Friday, May 31, 2002

यूं खत्म नहीं होगा कश्मीर का आतंकवाद


एक गांव में एक ग्वाला रोज पहाड़ी पर गाय चराने ले जाता था। एक दिन उसे मजाक सूझा। उसने शोर मचा दिया बचाओ-बचाओ शेर आ गया।उसका शोर सुनकर गांव वाले लाठी-भाले लेकर पहाड़ी की तरफ दौड़ पड़े। जब उन्हें वहां कोई शेर नहीं मिला तो उन्होंने ग्वाले को तलब किया। ग्वाला हंस कर बोला मैं तो यूं ही मजाक कर रहा था। ऐस्ी हरकत उस ग्वाले ने एक दो बार फिर की। हर बार गांव वालों को यही जवाब मिला कि ये एक मजाक था। एक दिन वाकई शेर ने ग्वाले की गायों पर हमला बोल दिया। वो मदद के लिए जोर-जोर से चिल्लाने लगा, पर गांव वालों ने सोचा कि यह भी मजाक ही होगा। कोई मदद को नहीं आया। शेर उसकी गाय उठा कर ले गया।
हमारे देश के प्रधानमंत्री भी पिछले कुछ महीनों से उसी ग्वाले की तरह व्यवहार कर रहे हैं। हम निर्णायक लड़ाई लड़ेंगे।’ ‘आर पार की लड़ाई होगी।‘ ‘पाकिस्तान हमारे धैर्य की परीक्षा न लें।हमारा धैर्य अब खत्म होता जा रहा है।ऐसे तमाम जुमलों से प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी लोगों का समर्थन खोते जा रहे हैं। बार-बार लड़ाई की घोषाणा करना। बार-बार उत्तेजना फैलाना। बार-बार लोगों को उत्साहित करना। बार-बार फौजों को सतर्क करना और फिर दुम समेट कर बैठ जाना, कहां की अक्लमंदी है ? सेना और जनता दोनों की ही भावना यह है कि या तो आर पार की लड़ाई लड़ ली जाए। जो होगा वो देखा जाएगा। अगर नहीं लड़ना है तो ये झूठमूठ का उन्माद क्यों ? इस तरह की गैर जिम्मेदाराना बयानबाजी से भाजपा के विरोधियों को यह कहने का मौका मिल रहा है कि दरअसल वाजपेयी सरकार युद्ध करने की स्थिति में नहीं हैं, केवल गीदड़ भभकी दे रही है। इंकाई याद दिलाते हैं कि किस तरह उनकी दबंग नेता श्रीमती इंदिरा गांधी ने आनन-फानन में पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश बनवा दिया और सिक्किम को भारत में मिला लिया। किसी के दबाव और आलोचना की कोई परवाह नहीं की। अगर वाजपेयी जी यह समझते हैं कि युद्ध लड़ना जरूरी नहीं केवल दबाव बनाए रखना जरूरी है तो यह शायद ठीक नीति नहीं। इससे कुछ भी हासल नहीं हो रहा न तो आकंतकवाद कम हो रहा है और न पाकिस्तान काबू में आ रहा है। सोचने वाली बात यह है कि क्या वाकई भारत को पाकिस्तान के साथ युद्ध करना चाहिए ? यह युद्ध दस-बीस दिन से ज्यादा नहीं चलेगा। क्या इतने दिनों में इस युद्ध से निर्णायक फैसले हो सकेंगे ? क्या इस युद्ध से कश्मीर समस्या का हल निकल आएगा  और क्या इस युद्ध से कश्मीर की घाटी में शांति स्थापित होगी ? इन प्रश्नों के उत्तर यूं ही नहीं दिए जा सकते। पर एक बात साफ है कि भारत पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति में कोई दखल नहीं देना चाहता। भारत की रूचि तो पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद को समाप्त करने में है। इस दिशा में अगर भारत सरकार कोई भी कड़ा कदम उठाती है तो उसी सभी दलों का पूरा समर्थन मिलेगा। ऐसा स्वयं विपक्ष की नेता श्रीमती सोनिया गांधी संसद में कह चुकी हैं। 11 सितंबर 2001 के बाद से आतंकवाद के विरूद्ध अंतर्राष्ट्रीय माहौल बना है। हर प्रमुख देश आतंकवाद के दानव से मुक्ति पाना चाहता है। ऐसे माहौल में भी अगर भारत आतंकवाद के खिलाफ कड़ी कार्रवाही नहीं कर रहा तो उसके लिए बार-बार पाकिस्तान को दोषी ठहराने से क्या लाभ? माना कि देश में सक्रिय आतंकवादियों को समर्थन पाकिस्तान से मिल रहा है। पर ये आतंकवादी सक्रिय तो हमारी ही भूमि पर हैं। अपने घर की रक्षा तो हम मुस्तैदी से करें नहीं और पड़ौसी पर आरोप लगाते रहें, इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं।
कश्मीर की मौजूदा आबादी को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। एक तो वे लोग जिनमें मुसलमान, बौद्ध और हिंदू शामिल हैं जो हर कीमत पर घाटी में शांति, विकास और व्यापार चाहते है। क्योंकि उन्हें पता है कि चाहे ज्यादा स्वायत्तता की बात हो या पूरी आजादी की, कश्मीर के लोगों को कुछ नया मिलने वाला नहीं है। असलियत तो यह है कि जो फायदे उन्हें आज मिल रहे हैं उनसे ज्यादा किसी भी हालत में उन्हें मिलने वाले नहीं है। अगर वे पाकिस्तान के साथ जाना भी चाहे तो उनकी हैसियत मुजाहिरों से ज्यादा बेहतर नहीं होगी। इसलिए उन्हें इस आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी तरफ वो भाड़े के टट्टू हैं जो पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ऐसे ही दूसरे जेहादी मुल्कों से आतंकवाद का प्रशिक्षण लेकर कश्मीर और शेष भारत में घुस आए हैं। इनसे निपटना मुश्किल हो सकता है पर असंभव नहीं। तकलीफ इस बात कीे है कि कश्मीर को लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय की जो नीति चल रही है उसके कारण घाटी में आतंकवादी खत्म नहीं हो पा रहा। कश्मीर मामलों को लेकर प्रधानमंत्री की सलाहकार टीम सही काम नहीं कर रही। आज वहां गद्दारों को प्रोत्साहन मिल रहा है जबकि देशभक्त सैनिक और पुलिस वाले नाहक शहीद हो रहें हैं। एक उदाहरण से बात साफ होगी। पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर पुलिस में से दो हजार पुलिसकर्मियों को इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि ये लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवादियों की मदद कर रहे थे। इसका असर यह हुआ कि जम्मू-कश्मीर पुलिस के लोगों को संदेश गया कि उन्हें आतंकवादियों से डट कर निबटना है। वे आज फौज के साथ कंधे-से-कधा मिला कर आतंकवादियों के खिलाफ लड़ रहे हैं। यह एक ठीक कदम था। पर दूसरी तरफ जम्मू-कश्मीर प्रशासन में चार हजार लोग ऐसे हैं जो या तो चोरी से पाकिस्तान जाकर आतंकवाद को समर्थन देने का प्रशिक्षण लेकर आए हैं या फिर आतंकवादियों को प्राश्रय देते हैं। इतना ही नहीं जम्मू-कश्मीर सरकार के प्रशासन में संवेदनशील विभागों में ये इस तरह जमे हुए है कि सारी गोपनीय सूचनाएं आतंकवादियों को पहुंचाते रहते हैं। इन्हें नौकरी से बहुत पहले ही बर्खास्त कर देना चाहिए था। पर ऐसा नहीं किया गया। इतना ही नहीं यह भी पता चला है कि जम्मू-कश्मीर के मौजूदा मुख्यमंत्री श्री फारूख अबदुल्ला अपनी कुर्सी पर टिकते ही नहीं हैं। साल में आधे से ज्यादा दिन वे देश या विदेश के दौरे पर रहते हैं। प्रशासन पर उनकी पकड़ बिलकुल नहीं है। इन हालातों में जम्मू-कश्मीर की सरकार को खुद ही इस्तीफा देकर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करनी चाहिए।
जम्मू-कश्मीर राज्य को आतंकवाद से जूझने के लिए एक सक्षम, अनुभवी और फौलादी इरादे वाले उप-राज्यपाल की जरूरत हैं, जो कड़े निर्णय ले सके और जम्मू-कश्मीर की बहुसंख्यक शांतिप्रिय जनता के हितों का संरक्षण करते हुए आतंकवादियों को सबक सिखा सके। अबोध औरतों और बच्चों को रसोई घरों में घुस कर मारने वाले आतंकवादियों को कोई भी रियायत देने का प्रश्न ही नहीं उठता।  पिछले दिनो मैंने खुद गुजरात जाकर श्री केपीएस गिल के काम करने के तरीके और उसके वहां की जनता पर पड़े प्रभाव का अध्ययन किया। बहुत कम दिनों में श्री गिल ने सिर्फ गुजरात में शांति की स्थापना कर दी बल्कि अल्पसंख्यकों का भी विश्वास जीत लिया है। उनका मानना है कि कश्मीर के आतंकावाद को कानून और व्यवस्था की समस्या मान कर हल करने की जरूरत है। इसमें किसी किस्म की राजनैतिक दखलंदाजी नहीं होनी चाहिए। जहां तक कश्मीर के भविष्य का प्रश्न है उस पर कोई भी चर्चा तभी संभव है जब कश्मीर के नागरिकों को आतंकवाद के साए और खौफ से मुक्त कर दिया जाए। आतंकवादियों के संगीनों के साए में रहने वाले कश्मीर के मेहनतकश और हुनरमंद लोग न तो खुले दिमाग से सोच ही सकते हैं और ना ही सही फैसला कर सकते हैं।
उपराज्यपाल बना कर श्री गिल भेजे जाए या श्री जगमोहन बात एक ही है। हां यह जरूर है कि अब श्री जगमोहन पर भाजपा का ठप्पा लग चुका है इसलिए शायद उनकी तैनाती स्थानीय लोगों को स्वीकार्य न हो। जबकि ऐसी स्थिति में जिस किस्म की निष्पक्षता की आवश्यकता होती है उसकी श्री गिल के पास कोई कमी नहीं है। वे न तो हिंदू हैं और न मुसलमान। एक सिक्ख होते हुए भी सिक्खों के आतंकवाद से जूझ कर उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि अपने काम के आगे दूसरी बातों पर ध्यान नहीं देते। खैर जो भी फैसला हो यह ध्यान में रखना जरूरी है कि घाटी में आतंकवादियों के बढ़ते हौसलों के लिए जम्मू-कश्मीर का ढीला प्रशासन ही जिम्मेदार है। जिसे चुस्त-दुरूस्त बनाए बगैर आतंकवाद पर काबू नहीं पाया जा सकता। समय की मांग है कि इस मामले में अब और देरी न की जाए। कहीं ऐसा न हो कि अरबों रूपया कश्मीर पर खर्च कर चुकने के बाद भारत को कश्मीर में कुछ भी हासिल न हो। इसलिए आतंकवाद की समस्या से कश्मीर घाटी में प्रभावशाली तरीके से खुद ही निपटना है। जिसके लिए साम, दाम, दंड और भेद चारों तरीके अपनाने होंगे वरना पानी सिर के उपर से गुजर जाएगा। 

