Friday, January 25, 2002

सिर्फ कानून बनाने से नहीं मिलेगी सबको शिक्षा

एक तरफ तो दुनिया में आगे बढ़ने की होड़ लगी है। वैश्वीकरण की आंधी चल रही है। हम दुनिया के विकसित देशों से मुकाबला करना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि फास्ट ट्रक हाईवे पर जब 140 कि.मी. प्रति घंटा की रफ्तार से गाडियां दौड़े तो कोई जाहिल गंवार आदमी रास्ते में न आ जाए। हम चाहते हैं कि हर गांव में कंप्यूटर लगा हो और पूरा देश उस कंप्यूटर के जरिए गांव से जुड़ा हो। हम चाहते हैं कि हमारे देश का आम आदमी अपने कर्तव्यों और अधिकारांे को समझे और दकियानूसी जिंदगी से निकलकर प्रगतिशील बने। हम यह भी चाहते हैं कि महिलाओं के हक, नशाबंदी, एड्स, मतदान के अधिकार जैसी सूचनाओं को हर आदमी समझें। पर ये सब होगा कब और कैसे ? जब देश का हर नागरिक शिक्षित होगा। इसी उद्देश्य से हाल ही में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने शिक्षा को मूलभूत अधिकार बना दिया है। ऐसा संविधान में संशोधन करने के बाद हुआ है। नए कानून के मुताबिक 6 से 14 वर्ष के हर बच्चे को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा देना, सरकार की जिम्मेदारी है। साथ ही हर माता-पिता का यह कर्तव्य घोषित कर दिया गया है कि वे अपने बच्चों को मुफ्त शिक्षा के लिए भेजें।



आजादी के 52 वर्ष बाद ही सही पर इस कदम के लिए सत्ता और विपक्ष की तारीफ की जानी चाहिए। दरअसल संयुक्त मोर्चा की सरकार ने 1997 में यह बिल पेश किया था। जिसके तुरंत बाद इन्द्र कुमार गुजराल की सरकार गिर जाने के कारण बिल पास नहीं हो सका। पर जिस रूप में मौजूदा कानून बना है उसमें न सिर्फ बहुत सी खामियां हैं बल्कि इस बात में भी संदेह है कि इस कानून के बाद भारत के करोड़ों बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था हो पाएगी।



सबसे पहली बात तो यह है कि यह कानून सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की अवहेलना करता है। 1993 में दिए गए एक आदेश के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने 14 वर्ष तक के हर बच्चे के लिए मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी बताया था। मौजूदा कानून में इस बात की अनदेखी करके केवल 6 से 14 वर्ष के बच्चों की शिक्षा का ही जिम्मा लेने की बात की गई है। 6 वर्ष तक के बच्चे कहां धक्के खाएंगे इसकी चिंता किसी को नहीं।



इस कानून की दूसरी सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें माता-पिता पर बच्चों को शिक्षा दिलाने की जिम्मेदारी को एक अनिवार्य कर्तव्य के रूप में स्थापित कर दिया गया है। इससे स्थानीय प्रशासन के हाथ में एक अतिरिक्त हथियार आ गया है जिसका दुरूपयोग करके वे देहातों में रहने वाले गरीब और निरक्षर लोगों को प्रताडि़त कर सकता है। बच्चों को स्कूल न भेजने के जुर्म में देश भर में 17 हजार गरीब माँ-बाप पर मुकदमें कायम हो चुके हैं। गरीब और बेराजगार माँ-बाप पर इस तरह का कानून थोपना न सिर्फ अमानवीय है बल्कि कानून बनाने वालों के मानसिक दिवालियापन का सूचक है। मुफ्त शिक्षा से सरकार का क्या मतलब ? क्या इतना ही कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की फीस नहीं देनी पड़ेगी ? पर इतने से कैसे काम चलेगा? गरीब माँ-बाप के लिए अपने बच्चों को मुफ्त शिक्षा दिलाना भी सरल नहीं। वो कैसे कपड़े पहन कर स्कूल जाएगा ? उनके बस्ते एवं किताबों की कीमत की भरपाई कहां से होगी ? उसे स्कूल जाने-आने में कितना खर्चा लगेगा ? वो स्कूल में दिनभर क्या खाएगा ? अगर वो स्कूल न जाता तो माँ-बाप की कमाई में कुछ योगदान करता। अब उसकी भरपाई कौन करेगा ? ऐसे तमाम सवालों के जवाब खोजे बिना ही कानून निर्माताओं ने माँ-बाप पर ये भार डाल दिया है। कानून के इस मकड़जाल को खत्म किया जाना चाहिए वरना लाखों गरीब लोग स्थानीय प्रशासन की उदंडता का शिकार बनेंगे।



जिस मुफ्त शिक्षा की बात सरकार कर रही है उसके स्वरूप को लेकर भी तमाम सवाल जनता के मन में हैं। देश में 4 लाख स्कूलों और 40 लाख शिक्षकों की जरूरत हैं। जब तक इनकी व्यवस्था नहीं होती शिक्षा को मूलभूत अधिकार बनाना बेमानी है। जो स्कूल आज हैं भी उनकी दुर्दशा पर पिछले 52 वर्षों में तमाम रपट प्रकाशित हो चुकी है। उन पर फिल्में भी बन चुकी हैं। सैकड़ों किताबें लिखी जा चुकी है। हजारों सेमिनार हो चुके हैं। दर्जनों आयोग अपनी सिफारिशें सरकार को दे चुके हैं। पर गांवों के स्कूलों की दशा सुधरी नहीं। कहीं स्कूल के भवन ही नहीं हैं, तो कहीं शिक्षक नहीं। कहीं जाड़े, गर्मी, और बरसात में पेड़ों के नीचे स्कूल चलते हैं, तो कहीं एक ही कमरे में पांच कक्षाओं के बच्चे बैठते हैं। कहीं एक ही टीचर पूरे स्कूल को संभालता है और कहीं आठवीं फेल टीचर पांचवीं के बच्चों को पढ़ाता है। शिक्षा के आधुनिक साजो-सामान, नई सोच, शिक्षकों का प्रशिक्षण, पुस्तकालय और खेल की सुविधाएं हैं ही नहीं। इन हालातों में देश के गरीब बच्चों को शिक्षा ने नाम पर क्या मिल रहा है उसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसी शिक्षा के होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है ?



