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Monday, October 24, 2022

स्वच्छता अभियान कहाँ अटक गया ?


2014 में जब देश में मोदी जी
  ने सत्ता में आते ही स्वच्छता के प्रति ज़ोर-शोर से एक अभियान छेड़ा था तो सभी को लगा कि जल्द ही इसका असर ज़मीन पर भी दिखेगा। इस अभियान के विज्ञापन पर बहुत मोटी रक़म खर्च की गयी। कुछ ही महीनों में मोदी सरकार की प्राथमिकताएं दिखनी भी शुरू हो गईं। जितनी तीव्रता से इस विचार को सामने लाया गया उससे नई सरकार के योजनाकार भी भौचक्के रह गए। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने सफाई के काम को छोटा सा काम बताया था। पर अब तक का अनुभव बताता है की सफाई का काम उन बड़े-बड़े कामों से कम खर्चीला नहीं है जिनके लिए सरकारें हमेशा पैसा कि कमी का रोना रोते रहे हैं। आज आठ साल बाद भी देश की राजधानी दिल्ली के ही पॉश इलाक़ों तक में पर्याप्त सफ़ाई नहीं दिखती। जगह जगह कूड़े के ढेर  दिखाई दिखते हैं। 


प्रश्न है कि क्या इसके लिए केवल सरकार ज़िम्मेदार है? क्या स्वच्छता के प्रति हम नागरिकों का कोई दायित्व नहीं है? सोचने वाली बात है कि अगर देश की राजधानी का यह हाल है तो देश के बाक़ी हिस्सों में क्या हाल होगा?


देश के 50 बड़े शहरों में साफ़ सफाई के लिए क्या कुछ करने कोशिश नहीं की गई? रोचक बात ये है कि 600 से ज्यादा जिला मुख्यालयों में जिला प्रशासन और स्थानीय प्रशासन अगर वाकई किसी मुद्दे पर आँखें चुराते हुए दिखता है तो वह साफ सफाई का मामला ही है। उधर देश के 7 लाख गावों को इस अभियान से जोड़ने के लिए हम न जाने कितने साल से लगे हैं। यानी कोई कहे कि इतने छोटे से काम पर पहले किसी का ध्यान नहीं गया तो यह बात ठीक नहीं होगी। महत्वपूर्ण बात यह होगी कि इस सार्वभौमिक समस्या के समाधान के लिए व्यवहारिक उपाय ढूंढने के काम पर लगा जाए तो शायद सही दिशा में अच्छे परिणाम आएँगे। इसके लिए नागरिकों और सरकार की सहभागिता के बिना कुछ नहीं होगा। 



गांधी जयन्ती पर केंद्र या राज्य सरकार के तमाम मंत्री किस तरह खुद झाड़ू लेकर सड़कों पर सफाई करते दिखाई देते हैं उससे लगता है कि इस समस्या को कर्तव्यबोध बता कर निपटाने की बात सोची गई थी। यानी हम मान रहे हैं कि नागरिक जब तक अपने आसपास का खुद ख़याल नहीं रखेंगे तब तक कुछ नहीं होगा। इस खुद ख्याल रखने की बात पर भी गौर करना ज़रूरी है।


शोधपरख तथ्य तो उपलब्ध नहीं है लेकिन सार्वभौमिक अनुभव है कि देश के मोहल्लों या गलियों में इस बात पर झगड़े होते हैं कि ‘मेरे घर के पास कूडा क्यों फेंका’? यानी समस्या यह है कि घर का कूड़ा कचरा इकट्ठा करके कहाँ ‘फेंका’ जाए?


निर्मला कल्याण समिति जैसी कुछ स्वयमसेवी संस्थाओं के पर्यीवेक्षण है कि उपनगरीय इलाकों में घर का कूड़ा फेकने के लिए लोगों को आधा किलोमीटर दूर तक जाना पड़ता है। ज़ाहिर है कि देश के 300 कस्बों में लोगों की तलाश बसावट के बाहर कूड़ा फेंकने की है। खास तौर पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का अनुभव यह है कि हमारे बेशकीमती जल संसाधन मसलन तालाब, कुण्ड और कुँए – कूड़ा कचरा फेंकने के खड्ड बन गए हैं। इन नए घूरों और खड्डों की भी अपनी सीमा थी। पर अब हर जगह ये घूरे और कूड़े से पट गए हैं। आने वाले समय में नई चुनौती यह खड़ी होने वाली है कि शहरों और कस्बों से निकले कूड़े-कचरे के पहाड़ हम कहाँ-कहाँ बनाए? उसके लिए ज़मीने कहाँ ढूंढें? दिल्ली जैसे महानगर में भी कूड़ा इकट्ठा करने के स्थान भर चुके हैं और यहाँ भी कूड़ा इकट्ठा करने के लिए नए स्थान खोजे जा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय पूर्वी दिल्ली में बने कूड़े के पहाड़ों को लेकर दिल्ली सरकार की खिंचाई कर रहा है। 


