Monday, May 28, 2018

मोदी जी की साफ नीयत: सही विकास

राजनेताओं द्वारा जनता को नारे देकर, लुभाने का काम लंबे समय से चल रहा है। ‘जय जवान-जय किसान’, ‘गरीबी हटाओ’, ‘लोकतंत्र बचाओ’, ‘पार्टी विद् अ डिफरेंस’ व पिछले चुनाव में भाजपा का नारा था, ‘मोदी लाओ-देश बचाओ’। जब से मोदी जी सत्ता में आऐ हैं, भारत को परिवर्तन की ओर ले जाने के लिए उन्होंने बहुत सारे नये नारे दिये, जिनमें से एक है, ‘साफ नीयत-सही विकास’। पिछले 15 वर्षों से ब्रज क्षेत्र में धरोहरों के जीर्णोंद्धार व संरक्षण का काम करने के दौरान जिला स्तरीय, प्रांतीय व केन्द्रीय सरकार से बहुत मिलना-जुलना रहा है। उसी संदर्भ में इस नारे को परखेंगे।

भगवान श्रीराधाकृष्ण की लीलाओं से जुड़े पौराणिक कुण्डों, वनों और धरोहरों के जीर्णोंद्धार का जैसा काम ‘ब्रज फाउंडेशन’ ने बिना सरकारी आर्थिक मदद के किया, वैसा काम देश के 80 फीसदी राज्यों के पर्यटन विभाग नहीं कर पाये। यह कहना है-भारत के नीति आयोग के सीईओ. अमिताभ कांत का। इसी तरह  प्रधानमंत्री मोदी से लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक और देश के सभी प्रमुख संतों ने व लाखों ब्रजवासियों ने ब्रज फाउंडेशन द्वारा सजाये गये गोवर्धन के रूद्र कुंड, ऋणमोचन कुंड व संकर्षण कुंड, जैंत का जय कुंड व अजयवन, वृंदावन के ब्रह्म कुंड, सेवाकुंज व रामताल, मथुरा का कोईले घाट और बरसाना का गहवन वन आदि लाखों तीर्थयात्रियों का मन लुभाते हैं। अवैध कब्जाधारियों से लड़ने, इनकी गंदगी साफ करने और इनको बनाने में करोड़ों रूपया खर्च हुआ। जो देश के प्रमुख उद्योगपतियों जैसे- श्री कमल मोरारका, श्री अजय पीरामल, श्री राहुल बजाज, श्री रामेश्वर राव और अनेकों कम्पनियों ने अपने ‘सीएसआर. फंड’ से दान दिया। परंपरानुसार सभी दानदाताओं के नामों के शिलालेख, इन स्थलों पर लगाये गये हैं। पिछले दिनों योगी सरकार के एक छोटे अधिकारी ने अपने तुगलकी फरमान जारी कर, इन सभी शिलालेखों पर पेंट कर दिया। ऐसा काम ब्रज में औरंगजेब के बाद पहली बार हुआ। प्रदेश में जब सरकारे बदलती हैं, तो पिछली सरकार की बनाई ईमारतों या शिलालेखों को हाथ नहीं लगाते। चाहे वे विरोधी दल के ही क्यों न हों। पूरी दुनिया में इस तरह के शिलालेख लगाने की परंपरा बहुत पुरानी है। जिससे आनी वाली पीढ़ियां इतिहास जान सकें।
इस दुष्कृत्य के पीछे उन स्वार्थीतत्वों का हाथ है, जो ब्रज फाउंडेशन की सफलता से ईष्र्या करते रहे हैं। ब्रज फाउंडेशन ने मोदी जी के ‘सही नीयत-सही विकास’ और ’स्वच्छ भारत’ के नारे को शब्दसह चरितार्थ किया है। इस संस्था को छह बार भारत की ‘सर्वश्रेष्ठ वाटर एनजीओ’ होने का अवार्ड भी मिल चुका है। इन सार्वजनिक स्थलों का जीर्णोंद्धार करने से पहले मौजूदा कानून की सभी प्रक्रियाओं को पारदर्शी रूप से पूरा किया गया। जिला प्रशासन से लेकर प्रांत और केंद्र सरकार तक का प्रशासनिक सहयोग, इन परियोजनाओं को पूरा करने में बार-बार लिया गया। फिर भी ‘एनजीटी’ के एक सदस्य ने प्रमाणों को अनदेखा करते हुए संस्था को इन स्थलों के रख-रखाव से अलग कर दिया। ये आदेश भी दिया कि ‘ भविष्य में सारे कुंड सरकार बनाये’।  ब्रजवासियों का कहना है कि, ‘जो शासन गत 70 वर्ष में एक भी धरोहर का जीर्णोंद्धार व संरक्षण ब्रज फाउंडेशन द्वारा बनाई गई स्थलियों के सामने 10 गुनी लागत लगाकर 10 फीसदी भी नहीं कर पाया। वो जिला प्रशासन ब्रज के 800 सौ से भी ज्यादा वीरान और सूखे पड़े कुंडों को आज तक क्यों नहीं बना पाया?
उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग के अनुदान पर अब तक कम से कम 200 करोड़ रूपया पिछले 70 सालों में ब्रज में लग चुका होगा। बावजूद इसके उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग एक भी धरोहर को दिखाने लायक नहीं बना पाया। तो भविष्य में क्या कर पायेगा, उसका अनुमान लगाया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के ‘हिंचलाल तिवारी केस’ मामले में सब जिलाधिकारियों को अपने जिले के सभी कुंडों पर से कब्जे हटवाकर, उनका जीर्णोंद्धार करना था। पर आज तक इस आदेश का अनुपालन नहीं हुआ। यह सीधा सीधा अदालत की अवमानना का मामला है।
इससे भी गंभीर प्रश्न ये है कि एक तरफ तो भारत सरकार उद्योगपतियों से अपने सीएसआर फंड को समाज के कामों में लगाने के लिए आह्वान करती है और दूसरी तरफ उसी भाजपा के मुख्यमंत्री की जानकारी में ऐसा काम करने  वालों के नामों निशान तक मिटा दिये जाते हैं। ऐसे में कोई क्यों सेवा करने सामने आऐगा? नीयत साफ वाले और ठोस काम करने वाले लोगों को अपमानित किया जाऐ और खोखले और नाकारा सलाहकारों को लाखों रूपये फीस देकर, उनसे वाहियात् परियोजनाऐं बनवाई जाऐ और उन पर बिना सोचे समझे, पानी की तरह पैसा बहा दिया जाऐ। तो कैसे होगा सही विकास?
इस संदर्भ में एक और अनुभव बड़ा रोचक हुआ। उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग ने ब्रज के 9 कुंडों के जीर्णोंद्धार के लिए 77 करोड़ रूपये का ठेका लखनऊ के ठेकेदारों को दे दिया। जबकि हमने बढ़िया से बढ़िया कुंड बनाने में ढाई, तीन करोड़ रूपये से ज्यादा खर्च नहीं किया। हमारे विरोध पर ठेका निरस्त करना पड़ा और हमसे कार्य योजना मांगी। अब यही 9 कुंड मात्र 27 करोड़ रूपये में बनेंगे। जाहिर है कि योगी सरकार के मंत्रीं और अधिकारी इस एक परियोजना में 50 करोड़ रूपये हजम करने की तैयारी करे बैठे थे, जो हमारे हस्तक्षेप से बौखला गये और साजिश करके उन्होंने पिछले हफ्ते इन सारी धरोहरों पर कब्जा कर लिया। जबकि ब्रज फाउंडेशन वहां निःस्वार्थ भाव से बाग-बगीचे, मंदिर आदि की इतनी सुंदर सेवा कर रही थी कि हर आदमी उसे देखकर गद्गद् था। पिछले चार साल में केंद्र सरकार और पिछले सवा साल में योगी सरकार तमाम शोर-शराबे के बावजूद एक भी परियोजना नहीं बना पाई। इसका कारण है, भ्रष्ट नौकरशाही, राजनैतिक दलालों का हस्तक्षेप और नाकरा सलाहकारों से परियोजनाऐं बनवाना।
हमने कई बार प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव केंद्र सरकार के मंत्रियों व सचिवों और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी और आला अफसरों के साथ बैठकें कर-करके प्रशासनिक व्यवस्था की खामियों को दूर करने के अनेक ठोस और व्यवहारिक सुझाव दिये। जिससे काम बेहतर और कलात्मक हो और लागत आधी से भी कम आए। पर कोई सुनने या बदलने को तैयार नहीं है। दावें और बातें बहुत बड़ी-बड़ी हो रही है, पर जिलास्तर पर हलातों में कोई बदलाव नहीं। बाकी प्रदेश को छोड़ो, भगवान श्रीकृष्ण, राम और शिव की भूमि में भी वही हाल है। दीवाली और होली मनाने से राजनैतिक प्रचाार तो मिल सकता है, पर जमीन पर ठोस काम नहीं होता है। ठोस काम होता है, ‘सही नीयत-सही विकास’ के नारे को अमल में लाने से। जो अभी तक कहीं दिखाई नहीं दे रहा है।

