Sunday, November 25, 2007

चैराहे पर वामपंथी

Rajasthan Patrika 25-11-2007
नंदीग्राम की हिंसा, उस पर मुख्यमंत्री बुद्ध्देव भट्टाचार्य का बयान, सी पी एम की चुप्पी और भाजपा का आक्रमक तेवर इस सब पर तो बहुत लिखा जा चुका है। जरूरत यह समझने की है कि इस घटना से वामपंथियों खासकर सी पी एम का कौन सा रूप सामने आया है?

वामपंथ की बुनियाद द्वेश, प्रतिषोध, हिंसा और काल्पनिक जगत के सपनों पर टिकी है। इस सदी के शुरू में वामपंथियों ने रूस और चीन में जो कामयाबी के झंडे गाढ़े थे उससे पूरी दुनियां हिल गई थी। एक बार तो हर पढ़े लिखे, चिंतनशील व्यक्ति को लगा कि यही सही रास्ता है। पूंजीवादी बुरी तरह घबड़ा गए थे। पश्चिम को वामपंथ का खौफ कई दशकों तक भयभीत किए रहा। पर जिस सदी में वामपंथ ने पैर जमाए उसी सदी में उसके डेरे तंबू उखड़ गए। अब जो रूस और चीन में बचा है वह वामपंथ की दसवीं कार्बन कापी भी नहीं है।

स्वभाविक है कि इन हालातों में भारत के वामपंथी दिग्भ्रमित हैं। उन्हें अपने को टिकाए रखने के लिए अब कोई ठोस आधार नहीं मिल रहा। जिससे वे अपनी श्रेश्ठता सिद्ध कर सके। इस प्रक्रिया में आज वामपंथियों व बाकी के राजनैतिक दलों में कोई अंतर नहीं बचा है। सर्वहारा की हित की बात करने वाला वामपंथी नेतृत्व आज सर्वहारा को कुचलकर हुकूमत चला रहा है। पर ऐसा पहली बार नहीं हुआ। मैं पिछले 20 वर्षाें से बंगाल के दौरे पर जाता रहा हूं। वहां हर आदमी यह कहता था कि वामपंथी आतंक और डंडे के जोर पर संगठन और सरकार चलाते हैं। अगर ऐसा न होता तो नक्सलवाद क्यों जन्म लेता? अगर सीपीएम वास्तव में सर्वहारा की हितैषी है तो उसके दो दशकों के शासन के बाद भी बंगाल की गरीबी क्यों दूर नहीं हुई? अगर सीपीएम धर्म निरपेक्ष है तो आज तक केवल हिन्दुओं का विरोध समर्थन क्यों करती रही? मैने दो दशकेां तक राजनीति के शीर्ष पर खोजी पत्रकारिता की है। और मैं बिना किसी राग द्वेश के यह कह सकता हूं कि कई नामी वामपंथियों का भी वैसा ही दोहरा जीवन है जैसा दूसरों का। वे भी उन्हीं पूंजीपतियों की खैरात पर पलते रहे हैं जिन पर दूसरे पलते हैं।

दरअसल वामपंथियों ने पश्चिमी बंगाल में जो आडंबर फैला रखा था उसके पीछे वही सब होता था जो अन्य राजनैतिक दल सत्ता में बने रहने के लिए करते हैं। हां आडंबर और संगठन इतना जोरदार रहा कि लोग बहकावे में आते रहे। पर नंदीग्राम जैसी घटनाओं ने सीपीएम के उस आडंबर को बेनकाब कर दिया है। देश में बुद्धिजीवियों, फिल्मी सितारों, लेखकों,  ायरों व पत्रकारों की एक लंबी फेहरिस्त है जो नंदीग्राम जैसी घटनाओं पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। टीवी चैनलों और सड़कों पर उतर आते हैं। सामने वाले को अमानवीय, साम्प्रदायिक, बुर्जुआ क्या कुछ नहीं कहते। पर आज ये सारे के सारे वाक्पटु लोगों को लकवा क्यों मार गया है?

