा किया था और कहां अब हमें ये कहना पड़ रहा है कि हम भ्रष्ट तो हैं पर दूसरों से कम। यह बात किसी के गले नहीं उतर रही। इसीलिए संघ को कार्यकत्र्ताओं का मन टोहने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इन बैठकों में जो बात उभर कर आई वह इस प्रकार थी। स्वयंसेवकों का कहना था कि बंगारू लक्ष्मण कोई अपवाद नहीं है। हर जिले में संघ और भाजपा के वरिष्ठ लोगों के बीच यही बंगारू संस्कृति पनप चुकी है। सत्ता की दलाली करने वालों, चाटुकारों या पदलोलुपों को ही प्रोसाहन मिल रहा है। संघ के पारम्परिक कार्यक्रमों और नीतियों की मात्र रस्म अदायगी की जा रही है। देश के ज्यादातर हिस्सों में शाखाएं प्रतीकात्मक रूप में चल रही है। कहने को तो संघ का राजग सरकार में काफी दखल है पर इस दखल का कोई लाभ संघ के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये नहीं मिल रहा है। बल्कि इसका लाभ निहित स्वार्थों के आगे बढ़ने में ही दिखाई दे रहा है। स्वयंसेवकों का यह भी कहना था कि भाजपा के सत्ताधारी लोग अब संघ के असली कार्यकत्र्ताओं से कन्नी काटने लगे हैं और उनके इर्दगिर्द वही लोग देखे जाते हैं जो किसी भी दल की सरकार के समय सत्ताधीशों के चारों तरफ नज़र आते हैं। प्रान्तीय प्रचारकों की मौजूदगी में चल रही इन बैठकों में इस किस्म के तमाम तीखे हमले किये गये। जिनका संतुष्टिजनक उत्तर किसी के पास नहीं है। हां यह जरूर है कि देश भर में जब इन बैठकों का चक्र पूरा हो जाएगा तब संघ और भाजपा में शायद आत्मविश्लेषण हो।