गाँव भले ही अपनी कमज़ोर माली हालत के कारण कूड़े कचरे की मात्रा से परेशान न हों लेकिन जनसँख्या के बढते दबाव के चलते वहां बसावट का घनत्व बढ़ गया है। गावों में तरल कचरा पहले कच्ची नालियों के ज़रिये भूमिगत जल में मिल जाता था। अब यह समस्या है कि गावों से निकली नालियों का पानी कहाँ जाए। इसके लिए भी गावों की सबसे बड़ी धरोहर पुराने तालाब या कुण्ड गन्दी नालियों के कचरे से पट चले हैं।



यह कहने की तो ज़रूरत है ही नहीं कि बड़े शहरों और कस्बों के गंदे नाले यमुना जैसी देश की प्रमुख नदियों में गिराए जा रहे हैं। चाहे विभिन्न प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हों और चाहे पर्यावरण पर काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाएँ – और चाहे कितनी भी चिंतित सरकारें – ये सब गंभीर मुद्रा में ‘चिंता’ करते हुए दिखते तो हैं लेकिन सफाई जैसी ‘बहुत छोटी’ या बहुत बड़ी समस्या पर गम्भीर कोई नहीं दिखता। अगर ऐसा होता तो ठोस कचरा प्रबंधन, औद्योगिक कचरे के प्रबंधन, नदियों व सरोवरों या कुंडों के प्रदूषण स्वच्छता और स्वास्थ्य के सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी हमें बड़े अकादमिक आयोजन होते ज़रूर दिखाई देते। 


विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दिवसों और राष्ट्रीय दिवसों पर सरकारी पैसे से कुछ सेमीनार और शोध सम्मेलन होते ज़रूर हैं। लेकिन उनमें समस्याओं के विभिन्न पक्षों की गिनती से ज्यादा कुछ नहीं हो पाता। ऐसे आयोजनों में आमंत्रित करने के लिए विशेषज्ञों का चयन करते समय लालच यह रहता है कि सम्बंधित विशेषज्ञ संसाधनों का प्रबंध करने में भी थोड़ा बहुत सक्षम हो। और होता यह है कि ऐसे समर्थ विशेषज्ञ पहले से चलती हुई यानी चालु योजना या परियोजना के आगे सोच ही नहीं पाते। जबकि जटिल समस्याओं के लिए हमें नवोन्मेषी मिज़ाज के लोगों की ज़रूरत पड़ती है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थानों, प्रबंधन प्रौद्योगिकी संस्थानों और चिंताशील स्वयंसेवी संस्थाओं के समन्वित प्रयासों से, अपने-अपने प्रभुत्व के आग्रह को छोड़ कर, एक दूसरे से मदद लेकर ही स्वच्छता जैसी बड़ी समस्या का समाधान खोजा जा सकता है। पर हर समस्या को समस्या बनाकर रखने की अभ्यस्त नौकरशाही इस समस्या को भी अपनी लालफ़ीताशाही की फ़ाइलों में क़ैद रखने में ही अपनी कामयाबी समझती है। इसलिये कोई हल नहीं निकल पाता। 


हिमाचल प्रदेश की मनोरम घाटी हों या सागर के रमणीक तट, तेज़ रफ़्तार से दौड़ती रेलगाड़ियों की खिड़की के दोनों ओर की रेल विभाग की ज़मीने, हर ओर कूड़े का विशाल साम्राज्य देख कर कलेजा मुँह को आता है। पश्चिमी देशों की नज़र में भारत सबसे गंदे देशों में से एक है। ये हम सबके लिये शर्म की बात है। हम सबको सोचना और कुछ ठोस करना चाहिये।

Monday, December 12, 2016

भारत सुंदर कैसे बने?