Friday, May 24, 2002

ऐसी धर्म निरपेक्षता किस काम की ?

कालूचक्क (जम्मू) में जो वीभत्स हत्या कांड हुआ उसे तो विदेशी साजिश कह कर पल्ला झाड़ लिया जाए और गुजरात में जो हो उसे सांप्रदायिकता कह कर तूफान मचाया जाए, यह बात गले नहीं उतरती। पिछले दिनों गुजरात की घटनाओं को लेकर देश की राजधानी में धर्म निरपेक्षतावादियों की कई बैठकें हुईं। इसी तरह एक सेमिनार में इंडिया इंटर नेशलन सेंटर में दिल्ली भर के तमाम नामी-गिरामी धर्म निरपेक्षतावादी जमा हुए। गुजरात में अल्प संख्यकों पर हुए सांप्रदायिक हमलों पर काफी चिंता जताई गई। सबकी राय थी कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे जख़्म जल्दी भरे। सांप्रदायिकता से निपटने की लंबी रणनीति बनाने कीे बात भी कही गई। नरेंद्र मोदी सरकार की भर्तसना करते हुए एक प्रस्ताव पर सबने हस्ताक्षर किए। इस बैठक में भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति अहमदी का कहना था कि सांप्रदायिकता दूर करने के लिए गुजरात के अल्प संख्यकों की माली हानि की भरपाई सरकार करे। इस सेमिनार में चूंकि मैं भी मौजूद था और इस बात से सहमत था कि सांप्रदायिकता से लड़ा जाना चाहिए इसलिए प्रस्ताव पर मैंनें भी दस्तखत किए लेकिन एक शर्त के साथ। वह शर्त मैंने अपने हस्ताक्षर के साथ ही दर्ज कर दी। अंग्रेजी में लिखी इस टिप्पणी का आशय यह था कि, ‘अगर देश में सांप्रदायिकता के जख्मों केा भरना है तो शुरूआत गुजरात से नहीं जम्मू-कश्मीर से होनी चाहिए।’ हर वो धर्म निरपेक्षवादी जो सांप्रदायिकता से लड़ना चाहता है उसे जम्मू-कश्मीर के हिंदुओं पर ढाए गए जुल्मों के विरूद्ध जोरदार आवाज उठानी चाहिए। उसे यह ठान लेना चाहिए कि जब तक कश्मीर की घाटी से मजबूर करके निकाल फेंके गए हिंदुओं को फिर से उनके पुश्तैनी घरों में बसा नहीं दिया जाता तब तक धर्म निरपेक्षता का राग अलापने का कोई मतलब नहीं है। मेरी इस टिप्पणी पर एक आधुनिक नवयुवती, जो इत्तफाकन मुस्लिम समुदाय से थीं, काफी उखड़ गईं। उनका तर्क था कि मैं दो असमान स्थितिओं की तुलना कर रहा हूं। उनके हिसाब से जम्मू-कश्मीर में हिंदुओं के विरूद्ध जो कुछ हो रहा है वह विदेशी शक्तियों की साजिश का परिणाम है। जबकि गुजरात में जो हुआ वो सरकारी आतंकवाद था। ऐसी दलील अक्सर धर्म निरपेक्षतावादी देते हैं।

