देश में मानसून की स्थिति पर नजर रखने वालों का ध्यान लगता है कि कहीं और लगा है। हर साल मौसम विभाग भी बहुत चैकस दिखता था। लेकिन इस बार मानसून आने के एक महीने पहले जो पूर्वानुमान मौसम विभाग ने बताए थे उसके बाद वह अपनी साप्ताहिक विज्ञप्ति जारी करने के अलावा ज्यादा कुछ बता नहीं पा रहा है। उसकी साप्ताहिक विज्ञप्तियों को देखें तो इस मानसून में अब तक औसत बारिश औसत से दस फीसद कम हुई है। जबकि मानसून के चार महीनों का अनुमान नौ फीसद ज्यादा बारिश होने का लगा था।
मानसून की अबतक की स्थिति का विश्लेषण करें तो दो अंदेशे पैदा हो गए हैं। एक यह कि अगर पूरे मानसून का अनुमान सही होने पर विश्वास करके चलें तो अब बाकी के दिनों में भारी बारिश का अंदेशा है और अगर अब तक के आंकड़ों के हिसाब से मानसून के मिजाज का अंदाजा लगाएं तो इस बार लगातार तीसरे साल बारिश औसत से कम होने का डर भी है।
अगर बारिश का अनुमान सही निकला तो आज की स्थिति यह है कि देश में एक साथ ज्यादा पानी गिरने से बाढ़ की आशंका सिर पर आकर खड़ी हो गई है। विशेषज्ञ जल विज्ञानी के के जैन के मुताबिक देश में सूखे पड़ने की आवृत्ति बढ़ रही है। आंकड़े बता रहे हैं कि पहले जहां 16 साल में एक बार सूखा पड़ता था वहां पिछले तीन दशकों से हर सोलह साल में तीन बार सूखा पड़ने लगा है। विशेषज्ञों की इस बात पर गौर करने का समय आ गया है कि बदलते हालात में हमें बारिश के पानी को बाकी के आठ महीनों के लिए रोक कर रखने के फौरन ही अतिरिक्त प्रबंध करने होंगे।
उधर इन विशेषज्ञों का यह अध्ययन भी ध्यान देने लायक हो गया है कि देश में जल संचयन या जल भंडारण की क्षमता बढ़ाने से हम बाढ़ की समस्या पर भी काबू पा लेंगे। अभी जो ज्यादा बारिश होने से अतिरिक्त पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में जाता है वह देश की 32 करोड़ हैक्टेयर जमीन पर जहां तहां कुंडों और पोखरों में जमा होकर नदियों को उफनने से रोक देगा और यही पानी सिंचाई की जरूरतों के दिनों में भी काम आने लगेगा। इससे बड़ी शर्मिंदगी की बात क्या हो सकती है कि किसी देश में उसी साल बाढ़ आए और उसी साल सूखा भी पड़ने लगे। सन् 2016 का यह साल इस जल कुप्रबंधन का जीता जागता उदाहरण बनने वाला है। हद की बात यह है कि वर्षा के सटीक अनुमान लगाने में सक्षम होने के बाद हमारी यह स्थिति है।
यह साल इस मायने में भी हमारी पोल खोलने जा रहा है कि अगर बाढ़ के हालात बने तो जानमाल का भारी नुकसान होगा। और अगर वर्षा का अनुमान गलत निकला, यानी पानी कम गिरा तो लगातार तीसरे साल सूखे के हालात को भुगतना पड़ेगा। तीसरी स्थिति सामान्य बारिश की बनती है। यह भी सुखद स्थिति का आश्वासन नहीं दे रही है। इसका तर्क यह है कि देश की आबादी हर साल दो करोड़ की रफ्तार से बढ़ रही है। यानी हमें हर साल डेढ़ फीसद ज्यादा पानी का प्रबंध करना ही करना है।
जल विज्ञानी बताते हैं कि अभी हमारी जल संचयन क्षमता सिर्फ 253 घन किलोमीटर पानी को रोककर रखने की है। यह पानी खेती की कुल जमीन में से आधे खेतों तक को सींचने के लिए पर्याप्त नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो खेती लायक देश की आधी से जयादा जमीन पर बारिश के भरोसे ही खेती हो रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण हो या अपने जल कुप्रबंध के कारण हो या फिर बढ़ती आबादी के कारण हो, यह बात सामने दिखने लगी है कि जरूरत के दिनों में पानी कम पड़ने लगा है।
भले ही अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के लिहाज से भारत आज जल विपन्न देशों की श्रेणी में आ गया हो, लेकिन आंकड़े बता रहे है कि अभी भी हमारे पास पांच सौ घन किलोमीटर पानी रोकने की गुंजाइश बाकी है। यानी हम अपनी जल भंडारण क्षमता दुगनी करने लायक अभी भी हैं। बस दिक्कत यही है कि जल परियोजनाओं पर खर्चा बहुत होता है। मोटा अनुमान है कि जल के संकट से उबरने के लिए कम से कम एकमुश्त पांच लाख करोड़ का निवेश चाहिए। इससे कम में अब काम इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि फुटकर-फुटकर जो काम हम इस समय कर रहे हैं वह तो बढ़ती आबादी की न्यूनतम जरूरत पूरी करने के लिए भी नाकाफी है।
इन तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस बार मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही निकलने के बाबजूद हम देश में पर्याप्त अनाज, दालों और दूसरे कृषि उत्पादन को लेकर निश्चिंत नहीं हैं। कृषि प्रधान देश में जहां दो तिहाई आबादी आज भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर हो, वहां देश की मुख्य नीति अगर कृषि को केंद्र में रखकर न हो तो आने वाले दिनों में संकट को कौन रोक सकता है ?