Monday, July 27, 2015

हृदय योजना से होगा प्राचीन नगरों का संरक्षण


    इस साल जनवरी में शहरी विकास मंत्री श्री वैकैया नायडू ने प्रधानमंत्री की चहेती योजना ‘हृदय’ की शुरुआत की। इस योजना का लक्ष्य भारत के पुरातन शहरों को सजा-संवारकर दुनिया के आगे प्रस्तुत करना है। जिससे भारत की आत्मा यानि यहां की सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण हो सके। इसीलिए अंग्रेजी में जो नाम रखा गया है, उसके प्रथम अक्षरों को मिलाकर ‘हृदय’ शब्द बनता है। 

     योजना का उद्देश्य बहुत ही प्रशंसनीय है, क्योंकि जागरूकता के अभाव में भारत की ऐतिहासिक धरोहरों को बहुत तेजी से नष्ट किया जा रहा है। विशेषकर पिछले दो दशकों में, जब से शहरी जमीन के दाम दिन दूने रात चैगने बढ़े हैं, तब से इन धरोहरों की तो शामत आ गई है। भूमाफिया इन्हें कौडि़यों के मोल खरीद लेते हैं और रातोंरात धूलधूसरित कर देते हैं। जो कुछ कलाकृतियां, भित्ति चित्र, पत्थर की नक्काशियां या लकड़ी पर कारीगरी का काम इन भवनों में जड़ा होता है, वह भी कबाड़ी के हाथ बेच दिया जाता है। यह ऐसा हृदयविदारक दृश्य है, जिसे देखकर हर कलाप्रेमी चीख उठेगा। पर भ्रष्ट नौकरशाही, नाकारा नगर पालिकाएं और संवेदनाहीन भूमाफिया के दिल पर कोई असर नहीं होता। 

    प्रधानमंत्री ने इस दर्द को समझा और देशभर में धरोहरों के प्रति जाग्रति पैदा करने के उद्देश्य से ‘हृदय’ योजना शुरू की। शुरू में इसमें केवल 12 पुराने शहर लिए गए हैं, जैसे-अमृतसर, अजमेर, वाराणसी, मथुरा, जगन्नाथपुरी आदि। बाद में इस सूची का और विस्तार किया जाएगा। अब इन शहरों की धरोहरों की रक्षा पर केवल पुरातत्व विभाग को ही ध्यान नहीं देना होगा, बल्कि समाज के अनेक वर्ग जो अपनी धरोहरों से प्रेम करते हैं, वे भी अब अपने शहर की धरोहरों को बचाने में सक्रिय हो जाएंगे। 

योजना का दूसरा पहलु है कि इन धरोहरों के आसपास के आधारभूत ढांचे को सुधारा जाए, जिससे देशी-विदेशी पर्यटक इन धरोहरों को देखने आ सकें। इस योजना की तीसरी खास बात यह है कि इसमें निर्णय लेने का अधिकार केवल नौकरशाही के हाथ में ही नहीं है, बल्कि काफी हद तक निर्णय लेने का काम उस क्षेत्र के अनुभवी लोगों पर छोड़ दिया गया है। इससे जीर्णोद्धार के काम में कलात्मकता और सजीवता आने की संभावना बढ़ गई है। पर ये काम इतना आसान नहीं है। 

    किसी भी पुराने शहर के बाजार में जाइए, तो आपको नक्काशीदार झरोखों से सजी दुकानें मिलेंगी। इन दुकानों की साज-सज्जा अगर प्राचीन तरीके से करवा दी जाए, तो ये बाजार अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हो सकते हैं। इस योजना के तहत ऐसे तमाम पुरातन शहरों की धरोहरों को सजाने-संवारने का एक सामान्तर प्रयास किया जा सकता है। उससे ये बाजार बहुत ही आकर्षक बन जाएंगे। पर इस पहल में व्यापारियों को सहयोग देने के लिए आगे आना पड़ेगा। उनके प्रतिष्ठान अंदर से चाहें जैसे हों, पर बाहरी स्वरूप कलात्मक, पारंपरिक और एक-सा बनाना पड़ेगा। 

इस पूरे प्रयास में सबसे बड़ी तादाद पुरातन धरोहरों के ऊपर हजारों नाजायज कब्जों की है। ये लोग दशाब्दियों से यहां काबिज हैं और बिना किसी दस्तावेज के और बिना किसी अधिकार के इन संपत्तियों के ऊपर अवैध कब्जे जमाए बैठे हैं, उन्हें निकालना एक टेढ़ी खीर होगा। पर अगर जिला प्रशासन, प्रदेश शासन और केंद्र सरकार मिलकर कमर कस लें, तो छोटी सी जांच में यह स्पष्ट हो जाएगा कि ये लोग बिना किसी कानूनी अधिकार के अरबों की संपत्ति दबाए बैठे हैं और उसे बेच रहे हैं। 

