Sunday, December 20, 2009

कोपेनहेगन विफल: अशोक गहलोत सफल

Rajasthan Patrika 20-Dec-2009
जो उम्मीद थी कोपेनहेगन में वही हुआ। न तो विकासशील देश दबे और न ही विकसित देशों ने उनकी मांग मानी। अब दिसम्बर 2010 में मैक्सिको में फिर यही सर्कस होगा। फिर दुनिया भर के हजारों पर्यावरणविदों का मेला जुटेगा, तर्कों की गरमी पैदा होगी पर ग्लेश्यिरों का पिघलना जारी रहेगा। मालदीव, बांग्लादेश, भारत का तटीय क्षेत्र ही नहीं दुनिया के तमाम देश जल प्रलय में डूबने की कगार पर पहुंचते जायेंगे। जैसा हमने अपने पिछले लेख में लिखा था कि जलवायु परिर्वतन को यदि रोकना है तो हमें भारतीय जीवन पद्धत्ति को अपनाना होगा। पश्चिम की उपभोक्तावादी संस्कृति ने जीने के आधार को जितनी तेजी से पिछले कुछ दशकों में खत्म किया है उतना विनाश मानव इतिहास में पिछले लाखों सालों में नहीं हुआ था।

जीवन जीने के लिए और जलवायु को दुरस्त रखने के लिए पहाड़, जंगल, नदी-पोखर, जमीन, हवा व वन्य जीवन सबकी रक्षा करना जरूरी होता है। हवा प्रदूषित होगी तो हरियाली पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। लाखों जीव-जन्तु समाप्त हो जायेंगे। वातावरण दूषित होगा और पृथ्वी सूर्य से जो गर्मी लेगी वह आकाश तक लौटा नहीं पायेगी। इससे तापक्रम बढ़ेगा। ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी। समुद्र का जल स्तर ऊंचा उठेगा और दुनिया पर जलप्रलय का खतरा मंडराने लगेगा।

जंगल कटेंगे तो वर्षा कम होगी। खेती कम होगी। जमीन की नमी कम होगी। अकाल और भूख से लोग मरेंगे। पर्वत टूटेंगे तो रेगिस्तान बढ़ेगा। चारागाह घटेंगे। दूध की कमी होगी। वर्षा कम होगी। भू-जल स्तर नीचे चला जायेगा। भू-चाल ज्यादा आयेंगे। भारी तबाही होगी। जमीन में रासायनिक उर्वरक डाले जायेंगे तो जमीन जहरीली होगी। फसल नुकसानदेह होगी। बीमारियां बढ़ेंगी। इसलिए जरूरी है कि जमीन, जंगल, पहाड़, पानी व हवा सबको हीरे-पन्ने से भी ज्यादा सावधानी से बचाकर सुरक्षित रखा जाए। कोपेनहेगन में यही तय होना था। पर हुआ नहीं। जीने का आधुनिक तरीका बदले बिना यह होगा नहीं। इसलिए कड़े निर्णय लेने की जरूरत है। पर्यावरण बचाने के बयान और नारे तो हम गत 30 वर्षों से सुन रहे हैं पर ऐसे हुक्मरान दिखाई नहीं देते जो अपनी कथनी और करनी को एक करने की कोशिश करें। पर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कथनी और करनी को एक कर इतिहास रच दिया है।

उन्होंने हरित राजस्थान का नारा दिया और इसके लिए देशभर के विशेषज्ञों और स्वयंसेवी संस्थाओं को बुलाकर इस काम में जोड़ा। जब उनका ध्यान डीग और कामा के पर्वतों पर चल रहे खनन की ओर दिलाया गया तो उन्होंने चंद घंटों में समस्या की गंभीरता को समझ लिया। ब्रज क्षेत्र के बीच आने वाले इन पर्वतों को एक ही दिन में आरक्षित वन घोषित कर दिया। जिससे न सिर्फ राजस्थान और ब्रज भूमि के पर्वतों की रक्षा हो सकी बल्कि पूरे पर्यावरण की रक्षा हुई। यह एक ऐसा ऐतिहासिक कदम था जिसने राजस्थान के मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा को पूरी दुनिया की नजर में रातों-रात काफी ऊंचा उठा दिया। दुनिया भर के कृष्ण भक्त और संत ही नहीं बल्कि मुसलमान, ईसाई, चीनी और बौद्ध लोगों ने भी ई-मेल पर उनके इस कदम की वाह-वाही की। यहां तक कि संसद में विपक्ष के नेताओं ने श्री गहलोत को बधाई संदेश भेजे। इस तरह जहां एक तरफ कोपेनहेगन में दुनिया के पर्यावरणविद हताश और विफल हो रहे थे वहीं श्री गहलोत ने आशा और विश्वास की लहर का संचार किया। यह विश्वास दिलाया कि मुठ्ठी भर वोटरों के ब्लैकमेल और अवैध खनन के अवैध काले धन से उन्हें दबाया या खरीदा नहीं जा सकता। जाहिर है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को भी श्री गहलोत के इस कदम से बल मिलेगा और वे देश के बाकी हिस्सों में पर्यावरण की रक्षा को लेकर लड़ी जा रही लड़ाईयों को इसी तरह निर्णायक स्थिति में ले जाने की गंभीर कोशिश करेंगे।