नंदीग्राम का एक सच और भी है जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया। गत तीन दशकों में बांग्लादेशियों की अवैध घुसपैठ ने पश्चिमी बंगाल का समाजिक ताना बाना बदल दिया है। एक  साजिश के तहत बांग्लादेशियों को पश्चिमी बंगाल के  हरों में भेजा गया  और सीपीएक सरकार ने उन्हें वोटों के लालच में जानते हुए भी अवैध रूप से बसने दिया। अपनी आलोचना और गृहमंत्रालय की चेतावनियों की परवाह नहीं की। धीरे धीरे यही अल्पसंख्यक समुदाय सीपीएम पर हावी होने लगा। अब उसका नेतृत्व फिरकापरस्तोें ने संभाल लिया। जिससे जाहिरन सीपीएम को खतरा लगने लगा कि जो लोग कल तक पनाह मांग रहे थे वे आज काबू के बाहर हो चुके हैं और अपनी जा-बेजा हर मांग मनवा लेते हैं। तस्लीमा नसरीन को निकलवाना इसका एक उदाहरण है। इसलिए सीपीएम के काडर ने नंदीग्राम में रहने वाले अल्पसंख्यक समाज को अपनी हिंसा के प्रदशन से एक चेतावनी दी है।

दरअसल जीवन के षश्वत सत्य व मनुश्य के मूल चरित्र को समझे बिना केवल द्वेश, हिंसा और प्रतिशोध की भावना से जिस राजनैतिक विचारधारा का जन्म हुआ हो उससे सिर्फ यही निकलेगा। समाज बनेगा, पनपेगा नहीं टूटेगा और बिखरेगा। नंदीग्राम की घटना ने सीपीएम के पूरे चरित्र को बेनकाब कर दिया है।

Sunday, November 18, 2007

हिंसक हो रहे हैं पैसे वाले

Rajasthan Patrika 18-11-2007
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, नोएडा और गुड़गांव जैसे इलाकों में नए पैसे वाले हिंसक होते जा रहे है। सुनने में यह अटपटा लगेगा क्याsकि माना यही जाता है कि ज्यों-ज्यों आदमी का धन बढता हैं त्यों-त्यों उसमें असुरक्षा की भावना बढ़ती जाती है। पर पिछले कुछ वर्षों से इसका उल्टा नजारा महानगरों की सड़कों पर देखने को मिल रहा है। नए पैसे वालों के साहबजादे बड़ी-बड़ी महंगी गाडि़यों में मदमस्त होकर आए दिन आम लोगों को कुचलने और मारने लगे हैं। अंग्रेजी अखबार इसे रोड रेज कहते हैं। यानी सड़क पर गुस्सा।

होता यह है कि जब कोई वाहन चालक चाहे वह बुजुर्ग हो या अधेड़, युवा हो या स्त्री सड़कों पर शालीनता से अपनी गाड़ी चलाते हुए जाता है तो ये रईसजादे उन्हें नाहक रौंद देते हैं। क्योंकि ये तेज गति से भीड़ चीरते हुए सबसे आगे निकलना चाहते हैं। अपनी गाड़ी के सामने कोई अवरोध इन्हें बर्दाश्त नहीं होता। चाहे सामने वाला हालात से मजबूर होकर ही वह अवरोध कर रहा हो। ऐसे में यह लोग अपनी गाड़ी से उतर कर दूसरी गाड़ी वाले को बाहर खींच लेते हैं। उसकी बुरी तरह धुनाई करते हैं। उसकी गाड़ी पर बार-बार जानबूझ कर टक्कर मारते हैं। कई बार तो उस पर गाड़ी सीधी चढाकर उसे मार डालते हैं। आए दिन राजधानी के अखबार ऐसी खौफनाक खबरों से भरे रहते हैं। इस रोड रेज में निरपराध आम नागरिक रोज शिकार होते हैं। पुलिस कुछ भी नहीं कर पाती। क्योंकि घटना स्थल पर तब पहुंचती हैं जब ये कांड हो चुकते हैं।

