Monday, November 25, 2019

चुनाव सुधार के प्रणेता टी एन शेषन के साथ ऐतिहासिक क्षण

भारत में पहली बार चुनाव सुधार लागू करने वाले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त और मेरे घनिष्ठ मित्र श्री टी एन शेषन के अभी हाल में हुए निधन पर भावपूर्णं श्रद्धांजली। श्री बाँकेबिहारी जी अपने चरणों में उन्हें स्थान दें। यद्यपि वो आयु में मुझसे 22 वर्ष बड़े थे पर हमारी मित्रता समान स्तर पर थी। 
चुनाव सुधार
भारत में चुनाव सुधार का ऐतिहासिक कार्य करके उन्होंने विश्व भर में नाम कमाया। उस अभियान का अनौपचारिक दफ्तर कालचक्र समाचार ट्रस्टका हमारा दिल्ली दफ्तर ही था। जहां वो अक्सर बैठकों के लिए आते थे। क्योंकि उनके इस अभियान में हमने भी सक्रिय योगदान दिया।  
देश का दौरा साथ साथ किया
देश को जगाने के उद्देश्य से 1994 से 1996 के बीच उनके साथ मैंने भी चुनाव सुधारों पर देश भर में सैंकड़ों जन सभाओं को संबोधित किया। हम दौनों सुबह जल्दी के प्लेन से दिल्ली से निकलते तो कभी मुम्बई, हैदराबाद, भुवनेश्वर  जैसे शहरों में एक एक दिन में कई सभाओं को सम्बोधित करते । हम विश्वविध्यालयों  के छात्रों, चेम्बर ओफ कामर्स, बॉर काउन्सिल, प्रेस कॉन्फ्रेन्स और शाम को एक विशाल जन सभा  को सम्बोधित करके रोज दिल्ली लौट आते थे। 
भारी भीड़ उमड़ती थी
जनता में उन्हें देखने सुनने का बड़ा उत्साह था। हवाई अड्डे से जब हमारी कारों का लंबा काफिला बाहर निकलता तो हजारों लोग उनकी एक झलक पाने को बेताब रहते । चूँकि 1993 में मैंने राजनीतिक भ्रष्टाचार और आतंकवाद के विरूद्ध जैन हवाला कांडउजागर करके देश में एक बड़ी जंग छेड़ दी थी, तो उन्होंने ही प्रस्ताव रखा क्यों न हम दौनों साथ साथ देश में जन सभाएँ करें। हमारी  जनसभाओं में, बिना राजनीतिक हथकंडों अपनाए या खर्चे किए, स्वतः ही भारी भीड़ उमड़ती थी । 
नरसिंह राव ने दिया झटका 
उनकी बढ़ती लोकप्रियता और निरंकुश स्वभाव को देखकर प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने अचानक एक सदस्यी चुनाव आयोग में दो सदस्य और जोड़ दिए। तब शेषन युगल छुट्टी पर अमरीका में थे। उन्हें बहुत झटका लगा। फोन पर उन्होंने मुझसे आगे की रणनीति पर लंबी बात की। जब वो भारत लौटे तो अपने घर पर अकेले में मेरे कंधे पर सिर रखकर खूब रोए थे। बोले नरसिंह राव ने मेरे साथ बहुत धोखा किया। 
शेषन, किरण बेदी, के जे एलफोंज और मैं....
जब जनवरी 1996 में जैन हवाला कांड में देश के 115 ताकतवर नेता और अफसर चार्जशीट हो गये तो मेरे दिल्ली दफ्तर के बाहर विदेशी टीवी चैनलों की कतार लग गयी, जो मुझे इंटरव्यू करने आते थे। उसी गहमा-गहमी के बीच किरण, एलफी और शेषन सारा दिन मेरे दफ्तर में बैठक करते थे। हम लोग एक देशव्यापी अभियान शुरू करने की योजना बना रहे थे। कभी कभी इन बैठकों में मुम्बई के बहुचर्चित म्यूनिसिपल कमिश्नरजी. आर. खेरनार भी शामिल होते थे। जिन्होंने दाऊद की अवैध संपत्तियों पर बुल्डोजर चलाये थे ।
भारत यात्रा का बड़ा प्लान 
हमारी  योजना थी कि शेषन चेन्नई से, एल्फी त्रिवेंद्रम से, किरण अमृतसर से, खेरनार मुम्बई से और मैं कलकत्ते से अलग अलग रथों पर सवार होकर निकलें और मार्ग में जन सभाओं को सम्बोधित करते हुए भारत के केंद्र नागपुर में आकर मिलें और तब देश में एक वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था की घोषणा करें। ये चिंतन बैठकें हफ्तों चली। 
बाहर पत्रकार उत्सुकता में भीड़ लगाए खड़े रहते थे। पर हमारी वार्ता गोपनीय रहती क्योंकि जब तक कुछ तय न हो  हम प्रेस से कुछ साझा नहीं करना चाहते थे। पर फिर बात बनी नहीं। क्योंकि मेरे अलावा ये चारों सरकारी अफसर थे और देश में क्रांति लाने लिए अपनी नौकरी दांव पर लगाने को तैयार नहीं थे । 
जब वो फिल्मी सितारों के सामने मंच पर थिरके.......
एक बार वो, उनकी पत्नी, मेरी पत्नी मीता नारायण और मैं मुम्बई में फिल्मफेअर अवार्डसमारोह में गए। पूरे फिल्म जगत के सितारे भारी तादाद में मौजूद थे। लता मंगेशकर जी हमारे साथ ही अगली पंक्ति में बैठी थी। तभी अचानक शत्रुघ्न सिन्हा शेषन को चुपचाप उठाकर मंच के पीछे ले गये। वहाँ  उन्हें सिल्क का धोती-कुरता पहनाया। सर्प्राइज आइटम की तरह जब शेषन हलके-हलके थिरकते हुए मंच पर अवतरित हुए तो पीछे से गाना बज रहा था , तू चीज बड़ी है मस्त मस्त। देश में एक गुस्सैल और कठोर छवि वाले शेषन को  इस मस्ती में देखकर फिल्मी दुनियाँ के सितारे भी मस्त हो गए और सब ताली की थाप देकर झूमने लगे। 
देशभक्त ट्रस्ट