राजनीति में छवि का महत्त्व बहुत ज्यादा होता है। एक बार जो छवि बन जाये उसे बदलना सरल नहीं होता। अब भाजपा की छवि वो नहीं रही जो सत्ता में आने से पहले थी। इससे निपटने का एक ही तरीका हो सकता है और वह है कि भाजपा के वे सदस्य जो सत्ता में हैं अपनी कार्यशैली और आचरण मे ऐतिहासिक रूप से क्रान्तिकारी परिवर्तन लायें। तब कहीं कार्यकत्र्ताओं में यह विश्वास जगेगा कि अभी भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। ऐसा हो पायेगा, कहना मुश्किल है। दूसरी तरफ यह विडम्बना ही है कि तीन बार सत्ता में आने का मौका मिलने के बावजूद इंका सरकार बनाने की दावेदारी नहीं कर पा रही है। तहलका को लेकर इंकाइयों ने देश भर में माहौल तो खूब बनाया पर उसका राजनैतिक लाभ वे फिर भी नहीं ले पाये। कारण स्पष्ट है कि इंका में आज संगठनात्मक शक्ति क्षीण पड़ चुकी है। उत्तर प्रदेश को ही लें आज भाजपा की जो छवि है उसके चलते इंका के लिए उत्तर प्रदेश में अपना वोट बैंक बढ़ाना कतई असंभव नहीं है। बशर्ते कि इंका का संगठन और प्रादेशिक नेतृत्व कार्यकत्र्ताओं को विश्वास दिला सकें। आज सब बिखरा पड़ा है। हर जिले में नेतृत्व विहीन इंकाई हताश हैं। वे नहीं समझ पा रहे कि किन कारणों से उनका राष्ट्रीय नेतृत्व उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य को ठीक से नहीं संभाल पा रहा है। क्या वजह है कि इतनी आसान परिस्थितियों में भी इंका उत्तर प्रदेश में अपना वजूद कायम नहीं कर पा रही है। क्या पूरे प्रदेश में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो इंका को सही नेतृत्व और दिशा दे सके। उत्तर प्रदेश ही क्यों जिन राज्यों में भी गैर इंकाई सरकारें हैं उन राज्यों में इंकाइयों के जो तेवर होने चाहिए वे नहीं हैं। पार्टी के भीतर इस बात की जरूरत महसूस की जा रही है कि मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों का लाभ उठाने के लिए इंका के संगठन में जिला और प्रान्तीय स्तरों पर क्रान्तिकारी परिवर्तन किये जाएं। हर जिले में उन कांगे्रसियों को ढूंढ कर सामने लाया जाए जिन्होंने पिछले पचास वर्षों में अपने आचरण से अपने नाम को बट्टा नहीं लगने दिया। ऐसे कांगे्रसी जिलों में ही नहीं कस्बों और गांवों तक फैले हैं। पूरे देश में कार्यकत्र्ताओं का इतना बड़ा जाल किसी भी राजनैतिक दल के पास नहीं है। फिर भी इंका की हालत इतनी खस्ता है। दरअसल इन समर्पित बुजुर्गों को पिछले बीस वर्षों में दरकिनार कर प्रापर्टी डीलरों, ठेकेदारों, गुण्डों और दलालों ने इंका पर कब्जा कर लिया है। जिनके लिए राजनीति समाज के हित साधने का नहीं बकि अवैध लाभ कमाने का जरिया है। इसलिए कांगे्रस अपना गांभीर्य खो चुकी है। सत्ता से बाहर कर दिए जाने से पहले कांगे्रस कितनी गिर चुकी थी, इसकी स्वीकारोक्ति मुम्बई अधिवेशन के दौरान खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने की थी। जब उन्होंने कांगे्रस को दलालों की पार्टी बताया था। भाजपा के सत्ता में आने से पहले लोगों में आशा की एक किरण थी कि शायद भाजपा औरों से बेहतर राजनैतिक दल सिद्ध होगी। पर आज यह आशा धूमिल हो चुकी है। इसलिए जनता में सभी राजनैतिक दलों को लेकर चिन्तन चल रहा है। पर आम आदमी तब तक कांगे्रस से नहीं जुड़ेगा जब तक कि वह इसके स्थानीय नेतृत्व में जुझारूपन न देखे। राजनैतिक विश्लेषकों के बीच आजकल एक मजाक प्रचलित है कि इंकाई सत्ता का सुख भोगकर इतने आलसी हो चुके हैं कि अब उनके सड़कों का संघर्ष नहीं किया जाता। लोकतंत्र में सत्ता प्राप्ति के लिये सड़क का संघर्ष अनिवार्य शर्त होती है। चूंकि इंका का स्थानीय और प्रांतीय स्तर पर पारम्परिक नेतृत्व उन लोगों के हाथ में है जिनका सड़क के संघर्ष से पिछले बीस-तीस वर्षों में कोई अनुभव नहीं रहा। इसलिए इंका राजनैतिक रूप में पकी फसल काटने का साहस नहीं बटोर पा रही है। इन हालातों में इंका के राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए यह जरूरी होगा कि वह लीक से हटकर निर्णय लें और हर जिले और प्रान्त स्तर पर उन लोगों को सामने लाये जो न सिर्फ इंका से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं बल्कि जो आम जनता के हक के लिए सड़कों पर लड़ने में विश्वास रखते हैं। इस क्रम में सबसे ज्यादा जरूरी होगा युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करना। बढ़ती बेरोजगारी और भाजपा से हुए मोहभंग के कारण देश की युवा आबादी दिशाहीन है और उसे नेतृत्व की तलाश है। इंका के कार्यकर्ता मानते हैं कि उसके खजाने में एक तुरूप का पत्ता है। जिसका नाम है प्रियंका गांधी। इंकाइयों को यह पूरा विश्वास है कि यदि प्रियंका गांधी को भारतीय युवक कांगे्रस का अध्यक्ष बना कर हर जिले स्तर पर युवाओं को जोड़ने के काम में लगा दिया जाए तो कुछ महीनों के भीतर ही इंका का एक बहुत मजबूत संगठन देश में खड़ा हो जाएगा। यह संगठन हिंसक, विध्वंसक और मूल्यहीन न बने इसके लिए इंका को कुछ ऐसे चेहरों की तलाश होगी जिनकी विश्वसनीयता पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगा सकता। ऐसे दस-बीस मशहूर चेहरों को प्रियंका गांधी के साथ जोड़कर कार्यक्रम बनाए जायें और युवाओं को साथ जोड़ने का अभियान चलाया जाए तो इंका को आशातीत सफलता मिलेगी। सावधानी यह बरतनी होगी कि इस अभियान में इंका के घिसेपिटे चेहरे जनता के सामने न आयें। वरना नुकसान ही होगा फायदा नहीं। अगर इंका कुछ मशहूर और साफ लोगों को जिले से राष्ट्रीय स्तर तक नई पीढ़ी का नया नेतृत्व बताकर पेश करती है तो उसके लिये सत्ता हासिल करना असंभव नहीं होगा। ऐसा उसके कार्यकर्ताओं का विश्वास है।

