Monday, April 25, 2016

सैलफोन टावर के खतरे

मोबाइल फोन आज हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया हैं। सिर पर टोकरी रखकर सब्जी बेचने वाले से लेकर मुकेश अंबानी तक मोबाइल फोन का हर वक्त इस्तेमाल करते हैं। पर हम सब इस बात से बेखबर है कि मोबाइल फोन तक सूक्ष्म तरंगे भेजने वाली सेलफोन टावर्स किस तरह से हमारी सेहत और जिंदगी से खिलवाड़ कर रही हैं। आज कोई भी शहर या गांव नहीं बचा, जहां आपको ये सेलफोन टावर्स खड़ी दिखाई न दें। जिनके घरों की छत पर ये टावर लगी है, उनसे पड़ोसी ईष्र्या करते है कि उन्हें घर बैठे किराये की आमदनी हो रही हैं। वे यह नहीं जानते कि ऐसे मकान में रहने वालों ने खुद को और अपनी आने वाली पीढ़ियों को आग के हवाले कर दिया है।
ब्रिटिश मेडीकल जरनल में प्रकाशित एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार ये सेलफोन टावर्स हमारे दिमागों को बैंगन के भुर्ते की तरह भून रही हैं। इसका असर आज पूरे समाज में दिखाई दे रहा है। अब लोगों को नींद कम आती है। ज्यादातर लोग चिड़चिडे़ होते जा रहे हैं। बात-बात पर घर, दफ्तर, मौहल्ले और सड़क पर हम हर वक्त लोगों को आपस में छोटी-छोटी बात पर चीखते और चिल्लाते हुए देखते हैं। अब हमारा ध्यान आसानी से किसी एक बात पर केन्द्रित नहीं रह पाता। हमारे दिमाग की उड़ान प्रकाश की गति से भी तेज हो गई है। हम लोगों की भूख घटती जा रही है। पाचनतंत्र कमजोर पड़ता जा रहा हैं। कुल मिलाकर हमारे जीवन से सुख-चैन छिन गया है। हर इंसान, हर वक्त उद्वेलित रहता है। जबकि 20 वर्ष पहले ऐसा न था।
जिन्हें 1996 से पहले का दौर याद है, वो इस बात की ताकीद करेंगे कि पिछले 20 सालों में हमारा समाज बहुत बैचेन हो गया है। हिंसा, बलात्कार, अपराध, आत्महत्याएं और मनोवैज्ञानिक रोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। अभी तो ये टेªलर है, पूरी फिल्म तो अभी बाकी है। सेलफोन के असली दुष्परिणाम तो अगले 10 सालों में देखने को मिलेंगे। जब हर ओर तबाही का मंजर होगा। लोग अस्पतालों की कतारों में खड़े होंगे। लाइलाज बीमारियों को लेकर धक्के खा रहे होंगे। पर भविष्य की किसे चिन्ता है। हम तो उस कालीदास की तरह है कि जिस डाली पर बैठे हैं, उसे ही काटने में जुटे है।
    इस विषय में शोध करने वाले एक वैज्ञानिक प्रोफेसर नवारो का कहना है कि अगर हम किसी सेलफोन टावर के 500 मीटर के दायरे में रहते है, तो हमारे दिमाग व शरीर पर सारे दुष्परिणाम असर करने लगते है। अगर हम दो सेलफोन टावर्स के बीच में रहते हैं, तब तो हमारी पूरी बर्बादी को कोई रोक नहीं सकता। तकलीफ की बात ये है कि हमारी सरकारों ने ई.एम.