सांप्रदायिक तो हम भी नहीं हैं। हकीकत यह है कि हिंदुस्तान की बहुसंख्यक गैर इस्लामी आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा सांप्रदायिक नहीं है। पर सोचने वाली बात यह है कि कालूचक्क (जम्मू) व शेष कश्मीर में हिंदुओं के विरूद्ध वर्षों से हो रही आतंकवादी घटनाओं को क्या केवल विदेशी साजिश कह कर अनदेखा किया जा सकता है ? क्या यह सही नहीं है कि कश्मीर की स्थानीय मुस्लिम आबादी के एक महत्वपूर्ण हिस्से के गुपचुप समर्थन के बिना आतंकवादियों का कामयाब होना नामुमकिन था। बेगाने मुल्क में, पहाड़ों और घने जंगलों में और बर्फीली ठंढ में पाकिस्तानी घुसपैठिए कितने दिन जिंदा रह पाते ? खाना, पानी और सर छिपाने को जगह मिले बिना यह असंभव था। उनकी इस जरूरत को कौन पूरा कर रहा है ? क्या यह सच नहीं है कि कश्मीर के मदरसों में हिंदुओं और हिंदुस्तान के खिलाफ लगातार जहर उगला गया है ? क्या स्थानीय मुस्लिम आबादी ने अपने बच्चे इन मदरसों में भेजने में कोई हिचक दिखाई ? क्या ये सवाल उनके मन में उठा कि ऐसे मदरसों में जाकर उनका बच्चा सांप्रदायिक हो जाएगा ? कतई नहीं। हकीकत तो यह है कि इन मदरसों के फलने-फूलने में स्थानीय मुस्लिम आबादी का पूरा सहयोग रहा। यानी कश्मीर की घाटी में सांप्रदायिक फैलाने के लिए स्थानीय मुस्लिम आबादी कम जिम्मेदार नहीं है। जो आबादी सांप्रदायिकता भरी शिक्षा को बढ़ावा देगी वो क्या जेहादी जुनून वाले आतंकवादियों को मदद और संरक्षण नहीं देगी ? यह जानते हुए भी कि ये खुदाई खिदमतगार उसी मजहब की बढत के लिए काम कर रहे हैं जिस मजहब की तालीम लेने उनके बच्चे मदरसों में जाते हैं। कश्मीर में वर्षों से हो रही सांप्रदायिक हिंसा को अगर कोई महज विदेशी साजिश कह कर हल्का करना चाहे तो या तो वह मंद बुद्धि है जो इस गहरी चाल को नहीं समझता या फिर इतना कुशाग्र कि उसे पता है कि सच्चाई को कैसे तोड़ा-मरोड़ा जाता है।

इसलिए जो भी खुद को धर्म निरपेक्षता का ठेकेदार सिद्ध करना चाहता है उसे इस बात का जवाब देना होगा कि कश्मीर की हिंसा सांप्रदायिक क्यों नहीं है ? यह भी जवाब देना चाहिए कि धर्म निरपेक्षता के देश में समान नागरिक संहिता क्यों नहीं लागू की जा सकती ? अगर भारत के मुसलमान भारतीय संविधान के तहत प्रदत्त सभी नागरिक अधिकारों का बराबरी के साथ इस्तेमाल करना चाहते हैं तो फिर मुस्लिम पर्सनल लाॅ की क्या सार्थकता ? अगर भारत के धर्म निरपेक्षतावादी देश में वाकई अमन-चैन चाहते हैं तो उन्हें सामान नागरिक कानून की जरूरत पर शोर मचाना चाहिए। यदि ऐसा हो पाता है तो सांप्रदायिक खुद-ब-खुद कम होती चली जाएगी। हमने पहले भी कहा है और फिर इसे दोहराने की जरूरत महसूस करते हैं कि हिंदुओं की भावनाओं की उपेक्षा करके और मुसलमानों को वोटों के लालच में सिर पर चढ़ा कर कोई भी देश में अमन-चैन कायम नहीं कर सकता। तकलीफ यह देख कर होती है कि आत्मघोषित धर्म निरपेक्षवादियों को क्रोध भी तभी आता है जब मुस्लिम संप्रदाय के लोग पिट रहे होते हैं। दूसरी तरफ जब हिंदू पिटते और मार खाते हैं तो धर्म निरपेक्षतावादियों के मुंह में दही जम जाता है। उनकी इस दोहरी नीति के चलते ही देश में सांप्रदायिक बढ़ी है। हिंदुओं को लगाता है कि उनके साथ व्यवहार ठीक नहीं हो रहा है। पिछले दिनों टीवी पर एक टाॅक शो के दौरान मुस्लिम नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने जब सैय्यद शाहबुद्दीन की तरफ इशारा करके कहा कि हिंदू धर्मांधता की बढत के लिए ऐसे लोग जिम्मेदार हैं तो शाहबुद्दीन साहब बौखला गए। काफी तू-तू मैं-मैं हुई पर नकवी साहब की इस बात में काफी दम है कि हिंदू धर्मांध संगठनों की पिछले एक दशक में हुई तीव्र वृद्धि का कारण मुस्लिम धर्मांधता का खुला प्रदर्शन भी है। जब हिंदुओं को लगा कि अपने ही मुल्क में उन्हें परायों की तरह रहना पड़ रहा है तो उन्होंने संगठित होकर लड़ने की ठानी।

ऐसा लगता है कि धर्म निरपेक्ष दिखने के लालच में हमारे समाज के बहुत से महत्वपूर्ण लोग हिंदू धर्म पर जरूरत से ज्यादा हमला करते हैं। ये हमला करते वक्त इतने वाचाल हो जाते हैं कि सही और गलत का भेद भी भूल जाते हैं। आज पूरी दुनिया में योग, ध्यान, आयुर्वेद आदि जैसे तमाम ज्ञान के भंडारों को पाने की होड़ लगी है। पर भारत के धर्म निरपेक्षतावादियों ने कभी भी वैदिक ज्ञान के इस अमूल्य भंडार के संवर्धन और वितरण मेंु रूचि नहीं ली। अगर ली होती तो वे सच्चाई से इतना दूर नहीं होते। वातानुकूलित जीवन जीने वाले भला एक आम आदमी के दिल की बात कैसे जान सकते हैं ? जिन बातों को वे दकियानुसी या पोंगापंथी कह कर हंसी में उड़ा देते हैं उन्हीं बातों को अपना कर आज विकसित देश अपनी समस्याओं के हल ढूंढने में लगे हैं।