इन लोगों का यह भी कहना है कि जिस तरह दत्तात्रेय के 24 गुरू थे। सबसे उन्होंने शिक्षा ली। ठीक उसी तरह इंका को भी चाहिए कि वह नरसिंह राव से लेकर अर्जुन सिंह तक हर उस वरिष्ठ इंकाई नेता को समुचित आदर और महत्व दे जिससे आंतरिक कलह न हो। अपने संगठन में वे पात्र हैं। इन सब दिग्गजों को युवा अभियान को समय-समय पर अनुभव जन्य सलाह देने का काम सौंपे। इससे दो लाभ होंगे। एक तो नई पीढ़ी का पुरानी पीढ़ी से टकराव नहीं होगा बल्कि दोनों के बीच सेतुबन्धन होगा। दूसरा पुरानी पीढ़ी उपेक्षित और अपमानित महसूस नहीं करेगी। साथ ही नई पीढ़ी को नई परिस्थितियों, नये मूल्यों के साथ, नये कार्यक्रमों को लेकर आगे बढ़ने की छूट हो तो इंका भारतीय लोकतंत्र में अपनी ज्यादा सार्थक भूमिका निभा पायेगी। देखना यह है कि मौजूदा परिस्थितियों में भाजपा या इंका में से कौन-सा राष्ट्रीय दल अपने संगठन में पहले क्रांतिकारी बदलाव लाता है।

Friday, March 23, 2001

तहलका का शोर और कानूनी असलियत


तहलका के टेप क्या जारी हुए पूरे देश में तूफान मच गया।  निःसन्देह रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार की प्रक्रिया को जिसतरीके से इन वीडियो टेपों में उतारा गया है उन्हें देखकर हर दर्शक हैरान  रह जाता है। रक्षा सौदों में दलाली ली और दी जाती है। यह बात वर्षों से सबको पता है। पर उसका प्रसार इतना व्यापक है यह आम जनता को पहली बार देखने को मिला । जिसके लिए तहलका की टीम बधाई की पात्र है। इसके साथ ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण का प्रकरण भी आम दर्शक को झकझोर देता है। जबसे तहलका का तहलका मचा है, तब से टेलीवीजन पर जो बहस हो रही है उसमें अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों को जानबूझ कर दबा दिया गया। पूरी बहस बड़े सतहीय मुद्दों को लेकर चैंचें लड़ाने की मुद्रा में हो रही है। जिसे देखकर आम दर्शक के मन में बहस के करने वाले राजनैतिक दलों के प्रति घृणा बड़ ही रही है। चाहे वो आरोप लगाने वाले विपक्षी दल हों या सत्तारूढ़ दल। इस शोर के पीछे की असलियत कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है जिसपर समझदार पाठकों का ध्यान जाना जरूरी है।