एफ. प्रदूषण के जो मानक निर्धारित किये है वे बहुत लचर है। चिकित्सकों का कहना है कि इन मानकों के बाद लगाई गई सेलफोन टावर्स से जो इलेक्ट्राॅमेगनेटिक हाईपर सेन्सिटीविटी पैदा होती है, उसके प्रभावों पर हमारी सरकार की नजर नहीं है। 10 में से 8 लोग इसके कारण सामान्य व्यवहार खोते जा रहे हैं। और उनमें कैंसर के लक्षण स्पष्ट दिखने लगे हैं। इसके बावजूद भी सरकार कुछ कर नहीं रही। उसे चिन्ता इस बात की है कि अगर इन सेलफोन टावर्स को आबादी से दूर लगाया जायेगा तो देश की संचार व्यवस्था ठप्प पड़ जाएगी। ऐसा शायद हम लोग भी नहीं चाहेंगे। क्योंकि हमें सेलफोन्स की इतनी लत लग गई है कि हम भोजन और भजन के बिना रह सकते हैं, पर सेलफोन के बिना नहीं।
आज अमरीकी समाज में जो बैचेनी, निराशा, आत्महत्या की प्रवृत्ति और हिंसा की बढ़ोत्तरी हुई है, उसके पीछे एकमात्र कारण सेलफोन टावर्स के बीच चलने वाली इलेक्ट्रामेगनेटिक तरंगे हैं। जो हरेक अमरीकी के दिमाग और शरीर को जकड़ चुकी हैं। इसीलिए आज अमरीका में कैंसर जैसी भयावह बीमारी तेजी से फैल रही है। जिस सेलफोन ने अमरीकी समाज में  संवाद को सुगम बनाया था, वहीं सेलफोन अब अमरीकी समाज के पतन का कारण बन रहा है। भारत इस स्थिति से बहुत दूर नहीं है। भारत में सेलफोन्स और सेलफोन टावर्स की रिकाॅर्ड गति से वृद्धि हो रही है। अब भारत का शायद ही कोई भूभाग हो जो सेलफोन टावर्स के प्रभाव क्षेत्र से अछूता हो।
20 वर्ष पहले तक हम भारतवासी व्यापार भी करते थे, संवाद भी करते थे, समाचारों का आदान-प्रदान भी करते थे और अपना मनोरंजन भी करते थे पर बिना सेलफोन्स के, तब जीवन सादा, सुखी और शांत था। ये सही है कि आज सेकेंडों में अपना संवाद, आवाज या फोटो दुनिया के किसी भी हिस्से में भेज सकते हैं। पर क्या इससे हमारे स्वास्थ्य और आनंद में वृद्धि हुई है या हम पहले से ज्यादा बेचैन और बीमार हुए है ? शहरों को छोड़ो, अब तो हिमालय की चोटियों पर भी ये शान्ति नहीं रही। आपने टीवी पर 4 जी का विज्ञापन देखा होगा किस तरह हंसते, खिलखिलाते पहाड़ के सुरम्य, प्राकृतिक जीवन में सेलफोन टावर्स ने विष घोल दिया है। जरूरत इस बात की है कि हम सब एक मिनट ठहरें और सोचें कि क्या सेलफोन के बिना हम जी सकते है ? अगर हमें लगे कि अब ऐसा करना संभव नहीं है तो हम कम से कम इतना जरूर करें कि अपने जीवन में सेलफोन के इस्तेमाल को जितना संभव हो सके, कम से कम करते चले जायें। और हां, अपने घर के आस-पास लगी सेलफोन टावर्स के दुष्परिणामों के प्रति समाज को और प्रशासन को जागरूक बनाएं और कोशिश करके इन टावर्स को आबादी क्षेत्र से दूर पहुंचाएं। गूगल सर्च में जाकर हम सेलफोन टावर्स के दुष्परिणामों पर और भी ज्यादा जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। अकलमंदी इस बात में है कि हम सब मरणासन्न होने से पहले अपने वातावरण को सुधारने की कोशिश करें। ये न सोचें कि अकेला चना क्या भाड़ फोड़ेगा।

