Friday, June 28, 2002

अशोक गहलौत से तीर्थ रक्षा की गुहार


भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य लीला स्थलियों से जुड़े चैरासी कोस के ब्रज क्षेत्र का एक हिस्सा राजस्थान की सीमा के भीतर भी आता है। इसी क्षेत्र में स्थित है स्वर्ण गिरि पर्वत, जो भगवान कृष्ण की आठ प्रमुख सखियों से जुड़ी आठ पहाडि़यों में से एक है। इन पहाडि़यों पर स्थित है पौराणिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण वन्य प्रदेश जिसे गहवर वन कहते हैं। पुराणों में वर्णन आता है कि इस वन का श्रृंगार स्वयं राधारानी ने किया है। भक्तों और संतों के बीच यह मान्यता है कि इस वन्य प्रदेश में भगवान  अपनी सखियों सहित नित्य रास में लीन रहते हैं। अपनी इसी आस्था के कारण सदियों से अनेक संत यहां भजन साधन करते आये हैं। उन्हीं में से एक हैं श्री रमेश बाबा जो आज से पचास वर्ष पूर्व बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उच्च स्तरीय अध्ययन करने के बाद इस वन में आये और सदा के लिये यहीं के हो गये। पिछले कुछ वर्षों में उन्हें यह देखकर भारी पीड़ा हुई कि खनन माफिया के स्वार्थों के चलते इन ऐतिहासिक और धार्मिक रूप से अति महत्वपूर्ण पहाडि़यों पर खनन किया जा रहा है जिससे यहां के पर्यावरण का भी विनाश हो रहा है। खनन माफियाओं द्वारा अवैध रूप से डाइनामाइट के प्रयोग के कारण इस क्षेत्र में अनेक असहाय पशु पक्षी जैसे हिरन और मोर भी भारी संख्या में मर रहे हैं। बाबा और उनके अनुयायी हजारों ब्रजवासी ग्रामीण भक्तों से अपनी आस्था के इन प्रतीकों का ऐसा वीभत्स विध्वंस देखा नही गया। उन्होंने इसका सक्रिय विरोध शुरू किया।  खनन माफिया ने उन पर कई बार जानलेवा हमले किये। उनके लोगों के अपहरण किये पर उन्हें डिगा नहीं पाये। मीडिया ने उनका साथ दिया। सामाजिक सारोकार रखने वाले अनेक स्थानीय युवाओं, राष्ट्रीय लोकोत्थान समिति और राष्ट्रीय ख्याति के पर्यावरणविदों ने भी उनका समर्थन किया। नतीजतन उत्तर प्रदेश सरकार ने गहवर वन में खनन के पट्टे सदा के लिये रद्द कर दिये। इतना ही नहीं इस क्षेत्र में लगभग सात हैक्टेअर वन को संरक्षित वन घोषित कर दिया। भक्तों की इच्छा है कि आने वाली पीढि़यों के हित में और स्थानीय पर्यावरण के हित में 240 हैक्टैअर का जो अतिरिक्त वन प्रदेश बचा है उसे भी उत्तर प्रदेश शासन आरक्षित वन घोषित कर दे। वैसे भी यह क्षेत्र ताज ट्रेपेजियम के क्षेत्र में आता है जहां केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड नई दिल्ली ने सरफसे माइनिंग एंड क्वारीजको प्रतिबन्धित किया हुआ है। कृष्ण भक्तों को दुख है कि धर्म की रक्षा के लिये समर्पित होने का दावा करने वाली भाजपा की उत्तर प्रदेश सरकार ने उनकी इस जायज मांग को आज तक अनदेखा किया है जबकि भाजपा के स्थानीय नेताओं, मंत्रियों और नानाजी देशमुख जैसे वरिष्ठ लोगों द्वारा भी इस मांग का समर्थन किया जाता रहा है। अब उनकी आशा सुश्री मायावती पर टिकी हैं। 