जिनके पास कानूनी अधिकार न हों, उन्हें बेदखल करना जिला प्रशासन के लिए चुटकियों का खेल है। अगर ऐसा हो सका तो इन भवनों को संस्कृति और पर्यटन के विस्तार के लिए उपयोग में लाया जा सकेगा। तब इनकी वास्तुकला और शिल्पकला देखने आने वाले स्कूली बच्चों की तादाद बहुत बढ़ जाएगी। साथ ही इनका जीर्णोद्धार होने से इनकी आयु बढ़ जाएगी और इनके छत्र तले अनेक स्थानीय कलाओं के विस्तार और प्रदर्शन के माॅडल तैयार किए जा सकेंगे। 

हृदय स्कीम के तहत कुछ नौजवानों को रोजगार देने की भी बात है, जिन्हें प्रशिक्षित कर क्षेत्रीय पर्यटन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका दी जा सके। 

समस्या उन राज्यों में ज्यादा है, जहां का राजनैतिक नेतृत्व हर तरह के काम में अपने चेले-चाटुकार घुसाकर आवंटित राशि का 70 फीसदी तक खाना चाहता है। इसका मतलब विकास के लिए मात्र 30 फीसदी धन बचा। इससे कैसा विकास हो सकता है, इसका पाठक अंदाजा लगा सकते हैं। 

दरअसल, हर पुरातन शहर के नागरिकों, कलाप्रेमियों, कलाकारों, समाज सुधारकों, वकीलों और पत्रकारों को साथ लेकर एक जनजाग्रति अभियान चलाना पड़ेगा। जिससे जनता हर निर्माणाधीन प्रोजेक्ट की निगरानी करने लगे। तभी कुछ सार्थक उपलब्धि हो पाएगी, वरना हृदय योजना अपने लक्ष्य प्राप्ति में गति नहीं पकड़ पाएगी। 

Monday, July 20, 2015

ज्योतिर्लिंग भीमाशंकर महाराष्ट्र में नहीं, असम में है

कभी-कभी इतिहास गुमनामी के अंधेरे में खो जाता है और नई परंपराएं इस तरह स्थापित हो जाती हैं कि लोग सच्चाई भूल जाते हैं। कुछ ऐसा ही किस्सा है भारत के द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक का, जिन्हें हम भीमाशंकर जी के नाम से जानते हैं और उनकी उपस्थिति महाराष्ट्र के पुणे नगर में मानकर उनके दर्शन और आराधना करने जाते हैं। यूं तो कण-कण में व्याप्त भगवान एक ही समय अनेक जगह प्रकट हो सकते हैं। उस तरह तो पुणे नगर के ज्योतिर्लिंग को भीमाशंकर मानने में कोई हर्ज नहीं है। पर ऐसी सभी मान्यताओं का आधार हमारे पुराण हैं। विदेशी या विधर्मी इन्हें एतिहासिक न मानें, मगर हर आस्थावान हिंदू पुराणों को सनातन धर्म का इतिहास मानता है। उस दृष्टि से हमें ज्योतिर्लिंगों की अधिकृत जानकारी के लिए श्री शिवपुराण का आश्रय लेना होगा।