अक्सर सरकारें साधनों की कमी का रोना रोती आई हैं। जबकि हकीकत में ये है कि अपने शिक्षा बजट में कुल सकल राष्ट्रीय उत्पादन का मात्र 0.7 फीसदी इजाफा करके सरकार अपने फर्ज को पूरा कर सकती है। इतने बड़े राष्ट्र के विकास के लिए पूरे समाज का शिक्षित होना अनिवार्य शर्त है। शिक्षा हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। दूसरी योजनाएं और काम इंतजार कर सकते हैं लेकिन हम दुनिया की सबसे बड़ी अशिक्षित आबादी के भारी बोझ को लेकर विकास के रास्ते पर नहीं बढ़ सकते। यह आश्चर्य की बात है कि साधनों का रोना रोने वाली सरकारें जो करना चाहती हैं उसके लिए साधनों की कमी आड़े नहीं आती। सरकार को लोगों में कंप्यूटर को लोकप्रिय बनाना था तो आज गली-गली कंप्यूटर पहुंच गया। यही हाल एसटीडी बूथ और अब इंटरनेट सर्विस का भी हो रहा है। इसलिए शिक्षाविद्ों को लगता है कि सरकार चाहती ही नहीं कि लोग शिक्षित बनें। शायद उन्हें डर है कि यदि सारा समाज शिक्षित हो गया तो लोग अपना हक मांगने लगेंगे और तब सरकारी ठाट-बाट और फिजूलखर्ची पर उंगलियां उठने लगेंगी। लोगों के जाहिल बने रहते में ही सरकार का फायदा है। जाहिल लोगों को जाति और धर्म के नाम पर बहका कर चुनाव जीते जा सकते है। उन्हें समझदार बनाकर नहीं। इसीलिए आजादी के 52 वर्ष बाद भी भारत में औपचारिक शिक्षा अभी तक लोगों को नहीं मिली। 



नेशनल एलाइंस फाॅर फंडामेन्टल राईट्स टू एजुकेशनके संयोजक संजीव कौरा फिर भी हताश नहीं हैं। मल्टीनेशलन कंपनी में चार्टेड एकाउंटेन्सी की शानदार नौकरी छोड़कर इस काम में जुटे हैं। उनके युवा मन में उत्साह है। पिछले डेढ वर्षों में इस एलाइन्स के साथ देश भर की 2400 से ज्यादा स्वयं सेवी संस्थाएं जुड़ गई हैं। 28 नवंबर 2001 को जब संसद में शिक्षा को मूलभूत अधिकार बनाए जाने के बिल पर बहस हो रही थी तब दिल्ली की सड़कों पर देश भर से आए 50 हजार माँ-बाप प्रदर्शन कर रहे थे। जिन्हें जागृत और संगठित करने का काम इस एलाइन्स ने किया था। संजीव को इस बात का एहसास है कि 100 करोड के इस देश में सबको शिक्षा दिलाने का लक्ष्य तो शायद 30 वर्ष में भी पूरा न हो पर वे इस कानून के आ जाने को भी एक उपलब्धि मानते हैं। उनका कहना है कि, ‘‘आज 52 वर्ष के बाद कानून तो बना। आने वाले दिनों में इस कानून के लागू करने में हो रही खामियों को भी दूर किया जाएगा।’’ जबकि पिछले 52 वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में अपना जीवन लगा देने वाले अनेक सुप्रसिद्ध शिक्षविद बहुत उत्साही नहीं हैं। ये सब वे लोग हैं जो संजीव की तरह ही देश-विदेशों में उच्च पदों को त्याग कर सबको शिक्षादिलाने के काम में जुटे थे। इन्होंने आम आदमी के लिए सस्ती, सुलभ और वैज्ञानिक शिक्षा प्रदान करने के अनेक प्रयोग भी किए और नए माॅडल भी विकसित किए। ये व्यवस्था से दूर देहातों में भी रहे और व्यवस्था में सलाहकार बनकर उसे सुधारने के प्रयास भी किए। इन्हें सफलता, कीर्ति और प्रोत्साहन भी मिला और विरोध भी। पर तीन-चार दशकों तक त्यागमय जीवन जीने के बाद भी इनका अनुभव यही रहा है कि नौकरशाही और राजनेता देश को जाहिल ही रखना चाहते हैं और साधन और सक्षम लोग होने के बावजूद शिक्षा को सबके लिए सुलभ नहीं करना चाहते।



ऐसे लोग यह मानने को तैयार नहीं है कि कोई भी सरकार इस देश के सौ करोड लोगों को साक्षर और शिक्षित बनाने का काम ईमानदारी से करेगी। इसीलिए ये सब हताश बैठे हैं। इनकी हताशा जायज है। पर जहां चाह वहां राह। हो सकता है कि पिछली सदी इस काम के लिए ठीक न रही हो। पर अब संचार और सूचना के फैलते जाल के बाद लोगों को मुख्य धारा से अलग-थलग रखना सरल न होगा। जनआकांक्षाएं इतनी बढ़जाएंगी कि शिक्षा का महत्व सबकी समझ में आ जाएगा। इसी उम्मीद के साथ व्यवस्था के अंदर और बाहर रहने वाले सभी जागरूक और कर्तव्यनिष्ठ लोगों को शिक्षा के वितरण का पुण्य कार्य यथाशक्ति करना चाहिए। इसमें ही हमारे राष्ट्र का कल्याण निहित है।