एडमिरल नन्दा का पोता बीएमडब्ल्यू कांड में फंसा हो या फिल्मी सितारा सलमान खान फुटपाथ पर सोने वालों को कुचलने का आरोप झेल रहा हो तो ये कोई अपवाद नहीं है। ऐसे नौजवानों की तादाद बहुत तेजी से बढ़ रही है। घर में आती अकूत दौलत, माता-पिता का कोई नियंत्रण न होना, नशे की आदत, जिम जाकर बनाई अपनी मांसपेशियों के प्रदर्शन की चाहत, फिल्मी हिंसा का असर सड़कों पर बढती करों की संख्या व तंग होती सड़कें कुछ ऐसे कारण हैं जो इस तरह की हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं।

मौजूदा कानून सड़क दुर्घटना के लिए जिम्मेदार लोगों को कड़ी सजा नहीं दे पाता। सजा मिलने में भी 10-12 वर्ष से भी ज्यादा का वक्त लग जाता है। इसलिए इन बिगडै़ल साहबजादों के मन में कानून का कोई डर नहीं है। आधुनिकता ने नाम पर इन महानगरों में अब फार्महाउसों पर रात भर डांस पार्टियां चलती हैं। जिनमें शराब और अश्लीलता का नंगा नाच होता है और इनमें शिरकत करते हैं ताकतवर और पैसे वालों के बेटे-बेटियां। रात के डेढ-दो बजे जब ये पार्टियां खत्म होती हैं तब ये सड़कों पर खूब हंगामा काटते हैं। खाली सड़कों पर नाहक अपनी गाडि़यों के वीआईपी सायरन जोर-जोर से बजा कर आस-पास के घरों में सोने वाले लोगों की नींद में खलल डालते हैं। शहर की सड़कों को कार रेस का मैदान बना देते हंै। गाडि़यों में बजने वाले कान फोडू संगीत से पूरे इलाके में शोर मचा देते हैं। इसी मदमस्ती की हालत में अपनी गाड़ी में बैठी लड़कियों को प्रभावित करने के लिए ये बिगडै़ल साहबजादे सड़क चलते लोगों को रांैदते, पीटते और डराते हुए चलते हैं। पर इनका कोई इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। इस तरह का आतंक रात में ही नहीं दिन में भी आए दिन देखने को मिलता है। पिटने वाला पिटता रहता है और कोई तमाशबीन मदद को सामने नहीं आता।

उधर पिछले दो दशकों में महानगरों में बढ़ते भवन निर्माण के कारण गांवों की जमीनें कई गुने दाम पर बिकने से अचानक इन गांवों में भारी दौलत आ गई है। जिसे संभालने की समझ, अनुभव व योग्यता इन परिवारों के पास नहीं थी। इनकी कृषि योग्य भूमि चली जाने से अब इनके लिए कोई रोजगार बचा नहीं। इनके लड़के इतने पढ़े-लिखे नहीं हैं कि अच्छी नौकरी पा सकें। इसलिए जमीनें बेच कर कमाए गए मोटे पैसे को यह नौजवान दारू, मौज-मस्ती और सड़कों पर गाडि़यां दौड़ाने में बिगाड़ रहे हैं। ये नौजवान तो पहले से ही मजबूत कदकाठी के होते हैं। पारिवारिक संस्कार देहाती होते हैं जिनमें आधुनिक समाज के सड़क के नियमों का पालन करना अपनी तौहीन समझा जाता है। फिर नए पैसे का मद। इसलिए जब ये सड़कों पर आम जनता की धुनाई करते हैं तो तमाषबीनों की रूह कांप जाती है।

हमारी आर्थिक प्रगति के ऊंचे दावों और आधुनिकता के नशे में हम अपनी सभ्यता और मानवीयता भूलते जा रहे हैं। हम अंधे बनकर पश्चिमी देशों के उन समाजों का अनुसरण कर रहे हैं जहां इस तरह की अनियंत्रित जीवनशैली ने समाज और परिवार दोनों को तोड़ा और हिंसा, बलात्कार व आत्महत्या जैसी प्रवृत्ति को आम बना दिया। सौभाग्य से भारतीय समाज अभी भी इस पश्चिमी प्रभाव से बहुत हद तक अछूता है। क्योंकि पश्चिमीकरण की आंधी ने गांवों और कस्बों में रहने वाली भारत की बहुसंख्यक आबादी को अभी प्रभावित नहीं किया है। आवश्यकता इस बात की है कि महानगरों में रहने वाले मां-बाप, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता व राजनेता इस तरह की उद्दंडता की खुलेआम भत्र्सना करें। उसे अपनी पूरी ताकत से रोकें और ऐसा करने वालो को सुधारे या कड़ा दंड देने का प्रावधान करें। वरना हालात काबू के बाहर हो जाएंगे और रोड रेज, रोड रेज न रहकर एक नए किस्म का आतंकवाद बन जाएगी।

