Monday, January 31, 2022

बेरोज़गार युवा और सरकारी तंत्र


पिछले दिनों बिहार और उत्तर प्रदेश में युवकों द्वारा रेलवे भर्ती बोर्ड की नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटेगरी (आरआरबी-एनटीपीसी) परीक्षा प्रक्रिया में कथित अनियमितताओं को लेकर उग्र प्रदर्शन हुए। सरकार ने छात्रों द्वारा रेल रोकने से लेकर रेल में आग लगाने जैसे प्रदर्शन की न सिर्फ़ निंदा की है बल्कि छात्रों पर बर्बरता से लाठियाँ भी चलाई। सोशल मीडिया पर इस लाठी चार्ज के विडीयो भी खूब वाइरल हुए। इस बवाल के बाद से विपक्ष इस मामले को लेकर एकजुट होता दिखाई दिया और न सिर्फ़ छात्रों के समर्थन में उतरा बल्कि केंद्र पर जमकर हमला भी बोला।
 


इसी दौरान बिहार के एक छात्र ने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में कुछ बुनियादी सवाल उठाए हैं। चुनावों के मौसम में इन सवालों से केंद्र सरकार को काफ़ी दिक्कत आ सकती है। आज के दौर में अगर ‘मेनस्ट्रीम मीडिया’ किन्ही कारणों से ऐसे सवालों को जनता तक नहीं पहुँचती है तो इसका मतलब यह नहीं है कि जनता तक वह सवाल पहुँच नहीं पाएँगे। सोशल मीडिया पर यह इंटरव्यू काफ़ी देखा जा रहा है।       



इस विडियो में छात्र द्वारा रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव के एक बयान का ज़िक्र है जहां वो कहते हैं कि 1.27 करोड़ छात्रों ने भर्ती के लिए आवेदन दिए हैं तो परीक्षा कैसे हो सकती है? इस बयान पर सवाल उठाते हुए छात्रों ने पूछा कि, आप ने कहा है कि पिछली सरकारों के मुक़ाबले आपके शासन काल में ज़्यादा फ़ॉर्म भरे गये यानी कि आपकी नीतियों के चलते बेरोज़गारी बढ़ी है। इंटरव्यू के दौरान छात्र ने एक ऐसी बात कह दी जो सभी युवकों को छू गई। उस छात्र ने कहा कि, परीक्षा की तैयारी के दिनों में कभी-कभी ऐस भी हुआ जब घर से पैसा समय पे नहीं आता था तो हम लोग गर्म पानी पी कर सो जाते थे। अगर छात्र इतनी कठिन परिस्थितियों में रह कर नौकरी पाने की उम्मीद में परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, और जब परीक्षा में धांधली की खबर मिलती है तो छात्र क्या करें? कैसे अपने ग़ुस्से को रोकें? सरकार को क्यों न कोसें? 


छात्रों के उग्र होने के सवाल पर छात्रों ने यह बताया कि 14 जनवरी को आए नतीजों का 10 दिनों तक विभिन्न डिजिटल माध्यमों से लगभग एक करोड़ बार विरोध किया गया। जब सरकार के पास कोई जवाब नहीं बचा तो डिजिटल विरोध के ‘हैश-टैग’ को बैन कर दिया गया। इसके बाद छात्र सड़कों पर उतरे और निहत्थे छात्रों पर सरकारी तंत्र ने लाठियाँ भांजी। किसान आंदोलन के बाद सरकार को सोचना चाहिए कि छात्रों की माँग को देखते हुए उनके प्रतिनिधि से बात कर कोई हाल ज़रूर निकाल सकता था। अगर युवाओं को सरकारी नौकरी मिलने की भी उम्मीद नहीं होगी तो हार कर उन्हें निजी क्षेत्र में जाना पड़ेगा और निजी क्षेत्र की मनमानी का सामना करना पड़ेगा। 


उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए मोदी सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ हैं। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 7 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।


इसके लिए तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि पढ़े-लिखे युवाओं के लिए एक ऐसी योजना लानी पड़ेगी जिससे इनको भी रोज़गार मिल जाए। पर ऐसा करने से करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उन नौजवानों की है जो आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। उनका आक्रोश इतना बढ़ चुका है और सरकारी तंत्र द्वारा नौकरी के बजाए लाठियों ने आग में घी का काम किया है। कुछ वर्ष पहले सोशल मीडिया पर एक व्यापक अभियान चला कर देश के बेरोज़गार नौजवानों ने प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस को ही ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया था। उस समय इसी कॉलम में मैंने कहा था कि ये एक ख़तरनाक शुरुआत है जिसे केवल वायदों से नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में शिक्षित रोज़गार उपलब्ध कराकर ही रोका जा सकता है। मोदी जी ने 2014 के अपने चुनावी अभियान के दौरान प्रतिवर्ष 2 करोड़ नए रोज़गार सृजन का अपना वायदा अगर निभाया होता तो आज ये हालात पैदा न होते जिसमें देश के रेल मंत्री को ही यह मानना पड़ा की पिछली सरकार के मुक़ाबले इस सरकार में ज़्यादा फ़ॉर्म भरे गए। इसका सीधा सा मतलब यह है कि पिछली सरकारों के मुक़ाबले बेरोज़गारी काफ़ी बढ़ी है। 

Monday, January 24, 2022

पर्यावरण मंत्रालय द्वारा ‘राज्यों को प्रोत्साहन’ !


