Sunday, May 24, 2009

भाजपा की दशा और दिशा

मजबूत नेता निर्णायक सरकारका नारा जनता ने ठुकरा दिया। न तो लालकृष्ण आडवाणी में उन्हें किसी मजबूत नेता के लक्षण दिखायी दिये और न ही राजग की सम्भावित सरकार में निर्णय लेने की क्षमता। दरअसल इस नारे का चुनाव ही गलत किया गया। इसलिए चुनाव प्रचार पहले दिन से ही जनता की भावनाओं को स्पर्श नहीं कर पाया। इतनी बड़ी चूक कैसे हो गयी कि भाजपा के रणनीतिकार ने जनता की नब्ज को ही नहीं पहचाना? अगर पिछले वर्षों में विधानसभाओ के चुनावों में हुयी जीत का सेहरा अरूण जेटली के सिर बंधता रहा तो इस हार के लिए भी वही जिम्मेदार हैं जिन्होंने जनता को समझने में इतनी बड़ी भूल कर दी। जबकि कहा ये जा रहा है कि इस हार के लिए भाजपा नेतृत्व साझा जिम्मेदार है।

जब हार हो जाती है तो पोस्टमार्टम तो होता ही है। आज भाजपा में भी यही हो रहा है। अब भाजपाई खुलकर मान रहे हैं कि लालकृष्ण आडवाणी को भावी प्रधानमंत्री बनाकर प्रस्तुत करना गलत रहा। जीवन के नवें दशक में वे न तो नयी ऊर्जा का संचार कर पाये और न ही उनमें देश के युवाओं को अपना भविष्य दिखायी दिया। जरूरत भाजपा को भी युवा नेतृत्व प्रस्तुत करने की थी। ऐसा युवा कौन होता, इस पर भाजपा में आज भी मतभेद हैं। भाजपा का आम कार्यकर्ता नरेन्द्र मोदी को अपना आदर्श मानता है। जबकि संघ और भाजपा के कुछ नेता इससे सहमत नहीं हैं। यह कहने से नहीं चूक रहे कि चुनाव के बीच नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दूसरा प्रबल दावेदार बताकर ठीक नहीं किया गया। इससे भी दल को हार का मुँह देखना पड़ा। जबकि दूसरा पक्ष मानता है कि अगर शुरू से नरेन्द्र मोदी को सामने रखा जाता तो देश में एक नई ऊर्जा का संचार होता। यह सही है कि उन पर गोधरा को लेकर हमले होते तो भी मोदी अपने काम के बूते लोगों को आश्वस्त कर देते और भाजपा की नैया पार लगा देते। भविष्य में यही होने जा रहा है।

जिस महत्वपूर्ण बात पर अभी चर्चा नहीं हो रही, वो यह है कि भाजपा की इस हार के लिए मुसलमान वोटों का एकसाथ इंका के पक्ष में चले जाना भी है। अयोध्या में विवादास्पद ढाँचे के विध्वंस के बाद से इंका के पारंपरिक वोट बैंक मुसलमानों ने इंका का साथ छोड़ दिया था। 19 वर्ष बाद उन्हें लगा कि मौजूदा हालात में इंका ही इनके हितों का बेहतर संरक्षण कर सकती है। दूसरा कारण यह भी है कि जनता को लगा कि भाजपा के पास जनहित का कोई मुद्दा ही नहीं है। भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में आम आदमी को ध्यान में रखकर कई राहत योजनाओं का जिक्र था। पर पता नहीं क्यों अरूण जेटली की टीम ने इन मुद्दों को नहीं उछाला और सारी ताकत प्रधानमंत्री को कमजोर सिद्ध करने में लगा दी।  

