Monday, December 31, 2012

वीरांगना दामिनी की शहादत क्या बेकार जाऐगी ?

आखिरी दम तक दामिनी रानी झाँसी की तरह मौत से पंजा लड़ाती रही। न तो उसने हिम्मत हारी और न ही जीने की आस छोड़ी। उसकी तीमारदारी कर रहे डॉक्टर हैरान थे उसके आत्मविश्वास को देखकर। पर जंग लगी लोहे की छड़ ने उसके जिस्म में जो इन्फेक्शन छोड़ा, वही उसके लिए जानलेवा बन गया। छः पिशाचों के हमले के बाद दामिनी को लेकर युवाओं और मध्यमवर्गीय लोगों का जो सैलाब दिल्ली और देश की सड़कों पर उतरा, वह इस देश के लोकतंत्र के परिपक्व होने की दिशा में एक सही कदम था। सरकार भी सकते में आ गयी कि इस आत्मस्फूर्त जनाक्रोश से कैसे निपटें? पर दूसरे ही दिन राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं और असामाजिक तत्वों ने प्रदर्शनकारियों के बीच चुपके से घुसपैठ कर सारा माहौल बिगाड़ दिया। हिंसा हुई और पुलिस की बर्बरता भी सामने आई। बस यहीं से राजनीति शुरू हो गई। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित दिल्ली पुलिस को जिम्मेदार ठहराने लगीं। आन्दोलनकारी बलात्कारियों की फाँसी की मांग पर अड़े रहे। सरकार तय नहीं कर पाई कि कितना और कैसा कदम उठाये? आन्दोलन की आग देश के अन्य महानगरों तक भी फैल गयी। काँग्रेस के दो मंत्रियों ने बयान दिया कि इस तरह के जनाक्रोश से निपटने में अभी हमारी राजनैतिक व्यवस्था तैयार नहीं है। इस पूरी स्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन करने की जरूरत है।
कोई पुलिस या प्रशासन बलात्कार रोक नहीं सकता। क्योंकि इतने बड़े मुल्क में किस गांव, खेत, जंगल, कारखाने, मकान या सुनसान जगह बलात्कार होगा, इसका अन्दाजा कोई कैसे लगा सकता है? वैसे भी जब हमारे समाज में परिवारों के भीतर बहू-बेटियों के शारीरिक शोषण के अनेकों समाजशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं तो यह बात सोचने की है कि कहीं हम दोहरे मापदण्डों से जीवन तो नहीं जी रहे? उस स्थिति में हमारे पुरूषों के रवैये में बदलाव का प्रयास करना होगा। जो एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया है। समाज में हो रही आर्थिक उथल-पुथल, शहरीकरण, देशी और विदेशी संस्कृति का घालमेल और मीडिया पर आने वाले कामोŸोजक कार्यक्रमों ने अपसंस्कृति को बढ़ाया है। जहाँ तक पुलिसवालों के खराब व्यवहार का सवाल है, तो उसके भी कारणों को समझना जरूरी है। 1980 से राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट धूल खा रही है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को सुधारने के व्यापक सुझाव दिए गए थे। पर किसी भी राजनैतिक दल या सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रचारित करने और लागू करने के लिए जोर नहीं दिया। नतीजतन हम आज भी 200 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं।
पुलिसवाले किन अमानवीय हालतों में काम करते हैं, इसकी जानकारी आम आदमी को नहीं होती। जिन लोगों को वी0आई0पी0 बताकर पुलिसवालों से उनकी सुरक्षा करवायी जाती है, ऐसे वी0आई0पी0 अक्सर कितने अनैतिक और भ्रष्ट कार्यों में लिप्त होते हैं, यह देखकर कोई पुलिसवाला कैसे अपना मानसिक संतुलन रख सकता है? समाज में भी प्रायः पैसे वाले कोई अनुकरणीय आचरण नहीं करते। पर पुलिस से सब सत्यवादी हरीशचंद्र होने की अपेक्षा रखते हैं। हममें से कितने लोगों ने पुलिस ट्रेनिंग कॉलेजों में जाकर पुलिस के प्रशिक्षणार्थियों के पाठ्यक्रम का अध्ययन किया है? इन्हें परेड और आपराधिक कानून के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ाया जाता जिससे ये समाज की सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझ सकें। ऐसे में हर बात के लिए पुलिस को दोष देने वाले नेताओं और मध्यमवर्गीय जागरूक समाज को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए।
इसी तरह बलात्कार की मानसिकता पर दुनियाभर में तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययन हुए हैं। कोई एक निश्चित फॉर्मूला नहीं है। पिछले दिनों मुम्बई के एक अतिसम्पन्न मारवाड़ी युवा ने 65 वर्ष की महिला से बलात्कार किया तो सारा देश स्तब्ध रह गया। इस अनहोनी घटना पर तमाम सवाल खड़े किए गये। पिता द्वारा पुत्रियों के लगातार बलात्कार के सैंकड़ों मामले रोज देश के सामने आ रहे हैं। अभी दुनिया ऑस्ट्रिया  के गाटफ्राइट नाम के उस गोरे बाप को भूली नहीं है जिसने अपनी ही सबसे बड़ी बेटी को अपने घर के तहखाने में दो दशक तक कैद करके रखा और उससे दर्जन भर बच्चे पैदा किए। इस पूरे परिवार को कभी न तो धूप देखने को मिली और न ही सामान्य जीवन। घर की चार दीवारी में बन्द इस जघन्य काण्ड का खुलासा 2011 में तब हुआ जब गाटफ्राइट की एक बच्ची गंभीर रूप से बीमारी की हालत में अस्पताल लाई गयी। अब ऐसे काण्डों के लिए आप किसे जिम्मेदार ठहरायेंगे? पुलिस को या प्रशासन को ? यह एक मानसिक विकृति है। जिसका समाधान दो-चार लोगों को फाँसी देकर नहीं किया जा सकता। इसी तरह पिछले दिनों एक प्रमुख अंग्रेजी टी0वी0 चैनल के एंकरपर्सन ने अतिउत्साह में बलात्कारियों को नपुंसक बनाने की मांग रखी। कुछ देशों में यह कानून है। पर इसके घातक परिणाम सामने आए हैं। इस तरह जबरन नपुंसक बना दिया गया पुरूष हिंसक हो जाता है और समाज के लिए खतरा बन जाता है।
बलात्कार के मामलों में पुलिस तुरत-फुरत कार्यवाही करे और सभी अदालतें हर दिन सुनवाई कर 90 दिन के भीतर सजा सुना दें। सजा ऐसी कड़ी हो कि उसका बलात्कारियों के दिमाग पर वांछित असर पड़े और बाकी समाज भी ऐसा करने से पहले डरे। इसके लिए जरूरी है कि जागरूक नागरिक, केवल महिलाऐं ही नहीं पुरूष भी, सक्रिय पहल करें और सभी राजनैतिक दलों और संसद पर लगातार तब तक दबाव बनाऐ रखें जब तक ऐसे कानून नहीं बन जाते। कानून बनने के बाद भी उनके लागू करवाने में जागरूक नागरिकों को हमेशा सतर्क रहना होगा। वरना कानून बेअसर रहेंगे। अगर ऐसा हो पाता है तो वह दामिनी की शहादत को हिन्दुस्तान के आवाम की सच्ची श्रद्धांजली होगी।

Monday, December 24, 2012

मोदी की जीत से कॉंग्रेस को सबक

गुजरात के 47 फीसदी मतदाताओं ने नरेन्द्र मोदी के विकास के एजेण्डे पर स्वीकृति की मोहर लगा दी। मोदी के दावों के विरूद्ध काँग्रेस का प्रचार उसे मात्र 38 फीसदी वोट दिला पाया। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में भी मोदी को मिले वोट ने यह सिद्ध कर दिया कि गुजरात का मतदाता जाति और धर्म के दायरों से बाहर निकलकर विकास के रास्ते पर बढ़ना चाहता है। मोदी ने मुसलमानों की प्रतीकात्मक टोपी भले ही न ओढ़ी हो, पर गुजरात की सड़कों पर अवैध रूप से बने मन्दिर और मस्जिद गिराकर यह संदेश साफतौर पर दे दिया था कि उनकी सरकार विकास के रास्ते में धर्मान्धता को प्राश्रय नहीं देगी। यह बात दूसरी है कि मोदी की इस पहल से विहिप और संघ दोनों मोदी से नाराज हो गऐ और उनके खिलाफ अन्दर ही अन्दर माहौल भी बनाने की कोशिश की। पर इस परिणाम ने उन्हें हाशिए पर खड़ा कर दिया। संघ के नेतृत्व के लिए भी यह एक कड़ा संदेश है। अब तक संघ ने कभी भी मजबूत नेतृत्व को खड़ा नहीं होने दिया। जो उनके दरबार में हाजिरी दे, वही उनके लिए योग्य नेता होता है। चाहे फिर वो नितिन गडकरी ही क्यों न हो? कल्याण सिंह को विफल करने में संघ की यही मानसिकता जिम्मेदार रही।
रही बात मोदी के भविष्य की तो इस पर अनेक टी0वी0 चर्चा में चल ही रही है और अब 2014 तक चलेंगी भी। सबका यही मानना है कि मोदी को अपना तेवर और भाषा दोनों बदलनी पड़ेगी। फिर भी गारण्टी नहीं कि राजग के सहयोगी दल मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मान लें। उससे पहले भाजपा के अन्दर भी संघर्ष कम नहीं होगा। पर अगर भाजपा मोदी के नेतृत्व का लाभ उठाना चाहती है, तो एक रास्ता है। वह अपने सहयोगी दलों से एक गुप्त समझौता कर ले। जिसका आधार यह हो कि भाजपा मोदी को अपना उम्मीदवार बनाकर आक्रामक प्रचार में जुटे और वो सहयोगी दल जो इससे सहमत न हों, अलग-अलग रहकर चुनाव लड़ें। जहाँ दोनों के बीच सीधा मुकाबला हो, वहाँ नूरा-कुश्ती लड़ ली जाए। मतलब जनता की निगाह में लड़ाई हो और वास्तव में मिलकर खेल खेला जाए। जैसे बड़े राजनेताओं के परिवारजनों को जिताने के लिए प्रायः विरोधी राजनैतिक दल भी कमजोर उम्मीदवार खड़ा करते हैं। इससे राजग के सभी दलों को अपनी ताकत अजमाने का मौका मिलेगा। लोकसभा चुनावों के परिणाम के बाद जिसके सांसद ज्यादा हों, वो प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश कर सकता है। पर यह निर्णय इतने आसान नहीं होते। अनेक तरह के बाहरी दबाव दलों को और उनके नेताओं को झेलने पड़ते हैं। वैसे आज की तारीख में पूरा कॉरपोरेट जगत और व्यापारी समाज यह मानता है कि देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाने के लिए मोदी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। जबकि देहात से जुड़ा तबका मोदी के इस स्वरूप से प्रभावित नहीं है।
इसका सीधा प्रमाण गुजरात के 49 फीसदी मतदाताओं ने दिया है। जिन्होंने मोदी के खिलाफ वोट दिया है। साफ जाहिर है कि विकास के दावों का भारी भरकम प्रचार और मोदी को मिला मीडिया का अतिउत्साही समर्थन भी गुजरात की 49 फीसदी मतदाताओं को आश्वस्त नहीं कर पाया। मतलब यह कि मोदी का विकास का दावा आम जनता ने नहीं स्वीकारा। यह बात दूसरी है कि अपने उसी टेंपो में मोदी ने जीत के बाद पहले हिंदी भाषण में पूरे देश के मतदाताओं को सम्बोधित किया और उन्हें रोजगार के लिए गुजरात आने का न्यौता दिया। यानि वे एक बार फिर इसी आक्रामक प्रचार शैली से देश के सामने अपनी नयी भूमिका के लिए खुद को प्रस्तुत करने वाले हैं।
काँग्रेस के लिए यह बड़ी चुनौती है। उस तरह नहीं, जिस तरह राजनैतिक विश्लेषक मीडिया पर बता रहे हैं। जो कि यह मान बैठे हैं कि मोदी का विकास का नारा चल गया। वे इस हकीकत को नजरअंदाज कर रहे हैं कि 49 फीसदी मतदाता मोदी के दावे से सहमत नहीं हैं। काँग्रेस इस बात का पूरा फायदा नहीं उठा पायी। अब उसके सामने चुनौती यह है कि वह देश के सामने इन तथ्यों को कैसे रखे कि जनता प्रचार के प्रभाव से बचकर निष्पक्ष मूल्यांकन कर सके। बाकी देश की जनता गुजरातियों की तरह न तो उद्यमी है और न ही व्यापारी। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात को छोड़कर पश्चिमी भारत से असम तक आम हिन्दुस्तानी अभी भी कृषि, छोटे कारोबार और सेवा सैक्टर से जुड़ा है। जिसके लिए न तो मोदी की भाषा और न तेवर का ही कोई महत्व है। मतदाताओं का यह वह विशाल वर्ग है जिसके लिए विकास का मतलब है छोटी-छोटी जरूरतों का पूरा होना। उसके जल, जंगल, जमीन का बचना। उसके लिए रोजगार का सृजन होना। ऐसे सभी कामों में तमाम आलोचनाओं के बावजूद काँगे्रस मोदी से पहले भी आगे थी और आज भी आगे है।
आम आदमी के हक में भाजपा के मुकाबले काँगे्रस ने हमेशा ही ज्यादा ठोस और जोखिम भरे फैसले लिए हैं। चाहें वो इन्दिरा गांधी के जमाने में बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो या पंचायत राज या सीधे नकद सब्सिडी। काँग्रेस के सामने दो चुनौतियां हैं। एक तो यह कि वह अपनी इन योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करने में जी-जान से जुट जाए। कोई कोताही न होने दे। अफसरशाही पर अपनी नकेल कसे। प्रशासन को जनोन्मुखी बनाऐ। दूसरी चुनौती यह है कि मोदी की तरह ही वह अपनी उपलब्धियों का आक्रामक तरीके से प्रचार करें।
ये चुनावी दंगल का वर्ष है। राजग और सप्रंग दोनों अपने खम्भ ठोकेंगे। कमजोरियों और उपलब्धियों में दोनों में से कोई किसी से कम नहीं है। जनता इस तमाशे को देखेगी और जिसका सन्देश उसके दिल में उतरेगा, उसे दिल्ली की गद्दी पर बिठा देगी।