पिछले दिनों केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने एक विवादास्पद कदम में, "पर्यावरण मंजूरी देने में दक्षता और समय सीमा" के आधार पर राज्यों को रैंकिंग देकर "प्रोत्साहन" देने का फैसला किया है।


इस फ़ैसले के अनुसार, जो भी राज्य किसी भी परियोजना के लिए राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण (एसईआईएए) के से पर्यावरण मंजूरी जल्द से जलद लेगा उस राज्य को सर्वोत्तम स्थान दिया जाएगा। एसईआईएए कम से कम समय में परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी देता है और इसके द्वारा दी गई मंज़ूरी उच्च मानकों द्वारा की जाती है।  



ईसी (पर्यावरण मंजूरी) के अनुदान में दक्षता और समयसीमा के आधार पर राज्यों को स्टार-रेटिंग प्रणाली के माध्यम से प्रोत्साहित करने का निर्णय लिया गया है। मंत्रालय ने पिछले हफ़्ते जारी एक आदेश में कहा, यह मान्यता और प्रोत्साहन के साथ-साथ जहां आवश्यक हो, सुधार के लिए भी है।


यदि एक एसईआईएए को मंजूरी देने में औसतन 80 दिन से कम समय लगता है तो उसे 2 अंक मिलेंगे। यदि उसे मंजूरी देने में 105 दिन से कम समय लगता है तो 1 अंक। उसी तरह 105-120 दिनों के लिए 0.5; और 120 से अधिक दिनों के लिए 0 अंक मिलेंगे।


ग़ौरतलब है कि राज्य प्राधिकरण प्रस्तावित परियोजनाओं के लिए अधिकांश पर्यावरणीय प्रभाव आकलन करते हैं। जबकि प्रमुख 'श्रेणी ए' की परियोजनाओं को केंद्र द्वारा मंजूरी दी जाती है। बड़ी परियोजनाओं को छोड़कर शेष, खनन, थर्मल प्लांट, नदी घाटी और बुनियादी परियोजनाओं सहित, राज्य निकायों के दायरे में ही आते हैं।


इसके साथ ही, 100 दिनों से अधिक समय से लंबित पर्यावरण संशोधन प्रस्तावों के निपटारे के लिए भी, एसईआईएए को अंक दिए जाएँगे। 90 प्रतिशत से अधिक मंजूरी के लिए 1 अंक मिलेगा; 80-90 प्रतिशत निकासी के लिए 0.5; और 80 प्रतिशत से कम के लिए शून्य अंक।


इस फ़ैसले में यह भी कहा गया है की एसईआईएए द्वारा मंजूरी देने के लिए कम पर्यावरणीय विवरण मांगने पर भी राज्य के अधिकारियों को पुरस्कृत किया जाएगा। यदि ईडीएस (आवश्यक विवरण) मामलों का प्रतिशत 10 प्रतिशत से कम है, तो एसईआईएए को 1 अंक मिलेगा; अगर यह 20 प्रतिशत है, तो उन्हें 0.5 मिलेगा; और अगर यह 30 प्रतिशत से अधिक है, तो उन्हें 0 अंक मिलेगा। 


5 दिनों से कम समय में प्रस्ताव स्वीकार करने पर एसईआईएए को 1 अंक मिलेगा; 5-7 दिनों के लिए 0.5; और 7 दिनों से अधिक के लिए 0 अंक दिए जाएँगे। 


इस रेटिंग प्रणाली शिकायतों के निपटान को भी ध्यान में रखा गया है। इसके तहत यदि सभी शिकायतों का निवारण किया जाता है तो 1 अंक; यदि 50% शिकायतों का निवारण किया जाता है तो 0.5; और 50%से कम के लिए 0 अंक।


इन मापदंडों के आधार पर, यदि कोई एसईआईएए 7 से अधिक अंक प्राप्त करता है, तो उसे 5-स्टार (उच्चतम रैंकिंग) के रूप में स्थान दिया जाएगा। राज्य के अधिकारियों को भी उनके संचयी स्कोर के आधार पर 5,4,3,2 और 1-स्टार के रूप में स्थान दिया जा सकता है। इसी तरह यदि कोई भी एसईआईएए जिसे कुल 3 से कम अंक प्राप्त होते हैं उसे कोई स्टार नहीं मिलेगा। 