Friday, January 18, 2002

दिल्ली में लगी टिकटों की बोली

पिछले दिनों विधान सभा चुनावों के लिए टिकटार्थियों का दिल्ली में मेला लगा रहा। इंका, सपा, भाजपा व बसपा के पार्टी मुख्यालय व नेताओं के घर टिकट की हसरत लिए हजारों लोग डेरा डाले बैठे रहे। इसमें कोई नई बात नहीं थी। हमेशा से ऐसा होता आया है। किसी भी पार्टी में आन्तरिक लोकतंत्र तो है नहीं, जो उम्मीदवारों का फैसला स्थानीय स्तर पर हो जाये। हर पार्टी निजी जागीर की तरह चलती है। इसलिए स्थानीय स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं की भावनाओं और उम्मीदवारों की योग्यता का विशेष महत्व नहीं रहता। यही कारण है कि समाज के प्रति समर्पित, निष्ठावान, विचारधारा से जुड़े और अनुभवी लोगों को दरकिनार करके प्रापर्टी डीलरों, अपराधियों, माफियाओं को आसानी से टिकट मिल जाते हैं। चुनाव जीतने की सम्भावना जिसकी ज्यादा होती है उसे अक्सर वरियता मिलती है बशर्ते वह अन्य शर्तें भी पूरी करता हो। मसलन टिकट बांटने के लिए निर्धारित समिति के सदस्यों को उसनें प्रसन्न रखा हो या फिर उनको मुँह मांगी कीमत देने को तैयार हो। जिसे टिकट मिल जाती है वह कभी नहीं कहता कि पैसे देकर टिकट ली है। पर जिसे नहीं मिलती वह जरूर आरोप लगाता है कि टिकट बेची गई। हकीकत दोनों के बीच में है। चुनाव जीतने की योग्यता, दल के वरिष्ठ नेताओं से व्यक्तिगत सम्बन्ध और धन-बल तीनों ही मिलकर किसी व्यक्ति की उम्मीदवारी पर दल का अधिकृत उम्मीदवार होने की मुहर लगाते हैं। पिछले दिनों सभी दलों को लेकर यही शिकायत मिली। जब धुंआ उठता है तो कहीं आग भी लगी होती है। आगामी विधान सभा चुनावों के लिए टिकट बांटते वक्त हर दल के खेमे में अपने दल के नेताओं के विरुद्ध ऐसे आरोप सुनाई दिए। राष्ट्र और समाज हित को छोड़ भी दें तो भी यह किसी राजनीतिक दल के लिए आत्मघाती स्थिति है।

इस तरह तो पूरी राजनीति का व्यावसायीकरण हो जायेगा। जब कोई उम्मीदवार पैसे देकर पार्टी का टिकट लेगा तो जीतने के बाद उसे पैसे लेकर दल बदलने में कोई संकोच न होगा। क्योंकि उसका उस दल से कोई वैचारिक सम्बन्ध तो होगा नहीं। मौका परस्ती की शादी वक्त से पहले ही टूट जाती है। पिछले वर्षों में देश की विधानसभाओं में यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। जब किसी स्थानीय दल के 10-20 विधायक रातों-रात पाला बदल लेते हैं तो सरकारें बनती बिगड़ती रहती हैं। इससे न सिर्फ राजनीतिक अस्थिरता पैदा होती है बल्कि ब्लैकमेलिंग और भ्रष्टाचार बढ़ जाता है। छोटे-छोटे दल अपने जा-बेजा काम सरकार से करवाते रहते हैं। काम न होने पर रूठ कर सरकार विरोधी गतिविधियों में लग जाते हैं। इतना ही नहीं इस तरह की ब्लैकमेलिंग से घिरे मुख्यमंत्री चाह कर भी कड़े कदम नहीं उठा पाते। क्योंकि उन्हें हरदम अपनी कुर्सी चले जाने का भय रहता है। पारस्परिक आर्थिक हितों से जुड़ा यह समूह समाज के लिए कुछ भी ठोस नहीं करता। इससे निराशा फैलती है। सरकारों के प्रति जनता में नाराजगी फैलती है। इतना ही नहीं जब कोई माफिया बिना योग्यता के टिकट पाने में सफल हो जाता है तो उस दल के स्थानीय कार्यकर्ताओं में कुन्ठा भर जाती है। उन्हें अपने दल के नेताआंे पर विश्वास नहीं रहता। दल में रह कर भी उनमें निरन्तर असुरक्षा की भावना बढ़ती जाती है। ऐसी मानसिकता और खरीद-फरोक्त से टिकट पाये उम्मीदवार से समाज और राष्ट्र का कोई भला नहीं होता। फिर तो ये लोग चाहे चुनाव जीतें या न जीतें। यही कारण है कि अब हर राजनीतिक दल से जनता का मोह भंग हो चुका है। वह मजबूरी में वोट तो देती है पर उसका वोट उसकी भावनाओं के अनुरूप नहीं होता। इसीलिए हर राजनैतिक दल चुनाव के पहले अपने उम्मीदवारों के चयन को लेकर सशंकित रहता है। टिकटों की सौदेबाजी घटने के बजाय और ज्यादा बढ़ रही है। एक-एक टिकट पर टिकट मांगने वालों में हजारों प्रत्याशी तक हो सकते हैं। जाहिर है कि टिकट हजारों में से किसी एक को मिलती है। बाकी के लोग हताशा में अपने क्षेत्र लौट जाते हैं। वहां जाकर वे अपने ही दल के प्रत्याशी के विरुद्ध प्रचार और तोड़-फोड़ की कार्यवाही में लग जाते हैं ताकि अपने ही दल के प्रत्याशी को हराकर हाई कमान को ये संदेश दे सकें कि उनके चयन में दोष था।

किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए यह सब बहुत शर्मनाक बात है। टिकटार्थियों के चयन में सबके लिए एक-सी आवेदन फीस निर्धारित की जा सकती है ताकि जितने ज्यादा उम्मीदवार आवेदन दें उतना ही उस दल के कोष मे धन जमा हो जाये जो बाद में दल के काम आये। पर उम्मीदवारों से पैसे लेकर टिकट देना तो बहुत ही घातक बात है। इससे तो पूरी चुनाव प्रक्रिया की वैधता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। अफसोस की बात तो यह है कि हमारे लोकतंत्र में यह प्रवृत्ति घटने के बजाय बढ़ती जा रही है। इससे हर दल का नुकसान हो रहा है। हर दल के वरिष्ठ नेताओं को इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए कारगर कदम उठाने चाहिए। आज तो पैसे देकर आये ये लोग मुख्यमंत्रियों को ही नचाते है। पर इस दुश्प्रवृत्ति पर यहीं रोक न लगाई गई तो आने वाले दिनों में केन्द्रीय स्तर के नेता भी गाँव कस्बे के नेताओं की तरह ऐसे अनुशासनहीन प्रत्याशियों की सार्वजनिक आलोचना और तिरस्कार का शिकार बनेंगे।