बंगारू लक्ष्मण के खिलाफ केवल एक ही सबूत बनता है वह है एक लाख रूपये खुले आम स्वीकार करना, पर यह रूपया लेते वक्त रूपया देने वाला और लेने वाला दोनों ही मान रहे हैं कि यह पैसा पार्टी फण्ड में जा रहा है। गया या नहीं वह अलग बात है, पर कानून की नजर में इससे ज्यादा सबूत उस प्रकरण में नहीं है। चूँकि पार्टी के लिए चन्दा जमा करना एक आम रिवाज है इसलिए बंगारू लक्ष्मण की पैरवी करने वाले वकील उन्हें किसी मुकदमे में फंसने नहीं देंगे। जहाँ तक बंगारू लक्ष्मण से रक्षा सौदों की चर्चा की बात है, तो उसे कोरी गप्पबाजी मानकर अदालत खारिज कर देगी। क्योंकि उसमें कोई भी तथ्य या सबूत ऐसा नहीं है जिसपर सजा दी जा सकें। यही स्थिति जया जेटली के साथ भी है, श्रीमती जेटली ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि जो पैसा उन्हें दिया जा रहा है। वह पार्टी के सम्मेलन के इंतजाम में काम आयगा। हा, रक्षामंत्री के घर में बैठकर हथियारों के सौदागरों से एक गैर-सरकारी व्यक्ति का बात करना कानून की नजर में आपŸिाजनक जरूर हो सकता है। इसका मतलब यह नहीं कि तहलका टेप में जो दिखाया गया है। उससे उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार का खुलासा नहीं होता। बात कानूनी आधार की है जिसपर तहलका की खोज बहुत सतही स्तर पर समाप्त हो जाती है। जिसके कोई दूरगामी परिणाम सामने नहीं आयेंगे। तहलका के निर्माता का यह दावा करना कि उनके पास गृहमंत्री के खिलाफ 350 करोड़ के घोटाले का सबूत है और फिर अगले ही दिन इससे मुकर जाना व श्री आडवाणी से लिखित मांफी मांगना अनेक सन्देहों को जन्म देता है। इतना ही नहीं तहलका टेप जारी करते समय यह भी कहा गया था कि कुल फुटेज 100 से भी ज्यादा घण्टे का है और उसमें संचार मंत्री रामविलास पासवान व वित्तमंत्री यशवन्त सिन्हा के विरूद्ध भी काफी सबूत हैं पर बाद में तहलका वाले इससे भी मुकर गये। पत्रकारिता से जुड़े लोग समझते हैं कि इस किस्म की घटनाओं का क्या मतलब होता है? शायद इसलिए भाजपाई तहलका के पूरे प्रकरण को लेकर तमाम सवाल खड़े कर रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल जो राजधानी के गलियारों में पूछा जा रहा है वह यह कि जब पूरी दुनिया में ज्यादातर डाटकाॅम कम्पनियाँ घाटे में चल रही हैं या बन्द होती जा रही है तो तहलका डाट काॅम को इस रिपोर्ट को करने के लिए लाखों रूपया खर्च करने को किसने दिया? 11 लाख रूपया तो केवल रिशवत में बांटा गया फिर आठ महीना जांच की भागादौड़ी, पांच सितारा होटलों में दावतें और कमरों की बुकिंग जैसे लाखों रूपये के खर्चे और भी किये गये। हालांकि तहलका के निर्माताआंे ने अपनी कम्पनी की वित्तीय स्थिति को प्रेस में जारी किया है। फिर भी लोग यह गले नहीं उतार पा रहे हैं कि घाटा उठाकर भी कोई इतनी बड़ी रकम बिना स्वार्थ के क्यों खर्च करेगा? इसके साथ ही जो बात सबसे महत्वपूर्ण है वह यह है कि तहलका के टेपों में ज्यादातर बयान गपबाजी के स्तर के हैं। पत्रकार का धर्म है कि वह किसी के ऊपर आरोप लगाने से पहले तथ्यों की पड़ताल कर लें और जिसके विरूद्ध आरोप लगाये जा रहे हैं उसे भी सफाई का मौका दें। तहलका की टीम ने पत्रकारिता के यह दोनों ही बुनियादी सिद्धान्त भुला दिये। आर. के. जैन या गुप्ता ने रक्षा सौदों को लेकर जो लम्बी-लम्बी डींग हांकी उसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत करने से पहले तहलका के निर्माताओं को परख लेना चाहिए था। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो उन्हें यह न कहना पड़ता कि आप हमारी रिपोर्ट की विषय वस्तु पर न जाय केवल उसके सन्दर्भ पर ध्यान दें। तरूण तेजपाल का ऐसा बयान यह सिद्ध करता है कि उनकी इस रिपोर्ट के तथ्यों को लेकर जब भाजपा के नेताओं ने आक्रामक रूख अपनाया तब उन्हें बचाव की मुद्रा में यह कहना पड़ा किसी पत्रकार के लिए यह स्थिति बहुत प्रशन्सनीय नहीं होती कि वह अपने आरोपों से मुकर जाय और क्षमा मांगे। खासकर जबकि रिपोर्ट किसी दैनिक अखबार के लिए कुछ घण्टों में तैयार नहीं की गयी बल्कि बड़ी गम्भीरता से आठ महीने लगाकर तैयार की गयी बताते हैं। फिर ऐसी तथ्यात्मक भूलेें क्यों? यहां जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वो वह है कि एक खोजी रिपोर्ट की कई खूबियों के बावजूद तहलका की इस रिपोर्ट पर जितना बड़ा तूफान एकदम देश में मचा क्या वह स्वाभाविक तूफान था? या उसके पीछे भी कुछ राजनैतिक निहित स्वार्थ छिपे थे। इस सन्दर्भ में यह नहीं भूलना चाहिए कि 2 सितम्बर, 1993 को जब जैन हवाला काण्ड  को उजागर करने वाली कालचक्र वीडियो पत्रकारों को दिखाई गयी थी, तो महीनों तक देश के मीडिया में इस घोटाले पर सन्नाटा छाया रहा। जब कि कालचक्र की वीडियो कैसेट में जो कुछ कहा गया वह शत प्रतिशत तथ्यों पर आधारित था। उसमें भी शरद यादव और देवीलाल ने सुरेन्द्र जैन से रकम स्वीकारने की बात मानी थी। भारतीय टी.वी.पत्रकारिता के इतिहास में यह पहली बार हुआ था। इतना ही नहीं जो दस्तावेज कालचक्र ने इस वीडियो में दिखाये थे उनकी वैद्यता को आजतक कोई चुनौती नहीं दे पाया। इतना ही नहीं उन्हीं दस्तावेजों के आधार पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय को हवाला काण्ड की जांच अपनी निगरानी में करवानी पड़ी। यह दूसरी बात है कि भ्रष्टाचार में लिप्त और राजनैतिक दबाव से जकड़ी सी.बी.आई. ने हवाला काण्ड की जांच नहीं की और राजनेताओं के छूटने के रास्ते खोल दिये। पर कालचक्र के निर्माताओं को इस पूरी प्रक्रिया में एक बार भी यह नहीं कहना पड़ा कि हमारे तथ्यों पर न जाय सन्दर्भों को देखें या हमने गलत दावा किया था हम आडवाणीजी से क्षमा मांगते हैं। कालचक्र में उठाये गये तथ्य आज भी सच्चाई की कसौटी पर खरे खड़े हैं। कालचक्र की उस रिपोर्ट के बाद दर्जनों केन्द्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्री व राज्यपालों को गद्दी छोड़नी पड़ी। फिर क्या वजह है कि तहलका की रिपोर्ट जारी होते ही तो मीडिया और विपक्ष में आसमान सिर पर उठा लिया जबकि कालचक्र की हवाला काण्ड वाली वीडियो कैसेट के जारी होते ही पूरे राजनैतिक हलके में सन्नाटा छा गया था। एक दिन भी संसद का बहिष्कार नहीं किया गया। एक दिन भी सांसदों ने खड़े होकर जांच की मांग में शोर नहीं मचाया। महीनों तक टी.वी. और अखबार के मीडिया के ज्यादातर लोग हवाला को लेकर गूंगे और बहरे हो गये, क्यों? क्या इसलिए कि हवाला काण्ड में देश के 115 बड़े राजनेताओं और अफसरों के नाम शामिल थे। जो हर प्रमुख राजनैतिक दल के सदस्य थे इसलिए शोर कौन मचाए? कौन किसके विरूद्ध जांच की मांग करें? कौन किसके विरूद्ध संसद का बहिष्कार करें? कौन किससे इस्तीफे मांगे? जब सभी उस घोटाले में शामिल हैं तो भलाई इसी में थी कि सब खामोश रहें। तहलका के टेप में जो आरोप लगे हैं वे सत्ताधारी दलों के लोगों को लेकर हैं। इसलिए विपक्ष इतना उत्तेजित है। ठीक वैसे ही जैसे बोफोर्स, चारा घोटाला और बैंक घोटाले जैसे काण्डों को लेकर भाजपाई, या समता पार्टी वाले उत्तेजित रहे हैं। आज अगर इंकाई बोफोर्स का बदला चुकाने के लिए तहलका के नाम पर देश की गलियों और गांवों में प्रदर्शन करना चाहते हैं, तो इसमें गलत क्या है? जैसे को तैसा। जो कल तक भाजपा ने किया आज इंकाई करेंगे। पर इससे निकलना कुछ भी नहीं है। न तो भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था सुधरेगी और न ही देश की जनता को राहत मिलेगी। दरअसल राजनीति से जुड़ा कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि किसी भी घोटाले की ईमानदारी से जांच हो और दोशियों को सजा मिलें। हर दल की यही मंशा होती है कि वे अपने विरोधी दल के भ्रष्टाचार के काण्ड को जनता के बीच उछाल कर ज्यादा से ज्यादा वोटों का इन्तजाम कर लें। इस प्रक्रिया में मूर्ख जनता ही बनती है। आज नैतिकता पर शोर मचाने वाले हर दल से पूछना चाहिए कि जिस काण्ड में सबूत न के बराबर हैं उसपर तो आप इतने उत्तेजित हैं पर जिस हवाला काण्ड में आज भी हजारों सबूत मौजूद हैं उसकी जांच की मांग के नाम पर आपका हलक क्यों सूख जाता है, आपको तहलका के शोर की हकीकत खुद ब खुद पता चल जाएगी।