ये कितने आश्चर्य की बात है कि इस देश की धरती में उपजे धर्म, संप्रदायों और दर्शन को छोड़ कर वो आयातित धर्मा और संस्कृतियों की तरफ भाग रहे हैं। जो न तो हमारी भावनाओं से जुड़ी है और ना ही हमें वांछित सुख दे पाती है, फिर भी वे वैदिक धर्म के विरूद्ध अपना अनर्गल प्रलाप बंद नहीं करते। उनके इन कारनामों से ही हिंदू धर्मावलंवियों के मन में इन आत्मघोषित धर्म निरपेक्षतावादियों के प्रति आक्रोश बढ़ता जाता है। वैदिक संस्कृति को समझे और अपनाए बिना भारत की जनता का उद्धार नहीं हो सकता। वेद किसी एक समुदाय की नहीं पूरे मानव समाज की भलाई की बात करते हैं। इतनी सी बात अगर धर्म निरपेक्षतावादी समझ लें तो उनकी दृष्टि भी हंस जैसी हो जाएगी जो ज्ञान के इस भंडार में से मोती तो चुग लेगी और दाना-तिनका छोड़ देगी। तब वे हिंदुओं का भी विश्वास जीत पाएंगे। तभी उनकी आवाज में वह नैतिक बल होगी जिसके आधार पर वे समाज को सही दिशा दे पाएंगे। तभी उनकी वाणी में असर होगा। वरना वे पहले की तरह धर्म निरपेक्षता का राग अलापते रह जाएंगे और सांप्रदायिकता की अग्नि पूरे देश को अपनी चपेट में ले लेगी। ऐसी धर्म निरपेक्षता किस काम की ?

Friday, May 17, 2002

क्या श्री गिल गुजरात में सफल होंगे ?


फौलादी इरादे और मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रशासन में पूरी निपक्षता किसी भी बिगड़ी स्थिति को संभालने में कामयाब हो सकती है। सुपर काॅप श्री केपीएस गिल इसी भावना से अपनी नई जिम्मेदारी को अंजाम दे रहे हैं। आज गुजरात को इसकी ही जरूरत है। यूं आग अभी शांत नहीं हुई पर जो हो रहा है उसे सांप्रदायिक दंगा कहना भी गलत होगा। जो हो रहा है वो हिंसा की छुटपुट वारदातें हैं। मुट्ठी भर लोग ही इस किस्म की छुटपुट घटनाओं में जुटे हैं। पर अब ऐसा बहुत दिन तक नहीं हो पाएगा। आज गुजरात में सबसे बड़ी समस्या यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय का भरोसा प्रशासन में नहीं है। सबसे पहले इसी भरोसे को दुबारा कायम करना होगा। अपनी नई जिम्मेदारी संभालते ही श्री गिल ने पुलिस प्रशासन में फेरबदल कर इसका संकेत दिया है। इतना ही नहीं उन्होंने पुलिस को हिदायत दी है कि दंगों में जिन परिवारों के जानमाल की हानि हुई है उनकी शिकायत फौरन दर्ज की जाए। ठीक से जांच की जाए। गुजरात जा कर मौके पर हालात का मुआइना करने वाले बहुत सारे स्वयं सेवी संगठनों ने यह शिकायत की थी कि अल्पसंख्यक समुदाय के दंगा पीडि़त लोगों के साथ प्रशासन न्याय नहीं कर रहा है। श्री गिल के इस कदम से अब वह शिकायत दूर हो जाएगी। गुजरात के स्वयं सेवी संगठनों का भी फर्ज है कि वे एक बार फिर नए विश्वास के साथ सामने आएं और इन शिकायतों को दर्ज करवाने में दंगा पीडि़तों की मदद करें। एक सावधानी उन्हें बरतनी होगी और वह कि स्थिति का सही जायजा लेकर ही उसकी शिकायत की जाए। निहित स्वार्थसत्ता के दलाल और धूर्त लोग इसका नाजायज फायदा उठाकर इन शिकायतों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश न करें।
एक महत्वपूर्ण कदम जो श्री गिल ने उठाया है, वह है दुर्घटनाओं की रोकथाम के लिए पूरी सतर्कता बरतना। बजाए इसके कि किसी इलाके में आगजनी, चाकूबाजी या लूटपाट की घटना होने के बाद पुलिस वहां भाग कर पहुंचे, बेहतर होगा कि ऐसी दुर्घटनाओं की संभावनाओं को समय रहते कुचल दिया जाए। इसके लिए स्थानीय लोगों की मदद, प्रभावशाली खुफिया नेटवर्क और व्यवहारिक कदम समय रहते उठाने होंगे ताकि दुर्घटना को टाला जा सके। पंजाब में आतंकवाद की चरम स्थिति में अपनी बुद्धि और कौशल से हालात को नियंत्रित करने वाले श्री केपीएस गिल इस क्षेत्र में काफी अनुभवी हैं इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि वे अपने इस प्रयास में सफल होंगे। श्री गिल का मानना है कि दुर्घटनाओं के घट जाने के बाद उनके पीछे भागने से हालात नहीं सुधरा करते बल्कि ऐसी संभावनाओं को समय रहते पहचान कर उसका माकूल इलाज करके ही वाछित परिणाम प्राप्त किया जा सकता है।
इस पूरे अभियान में गुजरात के मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। जो हुआ सो हुआ, अब भलाई इसी में है कि ऐसे हालात पैदा किए जा सकें जिनसे समाज में पहले जैसा अमन-चैन पैदा हो सके। तनाव की स्थिति में बहुत दिनों तक नहीं रहा जा सकता। इससे सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव तो लोगों के कारोबार पर पड़ता है। पीतल की कलाकृतियों के, निर्यात के लिए मशहूर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नगर मुरादाबाद में अक्सर सांप्रदायिक दंगे हुआ करते थे। क्योंकि वहां हिंदू और मुसलमानों की संख्या लगभग बराबर है। 