Monday, December 17, 2012

क्यों लगने लगे हैं पत्रकारों पर ब्लैकमेलिंग के आरोप

जबसे जी0टी0वी0 के दो सम्पादक जिंदल स्टील के मामले में ब्लैकमेलिंग के आरोप में तिहाड़ जेल भेजे गए हैं, तब से मीडिया दायरों में यह बहस चल पड़ी है कि क्या पत्रकारिता का स्तर इतना गिर गया है कि अब पत्रकारों को ब्लैकमेलिंग के आरोप में गिरफ्तार करने की नौबत भी आने लगी है? दरअसल ब्लैकमेलिंग और पत्रकारिता का सम्बन्ध ऐसा है कि जैसे उत्तरी धु्रव और दक्षिणी ध्रुव। ब्लैकमेलिंग एक अपराध है और पत्रकारिता एक मिशन। मिशनरी अपराधी नहीं हो सकता और अपराधी मिशनरी नहीं हो सकता। जिंदल और जीटीवी के मामले में कौन सही है और कौन गलत, इस विवाद में हम नहीं पड़ेंगे, क्योंकि यह पुलिस और न्यायालय के बीच का मामला है। पर यहाँ जानना जरूरी है कि पत्रकारों पर ब्लैकमेलिंग के आरोप क्यों लगने लगें है?
जब कोई पत्रकार किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ सबूत इकट्ठे करता है जिसने कोई अनैतिक कार्य किया है और उन तथ्यों को जाँच के बाद सत्यापित कर लेता है, तब उसे उन्हें प्रकाशित या प्रसारित कर देना होता है। ऐसा न करके अगर कोई आरोपित व्यक्ति से मोल भाव करे कि तुम मुझे इतनी रकम दो तो मैं तुम्हारे खिलाफ इस खबर को दबा दूंगा, तो इसे ब्लैकमेलिंग कहा जाऐगा।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ब्लैकमेलिंग का शिकार वही व्यक्ति, अफसर, नेता, धर्माचार्य या उद्योगपति होता है जो जाने-अनजाने कोई अनैतिक कार्य कर बैठता है। अपनी बदनामी और कानून की पकड़ से बचने के लिए वह ब्लैकमेलिंग का शिकार बन जाता है। मतलब यह हुआ कि इस प्रक्रिया में दोनों ही पक्ष अपराधी हो गए।
समाज है तो विसंगतियां भी होंगी ही। विसंगतियां हैं तो खबर भी बनेगी। जितना बड़ा आदमी होगा, उतनी बड़ी खबर होगी। पर पत्रकारिता का पेशा किसी के फटे में पैर देने का नहीं है बल्कि विसंगतियों को उजागर करते हुए या तो निष्पक्ष सूचना देने का है या एक कदम और आगे बढ़ें तो समाज को दिशा देने का है। ब्लैकमेलिंग का कतई नहीं।
फिर यह बात क्यों सामने आ रही है? आग है तभी तो धुंआ है। कस्बे से लेकर देश की राजधानी तक ऐसे अनेकों उदाहरण मिलेंगे, जहाँ पत्रकारों ने पत्रकारिता के पेशे का दुरूपयोग कर अपने वैभव का असीम विस्तार किया है। इसमें दो श्रेणियां हैं, एक वो जिन्हें अनैतिक आचरण करने वाले ताकतवर व्यक्ति ने रिश्वत का ऑफर देकर खरीद लिया। दूसरे वे जो ब्लैकमेलिंग का रास्ता अपनाकर अपनी दौलत बढ़ाते हैं। जिससे पूरा पेशा बदनाम हो रहा है। इन दोनों ही मामलों में ज्यादा जिम्मेदारी अखबार या टी0वी0 समूह के मालिक की होती है। जो मालिक निष्पक्ष और ईमानदार पत्रकारिता करवाना चाहते हैं, उनके प्रतिष्ठान में ऐसा पत्रकार टिक ही नहीं सकता। उसका पता लगते ही उसे निकाल दिया जाऐगा। पर आज मीडिया का ग्लैमर और ताकत अगर बढ़ी है तो हर मीडिया हाउस यह दावा नहीं कर सकता कि वह विशुद्ध पत्रकारिता के आधार पर अपने प्रतिष्ठान को जीवित रखे हुए है। सच्चाई तो यह है कि ज्यादातर ऐसे प्रतिष्ठान घाटे में चल रहे हैं। कोई उद्योगपति या निवेशक घाटा उठाकर किसी अखबार या टी0वी0 न्यूज का उत्पादन क्यों करेगा और कब तक करेगा? जाहिरन यहाँ घाटा तो कहीं और से मुनाफा। इसलिए ऐसे लोग भी इस पेशे में जमे हुए हैं।
दूसरा दबाव कुछ संपादकों का होता है। पहले संपादक पत्रकारिता के पेशे से आते थे और शुद्ध पत्रकारिता करते थे। अब कुछ संपादक कम्पनी के सी.ई.ओ. भी बना दिए जाते हैं। इसलिए संपादकीय बैठक में उनका ध्यान खबर की गुणवत्ता से ज्यादा इस बात पर होता है कि कम्पनी का मुनाफा कैसे बढ़े? मुनाफा बढ़ाने का तरीका अखबार का दाम बढ़ाना नहीं, बल्कि विज्ञापन बढ़ाना होता है। प्रायः विज्ञापन व्यवसायिक दृष्टिकोण से कम दिए जाते हैं और अखबार का मुँह बन्द करने के लिए ज्यादा। इसलिए संपादक संवाददाताओं से प्रायः ऐसी खबर करवाते हैं जिससे घबराकर विज्ञापनदाता उस प्रकाशन या चैनल को भारी भरकम विज्ञापन देने लगें। सतह पर यह कोई अपराध नहीं लगता, पर हकीकत यह है कि यह भी ब्लैकमेलिंग का एक साफ-सुथरा नमूना है। तीसरे स्तर की ब्लैकमेलिंग संवाददाताओं के स्तर पर छोटी-छोटी खबरों के बारे में सुनने में आती है। जब सम्पन्न लोगों से संवाददाता अपने पेशे की धमकी देकर चैथ वसूली करते हैं। इनमें भी दो श्रेणियां हैं। एक वे जिनका धंधा ही यह होता है, दूसरे वे जो हालात से मजबूर होते हैं। जब अखबार या चैनल मालिक संवाददाता को उसकी योग्यता और आवश्यकता से कहीं कम भुगतान करता है तो भौतिकता के दबाव में, समाज का माहौल देखते हुए उस पत्रकार को इस तरह पैसा कमाने का लोभ पैदा हो जाता है। लेकिन दूसरी तरह के वे होते हैं जिन्हें मुफ्त की कमाई करने में मजा आने लगता है। यह उनकी आवश्यकता नहीं होती, बल्कि व्यसन होता है।
सवाल यह है कि क्या मीडिया अन्य उद्योगों की तरह एक कमाई का धंधा है या लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ? अगर मीडिया का व्यापार शुद्ध मुनाफे का कारोबार नहीं है तो कोई कितने दिन तक घाटा उठाकर अपने अखबार और टी0वी0 चैनल चला पाऐगा? जाहिरन वह राजनैतिक और औधोगिक संरक्षण लेकर ही चल पाता है। अभी तक देश में ऐसा कोई मॉडल बड़े स्तर पर सफल नहीं हुआ जब समाज ने सही, निष्पक्ष और निडरता से बटोरी गई खबरों को जानने के लिए किसी प्रिंट या टीवी मीडिया हाउस को सामूहिक रूप से ऐसा आर्थिक समर्थन दिया हो कि उस हाउस को किसी के भी आगे हाथ न फैलाना पड़े। अगर ऐसा होता है तो न तो पत्रकारिता की गरिमा गिरेगी और न ही देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर या जनता के पैसे को घोटालों के माध्यम से हड़पकर अकूत दौलत कमाने वाले उद्योगपति, नेता और अफसर निर्भय होकर विचरण कर पाऐंगे। तब जनता को सही खबर भी मिलेगी और उसकी ताकत भी बढ़ेगी। साथ ही सरकार हो या निजी क्षेत्र दोनों को जिम्मेदारी से पारदर्शी व्यवहार करना पड़ेगा। जब तक मौजूदा हालात बने रहते हैं, तब तक पत्रकारिता पेशे का एक अंग भी अनैतिक कृत्यों से बचा नहीं रह पाऐगा।
यह इस बात पर निर्भय करेगा कि इस पेशे को अपनाते वक्त उस व्यक्ति के सामने क्या लक्ष्य था? क्या हम पत्रकारिता के माध्यम से समाज को सजाने-संवारने के लिए उतरे हैं या बिना मेहनत की मोटी कमाई करने के लिए? पहली श्रेणी के पत्रकार धीरे-धीरे प्रगति करेंगे पर लम्बे समय तक सार्वजनिक जीवन में टिके रहेंगे। दूसरी श्रेणी के पत्रकार धन तो पहले दिन से कमा लेंगे, पर समाज में प्रतिष्ठा पाना उनसे कोसों दूर रहेगा। जब तक कोई स्पष्ट समाधान न मिले, तब तक हालात बदलने वाले नहीं हैं। देश की जनता और सरकार के लिए यह बहुत चिंता का विषय होना चाहिए कि लोकतंत्र का यह चैथा खम्बा इस तरह के आपराधिक आरोपों से बदनाम किया जा रहा है।

