Monday, April 13, 2015

मंदिरों की सम्पत्ति का धर्म व समाज के लिए हो सदुपयोग

मंदिरों की विशाल सम्पत्ति को लेकर प्रधानमंत्री की योजना सफल होती दिख रही है। इस योजना में मंदिरों से अपना सोना ब्याज पर बैकों में जमा कराने को आह्वान किया गया था। जिससे सोने का आयात कम करना पड़े और लोगों की सोने की मांग भी पूरी हो सके। केेरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में दो लाख करोड़ से भी ज्यादा की सम्पत्ति है। ऐसा ही तमाम दूसरे मंदिर के साथ है। पर इस धन का सदुपयोग न तो धर्म के विस्तार के लिए होता है और न ही समाज के लिए। उदाहरण के तौर पर ओलावृष्टि से मथुरा जिले के किसानों की फसल बुरी तरह बर्बाद हो गई। कितने ही किसान आत्महत्या कर बैठे।

उल्लेखनीय है कि ब्रज में, विशेषकर वृन्दावन में एक से एक बड़े मंदिर और मठ हैं। जिनके पास अरबों रूपये की सम्पत्ति हैं। क्या इस सम्पत्ति का एक हिस्सा इन बृजवासी किसानों को नहीं बांटा जा सकता ? भगवान श्रीकृष्ण की कोई लीला किसी मंदिर या आश्रम में नहीं हुई थी। वो तो ब्रज के कुण्डों, वनों, पर्वतों व यमुना तट पर हुई थी। ये मंदिर और आश्रम तो विगत 500 वर्षों में बने, और इतने लोकप्रिय हो गए कि भक्त और तीर्थयात्री भगवान की असली लीला स्थलियों को भूल गए। मंदिरों में तो करोड़ो रूपये का चढ़ावा आता है पर भगवान की लीला स्थलियों के जीर्णोंद्धार के लिए कोई मंदिर या आश्रम सामने नहीं आता।

जबकि इनमें से कितने ही मंदिर तो ऐसे लोगों ने बनाए हैं जिनका ब्रज से कोई पुराना नाता नहीं था। पर आज ये सब ब्रज के नाम पर वैभव का आनंद ले रहे हैं। जबकि ब्रज के किसान हजारों साल से ब्रजभूमि पर अपना खून-पसीना बहाकर अन्न उपजाते है। हजारों साधु-सन्तों को मधुकरी देते हैं। अपने गांव से गुजरने वाली ब्रज चैरासी कोस यात्राओं को छाछ, रोटी और तमाम व्यंजन देते हैं। यहीं तो है असली ब्रजवासी जिन्होंने कान्हा के साथ गाय चराई थी, वन बिहार किया था, उन्हें अपने छाछ और रोटी पर नचाया था। इन्हीं के घर कान्हा माखन की चोरी किया करते थे। आज जब ये किसान कुदरत की मार झेल रहे हैं, तो क्या वृन्दावन के धनाढ्य मंदिरों और मठों का यह दायित्व नहीं कि वे अपनी जमा सम्पत्ति का कम से कम आधा भाग इन ब्रजवासियों में वितरित करें।

यहीं हाल देश के बाकी हिस्सों के मंदिरों का भी है। जो न तो भक्तों की सुविधा की चिन्ता करते है और न ही स्थानीय लोगों की। अपवाद बहुत कम हैं। ऊपर से तुर्रा यह कि ये मंदिर हमारी निज सम्पत्ति हैं। जबकि यह सरासर गलत है। हिमाचल उच्च न्यायालय से लेकर कितने ही फैसले है जो यह स्थापित करते हैं कि जिस मंदिर को एक बार जनता के दर्शनार्थ खोेल दिया जाय, वहां जनता भेंट पूजा करने लगे, तो वह निजी सम्पत्ति नहीं मानी जा सकती। वह सार्वजनिक सम्पत्ति बन जाती हैं। चाहे उसकी मिल्कियत निजी भी रही हो। ऐसे सभी मंदिरों की व्यवस्था में दर्शनार्थियों का पूरा दखल होना चाहिए। क्योंकि उनके ही पैसे से ये मंदिर चलते है। प्रधानमंत्री को चाहिए कि इस बारे में एक स्पष्ट नीति तैयार करवाएं जो देश भर के मंदिरों पर ही नहीं बल्कि हर धर्म के स्थानों पर लागू हो। इस नीति के अनुसार उस धर्म स्थान की आय का निश्चित फीसदी बंटवारा जमापूंजी, रखरखाव, दर्शनार्थी सुविधा, क्षेत्रीय विकास व समाजसेवा के कार्यों में हो। आज की तरह नहीं कि इन सार्वजनिक धर्म स्थलों से होने वाली अरबों रूपये की आय चंद हाथों में सिमट कर रह जाती है। जिसका धर्म और समाज को कोई लाभ नहीं मिलता।