Friday, March 16, 2001

सांसद ध्यान दें जार्ज फर्नाडीज़ ने ऐसा क्यों किया ?


पिछले दिनों भारत और रूस के बीच हुए रक्षा समझौते को लेकर कुछ रक्षा विशेषज्ञों मे भारी नाराजगी है। इनका मानना है कि इस समझौते में जानबूझ कर एक भारी गलती की गई है। नई संधि के अनुसार अब भारत किसी खतरे या हमले की स्थिति में रूस की सलाह नहीं ले पायेगा। जबकि श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 1971 में जो  भारत रूस मैत्री संधि की थी उसमें इसका पूरा ध्यान रखा था। तब उस संधि को चीन और अमेरिका ने भारत की आणविक ढाल माना था। इन विशेषज्ञों को लगता है कि शायद बाजपेयी सरकार की याददाश्त कमजोर है। तभी तो वह हिमालय के उत्तर में चीन से बने रक्षा दबाव या दियागो गार्शिया के कब्जे और उस पर आणविक आधार तैयार करने की अमरीकी  कार्रवाई को भूल गई। यह कार्रवाई अमरीका ने भारत-पाक युद्ध के दौरान की थी। चूंकि सोवियत यूनियन का विघटन हो चुका है और रूसी संघ में विशेष उत्साह नहीं है। इसीलिए जब रूस के राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा के दौरान नई संधी की गई तो रूस  संधी की उस पुरानी शर्त को बनाए रखने के लिए बहुत उत्साही नहीं था। उधर अमरीका इस फिराक में था ही कि किसी तरह से भारत और रूस के बीच युद्ध के दौरान पारस्परिक सलाह लेने के इस प्रावधान को खत्म कराया जा सके। ऐसा रक्षा विशेषज्ञों का मानना है। इनका आरोप है कि अमरीका ने भारत के रक्षा मंत्रालय में खूब लाबिंग करवा कर नई संधी से उस महत्वपूर्ण प्रावधान को हटवा दिया। इन विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि अमरीका ने पहले तो भारत को आणविक शक्ति बनने से रोका, फिर कारगिल युद्ध में भारत की आणविक क्षमता की कलई खुलवा दी। इस तरह भारत के आणविक कार्यक्रम को बन्द करके भारत को आणविक युग में रक्षाहीन कर दिया।दूसरी तरफ अमरीका ने पाकिस्तान को जो इसी तरह का रक्षा कवच दे रखा है उसे आजतक समाप्त नहीं किया। बल्कि अपने ही आणविक बमों का पाकिस्तान मे परीक्षण करवा कर पाकिस्तान को मिली हुई सुरक्षा की यह गारन्टी बरकरार रखी है। यदि भारत के सांसद इस गम्भीर मामले को समझे होते तो उन्होंने संसद में शोर जरूर मचाया होता। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इस मामले में कुछ सवालों पर गौर करने की जरूरत है।