Monday, May 21, 2018

सर्वोच्च न्यायालय व संवैधानिक संस्थाऐं

पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय में जो कुछ हो रहा था उससे देश की न्यायपालिका ही नहीं बल्कि हर जागरूक नागरिक चिंतित था। जब सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक में चैबीस घंटे की समय सीमा बांधकर विश्वास मत हासिल करने का आदेश दे दिया, तो उसकी हर ओर सराहना हो रही है। कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई रादुभाई वाला ने भाजपा को शपथ दिलाकर, अपने विवेक का सही प्रयोग नहीं किया। ये बात भी आज देश में चर्चा का विषय बनी हुई है। उधर तीन दिन की भाजपा सरकार के अल्प मत में होने के कारण इस्तीफा देने पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का संवाददाता सम्मेलन में गुबार फूटना क्या जायज नहीं है? क्योंकि उन्हें लग रहा था कि वे एक बार फिर गोवा और मणिपुर की तरह सरकार बनाने में जीती हुई बाजी हार गये।


इन तीन-चार दिनों में जो बहस टीवी चैनलों पर हुई है और जो लेख अखबारों में आए हैं, उन्होंने याद दिलाया है कि पिछले साठ सालों में सत्ता हथियाने में कांग्रेस की केंद्र सरकार ने दर्जनों बार वही किया, जो आज भाजपा कर रही है। इसलिए राहुल गांधी के आक्रोश का कोई नैतिक आधार नहीं है। सोचने वाली बात यह है कि जब देश के दो प्रमुख राजनैतिक दल मौका मिलने पर एक सा अनैतिक आचरण करते है, तो फिर एक दूसरे पर दोषारोपण करने का क्या औचित्य है? यह स्वीकार लेना चाहिए कि राज्यपाल संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति का प्रतिनिधि और गैर राजनैतिक व्यक्ति होता है। पर व्यवहार में वह केंद्र में सत्तारूढ़ दल के हितों को ही साधता है। हालांकि खुलकर कोई इसे मानेगा नहीं। पर हम जैसे आम नागरिकों के लिए यह चिंता की बात होनी चाहिए कि एक-एक करके सभी संवैधानिक संस्थाओं का क्रमशः पतन होता जा रहा है। जिसके लिए मौजूदा सरकार से कम कांग्रेस जिम्मेदार नहीं है। 1975 में आपातकाल का लगना, मीडिया पर सैंसरशिप थोपना, न्यायपालिका को समर्पित बनाने की कोशिश करना, कुछ ऐसे गंभीर गैर लोकतांत्रिक कार्य थे, जिनकी वजह से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की छवि पूरी दुनिया में धूमिल हुई।