Sunday, November 11, 2007

बढ़ रही है धर्म की भूमिका


पाकिस्तान में आपात्काल सिर्फ इसलिए नहीं लगा कि परवेज मुशर्रफ अपनी कुर्सी बचाना चाहते हैं। बल्कि इस लिए भी लगाना पड़ा क्योंकि कट्टरपंथी और जेहादी किसी तरह काबू में नहीं आ रहे थे। केरल में स्वयं सेवक संघ, चर्च और इस्लामी राजनीति वामपंथियों पर हावी रही है। रूस में साम्यवाद के ढीला पड़ने के बाद धार्मिक संगठनों और केन्द्रों की बाढ़ आ गयी है। राम मंदिर के सवाल पर जनता की अपेक्षाओं का जनाजा निकालने वाली भाजपा राम सेतु के मुद्दे पर देश भर में रातों रात माहौल खड़ा कर देती है। पश्चिम एशिया के धर्म युद्ध चाहे वे मुसलमानों और यहूदियों के बीच हो या शिया और सुन्नियों के बीच अब केवल पश्चिम एशिया तक सीमित नहीं रह गये। इस्लामी आंतकवाद ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। अमरीका जैसी महाशक्ति की जड़ों को ओसामा बिन लादेन हिला चुका है। पंजाब में सिक्ख आतंकवाद ने एक लंबा खूनी दौर देखा है। आसाम की घाटी और शेष भारत के 300 से भी अधिक शहर सांप्रदायिकता की दृष्टि से काफी संवेदनशील हैं। तार्किक सोच, निरीश्वरवाद व साम्यवादी विचारधारा की वकालत करने वाले दुनिया में उठ रही धर्म की आंधी के आगे टिक नहीं पा रहे हैं।

लगता तो यही है कि इस सदी मे धर्म दुनिया की राजनीति का केन्द्र बिन्दु बन कर रहेगा। चाहे अनचाहे देशों की सरकारों और राजनैतिक दलों को अपनी राजनीति में धर्म की उपेक्षा करना संभव न होगा। समाजिक वैज्ञानिक इसी उधेड़बुन में लगे है कि सूचना क्रान्ति और वैश्वीकरण के इस दौर में धर्म निर्रथक होने की बजाय इतना महत्वपूर्ण क्यों होता जा रहा है। उन्हे इसका जबाब नहीं मिल रहा। दरअसल राज्य, सत्ता व राजनैतिक दलों के माध्यम से   लोगों के समाजिक कल्याण का जो स्वप्न जाल पिछली सदी में बुना गया था वह पिछले कुछ दशकों में चूर चूर हो गया। व्यक्ति, परिवार और समाज अपने अस्तित्व के लिए अब इन से हट कर विकल्पों की ओर देख रहा है। ऐसे में धर्म उसे एक सशक्त विकल्प के रूप में नजर आता है। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते है कि चार किस्म के लोग मेरी शरण में आते हैंःआर्त यानी दुखियारे, अर्थातु यानी कामना रखने वाले, जिज्ञासु यानी ब्रहम को जानने की इच्छा रखने वाले और ज्ञानी जो इस संसार की नश्वरता को समझ गये हैं। आज के दौर में जो लोग विभिन्न धर्मों की शरण में दौड रहें है वे पहली श्रेणी के लोग हंै। दुखी हैं, हताश हैं, दिशाहीन हैं इसलिए वे धर्म गुरूओं की शरण में जा रहे है। जिन्ंहे ये निहित स्वार्थ चाहे वे विभिन्न धर्मों के आत्मघोषित धर्म गुरू हों या राजनेता सभी अपने चंगुल में फंसा लेते हैं और उनका जमकर दोहन करते हैं।

