Monday, January 21, 2013

नेता ही नहीं नीति बदलनी चाहिए

बहुत ना-नुकुर के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभालने का निर्णय ले लिया। कांग्रेसियों में उत्साह है कि अब नौजवानों को तरजीह मिलेगी। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने जयपुर के चिंतन शिविर में यह चिंता व्यक्त की है कि मध्यम वर्ग को राजनीति से बेरूखी होती जा रही है। सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी हमारी व्यवस्था की धारा मोड़ सकते हैं? 1984 में जब इन्दिरा गांधी की हत्या हुई तो अचानक ताज राजीव गांधी के सिर पर रख दिया गया। वे युवा थे, सरल और सीधे थे, इसलिए एक उम्मीद जगी कि कुछ नया होगा। उनके भाषण लिखने वालों ने उनसे कई ऐसे बयान दिलवा दिए जिससे देश में सन्देश गया कि अब तो भ्रष्टाचार और सरकारी निकम्मापन सहा नहीं जाऐगा। सबकुछ बदलेगा। बदला भी, लेकिन संचार और सूचना के क्षेत्र मंे। भ्रष्टाचार और प्रशासनिक व्यवस्था में कोई अंतर नहीं आया। बल्कि तेजी से गिरावट आयी।
अभी हाल ही का उदाहरण अखिलेश यादव का है। साईकिल चलाकर अखिलेश यादव ने उ0प्र0 के युवाओं का मन मोह लिया। लगा कि उ0प्र0 में नई बयार बहेगी। पर अभी नौ महीने बीते हैं आौर उनके पिता और सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव चार बार सार्वजनिक मंचों से कह चुके हैं कि उ0प्र0 की सरकार, मंत्री और अफसर ठीक काम नहीं कर रहे हैं।
दरअसल देश और प्रदेश की सरकारों में भारी घुन लग चुका है। कोई जादू की छड़ी दिखाई ननहीं देती, जो इन व्यवस्थाओं को रातों-रात सुधार दे। इसलिए यह कहना कि राहुल गांधी के मोर्चा संभालते ही कांग्रेस पार्टी का भविष्य उज्जवल हो गया, अभी लोगों के गले नहीं उतरेगा। वे जमीनी हकीकत में बदलाव देखकर ही फैसला करेंगे। तब तक राहुल गांधी को कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।
पहली समस्या तो यह है कि वे पार्टी के उपाध्यक्ष भले ही बन गए हों, सरकार डा. मनमोहन सिंह की है। जिसमें अलग-अलग राय रखने वाले मंत्रियों के अलग-अलग गुट हैं। ये गुट एकजुट होकर राहुल गांधी के आदेशों का पालन करेंगे, ऐसा नहीं लगता। सामने जी-हुजूरी भले ही कर लें, पर पीछे से मनमानी करेंगे। ठीकरा फूटेगा राहुल गांधी के सिर। सहयोगी दलों के मंत्रियों के आचरण पर राहुल गांधी नियन्त्रण नहीं रख पाऐंगे। ऐसे में सरकार की छवि सुधारना सरल नहीं होगा।