यहां यह उल्लेख करना अप्रसांगिक न होगा कि डीग और कामा के यह पर्वत पौराणिक महत्व के भी हैं। इनका सीधा संबंध भगवान श्रीकृष्ण की अनेक लीलाओं से है। इसलिए तमाम साधु-संत और भक्त वर्षों से इनकी रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे। आश्चर्य की बात यह है कि स्वयं को हिंदू धर्म का रक्षक बताने वाली भाजपा की राजस्थान सरकार ने इन संतों और भक्तों को 5 वर्ष तक मानसिक, शारीरिक और आर्थिक यातना दी। उनकी एक न सुनी। जब चुनाव सिर पर आया और भाजपा के पास चुनाव के लिए कोई मुद्दा न बचा तो उसे रामसेतु का मुद्दा पकड़ना पड़ा। रामसेतु की बात करें और ब्रज के पर्वतों को तोड़े यह चल नहीं सकता था। इसलिए वसुधरा राजे ने चुनाव से पहले चुनावी स्टंट के तौर पर डीग और काॅॅमा के पर्वतों को वन विभाग को हस्तांतरित करने का नाटक किया। नाटक इसलिए कि न तो इसे आरक्षित वन घोषित किया और न ही यहां से स्टोन-के्रशर हटवाये। अगर वे गंभीर थीं तो उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन जनहित याचिका में शपथ पत्र दाखिल करना चाहिए था कि वह ब्रज रक्षक दल के याचिकाकर्ताओं से सहमत है और इस क्षेत्र में खनन न होने देने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसा होता तो सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय भी जल्दी ही आ जाता। पर श्रीमती वसुंधरा राजे को एक तीर से कई शिकार करने थे। संतों को फुसला दिया कि तुम्हारी मांग मान ली। देश में प्रचारित करवा दिया कि रामसेतु के लिए लड़ने वाले सभी पौराणिक पर्वतों की रक्षा के लिए वे प्रतिबद्ध हैं। जबकि 5 वर्षों में इन्हीं पर्वतों का उन्होंने नृश्रंस विनाश करवाया। स्टोन क्रेशर वालों व खान वालों को झुनझुना थमा दिया कि फिलहाल चुप बैठो जब हम चुनाव जीत कर आयेंगे तो फिर इस निर्णय को पलट देंगे। पर नियति को कुछ और ही मंजूर था।

अब श्री गहलोत को चाहिए कि डीग और काॅमा के इन पर्वतों की सुरक्षा के लिए कड़े कदम उठायें। यहां अवैध खनन रोकें। इस क्षेत्र में सघन वृक्षारोपण व तीर्थाटन के लिए विशेष प्रयास करे। साथ ही भवन निर्माण उद्योग की मांग पूरी करने के लिए वैकल्पिक इलाके में खनन का इंतजाम करें। इसके लिए काॅमा से लगे पहाड़ी क्षेत्र के पर्वतों का नेशनल रिमोट सेंसिंग ऐजेंसी की मदद से उपग्रह सर्वेक्षण करवायें। इस क्षेत्र से संबंधित राजस्व खातों की पारदर्शी पड़ताल करवायें। जिससे पहाड़ी क्षेत्र में बंदर बांट किये गये खनन के पट्टों को तार्किक आधार पर फिर से बांटा जा सकें। इस तरह डीग और काॅमा से विस्थापित होने वाले खनन उद्योग को पहाड़ी क्षेत्र वैकल्पिक खान आवंटित की जाए। यदि संभव हो तो उन्हें आवश्यकतानुसार कर में रियायत दी जाए जिससे वे अपना धंधा ब्रज के बाहर चला सके। पर खनन कहीं भी हांे अवैज्ञानिक और विध्वंसकारी तरीके से न हो।