धर्म का वास्तविक स्वरूप है रूहानियत या अध्यात्म। खुद को जानना। जीवन का लक्ष्य समझना। शरीर की जरूरतों के अलावा अपनी आत्मा की जरूरतों को पूरा करना। ऐसा धर्म मानने वाले तलवारें नहीं खींचा करते। बम नहीं फोड़ते। निरीह लोगों की हत्या नहीं करते। दूसरे के संसाधनों पर बदनियती से कब्जा नहीं करते। बल्कि सर्वे भवन्तु सुखिनः की भावना से त्याग, तप और संयम का जीवन जीते हैं। दुर्भाग्य से धर्म के सही मायने समाज को बताने वाले समाज में नहीं जगंलों और कंदराओं में रहते है। वे गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, ईसा मसीह, गुरू नानक देव और कबीर दास की तरह विरक्तों का जीवन जीते हैं, महलों का नहीं। पैंसे खर्च करके अपने को महान संत बताने वाला, प्रचार करवाने वाले  अपने शिष्यों को वैसा ही माल देंगे जैसा शीतल पेय बनाने वाली कंपनियां देती है। विज्ञापन जबरदस्त पर वस्तु पोषक तत्वों से हीन। जिसका सेवन कुपोषण और रोग देता है।

इन हालातों में लोगों के लिए यह बहुत बडी चुनौती है कि वे धर्म को बेचने वालों से कैसे बचें और कैसे रूहानियत को अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा बनायें। तब धर्म से समाज को लाभ ही लाभ होगा। खतरा नहीं जैसा आज पैदा हो गया है।अगर मौजूदा ढर्रे पर धर्म और उसका उन्माद फैलता गया तो पूरे विश्व के लिए यह आत्मघाती स्थिति होगी। तब हम धर्म के नाम पर लड़कर करोंड़ों लोगों का खून बहायेगें और अंत में मध्य युग से भी बदतर हालात में पहुंच जायेगे। क्या हममें इतना धैर्य और इतनी तीव्र इच्छा है कि हम धर्म के मर्म को जाने और उसके लबादे के उतार फेंके ?

Sunday, November 4, 2007

स्टिंग आ¡परेशन से नरेन्द्र मोदी को फायदा

Rajasthan Patrika 4-11-2007
पिछले दिनों एक टीवी चैनल पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक स्टिंग आ¡परेशन दिखाया गया। जिसमें उन्ही के कुछ सहयोगियों ने यह स्वीकारा कि गुजरात में गोधरा के बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों में नरेन्द्र मोदी का पूरा हाथ था। यह कोई नया आरोप नहीं हैं। इन दंगों के बाद से ही विपक्षी दल, कई तरह के स्वयंसेवी संगठन और मीडिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा नरेन्द्र मोदी पर गुजरात में दंगे करवाने का और अल्पसंख्यकों के साथ अमानवीय व्यवहार करवाने का आरोप लगाते रहे हैं। इन आरोपों में कितनी सच्चाई है उसे जानने के लिए केन्द्रीय सरकार और अदालत समय-समय पर जांच करवाती रहीं हैं। जिनके विषय में यहां चर्चा की आवश्यकता नहीं।

असली बात तो यह है कि इस स्टिंग आ¡परेशन को इस वक्त दिखाने का मकसद क्या विशुद्ध खोजी पत्रकारिता था या इसके पीछे कोई और कारण है ? खुद स्टिंग आॅपरेशन करने वालों ने माना कि उन्होंने यह खोज कई महीने पहले पूरी कर ली थी। फिर क्यों इसे चुनाव के पहले तक रोक कर रखा गया ? इसका उत्तर ये लोग टेलीविजन की वार्ताआंे में नहीं दे पाए। इससे भाजपा को ये कहने का पर्याप्त आधार मिला कि यह स्टिंग आॅपरेशन विपक्षी दल के इशारे पर और चुनावांे को ध्यान में रख कर किया गया है। जो भी हो विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या इस स्टिंग आॅपरेशन से नरेन्द्र मोदी की छवि खराब हुई है ? वामपंथी या खुद को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले राजनैतिक लोग यही कहेंगे। पर जमीनी हकीकत कुछ और है। इस स्टिंग आ¡परेशन से गुजरात के बहुसंख्यक मतदाताओं के बीच नरेन्द्र मोदी की छवि सुधरी है। गुजरात के अनेक नगरों में मैने विभिन्न तबके के लोगों से बात की तो पता चला कि ये लोग नरेन्द्र मोदी को एक योग्य और सक्षम नेता मानते हS। उनका कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से गुजरात के शहरों में बढ रहे कठमुल्लापन पर नरेन्द्र मोदी ने लगाम कसी और गोधरा के बाद के दंगों से यह संदेश दिया कि अल्पसंख्यक होने का अर्थ उद्दंडता और आतताई होना स्वीकारा नहीं जाएगा। इस बात का सीधा प्रमाण यह है कि नरेन्द्र मोदी के इस शासनकाल में गुजरात में कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। दूसरी ओर आर्थिक प्रगति के इच्छुक लोगों को नरेन्द्र मोदी के शासन में मदद ही मिली है। चाहे वे अल्पसंख्यक ही क्यों न हों।

