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Monday, August 1, 2016

वेतन आयोग या विनाश आयोग

    मोदी सरकार ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर सरकारी कर्मचारियों को बड़ी सौगात सौंप दी। ये बात दूसरी है कि सरकारी कर्मचारियों का एक ना एक वर्ग हमेशा ऐसा होता है, जिसे कितना भी मिल जाए, कभी संतुष्ट नहीं होता। पर असलियत यह है कि वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करके जहां एक तरफ सरकार अपने कर्मचारियों को खुश करती है, वहीं इसके कारण समाज में भारी हताशा और निराशा फैलती है। जिसका सीधा असर लोगों की कार्यक्षमता पर पड़ता है। 

    यह सर्वविदित है कि सरकारी कर्मचारियों में कुछ अपवादों को छोड़कर ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। चाहें भारत का कोई भी हिस्सा क्यों न हो, इनके भ्रष्टाचार से आपको पूरा समाज त्रस्त मिलेगा। इसके अलावा सरकारी कर्मचारियों की कार्यकुशलता, निर्णय लेने की क्षमता, जोखिम उठाने की क्षमता, कार्य के प्रति समर्पण, आचरण में ईमानदारी को लेकर तमाम सवाल खड़े हैं। यह स्थापित सत्य है कि निजी क्षेत्र के कर्मचारी, चाहे वे चपरासी हों या कंपनी के प्रबंध निदेशक, सब रात-दिन कड़ी मेहनत करते हैं, लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा की भावना से जूझते हैं। उन्हें अवकाश भी सीमित मिलता है और वे सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों से ज्यादा घंटे कार्य करते हैं। सरकारी कर्मचारियों के मुकाबले बहुत कम छुट्टी लेते हैं और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सदैव तनाव में रहते हैं। उन्हें प्रायः मेडीकल, हाउसिंग, एलटीसी, यातायात और पेंशन जैसी कोई सुविधा नहीं मिलती। 

ऐसे में यह स्वाभाविक है कि वे अपने जीवन की तुलना सरकारी कर्मचारियों से करते हैं। उन्हें इस बात पर भारी नाराजगी होती है कि निठ्ल्ले और भ्रष्ट लोग तो बिना कुछ किए सभी ऐशो-आराम और नौकरी में तरक्कियां लेने का मजा लूटते हैं। जबकि इतना काम करके भी इन्हें कभी भी नौकरी से निकाले जाने का डर बना रहता है। 

    इसलिए जब वेतन आयोग के कहने पर सरकार अपने कर्मचारियों की तनख्वाहें एवं भत्ते बढ़ाती है, तो उससे समाज में भारी असंतुलन पैदा हो जाता है। जब अच्छे काम करने वाले को कोई तरक्की न मिले और निकम्मे व भ्रष्ट अधिकारियों को तरक्की और छुट्टी दोनों मिले, तो स्वाभाविक है कि सामान्य जन के मन में क्षोभ उत्पन्न होगा। इससे उनकी कार्यक्षमता घटेगी। उदाहरण के तौर पर दिल्ली जैसे शहर में एक सरकारी कार ड्राइवर को आराम से 30-35 हजार रूपए महीने तनख्वाह मिलती है। जबकि निजी क्षेत्र के ड्राइवरों को मात्र 10-15 हजार रूपए महीने। जबकि उन्हें 24 घंटे ड्यूटी पर रहता होता है। ऐसे माहौल में यह स्वाभाविक है कि देशभर के नौजवानों की रूचि सरकारी नौकरी पाने की तरफ ज्यादा होती है व मुकाबले निजी क्षेत्र में जाने की। नतीजतन सरकारी नौकरी का बाजार महंगा होता जाता है। एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी की नियुक्ति में भी 10-10 लाख रूपए तक की रिश्वत चलती है। गरीब कहां से लाए इतना पैसा ? 

    मोदीजी से हमेशा क्रांतिवारी और ठोस निर्णय लेने की अपेक्षा की जाती रही है। ये जो सवाल हमने यहां उठाया है, उसे हम मोदीजी से पूछना चाहते हैं कि एक-सा काम करने वालों की आमदनी में इतना भारी अंतर क्यों रखा जाए ? या तो वेतन आयोग की सिफारिशों को कूड़ेदान में फेंका जाए, ताकि कुछ क्रांतिवारी नीतियां लागू की जा सकें। जिससे निजी क्षेत्र के कर्मठ हिंदुस्तानियों को उत्साह मिले और दोनों वर्गों के बीच आय का अंतर इतना ज्यादा न हो। ये कठिन निर्णय होंगे। पर आज नही ंतो कल मोदीजी को ऐसे कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे। 

    समय आ गया है कि मोदीजी निजी क्षेत्र के योगदान को देखें, परखें और ऐसी नीतियां बनाएं, जिससे उद्यमियों को प्रोत्साहन मिले। सरकारी वजीफों या अनुदान जैसी सहायता के लिए वे सरकार का मुंह न देखें। अपने संसाधन, योग्यता और अनुभव के आधार पर तेजी से आगे बढ़ें और देश को बढ़ाएं। 

    आज से 15 वर्ष पहले जब अमेरिका में मंदी छायी हुई थी, तो वहां के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने अपने देश के युवाओं से एक जोरदार अपील की थी। उसका मूल मंत्र ये था कि कोई व्यक्ति सरकारी नौकरी के भरोसे न बैठा रहे और अपने-अपने उद्यम खड़े कर आत्मनिर्भर बने। क्लिंटन ने अपने युवाओं का आह्वान किया था कि आप छोटा सा भी काम अपने घर से शुरू करें, तो आपको सफलता मिलेगी और आपकी आर्थिक जरूरतें पूरी होंगी। क्योंकि सरकार सबको नौकरी नहीं दे सकती। इस अपील का असर हुआ और अमेरिका में आर्थिकवृद्धि की लहर फिर से शुरू हो गई। ऐसा ही कुछ भारत के विकास का भी माॅडल होना चाहिए। जिससे योग्य और क्षमतावान लोग अपनी ऊर्जा का पूरा सदुपयोग कर सकें, तभी देश महान बनेगा।