इस मामले में तिरूपति बालाजी का मंदिर एक आदर्श स्थापित करता है। हालांकि वहां भी जितनी आय है उतना समाज पर खर्च नहीं किया जाता। फिर भी भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी अनेक सेवाओं से एक बड़े क्षेत्र को लाभान्वित किया जा रहा है। धर्म को संवेदनशील मुद्दा बताकर यूपीए की सरकार तो हाथ खड़े कर सकती थी पर एनडीए की सरकार तो धर्म में खुलेआम आस्था रखने वालों की सरकार हैं, इसलिए सरकार को बेहिचक धर्म स्थलों के प्रबन्धन और आय-व्यय के पारदर्शी नियम बनाने चाहिए और उन्हें कड़ाई से लागू करना चाहिए वरना आशाराम बापू और रामलाल जैसे गुरू पनप कर समाज को गुमराह करते रहेंगे। और धर्म का पैसा अधर्म के कामों में बर्बाद होता रहेगा।

Monday, April 6, 2015

किसान और फसलों की तबाही

बेमौसम बारिश ने देश के बड़े भू-भाग में खड़ी फसल तबाह कर दी। आमतौर पर संकट में रहने वाले किसानों की गरीबी में आटा गीला हो गया। फसल बीमा का चलन अपने यहां अभी हो नहीं पाया है। अब तक इन किसानों के लिए मुआवजे या राहत का इंतजाम होता रहा है। लेकिन इस बार का संकट इतना गहरा है कि हालात उनकी अपनी-अपनी राज्य सरकारों के बूते के बाहर बताए जा रहे हैं।

कुछ राज्य सरकारों ने फौरी तौर पर दो-चार सौ करोड़ के मुआवजे का ऐलान तो किया है, लेकिन जहां ओलों और बेमौसम बारिश से चैतरफा तबाही हुई हो, उससे कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि दसियों हजार करोड़ रूपये भी कम पड़ेंगे। किसान किस कदर रो रहे हैं, इस बात का अंदाजा बुदेंलखंड और मथुरा में किसानों की आत्महत्याओं से लगाया जा सकता है। पिछले दो हफ्तों से हर रोज 8-10 परेशान किसानों की मौत की खबरें आ रही हैं। वहां कर्ज में डूबे किसानों ने जब अपनी फसलों का दो तिहाई से ज्यादा हिस्सा तबाह पाया तो कई किसानों तो सदमे से मर गए।

हैरत की बात तो यह है कि इस बार किसानों के हुए नुकसान का आंकलन करने का काम भी ठीक से नहीं हो पाया। आंकलन नहीं हो पाने के तरह-तरह के कारण भले ही बताए जाते हैं, पर यह कोई भी समझ सकता है कि प्रशासन वास्तविक स्थिति को बताकर खुद ही मुश्किल में क्यों पड़ना चाहेगा ? जहां चारों तरफ तबाही का मंजर हो, वहां जिला प्रशासन के हाथ-पैर तो वैसे ही फूल जाते हैं। तबाही वाले इलाकों में परगना अधिकारी दिन-रात किसानों के ज्ञापन लेते-लेते परेशान हैं। फसल की तबाही के आकलन में दूसरी बड़ी मुश्किल यह है कि चैतरफा तबाही का आंकलन नमूने लेकर नहीं किया जा सकता। लाखों हैक्टेयर फसल की तबाही के आंकलन के लिए प्रशासन का जितना बड़ा अमला चाहिए, वह किसी भी जगह मौजूद नहीं हैं। उधर सामाजिक संगठन हों या किसान नेता हों वे ऐसे तकनीकि काम में सक्षम नहीं हैं कि वास्तविक स्थिति का विश्वसनीय आंकलन कर सकें। उनके पास सिर्फ किसानों की आत्महत्याओं के बढ़ते आंकड़ों के अलावा बोलने को ज्यादा कुछ नहीं है।