दरअसल, मंत्रालय का यह निर्णय पिछले साल 13 नवंबर को कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में हुई एक बैठक की पृष्ठभूमि में लिया गया है। जिसमें विशेष रूप से "कारोबार करने में आसानी" को सक्षम करने के लिए की गई कार्रवाई का मुद्दा उठाया गया था। जिसके तहत मंजूरी के अनुसार लगने वाले समय के आधार पर राज्यों की ‘रैंकिंग’ की जाएगी।


पर्यावरणविदों ने, इस कदम की आलोचना करते हुए, चेतावनी दी है कि राज्य के अधिकारी, जिनका कार्य पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित करना है, अब राज्य की रैंकिंग बढ़ाने के लिए परियोजनाओं को बिना पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित किए हुए तेजी से पूरा करने के लिए "प्रतिस्पर्धा" करेंगे। एसईआईएए बुनियादी ढांचे, विकासात्मक और औद्योगिक परियोजनाओं के एक बड़े हिस्से के लिए पर्यावरणीय मंजूरी प्रदान करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। उनका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण और लोगों पर प्रस्तावित परियोजना के प्रभाव का आकलन करना और इस प्रभाव को कम करने का प्रयास करना है। 


दिल्ली के पर्यावरण वकील ऋत्विक दत्ता के अख़बार को दिए बयान के अनुसार यह आदेश बिल्कुल बेतुका है। जिस गति से परियोजनाओं को मंजूरी दी जाती है, उसके अनुसार पर्यावरण की रक्षा के लिए ज़िम्मेदार संस्था को आप कैसे ग्रेड दे सकते हैं? मंजूरी के लिए समय सीमा को वैसे भी 75 दिनों तक लाया गया था, जो चिंता का विषय था, और पर्यावरण की कीमत पर परियोजनाओं को मंजूरी देने के स्पष्ट उद्देश्य से किया गया था। उन्होंने यह भी कहा कि भारत में, सबसे बड़ी परियोजनाओं को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा श्रेणी ए के तहत पर्यावरण मंजूरी दी जाती है। एसईआईएए, मुख्य रूप से निर्माण परियोजनाओं के लिए, देश भर में 90 प्रतिशत से अधिक मंजूरी देते हैं। विश्व बैंक ने खुद व्यापार करने में आसानी के सिद्धांत को खारिज कर दिया है, यह स्वीकार करते हुए कि यह काम नहीं करता है। यह आदेश किसी वन अधिकारी को यह बताने जैसा है कि वह जितना ज़्यादा जंगल में जाएगा, उसे उतने ही कम अंक मिलेंगे। यह पर्यावरण कानून के हर प्रावधान का उल्लंघन करता है। 


दरअसल इस तरह के आत्मघाती विकास के पीछे बहुत सारे निहित स्वार्थ कार्य करते हैं जिनमें राजनेता, अफ़सर और निर्माण कम्पनियाँ प्रमुख हैं। क्योंकि इनके लिए आर्थिक मुनाफ़ा ही सर्वोच्च प्राथमिकता होता है। जितनी महंगी परियोजना, जितनी जल्दी मंज़ूरी, उतना ही ज़्यादा कमीशन। यह कोई नयी बात नहीं है। मुंशी प्रेमचंद अपनी कहानी ‘नमक का दरोग़ा’ में इस तथ्य को 100 वर्ष पहले ही रेखांकित कर गए हैं। पर कुछ काम ऐसे होते हैं जिनमें आर्थिक लाभ की उपेक्षा कर व्यापक जनहित को महत्व देना होता है। पर्यावरण एक ऐसा ही मामला है जो देश की राजनैतिक सीमाओं के पार जाकर भी मानव समाज को प्रभावित करता है। इसीलिए आजकल ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को लेकर सभी देश चिंतित हैं। अब सोचना यह है कि पर्यावरण मंत्रालय के इस नए आदेश से राज्यों को प्रोत्साहन मिलेगा या पर्यावरण का विनाश होगा।

Monday, January 17, 2022

योगी क्यों हुए अलोकप्रिय?