दरअसल रामजन्मभूमि आन्दोलन के बाद से ही भाजपा नेतृत्व अपने भ्रमित होने का संदेश देता रहा है। इस देश की सनातनी सांस्कृतिक विरासत को हिन्दुत्व के तंग दायरे में सीमित कर उसकी रक्षा करने का दम्भ भाजपाई भरते रहे हैं। सच्चाई यह है कि उनके जीवन मूल्य और आचरण ऐसा कोई परिचय नहीं देते। इसके विपरीत भाजपा का चेहरा इंका की दसवीं कार्बन काॅपी जैसा रहा है। न खुदा ही मिला, न विसाले सनम, न इधर के रहे, न उधर के रहे। न तो भाजपा नेतृत्व सनातनी दिखायी देता है और न ही धर्मनिरपेक्ष, न तो उसकी नीतियाँ इस देश की जमीनी हकीकत से जुड़ी हैं और न हीं विकास के आधुनिक प्रारूप से। एक तरफ उसके कार्यकर्ता डिस्को में जाकर तोेड़-फोड़ करते हैं और जनता के नैतिक पुलिसिए बन जाते हैं, दूसरी तरफ उसके ही चुनावी प्रत्याशी पाश्चात्य संगीत को गगनभेदी स्वर में बजाकर रातभर शराब की दावत करते हैं और टोकने पर कहते हैं कि कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए चुनाव में यह सब करना पड़ता है। भाजपा का नेतृत्व यह सब देखता रहता है और भूल जाता है उस दौर को जब भाजपा के मात्र 2 सांसद लोकसभा में होते थे। रामजन्म भूमि का आन्दोलन चलाकर, जनसभाओं में रामधुन की अलख जगाकर और सौगंध राम की खाते हैं, हम मन्दिर वहीं बनायेंगेजैसे गगनभेदी नारे गुंजायमान करके भाजपा यहाँ तक पहुँची कि 1998 में उसकी केन्द्र में पहली बार सरकार बन गयी। फिर भी भाजपाईयों को समझ में नहीं आया। सबको खुश करने के चक्कर में वह अपनी पहचान खो बैठी। चैबे जी चले थे छब्बे बनने, दुबे बनकर लौटे।

इसी तरह आर्थिक विकास के मामले में भी भाजपा नेतृत्व भ्रमित रहा है। एक तरफ उसका सहोदर स्वदेशी जागरण मंच बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विरूद्ध राष्ट्रव्यापी जागरण करता है और दूसरी ओर राजग के शासनकाल में उदारीकरण इस सीमा तक बढ़ जाता है कि राजग पर अमरीकी हितों का प्रतिनिधित्व करने का आरोप लगता है। अब अगर भाजपा विकास के माॅडल को लेकर ही स्पष्ट नहीं है तो जनता को क्या सपना दिखायेगी? गुजरात, हिमाचल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक में भाजपा के मुख्यमंत्रियों के काम को लोगों ने पसन्द किया है। इसलिए उसे वहाँ सफलता मिली है। पर सफलता का यह ग्राफ इसलिए गिरा भी है क्योंकि यह चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा गया। इसलिए इन राज्यों में भी इंका की छिपी लहर ने काम किया।

जो होना था सो हो गया। अब तो भाजपा को आगे की बात सोचनी होगी। आडवाणी जी को उनकी इच्छा के विरूद्ध विपक्ष का नेता बनाना ठीक नहीं है। जब वे घोषणा ही कर चुके थे तो उनको अब आराम करने देना चाहिए। पुस्तकें लिखें, देश-विदेश में भाषण दें और पार्टी नेतृत्व को अपने जीवन के अनुभवों का लाभ देते रहें। प्रधानमंत्री का सपना देखने वाला और इस उम्र में भी इस जीवट से चुनाव लड़ने वाला व्यक्ति अब घायल और हताश विपक्ष का नेतृत्व उत्साह से कैसे कर सकता है? यह उन पर अत्याचार है। पर भाजपा की अन्दरूनी कलह और वर्चस्व की लड़ाई में आडवाणी जी को ढाल बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे पहले कि यह गन्दगी और बढ़े, इस विषय पर भाजपा की चिन्तन बैठक होनी चाहिए और खुले दिमाग और साझी समझ से भाजपा का नया नेता चुना जाना चाहिए। जरूरी नहीं कि वो पुराने थके-पिटे चेहरों में से कोई हो। बेहतर तो यह होगा कि एक ऐसा चेहरा सामने आये जो उसी तरह नयी ऊर्जा का संचार कर सके जैसा इंका में राहुल गाँधी ने, रालोद में जयंत चैधरी ने, नेकाँ में उमर अब्दुल्ला ने किया है। बहुसंख्यक हिन्दु समाज से जुड़े ऐसे तमाम सवाल हैं जिन्हें अगर ठीक से और ईमानदारी से लेकर चला जाए तो एक बहुत बड़ा वर्ग साथ खड़ा रह सकता है। यह मानना गलत है कि अब इन मुद्दों की सार्थकता नहीं रही। तकलीफ इस बात की है कि इन मुद्दों को भाजपा के नेतृत्व ने कभी भी न तो ठीक से समझा, न अपनाया और न ही उनकी वकालत की। राजनीति में कभी कोई हाशिए पर नहीं जाता। फिर इतने बड़े हिन्दु समाज के हित साधने का लक्ष्य रखने वाले अगर ईमानदार हांेगे तो वे फिर से ताकत खड़ी कर पायेंगे।