वो, उनकी पत्नी श्रीमती जया शेषन और मैं उनके द्वारा स्थापित देशभक्त ट्रस्टके न्यासी भी थे। हम दोनों ने अपनी अपनी पुस्तकों में भी एक दूसरे का उल्लेख किया है। अभी कुछ वर्ष पहले जब मैं आईआईटी चेन्नाई में छात्रों को सम्बोधित करने  गया था तब उनके घर भी गया था। दोनों बड़े स्नेह से मिले थे। तब एक चमत्कारिक आध्यात्मिक घटना भी घटी थी जो मैं कभी भूल नहीं पाउँगा। हम दोनों परिवारों ने 1994 से 1996 के उस दौर में मिलकर अनेक धार्मिक उत्सव और यात्राएँ साथ-साथ की थीं। अब तो उनकी केवल स्मृतियाँ शेष रह गयीं।

Monday, November 18, 2019

सूचना के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय की मोहर

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का दफतर भी सूचना के अधिकार कानून के दायरे में है। यह बात खुद सुप्रीम कोर्ट ने कह दी है। इससे एक बार फिर पक्का हो गया है कि यह कानून कितना महत्वपूर्ण है। ये अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट की इस व्याख्या का ज्यादा विश्लेषण नहीं हुआ। जबकि इस फैसले से भारतीय लोकतंत्र के कई खास पहलुओं पर भी बात की जा सकती थी।
फैसले से एक बात साफ हुई है कि पारदर्शिता और जवाबदेही किसी भी तरह से किसी की स्वतंत्रता में बाधक नहीं हो सकती। इस फैसले ने यह भी याद दिलाया कि लोकतंत्र में लोक सर्वोपरि है। लोक यानी नागरिकों के सामने सरकारी कामकाज पारदर्शी होना चाहिए।
फैसले का असर दूर तक होगा। इस कानून को सरकारी कामकाज में अड़चन मानने वालों को भारी झटका लगा है। वरना ऐसा माहौल बनाने की कोशिश होने लगी थी कि इस कानून का दुरूपयोग ज्यादा हो रहा है। ज्यादा कहने की जरूरत नहीं कि कुछ सूचनाओं को जनहित और देशहित के खिलाफ बताकर गोपनीय बनाए रखने के तर्क भी दिए जाते हैं। विशेष मामलों में यह तर्क सही भी हो सकता है लेकिन इसकी आड़ में जरूरी सूचनाओं के छुपाव की भी उतनी ही गुंजाइश बनती है। बहरहाल परम निरापद तो कोई भी प्रावधान नहीं होता। फिर भी इतना तय है कि इस कानून को सरकारी कामकाज में अड़चन मानने वालों के हौसले पस्त पड़ेंगे। उससे भी बड़ी बात यह कि अब इस कानून को और ज्यादा गंभीरता से लिए जाने का माहौल बनेगा।