हम सबको यह बताया गया और प्रचारित भी किया गया कि हमने अपने सैकड़ों जवानों और अफसरों को कारगिल युद्ध में भले ही बलि कर दिया हो किन्तु हमारी विजय शानदार रही। अलबत्ता कारगिल युद्ध के बारे में के. सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट बहस के लिए संसद में प्रस्तुत किए जाने का इन्तजार कर रही है। जबकि इस गंभीर मुद्दे में सांसदों की शायद कोई रुचि नहीं हैं। हालांकि यह रिपोर्ट बहुत उच्च कोटि की नहीं है, फिर भी इसका सारांश पढ़ने से कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े होते हैं। क्या इस समिति ने राॅ के प्रमुख श्री अरविन्द दवे को ठीक से तलब किया था। यह सर्वविदित है कि कारगिल के मामले में ख्ुाफिया ऐजेंसी राॅ अनजान थी और इस अचानक हमले से हड़बड़ा गयी थी। जबकि इस तरह की सम्भावना की उसे पूर्व जानकारी होनी चाहिए थी। बावजूद इस बड़ी विफलता के, क्या वजह है कि श्री दवे को बजाए अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने के अरुणाचल प्रदेश का उप राज्यपाल बना दिया गया ?

जानकारों का यह भी कहना है कि जिस समय कारगिल युद्ध चरम पर था उस दौरान अमरीका की सरकारी रक्षा संस्था सेंटकाॅमके एक अधिकारी पाकिस्तान यात्रा पर आये थे। पर हमारी खुफिया ऐजेंसियों को भनक तक न पड़ी। क्या हमारी गुप्तचर ऐजेंसियों ने रक्षामंत्री श्री फर्नाडीज़ को यह बताया था या नहीं कि उक्त अमरीकी सैनिक अधिकारी को भेजने की मांग पाकिस्तान ने ही की थी। शायद श्री फर्नाडीज़ को पता हो कि पाकिस्तान ने सेंटकाॅमके साथ पारस्परिक रक्षा की संधि कर रखी है जिसके तहत पाकिस्तान की सुरक्षा को ज़रा सा भी खतरा होते ही यह ऐजेंसी दौड़कर उसकी मदद को आयेगी। रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि कारगिल युद्ध के दौरान अमरीका से आए सैनिक अधिकारियों ने पाकिस्तान को यह समझाया कि चूंकि उसकी वायु सेना भारत के इलाके में बहुत प्रभावशाली नहीं हो पायेगी जिससे पाकिस्तान की थल सेना को भारत से जीतना मुश्किल होगा। इन अमरीकी अधिकारियों ने पाकिस्तान को सलाह दी कि किसी भी कीमत पर भारत को हवाई हमले करने से रोका जाए। यदि यह भी न हो सके तो कम से कम अमरीका इतना तो करे कि जब पाकिस्तान अचानक दिल्ली और मुम्बई पर परमाणु हथियारों से हमला कर चुके तब भारत को ऐसा जवाबी हमला करने से रोका जाए। हालांकि अमरीका के इन अधिकारियों को यह बताया गया था कि भारत के पास सुरक्षित तरीके से आणविक हथियारों को ले जाने और उनके प्रयोग करने की क्षमता नहीं है। पर साथ ही यह भी आशंका व्यक्त की गई कि यदि भारत हवाई हमला करता है तो पाकिस्तान के भारी आबादी वाले इलाकों को ध्वस्त कर देगा। इसलिए कुछ ऐसी चाल चली जाए कि भारत की वायु सेना को नियंत्रण रेखा को पार न करने दिया जाए। भारत के रक्षा विशेषज्ञों को इस बात पर आश्चर्य है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ कि कारगिल युद्ध में हमारी थल सेना को दुर्गम पहाडि़यों पर मरते खपते हुए आगे भेजा गया । जबकि परम्परा यह है कि पहले वायु सेना आगे के इलाके में जाकर बमबारी करके दुश्मन के ठिकाने को ध्वस्त करती है तब थल सेना आगे बढ़ती है। पर कारगिल में ऐसा नहीं हुआ। नतीजतन हमारी थल सेना को भारी मात्रा में नौजवान अधिकारियों और जवानों को खोना पड़ा।