Sunday, May 17, 2009

आगे का एजेण्डा

अब सब सफलता और असफलता के मूल्यांकन में जुटे हैं। बात होनी चाहिए आगे के एजेण्डा की। वामपंथी दलों ने ठीक ही निर्णय लिया है कि वे विपक्ष में बैठेंगे। उनकी सप्रंग को जरूरत भी नहीं है। पर नीतिश कुमार का यूपीए के साथ आना नीतिश के फायदे में रहेगा। इससे बिहार के विकास के लिए बड़ा पैकेज और सहूलियतें मिल पायेंगी, ठीक वैसे ही जैसे राजग के शासन में चन्द्रबाबू नायडू ने केन्द्र से वसूली थीं। जाहिर है कि भाजपा के सहयोग पर टिकी बिहार सरकार फिर चल नहीं पायेगी। जिसका सरल उपाय नीतिश कुमार के पास यही होगा कि वे अपनी लोकप्रियता के शिखर के इस दौर में सरकार गिर जाने दें और विधानसभा भंग करवाकर नये चुनावों की घोषणा कर दें। जनता को बतायें कि अगर बिहार का विकास करना है तो उन्हें स्पष्ट बहुमत दें। हालांकि ऐसी हालत में कांग्रेस उनसे सीटों का बंटवारा चाहेगी जो विवाद का विषय बन सकता है। पर खुले दिमाग और बड़ी सोच के साथ ऐसे झंझटों से निपटा जा सकता है। इससे नीतिश को एक लाभ और होगा कि उनके दल के कुछ लोग केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में भी आ जायेंगे। जाहिर है कि इन हालातों में वे राजद को सप्रंग के साथ नहीं देखना चाहेंगे। पर लालू और इंका का सुख-दुख का साथ रहा है। हालांकि लालू का जो रवैया इस चुनाव के पहले रहा और जैसे परिणाम आये हैं उससे उनकी कोई उपयोगिता अब सप्रंग को नहीं है। फिर भी वे सप्रंग को सहयोग देना चाहेंगे और सप्रंग उनसे बिगाड़ेगा नहीं। हाँ, उनके और नीतिश के बीच एक संतुलन कायम करने की जरूरत होगी। जो इन हालातों में असंभव नहीं है।

ममता बनर्जी के साथ इंका को आर्थिक नीतियों पर दृष्टि साफ करनी होगी ताकि भविष्य में विवाद पैदा न हो। पर नवीन पटनायक के साथ जुगलबंदी शायद मुश्किल पड़े क्योंकि वहाँ भी उनका सीधा विरोधी दल इंका है। बिहार की तरह वह भी अपने राज्य की तरक्की के लिए ऐसे निर्णय ले सकते हैं जो उन्हें बड़ा फायदा दिला सके। सप्रंग के बाकी सहयोगी दलों को तो कोई दिक्कत नहीं है। वे मानते हैं कि सबसे बड़ा दल होने के नाते उन्हें सप्रंग की अध्यक्ष के निर्णय स्वीकार होंगे। प्रधानमंत्री पद की आकांक्षा रखने वाले शरद पवार तक यह स्वीकार कर रहे हैं।