दूसरी तरफ, अभी तक के अनुमान के अनुसार सीधा मुकाबला नरेन्द्र मोदी से होने जा रहा है। जिनकी रणनीति यह है कि जो करना है धड़ल्ले से करो, बड़े लोगों को फायदा पहुंचाओ। प्रचार ऐसा करो कि बड़े-बड़े मल्टीनेशनल भी फीके लगने लगें। यही उन्होंने पिछले चुनावों में किया भी। जबकि राहुल गांधी का व्यक्तित्व दूसरी तरीके का है। वे संजीदगी से समाज को समझना चाह रहे हैं। जमीनी हकीकत को जानने की कोशिश कर रहे हैं। विकास के मुद्दों पर भी काफी ध्यान दे रहे हैं। कुल मिलाकर राजनीति के एक गंभीर छात्र होने का प्रमाण दे रहे हैं। इसलिए आगामी चुनावी समर में राहुल गांधी की भूमिका को लेकर कोई आंकलन अभी नहीं किया जा सकता। वे जादू भी कर सकते हैं और चारों खाने चित भी गिर सकते हैं।
राहुल गांधी को अगर वास्तव में अपनी सरकार को जबावदेह बनाना है तो उन्हें प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार में क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। इन कदमों को जानने के लिए उन्हें कोई नई खोज नहीं करवानी। काले धन, पुलिस व्यवस्था, न्यायायिक सुधार, कठोर भ्रष्टाचार विरोधी कानून जैसे अनेक मुद्दों पर एक से बढ़कर एक आयोगों की रिपोर्ट केन्द्र सरकार के दफतरों में धूल खा रही हैं। जिन्हें झाड़ पौंछकर फिर से पढ़ने की जरूरत है। समाधान मिल जाऐगा। इन समाधानों को लागू कराने के लिए राहुल गांधी को युवाओं के बीच देशव्यापी अभियान चलाना चाहिए। युवा जागरूक बनें और प्रशासनिक व्यवस्था को जबावदेह बनाऐं, तब जनता कांगे्रस से जुड़ेगी। वैसे भी जयपुर चिंतन शिविर में उनकी माताजी श्रीमती सोनिया गांधी ने यह चिंता व्यक्त की है कि मध्यम वर्ग राजनीति से कटता जा रहा है, जिसे मुख्यधारा में वापस लाने की जरूरत है। 
हकीकत इसके विपरीत है। मध्यम वर्ग राजनीति से नहीं कट रहा, बल्कि अब तो वह बिना बुलाऐ सड़कों पर उतरने को तैयार रहता है। पिछले एक-ढेढ़ साल के आंदोलनों में मध्यम वर्ग की भूमिका प्रमुख रही है। मध्यम वर्ग ने धरने, प्रदर्शन, लाठी, गोली, आंसू गैस और पानी की मार सबको झेला है। पर उदासीनता का परिचय कहीं नहीं दिया।
दरअसल मध्यमवर्ग प्रशासनिक व्यवस्था की जबावदेही चाहता है, जो उसे नहीं मिल रही। इससे वो नाराज है। पर वह यह भी जानता है कि कोई एक राजनैतिक दल इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। सभी दलों का एकसा हाल है। इसलिए उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा है और वह तरह-तरह से बाहर सामने आ रहा है। राहुल गांधी हों या अखिलेश यादव या फिर किसी अन्य प्रांत के मुख्यमंत्री के वारिस युवा नेता, अब सबको इन सवालों की तरफ गंभीरता से विचार करना होगा। क्योंकि नारों से बहकने वाला मतदाता अब बहुत सजग हो गया है।

Monday, January 14, 2013

सिर्फ नारों से नहीं बनेगा उत्तम प्रदेश

पिछले दिनों कई मंचों पर उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बार-बार दोहराया है कि वे उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाना चाहते हैं। पर क्या ऐसा होना सिर्फ नारों से सम्भव है?