Monday, April 18, 2016

अपना क्या है, हमें तो रायता फैलाना है

चाहे वो केजरीवाल के आईआईटी के मित्र हों, आईआरएस के या टाटा समूह के सहकर्मी हों, सभी केजरीवाल के रायता फैलाने की आदत से परिचित हैं। अब एक बार फिर, बारी दिल्ली वालों की है। पाठकों को यह याद होगा कि जब केजरीवाल ने जनता दरबार लगाया था, उस समय अचानक जनता की समस्या सुने बिना ये भाग गए थे। तमाम सोशल मीडिया व समाचार पत्रों में इन्हें इनके इस रायता फैलाने वाले एक्शन से भगौड़ा करार कर दिया गया था। ‘आॅड-ईवन दोबारा‘ का नारा दे कर एक बार फिर दिल्ली वाले इस रायते का अनुभव करने वाले हैं।
पिछली बार प्रदूषण कम करने के बहाने इसका प्रयोग किया गया। प्रदूषण तो कम नही हुआ मगर गाड़ियों की भीड़ जरूर कम हुई। इसी बात का फायदा उठा कर केजरीवाल ने इसे अब और राज्यों में चुनावी मुद्दा बना कर उन राज्यों की भोली भली जनता को भी टोपी पहनाने की ठान ली है। 
केजरीवाल व उनके सहयोगियों को शायद यह नहीं पता कि सड़क व राजमार्ग मंत्रालय ने 1 अप्रेल 2010 के बाद बनी सभी गाड़ियों को भारत स्टेज 4 की श्रेणी के प्रमाणों का पालन करना अनिवार्य कर दिया है। गौरतलब यह है कि 1 अप्रेल, 2010 के बाद बनी गाड़ियां प्रदूषण मानक में इतनी खरी उतर रही हैं कि इन गाड़ियों को प्रदूषण नियंत्रण प्रमाण पत्र एक साल की वैधता का दिया जाता है, जबकि इससे पहले की बनी गाड़ियों को केवल 3 महीने का प्रदूषण नियंत्रण प्रमाण पत्र ही दिया जाता है। यानि कि जो गाड़ियां 1 अप्रेल, 2010 से पहले बनीं हैं, उनका प्रदूषण फैलाने का खतरा 1 अप्रेल, 2010 के बाद से बनीं गाड़ियों से अधिक है। इतना ही नहीं भारत स्टेज 4 गाड़ियों को सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के अनुसार 1 मई, 2012 से हाई सिक्योरिटी रजिस्ट्रेशन प्लेट का होना अनिवार्य कर दिया गया था और यह कानून बड़ी ही सख्ती से लागू किया जा रहा है।
अब केजरीवाल जी का यह कहना है कि वे दिल्ली के प्रदूषण को लेकर चिंतिंत हैं और ये सम-विषम वाला नियम का प्रयोग केवल प्रदूषण का स्तर कम करने के लिए एक कोशिश है, तो केजरीवालजी यह बात तो बच्चा-बच्चा ही समझ लेगा कि जो गाड़ियां 1 अप्रेल, 2010 के बाद बनी हैं, उनका प्रदूषण का स्तर नाम मात्र ही है, इसलिए उन्हें एक साल की वैधता का प्रदूषण नियंत्रण प्रमाण पत्र दिया जाता है। तो सम-विषम वाला कानून 1 अप्रेल, 2010 के बाद बनी हुई गाड़ियों पर क्यों लागू किया जा रहा है ? क्या आपकी रिसर्च टीम इतना भी रिसर्च नहीं कर पाई ?