अगर राजस्थान सरकार गंभीरता और तेजी से काम करेगी तो डीग और काॅमा सजेंगे और पर्यटन से इतना रोजगार पैदा करेंगे कि लोग अवैध खनन की आमदनी को भूल जायेंगे। वैष्णों देवी के जीर्णाेद्धार से पहले वहां के उपराज्यपाल जगमोहन जी को पंडों का विरोध महीनों झेलना पड़ा। उन्होंने बाजार बंद किये, सड़कों पर लेट गये, पर जगमोहन नहीं झुके। वैष्णों देवी को अपनी योजना के अनुरूप तीर्थयात्रियों के सुख के लिए वैज्ञानिक तरीके से विकसित किया। आज वही पंडे सबसे ज्यादा खुशहाल हैं। उन्ही की टैक्सियां दौड़ रही हैं। गेस्ट हाउस सोना उगल रहे हैं। बाजारों में उनके नौनिहाल बड़े-बड़े दुकानदार बन गये हैं। कल विरोध करने वाले आज यशगान कर रहे हैं। ऐसा ही डीग और कामा में भी होगा। समय का अंतर है। आज जो असंभव लग रहा है वह कल संभव होगा और तब लोग उन संतों, पर्यावरण व आन्दोलनकारियों को साधुवाद देंगे जिनके त्याग और तप से ब्रज के पहाड़ बचे हैं। इतिहास अशोक गहलोत को इस पहल के लिए सदियों तक याद रखेगा। जलवायु परिर्वतन का अगला वैश्विक संम्मेलन 2010 में मैक्सिको में जब होगा तब न जाने क्या परिणाम आये पर राजस्थान के डीग और काॅमा तब तक जलवायु संरक्षण की दिशा में बहुत आगे बढ़ चुके होंगे।

Sunday, December 13, 2009

तेलांगना राज्य किसके लिए?


         
Rajasthan Patrika 13-Dec-2009
चंद्रशेखर राव की भूख-हड़ताल ने व उस्मानिया विश्वविद्यालयके छात्रों के प्रचंड आन्दोलन ने नये तेलंगाना राज्य के निर्माण की जमीन तैयार कर दी। सवाल है कि क्या आज इस अलग राज्य की जरूरत है? क्या तेलंगाना के वही हालात हैं जो 40 वर्ष पहले 1969 में थे? जब पहली बार इस आन्दोलन का जन्म हुआ था? क्या नया राज्य बनने से आम आदमी के दुख-दर्द दूर हो जायेंगे? टीआरएस की मानें तो इन सवालों का जवाब होगा हां। वे खुश हैं कि उनके नेता चंद्रशेखर राव इस बार बाजी मार ले गए। वरना काफी लंबे समय से धोखा खा रहे थे। यूं तो 1947 में भी तत्कालीन हैदराबाद रियासत (तेलंगाना) के निज़ाम भारत के साथ विलय नहीं चाहते थे। लौह पुरूष सरदार पटेल ने 1948 में पुलिस कार्यवाही करके इसे भारत का हिस्सा बना दिया और 1953 में तेलगू-भाषी आंध्र प्रदेश का गठन हुआ। वैसे भाषा के आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन के लिए बनी समिति हैदराबाद रियासत और आन्ध्र प्रदेश वाले हिस्से का विलय नहीं चाहती थी। पर केंद्र सरकार ने तेलंगाना को समुचित विकास का आश्वासन देकर फुसला लिया।

इसके बाद 13 साल बीत गए। पर तेलंगाना का विकास नहीं हुआ। तब जनता का आक्रोश बढ़ने लगा। वैसे भी पं. नेहरू की तीनों पंचवर्षीय योजनाएं आम आदमी का सपना पूरा नहीं कर पाईं थीं। इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं को रोक दिया गया और एक-एक वर्ष की 3 योजनाएं 1966 से 1969 के बीच चलीं। देश के हालात काफी बदल चुके थे। पाकिस्तान से युद्ध, अमरीका पर खाद्यान्न की निर्भरता, बड़ी योजनाओं में भारी विदेशी कर्ज कुछ ऐसे संकट थे जिन से देश में हताशा फैली थी। तेलंगाना वासी और ज्यादा बेचैन हो गए और 1969 में जय तेलंगाना आन्दोलनशुरू हुआ। जिसकी शुरूआत भी उस्मानिया विश्वविद्यालय के छात्रों ने ही की थी। इस आन्दोलन में सैकड़ों लोग मारे गये। पर तेलंगाना राज्य फिर भी नहीं बना। सत्तारूढ़ कांगेस ने राजनैतिक दावपेंच खेलकर इन अलगावादी नेताओं को खरीद लिया या कांग्रेस में ले लिया। आन्दोलन विफल हो गया।

