पीवी सिंधु के रजत पदक के पीछे सबसे बड़ा योगदान उसके कोच पुलैला गोपीचंद का है। जिनकी वर्षों की मेहनत से उनकी शिष्या ओलंपिक में पहली बार ऐसा पदक जीत पाई। पुलैला गोपीचंद की ही देन थी सानिया मिर्जा। इसी काॅलम में आज से 15 वर्ष पहले मैंने लिखा था ‘शाबाश पुलैला गोपीचंद’। ये तब की बात है। जब इंग्लैंड ओपन टूर्नामेंट में पुलैला गोपीचंद ने विश्वस्तरीय खिताब जीता था और वह रातों-रात भारत में एक सेलीब्रिटी बन गए थे। उस वक्त कोकाकोला कंपनी ने करोड़ों रूपए का आॅफर गोपीचंद को दिया, इस बात के लिए कि वे उनके पेय को लोकप्रिय बनाने के लिए विज्ञापन में आ जाएं। पर गोपीचंद ने ये प्रस्ताव ठुकरा दिया, जबकि उन्हें उस वक्त पैसे की सख्त जरूरत थी। गोपीचंद का कहना था कि जिस पेय को मैं स्वयं पीता नहीं और मैं जानता हूं कि इसके पीने से शरीर को हानि पहुंचती है, उसके विज्ञापन को मैं कैसे समर्थन दे सकता हूं। गोपीचंद के इस आदर्श आचरण पर ही पर मैंने वह लेख लिखा था। जबकि दूसरी तरफ अमिताभ बच्चन हों या आमिर खान। पैसे के लिए ऐसे विज्ञापनों को लेने से परहेज नहीं करते, जिनसे लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है।
इंग्लैंड में खिताब जीतने के बाद गोपीचंद की इच्छा थी, एक बैडमिंटन एकेडमी खोलने की। पर उसके लिए उनके पास पैसा नहीं था। उन्होंने अपना घर गिरवी रखा। मित्रों से सहायता मांगी, पर बात नहीं बनीं। जो कुछ जमा हुआ, वो विश्वस्तरीय एकेडमी बनाने के लिए काफी नहीं था। आखिरकार आंध्र प्रदेश के एक उद्योगपति ने कई करोड़ रूपए की आर्थिक मदद देकर पुलैला गोपीचंद की एकेडमी स्थापित करवाई, जहां आज ओलंपिक स्तर के खिलाड़ी तैयार होते हैं। दुनियाभर से नौजवान गोपीचंद से बैंडमिंटन सीखने यहां आते हैं। सुबह 4 बजे से रात तक गोपीचंद अपने बैडमिंटन कोर्ट में खड़े दिखते हैं। वे कड़े अनुशासन में प्रशिक्षण देते हैं। यहां तक कि आखिर के एक-दो महीना पहले उन्होंने सिंधु से उसका मोबाइल फोन तक छीन लिया, ये कहकर कि केवल खेल पर ध्यान दो, किसी से बात मत करो।
ऐसी ही कहानी हमारे दूसरे पदक विजेताओं की रही है। चाहे वो शूटिंग में अभिनव बिंद्रा हों, जिनके धनी पिता ने उनके लिए निजी शूटिंग रेंज बनवा दिया था या दूसरे कुश्ती के पहलवान या धावक हों। सब किसी न किसी गुरू की शार्गिदी में आगे बढ़ते हैं। दूसरी तरफ सरकारी स्तर पर अरबों रूपया स्पोर्टस के नाम पर खर्च होता है। पर जो अधिकारी और राजनेता स्पोर्टस मैनेजमेंट में घुसे हुए हैं, वे केवल मलाई खाते हैं और खिलाड़ियों व उनके कोच बुनियादी सुविधाओं के लिए धक्के खाते रहते हैं।
‘भाग मिल्खा भाग’ या ‘चक दे इंडिया’ जैसी फिल्मों में और अखबारों की खबरों में अक्सर ये बताया जाता है कि मेधावी खिलाड़ियों को ऊपर तक पहुंचने में कितना कठिन संघर्ष करना पड़ता है। जो हिम्मत नहीं हारते, वो मंजिल तक पहुंच जाते हैं। सवा सौ करोड़ के मुल्क भारत में अगर ओलंपिक पदकों का अनुपात देखा जाए, तो हमारे खेल मंत्रालय और उसके अधिकारियों के लिए चुल्लूभर पानी में डूब मरने की बात है।
समय आ गया है कि जब सरकार को अपनी खेल नीति बदलनी चाहिए। जो भी सफल और मेधावी खिलाड़ी हैं, उन्हें अनुदान देकर प्रशिक्षण में लगाना चाहिए और उनके शार्गिदों के लिए सारी व्यवस्था उनके ही माध्यम से की जानी चाहिए। खेल में रूचि न रखने वाले नकारा और भ्रष्ट अधिकारियों की मार्फत नहीं। क्योंकि कोच अपने शार्गिदों को बुलंदियों तक ले जाने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है। जैसे गोपीचंद ने अपना घर तक गिरवी रख दिया, लेकिन कोई सरकारी अधिकारी किसी खिलाड़ी को बढ़ाने के लिए अपने आराम में और मौज-मस्ती में कोई कमी नहीं आने देगा। चाहे खिलाड़ी कुपोषित ही रह जाए। कोच अपने शार्गिदों का हर तरह से ख्याल रखेगा, इसलिए खेलों का निजीकरण होना बहुत जरूरी है। हम पहले भी कई बार लिख चुके हैं कि खेल प्राधिकरणों और विभिन्न खेलों के बोर्ड जिन राजनेताओं से पटे हुए हैं, उन राजनेताओं को उस खेल की तनिक परवाह नहीं। उनके लिए तो खेल भी मौज-मस्ती और पैसा बनाने का माध्यम है। इसलिए सरकारी स्तर पर जो खेलों के आधारभूत ढांचें विकसित किए गए हैं, उन्हें योग्य और सक्षम खिलाड़ियों के प्रबंध में सौंप देना चाहिए। जिससे खेल की गुणवत्ता भी बनी रहे और साधनों का सदुपयोग भी हो। तब फिर एक पुलैला गोपीचंद नहीं या एक पीवी सिंधु नहीं, बल्कि दर्जनों कोच और दर्जनों ओलंपिक विजेता सामने आएंगे। वरना यही होगा कि भारत की बेटियां आंसू न पोंछती, तो हमारा पूरा ओलंपिक दल मुंह लटकाए लुटा-पिटा रियो से लौटकर आ जाता।