जिस तरह से उत्तर प्रदेश के नेता भाजपा छोड़ समाजवादी पार्टी की तरफ़ दौड़ रहे है उसे साधारण भगदड़ नहीं कहा जा सकता। इसका नुक़सान देश की सबसे शक्तिशाली पार्टी को हो रहा है जो केंद्र और राज्य में सरकार चला रही है। उत्तर प्रदेश में इस ‘डबल इंजन’ की सरकार का चेहरा बने योगी आदित्यनाथ की अलोकप्रियता ही इस पतन का कारण है। 





भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी यह समझ नहीं आ रहा कि उतर प्रदेश के चुनावों से ठीक पहले ऐसा क्यों हो रहा है? क्या योगी जी की कुछ कठोर नीतियाँ इसका कारण हैं? क्या उत्तर प्रदेश में दिल्ली हाई कमान के जासूस इस भगदड़ का अनुमान लगाने में नाकामयाब रहे? भाजपा और संघ का विशाल नेटवर्क भी इस सबका अनुमान नहीं लगा सका? क्या कारण है कि भाजपा के पास इतना बड़ा संगठन और तमाम संसाधन भी इन नेताओं का पलायन नहीं रोक पाए? क्या भाजपा ने इस बात का विश्वास कर लिया था कि जो नेता पिछड़ी जातियों से आए हैं वो उनके साथ लम्बे समय तक रहेंगे और पिछले पाँच सालों में योगी जी के कठोर रवैए से आहत नहीं होंगे?


दरअसल शुरू से योगी का रवैया उनकी ‘ठोको’ नीति के अनुरूप दम्भी और अतिआत्मविश्वास से भरा हुआ रहा है। जिसमें उनके चुनिंदा कुछ नौकरशाहों की भूमिका भी बहुत बड़ा कारण रही है। इस बात को इसी कॉलम में शुरू से मैंने कई बार रेखांकित किया। बार-बार योगी जी को सलाह भी दी कि कान और आँख खोल कर रखें और सही और ग़लत का निर्णय लेने के लिए अपने विवेक और अपने स्वतंत्र सूचना तंत्र का सहारा लें। सत्ता के मद में योगी कहाँ सुनने वाले थे। उनके चाटुकार अफ़सर उनसे बड़े-बड़े आयोजनों में फ़ीते कटवाते रहे और खुद चाँदी काटते रहे। 


जिस तरह से योगी सरकार ने पिछले पाँच सालों में उत्तर प्रदेश में अहम मुद्दों की परवाह किए बिना केवल हिंदुत्व के एजेंडे को ही सबसे ऊपर रखा शायद वह भी एक कारण रहा। मिसाल के तौर पर अयोध्या में पाँच लाख दिये जलाने के अगले ही दिन जिस तरह की तस्वीरें सामने आईं जहां लोग दियों के तेल को समेट रहे थे उससे यह बात तो साफ़ है लोग बढ़ती हुई महंगाई और युवा बेरोज़गारी से परेशान थे। लम्बे समय तक चले किसान आंदोलन ने सरकार की नीतियों उत्तर प्रदेश के किसानों के सामने बेनक़ाब कर दिया और किसानों ने भी सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया। 


जिस तरह से उत्तर प्रदेश के कई छोटे दलों के नेता जो 2017 में भाजपा से जुड़े थे उन्हें जब योगी सरकार में मंत्री या अन्य पद मिले तो उन्हें लगा कि सरकार में उनकी सुनवाई भी होगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्हें केवल शो-पीस बना कर रखा गया। जब पानी सर से ऊपर चला गया और उनकी कहीं सुनवाई न हुई तो उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ना ही बेहतर समझा। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को इसका आभास शायद इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने सोचा कि किसी भी नेता के लिए सरकार में रुतबा और पद छोड़ना इतना आसान नहीं होता। इसलिए शीर्ष नेतृत्व ने भी उनकी शिकायतों को अनसुना कर दिया।


योगी सरकार के नौकरशाहों ने जिस तरह मीडिया को बड़े-बड़े विज्ञापन देकर असली मुद्दों से परे रखा वो भी एक बड़ा कारण रहा। ज़्यादातर मीडिया ने भी इन नौकरशाहों की बात सुनकर जनता के बीच दुष्प्रचार फैलाया और जनता को गुमराह करने का भी काम किया। फिर वो चाहे ज़ेवर हवाई अड्डे के विज्ञापन में चीन के हवाई अड्डे की तस्वीर हो या फिर बंगाल के फ़्लाईओवर की तस्वीर। इस तरह के झूठे विज्ञापनों से योगी सरकार की काफ़ी किरकिरी हुई। ग़नीमत है सोशल मीडिया ने इस सब की पोल खोल दी और जनता को भी समझ में आने लगा कि विज्ञापन की आड़ में क्या चल रहा है।