फैसले का आगा पीछा देखा जाता तो चर्चा यह भी होती कि अदालत ने नागरिकों को कितनी अहमियत दी। राजनीतिक भाषा में लोकतंत्र का निर्माता ही नागरिक है। इस नाते वह ही संप्रभु है। लेकिन भारतीय लोकतंत्र में  उसकी संप्रभुता उसके बनाए कानून तक ही है। उसके प्रतिनिधि उसकी आंकाक्षा और हित में कानून बनाते हैं।  इन्ही कानूनों से सभी बंधे होते हैं। इस तरह से अपनी राजव्यवस्था में कानून ही संप्रभु है। यानी यह कहना गलत होगा कि कुछ नागरिक अपने रवैए से सरकारी कामकाज में अड़चन डाल सकते हैं।  किसी भी कानून बनने की प्रकिया में सबसे पहले यही इंतजाम सोचा जाता है जिससे कानून का बेजा इस्तेमाल न हो सके। सूचना के अधिकार का कानून इतना मामूली नहीं कि कुछ अवांछित तत्व इसका बेजा फायदा उठा ले जाएं। वैसे चलन यही है कि बेजा फायदा उठाने की कूवत ताकतवरों में ही होती है और सरकारी ओहदेदारों की ताकत कौन नहीं जानता। अपनी जवाबदेही से बचने की ताकत तो वे सबसे पहले हासिल करते हैं। लोकसेवकों की इसी ताकत से निपटने के लिए नागरिकों के लिए यह कानून रूपी हथियार बनाया गया था।
यह कानून सन 2005 में बना था। यानी अब से 14 साल पहले नागरिकों के सामने लोक सेवकों को जबाबदेह बनाने के मकसद से यह बना कानून था। और वाकई इसका असर इतना जबर्दस्त हुआ कि तब से अब तक तमाम सरकारें और अपनी नौकरशाही को चौकन्ना होना पड़ा कि कहीं कोई सवाल न पूछ ले। और इसीलिए दिन पर दिन आरटीआई नामके इस कानून के दुर्गणों की चर्चा बढ़ाई जा रही थी। लेकिन अदालत ने कह दिया है कि इस कानून से तो हम  भी बंधे हैं और सही बंधे हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कानून से अंसंतुष्टों को भारी झटका लगा है।
सरकारी कामकाज में स्वतंत्रता के सवाल का जवाब भी इस फैसले में बिल्कुल साफ-साफ हैं? वैसे एक सवाल पूछा जा सकता है कि सरकारी लोग जवाब न देने की स्वतंत्रता चाहते क्यों हैं? बात को गहराई में जाकर देखा जाएगा तो स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच फर्क करने की बात उठेगी। जवाबदेही न हो तो स्वच्छंदता बढ़ती है। भ्रष्टाचार होता है।
फैसले का एक पहलू पारदर्शिता को लेकर है। इसी दशक में  देश में जब भ्रष्टाचार के खिलाफ गदर हुआ था तब पारदर्शिता पर ज्यादा बात नहीं हुई थी बल्कि एक नए प्रकार की पुलिस यानी लोकपाल की मांग हुई थी। बस लोकपाल के आगे एक विशेषण लगा था जन यानी जन लोकपाल की मांग की जा रही थी। क्या वह जन लोकपाल लोक सेवक से इतर कुछ हो सकता था। बहरहाल लोकपाल जब भी अपने वास्तविक स्वरूप में आएगा उसके सामने भी पारदर्शिता और जवाबदेही का मसला आना तय है। उसे भी सूचना के अधिकार से संपन्न नागरिकों के सवालों के जवाब देना ही पड़ेंगे। वह जवाब देने से बच भी कैसे सकता है? आखिर वह लोकसेवक ही होगा, उसे बताना पड़ेगा कि वह भ्रष्टाचार की किन किन शिकायतों पर कितनों से जांच कर रहा है और सवाल पूछे जाने के दिन तक अपनी जांच कहां तक की?