आवश्यकता इस बात की है कि हर दल अपनी स्थानीय इकाईयों को न सिर्फ सशक्त करे बल्कि उनमें आन्तरिक लोकतंत्र को बढ़ावा दे। स्थानीय स्तर पर पार्टी का काम करने वालों और पार्टी के लिए उम्मीदवारों का चयन करने वालों के अलग-अलग समूहों की स्थापना करे। हर विधानसभाई और संसदीय क्षेत्र में पार्टी का संगठन कार्य उसके कार्यकर्ता संभालें। लेकिन ये कार्यकर्ता टिकट के लिए अपनी उम्मीदवारी पेश न करें या उसके लिए दिल्ली आकर समर्थन न जुटायें। उम्मीदवारी का आवेदन करना ही आवेदक की कुपात्रता का प्रमाण माना जाए। उम्मीदवार का चयन करने के लिए दल का राष्ट्रीय या प्रान्तीय नेतृत्व स्थानीय स्तर पर संभ्रांत, अनुभवी, प्रतिष्ठित और लोकप्रिय लोगों की समितियाँ बनायें। जिस तरह सरकारी नौकरी में हर कर्मचारी की गोपनीय आख्या केन्द्र को भेजी जाती है, उसी तरह इस चयन समिति के सदस्य बिना प्रचार किये खामोशी से दल के हर कार्यकर्ता के काम पर नज़र रखें। यह काम केवल चुनाव के पहले नहीं बल्कि एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच के दौर में निरन्तर चलता रहे ताकि चुनाव आने से पहले इस समिति की सिफारिश पर उम्मीदवार का चयन किया जाए। इससे दिल्ली की खामखाह भागदौड़ खत्म होगी। कार्यकर्ता अपना काम मन से करेंगे और दल का उम्मीदवार योग्यता और पात्रता लिए हुए होगा। बाकी के कार्यकर्ताओं के लिए ऐसे उम्मीदवार का चुनाव में सहयोग करना और उसके लिए चुनाव प्रचार करना अनिवार्य और सहज हो जायेगा। शुरू में यह अटपटा जरूर लगेगा पर बाद में इस प्रक्रिया से हर दल की राजनैतिक संस्कृति में व्यापक सुधार आयेगा। आजादी के बाद के सालों में ऐसा ही माहौल हुआ करता था जबकि तब आज के मुकाबले लोगों की जानकारी काफी कम होती थी। पर क्रमशः सब कुछ हाईकमान के नाम पर होता चला गया। चाहे एक नेता का दल हो या सौ बड़े नेताओं वाला दल। सब में हाईकमान के नाम पर ही ये सब होने लगा है।

यहां सवाल उठ सकता है कि जब राजनीति जन-सेवा का माध्यम है तो उम्मीदवार एक-एक टिकट के लिए पचासों लाख रूपये तक खर्च करने को क्यों आतुर रहते हैं ? साफ जाहिर है कि राजनीति अब समाज की सेवा का नहीं बल्कि राजनेताओं के आत्मपोषण का माध्यम बन गई है। न तो इसमें किसी योग्यता की जरूरत बची है न इसमें आने के लिए कोई प्रवेश परीक्षा पास करनी होती है न इसमें सरकारी नौकरी की तरह किसी चरित्र-प्रमाणपत्र की आवश्यकता होती है, न इसमें कोई सेवा-निवृत्ति की अधिकतम आयु सीमा होती है। इसमें तो जो कुछ धन टिकट प्राप्त करने और चुनाव लड़ने में खर्च होता है उसका कई गुना चुनाव जीतने के बाद तमाम तरीकों से लौटकर उम्मीदवार के पास आ जाता है। चाहे वह रिश्वत के तौर पर हो या कमीशन के तौर पर। दरअसल आज राजनीति से अच्छा व्यापार दूसरा नहीं। जिसमें पैसा लगाते ही लाभ सुनिश्चत होता है और पैसा डूबने का तो कोई जोखिम होता ही नहीं। इसलिए टिकट पाने की होड़ में वही लोग भागते हैं जिनके पास धन-साधन काफी हैं, पर वे राजनीति में आकर अपनी धन लिप्सा को पूरी तरह संतुष्ट कर लेना चाहते हैं। ऐसे लोग भला समाज या प्रान्त या फिर राष्ट्र का क्या भला करेंगे ? ये लोग कैसे अपने मतदाताओं की अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे। यही कारण है कि भारत का मतदाता क्रमशः हर दल से विमुख होता जा रहा है। वोट बैंक की बातें चाहे जितनी हों कोई गारन्टी से नहीं कह सकता कि इतने वोट उसकी मुट्ठी में बंद हैं। लोकतंत्र में ऐसी अनिश्चतता का होना देश के विकास के लिए शुभ लक्षण नहीं हैं। समस्या यह है कि हर दल किसी न किसी तरह सत्ता पर काबिज होना चाहता है। राजनीति में आई गिरावट को सुधारना किसी के भी एजेन्डे में नहीं है। सब मतदाताओं को सुहावने सपने दिखाकर और भ्रमित करके अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। इसीलिए कुछ बदलता नहीं। चुनाव से भी नहीं।