2017 से ही योगी और उनकी ‘टीम इलेवन’ ही सरकार चला रही थी। किसी भी विधायक की कहीं भी कोई सुनवाई नहीं थी। इतना ही नहीं योगी मंत्रीमंडल के एक मंत्री तो ऐसे हैं जो अपनी इच्छा से किसी अधिकारी नियुक्ति या निलम्बन भी नहीं करवा सकते थे। एक चर्चा तो यह भी आम हो चुकी है कि यदि किसी विधायक को दो किलोमीटर की सड़क भी बनवानी पड़ती थी तो उसे यह कह कर डाँट दिया जाता था कि ‘क्या सड़क बनवाने में कमीशन कमाना चाहते हो?’ इतना ही नहीं यदि किसी विधायक को कुछ काम करवाना होता था तो वह इस ‘टीम इलेवन’ के बैचमेट से कहलवाता था तब जा कर शायद वो काम होता। वो विधायक तो जन प्रतिनिधि केवल नाम का ही था। 


उत्तर प्रदेश में योगी सरकार की सफलता या विफलता के बारे में सरकारी तंत्र के अलावा संघ का एक बड़ा तंत्र है जो ज़मीनी हक़ीक़त का पता लगाता है। परंतु उत्तर प्रदेश में संघ के इस तंत्र का एक बड़ा हिस्सा वैश्य और ब्राह्मण समाज से आता है। पिछड़ी जातियों से बहुत कम लोग इस तंत्र का हिस्सा हैं। इसलिए पिछड़ी जातियों की पीड़ा संघ के शीर्ष नेतृत्व तक पहुँची ही नहीं। सवर्णों के प्रतिनिधियों ने संघ के शीर्ष नेतृत्व को योगी सरकार की बढ़ाई कर उन्हें असलियत से दूर रखा। संघ के नेतृत्व यह तो नज़र आया कि 2017 की उत्तर प्रदेश की सरकार में पिछड़ी जातियों के मंत्री व विधायक तो बड़ी मात्रा में हैं परंतु प्रचारक नहीं। यदि ऐसा होता तो संघ अपनी कमर कस लेता और शायद इस भगदड़ की नौबत न आती। इसके साथ ही जातिगत जनगणना पर जो यू टर्न भाजपा सरकार ने लिया है उसने आग में घी डालने का काम किया है। 


योगी जी तो भगवा धारण कर इतना भी नहीं समझे कि वो अब एक मठ के मठाधीश नहीं बल्कि सूबे के मुख्य मंत्री हैं। भगवा धारी या साधु तो अहंकार में रह सकते हैं। लेकिन एक मुख्य मंत्री को तो हर तरह के व्यक्ति से मुख़ातिब होना पड़ता है। फिर वो चाहे मीडिया हो, उनके अपने मंत्री मंडल के सदस्य हों, विधायक हों, केंद्र द्वारा भेजे गए विशेष दूत हों या फिर आम जनता। अगर आप सभी को अपने मठ का सहायक समझ कर उससे अपशब्द कहेंगे या उनको अहमियत नहीं देंगे तो इसका फल भी आपको भोगना पड़ेगा। अब देखना यह है कि आने वाली 10 मार्च को योगी जी को उत्तर प्रदेश की जनता कौनसा फल अर्पित करेगी। 

Monday, January 10, 2022

प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक


प्रधान मंत्री मोदी के क़ाफ़िले के साथ जो फ़िरोज़पुर में हुआ उससे कई सवाल उठते हैं। इस घटना का संज्ञान अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी लिया है। घटना की जाँच होगी और पता चलेगा चूक कहाँ हुई। लेकिन इस बीच सोशल मीडिया पर तमाम तरह के विश्लेषण भी आने लग गए हैं। इसमें ऐसे कई पत्रकार हैं जो काफ़ी समय से गृह मंत्रालय को कवर करते आए हैं। उनका गृह मंत्रालय के उच्च अधिकारियों से अच्छा संपर्क होता है। उसी संपर्क के चलते कुछ पत्रकारों प्रधान मंत्री की सुरक्षा के लिए गठित स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रूप ‘एसपीजी’ की कार्यप्रणाली से सम्बंधित सवाल भी उठाए हैं। दूसरे पंजाब सरकार को ही दोषी बता रहे हैं।
 



विभिन्न राजनैतिक दलों ने भी इस घटना की निंदा करते हुए पंजाब की सरकार व केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश की है। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि इस घटना को लेकर अभी तक किसी भी तरह की कोई औपचारिक घोषणा नहीं हुई है। 