देश भर के कृष्ण भक्तों में फिलहाल जो गहन चिंता है वह है गहवर वन के उस क्षेत्र को लेकर जो राजस्थान के भरतपुर जिले की कामा तहसील के सुनहरा गांव क्षेत्र में आता है। मीडिया में तमाम बार शोर मचने के बावजूद यह दुख की बात है कि भाजपा के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री भैरों सिंह शेखावत ने इस पर कतई ध्यान नहीं दिया। स्थानीय लोेगों को इस बात की बेहद नाराजगी है कि धर्म के नाम पर सत्ता में आये भाजपा के मुख्यमंत्री ने खनन माफिया के हितों को तरजीह दी। अलबत्ता राजस्थान के मौजूदा प्रशासन ने इस मामले में कहीं ज्यादा जिम्मेदार और संवेदनशील रुख अपनाया है। भरतपुर के जिलाधिकारी श्री सुबोध अग्रवाल ने 7 अगस्त, 2001 को राजस्थान शासन को भेजी अपनी संस्तुति में इस क्षेत्र में खनन के पट्टे तत्काल रद्द किये जाने की सिफारिश की है। यह उनके पत्र का ही प्रभाव था कि राजस्थान के मौजूदा मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलौत ने तत्परता से एक उच्च स्तरीय जांच टीम भेजकर मौके की परिस्थितियों की पड़ताल करवाई। श्री गहलौत की इस तत्काल कार्यवाही ने कृष्ण भक्तों का दिल जीत लिया। आज बरसाना और गहवर वन के इस क्षेत्र में कृष्ण भक्त यह कहने में संकोच नहीं करते कि इंका लोगों धर्म निरपेक्ष दल होते हुए भी सभी धर्मों की रक्षा में जिस तरह की तत्परता दिखाती है वैसी तत्परता भाजपा शासन में देखने को नहीं मिलती। उन्हें बहुत उम्मीद थी कि इस जांच दल की आख्या के बाद स्वर्णांचल पहाड़ी पर हो रहा खनन रुक जाएगा। पर उन्हें अब चिंता होने लगी है। छह महीने गुजर गये। पर खनन आज भी जारी है। इतना ही नहीं कानून का उल्लंघन करके इन महत्वपूर्ण पहाडि़यों पर डाइनामाइट से विस्फोट किये जा रहे हैं जिससे क्षेत्र के पर्यावरण और वन्य जीवन को भारी खतरा हो गया है। उत्तर प्रदेश सीमा से सटा होने के कारण राजस्थान क्षेत्र में हो रहे इस निरन्तर खनन का आवरण ओढ़कर उत्तर प्रदेश सीमा के भीतर भी कुछ अवांछित तत्व खनन की अवैध कार्यवाही यदा कदा करते रहते हैं। उनकी ट्रैक्टर ट्राली या ट्रक यदि पकड़े जाते हैं तो वे यह दलील देकर छूट जाते हैं कि ये माल तो वे राजस्थान सीमा से ला रहे हैं। इसलिये यह और भी जरूरी है कि राजस्थान सीमा क्षेत्र के अंदर पड़ने वाले इस इलाके में भी उत्तर प्रदेश की तरह ही खनन पर पूरी तरह और हमेशा के लिये प्रभावी रोक लगाई जाए। ब्रज क्षेत्र के कुछ भक्तों और देश के कुछ जागरूक नागरिकों की हार्दिक इच्छा है कि श्री गहलौत इस क्षेत्र में आयें और परिस्थिति का मूल्यांकन स्वयं मौके पर करें। इससे उन्हें आध्यात्मिक लाभ भी होगा। वे भगवान राधा-कृष्ण की कृपा तो प्राप्त करेंगे ही, राजस्थान देवस्थानम् विभाग के आधीन बरसाना स्थित मंदिर की व्यवस्था का भी निरीक्षण कर सकेंगे। इस सन्दर्भ में एक प्रतिनिधि मंडल शीघ्र ही राजस्थान के मुख्यमंत्री से जयपुर जाकर मिलेगा। जब से श्री गहलौत ने राजस्थान की बागडोर संभाली है वहां के प्रशासन में चुस्ती और कार्य कुशलता आई है। कोरी बयानबाजी और प्रचार से बचने वाले श्री गहलौत काम