असली मामला तो राहुल गाँधी के भविष्य का है। इंका की संस्कृति के अनुसार वे निश्चय ही भावी प्रधानमंत्री हैं। पर राहुल की विनम्रता और सोनिया व राहुल का चुनाव के पहले डाॅ. मनमोहन सिंह को ही प्रधानमंत्री बनाये जाने का उद्घोष इतनी जल्दी बदला नहीं जा सकता। पर ऐसी हालत में जब युवाओं ने राहुल के नेतृत्व में विश्वास व्यक्त किया है तो उनमें सत्ता हासिल करने की अधीरता भी होगी। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तो कह ही दिया कि राहुल को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। खुद राहुल शायद इसके लिए अभी तैयार न हों। पर एक रास्ता है। प्रधानमंत्री तो मनमोहन सिंह ही बने पर राहुल को उपप्रधानमंत्री बनाकर युवाओं से जुड़े मंत्रालयों का कार्यभार सौंपा जा सकता है। इससे इंका को दो लाभ होंगे। एक तो दोनों तरह का नेतृत्व मजबूत बना रहेगा, बुजुर्गों का भी और युवाओं का भी। दोनों के अनुभव और ऊर्जा का लाभ मिलेगा। सबसे बड़ी बात तो ये होगी कि समय-समय पर उठने वाली अफवाहों की गंुजाइश नहीं बचेगी। वर्ना बात-बात पर खबरें उड़ा करेंगी कि सप्रंग में नेतृत्व परिवर्तन की संभावना। इसका एक लाभ और भी होगा कि राहुल गाँधी को सरकार चलाने का अनुभव मिलने लगेगा। इतना ही नहीं, उपप्रधानमंत्री का पद उनकी पारिवारिक विरासत, इंका संस्कृति और युवा नेताओं की महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप होगा। जिसमें हताशा की गुंजाइश नहीं होगी। इंका को यह समझ लेना होगा कि जनता आर्थिक स्थायित्व के साथ विकास चाहती है। वैश्वीकरण इसका समाधान नहीं है। मंदी की मार से बचने के लिए आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की बुनियादी सोच ही कारगर रहेगी।

जहाँ तक भाजपा की बात है, अब तो सब यही कर रहे हैं कि आडवाणी की पारी खत्म। सपना चूर। प्रधानमंत्री पर हमले का अभियान उल्टा पड़ा। हमने तो 19 अपै्रल,09 को अपने इसी काॅलम में आडवाणी को चेताया था कि ये अभियान का तरीका ठीक नहीं है। बार-बार टी.वी. पर सीधी बहस की चुनौती देकर वे क्या सिद्ध करना चाह रहे हैं। अगर डाॅ. सिंह ने उनसे हवाला काण्ड से जुड़े सवाल पूछ लिये तो वे क्या जबाव देंगे? यह रोचक बात है कि अगले दिन ही अमर उजाला जैसे कई दैनिकों में खबर छपी कि आडवाणी जी अब मनमोहन सिंह पर हमला नहीं करेंगे। कारण जो भी हो, देर आये, दुरस्त आये। अब उनके ससम्मान राजनैतिक सन्यास का समय आ चुका है। युवा नेतृत्व को विपक्ष के नेता व दल के नेता की कमान देकर उन्हें दल का भीष्म पितामह बन जाना चाहिए।  तभी लम्बे समय तक दल को उनकी अनुभव और ज्ञान का लाभ मिल सकेगा और उनको उनका यथोचित सम्मान भी मिलता रहेगा।

भाजपा की दिक्कत यह है कि न तो वह हिन्दुत्व की विचारधारा के प्रति ईमानदार है और न ही वह इस देश के संस्कृति और परिस्थितियों के अनुरूप अपनी विचारधारा को ठोस रूप दे पायी है। हमने बार-बार यह दोहराया है कि हिन्दुत्व के मुद््दे पर भाजपा का नेतृत्व भ्रमित और कमजोर नजर आता है। इसलिए उसे भावनात्मक वोट भी नहीं मिल पाता। दूसरी ओर उसके नेतृत्व में कोई ऊर्जा, भविष्य का सपना और लोगों को आकर्षित करने का करिश्मा दिखायी नहीं देता। इसलिए सफलताऐ ंतो मिलती हैं पर एक लहर नहीं बन पाती। अब वह समय आ गया है जब उसे पाँच वर्ष और इंतजार करना है। इस दौर में इन दोनों ही कमजोरियों को दूर करना होगा। नहीं करेगी तो जैसा कभी भाजपा के चाणक्य माने जाने वाले गोविन्दाचार्य ने कहा है कि भाजपा झीने केसरिया आवरण वाली कांग्रेस ही बनकर रह जायेगी।आज तो वह न कांग्रेस है और न ही जनसंघ।