कुलमिलाकर भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिकों के पास आज तक जो भी अधिकार हैं उनमें सूचना का अधिकार अहम बनता जा रहा है। अपना सर्वोच्च न्यायालय अगर इसी तरह के फैसले करता रहा तो वह लोकतंत्र को मजबूत करने का जरूरी काम भी करता रहेगा।

Monday, November 11, 2019

श्रीराम मन्दिर आंदोलन के प्रणेता याद आते हैं

आज हम हिन्दुओं के सदियों पुराने ज़ख्मों पर मरहम लगा है इस ऐतिहासिक अवसर पर उन हज़ारों सन्तों   भक्तों को हमारी भावभीनी श्र्द्धांजली जिन्होंने पिछली सदियों में भगवान श्रीराम की जन्मभूमि की मुक्ति के लिए संघर्ष करते हुए अपने प्राणों का बलिदान किया। 

उल्लास के इस इस अवसर पर राम जन्मभूमि मुक्ति के लिए इस वर्तमान आंदोलन को शुरू करने में तीन प्रमुख हस्तियों के योगदान को विशेष रूप से याद करना आवश्यक है  

इस क़तार में सबसे आगे खड़े हैं ; स्वर्गीय श्री दाऊ दयाल खन्ना जी, जो मुरादाबाद से लम्बे समय तक विधायक और श्री चन्द्रभान गुप्ता की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे। उन्होंने सबसे पहले 1983 में एक विस्तृत तार्किक आलेख तय्यार करके तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी को प्रस्तुत किया। जिसमें अयोध्या, काशी और मथुरा को अवैध रूप से बनी मस्जिदों से मुक्त करके भव्य मंदिर बनाने को  हिंदू समाज को सौंपे जाने की माँग की थी। 

इंदिरा जी ने इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया तब खन्ना जी ने श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति समिति बना कर इस आंदोलन की शुरुआत 1983 में की और अपने जीवन के अंत तक  कांग्रेसी रहते हुए ही इस आंदोलन से जुड़े रहे जल्दी ही विहिप और बाद में भाजपा  और संघ भी इस आंदोलन से पूरी ऊर्जा के साथ जुड़ गए  

दूसरे महान व्यक्ति जिनके ऐतिहासिक योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता, वो थे प्रातः स्मरणीय विरक्त संत ‘राम जन्मभूमि मुक्ति समिति’ के ‘मार्गदर्शक मंडलके अध्यक्ष श्रद्धेय स्वामी वामदेव जी महाराज। जिन्होंने साधुओं की अपनी विशाल विरक्त मंडली के साथ पूरे भारत के कोने कोने में जाकर सभी साधु संतों को श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन से जोड़ने का ऐतिहासिक कार्य किया। उनके संदर्भ में एक हृदय विदारक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा जिसकी जानकारी देश में दो चार संतों के अलावा किसी को नहीं है। 