Friday, January 11, 2002

ऐसे भी हैं मुख्यमंत्री


आज जबकि ज्यादातर राजनेता जनता के बीच अपनी खराब छवि के कारण अलोकप्रिय हो रहे हैं कुछ ऐसे मुख्यमंत्री भी हैं जो अपनी कार्यकुशलता के कारण जनता में लोकप्रिय हो रहे हैं। इस क्रम में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू, कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस.एम. कृष्णा और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नाम सबसे ऊपर है। इन मुख्यमंत्रियों ने कार्यकुशलता और प्रशासनिक जवाबदेही की अच्छी मिसाल कायम की है। आज से पहले जो लोग हैदराबाद गए होंगे उन्हें यह देखकर आश्यचर्य होगा कि हैदराबाद अब एक सजा-संवरा शहर बन चुका है। शहर की सफाई रात के 10 बजे से सुबह 4 बजे के बीच पूरी हो जाती है। जिस समय महापालिका के कर्मचारी और अधिकारी हैदराबाद की सड़कों पर घूम-घूम कर सफाई के काम को अंजाम देते हैं। इसलिए हैदराबाद शहर में आपको कहीं भी कूडे़ का ढेर नजर नहीं आएगा। इतना ही नहीं हैदराबाद की सड़कों पर से अवैध कब्जे हटा दिए गए हैं। फुटपाथो को रंग-पोत कर साफ कर दिया गया है। अलबत्ता हैदराबाद के ट्रैफिक को अनुशासित करने मेें श्री नायडू के अधिकारी अभी सफल नहीं हुए हैं। हैदराबाद में ट्रैफिक आज भी वाहन चालकों की मनमानी चाल पर ही चलता है। लेकिन सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि हैदराबाद की सड़कों पर भिखारी कहीं भी दिखाई नहीं देते। दीवारों पर नारे और पोस्टर लगाने की भी मनमानी तरीके से छूट नहीं है। जाहिर है कि हैदराबाद की नागरिक सेवाओं की गुणवत्ता में आए इस सुधार के लिए श्री नायडू को काफी प्रयास करना पड़ा होगा। इसके लिए उन पर स्थानीय नेताओं और दबाव समूहों के अनावश्यक दबाव भी आए होंगे। लोगों ने उनके सुधार कार्यक्रमों का विरोध भी किया होगा। अवैध कब्जे हटाते समय उन्हें अपने वोट बैंक के खोने का भय भी रहा होगा। पर लगता है कि श्री नायडू ने इन सब बातों की परवाह किए बगैर नागरिक जीवन को सुधारने का बीड़ा उठाया और उसमें उन्हें भारी कामयाबी मिली।
इतना ही नहीं हैदराबाद के भवन निर्माण क्षेत्रों व अन्य कार्यक्षेत्रों में काम की संस्कृति में भारी सुधार आया है। वहां काम करने वाले मजदूरों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उनका हेल्मेट पहनना अनिवार्य कर दिया गया है। वे इस नियम का पालन भी कर रहे हैं। नतीजतन अब हैदराबाद में हर मजदूर हेल्मेट पहनकर ही काम नहीं करता बल्कि समय पर काम शुरू करता है और कुछ समय के लंच विश्राम के अलावा बाकी सब समय बड़ी तत्परता से काम करता है। पूरे हैदराबाद के माहौल में चुस्ती, फुर्ती व कर्तव्यपरायणता पग-पग पर दिखाई देती है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि श्री नायडू आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ही न होकर सीईओ हैं। इसीलिए वे हर क्षेत्र में कार्यकुशलता और गुणवत्ता लाने के पक्षधर हैं। सब जानते हैं कि चन्द्रबाबू नायडू ने अपना जीवन एक दामाद के तौर पर शुरू किया था। उनकी ख्याति सिर्फ इतनी सी थी कि वे आंध्र प्रदेश के दिवंगत मुख्य मंत्री एन.टी. रामा राव के दामाद थे। पर इतने वर्षों में उन्होंने स्वयं को एक दामाद की जगह एक युगदृष्टा के रूप में विकसित कर लिया है। ऐसा व्यक्ति जो समाज में सही परिवर्तन लाने की दिशा में निरंतर सक्रिय हो। 
जातिगत और क्षेत्रीय स्वार्थों में उलझे भारतीय लोकतंत्र में आज ऐसी परिस्थियां विकसित हो गई हैं कि चुनाव जीतने के लिए राजनेता को अच्दा काम करने की जरूरत नहीं होती बल्कि उसे हर परिस्थिति में राजनैतिक लाभ कमाना आना चाहिए। इसलिए कई बार अच्छा काम करने वाले राजनेता भी चुनाव में वांछित सफलता नहीं पाते, जो कि उन्हें मिलनी चाहिए। जबकि गुंडे और मवाली चुनाव प्रक्रिया का अवैध फायदा उठाकर चुनाव जीतने में कामयाब हो जाते हैं। इसलिए चन्द्रबाबू नायडू का काम उनके मतदाताओं को पसंद आएगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता है पर इतना निश्चित है कि अपनी मेहनत और लगन से चन्द्र बाबू नायडू ने आज के राजनीतिज्ञों के बीच प्रमुख हैसियत बना ली है। ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति में सक्रिय होना चाहिए। दिल्ली पर मात्र रिमोट कंट्रोल से काम नहीं चलेगा।