आरोप प्रत्यारोप के बीच पंजाब के मुख्य मंत्री ने अपनी सफ़ाई भी दे डाली है। आनन-फ़ानन में फ़िरोज़पुर के एसएसपी को सस्पेंड कर दिया गया है।उधर सोशल मीडिया पर कई तरह के विडीयो भी सामने आ रहे हैं। जहां भाजपा का झंडा लिए हुए कुछ लोग ‘मोदी ज़िंदाबाद’ के नारे लगाते हुए दिखाई दे रहे हैं और एसपीजी वाले चुप-चाप खड़े हैं। कुछ लोगों का तो यह तक कहना है कि प्रधान मंत्री बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के लाहोर चले गए तो उनकी जान कोई ख़तरा नहीं था। लेकिन अचानक उनके रास्ते में एक किलोमीटर आगे किसान आ गए तो उनकी जान को ख़तरा कैसे हो गया? औपचारिक घोषणा के न होने से अटकलों का बाज़ार गर्म होता जा रहा है। ऐसे में एक गम्भीर घटना भी मज़ाक़ बन कर रह जाती है। चूक कहाँ हुई इसकी जानकारी नहीं मिल पा रही। 


वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया पर कुछ ऐसी जानकारी भी साझा की जा रही है जहां पूर्व प्रधान मंत्रियों पर हुए ‘हमले’ के विडीयो भी सामने आए हैं। फिर वो चाहे इंदिरा गांधी के साथ हुई भुवनेश्वर की घटना हो या राजीव गांधी पर राजघाट पर हुए हमले की हो या फिर मनमोहन सिंह पर अहमदाबाद में जूता फेंके जाने की घटना हुई हो। इन में से किसी भी घटना में किसी भी प्रधान मंत्री ने अपना कार्यक्रम रद्द नहीं किया। बल्कि उनकी सुरक्षा में तैनात कमांडो ने बहुत फुर्ती दिखाई। फ़िरोज़पुर की घटना के बाद एक न्यूज़ एजेंसी के हवाले से ऐसा पता चला है कि प्रधान मंत्री ने एक अधिकारी से कहा कि अपने सीएम को थैंक्स कहना कि मैं ज़िंदा लौट पाया। ये अधिकारी कौन है इसकी पुष्टि अभी तक नहीं हुई है, क्योंकि उस अधिकारी द्वारा ऐसा संदेश औपचारिक रूप से नहीं भिजवाया गया। लेकिन घटना के बाद से ही यह लाइन काफ़ी प्राथमिकता से मीडिया में घूमने लग गई। जिससे आम जनता में एक अलग ही तरह का संदेश जा रहा है। 


फ़रवरी 1967 में जब चुनावी रैली के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी भुवनेश्वर पहुँची तो वहाँ की उग्र भीड़ में से एक ईंट आ कर उनकी नाक पर लगी और खून बहने लगा। इंदिरा गांधी ने अपनी नाक से बहते हुए खून को अपनी साड़ी से रोका और अपनी चुनावी सभा पूर्ण की। उस सभा में उन्होंने उपद्रवियों से कहा, ‘ये मेरा अपमान नहीं है बल्कि देश का अपमान है। क्योंकि प्रधान मंत्री के नाते मैं देश का प्रतिनिधित्व करती हूं।’ इस घटना ने भी उनके चुनावी दौरे में परिवर्तन नहीं होने दिया और वे भुवनेश्वर के बाद कलकत्ता भी गयीं। उन्होंने अपने पर हुए हमले के बाद ऐसा कोई भी बयान नहीं दिया कि ‘मैं ज़िंदा लौट पाई!’। बल्कि एक समझदार राजनीतिज्ञ के नाते उन्होंने इस घटना को एक ‘मामूली घटना’ बताते हुए कहा कि चुनावी सभाओं ऐसा होता रहता है। 


अब फ़िरोज़पुर की घटना को लें तो प्रधान मंत्री के क़ाफ़िले से काफ़ी आगे किसानों का एक शांतिपूर्ण धरना चल रहा था। प्रधान मंत्री मोदी अपनी गाड़ी में बैठे हुए थे और क़रीब 20 मिनट तक उन्हें रुकना पड़ा। न तो कोई भी प्रदर्शनकारी उनकी गाड़ी तक पहुँचा और न ही उन पर किसी भी प्रकार का हमला हुआ। इतनी देर तक प्रधान मंत्री को एक फ़्लाईओवर पर खड़े रहना पड़ा इसकी जवाबदेही तो एसपीजी की है। क्योंकि सुरक्षा के जानकारों के मुताबिक़ प्रधान मंत्री की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी एसपीजी की है न कि किसी भी राज्य पुलिस की। प्रधान मंत्री के क़ाफ़िले में कई गाड़ियाँ उनकी गाड़ी से आगे भी चलती हैं। अगर एसपीजी को प्रदर्शन की जानकारी लग गई थी तो प्रधान मंत्री की गाड़ी को आगे तक आने क्यों दिया गया? दिल्ली में जब भी प्रधान मंत्री का क़ाफ़िला किसी जगह से गुजरता है तो जनता को काफ़ी दूर तक और देर तक रोका जाता है। इसका मतलब एसपीजी इसे सुनिश्चित कर लेती है कि कोई भी प्रधान मंत्री के क़ाफ़िले के मार्ग में नहीं आएगा। 