करने में यकीन करते हैं। इसलिये वे लगातार प्रदेश के दौरे पर रहते हैं। इससे प्रशासन चैकन्ना बना रहता है। बावजूद इसके जयपुर के कुछ जानकार लोगों ने ब्रज के कृष्ण भक्तों को बहुत चिंताजनक जानकारी भेजी है। उनका कहना है कि खनन माफिया इतना संगठित और प्रभावशाली है कि उसने राजस्थान प्रशासन में अपनी पकड़ बना रखी है। शायद यही कारण है कि श्री गहलौत तक स्वर्णगिरि पहाडि़यों की दुर्दशा की असली रिपोर्ट आज तक नहीं पहंुच पाई है। वरना वे निर्णय लेने में इतनी देर न लगाते। उधर भक्तों का यह भी आरोप है कि खनिज विभाग के भरतपुर जिले स्तर के अधिकारी भारी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। वरना यह कैसे संभव था कि उनकी नाक तले, तमाम कानूनों को धता बताते हुए, इस इलाके का डायनामाइट लगाकर अवैध खनन चालू रहे। जहां तक प्रशासनिक कार्य कुशलता की बात है उसमें उत्तर प्रदेश की मौजूदा मुख्यमंत्री सुश्री मायावती भी कुछ कम नहीं। उत्तर प्रदेश की बागडोर संभालते ही प्रदेश की नौकरशाही में हड़कम्प मच गया था। लोगों का मानना है कि उत्तर प्रदेश के जिला स्तरीय अधिकारी अब पिछड़ी जातियों और आम आदमी की समस्याओं के प्रति पहले से कुछ ज्यादा संवेदनशील हुए हैं, पर फिर भी प्रशासन मंे वो कार्य कुशलता नहीं दिखाई दे रही जो राजस्थान के प्रशासन में देखी जा रही है। गहवर वन के सन्दर्भ में ही यह बात महत्वपूर्ण है कि 7 हेक्टेअर का जो वन्य क्षेत्र संरक्षित घोषित किया गया था वह आज भारी उपेक्षा का शिकार हो रहा है। स्थानीय नागरिकों को सुश्री मायावती से भी अपेक्षा है कि वे इस क्षेत्र के 240 हेक्टेअर वन क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र घोषित करें और इसके संरक्षण और रखरखाव के लिये कुशल वन अधिकारियों को तैनात करें। इन लोगों का कहना है कि उत्तरांचल राज्य बन जाने के बाद वैसे ही उत्तर प्रदेश में पहाड़ों और वनों का अभाव हो गया है। अगर हम रही सही धरोहर को भी बचा नहीं पाये तो प्रदेश की भावी पीढि़यां प्राकृतिक वनों और वन्य जीवन के सौन्दर्य को देखने से वंचित रह जायेंगी।  सुश्री मायावती की आस्था किसी धर्म में हो या न हो, एक प्रशासक के रूप में उनका यह नैतिक दायित्व है कि वे जन भावनाओं की कद्र करें और पर्यावरण के ऊपर मंडाराते खतरों के प्रति अपनी संवेदनशीलता और तत्परता का प्रदर्शन करें। वे आगरा मण्डल के प्रशासनिक अधिकारियों की कमर कसें ताकि गहवर वन का उचित संरक्षण हो सके।
यह देश का दुर्भाग्य है कि पर्यावरण के मामले में इतनी जागरूकता होने के बावजूद इतना कम किया जा रहा है। जिसके लिये केवल सरकारें ही दोषी नहीं जनता भी पूरी तरह जिम्मेदार है। आज भवनों में खासकर निजी भवनों में पत्थरों के बेइंतिहा प्रयोग की होड़ लग गयी है। पहले पत्थर या तो वे लोग इस्तेमाल किया करते थे जो पहाड़ी क्षेत्र में रहते थे या फिर दूर दराज से पत्थर मंगाकर राज महल और किले बनाये जाते थे। आम जनता स्थानीय संसाधनों के प्रयोग से ही आवास का निर्माण करती थी। पर अब सारे देश में छोटे छोटे