उत्तर प्रदेश का प्रशासनिक तंत्र पिछले दो दशकों में बुरी तरह चरमरा गया था। जिसे मायावती ने अपने डण्डे के जोर पर नियन्त्रित करने की कोशिश की। उसका परिणाम यह हुआ कि प्रदेश की नौकरशाही बहनजी के आगे थरथर कांपती थी। इसका पूरा फायदा मायावती ने उठाया। अपनी महत्वकांक्षी योजनाओं को उन्होंने डण्डे के जोर पर समयबद्ध तरीके से पूरा करवा लिया। फिर चाहे वो अम्बेडकर पार्क हो, कांशीराम पार्क हों या उनकी अन्य वैचारिक योजनाऐं। लेकिन इसका अधिक लाभ आम जनता को नहीं मिला। क्योंकि नौकरशाही केवल उन्हीं कार्यक्रमों को प्राथमिकता देती थी, जिन पर बहनजी की नजर थी।
जबसे अखिलेश यादव ने सत्ता संभाली है, तब से स्थिति बदल गयी। नए विचारों के, ऊर्जावान और युवा अखिलेश ने प्रशासनिक तंत्र को शुरू से ही भयमुक्त कर दिया। उनका उद्देश्य रहा होगा कि ऐसा करने से सक्षम अधिकारी स्वतंत्रता से निर्णय ले सकेंगे। पर अभी तक इसके वांछित परिणाम सामने नहीं आये हैं। एक तो वैसे उत्तर प्रदेश में साधनों का अभाव है, दूसरा प्रशासन तंत्र अब हर तरह के नियन्त्रण और जबावदेही से मुक्त है। तीसरा उत्तर प्रदेश में सत्ता के चार केन्द्र बने हैं। नतीजतन नौकरशाही किसी एक केन्द्र की शरण लेकर बाकी को ठेंगा दिखा देती है। ऐसे में कैसे बनेगा उत्तम प्रदेश?
संसाधनों की कमी को दूर करने के लिए दो तरीके हैं। एक तो मौजूदा संसाधनों का प्रभावी तरीके से प्रयोग हो और दूसरा बाहर से संसाधनों को आमंत्रित किया जाऐ। जहाँ तक उपलब्ध साधनों के इस्तेमाल की बात है, उत्तर प्रदेश की नौकरशाही संसाधनों का दुरूपयोग करने में किसी से कम नहीं। फिर वो चाहे मायावती का शासन रहा हो या अखिलेश यादव का। विकास की जितनी भी योजनाऐं बन रही हैं, उन्हंे बनाने वाली वह निचले स्तर की नौकरशाही है, जिसे न तो स्थानीय मुद्दों की समझ है, न उसके पास आधुनिक ज्ञान व दृष्टि है और न ही कुछ अच्छा करके दिखाने की इच्छा। होता यह है कि मुख्यमंत्री कोई घोषणा करते हैं तो मुख्य सचिव सचिवों की बैठक बुला लेते हैं। सचिवों को लक्ष्य दे दिए जाते हैं। वे अपने अधीनस्थों से योजनाऐं बनवा लाते हैं और अगली बैठक में उन योजनाओं को पास करवा लेते हैं। इन योजनाओं को बनाते वक्त न तो स्थानीय जरूरतों पर ध्यान दिया जाता है और न ही इन सबसे होने वाले लाभ या नुकसान पर। एक लम्बी फेहरिस्त है जहाँ ऐसी सैंकड़ों करोड़ की योजनाऐं बन चुकी हैं और लागू भी हो चुकी हैं जिनमें सीमित साधनों की असीमित बर्बादी हो रही है। फिर वो चाहें पर्यटन विभाग की योजनाऐं हों, नगर विकास की हों, ग्रामीण विकास की हों या सड़क विभाग की। सबमें मूल भावना यही निहित रहती है कि इस योजना में कितना ज्यादा से ज्यादा माल उड़ाया जा सकता है।