यहाँ एक बात कहना चाहता हूँ जिसे मैंने भी अपने ट्विटर पर प्रधान मंत्री को सम्बोधित करते हुए लिखा है। अच्छा होता कि प्रधान मंत्री एसपीजी से कह कर प्रदर्शन करने वालों के एक प्रतिनिधि को अपने पास बुलवाते और उससे बात करते। इससे किसानों के बीच एक अच्छा संदेश जाता और आने वाले चुनावों में भी शायद इसका फ़ायदा मिलता। एक साल तक प्रदर्शन करते किसानों से तो आप मिले नहीं। अगर एक छोटे से समूह के प्रतिनिधि से मिल लेते तो सोशल मीडिया पर चल रहे मेघालय के राज्यपाल श्री सत्यपाल मालिक द्वारा आपके मेरे लिए थोड़ी मरे वाले बयान पर थोड़ी मरहम लग जाती। पर देश के प्रधानमंत्री के मुँह से मैं ज़िंदा बच कर लौट आया जैसा बयान किसी के गले नहीं उतर रहा। विपक्ष इसे नौटंकी और सत्ता पक्ष जान लेवा साज़िश बता रहा है। ये बयान प्रधानमंत्री के पद की गरिमा के अनुरूप नहीं था।

Monday, January 3, 2022

कानपुर छापा : काला धन या टर्नओवर?


पिछले दिनों कानपुर के इत्र व्यापारी पीयूष जैन के यहाँ जीएसटी का छापा बहुत चर्चा में रहा। इस छापे में क़रीब 300 करोड़ का ‘काला धन’, सोना, चाँदी, चंदन व अन्य सामान पकड़ा गया था। क्योंकि ये चुनाव का माहौल है और समाजवादी पार्टी का एक विधान परिषद सदस्य भी जैन है और इत्र का व्यापारी है इसलिए बिना तथ्यों को जाँचे सत्ता पक्ष के नेताओं, मीडिया व भाजपा की आईटी सेल ने सोशल मीडिया इस मामले को समाजवादी पार्टी का भ्रष्टाचार कहकर उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना ही नहीं देश के प्रधान मंत्री तक ने कानपुर की जनसभा में इसे ‘भ्रष्टाचार का इत्र’ कह कर तालियाँ पिटवायीं ।



पीयूष जैन का मामला शायद सामने नहीं आता अगर गुजरात में कुछ दिनों पहले जीएसटी ने ‘शिखर पान मसाला’ ले जा रहे ट्रकों को न पकड़ा होता। इस ट्रक में पान मसाले के साथ करीब 200 फर्जी ई-वे बिल भी पकड़े गए। इसके बाद डायरेक्ट्रेट जनरल ऑफ जीएसटी इंटेलीजेंस (डीजीजीआई) के अधिकारियों ने कानपुर का रुख़ किया और वहाँ डेरा डाल दिया। जो ट्रक पकड़ा गया था वह प्रवीण जैन का था। जो की इत्र कारोबारी पीयूष जैन के भाई अंबरीष जैन का बहनोई है। प्रवीण जैन के नाम पर करीब 40 से ज्यादा फर्में हैं। 


ग़ौरतलब है कि प्रवीण जैन के यहां छापेमारी में ही पीयूष जैन का सुराग मिला। पीयूष जैन को जैसे ही छापे की खबर मिली तो वो भाग गया। परिजनों के दबाव के बाद ही वह वापस लौट कर आया। पीयूष जैन के घर में छिपे हुए नोटों के बंडलों को देखकर जीएसटी की छापामार टीम की आंखें फटी की फटी रह गई। शायद इन अधिकारियों ने इससे पहले ऐसी अकूत दौलत देखी नहीं थी। इस छापे के  ट्रेल को देखें तो यह एक सामान्य सा छापा ही प्रतीत होता है। शुरुआती दौर में इस छापे में कोई भी राजनैतिक नज़रिया नज़र नहीं आता। लेकिन जैसे ही ‘जैन’ और ‘इत्र कारोबारी’ को जोड़ा गया वैसे ही अतिउत्साह में इसे समाजवादी पार्टी से भी जोड़ दिया गया और खूब शोर मचाया गया। भाजपा के सरकार में केंद्रीय  मंत्रियों ने भी इस पर ट्वीट की झड़ी लगा दी। 