नोटबंदी में मीडिया ऐसा उलझा है कि दूसरे मुद्दों पर बात ही नहीं हो रही। प्रधानमंत्री नरेन्द मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान बड़े जोर-शोर से शुरू किया था। देश की हर मशहूर हस्ती झाडू लेकर सड़क पर उतर गयी थी। पर आज क्या हो रहा है? क्या देश साफ हुआ ? दूर दराज की छोड़िये देश की राजधानी दिल्ली के हर इलाके में कूड़े के पहाड खड़े हैं, चाहे वह खानपुर-बदरपुर का इलाका हो या नारायण का, रोहिणी का हो, वसंत कुञ्ज का या उत्तरी व पूर्वी दिल्ली के क्षेत्र। जहां चले जाओ सड़कों के  किनारे कूड़े के ढेर लगे पडे हैं। यही हाल बाकी देश का भी है। रेलवे के प्लेटफार्म हों, बस अड्डे हों, बाजार हों या रिहायशी बस्तियां सब ओर कूड़े का साम्राज्य फैला पड़ा है। कौन सुध लेगा इसकी ? कहाँ गयी वो मशहूर हस्तियां जो झाड़ू लेकर फोटो खिंचवा रही थीं ?

प्रधानमंत्री का यह विचार और प्रयास सराहनीय है। क्योंकि सफाई हर गरीब और अमीर के लिए फायदे का सौदा है। गंदगी कहीं भी सबको बीमार करती है। भारतीय समाज में एक बुराई रही कि हमने सफाई का काम एक वर्ण विशेष पर छोड़ दिया। बाकी के तीन वर्ण गंदगी करने के लिए स्वतंत्र जीवन जीते रहे। नतीजा ये कि सफाई करना हम अपनी तौहीन मानते हैं । यही कारण है कि अपना घर तो हम साफ कर लेते हैं, पर दरवाजे के सामने का कूड़ा साफ करने में हमारी नाक कटती है। नतीजतन हमारे बच्चे जिस परिवेश में खेलते हैं, वो उनकी सेहत के लिए अच्छा नहीं होता। हम जब अपने घर, दफ्तर या दुकान पर आते-जाते हैं तो गंदगी से बच-बचकर चलना पड़ता है।  फिर भी हमें अपने कर्तव्य का एहसास क्यों नहीं होता ?

इसका कारण यह है कि हम भेड़ प्रवृत्ति के लोग हैं। अगर कोई डंडा मारे तो हम चल पड़ते है। जिधर हाँके उधर चल पडते हैं। इसलिए स्वच्छ भारत अभियान की विफलता का दोष भी मैं नरेन्द भाई मोदी पर ही थोपना चाहता हूँ। क्योंकि अगर वो चाहें तो उनका यह सुंदर अभियान सफल हो सकता है।

नोट बंदी के मामले में नरेन्द्र भाई ने जिस तरह आम आदमी को समझाया है कि यह उसके फायदे का काम हो रहा है वह बेमिसाल है। आदमी लाइनों में धक्के खा रहा है और उसके काम रूक रहे हैं, फिर भी गीता ज्ञान की तरह यही कहता है कि जो हो रहा है अच्छा हो रहा है और जो आगे होगा वो भी अच्छा ही होगा। अगर नोट बंदी पर मोदी जी इतनी कुशलता से आम आदमी को अपनी बात समझा सकते हैं तो सफाई रखने के लिए क्यों नहीं प्रेरित करते?

मैने पहले भी एक बार लिखा है कि सप्ताह में एक दिन अचानक माननीय प्रधानमंत्री जी को देश के किसी भी हिस्से में, जहां वे उस दिन सफर कर रहे हों, औचक निरीक्षण करना चाहिए। गंदगी रखने वालों को वहीं सजा दें और खुद झाड़ू लेकर सफाई शुरू करवायें। अगर ऐसा वे हफ्ते में एक घंटा भी करते हैं, तो देश में सफाई रखने का एक माहौल बन जायेगा। हर ओर अधिकारियों में डर बना रहेगा कि पता नहीं कब और कहां प्रधानमंत्री आ धमकें ।  जनता में भी उत्साह बना रहेगा कि वो सफाई अभियान में बढ-चढकर भाग ले।

देश में लाखों सरकारी मुलाजिम सेवानिवृत्त होकर पेशन ले रहे हैं। उन्हें अपने -अपने क्षेत्र की सफाई के लिए जिम्मेदार ठहराना चाहिए। इसी तरह सभी स्कूल, कालेजों को अपने परिवेश की सफाई पर ध्यान देने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारों को भी ये आदेश दिये जाने चाहिए कि वे अपने परिवेश को अपने खर्च पर साफ रखें। अन्यथा उनको मिलने वाली आयकर की छूट खत्म कर दी जायेगी। इसी तरह हर संस्थान को चाहे वो वकीलों का संगठन हो, चाहे व्यापार मंडल और चाहे कोई अन्य कामगार संगठन सबको अपनी परिवेश की सफाई के लिए जिम्मेदार ठहराना होगा। सफाई न रखने पर सजा का और साफ रखने पर प्रोत्साहन का प्रावधान भी होना चाहिए। इस तरह शुरू में जब लगातार डंडा चलेगा तब जाकर लोगों की आदत बदलेगी।