तब से आज तक हालात काफी बदल चुके हैं। आज तेलंगाना क्षेत्र में भारत का पांचवा सबसे बड़ा शहर हैदराबाद है।जो तेजी से फैलता जा रहा है और जिसने दुनिया में अपने झंडे गाढ़े हैं। विकास का फल भी कुछ सीमित मात्रा में इस इलाके में पहुंचा है। अलग राज्य बनकर ऐसा होने कुछ नहीं जा रहा जिससे आम आदमी की हालत सुधर सकेगी। अलबत्ता तेलंगाना के राजनेताओं की तकदीर जरूर चमक जायेगी। जो आज तक सत्ता का सुख भोगने का सपना देखते आए हैं। उल्लेखनीय है कि 1990 और 2004 में भाजपा और कांग्रेस ने पृथक तेलंगाना राज्य की मांग को अपने चुनावी घोषणा पत्र का हिस्सा बनाकर चुनाव लड़ा था। पर साझी केंद्रीय सरकार के सहयोगी दल तेलगूदेशम पार्टी के विरोध के कारण तब यह राज्य नहीं बनाया गया। इसी तरह 2004 में सत्ता में आई कांग्रेस ने टीआरएस के साथ चुनाव लड़ा पर बाद में वायदे से मुंह मोड़ लिया। अब चन्द्रशेखर राव के आमरण अनशन ने ऐसे हालात पैदा कर दिये कि सोनिया गांधी को उनकी जि़द के आगे झुकना पड़ा। कांग्रेस जानती है कि इस वक्त अगर तेलंगाना राज्य का गठन होता है तो राजनैतिक लाभ भी टीआरएस को ही मिलेगा। पर अगर मांग न मानती तो हालात बेकाबू हो जाते। पर इस सारे आन्दोलन के पीछे क्षेत्र के विकास की चिंता कम और अपने राजनैतिक भविष्य की चिंता ज्यादा दिखाई देती है। क्या वजह है कि एनटीआर के जमाने में यह आन्दोलन ठंडा पड़ा रहा?

दरअसल जब किसी नेता या दल को अपनी पहचान बनानी होती है या राजनैतिक फसल काटनी होती है तो उसे ऐसा  कुछ जरूर करना होता है जिससे उथल-पुथल मचे और दुनिया का ध्यान उस पर या उसके नए दल की ओर आकर्षित हो। गोरखालैंड के लिए मांग करने वाले सुभाष घीसिंग या राज ठकरे, अर्जन मुंडा हों या छत्तीस गढ़ के नेता, सब अपनी पहचान के लिए अपने राज्य की मांग करते हैं या सत्ता es अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करते है। राज्य के गठन के बाद नया सचिवालय, नई विधान सभा, नई राजधानी, नई सरकारी इमारतें आदि इतना कुछ बनता है कि नए राज्य के नेताओं की मोटी कमाई होती है। फिर मंत्री पदों की बंदरबांट होती है। जनता के पैसे पर शाही ठाट-बाट जुटाये जाते हैं। अंत में जनता वहीं की वहीं रह जाती है। लुटी-पिटी और बदहाल।