पिछले हफ्ते जब मैं पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे पर था, तो मेरे मेजबान मित्र ने भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के विषय में अद्भुत जानकारी दी। उन्होंने बताया कि पौराणिक भीमाशंकर जी महाराष्ट्र में नहीं, बल्कि असम की राजधानी गोवाहटी की पहाड़ियों के बीच विराजते हैं। असम के वैष्णव धर्म प्रचारक श्री शंकरदेव की वैष्णव भक्ति की आंधी में असम के सभी शिवभक्तों को या तो वैष्णव बना लिया गया था या वे स्वयं ही असम छोड़कर भाग गए थे। इसलिए भीमाशंकर जी पिछली कुछ सदियों से गुमनामी के अंधेरे में खो गए। वे मुझे भीमाशंकर के दर्शन कराने ले गए। उनके साथ उनकी सुरक्षा में लगा असम पुलिस का लंबा-चैड़ा लाव-लश्कर था। हम लंबी पैदल यात्रा और कामरूप के मनोहारी पर्वतों और वनों के बीच चलते हुए एक निर्जन घाटी में पहुंचे। जहां शहरीकरण से अछूता प्राकृतिक वातावरण था, जो दिल को मोहित करने वाला था। वहां कोई आधुनिकता का प्रवेश नहीं था। हां, कभी सदियों पूर्व वहां स्थापित हुए किसी भव्य मंदिर के कुछ भगनावेश अवश्य इधर-उधर छितरे हुए थे। फिलहाल तो वहां केवल वनों की लकड़ियों से बनी रैलिंग, बैंचे और लता-वृक्षों की छाया थी। भोलेनाथ अपने भव्य रूप में पहाड़ी नदी के बीच में इस तरह विराजे हैं कि 24 घंटे उनका वहां जल से अभिषेक होता रहता है। वर्षा ऋतु में तो वे पूरी तरह नदी में डुबकी लगा लेते हैं। उनकी सेवा में लगे पुजारी ब्राह्मण नहीं हैं, बल्कि जनजातिय हैं। जो सैकड़ों वर्षों से भीमाशंकर महादेव की निष्ठा से चुपचाप पूजा-अर्चना करते रहते हैं। यहां काशी से लेकर देशभर से संत और शिवभक्त आकर साधना करते हैं। मगर अभी तक इस स्थान का कोई प्रचार प्रसार देश में नहीं हुआ है।

पुजारी जी ने बताया कि शिवपुराण के 20वें अध्याय में श्लोक संख्या 1 से 20 तक व 21वें अध्याय के श्लोक संख्या 1 से 54 तक भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के प्रादुर्भाव की कथा बताई गई है। जिसके अनुसार ये ज्योतिर्लिंग कामरूप राज्य के इन पर्वतों के बीच यहीं स्थापित हैं। असम का ही पुराना नाम कामरूप था। दर्शन और अभिषेक करने के बाद मैंने आकर शिवपुराण के ये दोनों अध्याय पढ़े, तो मैं हतप्रभ रह गया। जैसा पुजारीजी ने बताया था, बिल्कुल वही वर्णन शिवपुराण में मिला। इसमें कहीं भी भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के महाराष्ट्र में होने का कोई उल्लेख नहीं है। उदाहरण के तौर पर 20वें अध्याय के दूसरे श्लोक में कहा गया है कि -
कामरूपाभिधे देशे शंकरो लोककाम्यया।
अवतीर्णः स्वयं साक्षात्कल्याणसुखभाजनम्।।
इसी क्रम में भोलेनाथ के अवतीर्ण होने की संपूर्ण कथा के बाद 53वें श्लोक में कहा गया है कि -
भीमशंकरनामा त्वं भविता सर्वसाधकः।
एतल्लिंगम् सदा पूज्यं सर्वपद्विनिवारकरम्।।

आश्चर्य की बात है कि इतनी बड़ी खोज देश के मीडिया और शिवभक्तों से कैसे छिपी रह गई। हालांकि इस लेख को लिखते समय मेरी कलम कांप रही है। कारण ये कि लाखों वर्षों से प्रकृति की मनोरम गोद में शांति से भोलेनाथ जिस तरह गोवाहाटी के पर्वतों की घाटी में विराजे हैं, वह शांति इस लेख के बाद भंग हो जाएगी। फिर दौड़ पड़ेंगे टीवी चैनल और शिवभक्त देशभर से असली भीमाशंकर जी के दर्शन करने के लिए। बात फिर वहीं नहीं रूकेगी। फिर कोई वहां भव्य मंदिर का निर्माण करवाएगा। यात्रियों की भीड़ को संभालने के लिए खानपान, आवास आदि की व्यवस्थाएं की जाएंगी और व्यवसायिक गतिविधियों की तीव्रता एकदम बढ़ जाएगी। जिससे यहां का नैसर्गिक सौंदर्य कुछ वर्षों में ही समाप्त हो जाएगा।

पर, एक पत्रकार के जीवन में ऐसी दुविधा के क्षण अनेक बार आते हैं, जब उसे यह तय करना पड़ता है कि वह सूचना दे या दबा दे। चूंकि द्वादश ज्योतिर्लिंग सनातनधर्मियों विशेषकर शिवभक्तों के लिए विशेष महत्व रखते हैं, इसलिए श्रावण मास में शिवभक्तों को यह विनम्र भेंट इस आशा से सौंप रहा हूं कि गोवाहटी स्थित भीमाशंकर महादेव जी के दर्शन करने अवश्य जाएं। पर उस परिक्षेत्र का विकास करने से पूर्व उसके प्राकृतिक स्वरूप को किस तरह बचाया जा सके या उसका कम से कम विनाश हो, इसका ध्यान अवश्य रखा जाए।

Monday, July 13, 2015

पूर्वोत्तर राज्यों का पर्यटन विकास क्यों नहीं हो पा रहा ?