इसके साथ ही जरूरी है कचरे के निस्तारण की माकूल व्यवस्था। इसकी आज भारी कमी है। देश-दुनिया में ठोस कचरा निस्तारण के विशेषज्ञों की  भरमार है। जिन्हें इस समस्या के हल पर लगा देना चाहिए। इसके साथ ही प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड-चाहे वो केन्द्र के हों या राज्यों के, उन्हें सक्रिय करने की जरूरत है। आज वे भारी भ्रष्टाचार से ग्रस्त हैं, इसलिए अपने कर्तव्यों का निर्वाहन नहीं करते। नदियों का प्रदूषण उनकी ही लापरवाही के कारण ही हो रहा है। वरना मौजूदा कानूनों में इतना दम है कि कोई नदी, तालाब या धरती को इतनी बेदर्दी से प्रदूषित नहीं कर सकता।

इसलिए प्रधानमंत्री जी हर विभागाध्यक्ष को सफाई के लिए जिम्मेदार ठहरायें और सेवा निवृत्त कर्मचारियों और छात्रों को निगरानी के लिए सक्रिय करें। तभी यह अभियान सिरे चढ सकता है। जिसका लाभ हर भारतवासी को मिलेगा और फिर सुंदर आत्मा वाला ये देश, सुदर शरीर वाला भी बन जायेगा।

Monday, July 11, 2016

कौन विफल कर रहा है स्वच्छ भारत अभियान को?

पुरानी कहावत है कि जब खीर खा लो तो चावल अच्छे नहीं लगते| यूँ तो हमें अपने चारों तरफ गन्दगी का साम्राज्य देखने की आदत पड़ गयी है| इसलिए हमारा ध्यान भी उधर नहीं जाता | पर हर बार यूरोप या अमरीका से लौट कर जब कोई भारत आता है तो उसे सबसे पहले भारत के शहरों में गन्दगी देख कर झटका लगता है | पिछले हफ्ते अमरीका से लौटते ही मुझे काम से मुरादाबाद, लखनऊ और वाराणसी जाना पड़ा | तीनों शहरों में गन्दगी के अम्बार लगे पड़े हैं | जबकि पीतल की क्लाकृतियों के निर्यात के कारण मुरादाबाद एक धनीमानी शहर है | लखनऊ उत्तर प्रदेश की राजधानी है और वाराणसी प्रधान मंत्री का संसदीय क्षेत्र | पर तीनों ही शहरों में, सरकारी इलाकों को छोड़ कर बाकी सारे ही शहर एक ही बारिश में नारकीय स्थिति को पहुँच गये हैं | प्रधान मंत्री के स्वच्छता अभियान के पोस्टर तो आपको हर सरकारी इमारत में लगे मिल जायेंगे पर इस अभियान को सफल बनाने की ओर किसी का ध्यान नहीं है | न तो सरकारी मुलाज़िमों का और न ही हम और आप जैसे आम नागरिकों का|

हमारी दशा तो उस मछुआरिन जैसी हो गई है जो एक रात बाज़ार से घर लौटते समय तेज़ बारिश के कारण रास्ते में अपनी मालिन सहेली के घर रुक गई | पर फूलों की खुशबु के कारण उसे रात को नींद नहीं आ रही थी, सो उसने अपना मछली का टोकरा अपने मुह पर ओढ़ लिया | टोकरे की बदबू सूंघ कर उसे गहरी नींद आ गयी | हमें घर से निकलते ही कूड़े के अम्बार दिखाई देते हैं पर हम उसको अनदेखा कर के चले जाते हैं | जबकि अगर हम सब इस बात की चिंता करने लगें कि अपने घर के आसपास कूड़ा जमा नहीं होने देंगे | कूड़े को व्यकितगत या सामूहिक प्रयास से उसे उठवाने की कोशिश करेंगे, तो कोई वजह नहीं है कि धीरे-धीरे न सिर्फ हमारे पड़ोसी बल्कि नगर पालिका के कर्मचारी भी अपनी ड्यूटी ज़िम्मेदारी से करने लगेंगे | 