सरकार तो अब बन गयी और चलेगी भी। पर क्या आम आदमी के हक में नीतियाँ और कार्यक्रम लागू हो पायेंगे? ये सवाल गम्भीर लोगों के मन में हमेशा रहता है। सवा चार सौ सांसद लाकर भी 1984 में इंका लड़खड़ा गयी थी। डाॅ. सिंह व राहुल गाँधी दोनों को खुले दिमाग से इस तथ्य को स्वीकारना चाहिए और यह भी कि उनके दल का राजनैतिक भविष्य ठोस परिणामों पर निर्भर होगा। जनता तक अगर नीतियों का लाभ पहुँचेगा तभी वे मजबूत बनेंगे। वैसे इस बार भी जो जनादेश उन्हें मिला है, वह सकारात्मक वोट है। जिसके लिए उनका खुश और संतुष्ट होना लाजमी है।

Sunday, May 10, 2009

चुनाव आयोग में सुधार की जरूरत

दिल्ली में मतदान के दिन खबर आई कि मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला का नाम मतदाता सूची में नहीं है। बाद में पता चला कि वे गलत बूथ पर पहुंच गए थे और मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के बाद उन्होंने सरकारी घर बदल लिया था। इसलिए अब उनका नाम दूसरे मतदान केंद्र में था और उन्होंने वहां वोट डाल दिया। देश के मुख्य चुनाव आयुक्तए राजधानी दिल्ली में जब गलत मतदान केंद्र पर पहुंच सकते हैं तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि आम लोगों के साथ ऐसा नहीं होता होगा। श्री चावला तो बड़े सरकारी अफसर हैंए चुनाव करा रहे हैं और सरकारी मकान में रहते हैं इसलिए उनका नाम किस दूसरी सूची में है यह तुरंत पता चल गया और उन्होंने वहां जाकर वोट भी डाल दिया। पर क्या आम आदमी को यह सुविधा उपलब्ध होगी। अगर नहीं होगी तो उसका सीधा सा असर यह होगा कि वह वोट नहीं डाल पाएगा।

दिल्ली की मुख्य चुनाव आयुक्त सुश्री सतबीर सिलस बेदी ने कहा है कि दिल्ली में 53 प्रतिशत मतदान का श्रेय उनके सहकर्मियों और कर्मचारियों को भी जाता है। खबर के मुताबिक 80 अधिकारियों की एक टीम अक्तबूर 2007 से लगातार इस काम में लगी थी। इनलोगों ने मतदाता सूची को संशोधित व अद्यतन करने का काम किया। इसका असर हुआ। सवाल उठता है कि क्या ऐसा प्रयास सारे देश में किया जाता है घ् उत्तर होगा नहीं। सुश्री बेदी ने यह भी कहा है जनता को वोट देने के लिए जागरूक करने वाले प्रचार का ऐसा असर हुआ कि उनके कार्यालय के फोन काफी व्यस्त रहे और दिन भर वोटिंग से संबंधित जानकारियों के लिए लोगों के फोन आते रहे।