गुजरात के बहुसंख्यकों का कहना है कि मीडिया और खुद को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले राजनैतिक दल हमेशा मुसलमान का पक्ष लेते हैं और हिन्दू हितों का उपेक्षा करते हैं। गुजरात के लोग यह प्रश्न करते हैं कि जब कश्मीर के हिन्दू मारे जा रहे थे या मुसलमान आतंकवादियों द्वारा आज भी देश में बड़ी संख्या में हिन्दू मारे जा रहे हैं तब यह लोग क्यों नहीं उतने ही मुखर होते जितने की मुसलमानों के पिटने पर होते हैं ? इसलिए स्टिंग आॅपरेशन के बावजूद गुजरात के लोगों में चाहे-अनचाहे यह बात बैठ गई है कि अगर गोधरा कांड के बाद हुए दंगों में नरेन्द्र मोदी या उनकी सरकार का कोई हाथ है भी तो इसमें कोई बुराई नहीं। क्योंकि अगर ऐसा न होता तो गुजरात का बहुसंख्यक समाज अल्पसंख्यकों के उद्दंड व्यवहार से अशांत और असुरक्षित ही रहता।

ये गंभीर बात है कि मीडिया के प्रति बहुसंख्यकों के मन में यह बात घर कर गई है कि वह हिन्दुओं के हित नहीं साधता। जबकि मीडिया की छवि यथा संभव निष्पक्ष ही होनी चाहिए। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि वैदिक परंपराओं के वैज्ञानिक आधार सिद्ध हो जाने के बावजूद इस देश का पढ़ा-लिखा प्रगतिशील वर्ग स्वयं को हिन्दू मानने से बचता है। उसे लगता है कि धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा ओढे बिना कुलीन समाज में उसे स्वीकारा नहीं जाएगा। इसलिए उसे दोहरे मापदंड अपनाने पड़ते हैं। पर मतदाता अपना अच्छा-बुरा खुद सोच लेता हैं। वह मीडिया के नियंत्रित ‘टाॅक-शो’ ‘ओपिनियन पोल’ और राजनैतिक विश्लेषणों से प्रभावित नहीं होता। मीडिया की उपक्षा के बावजूद मायावती की चुनावी फतह इसका उदाहरण है। यही वजह है कि मायावती मीडिया की परवाह नहीं करतीं। लालू यादव भी नहीं करते थे और अब नरेन्द्र मोदी भी नहीं करते। ये तीनों ही नेता अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए मीडिया पर निर्भर नहीं है। लोकतंत्र के लिए मीडिया का इस तरह निरर्थक हो जाना शुभ संकेत नहीं है। मीडियाकर्मियांे और अखबार व टीवी चैनलों के मालिकों को गंभीरता से सोचना होगा। अगर मतदाता और नेता दोनों उससे प्रभावित नहीं हो रहे तो स्पष्ट है कि मीडिया के कुछ हिस्से ने अपनी सार्थकता खो दी है। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ किया गया स्टिंग आॅपरेशन भी इसीलिए उनके हक मे गया है। जिसका लाभ नरेन्द्र मोदी को आगामी विधान सभा चुनाव में देखने को मिल सकता है।