Monday, December 10, 2012

देश में हलचल क्यूँ मची हुई है

देश में हलचल मची है। खासतौर पर सरकारी नीतियों को लेकर मीडिया और विपक्ष सक्रिय हो उठा है। लेकिन मुद्दे जल्दी जल्दी आ और जा रहे हैं। किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि हमारा मुख्य मुद्दा है क्या? ऐसे हालात में मीडिया की तरफ से एक शब्द आया है- पॉलिसी पैरालिसिस! इसकी हिन्दी करना भी मुश्किल हो रहा है। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि पिछले तीन-चार महीनों में इस शब्द का चलन अचानक बढ़ गया है।
दरअसल इस शब्द का प्रयोग ज्यादातर कॉरपोरेट जगत कर रहा है। जिसका आरोप है कि सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में सोच और नीतियों को लेकर एकरूपता नहीं है। अवसरशाही नाहक निर्णयों को लम्बा खींच रही है। देश में विनियोग करने का वातावरण खत्म होता जा रहा है। मजबूरन भारत के बड़े औघोगिक घरानों को दूसरे देशों में विनियोग की संभावनाऐं तलाशनी पड़ रही हैं।
यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि लोकतंत्र में सरकार की जबावदेही आमजनता के प्रति ज्यादा होती है। इसलिए कॉरपोरेट जगत की इस शिकायत को सही मानते हुए भी हमे देखना होगा कि क्या वाकई सरकार हर मामले में इतनी ढीली पड़ गयी है कि उसके लिए ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ का नामकरण किया जाऐ?
ऐसा नहीं है। पहली बात तो यह कि ‘नीतिगत फॉलिश’ मारा जाना या ‘नीतिगत पक्षाघात’ से कोई अर्थचित्र नहीं बन पा रहा है। नीति में दोष तो हो सकता है, लेकिन नीति को ‘फॉलिश’ मारने की कोई स्थिति समझ में नहीं आती। जितने भी लोगों के बीच इस शब्द को लेकर अनौपचारिक बातचीत हो रही है, वे कहना तो यही चाह रहे हैं कि सरकार की नीतियाँ समझ में नहीं आ रही हैं। यदि उन्हें यही कहना है तो वे सरलता से कह सकते हैं कि नीतियों में ‘स्पष्टता’ नहीं है। लेकिन यह बात कही इसलिए नहीं जा सकती क्योंकि आजादी के बाद देश में पहली बार सरकार की नीतियों को लेकर इतनी तीव्रता और सघनता से बहस हो रही है और नीतियों का विरोध हो रहा है - इसलिए कोई नहीं कह सकता कि नीतियाँ समझ में नहीं आ रहीं। खासतौर पर सब्सिडी को सीधे लाभार्थी को दिए जाना और खुदरा में एफ.डी.आई. को शुरू किए जाना, ऐसी नीतियाँ या उपाय हैं, जिनकी सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है। इन नीतियों के कार्यान्वयन में अब कानूनी तौर पर कोई अड़चन नहीं दिखती। बस वे अन्देशे दिखते हैं जिन्हें मीडिया और नीति विरोधी शक्तियाँ दिखा रही हैं। इसलिए इस पर विचार करने की जरूरत है।
गांवों तक सब्सिडी के रूप में हर जरूरतमंद को सीधे धन पहुँचाने की नीति को लेकर सबसे ज्यादा हलचल है। इसके विरोध में आमतौर पर एक तर्क यह दिया जा रहा है कि यह देश के बहुत बड़े तबके (आम मतदाता) को घूस देने की कोशिश है। विपक्ष के इस आरोप के जबाव में सरकारी विशेषज्ञों का कहना है कि आजादी के बाद से आज तक हर सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह रही है कि अन्तिम व्यक्ति तक मदद कैसे पहुँचे? जितनी नीतियां और कार्यक्रम अन्तिम व्यक्ति के लिए बने, उन सबको नौकरशाही और बिचैलिए खा गए। यह पहली बार है कि अब इन सबकी कोई भूमिका नहीं रही। आम आदमी सीधे लाभ उठा सकेगा। इसी से विरोधियों में घबराहट है कि अगर ऐसा हो गया तो फिर इसकी टक्कर में उनके पास क्या बचा? इससे यह तो साफ है कि सरकार की नीति में कोई शैथिल्य नहीं है। वह जो चाह रही है, धड़ल्ले से कर रही है। हां, यह बात जरूर है कि जैसा दावा सरकार कर रही है, वैसा लाभ क्या वाकई आम आदमी को मिल पाऐगा? तो फिर यह तो क्रियान्वयन की संभावनाओं पर संशय वाली स्थिति हुई। इसमें नीतिगित शैथिल्य कहाँ से आया?
एफ.डी.आई. ऐसी दूसरी नीति है। संसद में लगातार चार दिन की बहस में इस नीति के लगभग हरेक पक्ष पर खूब बातचीत हुई है। कुल मिलाकर इसके विरोध में एक ही तर्क दिया गया कि किराना या खुदरा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लगभग 20-25 करोड़ लोगों का क्या होगा? लेकिन यह बात किसी ने नहीं उठाई, सरकार ने भी नहीं, कि अगर यह प्रयोग सफल हो जाता है तो आज खुदरा व्यापार में शोषित हो रहे श्रमिकों और कर्मचारियों की दशा में कितना गुणात्मक सुधार आ जाऐगा? वैसे भी हैरत की बात यह है कि शुरूआत में यह सिर्फ 10 लाख से ज्यादा आबादी के 53 शहरों तक ही सीमित थी और बाद में राजनीतिक परिस्थितियों में निकलकर यह आया कि शुरूआती तौर पर इसका प्रयोग या क्रियान्वयन सिर्फ 15 शहरों में हो पाऐगा। यानि 15 शहरों से प्रायोगिक तौर पर शुरू की जा रही इस नीति का कार्यान्वयन होना है। जिसे लेकर कोई भी कह सकता है कि इसके नतीजों को देखकर ही इसके आगे जाने की सम्भावनाऐं बनेंगी। हाँ, यह तय हो गया है कि ये दोनों नीतियां जल्दी ही शुरू होनी हैं। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि बगैर ज्यादा शोर मचे ये दोनों काम शुरू हो चुके हैं। यानि ‘नीतिगत शैथिल्य’ का प्रश्न अब प्रासंगिक हुआ नहीं दिखता।
जहाँ तक औघोगिक जगत का आरोप है, वहाँ वाकई सरकार की जबावदेही बनती है। पर केन्द्र की ही क्यों, राज्यों की सरकारें भी कोई प्रभावी विकल्प नहीं दे पाई हैं। पिछले दशक में केवल तीन मुख्यमंत्री ऐसे रहे हैं, नरेन्द्र मोदी, शीला दीक्षित और मायावती जिन्होंने अपनी नौकरशाही पर पकड़ बनाई है। वर्ना राज्य हों या केन्द्र, नौकरशाही आज भी इतनी ताकतवर है कि वो जनता और नेता दोनों को मूर्ख बना रही है। नेता राजनैतिक निर्णय ले या भ्रष्ट आचरण करे तो माना जा सकता है कि यह चुनावी व्यवस्था की मजबूरी है, जहाँ उसका भविष्य अनिश्चित रहता है। पर सुरक्षित वर्तमान और भविष्य को लेकर सरकार का स्थायी अंग बनी नौकरशाही क्यों गलत होने देती है? क्यों सही का समर्थन नहीं करती? क्यों अपने से बेहतर विचारों ओैर कार्यक्रमों को स्वीकारने में उसके अहम को चोट लगती है? जब सबकुछ मिला है तो वो क्यों भ्रष्ट हो जाती है? आज देश में इस झंझट में से निकलकर प्रगति के रास्ते पर चलने का माहौल बनना चाहिए। जिसका एक बड़ा हिस्सा होगा कि जनता नौकरशाही की जबावदेही के लिए पूरा दबाव बनाऐ। फिर जनता में चाहें रतन टाटा हों या मध्यम वर्ग या आम इंसान।

Monday, December 3, 2012

सीधी सबसिडी क्या सचमुच रिश्वत है


सब जानते हैं कि केन्द्र से चला एक रूपया गाँव के अंतिम आदमी तक पहुँचते-पहुँचते 14 पैसे रह जाता है। बीच का सारा पैसा केन्द्र से गाँव तक प्रशासनिक और दलाल तंत्र की जेब में चला जाता है। यह समस्या पंचवर्षीय योजनाओं के प्रारम्भ से ही अनुभव की जा रही है। बहुत आलोचना होती रही है। धरपकड़ और सतर्कता के सारे प्रयास विफल रहे हैं। जनता के आक्रोश की धारा मोड़ने के लिए राज्य सरकारें केन्द्र सरकार पर और केन्द्र सरकार राज्य सरकारों पर आरोप मढ़ती है। घाटे में आम आदमी ही रहता है। भ्रष्टाचार से निपटने का कोई कानून भी इस समस्या का हल नहीं खोज सकता, लोकपाल भी नहीं। अगर कानून बनाने से अपराधी डर जाते तो दुनिया में अपराध होते ही नहीं। कानून ढ़ेर सारे हैं, पर अपराधी उससे भी ज्यादा। ऐसे में क्या किया जाए? यह सवाल हमेशा से नियोजकों की चिन्ता का विषय रहा है।
कैश सब्सिडी को लाभार्थियों के खाते में सीधे ट्रांसफर करके इस समस्या का समाधान खोजा जा रहा है। पर इस पर कई सवाल उठ रहे हैं। जहाँ विपक्षी दल इसे सीधे-सीधे वोट के बदले नोट की रिश्वत मान रहे हैं, वहीं कुछ लोगों को संशय है कि इस योजना को लागू करने में बहुत दिक्कतें आऐंगी। जिनमें इसका दुरूपयोग भी शामिल है। जिस अंतिम स्तर के नागरिक के लिए यह सेवा शुरू की जा रही है, उसकी रोजी-रोटी और झोंपडी तक का ठिकाना नहीं होता। रोजगार की तलाश में बिचारों को अपना चूला हर कुछ दिन बाद उठाकर कहीं और ले जाना होता है। ऐसा आदमी कौन से बैंक में खाता खोलेगा और उसका संचालन कैसे करेगा, यह सवाल भी उठ रहा है। इसके जवाब में केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि इस काम के लिए सिर्फ बैंक से ही नहीं, बल्कि 25 लाख स्वयं महिला सहायता समूहों, 14 लाख आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं या फिर 8‐60 लाख आशा कार्यकर्ताओं और अन्य समूहों की सेवाएं भी ली लाएंगी।
फिलहाल केन्द्रीय वित्त मंत्री ने देश के 18 राज्यों के 51 जिलों में इस योजना को लागू करने की घोषणा की है। बाद में इसे पूरे देश पर लागू करने की बात कही है। इस कार्यक्रम  में सरकार की 42 योजनाओं के पैसे को शामिल किया गया है। पर इस तरह केवल 21 लाख लोगों तक राहत पहुंचेगी जोकि देश की 122 करोड़ आबादी की तुलना में नगण्य है। इनमें भी ऐसी आबादी बहुत है जिसका न तो कोई बैंक खाता है और न ही उसके गांव मे कोई बैक। इस समस्या का हल ढ़ूढने के लिए आधार कार्ड बांट रही संस्था यू.आई.डी.ए.आई. ने उन व्यवसायी बैंकों से ग्रामीण क्षेत्रों में फौरन ए0टी0एम0 खोलने को कहा है जो इसके इच्छुक हों। पर ये बैंक अगले 6 महीने में भी ऐसा कर पायेगें, इसमें संदेह है। हो सकता है कि आने वाले वक्त में डाकखानों को भी इस योजना से जोडा जाये। क्योंकि डाकखानों का देश के ग्रामीण अंचलों में अच्छा जाल है।
खैर हर योजना के क्रियान्वयन से पहले संदेह तो व्यक्त किये ही जाते हैं। इसलिए इस योजना का भी मूल्यांकन भविष्य में ही होगा। पर इतना जरूर है कि अगर यह स्कीम सफल हो गयी तो समाज उत्थान के क्षेत्र में क्रान्तिकारी कदम होगा। पर क्या इसे रिश्वत माना जा सकता है? चूंकि यह योजना कांग्रेस सरकार आगामी लोकसभा चुनाव के 2 वर्ष पूर्व ही लेकर आयी है। इससे उसकी नीयत पर शक व्यक्त किया जा रहा है। पर सवाल उठता है कि चुनाव पूर्व की घोषणा तो उन घोषणाओं को माना जाता है जो चुनाव के ठीक पहले की जाती है। उस दृष्टि से तो इसे चुनावी घोषणा नही माना जा सकता। पर हकीकत यही है कि काँग्रेस ने इसे अपना जनाधार बढ़ाने के लिए ही प्राथमिकता से लिया है। सवाल यह भी है कि अगर सरकार ये न करे तो क्या करे? पहले कार्यक्रम भ्रष्टाचार की बलि चढ़ गये। उसमें सुधार सम्भव नहीं है। इसलिए नये कार्यक्रम की जरूरत पड़ी। जो मॉडल सामने आया है उसमें बिचैलियों की गुंजाइश ही नहीं है। लेकिन इस बात की भी कोई गारंटी नहीं कि इलेक्ट्रोनिक उपकरणों, इन्टरनेट, डिजिटल सूचना के इस आधुनिक तंत्र का दुरूपयोग न हो। दुनियाभर में ऐसे ‘मेधावी‘ अपराधियों की कमी नहीं जो इन सारी व्यवस्थाओं के शार्टकट बनाने में माहिर हैं। ऐसे लोग हमारे देश में भी कम नहीं। जो किसी भी अच्छी योजना का पलीता लगा सकते हैं।
जहाँ एन0डी0ए0 का घटक भाजपा गुजरात चुनाव का हवाला देकर इस योजना के खिलाफ चुनाव आयोग के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है, वहीं एन0डी0ए0 के दूसरे घटक जे0डी0यू0 के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का मानना है कि यह योजना बहुत प्रभावी रहेगी। दरअसल राजनैतिक मतभेदों को एक तरफ रखकर अगर निष्पक्ष मूल्यांकन किया जाए तो यह बात समझ में आती है कि निर्बल वर्ग को मिलने वाली सब्सिडी या रियायत लाभार्थी को सीधी क्यों न दी जाए? इससे बीच का सब घालमेल साफ हो जाऐगा। इसलिए इस योजना का स्वागत किया जाना चाहिए और इसे अपना दायित्व मानते हुए निर्बल वर्ग की सहायतार्थ सबल वर्ग के जागरूक नागरिकों को अपने-अपने क्षेत्र में सक्रिय हो जाना चाहिए। उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके इलाके के जरूरतमंद निर्बल लोगों के आधार कार्ड बनें और उनके बैंक खाते खुलें। इसमें अगर कहीं भी धांधली नजर आए तो उसके खिलाफ जोरदार आवाज उठानी चाहिए। जनता की इस सक्रिय भागीदारी से भ्रष्टाचार भी हटेगा और निर्बल वर्ग को सीधा लाभ भी पहुंचेगा। इसलिए इसे रिश्वत मानकर दरकिनार नहीं किया जा सकता।

Monday, November 19, 2012

बाला साहब के भगवा स्वरूप को क्यों भूल रहा है अंगे्रजी मीडिया

महाराष्ट्र के दिवंगत नेता बाला साहब ठाकरे को श्रृद्धान्जलि देने में अंगे्रजी टी वी और प्रिन्ट मीडिया पीछे नहीं रहा। उनकी भडकाऊ राजनीति, तानाशाही और हिंसक बयानबाजी का आलोचक रहा देश का अंगे्रजी मीडिया बाला साहब की मौत पर उनका गुणगान करता नजर आया। इसमें कोई अस्वभाविक बात नहीं है। मरणोपरान्त हर जाने वाले की प्रशस्ति में कसीदे काढ़े जाते हैं । पर महत्वपूर्ण बात यह है कि केसरिया चोगा पहनकर, गले में रूद्राक्ष की माला लटकाकर, छत्रपति शिवाजी महाराज की वैदिक ध्वजा फहराकर और सिंह के चित्र को दर्शाते हुए सिंहासन पर आरूढ़ होने वाले बाला साहब देवरस ने एक प्रखर हिन्दूवादी छवि का निर्माण किया और उसे अन्त तक निभाया। इस छवि के बावजूद महाराष्ट्र की राजनीति को अपने इशारों पर नचाया। सत्ता में हों या बाहर अपना रूतबा कम नहीं होने दिया। पर उनके व्यक्तित्व के इस हिन्दूवादी पक्ष को अंग्रेजी मीडिया ने दिखाने की कोशिश नहीं की।
 