दिल्ली के पास ही गुड़गांव और गाजियाबाद में लोगों को अपने राज्यों के चुनाव कार्यालय के नंबर नहीं मालूम थे। ऐन मतदान के दिन अखबारों में खबर छपी थी कि गुड़गांव के कई अपार्टमेंट में रहने वाले लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब हो गए हैं। गाजियाबाद के वैशाली इलाके में भी यही हुआ। वर्ष 2002 से वहां रह रहे पत्रकार संजय कुमार सिंह ने बताया कि इस बार उनका नाम मतदाता सूची में नहीं था। जबकि उनके पास 05 जनवरी 2005 को जारी मतदाता पहचान पत्र है तथा पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उन्होंने मतदान किया भी था। इस बार वैशाली में ग्यारह मंजिल की जिस बिल्डिंग में वे पिछले सात साल से लगातार रह रहे हैं उसमें रहने वाले तमाम लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब थे। यही हाल आस.पास की ऐसी कई बिल्डिंग में रहने वालों का था। जाहिर है कि वैशाली की मतदाता सूची बहुत ही लापरवाही से बनाई गई है और उसमें कोई क्रमए सिस्टमए व्यवस्था नजर नहीं आती है। इसलिए जिनका नाम है वे वोट नहीं डाल पाते और जो वोट डालना चाहते हैं उनके नाम ही नहीं हैं।

भविष्य में यह स्थिति न रहे इसके लिए इसमें सोच.समझ कर काम करने की जरूरत है। देश के अलग.अलग हिस्सों में मतदाताओं को शिकायत है कि उनका मतदान केंद्र अक्सर बदल जाता है जिसकी  सूचना सरकारी स्तर पर देने का रिवाज ही नहीं है। ऐसे में अगर किसी मतदाता को यह पता ही न चले कि उसका नाम मतदाता सूची में कहां है और उसे वोट डालने किस मतदान केंद्र पर जाना है तो वह वोट कैसे डालेगा। वैशाली के मतदाताओं के नाम एक बार मतदान सूची में शामिल होने और फिर गायब हो जाने के बारे में पता चला है कि पुनरीक्षण के समय अगर किसी बीएलओ को नाम नहीं मिलते तो वह उन्हें विलोपित या डिलीट करने की सिफारिश कर देता है। अब अगर किसी सरकारी अधिकारी को बड़ी संख्या में मतदाताओं वाली कोई बिल्डिंग ही न मिले तो उसमें रहने वाले मामूली वोटर को मतदाता सूची में अपना नाम कैसे मिलेगा घ्

इसपर मतदान से पहले भिन्न राजनैतिक दलों द्वारा बंटवाई जाने वाली पर्ची का ख्याल आया जिसमें मतदान केंद्रए भाग संख्या आदि की जानकारी दी जाती है। मतदान के समय भी अधिकारी इस पर्ची की मांग करते हैं। वैसे तो इस पर्ची पर ऐसा कुछ नहीं होता जिससे जारी करने वाली पार्टी की पहचान हो पर किस पार्टी ने कितने सफेदए भूरे या पीले कागज वाली पर्ची जारी की है यह तो संबंधित क्षेत्र में सक्रिय लोगों को मालूम ही रहता है और मेरा मानना है कि जो लोग जिस पार्टी से सहानुभूति रखते हैं उसी पार्टी की पर्ची लेकर मतदान करने जाते हैं। या मतदान केंद्र के बाहर उसी पार्टी के लोगों के पास जाते हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि इससे मत की गोपनीयता भंग होती है और यह काम सरकार को करना चाहिए। सरकार लोगों को वोट डालने के लिए प्रेरित करने के लिए जो प्रयास कर रही है उसके साथ लोगों को यह बताना भी जरूरी है कि उनका नाम मतदाता सूची में कहां है और उन्हें वोट डालने कहां जाना है।

इसके अलावा मतदाता सूची को आसानी से उपलब्ध कराना भी जरूरी है। मतदान से काफी पहले इसे इंटरनेट समेत जनता के लिए सार्वजनिक और सुविधाजनक रूप से उपलब्ध कराया जाना चाहिए और उसके बाद लोगों को समय व मौका दिया जाना चाहिए कि वे अपना नाम शामिल कराने के लिए आवेदन और आवश्यक प्रयास करें। हर बार मतदान केंद्र बदलने का कारण भी समझ से परे है। वैशाली नई बस रही कालोनी है। इसलिए अगर ऐसा हो रहा है तो भी एक बात है पर कोशिश होनी चाहिए कि ऐसा न हो। देश के कई शहरों में लोग बाग सालों से एक ही मतदान केंद्र पर मत डालते आ रहे हैं।