शहरों तक में मकानों पर पत्थर लगाने का रिवाज चल निकला है। हम पत्थर जड़ने के मामले में इतने मूर्ख हैं कि ना तो हमें स्थानीय जलवायु का ध्यान रहता है और न ही मकान के आकार प्रकार का। हर किस्म की भवन सामग्री हमेशा हर जगह इस्तेमाल नहीं की जा सकती। भवन सामग्री के चयन में उपयोगिता, उपलब्धता और सार्थकता के मानदंड होने चाहिये। इनके विवेक पूर्ण संतुलन से ही ऐसे भवन का निर्माण होता है जिसमें रहने वाले या काम करने वालों को सुख और शांति का अनुभव हो। पहाडि़यां लाखों बरसों में बनती हैं। पर लोगों की पत्थर खरीदने की भूख और खनन माफिया के पैशाचिक दोहन से कुछ ही वर्षों में इनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। एक बार जो पहाड़ी खोद ली गयी वह अरबों रुपया खर्च करके भी दुबारा बनाई नहीं जा सकती। इतना ही नहीं पहाडि़यों के हट जाने से पर्यावरण पर जो विपरीत प्रभाव पड़ता है उसका नमूना आज राजस्थान और उत्तर प्रदेश के उन इलाकों में देखा जा सकता है जहां आज से कुल बीस वर्ष पहले अच्छी खासी पहाडि़यां थीं। पर आज वहां धूल उड़ती है। रेगिस्तान तेजी से इन इलाकों में फैलता जा रहा है। गरमी की भयावहता बढ़ती जा रही है। जहां एक ओर जल का संकट गहराता जा रहा है वहीं दूसरी ओर वर्षा में जल की विनाश लीला भी इन इलाकों को खासी दिक्कत में डाल देती है। यह सब पहाडि़यों के अविवेकपूर्ण दोहन का परिणाम है। पर लाभ की लिप्सा हम पर इस कदर हावी है कि पर्यावरण की चिंता तो दूर हम मुनाफा कमाने के लिये अपनी आस्था की प्रतीक पहाडि़यों तक का दोहन करने में संकोच नहीं करते। ऐसे कलियुगी माहौल में भक्तों को भगवान से प्रार्थना करनी चाहिये कि वे खनन माफिया को सद्बुद्धि दे ताकि वे अपनी लिप्सा का शिकार किसी और क्षेत्र को बना लें। जो भी हो ब्रज के ग्रामीण क्षेत्र में अपनी धरोहर के संरक्षण की जाग्रति अब तेजी से फैल रही है। यदि सम्बन्धित लोग नहीं चेते तो जनता भविष्य में स्थिति पर सीधा नियंत्रण करने में संकोच नहीं करेगी।

Friday, June 7, 2002

सांसद निधि का दुरुपयोग बंद हो

पिछले दिनों भारत के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया। उन्होंने सभी प्रमुख दलों के नेताओं से बात करके सांसद निधि के इस्तेमाल में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने की जरूरत पर जोर दिया था। सैद्धांतिक रूप से उनसे सहमति जताने के बावजूद किसी भी दल ने इस मामले में पहल नहीं की। देश के अलग-अलग हिस्सों में सांसद निधि के आवंटन और इस्तेमाल को लेकर अलग अलग तरह की रिपोर्ट आ रही हैं। जहां कुछ इलाकों में इस निधि से वाकई जन उपयोगी काम हुए हैं वहीं ज्यादातर इलाकों में इसके आवंटन और इस्तेमाल को लेकर तमाम तरह की निराशाजनक बातें सामने आ रही हैं। आज देश की राजधानी दिल्ली के अलावा अन्य हिस्सों में भी ऐसे दलाल विकसित हो गये हैं जो किसी भी योजना के लिये सांसद निधि से धन आवंटन करवाने का ठेका लेेते हैं। ये लोग सांसदों के इस कोष पर सतर्क निगाह रखते हैं। इन्हें पता होता है कि किस इलाके