1980 में वहां महीनों दंगे चले। नतीजा यह हुआ कि सैकड़ों करोड़ रूपए सालाना का निर्यात तेजी से गिर गया। हालत इतनी बुरी हो गई कि पीतल उद्योग के मजदूरों और कारीगरों ने आत्महत्याएं करनी शुरू कर दी। इस दंगे की आर्थिक मार से मुरादाबाद को उबरने में वर्षों लग गए। यही कारण है कि दस वर्ष बाद जब अयोध्या से जुड़ा मंदिर विवाद उछला तो मुरादाबाद के नागरिकों ने अपने शहर में सांप्रदायिक दंगे नहीं होने दिए। हाल ही में गुजरात में दंगों से जो आर्थिक हानि हुई है उससे उबरने में गुजरात को भी काफी समय लगेगा। यह दुर्भाग्य ही है कि गुजरात की समझदार और देशप्रेमी जनता अभी भूचाल की मार से उबर भी न पाई थी कि येे नई  त्रासदी झेलनी पड़ गई। वैसे भी गुजराती लोग मूलतः व्यवसायिक बुद्धि वाले होते हैं। दुनिया के हर कोने में गुजराती मूल के सफल व्यापारी और उद्योगपति मिल जाएंगे। ऐसी मानसिकता वाले लोग अशांति नहीं शांति चाहते हैं। क्योंकि शांति काल में ही व्यवसाय फलता-फूलता है। अगर गुजरात के हिंदू और मुस्लिम व्यापारी पहल करें और पूरे समाज में अमन-चैन की आवश्यकता पर जोर दें तो गुजरात में शांति की बहाली जल्दी ही हो जाएगी। श्री केपीएस गिल को पूर्ण आत्म-विश्वास है कि वे इस काम को अगले दो-तीन हफ्तों में पूरा कर देंगे।
उधर गुजरात पुलिस को भी अपने रवैए में बदलाव करना होगा। जाने अनजाने में अगर उसके व्यवहार से अल्पसंख्यकों में यह संकेत गया है कि पुलिस प्रशासन निष्पक्ष नहीं रहा तो यह गुजरात पुलिस के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। सरकारें आती जाती रहती हैं। जो आज सत्तारूढ़ दल में हैं वे कल विपक्ष में थे। प्रशासनिक अधिकारियों को अपने हुक्मरानों के वहीं आदेश मानने चाहिए जो न्याय संगत हो और तर्क संगत हो। पिछले कुछ वर्षों से एक दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति विकसित हो रही है। प्रांतों के प्रशासन का राजनीतिकरण होता जा रहा है। जनता के कर के पैसे से अपना वेतन, सुख-सुविधाएं और सत्ता भोगने वाले अधिकारी जानबूझ कर सत्तारूढ़ दलों के प्रति आवश्यकता से अधिक झुकते जा रहे हैं। इसके पीछे न तो कोई दबाव है और ना ही उनके सामने अपनी नौकरी बचाने का सवाल। ऐसा होता तो वे तमाम अधिकारी कब के सरकारी नौकरी छोड़ चुके होते जो ईमानदारी, निष्पक्षता और पूर्णपारदर्शिता के साथ काम करते हैं। पर हकीकत यह है कि ऐसे तमाम लोग आज भी व्यवस्था में हैं और तमाम सीमाओं के बावजूद वह सब कर रहे हैं जो उस पद पर रहते हुए उन्हें करना चाहिए। दरअसल सत्तारूढ़ दल के प्रति आवश्यकता से अधिक झुकाव का कारण व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा पूरी करने की अधीरता होता है। समय से पहले या अपनी योग्यता से अधिक महत्वपूर्ण पद पाने के लालच में प्रायः प्रशासनिक अधिकारी ऐसे अनैतिक काम कर जाते हैं। श्री केपीएस गिल तो कुछ समय के लिए गुजरात में भेज गए हैं। पर गुजरात काॅडर में तैनात पुलिस अधिकारियों को तो शेष जीवन गुजरात में ही बिताना है। अगर आज उन पर पक्षपातपूर्ण रवैए का धब्बा लग गया तो उनके कार्यकाल का शेष हिस्सा अच्छा नहीं गुजरेगा। उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिंह लग जाएंगे। तब वे न तो अपनी शक्ति का ही उपयोग कर पाएंगे और ना ही सत्ता सुख भोग पाएंगे। सम्मान के हकदार होंगे।
गुजरात के हालात पर शोर मचाने वाले लोगों को भी अपने रवैए में बदलाव लाना पड़ेगा। शोर अगर सिर्फ राजनैतिक मकसद से वोट भुनाने की भावना से मचाया जा रहा है तो ऐसे शोर से कुछ भी नहीं बदलेगा। किंतु शोर यदि सुधार की मानसिकता से मचाया जा रहा है तो उसका वांछित प्रभाव अवश्य ही पड़ेगा। दुख की बात यह है कि प्रायः शोर मचाने वाले अपने राजनैतिक आकाओं के इशारे पर ही शोर मचाते हैं। इसमें कोई दल अपवाद नहीं है। पर ऐसे शोर से गुजरात की जनता को फायदा कम नुकसान ज्यादा होगा। हां, यदि प्रशासनिक ईकाइयां अपना कर्तव्य निष्पक्षता से नहीं निभा रही तब उन्हें बक्शने की कोई जरूरत नहीं। ऐसा नहीं है कि गुजरात कीे पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था में ऐसे लोग नहीं हैं जिन्होंने वहां भड़के दंगों के दौरान अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया और जो सही लगा वही करा। पंजाब के भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक श्री केपीएस गिल की नियुक्ति से ऐसे सभी जिम्मेदार अधिकारियों में आशा की किरण जागी है। क्योंकि उन्हें श्री गिल की निष्पक्षता और कार्यक्षमता पर विश्वास है। वे जानते हैं कि श्री गिल को गुजरात इसलिए नहीं भेजा गया कि गुजरात पुलिस निकम्मी है। बल्कि इसलिए भेजा गया कि उसे इस कठिन परिस्थिति में एक कुशल और अनुभवी पुलिस अधिकारी के अनुभवों का लाभ मिल सके। अगर गुजरात पुलिस श्री गिल के अनुसार चलती है और गुजरात में शांति बहाल हो जाती है तो गुजरात पुलिस को इसका श्रेय पूरी दुनिया में मिलेगा। क्योंकि आज सारी दुनिया की नजर गुजरात पर है। गुजरात में आज यह चर्चा भी चल रही है कि यह कदम इतनी देरी से क्यों उठाया गया? अगर श्री गिल को भेजना ही था तो इतनी देर क्यों लगाई ? गुजरात में हालात जैसे ही बेकाबू हुए थे श्री गिल कोे वहां भेजा जा सकता था। खैर, देर से ही हो पर यह एक सही कदम है। यदि श्री गिल गुजरात में शांति बहाली में कामयाब हो जाते हैं, जिसका उन्हें पूर्ण विश्वास है, तो यह सभी के लिए बहुत संतोष की बात होगी। ये समय श्री गिल को हर संभव सहायता मुहैया करवाने का है ताकि वे अपने मिशन गुजरातसे कामयाब हो कर लौटें।