तेलंगाना की आमदनी का जरिया शराब की बिक्री से प्राप्त आबकारी कर है। अलग राज्य होकर ये अपने विकास के लिए साधन कहां से लायेगा? क्या नया राज्य ज्यादा शराब बेचेगा? फिर तो जनता और लुटेगी। राज्य का विनाश होगा या विकास होगा? ऐसे सवालों की 
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पृथक राज्य की मांग करने वालों को नहीं है। इसलिए वे आज जीत का जश्न मना रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे अयोध्या में कार सेवकों पर हुए पुलिसिया खूनी हमले के बाद भाजपा नेताओं ने जश्न मनाया था कि अब हमारी गद्दी पक्की। गद्दी तो उन्हें मिली पर मंदिर आज तक नहीं बना। मंदिर बनना तो दूर अयोध्या शहर की भी गति नहीं सुधरी। खैर यह तो वक्त ही बतायेगा कि केंद्र सरकार किस सीमा तक तेलंगाना राज्य को स्वतंत्रता देगी। पर फिलहाल इतना तय है कि तेलंगाना के नेताओं ने अपने ताजा संघर्ष से वह सब हासिल कर लिया जो वे 40 वषों में नहीं कर पाये थे। अब देखना यह है कि वे तेलंगाना की जनता के लिए क्या क्रांतिकारी कार्य करते हैं।

Sunday, December 6, 2009

आईआईटी दाखिलों में धांधली


Rajasthan Patrika 6-Dec-2009
भारत के प्रोद्योगिकी संस्थानों ने गत 50 वर्षों में पूरी दुनिया में अपनी गुणवत्ता की धाक जमाई है। आज आईआईटी के पढ़े नौजवानों की दुनिया के बाजार में सबसे ऊंची बोली लगती है। जाहिर है कि ये नौजवान विश्व स्तर पर अपने श्रेष्ठ गुणों के कारण स्थापित हो चुके हैं। फिर यह मानने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए कि इन प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिले के समय किसी तरह की धांधली की जाती हो। हर साल भारत के 15 आईआईटी में 3.5 लाख छात्र इनकी प्रवेश परीक्षा में बैठते है। जिसमें से लगभग 8 हजार छात्र चुने जाते हैं। इस कठिन परीक्षा के लिए देशभर में छात्र वर्षों कड़ी मेहनत करते हैं। महंगे कोचिंग संस्थानों में पढ़ाई करते है। फिर भी इनमें से अनेक ऐसे छात्र दाखिला पाने से रह जाते हैं जिनकी योग्यता के बारे में किसी को संदेह नहीं होता और दूसरी तरफ कुछ ऐसे छात्र दाखिल हो जाते हैं जिनके दाखिले पर अचंभा होता है।

ऐसी ही एक घटना 2006 के ज्वाइंट ऐन्ट्रेंस एक्ज़ाममें हुई। इस परीक्षा को आईआईटी खड़गपुर ने संचालित किया था। इसी आईआईटी के कंप्यूटर साइंस के प्रो0 राजीव कुमार को यह बइमानी नागवार गुजरी और तब से वे अपनी ही संस्थान की परीक्षा प्रणाली की बखियां उखेड़ने में जुट गए। इसके लिए पिछले 3 सालों es उन्होंने मानव संसाधन विकास मंत्रालय, केंद्रीय सूचना आयोग, संसद व अदालतों में काफी भागा-दौड़ी की। उन्होंन इस परीक्षा प्रणाली के विषय में तमाम तरह का शोध किया। अपने संस्थान के वरिष्ठ अधिकारियों पर कानूनी दबाव डालकर उन्हें सच उगलने पर मजबूर किया। जो सच सामने आया वह चैंकाने वाला है। 2006 की इस परीक्षा में जिन विद्यार्थियों के अंक क्रमशः 231, 251 या 279 आये थे वे तो असफल रहे। पर जिन विद्यार्थियों के अंक 154, 156 या 174 आये थे वे सफल रहे। ऐसा इसलिए हुआ कि चयन कर्ताओं ने भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र व गणित में न्यूनतम अंकों की जो सीमा तय करी थी वह काफी धांधलीपूर्ण थी। उसका कोई तार्किक आधार नहीं था।

इसी खोज में यह बात भी सामने आई कि आईआईटी कानपुर और आईआईटी खड़गपुर के रसायन शास्त्र के प्रोफेसरों के साहबजादों को रसायन शास्त्र विषय में 184 में से 135, 130, 125 या 120 जैसे उच्च अंक प्राप्त हुए। जबकि उनका अन्य विषयों में प्रदर्शन काफी निम्न स्तर का था। फिर भी उनका चयन हो गया। जब बार-बार चयन कर्ताओ से केंद्रीय सूचना आयोग ने चयन की प्रक्रिया पर असुविधाजनक सवाल पूछे तो हर बार उसे विरोधाभासी उत्तर दिया गया। जाहिर है कि चयनकर्ता तथ्यों को छिपा रहे थे क्यों कि उन्हें पकड़े जाने का भय था। सबसे ज्यादा चिंतनीय बात तो यह हुई कि जब सूचना आयोग का दबाव बढ़ने लगा तो आईआईटी खड़गपुर ने अपने ही नियम के विरुद्ध जाकर 2006 के परीक्षार्थियों की उत्तर पुस्तिकाएं नष्ट कर दी, ताकि कोई प्रमाण ही न बचे। जबकि नियमानुसार उन्हें एक वर्ष तक सलामत रखना चाहिए था।