इन विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि कारगिल युद्ध के दौरान इस तरह एक तरफ बिठा कर रखी गई भारतीय वायु सेना इस व्यवस्था से प्रसन्न ही थी । सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट के अनुसार उसकी तैयारी कारगिल जैसे दुर्गम ऊंचे पहाड़ों वाले क्षेत्र में युद्ध करने की नहीं थी। इन विशेषज्ञों के अनुसार इस पूरे युद्ध के दौरान भारतीय वायु सेना ने औसत से भी बेहद कम संख्या में उड़ाने भरींए जोकि राष्ट्र के हित में नहीं था।

इन विशेषज्ञों का सवाल है कि क्या भारतीय वायु सेना और भारत सरकार को इस प्रकार नियंत्रण रेखा को पार न करने का श्रेय लेना चाहिए ? जबकि नियंत्रण रेखा भारत की सीमा के भीतर ही पड़ती है। यह रक्षा विशेषज्ञ सवाल पूछते हैं कि भारत की सीमाओं की रक्षा में इस तरह लापरवाही कर देने के लिए क्या रक्षामंत्री श्री जार्ज फर्नाडीज़ व संघ सरकार का मंत्रीमंडल संविधान का उल्लंघन करने के दोषी नहीं हैं ? अगर ऐसा नहीं है और यह निर्णय किन्हीं अन्य कारणों से लिया गया तो क्या रक्षामंत्री देश को यह बताऐंगे कि क्या वजह है कि सैकड़ों करोड़ रूपए खर्च करके जो उपग्रह भारत के भूखण्ड पर निगाह रखने के लिए तैनात किए गए हैं उनका इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया ? भारतीय वायु सेना, ‘राॅसर्वे आॅफ इण्डियाके हवाई जहाज 1997-98 में क्या कर रहे थे जो उन्होंने सीमापार की हलचल को अनदेखा कर दिया ? कारगिल युद्ध में थल सेना के जवानों को मौत के मुंह में भेजने से पहले वायु सेना का प्रयोग  क्यों नहीं किया गया ? क्या रक्षामंत्री बताऐंगे कि दुनिया के किस युद्ध में ऐसी गलती की गई ? ऐसी दूसरी कौन सी आणविक शक्ति दुनिया में है जिसने अपने पड़ौसी से अघोषित युद्ध में अपने 500 से ज्यादा अफसरों और जवानों को शहीद कर दिया ? ऐसी कौन सी आणविक शक्ति वाला देश है जो सीमापार से होने वाले हमलों में अपने नागरिकों और सैनिकों की लगातार हत्या करवाता रहे और कड़े कदम न उठाए ? इन विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के पास प्रयोग में लाए जा सकने योग्य परमाणु हथियार नहीं हैं और इसीलिए भारत ने इस युद्ध में पाकिस्तान की धमकी और अमरीकी दबाव के आगे घुटने टेक दिए।

विडम्बना यह है कि इस युद्ध के बाद भी जो टास्कफोर्स बनी उसमें सेना के वरिष्ठ अधिकारियों को नहीं लिया गया। जबतक नौकरशाही और राजनेता राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में ऐसी गल्तियां करते रहेंगे तब तक हम अपनी गल्तियों से कोई सबक नहीं सीख पाऐंगे। इसलिए इन विशेषज्ञों का सुझाव है कि भारत को वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को लेकर ही टास्कफोर्स का गठन करना चाहिए। कम से कम यह लोग ऐसी परिस्थितियों में समुचित निर्णय लेने की स्थिति में तो होंगे।

चूंकि सुब्रमण्यम समिति की रिपोर्ट फिलहाल ठन्डे बस्ते में पड़ी है और उस पर संसद के चालू सत्र में बहस होने की संभावना नहीं दिखाई दे रही इसलिए इन मुद्दों पर विपक्ष के सांसदों का ध्यान देना देश हित में रहेगा।