आजकल मैं पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे पर आया हुआ हूं। मुझे यह देखकर अचम्भा हो रहा है कि स्विट्जरलैंड और कश्मीर को टक्कर देता पूर्वोत्तर राज्यों का प्राकृतिक सौंदर्य पर्यटन की दृष्टि से दुनिया के आगे क्यों नहीं परोसा जा रहा ? जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र जीवन के दौर में पूर्वोत्तर राज्यों के अनेक लड़के-लड़कियां हमारे साथ थे। जिनकी शिकायत थी कि मैदानी इलाकों में रहने वाले हम लोग उनके राज्यों की परवाह नहीं करते, उनके साथ सौतेला व्यवहार करते हैं।

पाठकों को याद होगा कि नागालैंड हो या मिजोरम या फिर असम की ब्रह्मपुत्र घाटी सबने जनाक्रोश का एक लंबा दौर देखा हैं। केंद्रीय सरकार, सशस्त्र बलों और हमारी सेनाओं को इन राज्यों में शांति बनाए रखने के लिए और अपनी सीमा की सुरक्षा के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी है। तब यही लगता था कि सारा अपराध दिल्ली में बैठे हुक्मरानों का है, इसीलिए लोग नाराज़ हैं | यह कुछ हद तक ही सही था | लेकिन यहां आकर जमीनी हकीकत कुछ और ही पता चली। 

अब मेघालय को ही लीजिए। गरीबी का नामोनिशान यहां नहीं है। इसका मतलब ये नहीं कि सभी संपन्न हैं। पर यह सही है कि बुनियादी जरूरतों के लिए परेशान होने वाला परिवार आपको ढूढ़े नहीं मिलेगा। शिलांग जैसी राजधानी या मेघालय के गांव और दूसरे शहर में कहीं एक भी भिखारी नजर नहीं आया। जानकार लोग बताते हैं कि कोयले व चूने की खानों और अपार वन संपदा के चलते मेघालय राज्य में प्रति एक हजार व्यक्ति के ऊपर  जितने करोड़पति हैं, उतने पूरे भारत में कहीं दूसरी जगह नहीं। यह तथ्य आंख खोलने वाला है। एक और उदाहरण रोचक होगा कि मेघालय के कुछ नौजवान भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन होने के बावजूद केवल इसलिए नौकरी पर नहीं गए कि उन्हें अपना राज्य छोड़कर दूसरे राज्य में नहीं रहना था। जाहिर है, उनकी आर्थिक सुरक्षा मजबूत रही होगी, तभी उन्होंने ऐसा जोखिम भरा फैसला लिया। 

मेघालय बेहद खूबसूरत राज्य है। पर्यटन की दृष्टि से अपार संभावनाएं हैं। इस इलाके की खासी, गारो व जैंतियां तीनों जनजातियां सांस्कृतिक रूप से भी काफी सम्पन्न हैं। दूसरी तरफ पिछले 68 सालों में सरकार ने यहां आधारभूत ढांचा विकसित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। बढि़या सड़कें, जनसुविधाएं, पानी-बिजली की आपूर्ति, यह सब इतना व्यवस्थित है कि अगर कोई चाहे तो मेघालय के हर गांव को 'इको टूरिज्म विलेज' बना सकता है। अगर आज ऐसा नहीं है, तो इसका एक बड़ा कारण मेघालय के नौजवानों की हिंसक वृत्ति है। जातिगत अभिमान के चलते वे बाहरी व्यक्ति को पर्यटक के रूप में तो बर्दाश्त कर लेते हैं। पर अपने इलाके में न तो उसे रहने देना चाहते हैं, न कारोबार करने देना चाहते हैं। इसलिए बाहर से कोई विनियोग करने यहाँ नहीं आता। दूसरा बड़ा कारण यह है कि लोगों को धमकाना, उन्हें चाकू या पिस्टल दिखाना और उनसे पैसा उगाही करना या किसी बात पर अगर झगड़ा हो जाए, तो उस व्यक्ति को मार-मारकर बेदम कर देना या मार ही डालना इन लोगों के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। जिसकी इन्हें कोई सजा भी नहीं मिलती | इसलिए व्यापारिक बुद्धि का आदमी यहां आकर विनियोग करने से घबराता है। कुल मिलाकर नुकसान देश का तो है ही, मेघालयवासियों का भी कम नहीं। पर उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं, क्योंकि प्रकृति ने खनिजों और वन संपदा के अपार भंडार इन्हें सौंप दिए हैं। इनके इलाकों में सरकार का कानून नहीं चलता, बल्कि इनके कबिलाई प्रमुख की हुकुमत चलती है। उसने अगर कह दिया कि कोयले की ये खान मेरी हुई, तो कोई सरकार उसे रोक नहीं सकती। नतीजतन, जब घर बैठे खान, खनिज, जमीन और वन संपदा आपको मोटी कमाई दे रहे हों, तो आपको इससे ज्यादा म्हणत करने की क्या जरूरत है। इसलिए ये लोग नहीं चाहते कि कोई बाहर से आए और बड़े कारोबार की स्थापना करे। 