जब अक्तूबर 30,1990 को कार सेवा करने बड़ी श्रद्धा से देश के कोने कोने से अयोध्या पहुँचे लाखों निहत्थे कारसेवकों पर पुलिस ने फ़ाइरिंग करके सैंकड़ों को शहीद कर दिया था तो उस भयानक रात अयोध्या में मौत का सन्नाटा था। गलियों में जहां तहाँ भक्तों के शव बिखरे पड़े थे। ऐसे आतंक के माहौल में आंदोलन के सभी नेता जहां तहाँ छिपे थे। 

पर एक देवता जो सारी रात अकेला उन लाशों के बीच लाठी लेकर घूमता रहा , वो थे बूढ़े, अशक्त और अस्वस्थ श्रद्धेय स्वामी वामदेव जी महाराज। ब्रहम्मुहूर्त में जब वे आश्रम में नहीं दिखे तो घबराहट में साथ के साधुओं ने उनको खोजना शुरू किया तो स्वामी जी गली में लाठी लिये खड़े मिले चौंककर सबने पूछा महाराज ! आप यहाँ क्या कर रहे हैं ?उनका उत्तर सुनकर निश्चय ही आपके  नेत्र सजल हो जाएँगे। वे बोले , “भगवानमैं रात भर इन शहीदों के शवों की रक्षा करता रहा , जिससे गली के कुत्ते इन भक्तों के पवित्र शवों को अपना ग्रास बना सकें 

तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने स्वामी वामदेव जी से तब कहा था, “आप विहिप को छोड़ दीजिए, मैं कल ही आपको राम जन्मभूमि दे दूंगा! “स्वामी जी ने कहाआप लोकसभा मे आज ये घोषणा कीजिए, मैं कल ही विहिप छोड़ दूंगा।” 

नरसिंह राव जी ने एक बार उनसे कहा “आप सुरक्षा गार्ड ले लें।स्वामी जी बोले “गर्भ मे जिसने परीक्षित की रक्षा की थी, वे ही मेरा रक्षक है“। अयोध्या में ढाँचा गिरने के बाद वे सीधे हरिद्वार आए ,उनका कमरा तैयार नहीं था, तो वे मौनी बाबा के तखत पर ही लेट गए। बाबा ने पूछा महाराजआपका काम  अधूरा रह गया मंदिर कब बनेगा ? “ स्वामी वामदेव जी का उत्तर था, “मेरे तीन संकल्प थे; 1. जन्मभूमि से पराधीनता का चिन्ह मिटे। 2. भगवा वस्त्रधारी और श्वेतवस्त्रधारी संप्रदाय के भेद को भूलकर एक मंच पर  जायँ। 3. देश  का हिंदू जाग जाय। राम कृपा  से तीनों संकल्प पूरे हुए, अब मंदिर कब बनेगा ये रामलला जाने।रामलला ने आज ये भी पूरा कर दिया। स्वामी वामदेव जी का चित्र कार सेवकों के हुए नरसंहार की टीवी रिपोर्ट जो हमने 1990 में अयोध्या में बनाई थी उसे कालचक्र को यूटूब (Kalchakra Vol. 3) पर देखा जा सकता है। 

इस क्रम में तीसरा नाम श्री अशोक सिंघल जी का है। जो श्री दाऊ दयाल खन्ना जी से मिलने मुरादाबाद  में उनके घर गए और उनके इस आंदोलन को समर्थन देने का वायदा किया और फिर जीवन के अंत तक श्रीराम मंदिर के लिए लड़ते रहे। 

आज ये तीनों विभूतियाँ निश्चित रूप से भगवान श्री राम के नित्य निवास ‘साकेतधाम’ के पार्षद हैं और वहीं आकाश से इस निर्णय को एकमत से देने वाले सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों, विशेषकर न्यायमूर्ति श्री रंजन गोगोई और उनके मुसलमान साथी न्यायमूर्ति श्री अब्दुल नज़ीर साहब को आशीर्वाद दे रहे हैं। इस हर्षोल्लास की घड़ी में हम इन तीनों महान विभूतियों सहित ही उन सभी दिव्य भक्तों के श्रीचरणों में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं, जिन्होंने किसी भी रूप में भगवान श्रीराम की जन्मभूमि मुक्ति के इस आंदोलन में थोड़ा सा भी योगदान किया।