के कौन से सांसद का कोष इस्तेमाल नहीं हुआ। इन्हें ये भी पता होता है कि कौन से सांसद से सरलता से किसी भी प्रोजेक्ट के लिये धनराशि का आवंटन करवाया जा सकता है। ये लोग बाकायदा एक मोटे कमीशन के एवज में इस काम को करवाने के लिये तत्पर रहते हैं। चूंकि इस तरह की कमीशनबाजी का लेन-देन काले धन से गुपचुप तरीके से होता है इसलिये इसका कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। वैसे भी इस मामले में किसी भी पक्ष के शोर मचाने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह पूरी प्रक्रिया बहुत सरल है। यदि किसी कोलोनाइजर को अपनी कालोनी में सांसद निधि से सड़क बनवानी है तो वह ऐसे दलालों को संपर्क करता है जो उस कोलोनाइजर के लिये तमाम कागजी खानापूरी करते हैं। कमीशन की रकम तय होती है और कोलोनाइजर को वांछित राशि आवंटित कराने में सफलता मिल जाती है। जिस कालोनी में सड़क, बिजली, सीवर आदि की व्यवस्था न होने से उसके प्लाॅटों की खास कीमत नहीं मिलती वही कालोनी इस तरह के अनुदान आ जाने के बाद चमक जाती है। और तब वह अपने प्लाॅट को अच्छे दामों पर बेच सकते हैं। सांसद निधि से धन आवंटन कराने वाले जानते हैं कि कोलोनाइजर के लिये यह कितने बड़े फायदे का सौदा हैं इसलिये बाकायदा मोल तोल करके कमीशन की मोटी रकम तय की जाती है। आम जानकारी की बात है कि यदि किसी छोटे समूह के निहित स्वार्थ के लिये यह धनराशि आवंटित करायी जानी है तो कमीशन की रकम 35 से 40 फीसदी तक होती है। यदि यह आवंटन वास्तव में सार्वजनिक हित के काम के लिये किया जाता है तो भी कमीशन की राशि 10 फीसदी तक मांग ली जाती है।
पिछले कुछ वर्षों से हर राजनैतिक दल अपने सांसदों को मजबूर करके ऐसी परियोजनाओं में सांसद निधि लगवा रहे हैं जिनका आम जनता को कोई लाभ मिले न मिले, उनके दल के स्वार्थ जरूर पूरे होते हैं। इस तरह अक्सर यह देखने में आ रहा है कि अनुत्पादक और महत्वहीन परियोजनाओं में सांसद निधि का एक बहुत बड़ा हिस्सा बरबाद किया जा रहा है। क्योंकि इन परियोजनाओं को चलाने में सम्बन्धित राजनैतिक दल के हित छिपे होते हैंै। यह बताना कठिन है कि कौन सा काम जनहित की श्रेणी में आता है और कौन सा नहीं। पर फिर भी मोटे तौर पर यह माना जाना चाहिये कि जिस काम से समाज के ज्यादा से ज्यादा लोगों का फायदा होता हो, उसे जनहित का कार्य मान लेना चाहिये। सांसद निधि के संदर्भ में इस मापदण्ड को भुला दिया गया है। छुटभैैये नेता और दलाल अपने फायदे के लिये अपने सांसदों की इस निधि को निरर्थक परियोजनाओं में लगवा रहे हैं। बिना यह सोचे कि इससे उस क्षेत्र का कुछ भी फायदा नहीं होगा।