Friday, May 10, 2002

ग्रामीण नौजवानों के लिए एक नया प्रयोग

कृषि और देहाती जीवन पर भारत की निर्भरता बहुत ज्यादा है और आने वाले दस-बीस वर्षों में भी यह घटने वाली नहीं है। उधर उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर के बावजूद ग्रामीण बेरोजगारी घटना तो दूर बढ़ रही है। पर तमाम वायदों और दावों के बावजूद कोई भी सरकार इस गंभीर समस्या का हल नहीं ढूंढ पा रही है। कुलीन वर्ग का सत्ताधीशों पर इतना ज्यादा दबाव रहता है कि सरकार की सभी नीतियां इसी वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर बनाई जाती है। जिससे देश के देहाती क्षेत्रों में हताशा बढ़ती जा रही है। लालू यादव जैसे राजनेताओं ने देश के बहुसंख्यक देहाती समाज की इस दुखती रग को पहचान लिया है। इसलिए अपना हुलिया ऐसा बना रखा है मानों देश के दुखियारे गरीबों और किसान-मजदूरों के हितों की सबसे ज्यादा चिंता उन्हें ही है। पर बिहार में भी देहात की बेराजगारी को दूर करने का कोई भी ठोस काम लालू यादव दंपत्ति कार्यकाल में नहीं हुआ है। कुल मिला कर देहात के लोगों के दुखों को दूर करने का गंभीर प्रयास कहीं हो ही नहीं रहा। देहाती की अर्थ व्यवस्था, जमीन, जंगल, पशु, पानी और मानव श्रम से जुड़ी है। इनके ही इस्तेमाल के प्रबंध को सुधार कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में वांछित बदलाव लाया जा सकता है। गरीबी दूर की जा सकती है। रोजगार बढ़ाया जा सकता है। यही बापू कहा करते थे। पर उनकी सुनी नहीं गई। यही तमाम समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता कहते आएं हैं। पर कोई परवाह नहीं करता। लोकतांत्रिक व्यवस्था आम आदमी के वोटों पर टिकी होतीे है। कुलीन वर्ग तो वोट देने ही नहीं जाता। अपने ड्राइंगरूम में देश की हालात की चर्चा करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। फिर भी उसकी ही चलती है। विडंबना देखिए कि जिनके वोटों से प्रांतों और देश की सरकार चलती है उनकी किसी को चिंता नहीं। शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की बात कब से की जा रही है। पर कुछ भी नहीं बदला।
शहरी शिक्षा प्राप्त करके गांवों की हालत सुधार पाना बहुत मुश्किल होता है। शहर का पढ़ा नौजवान गांवों के काम का नहीं रहता। कुलीन पृष्ठभूमि न होने के कारण कायदे का काम उसे शहर में भी नहीं मिलता। चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न कर लें। इस तरह देहात के नौजवान दोनों तरफ से मारे जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि गांवों की अर्थव्यवस्था में लगे प्राकृतिक संसाधनों और मानवीय श्रम और कौशल का विवेकपूर्ण समन्वय करके ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनाई जाए जो देहात के करोड़ों नौजवानों को देहात के प्रति संवेदनशील बनाए। उनमें अपने परिवेश के प्रति गहरी समझ विकसित करे और उनके चारों तरफ उपलब्ध संसाधनों का सही इस्तेमाल करने की क्षमता विकसित करे ताकि बेरोजगारी के कारण उनकी ऊर्जा का जो अपव्यय हो रहा है वह न हो और वह सकारात्मक काम में लग सके। देश में अनेक गांधीवादी लोगों ने ऐसे प्रयास अतीत में किए हैं। कुछ ने अनौपचारिक शिक्षा के माध्यम से, तो कुछ ने शिक्षा के नए माॅडल विकसित करके। पर उनका व्यापक प्रभाव कहीं दिखाई नहीं पड़ा।

देश के ग्रामीण नौजवानों की बेकारी दूर करने की इच्छा से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक ग्रामीण महाविद्यालय ने ऐसे गैर पारंपरिक दिशा में एक नई पहल की है। इसके तहत ‘ग्रामीण संसाधन प्रबंधन’ का एक नया स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम शुरू किया गया है। संपूर्ण देश में शायद रूहेलखंड विश्विविद्यालय, बरेली ही वह पहला विश्विविद्यालय है जिसने इस पाठ्यक्रम को स्वीकृति प्रादान की है। उधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद और चंदौसी के बीच ग्रामीण परिवेश में अमरपुरकाशी ग्रामोदय महाविद्यालय एवं शोध संस्थान, अमरपुरकाशी, ही देश का वह पहला कालेज है जहां यह पाठ्यक्रम आगामी सत्र से चलाया जाएगा। इस कोर्स को विकसित करने वाले श्री मुकुट सिंह का कहना है कि, ‘भारत गांवों का देश है और यहां के सभी संसाधन देहातों में हैं। किंतु अभी तक गांवों के इन संसाधनों का वैज्ञानिक अध्ययन और उनका प्रबंधन करने का कोई पाठ्यक्रम देश के किसी विश्विविद्यालय में नहीं चलाया जाता है। यह एक विडंबना है कि ब्रिटेन के बीस से उपर विश्विविद्यालयों में इस तरह के कोर्स कई वर्षों से चलाए जाते हैं।

श्री सिंह इंग्लैड के मिडिलसैक्स विश्विविद्यालय में अध्यापन कार्य कर चुके है। यह पाठ्यक्रम उन्होंने पहले इसी विश्विविद्यालय के लिए तैयार किया था। मिडिलसैक्स विश्विविद्यालय इस पाठ्यक्रम को अपनी संबद्धता देने को तैयार था पर तब इस पाठ्यक्रम की फीस तीन सौ पौंड (बीस हजार रूपए प्रति छात्र प्रति वर्ष) होती। जो भारतीय परिवेश के देहाती नौजवानों की क्षमता से कहीं अधिक होती। इसलिए श्री मुकुट सिंह ने ब्रिटिश यूनिवर्सिटी की संबद्धता को अस्वीकार कर दिया। तब उन्होंने भारतीय विश्वविद्यालयों से इसकी संबद्धता की कोशिश की और रूहेलखंड विश्विविद्यालय, बरेली इसके लिए राजी हो गया। क्योंकि अमरपुरकाशी गांव उसके अधिकार क्षेत्र के भीतर ही था।

पाठ्यक्रम अंतर्विषयी है और पचास फीसदी व्यावहारिक अनुभव पर आधारित है। यह अनुभव और अध्ययन उस ग्रामीण क्षेत्र के परिवारों की आर्थिक और सामाजिक केस स्टडीज पर आधारित होगा। इलाके में उपलब्ध जल, जंगल, जमीन और जनसंख्या जैसे संसाधनों का गहन अध्ययन करके उनके सदुपयोग के उपयुक्त माॅडल तैयार किए जाएंगे। ताकि क्षेत्र के आर्थिक विकास का प्रारूप तैयार हो सके। ग्रामीण नौजवान आत्मनिर्भर होकर अपना जीविकोपार्जन कर सके। इस पाठ्यक्रम को बीस-बीस सप्ताह के सेमेस्टर और एक-एक वर्षीय शोध पत्रों में बांटा गया है। इस तरह रूरल रिसोर्स मैंनेजमेंट का यह नया कोर्स कई मामलों में अनूठा होगा।

यह कैसी विडंबना है कि कृषि प्रधान देश में मैंनेजमेंट के नाम पर हम केवल एमबीए को ही जानते है। जबकि एमबीए का पाठ्यक्रम बहुत ही सीमित और विशुद्ध शहरी जरूरतों पर आधारित है। उदाहारण के तौर पर सभी उ़द्योगों की स्थापना के लिए प्रचुर भूमि की आवश्यकता होती है। जो गांवो को विस्थापित करके उद्योगपतियों को दी जाती है। एमबीए किए हुए प्रबंधक न तो भूमि संसाधन को जानते हैं और न विस्थापित मानव संसाधन को ही। अन्य प्राकृकि और भौतिक संसाधनों का भी ज्ञान उन्हें नहीं कराया जाता है। ग्रामीण संसाधन प्रबंधन पाठ्यक्रम ऐसी कमियों को पूरा करने का दावा करता है। इस पाट्यक्रम को विकसित करने वाले अनुभवी लोगों का विश्वास है कि इस पाठ्यक्रम में सफल हुए विद्यार्थियों को नौकरी की दिक्कत नहीं आएगी। उनकी इस अनूठी योग्यता की जरूरत मझोले और भारी उद्योगों में, बहुराष्ट्रीय कंपनियों में, विकास की दिशा में स्वैच्छिक रूप से काम कर रही राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय दानदाता संस्थाओं में, संयुक्त राष्ट्र संद्य की विकास एजेंसियों में, सरकारी प्लानिंग और विकास विभागोें में, स्थानीय निकायों में, जिला और ब्लाॅक स्तरीय पंचायतों में और गैर सरकारी संस्थाओं में जल्दी ही महसूस की जाएगी। यह पाठ्यक्रम कहां तक सफल हो पाता है यह तो समय ही बताएगा। पर इसमें शक नहीं कि यह सही दिशा में उठाया गया एक वांछित कदम है। समय की मांग है कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय देहात की समस्याओं का हल निकालने को बनाए गए ऐसे तमाम तरह के पाठ्यक्रमों की एक निदेशिका प्रकाशित करे जो बेहद कम कीमत पर ग्रामीण नौजवानों के लिए उपलब्ध हो। जिसे पढ़कर वे जान सकें कि इस दिशा में उनके लिए क्या-क्या विकल्प मौजूद हैं। इससे कई लाभ होंगे। एक तो ये कि बिना क्षमता, योग्यता या इच्छा के मजबूरी में जिन शहरी पाठ्यक्रमों की ओर ग्रामीण युवा भागते है, उसकी जरूरत नहीं पड़गी। उन्हें यह पता होगा कि उनके लिए क्या उपयुक्त है?