अंग्रेजी मीडिया अमूमन अपनी छवि धर्मनिरपेक्षता की बनाकर रखता है। इसलिए जब-जब बाला साहब ने  प्रखर हिन्दूवादी तेवर अपनाया तब तब मुख्यधारा का मीडिया बाला साहब के पीछे पड़ गया। पर अब उनकी मौत पर उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष क्यों भुला दिया गया ? यह सही है कि बाला साहब का व्यक्तित्व व वक्तव्य विरोधाभासों से भरे होते थे। पर उनकी इस हिन्दूवादी छवि ने उन्हें देशभर के उन हिन्दुओं का  चहेता बनाया जो प्रखर हिन्दुवादी नेतृत्व देखना चाहते हैं। छोटी छोटी घटनाओं से बाला साहब ने ऐसे कई संदेश दिये ।  जब मुंबई के मुसलमान जुम्मे की नमाज अदा करने के लिए हर शुक्रवार मुंबई की सड़कों पर मुसल्ला बिछाने लगे और मुंबई पुलिस इस नई मुसीबत से निपट नहीं पा रही थी तो बाला साहब ने हर शाम, हर मन्दिर के सामने, सड़क पर भीड़ जमा कर महाआरती करने का ऐलान कर दिया। नतीजतन दोनों पक्षों ने बिना हीलहुज्जत किये अपना फैलाव समेट लिया। बांग्लादेशी शरणार्थियों के आकर बसने पर सबसे पहला विरोध बाला साहब ने ही किया था।
 
दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व रहा है जिसने हिन्दु वोट बैंक को भुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। लेकिन हमेशा इस तरह के सख्त कदम उठाने से परहेज किया। इतना ही नहीं पूरे देश में रामजन्मभूमि मुक्ति आंन्दोलन चलाने के बाद जब अयोध्या में विवादास्पद ढाँचा गिरा तो अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने इसे शर्मनाक हादसा कहा। जबकि बालासाहब से जब पूछा गया कि इस ढ़ांचे को गिराने में शिवसैनिकों का हाथ था, तो उन्होंने तपाक से कहा कि उन्हें अपने सैंनिको पर गर्व है। दूसरी तरफ हिन्दू हक के हर मुद्दे पर कड़े तेवर अपनाने वाले बाला साहब ने आपातकाल से लेकर राष्ट्रपति के चुनाव तक के मुद्दों पर कांग्रेस के साथ खड़े रहने में संकोच नहीं किया। इंका के वरिष्ठ नेता सुनील दत के फिल्मी सितारे बेटे संजय दत को रिहा कराने में वे आगे आये। इससे यह तो साफ है कि बाला साहब ने जो ठीक समझा उसे ताल ठोक कर किया़। चाहें किसी को ठीक लगे या गलत। इसलिए उनकी छवि एक प्रखर हिन्दुवादी नेता की बनी।
 
मुसलमानों को लुभाने की नाकाम कोशिशों में जुटा भाजपा नेतृत्व आज भी ऐसी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हैं। इसलिए दुविधा कायम हैं ? दूसरी तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने काफी हद तक बाला साहब का अनुसरण करने की सफल कोशिश की है और उसका फल भी उन्हें मिला है। नरेन्द्र मोदी को भी मुख्यधारा के मीडिया ने धर्मनिरपेक्षता के तराजू में तोलकर बार-बार अपराधी करार दिया है। पर हर बार मीडिया के आंकलन से बेपरवाह मोदी ने अपना रास्ता खुद तय किया है।
 
बाला साहब को श्रद्धान्जली देने गये भाजपा के नेताओं को इस मौके पर आत्म मंथन करना चाहिए। क्या वे इसी तरह भ्रम की स्थिति में रहकर आगे बढ़ेंगें या अपनी विचारधारा में स्पष्टता लाकर अपनी रणनीति साफ करेंगे। आज तो वे कांग्रेस की दसवीं कार्बन कॉपी से ज्यादा कुछ नजर नहीं आते। उधर मीडिया को भी यह सोचना पडेगा कि इस लोकतांत्रिक देश में समाज के हर हिस्से और विभिन्न विचारधाराओं को एक रंग के चश्मों से देखना सही नहीं है। धर्मनिरपेक्ष से लेकर सांम्प्रदायिक लोगो तक और गांधीवादियों से लेकर नक्सलवादियों तक को अपनी बात कहने और अपनी तरह जीने का मौका भारत का लोकतंत्र देता है। इसलिए मीडिया की निष्पक्षता तभी स्थापित होगी जब वो समाज के विभिन्न रंगों की प्रस्तुति पूरी ईमानदारी से करे। एक कार्टून पत्रकार से महाराष्ट्र के शेर बनने तक की बाला साहब की यात्रा हममें से बहुतों की विचारधारा के अनुरूप नहीं थी पर इस यात्रा के ऐसे आयामों के महत्व को कम करके आंका नहीं जा सकता।

Monday, October 29, 2012

गडकरी और वडेरा

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और कांग्रेस की अध्यक्ष के दामाद राबर्ट वडेरा पर अपनी कम्पनियों में आर्थिक अनियमितताएं बरतने का आरोप है। आरोप अभी सिद्ध होने बाकी है। पर मीडिया में छवि दोनों की खराब हो चुकी है। सार्वजनिक जीवन में कहावत है ‘बद अच्छा बदनाम बुरा‘ जो कुछ इन दोनों ने किया है वह देश का लगभग हर व्यापारी करता है। जिससे उसका मुनाफा बढ सकें या कालाधन सफेद हो सके। वैसे कानूनी मापदंडो पर दोनो के ही खिलाफ कोई जघन्य अपराध बनेगा इसकी सम्भावना विशेषज्ञ अभी नही देख पा रहे है। इसलिए दोनों के पक्षधर अपने-अपने मंचो से इनका बचाव करने में जुटे है। अगर अनियमितताएं पायी गयी तो कानून के मुताबिक दोनों को सजा भुगतनी पड सकती है। पर अगर  अनियमितताएं नही पायी जाती तो भी छवि तो बिगड ही चुकी। अन्तर इतना है कि राबर्ट वडेरा अपनी सास के बल पर सत्ता का लाभ लेने के आरोपी है। जबकि नितिन गडकरी उस राष्ट्रीय दल के अघ्यक्ष है जिसका घोषित लक्ष्य सार्वजनिक जीवन में शुचिता लाना है। इसलिए उन पर त्यागपत्र देने का नैतिक दबाब बनाया जा रहा है।
 
दरअसल पूर्वी व उत्तरी भारत और पश्चिमी व दक्षिणी भारत की राजनैतिक संस्कृति में बुनियादी अन्तर है। जहां पश्चिमी व दक्षिणी भारत में ज्यादातर राजनेता व्यापार के साथ राजनीति करते हैं ? उनके कारखाने, कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल, होटल और कृषि सम्बन्धी बडे- बडे व्यवसाय होते हैं, वहीं पूर्वी व उत्तरी भारत में राजनेताओं को केवल राजनीति के काम में लिप्त पाया जाता है। इसलिए यहां के समाज में व्यापारी को राजनेता स्वीकारने की प्रथा नहीं है। इसीलिए देश के अब तक के सभी प्रधानमंत्री भी गैर-व्यवसायी हुए हैं। जब नितिन गडकरी को संघ के दबाव में भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था तो उत्तर भारत में काफी नाक भौं सिकोंड़ी गयीं। यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि राजनितिज्ञ का सार्वजनिक जीवन हो या निजी जीवन, दोनों के लिए धन की जरूरत होती है। अगर सीधे रास्ते धन नहीं आयेगा तो गलत तरीके से कमाया जायेगा। बिना इस समस्या का हल निकाले राजनीति इसी तरह बदनाम होती रहेगी। अब वो जमाने चले गये जब राजनीति में केवल त्याग और सेवा की भावना से आया जाता था।
 
अब अगर व्यापार की दृष्टि से देखें तो नितिन गडकरी की बेनामी कम्पनियां वही कर रही है जो सारे देश मे हो रहा है। इसे करवाने वाले चार्टर्ड एकाउटेन्ट है। जो अपने ग्राहक को इस तरह घुमाकर काला धन सफेद करने की सलाह देते हैं। गडकरी के मामले में सवाल उठाया जा सकता है कि उन्हें काला धन सफेद करने की क्या जरूरत आन पड़ी ? ऐसा कौन-सा काम था जो वे काले धन से नहीं कर सकते थे ? जहां तक राबर्ट वडेरा का प्रश्न है असुरक्षित ऋण लेना कोई अपराध नहीं है। मित्रों के बीच ऐसा लेन देन अक्सर हुआ करता है। जब ब्याज भी नहीं लिया जाता और कभी कभी तो उसे ‘बैड डैट‘ बताकर अपनी ‘बैलेन्स शीट‘ से हटा दिया जाता है। हाँ अगर राबर्ट वडेरा ने राजनैतिक सम्बन्धों का दुरूपयोग कर अनुचित लाभ कमाया है तो उसे भ्रष्टाचार ही माना जायेगा।
 
देश के सामने बडी विचित्र स्थिति पैदा हो गयी है। कुछ ‘स्वयंभू जननेताओं‘ के नित्य नये नाटकों को देखकर मध्यम वर्ग के मन में सत्ता वर्ग के खिलाफ घृणा और आक्रोश बढाता जा रहा है। जबकि राजनेता और अफसरशाही मोटी चमड़ी किए बैठे हैं और अपने आचरण को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में देश में अराजकता फैलने का पूरा खतरा है। आवश्यकता इस बात की है कि जागरूक जनता सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों के प्रति सजग और सतर्क रहे। साथ ही प्रशासनिक व्यवस्था को जवाबदेह बनाने के लिए सतत दबाव डाले। कोई एक अन्ना या केजरीवाल या बाबा रामदेव या वी पी सिंह या जयप्रकाश नारायण देश से भ्रष्टाचार के कैंसर को खत्म नहीं कर सकता, इसके लिए हर स्तर पर उठकर खडे होना होगा। अपना मसीहा खुद बनना होगा।
 
अगर हम अपने जीवन, अपने परिवार व अपने समाज से भ्रष्टाचार, प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग और सार्वजनिक धन की बर्बादी नहीं रोक सकते तो हम कैसे उम्मीद करते हैं कि कोई मीडिया का मसीहा देश को सुधार देगा ? इससे तो हताशा ही हाथ लगेगी। संघर्ष के साथ ही हमें जमीनी हकीकत को भी ध्यान में रखना होगा। रस्सी को इतना ही खीचें कि गांठ लग जाये पर रस्सी न टूटे। कल तक कांग्रेस पर तोपें दागने वाले अन्ना और केजरीवाल हतप्रभ रह गये जब उन पर नितिन गडकरी के खिलाफ सबूत छिपाने का आरोप लगा। जब टाईम्स नाउ टी वी ने गडकरी पर हमला बोला तो टीम केजरीवाल ने तोपों का रूख अपने आप भाजपा की तरफ मुडा पाया। खिसियाकर अब वे दावा कर रहे हैं कि उन्होनें जनता के सामने सिद्ध कर दिया कि भ्रष्टाचार के मामलें में कांग्रेस और भाजपा एक से है। कितना हास्यादपद दावा है ? यह बात तो 1993 में जैन हवाला कांड उजागर कर हम 20 वर्ष पहले ही सिद्ध कर चुके थे। टीम केजरीवाल के प्रमुख साथियों ने षडयंत्र नहीं किया होता तो आज भ्रष्टाचार इतना न बढता। इसलिए पहले यह समझना होगा  कि जब दूसरों पर उंगली उठाने वालों के ही दामन साफ नहीं हैं तो वे देश को साफ नेतृत्व कैसे देगें ? फिर गडकरी और वडेरा को दोष देने से क्या हासिल होगा ? 