सोचने वाली बात यह है कि सांसद निधि से धन स्वीकृत करते समय क्या सम्बन्धित सांसद को यह अहसास होता है कि जो धन वह आवंटित करने जा रहे हैं वह किसी व्यक्ति या उनकी निजी जायदाद नहीं है। किसी देश की करोड़ों गरीब जनता के खून पसीने की कमाई पर कर लगाकर जो राजकोष बनता है उसी में से सांसद निधि के लिये भी धन दिया जाता है। फिर भी ऐसा व्यवहार किया जाता है मानो कोई राजा अपने निजी राजकोष से जनता को धन लुटा रहा हो। विकास के जिन कामों को इस निधि से पूरा करके दिखाने के दावे किये जाते हैं और कई बार उस कार्य को पूरा किया भी जाता है दरअसल ये वो काम हैं जो पहले ही सरकार को कर देने चाहिये थे। चूंकि सरकारें अपनी दायित्व के निर्वहन में असफल रही हैं इसलिये जनता को कुएं और शौचालय जैसे छोटे छोटे कामों के लिये भी सांसद निधि की तरफ देखना पड़ता है। चूंकि सांसद निधि का इस्तेमाल प्रायः जिला प्रशासन की मार्फत होता है इसलिये स्थानीय प्रशासन को इस निधि में से धन खींचने की पूरी गुंजाइश रहती है। इस तरह यह भ्रष्टाचार का एक नया मोर्चा खुल गया। प्रायः सांसद और जिला प्रशासन के बीच विवाद भी हो जाते हैं और बात बाहर निकल जाती है। तब यह सुनने में आता है कि फलां प्रशासक ने फलां सांसद को उसकी अपेक्षा के अनुरूप प्रसन्न नहीं किया इसलिये यह टकराहट पैदा हुई।

सोचने वाली बात यह है कि जिस देश की आधी से अधिक आबादी बेहद गरीबी और बदहाली में जी रही है उस देश में जनता के सीमित संसाधनों का फालतू के कामों में दुरुपयोग करना कहां की बुद्धिमानी है। इसलिये इस व्यवस्था का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। तब प्रश्न यह भी उठेगा कि क्या सांसद का काम सार्वजनिक निर्माण करवाना है या कुछ और ? उत्तर ये होगा कि सांसद का काम या यूं कहें कि विधायिका का काम कानून बनाना, और उसे लागू करने वाली सरकारी एजेंसियों के काम काज पर निगरानी रखना होता है। जबकि सांसद निधि आ जाने से यहां सांसद का ‘रोल कौन्फ्लिक्ट’ हो गया है। जब वह अपनी निधि से खर्चा करेगा और तत्सम्बन्धी वित्तीय निर्णय लेगा तब वह कैसे अपने ही निर्णयों का निष्पक्ष मूल्यांकन कर पाएगा जो एक सांसद के नाते उसका कर्तव्य है ?

दरअसल लोकतंत्र में इस तरह की सांसद निधि की कोई आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिये। सरकार के लोग विशेषज्ञों की राय से देश के विभिन्न इलाकों की जरूरतों को समझते हुए विकास की जो योजनायें बनाते हैं उनका क्रियान्वयन कैसा हो रहा है यह परखना ही सांसदों का कर्तव्य होता है। पर जब वे खुद ही कार्य पालिका के रूप में कार्य करेंगे तो वे एक निष्पक्ष विधायिका के रूप में कार्य कर पायेंगे। वैसे भी इस निधि के आवंटन का निर्णय लेने की जो शक्ति एक सांसद में केन्द्रित कर दी गयी है वह भी जनतांत्रिक भावनाओं के प्रतिकूल है। सार्वजनिक धन के इस्तेमाल का निर्णय लेने का कोई अधिकार किसी एक व्यक्ति विशेष को नहीं होना चाहिये। इसके लिये एक समूह के निर्णय की आवश्यकता होती है। विशेषज्ञों के सलाहकार मंडल की सलाह पर सांसद निधि से धन आवंटित किया जाना चाहिये। विशेषज्ञों की ऐसी समिति को देश की माली हालत और लोगों की कर देने की क्षमता को ध्यान में रखकर सुझाव देने चाहिये। ऐसी परियोजनाओं में धन लगे जिनका प्रत्यक्ष लाभ जनता को मिले। फिजूलखर्ची और निहित स्वार्थों के कामों पर रोक लगे। इसके लिये हर सांसद के संसदीय क्षेत्र की जागरूक जनता को भी सक्रिय और