एक तरफ तो सरकार मतदाता सूची और परिचय पत्र बनाने पर भारी भरकम राशि खर्च कर रही है। यह काम ठीक से न होने के नुकसान की भरपाई करने के लिए मतदाताओं को वोट डालने के लिए प्रेरित करने के नाम पर भी भारी भरकम राशि खर्च की जा रही है। वोट डालने के लिए जरूरी है कि वोट डालने वालों के नाम मतदाता सूची में होंए उन्हें मिल जाएं और जहां एक बार दर्ज होए वहीं रहे . अगर वोटर वहीं है। मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने की प्रक्रिया भी आसान होनी चाहिए। लोगों को पता होना चाहिए कि इसके लिए उन्हें कब कहां जाना है और यह काम लोगों के घर के आस.पास ही हो तो अच्छा है। मतदान का प्रतिशत बढ़ाने के लिए ठोस कार्रवाई की जरूरत है। अगर यह प्रतिशत मात्र विज्ञापनों से बढ़ना होता तो मुंबई में भी बढ़ता। दिल्ली और मुंबई में मतदान के प्रतिशत और सुश्री सतबीर सिलस बेदी के बयान ने इसे साबित कर दिया है।

Sunday, May 3, 2009

पप्पू ने वोट नहीं डाला

30 अपैzल की सुबह 5 बजे मुम्बई के छत्रपति शिवाजी हवाई अड्डे पर इस कदर भीड़ थी, मानो सारा मुम्बई कुम्भ के मेले में जा रहा हो। चैक-इन काउण्टर की लाइन में खड़े-खड़े मैंने बहुत से लोगों को पूछा कि आज आपके शहर में मतदान है और आप छुट्टी मनाने बाहर जा रहे हैं? जबाव था कि कोई भी उम्मीदवार हमें पसन्द नहीं। मतदान का प्रतिशत देशभर में अब तक काफी कम रहा है। शहर में रहने वाले पप्पू तो मतदान दिवस को छुट्टी मानकर मौज-मस्ती करने चले जाते हैं, पर क्या वजह है कि बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश जैसे इलाकों में भी लोग वोट डालने घर से नहीं निकले? जबकि अपने अस्तित्व की सबसे कठिन लड़ाई यही लोग लड़ते हैं।

आसार पहले से ही ऐसे दिख रहे थे। क्योंकि दलों के पास कोई मुद्दा ही नहीं है और राजनेताओं के बयानों में ईमानदारी नहीं है। इसलिए गर्मी के अलावा मतदाता को लगने लगा कि वो चाहे जिसे चुन ले, कोई अन्तर नहीं पड़ता। क्योंकि चुनाव के बाद सब एक हो जाते हैं। तब शुरू होती है सत्ता की बंदरबांट। एक-एक, दो-दो सीट जीतने वाले दल भी सत्ता का ऐसा मोलतोल करते हैं कि सबसे मलाईदार विभाग लेकर ही छोड़ते हैं। जनता को साफ दिखाई देता है कि चुनाव के पहले लम्बे चैड़े वायदे करने वाले दरअसल इस देश की सम्पदा को लूटने के मकसद से राजनीति में आ रहे हैं। इसलिए उसकी रूचि अब इस व्यवस्था में न के बराबर रह गई है। यही वजह है कि इस बार निर्दलीय उम्मीदवारों को ही नहीं बल्कि बड़े-बड़े दलों को भी कार्यकर्ताओं का टोटा रहा।