Monday, October 8, 2012

क्या होगा रॉबर्ट वाड्रा के खुलासे का असर

पिछले दो सालों से एसएमएस और इंटरनेट पर यह संदेश बार-बार प्रसारित किये जा रहे थे कि रॉबर्ट वाड्रा ने डीएलएफ के मालिक, हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हूडा व अन्य भवन निर्माताओं से मिलकर दो लाख करोड़ रुपये की सम्पत्ति अर्जित कर ली है। पर जो खुलासा शुक्रवार को दिल्ली में किया गया उसमें मात्र 300 करोड़ रुपये की सम्पत्ति का ही प्रमाण प्रस्तुत किया गया। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में बाकी की सम्पत्ति का भी खुलासा होगा। अगर नहीं होता है तो यह चिन्ता की बात है कि बिना प्रमाणों के आरोपों को इस तरह पूरी दुनिया में प्रचारित कर दिया जाता है। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि अगर राबर्ट वाड्रा ने अपनी सास श्रीमती सोनिया गांधी के सम्बंधों का दुरुपयोग करके अवैध सम्पत्ति अर्जित की है तो उसकी जांच होनी चाहिए। पर यहां कुछ बुनियादी सवाल उठते हैं जिनपर ध्यान दिया जाना जरूरी है। पहली बात, पिछले दस सालों में हर शहर में प्रापर्टी डीलरों की हैसियत खाक से उठकर सैंकड़ों करोड की हो चुकी है। दूसरी बात यह है कि राजनेता ही नहीं हर नागरिक कर चोरी के लिए अपनी सम्पत्ति का पंजीकरण बाजार मूल्य से कहीं कम कीमत पर करवाता है। इस तरह सम्पत्ति के कारोबार में भारी मात्रा में कालेधन का प्रयोग हो रहा है। तीसरी बात रोबर्ट वाड्रा इस धंधे में अकेले नहीं। किसी भी राज्य के किसी भी राजनैतिक दल के नेता के परिवारजन प्रायः सम्पत्ति के कारोबार में पाये जायेंगे। अरबों रुपयों की अकूत दौलत नेता अफसर और पूँजीपति बनाकर बैठे हैं। सम्पत्ति का कारोबार कालेधन का सबसे बडा माध्यम बन गया है। इसलिए इसका राजनीति में दखल बढ़ गया है। इसलिए एक रॉबर्ट वाड्रा का खुलासा करके समस्या का कोई हल निकलने नहीं जा रहा।

दरअसल पिछले बीस वर्षों में भ्रष्टाचार के इतने काण्ड उजागर हुए हैं कि जनता में इससे भारी हताशा फैल गई है। इस हताशा की परिणिति अराजकता और सिविल वार के रूप में हो सकती है। क्योंकि सनसनी तो खूब फैलायी जा रही है पर समाधान की तरफ किसी का ध्यान नहीं। अन्ना के आन्दोलन ने समाधान की तरफ बढने का कुछ माहौल बनाया था। पर उनकी कोर टीम की व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं ने सारे आन्दोलन को भटका दिया।

अरविन्द केजरीवाल जो अब कर रहे हैं वो एक राजनैतिक दल के रूप में शोहरत पाने का अच्छा नुस्खा है। पर इससे भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान नहीं होगा। बल्कि हताशा और भी बढ़ेगी। दरअसल अरविन्द केजरीवाल जो कर रहे हैं वो काम अब तक मीडिया का हुआ करता था। घोटाले उजागर करना और आगे बढ़ जाना। समाधान की तरफ कुछ नहीं करना। अब जब मीडिया टीआरपी के चक्कर में या औद्योगिक घरानों के दबाव में जोखिम भरे कदम उठाने से संकोच करता है तो उस खाई को पाटने का काम केजरीवाल जैसे लोग कर रहे हैं। मगर यहीं इस टीम का विरोधाभास सामने आ जाता है। अगर सनसनी फैलाना मकसद है तो समाज को क्या मिलेगा और अगर समाज को फायदा पहुंचाना है तो इस सनसनी के आगे का कदम क्या होगा घ् आप हर हफ्ते एक घोटाला उजागर कर दीजिए और भ्रष्टाचार के कारणों को समझे बिना जनलोकपाल बिल का ढिढ़ोरा पीटते रहिए। तो आप जाने अजनाने कुछ राजनैतिक दलों या लोगों को फायदा पहुंचाते रहेंगे। पर देश के हालात नहीं बदलेंगे। क्योंकि जिन्हें आप फायदा पहंुचायेंगे वे भी कोई बेहतर विकल्प नहीं दे पायेंगे।

तो ऐसे में क्या किया जाए ? भ्रष्टाचार कोई नया सवाल नहीं है। सैकड़ों सालों से यह सिलसिला चला आ रहा है। सोचा भी गया है प्रयोग भी किये गये हैं पर हल नहीं निकले। अब नये हालात में फिर से सोचने की ज़रूरत है और सोचे कौन यह भी तय करने की जरूरत है। भ्रष्टाचार को नैतिकता का प्रश्न माना जाये या अपराध का। अगर हम नैतिकता का प्रश्न मानते हैं तो समाधान होगा सदाचार की या अध्यात्म की शिक्षा देना। व्यक्ति के सात्विक गुणों को प्रोत्साहित करना और तामसी गुणों को दबाना। अगर भ्रष्टाचार को हम अपराध मानते हैं तो उसका समाधान कौन देगा ? इतिहास बताता है कि अपराध के विरूद्ध जब-जब कोई व्यवस्था बनाई गई है तब-तब उसको बनाने वाला अपराधी से भी बडा खौफनाक तानाशाह सिद्ध हुआ है। दरअसल भ्रष्टाचार का मामला नैतिकता के और अपराध के बीच का है। इतिहास यह भी बताता है कि कोई एक जनलोकपाल या उससे भी कड़ा कानून इसका समाधान नहीं कर सकता। इसके लिए जरूरत है कि इन क्षेत्रों के विशेषज्ञ बैठकर अध्ययन करें और समाधान खोजें। उदाहरण के तौर पर ऐसा कैसे होता है कि त्याग, बलिदान और सादगी की शिक्षा देने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता जब भाजपा में मंत्री बनते हैं तो नैतिकता के सारे पाठ भूल जाते हैं। इसी तरह महात्मा गांधी के आदर्शों को अपने जीवन में अपनाने का संकल्प लेकर कांग्रेस में घुसने वाले मंत्री पद पाकर गांधी की आत्मा को दुःख पहुंचाते हैं। मजदूरों के हक की लडाई लडने वाले साम्यवादी नेता चीन और रूस में सत्ता पाने के बाद भ्रष्टाचार करते हैं। इसलिए बिखरी टीम अन्ना मीडिया में छाये रहने के लिए हर हफ्ते जो नये शगूफे छोड़ रही है या छोड़ने वाली है उससे हंगामा तो बरपाये रखा जा सकता है पर भ्रष्टाचार का इलाज नहीं कर पायेंगे। नतीजतन रही-सही व्यवस्था भी ध्वस्त हो जायेगी। ऐसे विचारों को पढ़कर या टीवी चैनल पर सुनकर कुछ भावुक पाठक नाराज हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि मैं इन लोगों के प्रयासों का विरोध कर रहा हूं। जबकि हकीकत यह है कि शान्ति भूषण और प्रशान्त भूषण जैसे लोगों ने बीस वर्ष पहले भ्रष्टाचार के विरूद्ध सबसे बड़ी लडाई में अगर गद्दारी न की होती तो शायद हालात आज इतने न बिगडते। इसलिए इनकी कमजोरियों को समझकर और यथार्थ को देखते हुए परिस्थितयों का मूल्यांकन करने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि भावना में बहकर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लें।

Tuesday, October 2, 2012

अब अन्ना ने पकड़ी सही राह



अपनी टीम की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं से आहत होकर अन्ना ने जन आन्दोलनों के रास्ते भ्रष्टाचार से लड़ने का निर्णय लिया है. जो सही है. दरअसल हमें तो शुरू से ही इस बात का एहसास था कि जिन लोगों ने अन्ना को पिछले वर्ष पकड़ा था उन सबका छिपा एजेंडा अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना था. अन्ना को तो केवल मोहरा बनाया जा रहा था. इसलिए पिछले वर्ष के शुरू में ही जब मीडिया और मध्यम वर्ग के लोग टीम अन्ना के दीवाने हो रहे थे तब हमने हर टीवी चैनल, अखबार और पर्चों के माध्यम से देश को आगाह किया था. तब हमारे शुभचिंतकों को आश्चर्य हुआ कि सारी जिंदगी भ्रष्टाचार से लड़ने वाले लोग इस वक्त टीम अन्ना के साथ क्यूँ नहीं खड़े ? आज सबको याद आ रही है हमारी चेतावनी. खैर देर आयद दुरुस्त आयद.
पर अभी भी अन्ना पर खतरा टला नहीं है. इंका और भाजपा से अलग एक नया राजनैतिक विकल्प बनाने कि फ़िराक में जुटे कुछ थके मांदे लोग भी अब अन्ना को अपने जाल में फसाने में जुटे हैं. उन्हें पता है कि अब भी अन्ना कि देश भर में साख है, तो क्यूँ न उसे भुना लें? पर अन्ना को सोचना चाहिए कि आज देश में ऐसा एक भी नेता या दल नहीं है जो भ्रष्टाचार के सवाल पर सख्त कदम उठाने को तैयार हो. अन्ना का प्रयोग करके उन्हें गड्ढे में फेंक दिया जायेगा. फिर वे कहीं के नहीं रहेंगे.
ज़रूरत इस बात की है कि अन्ना ऐसे किसी भी तरह के राजनैतिक जाल में ना फंसे. बिना किसी दल का समर्थन या विरोध किए देश भर में निष्पक्ष लोगों का एक संगठन तैयार करें. जिसके उद्देशय बिलकुल साफ़ हो. भ्रष्टाचार से लड़ना. आम जनता के हक में विकास नीतियां बनवाना और उन्हें ईमानदारी से लागू करवाना. इसके लिए उन्हें पहले एक ऐसी कोर टीम बनानी चाहिए जिसमें सभी सदस्य ऐसे हों जो लंबे समय तक बिना समझौते किए व्यवस्था से लड़ते रहे हों. बिके न हों. झुके न हों. वही लंबे समय तक चल पाएंगे. इसके बाद इस कोर टीम कि मदद से हर प्रांत, जिले और गाँव में भी ऐसे लोगों कि टीम खड़ी हो जायें. इन सभी को इनके स्तर पर लड़ने के लिए कार्यक्रम दिये जाए. शुरू में छोटी छोटी लड़ाई लड़ी जाएँ. जिससे लोगों में लड़ने कि हिम्मत आए और हताशा न फैले. राजनैतिक विद्वेष, हिंसा और अराजकता को बिलकुल हावी न होने दिया जाए.
सरकार और प्रशासन पर हमला करने का जो तरीका टीम अन्ना ने अपनाया था उससे देश भर में अराजकता का माहौल बन रहा है. समाधान तो निकले नहीं और देश के दुश्मनों को देश को कमज़ोर करने का मौका मिले, इससे ज्यादा आत्मघाती बात क्या हो सकती है? इस खतरे कि ओर इन्हीं कॉलमों में हम देश को आगाह करते आए हैं.
उधर अन्ना कि मुश्किल यह है कि वे एक गाँव या महाराष्ट्र की राजधानी तक सीमित रहे हैं. उन्हें देश के योद्धाओं कि न तो जानकारी है और न ही उनसे परिचय. नतीजतन वे सबको शक कि नज़र से देखते हैं. इसलिए इस पूरे अभियान में अभी एकदम तेज़ी नहीं आ सकती. पहले अन्ना को देश भर में घूम कर इन लोगों समझना होगा. विश्वास का रिश्ता कायम करना होगा. यह धीमी मगर ठोस प्रक्रिया है. नतीजा इससे ही आएगा.
आज के माहौल में कांग्रेस, भाजपा, या कोई भी क्षेत्रिय दल क्यूँ न हो भ्रष्टाचार से लड़ने की स्थिति में नहीं है. इसलिए किसी भी दल को लक्ष्य न बना कर व्यवस्था के दोषों को दूर करने कि लड़ाई लड़नी चाहिए. राजनेताओं को लक्ष्य बनाकर गाली देना आसान है. इसीलिए फिल्म हो या जनसभा तालियाँ तभी बजती हैं जब नेताओं को गाल पड़ती हैं. पर भ्रष्टाचार के लिए नेताओं के अलावा जो वर्ग जिम्मेदार है उसकी जकड व्यवस्था पर इतनी मज़बूत है कि मीडिया से लेकर हर संस्था उनके शिकंजे में है. ऐसे में यह लड़ाई आसान नहीं है. पर हिम्मत, सही निर्णय, सही सोच और पक्का इरादा हमें इस देश को सही राह पर ले जाने में मदद करेगा.