यहाँ बताना ज़रूरी है कि 1991 में जब दिल्ली में हिज़बुल मुजाहिद्दीन के आतंकी पकड़े गए थे, तो उनकी जाँच कर रही दिल्ली पुलिस व बाद में सीबीआई कई जगह छापे मारने के बाद ‘जैन बंधुओं’ के घर और फार्म हाउस पहुँची। वहाँ पर पड़े छापे से एक डायरी (नम्बर दो के खाते) भी मिली जिसमें आतंकवादियों के साथ-साथ हर बड़े दल के तमाम बड़े नेताओं और देश के कई नौकरशाहों के भी नाम के साथ भुगतान की तारीख़ और रक़म लिखा था। छापे में बरामद इतने बड़े मामले की भनक जब तत्कालीन सरकार को लगी तो उस मामले को वही दबा दिया गया। 1993 में जब यह मामला मेरे हाथ लगा तब मैंने इसे उजागर ही नहीं किया बल्कि इसे सर्वोच्च न्यायालय तक ले गया। जो आगे चल कर ‘जैन हवाला कांड’ के नाम से चर्चित हुआ। इस कांड ने भारत की राजनीति में इतिहास भी रचा और कई प्रभावशाली नेताओं और अफ़सरों को सीबीआई द्वारा चार्जशीट किया गया। 


चूँकि इस घोटाले में कई बड़े मंत्री, मुख्यमंत्री, विपक्ष के नेता और अफ़सर आदि शामिल थे इसलिए सीबीआई ने चार्जशीट में इनके बच निकलने का रास्ता भी छोड़ दिया। अब कानपुर के कांड में भी ऐसा ही होता दिखाई दे रहा है। 


दरअसल, जब जीएसटी के अधिकारियों को पीयूष जैन के यहाँ इतनी बड़ी मात्रा में नगदी और सोना-चाँदी मिला तो ज़ाहिर सी बात है की आयकर विभाग को भी सूचित करना पड़ा। जब और जाँच हुई और पीयूष जैन से पूछ-ताछ हुई तो कई और राज खुले। यहाँ एक बात का ज़िक्र करना रोचक है कि हमारे वृन्दावन को उत्तर भारत के व्यापारियों की सूचना का केंद्र माना जाता है। उत्तर भारत के अधिकतर व्यापारी श्री बाँके बिहारी जी के मंदिर लगातार आते हैं और व्यापार में तरक़्क़ी की भिक्षा माँगते हैं। इन सभी व्यापारियों के वृन्दावन में तीर्थ पुरोहित या पंडे होते हैं। जिस दिन से कानपुर में यह छापा पड़ा है उस दिन से बिहारीजी के पंडों से में लगातार ये बात-चीत हो रही है कि पीयूष जैन के बारे में कानपुर के अन्य व्यापारियों ने बताया कि पीयूष जैन तो एक लम्बे अरसे से भाजपा और संघ को बड़ी मात्रा में धन और साधन प्रदान करता आया है। इसके यहाँ तो छापा गलती से पड़ गया। 


यहाँ पर वो कहावत - ‘जो दूसरों के लिए कुआँ खोदता है वो खुद खाई में गिरता है’ सही साबित होती है। यदि अधिकारियों को समय रहते उसके भाजपाई होने का पता चल जाता तो शायद यह इतना ये  छापा ही न पड़ता।


जानकारों की मानें तो इस मामले को भी जल्दी दबाया जाएगा। अख़बारों से ऐसा पता चला है कि अब इस छापे में बरामद हुई भारी नकदी को अहमदाबाद के जीएसटी विभाग ने ‘टर्नओवर’ की रकम माना लिया है। हालाँकि इस बात की कोई औपचारिक पुष्टि नहीं हुई है लेकिन अगर ऐसा है तो टैक्स के जानकारों के मुताबिक यह भ्रष्टाचार के प्रति अधिकारियों की रहमदिली की पहली सीढ़ी है। 


इस ‘टर्नओवर’ में 31.50 करोड़ की टैक्स चोरी की बात कही जा रही है। टैक्स चोरी की पेनल्टी और उस पर ब्याज मिलाकर यह रकम क़रीब 52 करोड़ रुपये हो जाती है। ऐसे में पीयूष जैन केवल टैक्स व पेनल्टी की रकम अदा कर जमानत पर रिहा हो सकता है। पेनल्टी की रक़म जमा होने पर आयकर विभाग भी इस ‘काले धन’ के मामले में कार्रवाई नहीं कर पाएगा। पीयूष जैन का फिर सारा तथाकथित ‘काला धन’ पेनल्टी की गंगा नहा कर एक सफ़ेद हो जाएगा। जैसी चर्चा हो रही है कि यह सारा ‘काला धन’ जिन लोगों का है उनकी भी चाँदी हो जाएगी। मगर सोचने वाली बात यह है कि जब नोट बंदी से काले धन की समाप्ति का दावा किया गया था तो ये काला कहाँ से आ गया। भाजपा जिसे ‘भ्रष्टाचार का इत्र’ कहने लगी थी वह रातों-रात ‘टर्नओवर’ में कैसे बदल गया?