जैसा हमने पहले कहा कि तमाम सख्ती के बावजूद मायावती की सरकार इस दुष्प्रवत्ति पर कोई अंकुश नहीं लगा पाई। इधर अखिलेश यादव की सरकार भी ऐसी मानसिकता से निपटने में अभी तक असफल रही है। स्वंय मुख्यमंत्री के अधीनस्थ विभागों में भी ऐसी योजनाओं पर धन आवण्टन हो रहा है, जिनसे कोई लाभ जनता को मिलने वाला नहीं है। पर बेचारे भोले-भाले मुख्यमंत्री शायद इस सबसे अनिभिज्ञ हैं या फिर उन्होंने अन्य सत्ता केन्द्रों के आगे हथियार डाल दिये हैं। दोनांे ही स्थिति में खामियाजा प्रदेश की जनता को भुगतना पड़ रहा है। देखते-देखते ऐसे ही पांच साल गुजर जाऐंगे और अगर यही हाल रहा तो तमाम बड़े दावों के बावजूद उत्तर प्रदेश उत्तम प्रदेश नहीं बन पाऐगा।
साधनों की कमी दूर करने का दूसरा तरीका है बाहर से विनियोग आकर्षित करना। बाहर यानि देश के अन्य राज्यों से या विदेशों से। विदेशी निवेश तो उत्तर प्रदेश में आने से रहा। क्योंकि उन्हें उत्तर प्रदेश की राजनैतिक परिस्थितियां रास नहीं आतीं। देशी उद्योगपति भी उत्तर प्रदेश में विनिवेश करने से घबराते हैं। जबकि दूसरी तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘वाइब्रेंट गुजरात’ का नारा देते हैं तो बड़े-बड़े निवेशकर्ता लाइन लगाकर भागे चले आते हैं। क्योंकि उन्हें नरेन्द्र मोदी की प्रशासनिक व्यवस्था पर भरोसा है। नरेन्द्र मोदी ने अपने प्रशासनिक तंत्र और अफसरशाही को यथासंभव पारदर्शी और जनता के प्रति जबावदेह बनाया है। अखिलेश यादव को भी उनका यह गुर सीखना होगा। ताकि वे अपने प्रशासन पर पकड़ मजबूत कर सकें और उसे जनता के प्रति जबावदेह बना सकें। ऐसा न कर पाने की स्थिति में देशी विनिवेशकर्ता भी उनके आव्हान को गंभीरता से नहीं लेंगे। फिर कैसे बनेगा उत्तम प्रदेश?
सारा दोष प्रशासन का ही नहीं, उत्तर प्रदेश की जनता का भी है। यहाँ की जनता जाति और धर्म के खेमों में बंटकर इतनी अदूरदृष्टि वाली हो गयी है कि उसे फौरी फायदा तो दिखाई देता है, पर दूरगामी फायदे या नुकसान को वह नहीं देख पाती। इसलिए अखिलेश यादव के सामने बड़ी चुनौतियां हैं। पर चुनाव प्रचार में जिस तरह उन्होंने युवाओं को उत्साहित किया, अगर इसी तरह अपने प्रशासनिक तंत्र को पारदर्शी और जनता के प्रति जबावदेह बनाते हैं, विकास योजनाओं को वास्तविकता के धरातल पर परखने के बाद ही लागू होने के लिए अनुमति देते हैं और प्रदेश के युवाओं को दलाली से बचकर शासन को जबावदेह बनाने के लिए सक्रिय करते हैं तो जरूर इस धारा को मोड़ा जा सकता है। पर उसके लिए प्रबल इच्छाशक्ति की आवश्यकता होगी। जिसके बिना नहीं बन सकेगा उत्तम प्रदेश।

Monday, January 7, 2013

इन हालातों में जनता क्या करे?

बलात्कार के खिलाफ उठा गुबार अभी थमा नहीं है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध टीम अन्ना का आन्दोलन अपने चरम पर जाकर बिखर गया है, पर खत्म नहीं हुआ। पूरा ब्रज प्रदेश और देश के कृष्ण भक्त 1 मार्च, 2013 को वृन्दावन से दिल्ली तक पैदल कूच करने की तैयारी में जुटे हैं। इसलिए कि वे यमुना में शुद्ध यमुना जल देखना चाहते हैं। जबकि भगवान कृष्ण की कालिन्दी यमुना में आज यमुना जल नहीं दिल्लीवासियों का सीवर जल आ रहा है। कश्मीर के नौजवान वहाँ के सियासतदानों के भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर लगातार बगावत का झण्डा बुलन्द कर रहे हैं। देश का हर शहर कूड़े के ढेर में बदलता जा रहा है। सरकारी दफ्तर गांधी जी का चित्र टांगकर भ्रष्टाचार का नंगा नाच रहे हैं। उद्योग जगत प्राकृतिक संसाधनों को बेदर्दी से लूटकर, सरकारी कर की चोरी करके और बैंकों के हजारों करोड़ के ऋण दबाकर अपने मुनाफे कई गुना बढ़ा रहे हैं और उन्हें बहुराष्ट्रीय बैंकों के मार्फत या हवाला के मार्फत विदेशों में लगा रहे हैं। जबकि हमारे राजनैतिक दल लोकतांत्रिक परंपराओं को धता बताकर वंशाधिकार की लड़ाई में जुटे हैं, फिर वो चाहें स्टालिन के विरोध में अलागिरी हों या बाल ठाकरे के बेटे-भतीजे हों या किसी और राज्य के मुख्यमंत्रियों के परिवार। ऐसा लगता है कि भारत में लोकतंत्र नहीं राजतंत्र है, जहाँ सत्ता पर राजवंश काबिज है।
ऐसे में देश की जनता क्या करे? हालात के मारे लोग कहाँ जाऐं? किसके कंधे पर सिर रखकर रोऐं? किससे फरियाद करें? क्या खामोश होकर घर बैठ जाऐं और देश की लूट व दुर्दशा का तांडव देखते रहें? क्या हालात से समझौते कर भ्रष्ट हो जाऐं? क्या शस्त्र उठाकर खूनी क्रांति करने वालों के पीछे चल पड़ें? या संविधान के ढांचे के भीतर लोकतांत्रिक तरीके से स्वार्थी ताकतों से लड़ें? दरअसल कोई भी आन्दोलन बहुत लम्बे समय तक नहीं चल सकता। लोगों का उत्साह जल्द ही भंग हो जाता है। साधनों का अभाव भी आड़े आता है। इसलिए कोई कितनी ही ताकत से हुंकार क्यों न भरे, कितने ही लाखों लोगों को लेकर सड़कों पर क्यों न उतरे, पर व्यवस्था का मकड़जाल ऐसा है कि ऐसी सब आवाजें अन्त में नक्कारखाने में तूती की तरह बजकर रह जाती हैं। आजादी की लड़ाई में यह शस्त्र इसलिए काम कर गए क्योंकि हमारे दुश्मन अंग्रेज हुक्मरान थे और नेता गांधी, सुभाषचंद बोस व भगत सिंह जैसे बलिदानी थे। पर अब यह हथियार भौंथरे हुए लगते हैं। क्योंकि इनका बार-बार प्रयोग होने से व्यवस्था इनकी आदी हो चुकी है। वह ऐसे आन्दोलनों को गुमराह करने और छिन्न-भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। इसलिए कुछ भी नहीं बदलता।
अगर हम सत्ता के लालच में लड़ने वाले विपक्षी दलों के भुलावे में आकर केन्द्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दलों को गाली देने का, उनके खिलाफ एस.एम.