 जो काम श्री नायडू ने आंध्र प्रदेश में किया है वहीं काम राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत ने भी किया है। राजस्थान के समझदार नागरिकों का कहना है कि श्री गहलोत ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ मुख्य मंत्री हैं। उनकी सादगी और ईमानदारी की पूरे राजस्थान में प्रशंसा हो रही है। जयपुर शहर भी क्रमशः हैदराबाद की तरह ही साफ और सुंदर होता जा रहा है। इस शहर का वायु प्रदूषण लगभग समाप्त हो चुका है। भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ सरकार शिकंजा कसती जा रही है। श्री गहलोत को सबसे बड़ी सफलता तब मिली जब उन्होंने सरकारी कर्मचारियों की लंबी हड़ताल से डरे बिना हड़ताली सैकड़ों कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया। सरकार में बैठकर काम चोरी करने वालों को पहली बार यह एहसास हुआ कि वे सरकार को दबा नहीं पाएंगे। श्री गहलोत के इस एक निर्णय से प्रशासन में उनका डर बैठ गया। दूसरी तरफ बिजली की चोरी रोकने में भी श्री गहलोत को अभूतपूर्व सफलता मिली। प्रदेश में यह आलम था कि छोटे लोग ही नहीं बड़े-बड़े उद्योगपति तक बिजली की भारी चोरी करने में जुटे थे। सरकार को करोड़ों रूपए के राजस्व का घाटा हो रहा था। अब सब बिलबिला रहे हैं। ऐसे ही निहित स्वार्थ श्री गहलोत के खिलाफ दुष्प्रचार में जुटे हैं। पर श्री गहलोत अपनी कर्तव्यनिष्ठा से जनता के बीच लोकप्रिय होते जा रहे हैं। प्रदेश में आर्थिक संकट से निपटने के लिए श्री गहलोत ने कई कदम उठाए। उन्होंने सरकारी फिजूलखर्ची पर काफी हद तक रोक लगाने में सफलता हासिल की। कुछ  लोगों का आरोप है श्री गहलोत के इर्द-गिर्द रहने वाले उनकी शराफत का नाजायज फायदा उठाकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं। जिनसे श्री गहलोत को सावधान रहना होगा। वरना उनके किए कराए पर पानी फिर जाएगा।
 इसी तरह कर्नाटक के मुख्यमंत्री श्री एसएम कृष्ण की कार्यशैली भी सराही जा रही है। ये तीन मुंख्यमंत्री बाकी मुंख्यमंत्रियों के लिए मिसाल बन गए हैं। इनका काम यह सिद्ध करता है कि अपनी असफलता के लिए व्यवस्था को दोष देने वाले राजनेता दरअसल खुद ही प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारना नहीं चाहते। वरना ऐसी कामयाबी हर राज्य में मिल सकती है। यह इत्त्फाक ही है कि इन तीनों मुख्यमंत्रियों में से भाजपा के एक भी नहीं। दो इंका के हैं और एक तेलगूदेशम का। इन मुख्यमंत्रियों का काम पश्चिमी बंगाल सरकार के लिए भी एक सबक है। क्या वजह है कि पश्चिमी बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार पिछले बीस वर्ष सत्ता में रहने के बाद भी काम के ऐसे मानदंड स्थापित नहीं कर पाई ? इससे एक बार फिर यह सिद्ध हो गया है कि व्यवस्था कोई भी हो अगर उसके चलाने वाले सही नहीं है तो वह व्यवस्था नहीं चल सकती। किंतु यदि चलाने वाले सही हों तो व्यवस्था कैसी भी क्यों न हो काम करने लगती है। हमने लोकतंत्र अपनाया था इसलिए ताकि विविधता में एकता वाले इस विशाल राष्ट्र के हर नागरिक को सत्ता संचालन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भागीदारी रहे। पर दुर्भाग्य से लोकतंत्रिक संस्थाओं का ऐसा पतन हुआ है कि जनप्रतिनिधि अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। राजनैतिक ब्लैकमेलिंग, दलाली, अपराधियों को संरक्षण व समाज में द्वेष फैलाकर अपना फायदा देखने वाले आज राजनीति में ज्यादा हावी हो रहें। ऐसे में श्री नायडू व गहलोत आशा की किरण लेकर सामने आए हैं। इन्हें जरूरत है मजबूत हाथों की जो इनके कामों में इनकी मदद करे। प्रदेश की युवा पीढ़ी, सेवानिवृत्त कुशल अधिकारी और राजनैतिक कार्यकर्ता इनके साथ स्वयं सेवी रूप में जुड़ कर विभिन्न कार्यक्रमों की स्थिति पर निगरानी रख सकते हैं। प्रशासक और प्रजा के पारस्परिक सहयोग से ही भारत के विभिन्न प्रांतों का विकास संभव है।
यह आश्चर्य की बात है कि हमारे टीवी चैनलों पर ऐसा काम करने वाले राजनेताओं को ज्यादा तरजीह नहीं दी जा रही है। या तो ये लोग अपने काम में इतने मशगूल हैं कि इन्हें मीडिया प्रचार से ज्यादा अपने काम को अंजाम देने की चिंता है। या फिर मीडिया की रूचि ऐसे कर्तव्यनिष्ठ लोगों में कम और चटपटी खबरें बनाने वाले लालू यादव जैसे विवादास्पद राजनेताओं में ज्यादा है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इन लोगों के अच्छे काम को देश भर में प्रचारित किया जाए ताकि दूसरे राजनेता भी इनसे प्रेरणा लें और राजनीति की संस्कृति को टांग घसीटी से निकाल कर रचनात्मक दिशा में ले जाएं ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदलते परिवेश में भारत का लोकतंत्र और भी ज्यादा मजबूती के साथ दुनिया के सामने उभर कर आएं।