चुनाव का कर्मकाण्ड तो हो ही जाएगा पर ये ऐसा विवाह होगा जो कन्या की रूचि के विरूद्ध जबरन सात फेरे डालकर करवाया गया हो। यह गम्भीर स्थिति है। बहुत से लोग इसके बारे में सोच रहे हैं। वैकल्पिक राजनैतिक व्यवस्था की तैयारी में 1977 से ही जुटे हैं। जब पहली बार जनता दल के गठन का प्रयोग जन आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं रहा था। पर ऐसा सोचने वाले समाज सुधारक व बुद्धिजीवी आज तक कोई देश व्यापी विकल्प  खड़ा नहीं कर पाये। कई चुनाव लड़े भी पर कोई सीट नहीं जीत पाये। दूसरी तरफ इस हताशा के माहौल में बड़े राजनैतिक दलों ने अब यह कहना शुरू कर दिया है कि देश में दो दलीय व्यवस्था होनी चाहिए। जो भी हो यह निश्चित है कि लोकतंत्र का यह स्वरूप अब बुरी तरह विखण्डित हो रहा है। एक के बाद एक जनसभाओं में राजनेताओं पर फिंकते जूते क्या बता रहे हैं? हद तो तब हो गयी जब गुजरात में एक सांसद की चुनावी सभा में श्रोता ने उसके उपर भारी-भरकम ईंट फैंक कर मारी। वह बाल-बाल बच गया। अगर जनता अपने आक्रोश का इस तरह प्रदर्शन करना शुरू कर देगी तो स्थिति कितनी भयावह होगी, इसका अन्दाजा भी नहीं लगाया जा सकता? मीडिया क्रांति ने जहां लोगों को देश के कोने-कोने में घटने वाली घटनाओं से जोड़ा है, वहीं ऐसे नकारात्मक विचार भी अब आग की तरह फैल जाते हैं। आर्थिक मंदी, बेरोजगारी और बुनियादी सेवाओं का अभाव, ऐसे ज्वलंत प्रश्न हैं जिनपर जनता का आक्रोश कब फूट पड़े और वह क्या स्वरूप ले ले, नहीं कहा जा सकता।

काॅर्ल माक्र्स ने सर्वाहारा के एलिएनेशनका जो सिद्धांत प्रतिपादित किया था, उसकी मूल मान्यता यह है कि जब मजदूर का उत्पादन की जा रही वस्तु से कोई सारोकार नहीं होता तो उसकी उत्पादन प्रक्रिया में अरूचि बढ़ती जाती है। उदाहरण के तौर पर कार बनाने वाले मजदूर जानते हैं कि वे कभी कार नहीं खरीद पायेंगे। माक्र्स का यह सिद्धांत भी अन्य सिद्धांतों की तरह शाश्वत नहीं है। जयपुर के कुन्दन कारीगर करोड़ों रूपये के जेवर बनाते हैं पर उनकी स्त्रियां यह जेवर कभी पहन नहीं पातीं। फिर भी वे सदियां से इस कार्य में जुटे हैं। पर भारत के चुनावों में माक्र्स का यह सिद्धांत सही सिद्ध हो रहा है। चुनाव से पहले उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया में लोकतांत्रिक परंपराओं का लगातार लुप्त होते जाना कार्यकर्ताओं और मतदाताओं दोनों के मन में इस प्रक्रिया के प्रति अरूचि पैदा कर रहा है। इसीलिए न तो दलों को कार्यकर्ता मिल रहे हैं और न ही हाईकमान द्वारा चुने गये उम्मीदवार को जनता के वोट।

अगर देश के बुद्धिजीवी, राजनैतिक विश्लेषक व स्वंय राजनेता मानते हैं कि लोकतांत्रिक परपंरा ही भारत जैसी विविधता वाले देश के लिए सर्वाधिक उपयुक्त व्यवस्था है, तो शायद अब वह समय आ गया है कि जब इसकी खामियों पर चिंतन छोड़ उन्हें दूर करने की दिशा में ठोस, प्रभावी व त्वरित कदम उठाये जायें। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि चुनाव के नतीजे विखण्डित नेतृत्व देने वाले होंगे। ऐसी लंगड़ी सरकार शायद अपना कार्यकाल पूरा न कर पाये और फिर मध्यावधि चुनाव का अनावश्यक भार इस देश की अर्थ व्यवस्था को झेलना पड़े। ऐसे में जन आक्रोश अबसे भी ज्यादा खतरनाक रूप में सामने आ सकता है। इसलिए सबकी भलाई इसी में है कि चुनाव होते ही राजनैतिक सुधार के कार्यक्रमों को देश में हर स्तर पर गम्भीरता से लिया जाये और जनमत संग्रह कराकर इन सुधारों को लागू किया जाये। इस प्रक्रिया में नई संसद, चुनाव आयोग, सर्वोच्च न्यायालय और मीडिया को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी।