Monday, September 26, 2016

केंद्र सरकार के लिए मध्यावधि चुनाव जैसे होंगे विस चुनाव

विधानसभा चुनावों के लिए राज्यों में चुनावी मंच सजना शुरू हो गए हैं। खासतौर पर उप्र और पंजाब में तो चुनावी हलचल जोरों पर है। उप्र में सभी राजनीतिक दलों ने अपने कार्यकर्ताओं की कमर भी कस दी है। लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए ये चुनाव सिर्फ विधान सभा चुनाव तक सीमित नहीं दिख रहे हैं। मोदी सरकार के सामने बिल्कुल वैसी चुनौती है जैसे उसके लिए ये मघ्यावधि चुनाव हों। वाकई उसके कार्यकाल का आधा समय गुजरा है। इसी बीच उसके कामकाज की समीक्षाएं हो रही होंगी। हालांकि उप्र में चुनावी तैयारियों के तौर पर अभी थोड़ी सी बढ़त कांग्रेस की दिख रही है। गौर करने लायक बात है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की उप्र में महीने भर की किसान यात्रा की अनदेखी मीडिया भी नहीं कर पाया।

हर चुनाव में सत्तारूढ़ दल के सामने एक अतिरिक्त चुनौती अपने काम काज या अपनी उपलब्धियां बताने की होती है। इस लिहाज से भाजपा और उप्र की अखिलेश सरकार के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है। यानी उप्र में सपा और भाजपा को अपने सभी प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों के उठाए सवालों का सामना करना पड़ेगा।  उप्र में भाजपा भले ही तीसरे नंबर का दल है लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ होने के कारण उससे केंद्र में सत्तारूढ़ होने के नाते सवाल पूछे जाएंगे। इसी आधार पर कहा जा रहा है कि उसके लिए यह चुनाव मध्यावधि जैसा होगा। रही बात समालवादी पार्टी की तो उसने तो अपनी उपलब्धियों की लंबी चौड़ी सूची तैयार करके पोस्टर और होर्डिग का अंबार लगा दिया है। ये बात अलग है सपा के भीतर ही प्रभुत्व की जोरआजमाइश ने भ्रम की स्थिति पैदा कर दी। लेकिन जिस तरह से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जोश और विश्वास के साथ परिस्थियों का सामना किया उससे सपा की छवि को उतनी चोट पहुंच नहीं पाई। इधर उप्र विकास के कामों को फटाफट निपटाने जो ताबड़तोड़ मुहिम चल रही है उसे उप्र विधान सभा चुनाव की तैयारियां ही माना जाना चाहिए।

कांग्रेस ने जिस तरह से उप्र के चालीस जिलों से होकर कि सान यात्रा निकाली है उससे अचानक हलचल मच गई है। दो महीने पहले तक कांग्रेस मुक्त भारत का जो अभियान भाजपा चला रही थी वह भी ठंडा पड़ रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस के चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर ने कांग्रेस में जान फूंक दी। अब तो कांग्रेस के बड़े नेता भी प्रशांत किशोर के सलाह मशविरे को तवज्जो देते दिख रहे हैं। वैसे तो विधान सभा चुनाव अभी छह महीने दूर हैं  लेकिन  कांग्रेस की मेहनत देखकर लगने लगा है कि उसे हल्के में नहीं लिया जा पाएगा। उसने दूसरे बड़े दलों से गठजोड़ लायक हैसियत तो अभी ही बना ही ली है।  

रही बात इस समय दूसरे पायदान पर खड़ी बसपा की तो बसपा के बारे में सभी लोग मानते हैं कि उसके अपने जनाधार को हिलाना डुलाना आसान नहीं है। उसके इस पक्के घर में कितनी भी तोड़फोड़ हुई हो लेकिन जल्दी ही वह बेफर्क मुद्रा में आ गई। पिछले दिनों उसकी बड़ी बड़ी रैलियों से इस बात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। हां कार्यकर्ताओं के मनोबल पर तो फर्क पड़ता ही है। वास्तविक स्थिति के पता करने का उपाय तो हमारे पास नहीं है लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि पिछले लोकसभा चुनाव में पहुंची चोट का असर उस पर जरूर होगा। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आगे चलकर बसपा गठबंधन के जरिए अपना रास्ता आसान बना ले।

कुलमिलाकर उप्र में मचने वाला चुनावी घमासान चौतरफा होगा। इस चौतरफा लड़ाई में अभी सभी प्रमुख दल अपने बूते पर खड़े रहने का दम भर रहे हैं। कोई संकेत या सुराग नहीं मिलता कि कौन सा दल किस एक के  खिलाफ मोर्चा लेगा। लेकिन केंद्र की राजनीति के दो प्रमुख दल कांग्र्रेस और भाजपा का आमने सामने होना तय है। इसी तरह प्रदेश के दो प्रमुख दल सपा और बसपा के बीच गुत्थमगुत्था होना तय है। लेकिन उप्र के एक ही रणक्षेत्र में एक ही समय में दो तरह के युद्ध तो चल नहीं सकते। सो जाहिर है कि चाहे गठबंधन की राजनीति सिरे चढ़े और चाहे सीटों के बंटवारे के नाम पर हो अंतरदलीय ध्रुवीकरण तो होगा ही। बहुत संभव है कि इसीलिए अभी कोई नहीं भाप पा रहा है कौन किसके कितने नजदीक जाएगा। 

अपने बूते पर ही खड़े रहने की ताल कोई कितना भी ठोक ले लेकिन चुनावी लोकतंत्र में दो ध्रवीय होने की मजबूरी बन ही जाती है। इस मजबूरी को मानकर चलें तो कमसे इतना तय है कि उप्र का चुनाव या तो सपा और बसपा के बीच शुद्ध रूप् से प्रदेश की सत्ता के लक्ष्य को सामने रख कर होगा या कांग्रेस और भाजपा के बीच 2019 को सामने रखकर होगा। पहली सूरत में राष्टीय स्तर के दो बड़े दलों यानी भाजपा और कांग्रेस को तय करना पड़ेगा कि सपा या बसपा में से किसे मदद पहुंचाएं। दूसरी सूरत है कि भाजपा और कांग्रेस के बीच साधे ही तूफानी भिड़त होने लगे। देश में जैसा माहौल है उसे देखते हुए इसका योग बन सकता है लेकिन उप्र कोई औसत दर्जे का प्रदेश नहीं है। दुनिया के औसत देश के आकार का प्रदेश है। लिहाजा इस चुनाव का लक्ष्य प्रदेश की सत्ता ही होगा। जाहिर है घूमफिर कर लड़ाई का योग सपा और बसपा के बीच ही ज्यादा बनता दिख रहा है। बाकी पीछे से केंद्र के मध्यावधि चुनाव जैसा माहौल दिखता रहेगा।

Monday, September 19, 2016

वाराणसी के घाटों को बचाने की मुहिम

    कभी-कभी पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता दिखाने वाले अतिउत्साह में कुछ ऐसे कदम उठा लेते हैं, जिससे लाभ की जगह नुकसान हो जाता है। वाराणसी में गंगा के किनारे दर्जनों ऐतिहासिक घाट हैं, जिन्हें कई सदियों पूर्व देश के विभिन्न अंचलों के राजा-महाराजाओं ने बनवाया था। इन घाटों की शोभा देखते ही बनती है, ये वाराणसी की पहचान हैं। दुनियाभर से पर्यटक 12 महीने वाराणसी आते हैं और इन घाटों को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। दुनिया का कोई देश या नगर ऐसा नहीं, जहां किसी नदी के किनारे इतने भव्य, महलनुमा घाट बने हों। काल के प्रभाव से अब इन घाटों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। जिसके लिए एक तो उच्च न्यायालय का स्थगन आदेश और एक ‘कछुआ सेंचुरी’ जिम्मेदार है। 

    प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में गंगा के 87 घाट हैं। पिछले कई वर्षों से उच्च न्यायालय के आदेश के तहत इनका जीर्णोद्धार रूका हुआ है। इन ऐतिहासिक घाटों को खरीदकर उन्हें होटल बनाने या उन पर भवन निर्माण करने की होड़ से चिंतित कुछ पर्यावरणविद्ों ने जनहित याचिका के माध्यम से ये रोक लगवाई। किंतु इससे उन घाटों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है, जिनकी संरचना काफी कमजोर पड़ चुकी है। अगर इनकी मरम्मत नहीं की गई, तो ये चरमराकर गिर सकते हैं। जो धरोहरों की दृष्टि से एक भारी क्षति होगी। जबसे नरेंद्र भाई मोदी ने वाराणसी को अपनाया, तबसे अनेक औद्योगिक घराने, सार्वजनिक उपक्रम व केंद्र सरकार के मंत्रालय वाराणसी को सजाने की मुहिम में जुट गए हैं। इसी क्रम में केंद्रीय सरकार के कुछ मंत्रालयों ने मिलकर उच्च न्यायालय से सीमित जीर्णोद्धार की अनुमति मांगी, जो सशर्त उन्हें मिल गई। अब कुछ घाटों पर जीर्णोद्धार का कार्य चालू है।

    ये वास्तव में चिंता की बात है कि कुछ निजी उद्यमियों ने इनमें से कुछ घाटों को औने-पौने दामों में खरीदकर इन्हें हैरिटेज होटल के रूप में बदलना शुरू कर दिया है। ये होटल मालिक पुरातत्व महत्व के इन भवनों में बदलाव करने से भी नहीं चूकते। होटल की सीवर लाइन चुपचाप गंगा में खोल देते हैं। इससे घाटों पर विपरीत असर पड़ रहा है। पर इसके साथ ही जो दूसरी बड़ी समस्या है, वह है गंगा के उस पार बनाई गई ‘कछुआ सेंचुरी’। कछुओं को अभयदान देने की दृष्टि से गंगा के उस पार बालू के खनन पर लंबे समय से रोक लगी है। इसका उद्देश्य था कि इस क्षेत्र में कछुओं का जीवन सुरक्षित रहे और उनके कुनबे में वृद्धि हो, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। गंगा का प्रदूषण हो या कोई अन्य कारण, ‘कछुआ सेंचुरी’ में कछुए दिखाई नहीं देते। बालू का खनन रोकने का नुकसान ये हुआ है कि गंगा के उस पार रेत के पहाड़ बनते जा रहे हैं, क्योंकि गंगा इस इलाके से वक्राकार स्थिति में आगे बढ़ती है। इसलिए उसके जलप्रवाह के साथ निरंतर आने वाली बालू यहां जमा होती जाती है।

    रेत के इन पहाड़ों के कारण उस पार का गंगातल ऊंचा हो गया है। नतीजतन, जल का सारा प्रवाह घाटों की तरफ मुड़ गया है। सब जानते हैं कि जल की ताकत के सामने बड़ी-बड़ी इमारतें भी खड़ी नहीं रह पातीं। जापान और भारत के सुनामी इसके गवाह हैं। वाराणसी में गंगा के इस तरह बहने से बड़े वेग से आने वाला गंगाजल घाटों की नींव को काट रहा है। नतीजतन उनका आधार दरकता जा रहा है। काशीवासियों को चिंता है कि अगर इसका समाधान तुरंत नहीं खोजा गया, तो कभी भी भारी आपदा आ सकती है। केदारनाथ की जलप्रलय की तरह यहां भी गंगा इन ऐतिहासिक घाटों को लील सकती है। इस विषय में पुरातत्वविद्ों और नगर के जागरूक नागरिकों ने अनेक बार सरकार का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है। पर अभी तक कोई सुनवाई नहीं हुई। 

    पिछले 3 महीनों से गंगा में हर साल की तरह भारी बाढ़ आई हुई है। घाटों की सीढ़ियां लगभग 2 महीने से पूरी तरह जलमग्न हैं। यह गंगा का वार्षिक चरित्र है। ऐसे में इन घाटों के लिए खतरा और भी बढ़ जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार साझे रूप में कुछ निर्णय ले। जिनमें पहले तो ‘कछुआ सेंचुरी’ को समाप्त किया जाए और वहां बालू के खनन की अनुमति दी जाए। जिससे जल का दबाव घाटों की तरफ से घटकर गंगा के उस पार चला जाए। दूसरा इन घाटों के संरक्षण के लिए एक सुस्पष्ट नीति घोषित की जाए। जिसके तहत घाटों का मूलरूप सुरक्षित रखते हुए जीर्णोद्धार करने की अनुमति हो, लेकिन इनके व्यवसायिक दुरूपयोग पर पूरी रोक लगा दी जाए। तीसरा हर घाट को किसी औद्योगिक घराने या सार्वजनिक उपक्रम के जिम्मे सौंप दिया जाए, जो इसकी देखरेख करे और वहां जनसुविधाओं का व्यवस्थित संचालन करे। ऐसा करने से इन घाटों की रक्षा भी हो सकेगी और वाराणसी की यह दिव्य धरोहरें आने वाली सदियों में भी पर्यटकों और तीर्थयात्रियों को सुख प्रदान करती रहेंगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री कार्यालय इस विषय में कुछ पहल करेगा और काशीवासियों को इस संकट से उबारेगा।


Monday, September 12, 2016

केजरीवाल: बिछड़े सभी बारी-बारी



            सर्वोच्च न्यायालय ने अरविंद केजरीवाल की यह मांग मानने से इंकार कर दिया कि दिल्ली में मुख्यमंत्री उपराज्यपाल से ऊपर है। दिल्ली उच्च न्यायालय ऐसी याचिका पहले ही खारिज कर चुका है। अब इसका मतलब साफ है कि पिछले 3 वर्षों से अरविंद केजरीवाल दिल्ली के उपराज्यलपाल पर केंद्र का एजेंट होने का जो आरोप बार-बार लगा रहे थे, उसकी कोई कानूनी वैधता नहीं थी। क्योंकि न्यायपालिका ने मौजूदा प्रावधानों को देखते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि दिल्ली के मामले में उपराज्यपाल का निर्णय ही सर्वोपरि माना जाएगा।
            यह पहली बार नहीं है, जब अरविंद केजरीवाल को मुंह की खानी पड़ी है। जिस दिन से आम आदमी पार्टी वजूद में आयी है, उस दिन से उसके तानाशाह संयोजक अरविंद केजरीवाल नित्य नई नौटंकी करते रहते हैं। जिसका मकसद केवल अखबार और टेलीविजन की सुर्खिया बटोरना है। ठोस काम करने में अरविंद का दिल कभी नहीं लगा। टाटा समूह की अपनी पहली नौकरी से लेकर आज तक अरविंद केजरीवाल ने नाहक विवाद खड़ा करना सीखा है। काम करने वाले शोर नहीं किया करते। विपरीत परिस्थितियों में भी काम कर ले जाते हैं। अरविंद को अगर दिल्लीवासियों की चिंता होती, तो उनकी समस्याओं को हल करते। पर आज दिल्ली देश की राजधानी होने के बावजूद निरंतर नारकीय स्थिति की ओर बढ़ती जा रही है। हर दिन दिल्लीवासी शीला दीक्षित के शासन को याद करते हैं। अरविंद केजरीवाल को तो राष्ट्रीय नेता बनने की हड़बड़ी है| इसलिए कभी पंजाब, कभी बंगाल, कभी बिहार, कभी गुजरात, कभी गोवा जाकर नए-नए शगूफे छोड़ते रहते हैं। जाहिर है कि जिन राज्यों में जनता पारंपरिक राजनैतिक दलों से नाखुश है, उन राज्यों में सपने दिखाना केजरीवाल के लिए बहुत आसान होता है। वे आसमान से तारे तोड़ लाने के वायदे करते हैं, पर भूल जाते हैं कि दिल्लीवासियों से चुनाव के पहले उन्होंने क्या-क्या वादे किए थे और आज उनमें से कितने पूरे हुए? वैसे दावा करने को केजरीवाल सरकार सैकड़ों करोड़ रूपए के विज्ञापन छपवा चुकी है।
            नवजोत सिंह सिद्धू ने भी केजरीवाल के मुंह पर करारा तमाचा जड़ा है। जिस सिद्धू को अपनी पार्टी में लेने के लिए केजरीवाल पलक-पांवड़े बिछाए बैठे थे, उसने एक ही बयान में यह साफ कर दिया कि केजरीवाल की न तो कोई विचारधारा है, न उनमें जनसेवा की कोई भावना। कुल मिलाकर केजरीवाल का फलसफा ‘मैं और मेरे लिए’ के आगे नहीं जाता। सिद्धू को चाहिए कि अगर वे भाजपा और कांग्रेस से नाखुश हैं, तो पूरे पंजाब में अपने प्रत्याशी खड़े करें और केजरीवाल की तानाशाही से त्रस्त, परिवर्तन के हामी, सभी लोगों को अपने साथ जोड़ लें। इससे कम से कम केजरीवाल पंजाब की जनता को गुमराह तो नहीं कर पाएंगे।
            ऐसा नहीं है कि केजरीवाल की तरह स्वार्थी, दोहरे चरित्र वाला और झूठ बोलने वाला का कोई दूसरा नेता नहीं है। राजनीति में तो अब यह आम बात हो गई है। फर्क इस बात का है कि केजरीवाल ने पिछले 5 वर्षों में ताल ठोककर ये घोषणा की थी कि उनसे अच्छा कोई नेता नहीं, कोई दल नहीं और कोई कार्यकर्ता नहीं। कार्यकर्ताओं की तो छोड़ो केजरीवाल मंत्रीमंडल के एक-एक मंत्री धीरे-धीरे किसी न किसी घोटाले या चारित्रिक पतन के मामले में कानून की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। कहां गया केजरीवाल का वो दावा कि जब ये कहा गया था कि उनके दल में केवल ईमानदार और चरित्रवान लोगों को ही टिकट मिलेगा। हम तो केजरीवाल से हर टीवी बहस में ये लगातार कहते आए कि जिन आदर्शों की बात तुम कर रहे हो, वैसे इंसान खोजने बैकुंठ धाम जाना पड़ेगा। पृथ्वी पर तो ऐसा कोई मिलेगा नहीं। फिर भी केजरीवाल का दावा था कि लोकपाल का चयन उनके जैसे मेगासेसे अवार्ड जीते हुए लोग ही करें। तभी देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो पाएगा। ये तो गनीमत है कि केजरीवाल के विधायक और मंत्री ही बेनकाब हो रहे हैं।
            अगर कहीं बंदर के हाथ में उस्तरा लग जाता, तो क्या होता? सोचिए वो स्थिति कि केजरीवाल जैसे लोग एक ऐसा लोकपाल बनाते, जो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक के ऊपर होता और उसकी डिग्री केजरीवाल के कानून मंत्री रहे तोमर जैसी फर्जी पाई जाती। पर केजरीवाल के सुझाए कानून अनुसार वो लोकपाल देश में किसी को भी जेल भेज सकता था। केजरीवाल एंड पार्टी के ऐसे वाहियात और बचकाने आंदोलन का पहले दिन से मैंने पुरजोर विरोध किया। जब ये लोग अन्ना हजारे के साथ राजघाट धरने पर बैठे, तो मेंने इनके खिलाफ पर्चे छपवाकर राजघाट पर बंटवाए। ये बतलाते हुए कि इनकी निगाहें कहीं हैं और निशाना कहीं पर। उस वक्त कोई सुनने को तैयार नहीं था। दाऊद के एजेंट हो या भूमाफियाओं के दलाल, भ्रष्ट राजनेता हों या नंबर 2 की मोटी कमाई करने वाले फिल्मी सितारे। सबके सिर पर 2 तरह की टोपी होती थी, ‘मैं अन्ना हूं’ या ‘मैं आम आदमी हूं’। आज उन सबसे पूछो कि केजरीवाल के बारे में क्या राय है, तो कहने में चूकेंगे नहीं कि हमसे आंकने में बहुत बड़ी गलती हो गई।
            जस्टिस संतोष हेगड़े हों, अन्ना हजारे हों, प्रशांत भूषण हों, योगेंद्र यादव हों, किरण बेदी हों और ऐसे तमाम नामी लोग, जिन्होंने केजरीवाल के साथ कंधे से कंधा लगाकर लोकपाल की लड़ाई लड़ी, आज वे सब केजरीवाल के गलत आचरण के कारण उनके विरोध में खड़े हैं। बिछड़े सभी बारी-बारी। पंजाब की जनता को केजरीवाल का चरित्र अब तक समझ में आ जाना चाहिए, वरना दिल्लीवासियों की तरह वे भी रोते, कलपते नजर आएंगे।

Monday, September 5, 2016

क्या हो कश्मीर का समाधान

    सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के जाने के बावजूद कश्मीर की घाटी में अमन चैन लौटेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। हालात इतने बेकाबू हैं और महबूबा मुफ्ती की सरकार का आवाम पर कोई नियंत्रण नहीं है, क्योंकि घाटी की जनता इस सरकार को केंद्र का प्रतिनिधि मानती है। अगर भाजपा महबूबा को बाहर से समर्थन देती, तो शायद जनता में यह संदेश जाता कि भाजपा की केंद्र सरकार जम्मू कश्मीर के मामले में नाहक दखलंदाजी नहीं करना चाहती। पर अब तो सांप-छछुदर वाली स्थिति है। एक तरफ पीडीपी है, जिसे कश्मीरियत का प्रतिनिधि माना जाता है। जिसका रवैया भारत सरकार के पक्ष में कभी नहीं रहा। दूसरी तरफ भाजपा है, जो आज तक धारा 370 को लेकर उद्वेलित रही है और उसके एजेंडा में से ये बाहर नहीं हुआ है। ऐसे में कश्मीर की मौजूदा सरकार के प्रति घाटी के लोगों का अविश्वास होना स्वाभाविक सी बात है। 

    सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल क्या वाकई इस दुष्चक्र को तोड़ पाएगा ? दरअसल कश्मीर के मौजूदा हालात को समझने के लिए थोड़ा इतिहास में झांकना होगा। आजादी के बाद जिस तरह पं.जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुला को नजरबंद रखा, उससे संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान भारत पर हमेशा हावी रहा। कश्मीर की चुनी हुई सरकार को यह कहकर नकारता रहा कि ये तो केंद्र की थोपी हुई सरकार है। क्योंकि कश्मीरियों का असली नेता तो शेख अब्दुला हैं। जब तक शेख अब्दुला गिरफ्तार हैं, तब तक कश्मीरियों का नेतृत्व नहीं माना जा सकता। 

    पर जब भारत सरकार ने शेख अब्दुला को रिहा किया। वे चुनाव जीतकर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बने, तो पाकिस्तान का ये तर्क खत्म हो गया कि कश्मीर में कश्मीरियों की सरकार नहीं है। लेकिन बाद के दौर में 1984 में जिस तरह फारूख अब्दुला की जीती हुई सरकार को इंदिरा गांधी ने हटाया, उससे घाटी का आक्रोश केंद्र सरकार के प्रति प्रबल हो गया। बाद के दौर में तो आतंकवाद बढ़ता चला गया और स्थिति और भी गंभीर हो गई।

    अब तो वहां नई पीढ़ी है, जिसकी महत्वाकांक्षाएं आसमान को छूती हैं। उनके दिमागों को आईएसआई ने पूरी तरह भारत विरोधी कर दिया है। ऐसे में कोई भी समाधान आसानी से निकलना संभव नहीं है। चूंकि केंद्र जो भी करेगा, घाटी के नौजवान उसका विरोध करेंगे। आज वो चाहते हैं कि पुलिस और मिल्ट्री जनजीवन के बीच से हटा दी जाए। राज्य की सरकार पर केंद्र का कोई दखल न हो और उन्हें बडे़-बड़े पैकेज दिए जाएं। पर ऐसा सब करना सुरक्षा की दृष्टि से आसान न होगा। 

    इसका एक विकल्प है, वो ये कि सरकार एक बार फिर घाटी में चुनावों की घोषणा कर दे। कांग्रेस और भाजपा जैसे प्रमुख राष्ट्रीय दल इस चुनाव से अलग हट जाएं। ये कहकर कि कश्मीर के लोग कश्मीरी राजनैतिक दलों और अलगाववादी संगठनों के नेताओं के बीच में से अपना नेतृत्व चुन लें और अपनी सरकार चलाएं। तब जाकर शायद जनता का विश्वास उस सरकार में बने। वैसे भी तमिलनाडु में आज दशकों से कांग्रेस और भाजपा का कोई वजूद नहीं है। कभी डीएमके आती है, तो कभी एडीएमके। उनका मामला है, वही तय करते हैं। ऐसा ही कश्मीर में हो सकता है। जब पूरी तरह से उनके लोगों की सरकार होगी, तो वे केंद्र का विरोध किस बात के लिए करेंगे। ये बात दूसरी है कि नेपाल के विप्लवकारियों की तरह जब ऐसी सरकार अंतर्विरोधों के कारण नहीं चल पाएगी या जनता की आकांक्षों पर खरी नहीं उतरेगी, तो शायद कश्मीर की जनता फिर राष्ट्रीय राजनैतिक दलों की तरफ मुंह करे। पर फिलहाल तो उन्हें उनके हाल पर छोड़ना ही होगा। 

    जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि पाक अधिकृत कश्मीर, बलूचिस्तान व सिंध की आजादी का मुद्दा उठाकर प्रधानमंत्री मोदी ने तुरप का पत्ता फेंका है। जिससे पाकिस्तान बौखलाया हुआ है। लेकिन इससे घाटी के हालात अभी सुधरते नहीं दिख रहे। हां, अगर पाक अधिकृत कश्मीर में बहुत जोरशोर से भारत में विलय की मांग उठे, तब घाटी के लोग जरूर सोचने पर मजबूर होंगे। 

आश्चर्य की बात है कि जिस पाकिस्तान ने भारत से गए मुसलमानों को आज तक नहीं अपनाया, उन्हें मुजाहिर कहकर अपमानित किया जाता है। उस पाकिस्तान के साथ जाकर कश्मीर के लोगों को क्या मिलने वाला है ? खुद पाकिस्तान के बुद्धजीवी आए दिन निजी टेलीविजन चैनलों पर ये कहते नहीं थकते कि पाकिस्तान बांग्लादेश को तो संभाल नहीं पाया। सिंध-बलूचिस्तान अलग होने को तैयार बैठे हैं। पाकिस्तान की आर्थिक हालत खस्ता है। कर्जे के बोझ में पाकिस्तान दबा हुआ है। ऐसे में पाकिस्तान किस मुंह से कश्मीर को लेने की मांग करता है ? जो उसके पास है वो तो संभल नहीं रहा। 

    बात असली यही है कि पिछली केंद्र सरकारों ने कश्मीर के मामले में राजनैतिक सूझबूझ का परिचय नहीं दिया। बोया पेड़ बबूल तो आम कहा से हो। लोकतंत्र में सभी दलों को राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर एकजुटता दिखानी चाहिए। इसीलिए संसदीय प्रतिनिधिमंडल का कश्मीर जाना और कश्मीरियों से खुलकर बात करना एक अच्छा कदम है। ऐसा पहले भी होता आया है। पर इसका मतलब ये नहीं कि संसदीय मंडल के पास कोई जादू की छड़ी है, जिसे वे श्रीनगर में घुमाकर सबका दिल जीत लेंगे। फिर भी प्रयास तो करते रहना चाहिए। आगे खुदा मालिक।