Friday, January 4, 2002

युद्ध के लिए चाहिए अमरीका की हरी झंडी

कोई भी देश अपनी सार्वभौमिकता का कितना ही दावा क्यों न करे हकीकत यह है कि अब दुनिया में अमरीका की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हो या न हो इसका फैसला भी शायद अमरीका की मर्जी के बिना नहीं हो पाएगा। यूं युद्ध के हालात बनते जा रहे हैं। दोनों तरफ से तैयारी जोरों से चल रही है। भारतीय फौजों को सीमा तक पहुंचने में अभी तीन हफ्ते और लगेंगे। पर सवाल है कि क्या वाकई युद्ध होगा ? जानकारों का कहना है कि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि अमरीका की मंशा क्या है ? अगर अमरीका नहीं चाहता कि युद्ध हो तो युद्ध नहीं होगा। चाहे दोनों तरफ भावनाओं का कितना ही उबाल उठता रहे। आज की तारीख तक पाकिस्तान के हवाई अड्डों पर अमरीका के विमान तैनात हैं जिन्हें अफगानिस्तान पर हमला बोलने के लिए लगाया गया था। पाकिस्तान के हवाई अड्डों से अमरीकी सैन्य सामग्री को हटाये बिना भारत पाकिस्तान के हवाई अड्डों पर हमले नहीं कर सकता। अमरीका इन्हें तब तक नहीं हटायेगा जब तक यह उसकी सामरिक रणनीति को पूरा करने में काम आ रहे। अमरीकी विदेश नीति विशेषज्ञों का मानना है कि अमरीका आजतक पाकिस्तान को एक सहयोगी के रूप में देखता आया था। पर पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम ने यह साफ कर दिया है कि पाकिस्तान हमेशा से दोगली नीति चलता रहा है। पूरी दुनिया खासकर यूरोप के देश अब इस बात से आश्वस्त हो गये हैं कि दुनिया भर में फैले इस्लामी आतंकवाद को पूरी मदद और संरक्षण पाकिस्तान से ही मिलता रहा है। जब तक इस्लामी आतंकवाद का निशाना भारत जैसे दूसरे देश थे तब तक धनी देशों को कोई चिन्ता न थी। पर वर्ड ट्रेड सेन्टर पर 11 सितम्बर को हुए हमले के बाद अब यह साफ हो गया कि यूरोप और अमरीका के देश इस्लामी आतंकवाद के निशाने पर हैं। आतंकवादी कभी भी कहीं भी हमला करने में सक्षम हैं। फिदाई आतंकवादियों ने यूरोप और अमरीका के लोगों की नींद हराम कर दी है। 11 सितम्बर के बाद अमरीका की अर्थव्यवस्था को अभूतपूर्व झटका लगा है। उसकी वायु सेवाऐं भंवर में फंस गई हैं। बाजारों पर मंदी छा गई है। पर्यटन उद्योग हिल गया है। यूरोप और अमरीका अब यह समझ गये हैं कि अगर आतंकवाद पर काबू न पाया गया तो उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है। इसलिए वे हाथ-धोकर इस्लामी आतंकवादियों के पीछे पड़ गये हैं।

अमरीका को डर यह है कि पाकिस्तान के पास आणविक हथियारों का जो जखीरा है वह कहीं आतंकवादियों के हाथ न पड़ जाए। ऐसा हुआ तो दुनिया को भयावह परिणाम झेलने पड़ेंगे। इसलिए अमरीका हर कीमत पर पाकिस्तान पर अपना नियंत्रण और दबाव बनाये रखना चाहता है। अगर भारत-पाक युद्ध के बाद पाकिस्तान कमजोर होता है, टूटता है, विभाजित होता है तो अब उसके लिए दुनिया में आंसू बहाने वाला कोई नहीं। कहते हैं कि दूसरे के लिए कुआं खोदने वाला खुद खाईं में गिर जाता है। अफगानिस्तान में तालिबान को समर्थन देकर पाकिस्तान ने सोचा था कि वो अफगानिस्तान को ढाल की तरह इस्तेमाल करेगा। इस तरह उसकी आतंकी गतिविधियों पर पर्दा पड़ा रहेगा और अफगानिस्तान ही दुनिया में आतंकी देश के नाम से जाना जायेगा। इस काम के लिए पाकिस्तान ने आर्थिक तंगी के बावजूद सैकड़ों करोड़ रूपया पानी की तरह बहाया। यही काम उसने कश्मीर की घाटी में भी किया। पर उसकी ये नीति आज उसके गले का फंदा बन गई। तालिबान के पतन के बाद ये तमाम पैसा तो बर्बाद हुआ ही दुनिया के सामने उसकी पोल खुल गई। वो आतंकवादी देश के रूप में उभर कर सामने आया। अब पाकिस्तान के शासक बुरी तरह घिर गये हैं। अगर वे अमरीका का साथ छोड़ते हैं तो गृह-युद्ध में मारे जायेंगे और अगर अमरीका का साथ निभाते हैं तो अब भविष्य में आतंकवाद को समर्थन नहीं दे पायेंगे। कूटनीतिक स्तर पर पाकिस्तान की विदेश नीति बुरी तरह विफल हुई है। लेकिन अमरीका को मात्र इससे सन्तोष नहीं होगा । जब तक पाकिस्तान के आणविक हथियारों को नष्ट नहीं किया जाता या उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय नियंत्रण में नहीं रखा जाता तब अमरीका और यूरोप के देश चैन की नींद नहीं सो सकते। भारत-पाक युद्ध से अगर यह मकसद पूरा होता है तो अमरीका भारत को न सिर्फ युद्ध की अनुमति देगा बल्कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मदद भी करेगा। अगर ऐसा नहीं होता तब शायद उसकी रुचि दक्षिण एशिया में शान्ति बनाये रखने की ही हो।
हर युद्ध का इतिहास बताता है कि युद्ध लड़ने के कई गुप्त कारण भी हुआ करते हैं। हर युद्ध से सबसे ज्यादा लाभ हथियारों के सौदागरों को होता है। चाहे वे घरेलू हों या विदेशी। अगर भारत-पाक युद्ध होता है तो निःसन्देह कमजोर अर्थव्यवस्था की मार झेल रहे भारत पर अनावश्यक आर्थिक बोझ बढ़ेगा। किन्तु इससे भारत में रक्षा उपकरणों और हथियारों की मांग तेजी से बढ़ जायेगी जिसका फायदा उठाने से कोई नहीं चूकेगा। न तो देशी सौदागर न विदेशी। आज की परिस्थितियों में यदि भारत-पाक युद्ध होता है तो उसका सीधा लाभ अमरीका को मिलेगा। क्योंकि भारत उससे हथियार खरीदेगा। जिससे अमरीका की अर्थव्यवस्था में उछाल आयेगा। इधर युद्ध से ध्वस्त हुई दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर आने में कुछ वक़्त लगेगा। इस दौर में घरेलू मांग को पूरा करने के लिए भी इन देशों को भारी मात्रा में आयात करना पड़ेगा। जिसका फायदा अमरीका उठायेगा ही। इतना ही नहीं चीन भी इस मौके पर फायदा उठाने से नहीं चूकेगा। भारत की भौगोलिक सीमाओं से जुड़ा होने के कारण यह स्वाभाविक ही है कि भारत के घरेलू बाजार को अपने माल से पाटना चीन को बहुत सुविधाजनक लगेगा। इसलिए उसकी रुचि इस युद्ध के हो जाने में ही होगी। यह सही है कि चीन दक्षिण एशिया में भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनते हुए नहीं देख सकता। पर भारत-पाक युद्ध से उभर कर भारत कूटनीतिज्ञ सफलता भले ही प्राप्त कर ले, उसकी ताकत ज्यादा नहीं बढ़ेगी। वैसे भी चीन और पाकिस्तान के बीच कोई रक्षा समझौता तो है नहीं जो चीन पाकिस्तान की मदद को दौड़ा आये। चीन अब क्या मदद को आयेगा जब 1971 में ही नहीं आया। तब तो भारत इतना शक्तिशाली भी नहीं था। फिर भी जब भारतीय फौजें पूर्वी क्षेत्र में पूर्वी पाकिस्तान (बंगला देश) के भीतर बढ़ रही थीं तब अगर चीन पूर्वी क्षेत्र में अपनी हलचल बढ़ा देता तो भारत के लिए विकट स्थिति खड़ी हो जाती। उसे अपनी सीमित फौजों को कई मोर्चों पर लड़वाना पड़ता। पर चीन ने ऐसा नहीं किया। इसलिए अब ऐसा नहीं लगता कि चीन पाकिस्तान की मदद को दौड़ा आयेगा । वैसे भी इस्लामी कट्टरवाद पूर्व के सोवियत यूनियन के चेचन्या जैसे इलाकों में फैल रहा है। उससे चीन का सर्तक होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि पश्चिमी चीन के कई प्रान्त मुस्लिम आबादी वाले हैं। अगर इन प्रान्तों में भी इस्लामी कट्टरवाद फैल गया तो चीन के लिए मुश्किल खड़ी हो जायेगी। इसलिए ऊपर से चाहे जितना मीठा बने, चीन इस लड़ाई में पाकिस्तान की ठोस मदद नहीं करेगा।