चैकन्ना रहना होगा। ऐसे लोगों को समूह बनाकर अपने सांसद पर दबाव डालना चाहिये ताकि वह सांसद जन भावनाओं की उपेक्षा करके अपनी निधि को बरबाद न करे या उसे निहित स्वार्थों के हाथ में जाने से रोकंे। हर संसदीय क्षेत्र के जागरूक नागरिक, वकील, शिक्षक, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं को चाहिये कि वे अपने सांसद से इस निधि के इस्तेमाल की विस्तृत आख्या मांगें और उसका अध्ययन करें। ताकि उन्हें पता चल सके कि किस काम के लिये कितने खर्चे की आवश्यकता होती है। इसके अलावा संसदीय सलाहकार समिति अपनी बैठक में ऐसे प्रस्ताव पारित कर सकती है जिनसे सांसद निधि के दुरुपयोग पर रोक लग जाए। उसके आवंटन की निर्णय प्रक्रिया और उसके खर्चे की पूरी निगरानी करना संभव हो। इसके साथ ही प्राथमिकता तय कर दी जाएं जिनकी सूची हर सांसद को दे दी जाए ताकि वे अपनी क्षेत्र में आवश्यकतानुसार इस सूची के आधार पर अपनी रुचि के कामों में धन लगायें।

यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि तमाम संसाधनों को होने के बावजूद हमारा देश इतना गरीब है। दुख की बात यह है कि आज की उपभोक्तावादी संस्कृति ने अब देश की अस्सी फीसदी जनता को दरकिनार कर साधन सम्पन्न लोगों को अपने कब्जे में ले लिया है ऐसे में आम आदमी के दुख दर्द अब हुक्मरानों के सभागारों की चर्चा के विषय नहीं रहे। सांसद निधि की क्या चले जब देश की बड़ी बड़ी नीतियां चंद कंपनियों के मोटे मुनाफों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। लोगों को विकास और नौकरी के सब्जबाग दिखाकर गुमराह किया जाता है। जब तक देश के जागरूक नागरिक सार्वजनिक संसाधनों के आवंटन और इस्तेमाल पर अपनी पकड़ मजबूत नहीं करेंगे तब तक देश की आम जनता को इन संसाधनों का लाभ नहीं मिल सकेगा। लोकतंत्र के लिये जागरूक जनता के बीच ऐसे संकल्प का होना अनिवार्य है। इस दिशा में पहला कदम यह होगा कि हर संसदीय क्षेत्र के जागरूक नागरिकों का एक संगठन इसी काम के लिये बने जो सांसदों और विधायकों के कोष पर निगरानी रखे और उसकी बरबादी होने से उसे रोके। यह शुरू में कठिन जरूर लगेगा पर इतना कठिन मामला है नहीं। अगर ऐसे संगठन में शामिल होने वाले लोग अपने निज हित को अलग करके सार्वजनिक हित में सांसदों पर एक दबाव समूह बनायेंगे तो मजबूरन उस सांसद को अपने कार्यकलापों में जवाबदेही लानी पड़ेगी। यदि ऐसा हो सके तो यह लोकतंत्र के लिये एक बहुत ही सशक्त शुरूआत होगी। कहते हैं कि बिन्दु बिन्दु से सिन्धु बना है। हर सांसद पर अगर उसके मतदाताओं की ऐसी ही कड़ी नजर लगी रहे तो कोई भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हो पाएगा। चाहे वो विधायिका का सदस्य हो या कार्यपालिका का। व्यवस्था की आलोचना करना और हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना सबसे आसान काम है। मुश्किल है तो हालात को बदलना। जो लोग भी इस देश के निजाम को और अधिक जिम्मेदाराना बनाना चाहते हैं उन्हें इस तरह की ठोस पहल करनी चाहिये। इसी में सभी का कल्याण छिपा है