अपने देश की सौ करोड़ आबादी और आर्थिक विपन्नता और असमानता को देखते हुए सच्चाई यह है कि चाहे कोई कितने भी सपने क्यों न दिखा दे, भारत को रातो-रात विकसित देशों की तरह संपन्न नहीं बनाया जा सकता। ऐसी दशा में झूठे आश्वासन युवा आक्रोश को ही बढ़ाएंगे। जो आतंकवादी हिंसा के रूप में प्रकट हो सकता है। इसलिए इस दिशा में सकारात्मक सोच की जरूरत है। अमरपुकाशी का यह प्रयोग इस दिशा में एक सराहनीय कदम है।

Friday, May 3, 2002

क्या रवि सिद्धू ही गुनहगार है ?


 पंजाब लोक सेवा आयोग के गिरफ्तार अध्यक्ष रवि सिद्धू मीडिया से बहुत नाराज हैं। रवि का कहना है कि इस ख्ेाल में जो दूसरे लोग शामिल थे उनका नाम क्यों नहीं लिया जा रहा है ? क्या इसलिए कि वे सब लोग ताकतवर नेता, बड़े अफसर या न्याय व्यवस्था से जुड़े लोग है ? रवि अपने ‘‘विरूद्ध चलाए जा रहे अभियान’’ से लड़ाई लड़ने का ऐलान कर रहे है। ठीक वैसे ही जैसे जैन हवाला कांड में सीबीआई का छापा डलने के बाद एक नेता ने बहराइच से दिल्ली तक की लंबी सत्याग्रह यात्रा निकाली थी। इस यात्रा का उद्देश्य अपने को पाक-साफ सिद्ध करना नहीं बल्कि यह बताना था कि हमाम में सब नंगे हैं तो फिर कुछ व्यक्तियों को ही क्यों बलि का बकरा बनाया जाता है? सिद्धू की गिरफ्तारी और टीवी चैनलों पर सिद्धू के बैंक लाॅकरों में रखी करोड़ों रूपए के नोेटों की गड्डियां सारे देश ने देखी हैं। देश में इस कांड की चर्चा हो रही है। छापे में, इतनी बड़ी मात्रा में किसी अधिकारी के घर से नकद धन की प्राप्ति पहले कभी नहीं हुई, इसलिए ये एक बड़ी खबर बन रही है। पर  उन नेता और रवि सिद्धू के तर्क में काफी वजन है। जो सवाल इससे खड़े हुए हैं उसके जवाब देने की स्थिति में कोई भी नहीं हैं। मसलन, जैन हवाला कांड में जब दर्जनों नेताओं और अधिकारियों के नाम थे तो फिर केवल चै. देवी लाल, आरिफ मोहम्मद खान व ललित सूरी के घर और प्रतिष्ठानों पर ही क्यों छापा डाला गया, बाकी के क्यों नहीं ? क्या इस देश में एक जैसा अपराध करने पर सजा अलग-अलग तरह से मिलती है ? उत्तर होगा हां।
पिछले वर्षों में जितने भी ऐसे घोटाले सामने आए जिनमें बड़े राजनेता या अधिकारी पकड़े गए उन सब केसों का आज क्या हुआ ? क्या किसी को सजा हुई ? अगर नहीं तो रवि सिद्धू कांड पर शोर मचाने का क्या फायदा? देश के मुख्य न्यायाधीश ने सार्वजनिक मंच पर स्वीकारा कि न्यायपालिका में 20 फीसदी भ्रष्ट है और उनसे निपटने के मौजूदा कानून नाकाफी हैं। इसका क्या मतलब हुआ कि उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायलय में जाने वाला याचिकाकर्ता पहले यह पता लगाए कि उसका मुकदमा उन न्यायधीशों के सामने तो नहीं लग रहा जो भ्रष्ट हैं, क्योंकि तब तो उसे न्याय बिलकुल नहीं मिलेगा। ऐसा भ्रष्ट न्यायधीश पैसे के लालच में सच को दबा कर निर्णय देने से नहीं हिचकेगा। लेकिन किसी याचिकाकर्ता को यह पता कैसे चले कि कौन सा न्यायधीश भ्रष्ट है और कौन सा ईमानदार ? ये फर्ज तो न्यायमूर्ति एस.पी. भरूचा का था, जिन्होंने यह घोषणा की। अगर उन्हें इतना सही पता है कि उच्च न्यायपालिका के बीस फीसदी न्यायधीश भ्रष्ट हैं तो उन्हंें उनके नामों का भी खुलासा करना चाहिए था। जब नीचे से ऊपर तक न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का कैंसर फैल चुका हो तो जाहिर है कि साधन संपन्न और ऊंची पहुंच वाले अपराधियों को सजा कभी नहीं मिलेगी। दिवंगत कवि काका हाथरसी कहा करते थे- क्यूं डरता है बेटा रिश्वत लेकर, छूट जाएगा तू भी रिश्वत देकर।
पत्रकार होने के नाते रवि सिद्धू जानते हैं कि आज पत्रकारिता में क्या हो रहो है इसीलिए उनका हमला मीडिया पर भी है। क्या यह सच नहीं है कि अक्सर जब ताकतवर लोग किसी घोटाले में फंसते हैं तो कई पत्रकार उनकी मदद को सामने आ जाते हैं। वे तथ्यों की उपेक्षा करके, घोटाले उजागर करने वाले के ऊपर ही हमला बोल देते हैं ताकि अपने राजनैतिक आका को खुश करके फायदे लिए जा सकें। दरअसल, सिद्धू को अपने वक्तव्य में थोड़ा संशोधन करना चाहिए। उन्हें कहना चाहिए कि, ‘यह सच है कि मैंने पैसे लिए, पर मेरे साथ और भी लोग इस खेल में शामिल थे, जिन्हें छोड़ा नहीं जाना चाहिए।सिद्धू को ऐसे सभी लोगों की सूची बे-हिचक मीडिया को सौंप देनी चाहिए ताकि पूरा खेल खुलकर सामने आ जाए। भ्रष्टाचार के आरोप में फंसे सिद्धू जैसे अफसरों और नेताओं को उन सारे घोटालों की सूची छापकर बांटनी चाहिए जो राजनैतिक प्रभाव के चलते बिना तार्किक परिणिति के ठंडे बस्ते में डाल दिए गए। उनकी ताजा स्थिति बताते हुए प्रश्न पूछना चाहिए कि इन मामलों को किसके कहने पर और क्यों दबाया गया ?