इंग्लैंड में खिताब जीतने के बाद गोपीचंद की इच्छा थी, एक बैडमिंटन एकेडमी खोलने की। पर उसके लिए उनके पास पैसा नहीं था। उन्होंने अपना घर गिरवी रखा। मित्रों से सहायता मांगी, पर बात नहीं बनीं। जो कुछ जमा हुआ, वो विश्वस्तरीय एकेडमी बनाने के लिए काफी नहीं था। आखिरकार आंध्र प्रदेश के एक उद्योगपति ने कई करोड़ रूपए की आर्थिक मदद देकर पुलैला गोपीचंद की एकेडमी स्थापित करवाई, जहां आज ओलंपिक स्तर के खिलाड़ी तैयार होते हैं। दुनियाभर से नौजवान गोपीचंद से बैंडमिंटन सीखने यहां आते हैं। सुबह 4 बजे से रात तक गोपीचंद अपने बैडमिंटन कोर्ट में खड़े दिखते हैं। वे कड़े अनुशासन में प्रशिक्षण देते हैं। यहां तक कि आखिर के एक-दो महीना पहले उन्होंने सिंधु से उसका मोबाइल फोन तक छीन लिया, ये कहकर कि केवल खेल पर ध्यान दो, किसी से बात मत करो।
ऐसी ही कहानी हमारे दूसरे पदक विजेताओं की रही है। चाहे वो शूटिंग में अभिनव बिंद्रा हों, जिनके धनी पिता ने उनके लिए निजी शूटिंग रेंज बनवा दिया था या दूसरे कुश्ती के पहलवान या धावक हों। सब किसी न किसी गुरू की शार्गिदी में आगे बढ़ते हैं। दूसरी तरफ सरकारी स्तर पर अरबों रूपया स्पोर्टस के नाम पर खर्च होता है। पर जो अधिकारी और राजनेता स्पोर्टस मैनेजमेंट में घुसे हुए हैं, वे केवल मलाई खाते हैं और खिलाड़ियों व उनके कोच बुनियादी सुविधाओं के लिए धक्के खाते रहते हैं।
‘भाग मिल्खा भाग’ या ‘चक दे इंडिया’ जैसी फिल्मों में और अखबारों की खबरों में अक्सर ये बताया जाता है कि मेधावी खिलाड़ियों को ऊपर तक पहुंचने में कितना कठिन संघर्ष करना पड़ता है। जो हिम्मत नहीं हारते, वो मंजिल तक पहुंच जाते हैं। सवा सौ करोड़ के मुल्क भारत में अगर ओलंपिक पदकों का अनुपात देखा जाए, तो हमारे खेल मंत्रालय और उसके अधिकारियों के लिए चुल्लूभर पानी में डूब मरने की बात है।
समय आ गया है कि जब सरकार को अपनी खेल नीति बदलनी चाहिए। जो भी सफल और मेधावी खिलाड़ी हैं, उन्हें अनुदान देकर प्रशिक्षण में लगाना चाहिए और उनके शार्गिदों के लिए सारी व्यवस्था उनके ही माध्यम से की जानी चाहिए। खेल में रूचि न रखने वाले नकारा और भ्रष्ट अधिकारियों की मार्फत नहीं। क्योंकि कोच अपने शार्गिदों को बुलंदियों तक ले जाने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है। जैसे गोपीचंद ने अपना घर तक गिरवी रख दिया, लेकिन कोई सरकारी अधिकारी किसी खिलाड़ी को बढ़ाने के लिए अपने आराम में और मौज-मस्ती में कोई कमी नहीं आने देगा। चाहे खिलाड़ी कुपोषित ही रह जाए। कोच अपने शार्गिदों का हर तरह से ख्याल रखेगा, इसलिए खेलों का निजीकरण होना बहुत जरूरी है। हम पहले भी कई बार लिख चुके हैं कि खेल प्राधिकरणों और विभिन्न खेलों के बोर्ड जिन राजनेताओं से पटे हुए हैं, उन राजनेताओं को उस खेल की तनिक परवाह नहीं। उनके लिए तो खेल भी मौज-मस्ती और पैसा बनाने का माध्यम है। इसलिए सरकारी स्तर पर जो खेलों के आधारभूत ढांचें विकसित किए गए हैं, उन्हें योग्य और सक्षम खिलाड़ियों के प्रबंध में सौंप देना चाहिए। जिससे खेल की गुणवत्ता भी बनी रहे और साधनों का सदुपयोग भी हो। तब फिर एक पुलैला गोपीचंद नहीं या एक पीवी सिंधु नहीं, बल्कि दर्जनों कोच और दर्जनों ओलंपिक विजेता सामने आएंगे। वरना यही होगा कि भारत की बेटियां आंसू न पोंछती, तो हमारा पूरा ओलंपिक दल मुंह लटकाए लुटा-पिटा रियो से लौटकर आ जाता।
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