जो लोग इवीएम मशीनों के दुरूपयोग का आरोप लगाते हैं और चुनाव आयोग को इस विवाद में घसीटते हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर वास्तव में ऐसा होता, तो दिल्ली मेंआम आदमी पार्टीकी और पंजाब में कांग्रेस की सरकार नहीं बनती। हाल ही में 0प्र0 में दो प्रतिष्ठित संसदीय क्षेत्रों में भाजपा की जो हार हुई, वो होती। कर्नाटक में भाजपा को चंद विधायकों के लिए सत्ता नहीं छोड़नी पड़ती। साफ जाहिर है कि जनता अपने विवेक से मतदान करती है। कोई कितना ही आत्मविश्वास क्यों रखे, मत गणना के अंत तक यह दावा नही कर सकता कि मतदाता उसके साथ है। भारत का मतदाता जाति और धर्म में भले ही बंटा हो, पर उसकी राजनैतिक सूझ-बूझ को चुनौती नहीं दी जा सकती हर चुनाव में वह राजनेताओं के ऊपर मतदाताओं की श्रेष्ठता को स्थापित कर देता है।

इस सब से यह स्पष्ट है कि भारत की आम जनता लोकतंत्र में आस्था रखती है और उसका सम्मान करती है। इसी बात को रेखांकित करते हुए, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब जीवन में पहली बार एक सांसद के रूप में संसद भवन में प्रवेश किया, तो उसकी सीढ़ियों पर माथा टेका, ये कहते हुए कि संसद लोकतंत्र का मंदिर है, जिसका मैं सम्मान करता हूं।

जब प्रधानमंत्री लोकतंत्र का सम्मान करते हों और विपक्ष के सभी प्रमुखे नेता कर्नाटक की घटनाओं को लेकर विचलित हों, तो रास्ता आसान होने की संभावना है। क्योंकि दोनों ही पक्ष अपने-अपने समय पर लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था का नारा दोहराते हैं। तो क्यों नहीं संसद का एक विशेष सत्र बुलाकर कुछ बुनियादी बातों पर सहमति कर लेते हैं? उदाहरण के तौर पर राज्यपाल द्वारा विश्वास मत हासिल करने के लिए अधिकतम दो दिन से ज्यादा का समय नही देना चाहिए। ये तय हो जाना चाहिए कि हमेशा सरकार बनाने का पहला मौका उस दल को मिले, जिसके सबसे ज्यादा विधायक या सांसद जीतकर आऐ हों। अगर वह दल सरकार बनाने में अपनी असमर्थता व्यक्त करे, तब दूसरे दलों को मौका दिया जाना चाहिए। अगर कुछ दल चुनाव के पहले गठबंधन कर लड़े हों और उन्हें बहुमत मिल जाए, तो सरकार बनाने का पहला न्यौता उन्हें ही मिलना चाहिए। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि अगर कानून के दायरे में रहकर राज्यपाल या राष्ट्रपति कोई निर्णय लेते हैं, तो उसमें विवेक के इस्तेमाल के नाम पर फैसला लेनेकी छूट को सीमित कर दिया जाए। जिससे विवेक के इस्तेमाल के नाम पर राजनैतिक खेल खेलना संभव हो।

पर जैसा हम अक्सर कहते करते आऐ हैं कि व्यवस्था कुछ भी बना ली जाए, जब तक उसको चलाने वालों के अंदर नैतिकता नहीं है, तब तक कुछ ठीक नहीं हो सकता। राष्ट्रपति हों, राज्यपाल हों, राजनैतिक दल हों, सांसद हों, विधायक हों, न्यायाधीश हो या मीडियाकर्मी हों अगर अपने व्यवसाय की प्रतिष्ठा के स्वरूप् आचरण नहीं करते, तो लोकतांत्रिक संस्थाओ का पतन होना स्वाभाविक है और अगर नैतिकता से करते हैं, तो कोई समस्या ही नहीं आयेगी। पर ये सब भी तो उसी समाज का अंग है, जिसके हम। जब समाज में ही नैतिक पतन इतना तेजी से हो रहा है, तो नेतृत्व से नैतिकता की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? इसलिए हमारे प्रश्न का उत्तर हम स्वयं हैं। समाज वैसा बनेगा, जैसा हम बनाना चाहेंगे।