सिद्धू का यह कहना  गलत है कि मीडिया उन्हें नाहक बदनाम कर रहा है। मीडिया जो कुछ लिख रहा है या टीवी पर दिखा रहा है वो तो जांच एजेंसियों के छापों में बरामद अवैध संपत्ति का ब्यौरा ही तो है। कोई मनगढ़त कहानी तो नहीं। दरअसल, सिद्धू को अपना हमला करते वक्त कुछ ऐसे तर्क देने चाहिए जिनका उत्तर कोई आसानी से न दे सके। मसलन, उसे पूछना चाहिए कि क्या हर अखबार में, हर भ्रष्ट आदमी के पकड़े जाने पर, इसी तरह कवरेज किया जाता है ? क्या यह सच नहीं है कि अखबार मालिक या उसके संपादकों के निजी संबंधों के दायरे में आने वाले ताकतवर लोग जब पकड़े जाते हैं तो ये अखबार पूरी तरह से खामोश रहता है या दबी छिपी जुबान में खबर छाप कर औपचारिकता निभाता है ? क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है ? क्या यह सही नहीं है कि वही अखबार फिर उस ताकतवर व्यक्ति से खबर दबाने की मोटी कीमत वसूलता है। यह कीमत बड़े फायदे के रूप में हो सकती है या नकद राशि के रूम में या फिर राजनैतिक लाभ लेने की जैसे राज्य सभा में मनोनयन। क्या यह सही नहीं है कि जो लोग मूल्यों पर आधारित पत्रकारिता करते हैंचाटुकारिता से बचते हैं और सच कहने में संकोच नहीं करते उन्हें मीडिया के मठाधीश साजिश करके मीडिया की मुख्य धारा से अलग रखते हैं। क्या ऐसा आचरण भ्रष्टाचार और अनैतिकता की परिधि में नहीं आता ? सिद्धू को जांच एजेंसियांे से पूछना चाहिए कि क्या यह सच नहीं है कि अतीत में जितने घोटाले उन्होंने पकड़े उनमें इन्हीं परिस्थितियों में जब ताकतवर लोग पकड़े गए तो इन जांच एजेंसियों को ऊपर से आदेश आ गया कि मामले को वहीं रफा-दफा कर दो और उन्होंने किया भी? क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है ?
सिद्धू को पूछना चाहिए कि ऐसा कैसे होता है कि बजट बनाते समय वित्तमंत्री की मिलीभगत से किसी औद्योगिक घरानों को सैकड़ों करोड़ रूपए का मुनाफा रातो-रात हो जाता है। यदि यह पैसा राजकोष में जाता तो गरीबों का भला होता। बजट में इस तरह की हेरा-फेरी करना क्या भ्रष्टाचार नहीं है ? सभी राजनैतिक दल चुनाव के लिए सैकड़ों करोड़ रूपए उद्योग जगत से वसूलते हैं। जाहिर सी बात है कि कोई भी औद्योगिक घराना किसी राजनेता के त्यागमय जीवन या सात्विक आचरण से प्रभावित होकर तो इतनी मोटी रकम दान में देता नहीं, न ही उस उद्योगपति का किसी राजनैतिक दल की विचारधारा में कोई विश्वास होता है। इन उद्योगपतियों के लिए तो यह धन भविष्य में फल प्राप्ति के उद्देश्य से किया विनियोग ही है। उन्हें पता है कि जब उनके पैसे से चुनाव जीता हुआ दल सत्ता में आएगा तो वे इसका कई गुना ज्यादा पैसा बना लेंगे। इस तरह क्या सभी राजनैतिक दल भ्रष्टाचार की परिधि में नहीं आ जाते ? सरकारी नौकरियों में भ्रष्टाचार का यह कोई पहला मामला नहीं है। हां, अभी तक प्रकाश में आया सबसे बड़ा जरूर  है। फौज में भर्ती हो या पुलिस में, रेल में भर्ती हो या और किसी महकमें में, जहां भी जाइए नौकरियां इसी तरह खरीदी और बेची जाती हैं। कोई घोटाला उजागर हो जाता है तो ज्यादातर दबा दिए जाते हैं। सिद्धू के मामले ने लोगों की कल्पना की सभी सीमाओं को भले ही तोड़ दिया हो पर ऐसा कुछ नहीं किया जो पहले न होता आया हो। जहां तक भ्रष्टाचार की बाता है पंजाब के ही राज्यपाल, सुरेन्द्र नाथ और उनका परिवार जब हवाई दुर्घटना में मरे थे तो उनके हवाई जहाज से नोट भरे बक्सा की बारिश हुई थी। बाद में इसकी कोई भी सफाई दी गई हो पर जनता समझ गई कि मामला क्या है।
जब तक देश में गरीबी और बेराजगारी है तब तक सरकारी नौकरियों के लिए ऐसी ही आपा-धापी मचती रहेगी। अभ्यार्थियों से फीस लेकर आवेदन फार्म भरवाए जाएंगे, उन्हें परीक्षा में बैठाया जाएगा और बाद में फेल बताकर उन्हें बैरंग लौटा दिया जाएगा, क्योंकि जो पैसा देगा वहीं नौकरी पाएगा। सिद्धू के मामले पर शोर कितना ही क्यों न मच ले पर सबको पता है कि अंत में होना कुछ नहीं है। जनता यह मानने को तैयार नहीं है कि इस देश के आला अफसरों और बड़े नेताओं पर कानून का शिकंजा कभी कस भी पाएगा। इसका यह अर्थ नहीं कि रवि सिद्धू के दुराचरण का समर्थन किया जाए या उसे अनदेखा कर दिया जाए। पर हर घटना को उसकी संपूर्णता में देखने की जरूरत होती है। पंजाब के वर्तमान मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्दर सिंह शाही खानदान से हैं। धनी हैं, इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि वे राजनीति को लूट का नहीं, सेवा का माध्यम बनाएंगे। वे स्वयं भ्रष्ट हुए बिना पंजाब प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार को निर्मूल करने का कठिन प्रयास करेंगे। अगर ऐसा कर सके तो इसका शुभ संदेश देश में जाएगा वरना यह उबाल भी कुछ दिनों में ठंडा पड़ जाएगा। तब लोगों को टीवी चैनलों और अखबारों में किसी ओैर सनसनीखेज घोटाले को देखनी की उत्सुकता होगी। तब कोई नहीं पूछेगा कि सिद्धू घोटाले का परिणाम क्या हुआ ? जैसे अब कोई नहीं जानना वाहता कि बाकी घोटाले कैसे दबा दिए गए। जब तक हम सच्चाई से आंख छिपाते रहेंगे तब तक हालात नहीं बदलेंगे। हर खबर एक मनोरंजन से ज्यादा कुछ भी नहीं होगी।