एक तरह से तो यह अच्छा ही है | क्योंकि शहरीकरण हमारे नैसर्गिक सौंदर्य को दानवीयता की हद तक जाकर बर्बाद कर रहा है। कोई रोकटोक नहीं है। आज देश का हरित क्षेत्र 3 फीसदी से भी कम रह गया है। जबकि आदमी को स्वस्थ रहने के लिए भू-भाग के 33 फीसदी पर हरियाली होनी चाहिए। अगर यहां भारी विनियोग होगा, तो प्रकृति का विनाश भी तेजी से होगा। 

चलो बड़े विकास की बात छोड़ भी दें, तो भी अपार संभावनाएं हैं। हम पर्यटन की आवश्यकता को समझे और उसके अनुरूप स्थानीय स्तर पर सुविधाओं का विस्तार करें। 


कमोबेश, यही स्थिति अन्य राज्यों की भी है। जहां नैसर्गिक सौंदर्य बिखरा हुआ है। पर वहां भी स्थानीय जनता के ऐसे रवैये के कारण वांछित विकास नहीं हो पा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि पूर्वोत्तर राज्यों के जो युवा पढ़-लिखकर राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं, वे अपने-अपने प्रांतों में जाग्रति लाएं और जनता की तरफ से भी विकास की मांग उठनी चाहिए। हां यह जरूर है कि यह विकास पर्यावरण और जनजातिय सांस्कृतिक अवशेषों को क्षति पहुंचाए बिना हो।  इसी में सबका भला है |