Monday, September 17, 2012

कीमत वृद्धि या साधनो का सही बंटवारा

डीजल और गैस के दामो को बढाकर सरकार अपने सहयोगियों और विरोधियो का हमला झेल रही है। सोचने वाली बात यह है कि भ्रष्टाचार पर मच रहे शोर से घिरी सरकार ने इतनी विपरीत परिस्थितियो मे भी ऐसा जोखिम भरा कदम क्यो उठाया ? क्या उसे नही पता कि विपक्षी दल इसका भरपूर लाभ उठायेंगे? फिर भी अगर यह फैसला किया गया है तो जाहिर है कि इसके पीछे सरकार मे काफी सोच-विचार किया है। दरसल सब्सिडी के चलते 33,000 करोड रूपये का घाटा झेलना सरकार को भारी पड़ रहा था। यह सब्सिडी इस उम्मीद मे दी गयी थी कि इसका फायदा गरीब किसान मज़दूरो को होगा। पर ऐसा नही हो रहा था। सब्सिडी का फायदा बडे पैसे वालो, डीलरों और कालाबाजारियों को हो रहा था। इसलिए इसे बन्द किया गया। शायद यह सोचा गया कि इस तरह अप्रत्यक्ष रूप से राहत जरूरतमंदो तक नही पहुंचती। इसलिए इसे जरूरतमंदो तक सीधा पहुंचाने की व्यवस्था की जाए। इसलिए डीजल और गैस के दामो मे बढ़ोतरी की घोषणा को लेकर मच रहा शोर बेमानी है।
अब देखना यह होगा कि आने वाले महीनो मे सरकार ऐसी कौन सी योजनाए लाती है जिससे सब्सिडी मे जा रहा 33000 करोड रूपया सीधे आम आदमी की जेब मे जाए। गौर करने वाली बात यह है कि एक तरफ तो घोटालो को लेकर सरकार मीडिया और विपक्ष की लगातार मार झेल रही है। दूसरी तरफ वह लगातार ऐसे कार्यक्रमो को ला रही है जिनसे बडे बिचैलियो की जगह पैसा नीचे के तबके के पास पहुंचे। नरेगा जैसी योजनाए इसी का प्रमाण है। जिनसे, कुछ कमियो के बावजूद, देश के देहातो मे आम आदमी तक आर्थिक मदद पहुंचना शुरू हो गयी है। इसका मतलब यह नही है कि सरकार को शहरी मध्यम वर्ग की चिन्ता नही है। पर उसे पता है कि देश की आर्थिक प्रगति का ज्यादा लाभ इन्ही वर्गो को पहुंचा है। फिर भी यही वर्ग ज्यादा शोर मचाता है क्योकि उसकी अपेक्षाए असीम है और उसके पास शोर मचाने का समय और साधन है। यह वह वर्ग है जो कभी भी देश के गरीब किसान मजदूरो की बदहाली पर उत्तेजित नही होता। गांवो मे कितनी आरूषियो की हत्या रोज हो जाती है पर उनके लिए महीनो तक ऐसा बवंडर मचना तो दूर, उनकी खबर तक नही ली जाती।
जहां तक मुलायम सिंह यादव या ममता बनर्जी जैसे सहयोगी दलो की बयानबाजी का सवाल है तो यह साफ है कि ऐसे सभी दल असमंजस की स्थिति मे है। सबकी निगाह 2014 के चुनाव पर है। इसलिए हर मौके का फायदा उठाना ही होता है। इसमे कुछ गलत नही। पर इनकी मुश्किल यह है कि अगर ये भाजपा के संग जाते है तो इनका वोट बैक बिखर जाता है। कांग्रेस का भविष्य अभी स्पष्ट नही दिखता। ऐसे मे ये बयानबाजी करके अपनी पहचान बनाये रखना चाहते है पर विरोध इतना भी तीखा नही करते कि सरकार गिर जाए। सरकार के सामने बडी चुनौती है। अपनी खोयी साख को वापस लाना और विरोध के इस माहौल मे आम जनता तक अपनी नीतियो का लाभ पहुंचाना। एक आग का दरिया है और कूद के जाना है। डीजल और गैस के दामो मे बढोतरी एक ऐसी ही छलांग है। गिर पडे तो खाक मे मिल जायेगे और पार हो गये तो लोग देखते रह जायेगे।
दरअसल साझी सरकार की सबसे बडी विवशता यह होती है कि वो गरीब की जोरू और गांव की भाभी की तरह होती है। राह चलता उससे मजाक करता है। डां मनमोहन सिह काम करे तो अमेरिका के ऐजेंट। न काम करे तो नाकारा प्रधानमंत्री। सहयोगी दलो की सुने तो कोई निर्णय न ले सके। न सुने तो समर्थन वापस लेने की धमकी। सहयोगी दल अगर देशहित में दबाव बनायें तो समझ मे आता है। पर हर धमकी की परिणिति ज्यादा से ज्यादा पैसा खींचने की होती है। हर धमकी के बाद अपने राज्य के लिए  बडे़-बड़े पैकेज मांगे जाते हैं। मिल जाते है तो सारा विरोध ठंडा पड़ जाता है। नहीं मिलता तो शोर मचाया जाता है। इस सब का परिणाम यह हो रहा है कि देश कि आर्थिक प्रगति की गाड़ी पटरी से उतरती जा रही है। एक तो वैसे ही दुनिया में मंदी का दौर है। दूसरा चीन हमारे बाजारो पर कब्जा कर चुका है। तीसरा आतंकवादी संगठन नकली नोटो का जाल बिछा चुके हैं। ऐसे में इस तरह की राजनैतिक अस्थिरता देश के लिए बडी घातक सिद्ध हो रही है।
पर इसमें दोष सरकार का भी है। भ्रष्टाचार के मामलो में सरकार की कोताही जनता की नाराजगी का कारण बन रही है। पर सोचने वाली बात यह है कि सरकार के भ्रष्टाचार पर हल्ला बोलने वाला मीडिया और विपक्ष क्या यह नहीं जानता कि सरकार के विकल्प के तौर पर जो भी दल खड़े हैं उनका दामन भ्रष्टाचार के दागों से अछूता नहीं है। ऐसे मे जल्दी चुनाव कराने की अधीरता मे जो दल जुटे हैं वे जनता को यह आश्वासन नहीं दे सकते कि मौजूदा सरकार को हटाकर जो सरकार बनेगी वह देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कर देगी। ऐसे में यह साफ है कि यदि चुनाव होते है और मौजूदा सत्ताधारी दल सत्ता खो देता है तो भी देश में लूट, सत्ता के लिए आपसी संघर्ष और साझी सरकारों का जल्दी-जल्दी पतन ही होगा। वैसे तो दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनावों को कोई राष्ट्रीय मूड का पैमाना नहीं माना जा सकता, पर एक संकेत जरूर है कि इतने हमलो से घिरे सत्ताधारी दल के प्रति दिल्ली के युवाओं मे विश्वास है। इसे अपनी उपलब्धि न मानकर कांग्रेस को आत्मविश्लेषण करना चाहिए। अपनी कमियों पर ध्यान देकर आम जनता का विश्वास जीतना चाहिए। अपने केन्द्रीय मंत्रिमंडल से लेकर विधानसभाओं तक के दागी सदस्यों को पद से हटाकर नैतिक सुधार के कामो मे लगाना चाहिए। दल के भीतर या दल से बाहर से योग्य और साफ लोगों को सामने लाकर बड़ी जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो जनता उसका साथ देगी अन्यथा उसे सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा देगी। चाहे उसे और भी ज्यादा भ्रष्ट सरकार को क्यों न झेलना पड़े। यह देश के हित मे नही होगा।     
 

Monday, September 3, 2012

संसद अवरुद्ध कर देश का भला नहीं होगा

कोयला घोटाले पर संसद के सत्र को रोककर सियासी गलियारों में राजनैतिक पार्टियां आगामी लोकसभा चुनाव के लिए अपने-अपने गणित बिठा रही हैं। हो सकता है कि संसद का यह सत्र कोयला घोटाले की भेंट चढ़ जाए। वैसे अभी सत्र समाप्त होने में एक सप्ताह बाकी है। यह भी हो सकता है कि कोई समझौता हो जाए या बिना समझौता हुए ही चुनाव की तैयारी की जाए और संसद भंग हो जाए। लेकिन यह कोई नई घटना नहीं है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में आजादी से लेकर आजतक तमाम घोटाले हुए हैं। उन घोटालों को लेकर भी विपक्ष द्वारा संसद को ठप्प किया जाता रहा है। पर उन घोटालों की न तो कभी ईमानदारी से जांच हुई और न किसी को कभी सज़ा मिली। क्योंकि हमाम में सभी नंगे हैं। फिर भी इस बार भाजपा और उसके सहयोगी दल अपने-अपने राजनैतिक गणित के अनुसार अलग-ठलग बैठे हुए हैं। भाजपा के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तो यह कहा ही है कि अगला प्रधानमंत्री गैर कांग्रेसी होगा। उनका यह बयान भी आगामी लोकसभा चुनाव की रणनीति को ही दर्शाता है। यदि इस शोर के पीछे वाकई मुद्दा भ्रष्टाचार का है तो ऐसा महौल नहीं बनाया जाता। क्योंकि भ्रष्टाचार के मामले को तो आसानी से हल किया जा सकता था। पर पिछले 65 वर्षां में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शोर चाहे जितना मचा हो, इसका हल ढूंढने की कोशिश नहीं की गई। इसीलिए जब अन्ना हजारे या बाबा रामदेव जैसे लोग अनशन करने बैठते हैं, तो शहरी पढ़े-लिखे लोगों को लगता है कि रातोरात क्रांन्ति हो जायेगी। भ्रष्टाचार मिट जायेगा। देश सुधर जायेगा। पर भ्रष्टाचार की जड़े इतनी गहरी और इतनी व्यापक हैं कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे आन्दोलन बुलबुले की तरह समाप्त हो जाते हैं । कुछ नहीं बदलता। इसलिए मौजूदा माहौल में भ्रष्टाचार के विरूद्व शोर मचाने वाले दलों का एजेंडा भ्रष्टाचार खत्म करना नहीं बल्कि सत्तापक्ष पर करारा हमला करके आगमी चुनाव के लिए अपनी राह आसान करना है। मैं आजकल अमेरिका के कुछ शहरों में व्याख्यान देने आया हूं। यहां के अप्रवासी भारतीय जो भाजपा को पहले राष्ट्रभक्त और ईमानदार दल मानते थे, अब उससे इनका मोह भंग हो गया है। संसद में मच रहे शोर पर यह लोग यही कहते हैं कि सब एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
यदि वाकईं तमाम विपक्षी दल, सत्ताधारी दल, नौकरशाह एवं बुद्धिजीवी वर्ग भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए दृढ़ संकल्पित हैंए तो इस माहौल में एक ठोस शुरूआत आज ही की जा सकती है। बोफोर्स घोटाला, हवाला घोटाला, चारा घोटाला, तेलगी कांड, 2जी घोटाला आदि जैसे दस प्रमुख घोटालों की सूची बना ली जाए। सर्वोच्च न्यायालय के ईमानदार जज, सी.बी.आई. के कड़े रहे अफसर, अपराध कानून के विशेषज्ञ व वित्तीय मामलों के विशषज्ञों को लेकर एक स्वतंत्र निगरानी समिति बने, जो इन घोटालो की जांच अपनी निगरानी में, समयबद्व तरीके से करवाये। तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। शर्त यह है कि इस समिति के सदस्यो का चयन उनके आचरण के बारे में सार्वजनिक बहस के बाद हो। इस पर सरकार का नियंत्रण न हो व उसे स्वतत्रं जांच करने की छूट दे दी जाए। तो एक भी दल ऐसा नहीं बचेगा जिसके नेता किसी न किसी घोटाले में न फंसे हों। अगर ऐसे ठोस कदम उठाए जाते हैं तो संसद को बार-बार ठप्प करने की जरुरत नहीं पडेगी और भष्टाचार के विरुद्ध एक सही कदम की शुरूआत होगी। पर जनता जानती है कि कोई कभी राजनैतिक दल इसके लिए राजी नहीं होगा। इसलिए जो शोर आज मच रहा है उसका कोई मायना नहीं ।
चूँकि भारत में लोकतांत्रिक पंरपरा है और हर पांच साल में लोकसभा के चुनाव होते हैं, इसलिए सभी दलों को चाहे वे सत्ताधारी हों या विपक्ष में हो, जनता को अपने-अपने कार्य दिखाने होते हैं। इसलिए विपक्ष इस प्रकार के हंगामे खड़े करके संसद ठप्प करता है। पर दूसरी तरफ वह भी जानता है कि हमारा चुनावी तंत्र ऐसा है जिसमें भारी पैसे की जरूरत पड़ती है। इसलिए भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कोई भी दल आन्तरिक तौर पर तैयार नहीं दिखता। चूंकि जनता में शासन पद्धति को लेकर हताशा बढ़ती जा रही है, इसलिए संसद से लेकर अखबार, टीवी चैनल और सिविल सोसायटी तक में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खूब शोर मचाया जा रहा है। पर यह शोर स्टीराइड दवा की तरह काम करता है। जो तत्कालीन फायदा करती है, पर ये लम्बा नुकसान कर देती है। यह शोर भी भ्रष्टाचार को हल करने की बजाए ऐसा माहौल बनाने जा रहा है जिससे राजनैतिक अराजकता और अस्थिरता बढे़गी पर भ्रष्टाचार दूर नहीं होगा।
वैसे देश के सामने और भी तमाम मुद्दे हैंए जो देश के शासन, प्रशासन व अन्य क्षेत्रों को दुरूस्त कर सकते हैं। उनपर संसद में कोई सार्थक बहस कभी नहीं होती। 120 करोड़ की आबादी वाले देश में कभी भी स्वास्थ्य (मिलावट खोरी), जल प्रबंधन, भूमि प्रबंधन, कानून व्यवस्था, न्याय व अन्य मुददो पर, जिनसे जनता का हित जुड़ा है, पर कभी ऐसा शोर नहीं मचता। जहां एक तरफ लोगों के रहने के लिए झोपड़ी नसीब नहीं हैं, वहां इस देश के पटवारी, करोडों की जमीन यूंही मुफ्त में, भवन निर्माताओं के नाम चढ़ा देते है। उन्हें उपर से संरक्षण मिलता है। इस देश में आजतक कितने मिलावटखोरों को सजा हुई हैं ? नदी, कुँए, जमीन के भीतर के पानी में जहर घोलने वाले उद्योगपतियों में से कितने जेल गये हैं ? देश की अदालतों में करोड़ों मुकदमें लटके हुए हैं। एक आदमी को कई पीढ़ियों तक न्याय नहीं मिल पाता है। ऐसे तमाम मुद्दे हैं जिन पर ये राजनेता चर्चा ही नहीं करते। यदि करते भी हैं तो खानापूर्ति करते हैं। इसलिए संसद में आ रहे अवरोध से देश का कोई भला नहीं होगा।

Monday, August 27, 2012

क्या देश में आपातकाल जैसे हालात बन रहे हैं ?

दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में ई-मेल और एसएमएस के जरिए पूर्वोत्तर राज्यों के नौजवानों को दहशतगर्द मुसलमानों द्वारा जिस तरह डराया-धमकाया गया, उससे वहां अफरा-तफरी मच गई। जिस पर देशभर के मीडिया में खूब शोर मचा। मजबूरन सरकार को कुछ सोशल नेटवर्किंग साइट्स  पर प्रतिबन्ध लगाना पड़ा। जिससे अफवाहों को फैलने से रोका जा सके। इसका कुछ सामाजिक संगठनों ने विरोध किया तो उनको नेतृत्व देने के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी मैदान में उतर पड़े। उन्होंने अपने ट्व्टिर पर अपनी फोटो पर खुद ही स्याही पोतकर लिखा कि यह आदेश आपातकाल के काले दिनों की याद दिलाने वाला है। गत दो वर्ष से जो माहौल देश में बनाया जा रहा है उसे अंग्रेजी के एक शब्द मे यदि समेटा जाये तो कहा जायेगा कि यह ’रिकैपुचुलेशन’ जैसा है। मतलब यह कि पहले आपातकाल जैसे हालात बनाये जाये और फिर यह कहा जाये कि देखो देश की हालत किस तरह आपातकाल के पूर्व की हो रही है।
बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम तो अब कहीं हाशिये पर धकेल दी गई। अब तो यह लड़ाई कांग्रेस और भाजपा के बीच लड़ी जा रही है। हर मुददे पर शोर मचाकर सरकार को घेरा जा रहा है। इस उम्मीद में कि 2013 तक चुनाव हो जायें और कंाग्रेस विरोधी लहर बनाकर भाजपा व उसके सहयोगी दल सत्ता में आ जायें। यह पूरी परिस्थिति 1971 की याद दिलाती है। जब बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद इन्दिरा गांधी के विरूद्व देशव्यापी माहौल खड़ा किया गया। हालात ऐसे बन गये कि श्रीमति गांधी को कोई रास्ता नहीं सूझा। स्थिति को नियंत्रण में करने के लिए उन्होंने आपातकाल लागू कर दिया। नतीजतन 1977 के चुनाव में उनकी भारी पराजय हुई। राजनैतिक दृष्टिकोण से और लोकतंत्र के नजरिये से यह एक उपलब्धि मानी गई। पर क्या जय प्रकाश नारायण का सम्पूर्ण क्रांन्ति का सपना सच हो पाया ?
1980 में जनता ने पुनः श्रीमति गांधी को देश की बागडोर सौंप दी। इसी तरह पिछले दिनों अन्ना हजारे को जय प्रकाश नारायण बनाने की असफल कोशिश की गई। अन्ना हजारे और रामदेव दोनों के समर्थन में भाजपा और संघ ने अपनी ताकत झौंक दी। पर जब लगा कि इन दोनों का पूरा उपयोग हो गया तो इनके नीचे से चादर खींच ली गई। अब चाहे अन्ना के लोग कितना ही निष्पक्ष दिखने का प्रयास करें, उनका असली स्वरूप, जो छिपाकर रखने की नाकाम कोशिश की जा रही थी, खुलकर सामने आ गया है। ऐसे में यह लोग हों या बाबा रामदेव, कांग्रेस के विरूद्व भाजपा के हाथ में शतरंज के मौहरे बनकर रह गये हैं। जिनका काम कांग्रेस की छवि खराब करना व उसके वोट काटना ही रह गया है।
इस मामले में भाजपा ने कुशल राजनैतिक चाल चली और आज वह उसमें सफल होती दीख रही है। इसमें भाजपा का कोई दोष नहीं। राजनीति सत्ता के लिए जब की जाये तो साम-दाम दंड-भेद कुछ भी अपनाकर सत्ता हासिल करनी होती है। जब कांग्रेस अपनी रक्षा खुद नहीं कर पा रही तो भाजपा उसका फायदा क्यों न उठाये ? पर अभी यह कहना जल्दीबाजी होगी कि लोकसभा के चुनाव 2013 में होंगे और उसमें भाजपा बढ़त हासिल कर सरकार बनायेगी। कारण साफ है कि दावा चाहे जितना करें भाजपा की कमीज कांग्रेस की कमीज से ज्यादा साफ नहीं है।
तो क्या यह माना जाये कि सभी क्षेत्रिय दलों को जोड़कर और भाजपा व कांग्रेस के नेताओं को तोड़कर विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसा तीसरा मोर्चा बनाने की जो छुटपुट कोशिश की जा रहीं है, वह सफल होगी ? कहा नहीं जा सकता। क्योंकि इस गुट के पास न तो विश्वसनीय नेता है और न ही इसके घटकों के नेताओं की ऐसी छवि है कि लोग उन्हें आंख मीचकर गददी सौंप दें। यूं राजनीति में मतदान के आखिरी दिन तक क्या होगा, किसी को पता नहीं होता। जहां तक सवाल अन्ना के लोगों के नये बनने वाले राजनैतिक दल का है, तो अभी तो ऊंट पहाड़ के नीचे आया ही नहीं, ऐसे में क्या भविष्यवाणी की जाये ? उन्हें शुभकामनाएं दी जा सकती है कि वे सभी प्रमुख राजनैतिक दलों को हराकर सत्ता हासिल करें और अपनी मान्यता के अनुसार नये कानून बनाकर देश की तस्वीर बदले। पर उनके अबतक के कारनामे और बयान उनसे ऐसे किसी गम्भीर काम की सम्भावना का संकेत नहीं देते।
इस तरह बात वहीं लोकतंत्र में राजनैतिक दलों की भूमिका पर आ जाती है। मान लें कि भाजपा अपने लक्ष्य को 2013 या 2014 में पाने में सफल हो जाती है तो क्या इस बात की गारंटी है कि मौजूदा हालात में सरकार की जो भी कमियां और गल्तियां बताई जा रही हैं उनसे भाजपा की नई सरकार मुक्ति दिला देगी और देश के हालातों में क्रांन्तिकारी परिवर्तन कर देगी। उसका अबतक का रिकार्ड, केन्द्र या राज्यों में, ऐसे प्रमाण प्रस्तुत नहीं करता। फिर उस मतदाता की क्या दुर्दशा होगी जो इन बदलावों के लिए सड़कों पर उतरा है या उतरने को तैयार था ? कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि हम एक नाजुक दौर से गुजर रहे हैं। चीन घात लगाये बैठा है। पाकिस्तान भारत में कटटरपन्थी माहौल बनवाकर और दहशतगर्दी फैलाकर देश को कमजोर करने की कोशिश में जुटा है। पर कांग्रेस व भाजपा सहित किसी भी दल को इस खतरनाक परिस्थिति का या तो एहसास नहीं है या यह दोनों ही दल हालात पूरी तरह बिगड़ने देना चाहते हैं, जिससे इनके नेता अपनी राजनैतिक रोटियां सेकते रहे। देश के करोड़ों नौजवानों की महत्वाकांक्षा की उपेक्षा कर अगर राजनीति इसी तरह आरोप प्रत्यारोप की कीचड़ फैंकती रहेगी और समाधान नहीं देगी, तो वास्तव में देश के हालात बेकाबू हो सकते हैं। वह भयावह स्थिति होगी।

Monday, August 20, 2012

अमरनाथ शिराइन बोर्ड कब जागेगा ?

जहां एक तरफ केंद्र और राज्य सरकारें अल्प संख्यकों के लिए हज राहत जैसी अनेक सुविधाए वर्षो से देती आई है, वहीं हिन्दुओं के तीर्थस्थलों की दुर्दशा की तरफ किसी का ध्यान नहीं है। आए दिन इन तीर्थस्थलों पर दुर्घटनाऐं और हृदय विदारक हादसे होते रहते हैं। पर कोई सुधार नहीं किया जाता। ताजा मामला अमरनाथ यात्रा में इस साल मरे लगभग 100 लोगों के कारण चर्चा में आया। तीर्थस्थलों के प्रबन्धन को लेकर सरकारों की कोताही एक गम्भीर विषय है जिस पर हम आगे इस लेख में चर्चा करेंगे। पहले अमरनाथ शिराइन बोर्ड की नाकामियों की एक झलक देख लें।

इस हफ्ते सर्वोच्च न्यायालय ने जम्मू-कश्मीर के अमरनाथ शिराइन बोर्ड को कड़ी फटकार लगाई। अदालत बोर्ड की नाफरमानी और निक्म्मेपन से नाराज है। उल्लेखनीय है कि इस बोर्ड का गठन अमरनाथ की पवि़त्र गुफा मे दर्शनार्थ जाने वाले तीर्थ यात्रियो की सुविधा और सुरक्षा का ध्यान रखना है। बोर्ड के अध्यक्ष जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल है और सदस्य देश की जानी मानी हस्तियां हैं। बताया जाता है कि बोर्ड के पास लगभग 500 करोड़ रूपया जमा है। बावजूद इसके व्यवस्थाओं का यह आलम है कि इस वर्ष तीर्थयात्रा पर गये लगभग 100 लोग मारे गये और सैंकड़ो घायल हुए। शर्म की बात तो यह है कि इतनी बड़ी तादाद में लोगों ने जान गंवाई पर बोर्ड ने न तो देशवासियों के प्रति कोई संवेदना संदेश प्रसारित किया और न ही अपनी लापरवाही के लिए माफी मांगी। मजबूरन सर्वोच्च न्यायालय को ’सूओ-मोटो’ नोटिस भेजकर अमरनाथ शिराइन बोर्ड को तलब करना पड़ा। अदालत ने उसे उच्च स्तरीय समिति से मौके पर मुआयना करके अपनी कार्य योजना प्रस्तुत करने का आदेश दिया। इतना सब होने के बावजूद अमरनाथ शिराइन बोर्ड अदालत में यह रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं कर पाया। उसने छः महीने का समय और मांगा। उसे फिर अदालत की फटकार लगी। माननीय न्यायधीशों ने तीन हफ्ते का समय दिया और साफ कह दिया कि रिपोर्ट नहीं कार्य योजना चाहिए, तीन हफ्ते में कार्य शुरू हो जाना चाहिए। ऐसा न हो कि बर्फबारी शुरू हो जाये और कोई काम हो ही न पाये।

जब सर्वोच्च अदालत में यह सब कार्यवाही चल रही थी तो मुम्बई के पीरामल उधोग समूह की ओर से एक शपथ-पत्र दाखिल किया गया। जिसमें कम्पनी ने अमरनाथ के यात्रियों के लिए सड़क मार्ग व पैदल रास्ते पर सुरक्षित आने-जाने की व्यवस्था व अदालत के निर्देशानुसार अन्य सुविधाए मुहैया कराने की अनुमति मांगी। कम्पनी ने अपने शपथ-पत्र में यह साफ कर दिया कि वह यह सब कार्य धमार्थ रूप से अपने आर्थिक संसाधनों और कारसेवकों की मदद से करेगी। इसके लिए कम्पनी जम्मू कश्मीर सरकार व अमरनाथ शिराइन बोर्ड से किसी तरह की आर्थिक मदद की अपेक्षा नहीं रखेगी। उल्लेखनीय है कि उक्त उधोग समूह आन्ध्रप्रदेश में स्वास्थ सेवा का, गुजरात व राजस्थान में प्राथमिक शिक्षा व पेयजल का व ब्रज में सास्ंकृतिक धरोहरों के संरक्षण का कार्य देश की जानी-मानी स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से कर रहा है। इसी क्रम में अमरनाथ के यात्रियों की सेवा का भी प्रस्ताव किया गया। सर्वोच्च अदालत नें अमरनाथ शिराइन बोर्ड की हास्यादपद स्थिति पर टिप्पणी की कि जब एक निजी संस्था यह सेवा देने को तैयार है तो बोर्ड को क्या तकलीफ है ?

उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद शिराइन बोर्ड की मदद के लिए जम्मू कश्मीर सरकार ने अपने मुख्य सचिव माधव लाल की अध्यक्षता में एक समिति गठित की। जिसने मौका मुआयना करके अपनी रिपोर्ट अमरनाथ शिराइन बोर्ड को सौंप दी है। अब देखना है कि बोर्ड अदालत के सामने क्या योजना लेकर आता है ?

यह बड़े दुख और चिन्ता की बात है कि हिन्दू धर्म स्थलों के प्रबन्धन के लिए बने शिराइन बोर्ड  भक्तों से दान में अपार धन प्राप्त होने के बावजूद तीर्थ स्थलों की सुविधाओं के विस्तार की तरफ ध्यान नहीं देते। इन बोर्डो में अपनी पहुंच के कारण ऐसे लोग सदस्य नामित कर दिये जाते है जिनकी इन तीर्थ स्थलों के प्रति न तो श्रद्वा होती है, न ही समझ। केवल मलाई खाने और मौज उड़ाने के लिए इन्हें वहां बैठा दिया जाता है। नतीजतन न तो ऐसे लोग खुद कोई पहल कर पाते है और न ही किसी पहल को आगे बढ़ने देते हैं। पीरामल समूह के प्रतिनिधि व आस्था से सिक्ख हरिन्दर सिक्का जब अमरनाथ यात्रा पर गये तो उनसे इस विश्वप्रसिद्व तीर्थ की यह दुर्दशा नहीं देखी गई। वे आरोप लगाते हैं कि अमरनाथ शिराइन बोर्ड तीर्थयात्रियों को मिलने वाली हर सुविधा जैसे टैन्ट, टट्टू, व हैलीकॉप्टर आदि में से बाकायदा शुल्क लगाकर मोटा कमीशन खाता है। इस दौलत को अपने खाते में जमा कर चैन की नींद सोता है। जबकि इस पैसे का इस्तेमाल यात्रियों की सुविधाओं के विस्तार के लिए होना चाहिए था, जो नहीं किया जा रहा।

हमारा मानना है कि हर धर्म स्थल के प्रबन्धन की समिति का अध्यक्ष भले ही उस प्रान्त का राज्यपाल या मुख्य सचिव हो, पर इसके सदस्य उस तीर्थ में आस्था रखने वाले धनाड्य सम्मानित ऐसे लोग हों जो अपना समय और धन दोनों लगा सकें। इनके अलावा इस तरह के कार्यो में रूचि रखने वाले प्रतिष्ठित समाज सेवियों को भी इन बोर्डो में सदस्य बनाया जाना चाहिए। जिससे संवेदनशीलता के साथ कार्य हो सके। स्थानीय विवादों के चलते बहुत से धर्म स्थलों को कई अदालतों ने अपने नियंत्रण में ले रखा है। इनका भी हाल बहुत बुरा है। न तो न्यायधीशों और न ही प्रशासनिक अधिकारियों का यह काम है कि वे धर्म स्थलों का प्रबन्धन करें। सदियों से यह काम साधन सम्पन्न आस्थावान लोग करते आये हैं। चुनावी राजनीति ने यह संतुलन बिगाड़ दिया। अब राजनेताओं के चमचे प्रबन्धन में घुसकर भक्तों की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं। इस पर सर्वोच्च न्यायालय को व भारत सरकार को स्पष्ट नीति की घोषणा करनी चाहिए। जिससे हमारी विरासत सजे-संवरे और देश की जनता सुख की अनुभूति कर सके।

Monday, August 13, 2012

बाबा रामदेव ने क्या खोया क्या पाया ?