ऐसा नहीं है कि इन अधिकारियों को इस बात का ज्ञान नहीं था कि यह मामला कोलकाता उच्च न्यायालय व केंद्रीय सूचना आयोग में विचाराधीन है। फिर भी उन्होंने उत्तर पुस्तिकाओं को नष्ट करने की हड़बड़ी क्यों की? जब इस मामले पर संसद में सवाल पूछा गया तो मानव संसाधान विकास राज्यमंत्री ने लीपा-पोती करके मामला टाल दिया। इसी तरह 2007 के जेईई में भी कुछ ऐसा ही हुआ, जिसका संचालन मुंबई आईआईटी ने किया था। इस परीक्षा में भी ऐसे छात्र सफल हो गए जिन्हें गणित में 1 अंक, भौतिक शास्त्र में 4 अंक और रसायन शास्त्र में मात्र 3 अंक प्राप्त हुए थे। 2008 में भी कोई सुधार नहीं हुआ। गणित में 15 फीसदी और भौतिक शास्त्र में 5 फीसदी अंक पाने वाले को भी आईआईटी खड़कपुर में दाखिला मिल गया। एक छात्र को भौतिक शास्त्र में 104 अंक, गणित में 75 और रसायन शास्त्र में 52 अंक मिले। उसका कुल योग 231 था पर उसका चयन नहीं हुआ, जबकि कुल 174 अंक पाने वाले छात्र का दाखिला हो गया। ऐसा इसलिए हुआ कि इस विद्यार्थी के भौतिक शास्त्र में 50, रसायन में 73 और गणित में 51 अंक थे और चयन कर्ताओं ने इस वर्ष यह तय किया रसायन शास्त्र में 55 से कम अंक पाने वाले को दाखिला नहीं दिया जायेगा। ऐसे ही बेसिर-पैर के गोपनीय फैसलों से आईआईटी के चयनकर्ता लाखों मेधावी छात्रों के साथ वर्षों से खिलावाड़ करते आ रहे है। देश के ज्यादातर छात्र/छात्रा व अभिभावकों को इस गोरखधंधे का पता नहीं। पर पिछले कुछ महीनों से देश के अंग्रेजी मीडिया में विरोध के स्वर उभरने लगे हैं। केंद्रीय सूचना आयोग भी दबाव बनाये हुए हैं। प्रो0 राजीव कुमार जैसे योद्धा वैज्ञानिक तर्कोंं के साथ चयनकार्ताओं के छक्के छुड़ा रहे हैं। यही समय है जब मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल को इस पूरे मामले की गहरी छान-बीन करवानी चाहिए और इस प्रतिष्ठित परीक्षा को पारदर्शी बनाना चाहिए। नए-नए आईआईटी खोलने की जल्दी में अगर श्री सिब्बल ने इस नासूर को दूर नहीं किया तो यह कैंसर की तरह फैल जायेगा और आईआईटी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अपनी कीमत खो देंगे। तब विदेशी विश्वविद्यालय भारत में आकर महंगी शिक्षा बेचेंगे और भारत के मेधावी किन्तु साधनहीन युवाओं को असहाय बनाकर छोड़ देगें, क्योंकि उनके माता-पिता इतनी मंहगी शिक्षा का भार वहन नहीं कर पायंगे।

इसलिए देशभर के छात्रों को भी, जिन्हे आईआईटी प्रवेश में रुचि है, जेईई को पारदर्शी बनाने के लिए ज़ोरदार आवाज़ उठानी चाहिए। अपने सांसदों, अखबारों के संपादकों को पत्र लिख कर इस मुदns पर ध्यान दिलाना चाहिए। अभिभावकों को भी जनहित याचिकाएं दाखिल करके आईआईटी को मजबूर करना चाहिए के वह जेईई को पारदर्शी बनाये। भारत की भावी वैज्ञानिक पीढ़ी के भविष्य के लिए यह एक ज़रूरी प्रयास होगा।