भाजपा नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी ने इजराइल से अपने जो संबंध पिछले वर्षों में विकसित किए हैं वे भी इस युद्ध में काम आ सकते हैं। लेबनान के आतंकवाद से त्रस्त इजराइल ऐसी परिस्थिति में भारत की मदद करने से नहीं चूकेगा। बहुत आश्चर्य नहीं होगा अगर इजराइल अपनी पैट्रीयाट मिसाइल भारत को दे दे। इस तरह भारत-पाक युद्ध में अगर भारत की निर्णायक जीत होती है तो इसमें शक नहीं कि देश में आतंकवाद काफी हद तक घट सकता है। क्योंकि तब उसे पाकिस्तान की सरपरस्ती नहीं मिलेगी। इसलिए गृहमंत्री का ताजा बयान महत्वपूर्ण है कि अगर लड़ाई होती है तो निर्णायक हो। उधर जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं वहां के भाजपाईयों में यह चर्चा चल पड़ी है कि अगर भारत-पाक युद्ध होता है तो इसका पूरा लाभ उन्हें चुनाव में मिलेगा। इसलिए यह माना जाना चाहिए कि सत्तारूढ़ दलों की रुचि इस युद्ध के हो जाने में ही है। कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने पत्रकारों के प्रश्नों के जवाब में यह साफ कहा कि आतंकवाद इस चुनाव में मुद्दा बनेगा। जब उनसे पूछा गया कि क्या अयोध्या में मन्दिर का निर्माण भी उनका चुनावी मुद्दा होगा तो उनका उत्तर था कि मन्दिर कभी चुनावी मुद्दा नहीं रहा। दरअसल भाजपा के नेतृत्व की सोच में आये इस अप्रत्याशित बदलाव की पृष्ठभूमि में यह तथ्य है कि पिछले एक वर्ष में अयोध्या मन्दिर के सवाल को लेकर विहिप के सभी प्रयास जन-भावनाऐं उकसाने में विफल रहे हैं। इसलिए उन्हें यह मुद्दा अब चुनाव के लिए सार्थक नहीं लगता। उत्तर प्रदेश की जनता के बीच विपक्षी दल गुपचुप यह प्रचार करने में जुटे हैं कि भारत-पाक के बीच युद्ध का माहौल चुनावों को ध्यान में रख कर बनाया जा रहा है। शायद यही कारण है कि भाजपा के नेता उत्तर प्रदेश में भीड़ को आकर्षित करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। देश में इस बात की चर्चा है कि अगर इस मौके पर केंद्रीय गृह मंत्री आईएसआई की गतिविधियों पर एक श्वेतपत्र जारी कर दें तो उससे लोगों की भ्रांती काफी दूर होगी और उन्हें मौजूदा हालात में सरकारी कदमों की सार्थकता का औचित्य समझ में आ जाएगा। वैसे जन-भावनाओं का कोई भी आकलन इस समय नहीं किया जा सकता। मूलतः भावावेष में बहने वाली भारतीय जनता का हृदय कब पलट जाये, नहीं कहा जा सकता। युद्ध की मानसिकता राजनैतिक दुश्मनों को भी मित्र बना देती है। फिर जनता तो बिचारी आसानी से भावावेश में आ सकती है।

कुल मिलाकर हालात ऐसे हैं कि युद्ध होगा कि नहीं, साफ नहीं कहा जा सकता। पर इतना तय है कि इसका फैसला वाशिग्टन से हरी झंडी मिलने के बाद ही होगा। अगर युद्ध होता है तो उसमें सबसे ज्यादा तबाही पाकिस्तान की होगी। पाकिस्तान यह बखूबी जानता है, इसलिए वहां युद्ध को लेकर कोई उत्साह नहीं है। जबकि भारत में इस बात पर गंभीर चिंतन चल रहा है कि अगर इस मौके का फायदा उठाकर भारत ने पाकिस्तान की लगाम नहीं कसी तो भविष्य में शायद ऐसा मौका जल्द नहीं आए।