बाबा रामदेव का धरना मीडिया की निगाह में सफल भले ही ना हो पर इस बार बाबा टीम अन्ना पर भारी पडे़। जिस दौर में टीम अन्ना विफल होकर जंतर मंतर से उठी उस दौर में बाबा रामदेव ने अपनी शैली बदलकर राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया। न तो उन्होंने टीम अन्ना की तरह राजनैतिक दलों को गाली दी और न ही अपनी मांगों पर अड़ने का बचपना दिखाया। इस तरह बाबा रामदेव ने राजनैतिक सागर की गहराई को सतह पर से मापने की कौशिश की। साधन सम्पन्न बाबा लम्बी पारी खेलने के लिए तैयार हैं इसलिए उन्होंने धीरता का यह नया रूप दिखाया। प्रश्न है कि बाबा की शैली में अचानक यह बदलाव कैसे आया ? क्या बाबा ने मजे हुए राजनैतिक सलाहकारों की मदद ली या फिर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के थिंक टैंक ने उनकी यह नई रणनीति तैयार की ? जो भी हो अगर वे इसी परिपक्वता का परिचय भविष्य में भी देते हैं तो निश्चित रूप से राजनीति के एक छोटे से हिस्से को ही सही, प्रभावित कर पायेंगे। अगर वे फिर पहले जैसा व्यवहार करते हैं तो हाशिये पर खड़े कर दिये जायेंगे।
वैसे बाबा रामदेव के धरने की शुरूआत एक विवादास्पद पोस्टर के कारण अच्छी नहीं रही। अपने सहयोगी आचार्य बालकृष्ण को राष्ट्र के सम्मानित नेताओं और शहीदों के साथ खड़ा करके बाबा ने नाहक मीडिया और देशवासियों की आलोचना झेली। इसके लिए उनकी टीम ने जो भी जिम्मेदार है उसे कान पकड़कर बाहर कर देना चाहिए। आचार्य बालकृष्ण के योगदान को महिमामण्डित करने के अनेक अवसर आये हैं और आयेंगे पर इस तरह का विचार बाबा के सलाहकारों के मानसिक दिवालियेपन का परिचय देता है।
टीम अन्ना ने बाबा की पूर्व घोषित तारीख से पहले अपना धरना शुरू कर बाबा को विफल करने की पूरी साजिश रची । यह बात दूसरी है कि टीम अन्ना अपनी उम्मीद के विपरीत बुरी तरह विफल होकर गई पर साथ ही वह बाबा के धरने की धार भी कुन्द कर गई। धरना शुरू करने से पहले बाबा का मुख्य मुद्दा था काला धन। पर टीम अन्ना की छाया में उन्हें लोकपाल, किसान, मजदूर व अन्य विषयों से जुडे मुद्दे भी उठाने पड़े। इससे उनका मूल मुद्दा पीछे छूट गया। इतने सारे मुद्दे एक साथ उठाने से बाबा के धरने की अहमियत कम हो गई।
मीडिया तो पहले की तरह ही बाबा के धरना स्थल पर मौजूद था। पर बाबा के भाषण में और मंच से जो कुछ बोला जा रहा था वह इस लायक नहीं था कि मीडिया उस पर ध्यान देता। बाबा के कार्यक्रम में खबर देने जैसा कुछ खास नहीं था।
बाबा के मंच पर न तो राष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति दिखाई दिये और न ही स्थानीय नेता। टीवी चैनलों पर टिप्पणीकार यही कहते रहे कि बाबा का आन्दोलन बौद्धिक क्षमता से शून्य है। बाबा के इर्द-गिर्द रहने वालों को यह बात शायद गले न उतरे पर सच है कि इन लोगों ने बाबा की छवि सुधारने का कोई काम नहीं किया, छवि गिरने का काम जरूर हुआ है। इसलिए बाबा को अगर भविष्य में ऐसा कोई राजनैतिक अभियान चलाना है तो उन्हें इस कमी को गम्भीरता से दूर करना होगा।
जहां तक स्थानीय नेतृत्व को मंच प्रदान करने का प्रश्न है तो यह कोई आसान काम नहीं। प्रचार के महत्वाकांक्षी बहुत से लोग इस तरह के आन्दोलनों में इसलिए सक्रिय हो जाते हैं क्योंकि उन्हें प्रचार मिलने की सम्भावना दिखाई देती है। ऐसे लोग मंच को मछली बाजार बना देते हैं पर इनके बिना राजनैतिक ताकत का पूरा प्रदर्शन भी नहीं होता। इस दिशा में बाबा की एक सीमा यह भी है कि उनके आन्दोलनों में शामिल होने वाले लोग उनके अनुयायी या वेतनभोक्ता कर्मचारी हैं, स्वयंसेवी आन्दोलित जनता जनार्दन नहीं। इसलिए इनसे कोई बड़ी राजनैतिक शक्ति बनने की उम्मीद नहीं की जा सकती।
जन आन्दोलनों से जुड़े अनुभवी लोगों का मानना है कि जब बाबा ने अपने तेवर इतने ठण्डे और लोचशील कर ही लिये तो उन्हें इस धरने की जगह तीन दिन का राष्ट्रीय चिन्तन शिविर रखना चाहिए था। जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों के अनुभवी लोगों को बुलाकर, लोकतांत्रिक तरीके से देश के सवालों पर मुक्त चिन्तन किया जाता। इससे लोग भी जुटते और बाबा की साख और शक्ति दोनों बढती। ऐसा बाबा निकट भविष्य में भी कर सकते हैं। कुल मिलाकर बाबा का धरना जहां सनसनीखेज खबरों का मसाला नहीं बन पाया वहीं इसने बाबा के व्यक्तित्व में अचानक आये बदलाव का प्रदर्शन किया। यह बदलाव बाबा के लिए उपयोगी है या नहीं यह तो भविष्य बतायेगा। हां इस धरने का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। उस दृष्टि से धरने को सफल नहीं कहा जा सकता।
बाबा युवा हैं, बालकृष्ण जेल में बंद हैं, मीडिया मुद्दों को उठाने के लिए तैयार हैं और 2014 का संसदीय चुनाव सिर पर है। ऐसे में बाबा का एक सही कदम उन्हें फिर से उनकी खोई प्रतिष्ठा लौटा सकता है या मौजूदा बची प्रतिष्ठा को भी गंवा सकता है।

Monday, August 6, 2012

अन्ना एण्ड कम्पनी का असली चेहरा सामने आया

जैसा अन्देशा था वही हुआ। अन्ना एण्ड कम्पनी ने अपना असली चेहरा दिखा दिया। भ्रष्टाचार से लड़ाई तो एक बहाना था। शुरू से अन्ना एण्ड कम्पनी के खास लोगों की निगाह अपने-अपने मंसूबे हासिल करने की थी। जनलोकपाल के नाम पर तो देश को यूंही बेवकूफ बनाया गया। इसीलिए पहले ऐसा जनलोकपाल बिल लाये, जिसे किसी ने ठीक नहीं कहा। पर वह जिद पर अड़े रहे कि जो नया कानून बने उसमें कोमा और विराम भी हमारी मर्जी से लगाया जाये। चूंकि मकसद कुछ और था दिखावा कुछ और। इसलिए किसी भी बात पर अन्ना एण्ड कम्पनी कभी राजी ही नहीं हुई। इनका हाल उस जिद्दी बच्चे की तरह था, जो पहले जिद करता है कि ’पैन्ट दिलाओ’। जब पैन्ट दिलवादी तो कहेगा। ’काली नहीं नीली चाहिए थी’। जब बदलकर नीली दिलवाई तो कहेगा सूती नहीं रेशमी पैन्ट चाहिए थी। कुछ भी दे दो पर सन्तोष नहीं। सन्तोष तो तब होता जब देश के दूसरे सामाजिक आन्दोलनों की तरह अन्ना एण्ड कम्पनी भी अपनी बात पर टिकी रहती।     लड़-झगड़कर अधिक से अधिक अपनी बात मनवाती और जो बात न मानी जाती उसके लिए भविष्य में संघर्ष करना। पर अन्ना एण्ड कम्पनी को जनलोकपाल के नाम पर देश के लोगों को मूर्ख बनाकर शोहरत और पैसा बटोरना था। सो उसमें वे पूरी तरह कामयाव रहे। ठगा तो आम हिन्दुस्तानी गया। पहले भ्रष्टाचार को पूरा खत्म करने का सपना दिखाया। अब पूरे देश को ठीक करने का सपना दिखा रहे है।
अन्ना एण्ड कम्पनी के आन्दोलन के शुरू होने से बहुत पहले अरविन्द केजरी वाल को बहुत लोगों ने समझाया कि दोहरेचरित्र वाले लोगों को साथ लेकर तुम लड़ाई नहीं जीत पाओगें पर अरविन्द के कान पर जू तक नहीं रेंगी। भ्रष्टाचार से लड़ना होता तो सही सलाह समझमें आती। यहां तो खेल ही दूसरा था। इस धोखाधड़ी का देश पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। अब बहुत दिनों तक जनता ऐसे किसी आन्दोलन के कार्यकर्ताओं पर आसानी से विश्वास नहीं करेगी। दूसरी बात यह है कि अन्ना एण्ड कम्पनी का आन्दोलन करोड़ो रूपया पानी की तरह बहाकर किया गया। एक ही मिनट में सारी दुनिया के बड़े-बड़े शहरों में अन्ना की टोपी, तिरंगा झंडा और आई ए सी के फलैक्स कैसे प्रगट हो जाते थे। आन्दोलन शुरू भी नहीं हुआ पर धरना स्थल पर पचासों टीवी ओबी वैन आकर पहले से ही खडी़ हो जाती थी। अब महिलाओं से जुड़ा सवाल हो या मजदूरों किसानों के हक की बात या पर्यावरण का सवाल ऐसे सभी आन्दोलनों को अन्ना एण्ड कम्पनी के इस छद्म आन्दोलन से भारी झटका लगा है। अब ऐसे आन्दोलनकारियों को अन्ना एण्ड कम्पनी की तरह मोटी रकम खर्च करके जनहित के मुददे उठाने पड़ेगे। वरना उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं देगा। दूसरी समस्या यह आयेगी। कि अब जनता आनदोलन के कार्यों को गम्भीरता से नहीं लेगी। उन पर शक करेगी।
पूर्व सेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने अन्ना के मंच पर भाषण किया कि जाति और धर्म से हटकर योद्वा की तरह युद्व लड़ा जाये तो हर कामयाबी मिल सकती है। जनरल को यह पता नहीं कि अन्ना एण्ड कम्पनी ने ही ऐसे ऐजेन्ट बैठाये है जो भ्रष्टाचार के विरूद्व अनेक सर्घषों को बड़ी कुटिलता से विफल करते आये हैं। ऐसे लोगों के साथ जनरल वीके सिंह देश की कितनी सफाई कर पाते हैं। यह जल्द ही सामने आ जायेगा।

राजनीति में जाना कोई गलत बात नहीं हैं। पर राजनीति के नियम सुधार आन्दोलन के नियमों से बहुत फर्क होते हैं। यहां कार्यकर्ताओं की एक विशाल फौज की जरूरत होती है। एक विचारधारा के प्रति समर्पण होता है। देश को दिशा देने के लिए आवश्यक अनुभव और परिपक्वता की जरूरत होती है जो अन्ना एण्ड कम्पनी में दूर-दूर तक नहीं है। इनका आचरण बताता है कि हर सदस्य अलग दिशा की तरफ भाग रहा है। मंच पर खड़े होकर गाली देना आसान है। पर कुछ करके दिखाना बहुत टेढ़ी खीर है। पर चलांे अब ऊंट पहाड़ के नीचे आया है। सब सामने आ जायेगा। हमने तो पिछले साल ही कहा था कि अन्ना एण्ड कम्पनी देश को गुमराह कर रही है। अराजकता फैला रही है। अब रहा-सहा सच भी सामने आ जायेगा। भ्रष्टाचार की लड़ाई लड़ाना बहुत जरूरी है। पर उसके लिए राजनैतिक पार्टी की नहीं निष्काम सेवा भावना की जरूरत होती है। धीरज चाहिए ऐसी लड़ाई को लम्बे समय तक लड़ने के लिए, जिसका अन्ना एण्ड कम्पनी के पास भारी अभाव है। इसलिए न हासिल कर पाये, न कर पायेंगे।