सन् 2015 की इस आसमानी आफत का दूरगामी असर भी हमें सोच लेना चाहिए। वैसे तात्कालिक समस्या के तौर पर देखा जाए तो अनाज की इस तबाही से फिलहाल कोई बड़ा संकट पैदा होता नहीं दिखता। क्योंकि पिछले दशकों में अनाज का भारी भरकम स्टाक रखने में हम सक्षम हो गए हैं। पिछले दशकों में अनाज के मामले में अतिरिक्त उत्पादन का लक्ष्य हम हासिल कर चुके हैं। यह उपलब्धि प्राकृतिक विपदा के कारण अनाज के दाम बढ़ने को भी रोकती है। यानि किसान अपनी आमदनी कम होने की भरपाई दाम बढ़ाकर भी नहीं कर सकता। कुल मिलाकर किसान के पास बाजार के प्रचलित उपायों से भी दाम बढ़ाने का विकल्प उपलब्ध नहीं हैं। उसके पास एक ही विकल्प बचता है कि अपने घाटे का या इस जोखिम का कोई विकल्प ढूढ़े। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक से एक बड़े औद्योगिक और विकसित देश खाद्यान उत्पादन में हमेशा सचेत रहते हैं। अपनी औद्योगिक प्रकृति और व्यापारिक विकास में वे इतनी गुंजाइश निकालकर रखते हैं कि खेती से किसान का मोहभंग न होने पाए। इस बात को हमें अपने सामने रखने की आज ज्यादा जरूरत है। खासतौर पर यह तब तो और भी ज्यादा जरूरी है, जब अपने लोकतांत्रिक देश की दो तिहाई आबादी आज भी खेती पर निर्भर है - भले ही वह मजबूरी में खेती पर निर्भर हो। लेकिन यह एक दार्शनिक तथ्य भी है कि मजबूरी की भी एक सीमा होती है। बेमौसम बारिश से हुई किसानी की भारी तबाही उस सीमा को छूती लग रही है।

ऐसा नहीं है कि बेमौसम बारिश या मौसम में बारिश नहीं होने की विपत्ति सिर्फ प्राकृतिक आपदा ही है। वैज्ञानिकों का एक तबका जलवायु परिवर्तन को लेकर पिछले दो दशकों से बड़ी शिद्दत से आगाह कर रहा है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में पर्यावरणीय शोध अध्ययन हमें ऐसी आपदाओं के प्रति आगाह करते आए हैं। पिछले एक दशक में इन्हीं वैज्ञानिकों ने हमें बेकाबू औद्योगिक विकास में लगे रहने से रोका है। लगता है कि इस साल के मौसम विज्ञान संबंधी तथ्यों पर हमें और भी ज्यादा गंभीरता से गौर करना पड़ेगा। सरकारी तौर पर जो विमर्श होता है, वह तो है ही अब सामाजिक स्तर पर यानि स्वयंसेवी संगठनों के स्तर पर वैज्ञानिक सोच-विचार की जरूरत भी बढ़ गई है।

अपने विकास या समस्याओं के समाधान के लिए सरकारी विमर्श आमतौर पर एकांगी होते हैं। उनकी अपनी सीमाएं हैं। इस कारण से उनमें एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालने की प्रवृत्ति पनप ही जाती है। इसी कारण सामाजिक स्तर पर होने वाले विमर्शों से हम ज्यादा उम्मीद कर सकते हैं। लेकिन पर्यावरण के मुद्दों पर और प्राकृतिक विपदाओं के बहुआयामी पहलुओं पर विमर्श के लिए ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के सामाजिक कार्यकर्ताओं को एक साथ बैठने की जरूरत है। तभी हम ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाएंगे कि किसानों को आश्वस्त कैसे रखा जाए ? प्राकृतिक विपदाओं के पूर्व की तैयारियां कैसे की जाएं ? अनाज और अनाज से इतर दूसरी वस्तुओं के उत्पादन में संतुलन कैसे बैठाया जाए ? लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसानों को सक्षम बनाने के लिए उद्योग व्यापार के क्षेत्र से कितनी गुंजाइश निकाली जाए ?