एस. और ईमेल अभियान चलाने का और उनके खिलाफ प्रदर्शन करने का कार्यक्रम चलाते हैं, तो हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। क्योंकि जिन्हें हम सत्ता से हटाना चाहते हैं, उन्हें हटाकर जो सत्ता में आऐंगे, वे किसी भी मामले में कम नहीं। हां, मीडिया पर शोर मचाकर और सड़कों पर आन्दोलन करके कुछ समय के लिए हमें यह भ्रम जरूर हो जाता है कि यह तो निर्णायक लड़ाई है, इसके बाद सुनहरी सुबह आएगी। जो कभी नहीं आती। आम आदमी पार्टी जैसा दल गठित कर बेहतर विकल्प देने का सपना पिछले साठ सालों में अनेकों क्रांतिकारी दिखा चुके हैं। या तो वे विकल्प दे ही नहीं पाते, या उनका विकल्प चुनावी शतरंज में परास्त हो जाता है या फिर वे भी साधनों के अभाव में उसी मकड़जाल में फंस जाते हैं, जिसके खिलाफ उनके आन्दोलन की बुनियाद रखी जाती है। इसका अर्थ यह नहीं कि कोई प्रयास ही न किया जाऐ। पर प्रयास अगर यथार्थ के धरातल से कटा होगा, तो उसमें ऊर्जा और साधन का अपव्यय तो होगा ही, समाज में हताशा और निराशा भी फैलेगी।
जे0पी0 आन्दोलन के समय से एक छात्र, आन्दोलनकारी और एक पत्रकार के नाते गत 38 वर्षों से मैं देश में ऐसी उथल-पुथल के कई दौर देख चुका हूँ। हर बार देशवासियों को निराशा हाथ लगी है। अब कितने प्रयोग हम और करें? किस पर भरोसा करें? कौन मसीहा है, जो हमें इस जंजाल से मुक्ति दिला देगा? बस यही है हमारी सब समस्या की जड़। जब तक हम मसीहा का इंतजार करते रहेंगे, इसी तरह लुटते-पिटते रहेंगे। सूचना के अधिकार से लेकर मीडिया तक आज संचार का इतना बड़ा जाल खड़ा हो गया है कि कोई भी सच्चाई लम्बे समय तक छिपाई नहीं जा सकती। गांव के विकास के लिए बनने वाली योजनाऐं और उनके लिए आवण्टित होने वाला धन, नगरों के रखरखाव के लिए प्रांतीय संसाधन, जेएनआरयूएम जैसी महत्वकांक्षी योजनाऐं और वल्र्ड बैंक की परियोजनाऐं, सबके बावजूद नगरवासी भी नारकीय जीवन जी रहेे हैं। केन्द्र के स्तर पर अब हजारों करोड़ के घोटालों के आरोप नहीं लगते। बात लाखों करोड़ तक जा पहुँची है। पर इस सबके लिए हमारी अपनी उदासीनता जिम्मेदार है।
अपना घर तो हम सब सजाते हैं, अपने बच्चों के भविष्य की भी चिंता करते हैं, पर घर के बाहर गली की गंदगी हो या हमारे गांव-शहर के लिए आवण्टित होने वाला धन, न तो उसकी हमें जानकारी होती है और न ही उसमें हमारी कोई रूचि। जबकि हम यह सब आज काफी सरलता से जान सकते हैं। धन आने के बाद भ्रष्टाचार की बात तो सब करते हैं, पर मेरा अनुभव तो अब यह बताता है कि भ्रष्टाचार की शुरूआत तो विकास योजनाओं की परिकल्पनाओं से ही शुरू हो जाती है। जानबूझकर ऐसी योजनाऐं बनाई जा रही हैं, जिनका जनता की मौजूदा समस्याओं से कोई नाता नहीं है। केवल और केवल पैसे को हड़पने के लिए इन योजनाओं को पास कराया जाता है। इसलिए योजना बनते वक्त से लेकर लागू होने तक, हर स्तर पर, हर जागरूक नागरिक को सतर्क रहना होगा।
अब हम मसीहाओं की आस छोड़ दें। केवल एक काम करें कि जहाँ तक हमारी समझ हो और क्षमता हो, वहाँ तक के क्षेत्र के विकास और रखरखाव के लिए आने वाली एक-एक पाई का हिसाब मांगने की ताकत जुटा लें। जब हम संगठित, निष्काम और निर्भय होंगे तो कोई प्रशासन हमें धमकाकर चुप नहीं कर पाएगा। यह लड़ाई गांधी के असहयोग आन्दोलन के ठीक विपरीत, सहयोग आन्दोलन की लड़ाई होगी। जिसमें हम सरकार के काम में सहयोग करेंगे पर पूरी पारदर्शिता की मांग के साथ। फिर हमें किसी लाठी का सामना नहीं करना पड़ेगा। धीरज रखें तो सफलता अवश्य मिलेगी।