Monday, July 6, 2015

हवाला की याद दिलाता ललित मोदी कांड

ललित मोदी कांड का बवंडर थमने का नाम नहीं ले रहा है। संसद के मानसून सत्र में विपक्ष इस मामले को जोरदारी से उठाने के लिए कमर कसे है। हालांकि भाजपा ने अपनी तरफ से वसुंधरा राजे की बेगुनाही का हवाला देते हुए इस मामले को ठंडा कर दिया था और बात आई गई होने की हालत में पहुंच गई थी। लेकिन आडवाणी की छोटी सी टिप्पणी से इस कांड को जिंदा रहने के लिए कुछ सांसें और मिल गईं।
 आडवाणी ने इस कांड में सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे का नाम लेकर कुछ नहीं कहा, लेकिन राजनेताओं की विश्वसनीयता बरकरार रखने की बात कहते हुए हवाला कांड ने अपने इस्तीफे की याद दिलाई है। उनका कहना है कि बिना मांगे ही उन्होंने हवाला कांड में इसलिए इस्तीफा दे दिया था, ताकि जनता के बीच एक राजनेता की विश्वसनीयता को कोई चोट न पहुंचे।
 जिन्हें हवाला कांड याद होगा, उन्हें यह भी याद होगा कि देश की राजनीति में भूचाल लाने वाले उस कांड में बिना जांच हुए ही राजनेताओं को अदालत ने बरी करवा दिया था। हालांकि भारत के मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले को लेते वक्त यह कहा था कि इस कांड में इतने सुबूत हैं कि अगर हम दोषियों को सजा न दिला पाए तो हमें देश की अदालतें बंद कर देनी चाहिए। यहां याद दिलाने की बात यह है कि जब आडवाणी और दूसरे दसियों नेता अपने-अपने इस्तीफे दे रहे थे, तब उनमें से किसी ने भी हवाला कांड की निष्पक्ष जांच करवाने की मांग नहीं की। आडवाणी ने भी हवाला कांड की जांच की मांग नहीं थी। जब वे सुबूतों को दबवाकर बरी हो गए, तो उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि हम तो निर्दोष थे, हमें जान-बूझकर फंसाया गया है। इस तरह इतने बड़े कांड को सर्वोच्च न्यायालय में ले जाने की मेरी कोशिश पूरी तरह कामयाब नहीं रही। हां, इतना जरूर हुआ कि भारत के इतिहास में पहली बार 115 राजनेता और अफसर चार्जशीट हुए और उन्हें अपने पद छोड़ने पडे़।
 हवाला के अपने इस अनुभव के आधार पर ललित मोदी कांड की जांच की मांग उठायी जा सकती थी, लेकिन यहां गौर करने की बात यह है कि मीडिया जिस तरह खोजी पत्रकारिता कर रहा था, उसमें किसी को भी किसी भी क्षण नहीं लगा कि जांच-पड़ताल की बात उठा दे और अदालत के रास्ते पर चल पड़े। हो सकता है कि यह बात अब इसलिए न उठाई जाती हो कि न्यायालय के रास्ते ऐसे मामालों को सिल्टाने में यकीन कम होता जा रहा है। धारणा यह बन रही है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की स्थिति कमोवेश एक जैसी होती जा रही है और फिर बड़े नेताओं या बड़े अधिकारियों के मामले में न्याय को अंजाम न पहुंचाने में हमेशा ही मुश्किल आती रही है। अपराधशास्त्री तो इस मुश्किल का इतिहास पिछली कई सदियों से बताते हैं। अपराधशास्त्र पाठ्यक्रम में श्वेतपोश अपराध शीर्षक से पढ़ाए जाने वाले इस विषय को बड़ी बारीकि से समझा जाता है।
 ललित कांड में वसुंधरा का मामला देखें, तो बात यहां आकर गुम हो गई कि वसुंधरा और सुषमा स्वराज ने प्रत्यक्ष रूप से ऐसा क्या किया कि भाजपा उन्हें हटाने को मजबूर हो जाए। दो हफ्ते तक मीडिया में इन दोनों नेताओं और उनके परिवारों के व्यक्तिगत और व्यापार संबंधों को लेकर तथ्य सामने आए और इन दो नेताओं की पार्टी यानि भाजपा के प्रवक्ताओं को मीडिया के सामने मुस्तैदी से बैठे रहना पड़ा - उससे जो छवि मटियामेट होती है, वह तो हो ही गई। हालांकि छवि बिगड़ने से जितनी रोकी जा सकती थी, वह भी रोकी गई। आखिर यही तय हुआ होगा कि इतनी देर बाद अब इस्तीफों से या उन्हें हटाए जाने का क्या फायदा। फायदा यानि राजनीति नफा-नुकसान।
 कुल मिलाकर हवाला कांड में जिस तरह सभी संबंधित नेताओं को फिर से जनता के बीच स्थापित होने में कोई ज्यादा देर नहीं लगी यानि ज्यादातर नेता जनता की अदालत से जीतकर आ गए। उसी तरह ललित मोदी कांड में हम क्यों न मानकर चलें कि सारी बातें आयी गई हो जाएंगी और फिर वसुंधरा के मामले में तो यह बिल्कुल साफ ही है कि वे विपक्ष की नेता थीं। बच्चा-बच्चा ललित मोदी से उनके पारिवारिक मेलजोल के बारे में जानता था। वसुंधरा चुनाव जीती और फिर से पूरे धड़ल्ले से मुख्यमंत्री बन गईं। उन्हें यह मानने में न पहले कोई हिचक थी और न आज कोई हिचक है कि ललित मोदी से उनका बहुत पुराने समय से पारिवारिक मेलजोल है। यानि जनता के बीच यह धारणा बनाने में वसुंधरा सफल रहीं कि ललित मोदी कांड कोई सनसनीखेज या अपराध या घोटाले का बड़ा मामला नहीं और फिर भाजपा के प्रवक्ताओं ने और पार्टी के बड़े नेताओं ने घंटे-दर-घंटे टीवी चैनलों में बैठकर इस कांड को सामान्य घटना साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब ऐसे मुद्दे पर शोर मचाकर क्या हासिल किया जा सकता है। लोकतंत्र में सबसे बड़ा फैसला जनता का माना जाता है। अब अगर जनता ही वसुंधरा राजे को माफ कर देती हो और उन्हें दोबारा कुर्सी पर बैठने का अवसर देती है, तो फिर किसी को क्या गुरेज हो सकता है।