हममें से कितने लोग हैं जो कार, बस या रेल में सफर करते समय अपने खानपान का कूड़ा डालने के लिए अपने साथ एक कूड़े का थैला लेकर चलते हैं ? जबकि नागरिक चेतना वाले समाजों में यह आम रिवाज़ है कि लोग अपना कूड़ा अपने थैले में भरते हैं और गंतव्य आने पर उसे कूड़ेदान में डाल देते हैं| हमें तो यात्रा के समय अपने इर्द गिर्द हर किस्म का कूड़ा फ़ैलाने में कोई संकोच नहीं होता | ज़रा सोचिये जब आप ट्रेन या हवाई जहाज के टायलेट में जाएं और वो गन्दा पड़ा हो तो आपको कितनी तकलीफ होती है ? फिर भी हम लोग यह नहीं करते कि जिस कमरे में रहे या जिस वाहन में यात्रा करें उसे साफ़ छोड़ें | 

1982 की एक घटना याद आती है | अपनी शादी के बाद हम तमिलनाडु में ऊटी नाम के हिल स्टेशन पर गए | होटल के कमरे से जब निकलने लगे तो मेरी पत्नी मीता ने कमरे की सफाई शुरू कर दी | मुझे अचम्भा हुआ कि हम तो अब जा रहे हैं | ये काम तो होटल के स्टाफ का है, तुम क्यों कर रही हो ? उन्होंने अंग्रेजी में जवाब दिया, “लीव द रूम ऐज़ यू वुड लाईक टू हैव इट” यानी कमरे को ऐसा छोड़ो जैसा कि आप उसे पाना चाहते हो | तब से आज तक मेरी ये आदत है कि होटल का कमरा हो, सरकारी अतिथिग्रह का हो या किसी मेज़बान का, मैं उसे यथासंभव पूरी तरह साफ़ करके ही निकलता हूँ | 

स्वच्छता अभियान के प्रारम्भ में बहुत सारे लोगों, मशहूर हस्तियों, सरकारी अधिकारीयों, मंत्रियों और नेताओं ने झाड़ू उठा कर सफाई करने की रस्म अदायगी की थी | झाड़ू ले कर फोटो छपवाने की होड़ सी लग गयी थी | यह देख कर बड़ा अच्छा लगा था कि मोदी जी ने महात्मा गाँधी के बाद पहली बार सफाई जैसे काम को इतना सम्मान जनक बना दिया कि झाड़ू उठाना भी प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया| पर चार दिन की चांदनी फिर अँधेरी रात | इन महानुभावों की छोड़ हर रैली में मोदी-मोदी चिल्लाने वाले प्रधान मंत्री की भाजपा के कार्यकर्ता तक आपको कहीं भी स्वच्छ भारत अभियान चलते नहीं दिख रहे हैं | 

आपको याद होगा कि लाल बहादुर शास्त्री जी ने अन्न संकट के दौरान हर सोमवार की शाम न सिर्फ भोजन करना छोड़ा बल्कि प्रधान मंत्री निवास में हल बैल लेकर खेती करना भी शुरू कर दिया था| मुझे लगता है कि इस देश में हम सब को लगातार धक्के की आदत पड़ गई है| इसलिए प्रधान मंत्री को हफ्ते में एक निर्धारित दिन राजधानी के सबसे गंदे इलाके में, बिना किसी पूर्व घोषणा के, अचानक जाकर झाड़ू लगानी चाहिए | इसके दो लाभ होंगे, एक तो पूरे देश में हर हफ्ते एक सकारात्मक खबर बनेगी, जिसका काफी असर आम जनता पर पड़ेगा | दूसरा झाड़ू पार्टी के नौटंकीबाज़ मुख्य मंत्री केजरीवाल की उर्जा फ़ालतू ब्यानबाजी से हटकर सकारात्मक कार्यों में लगेगी | क्योंकि शायद मुकाबले में वो सातों दिन झाड़ू लेकर निकल पड़ें| अगर उस निर्धारित दिन मोदी जी भारत के किसी अन्य नगर में हों तो वे वहां भी अपना नियम जारी रखें | जिससे हर जगह हड़कंप रहेगा | 

जिन लोगों ने स्वच्छता अभियान के प्रारम्भ में मोदी जी की यह कह कर आलोचना की थी कि प्रधान मंत्री के पास इतने बड़े काम हैं, ये झाड़ू लगाने की फुर्सत कहाँ से मिल गयी | उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि सफाई कि वृत्ति केवल अपने चारों ओर के कूड़ा उठाने तक सीमित नहीं रहेगी | इससे हमारे दिमागों और विचारों की भी सफाई होगी | जिसकी आज हमें बहुत ज़रुरत है |