अगर केजरीवाल जी का तर्क यह होगा कि 1 अप्रेल, 2010 के बाद की गाड़ी को पहचानना कठिन होगा, तो इससे बड़ा मजाक कोई नहीं हो सकता। आपकी सरकार के परिवहन विभाग में इन गाड़ियों के पंजीकरण की एक सूची होती है जो नम्बर की सीरीज से पकड़ी जाती है। और उस पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश अनुसार हाई सिक्योरिटी रजिस्ट्रेशन प्लेट वाला नियम भी इन गाड़ियों को पहचानने में मददगार सिद्ध होगा।
हमारे एक मित्र के पास एक 2007 में बनी मारूति है। जब उन्होंने अखबारों में सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय पढ़ा कि 1 मई, 2012 के बाद हाई सिक्योरिटी रजिस्ट्रेशन प्लेट का लगना अनिवार्य है, तो उन्होंने इस नियम का पालन करने की दृष्टि से दिल्ली के कई नंबर प्लेट बनाने वालों से संपर्क किया और अपनी 2007 की बनी गाड़ी पर यह हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट लगवाने का प्रयास किया। पता यह लगा कि ये कानून इतना सख्त है कि हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट की नकल बनाना इतना आसान नहीं है। पूछे जाने पर यह भी पता लगा कि दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के पास कुछ ऐसे लेजर कैमरे हैं, जिनसे हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट के अंदर लगी हुई एक चिप पढ़ी जा सकती है। इस चिप के अंदर गाड़ी का पूरा विवरण एक विशेष तकनीक से फीड कर दिया जाता है, जो केवल इन लेजर कैमरों की मदद से ही देखा जा सकता है। तो केजरीवाल जी सम-विषम का कानून अगर लागू करना ही है, तो क्यों न 1 अप्रेल, 2010 या 1 मई, 2012 से पहले की बनी गाड़ियों पर ही लागू किया जाए, और वो भी स्थाई रूप से। आम जनता को इस नए रायते से बचाकर रखा जाए।
दिल्ली के ट्रैफिक की समस्या ऐसी है कि अगर दिल्ली का कोई भी अधिक भीड़ वाला चैराहा ले लिया जाए, चाहे वो आईटीओ, आल इंडिया मेडीकल, आश्रम या मधुबन चैराहा ही क्यों न हो, अगर आपके द्वारा इस प्रयोग को लागू कर रही ट्रैफिक पुलिस 4 गाड़ियों को भी रोककर चालान करती है, तो उनके पीछे तमाम गाड़ियों का तांता लग जाएगा, जो ट्रैफिक जाम में फंस जाएंगे। ट्रैफिक जाम में फंसे हुए लोगों की गाड़ियां इतना प्रदूषण फैलाएगीं, जो अभी तक की प्रदूषण की मात्रा से काफी अधिक होगा। दूसरी ओर अगर यह कानून केवल 1 अप्रेल, 2010 या मई 2012 से पहले बनी हुई गाड़ियों पर लागू होता है, तो इसमें पुलिस वालों को गाड़ी पहचानना, रोककर उसकी जांच करना और दोषी पाए जाने पर उसे दंडित करना काफी आसान होगा। किसी ने खूब कहा है कि एक पेड़ पर अगर 10 चिड़िया बैठी हैं और शिकारी केवल एक पर निशाना लगाता है, उस स्थिति में बाकी 9 चिड़ियाओं का क्या हाल होगा, यह कहने की जरूरत नहीं है। ठीक इसी तरह अगर आप सम-विषम कानून को सख्ती से 1 अप्रेल, 2010 या 1 मई, 2012 से पहले की गाड़ियों पर लागू करते हैं, तो ऐसी गाड़ियों के स्वामी चैकन्ना हो जाएंगे और अपनी गाड़ी को सड़क पर लाने से पहले कई बार सोंचेगे।
पिछली बार केजरीवाल सरकार ने बड़े बड़े दावे किये कि हजारों स्वयमसेवक दिल्ली के चैराहों पर खड़े रह कर नियम के उल्लंघन करने वालों को इसका एहसास दिलाएँगे और साथ ही उनकी गाड़ियों के नम्बर को ट्रेफिक पुलिस को भी भेजेंगे। ये दावे भी झूठे साबित हुए और ज्यादतर जगहों पर इनके कार्यकर्ता नामौजूद पाए गए। पिछले प्रयोग के हफ्तों बाद तक भी केजरीवाल के पोस्टर इत्यादि चिपके रहे कि यह प्रयोग कामयाब रहा। केजरीवाल के स्ल्ह्कारों ने इसे प्रचार का एक नया माध्यम मान कर इसका भी भरपूर फायदा उठाया। इतना कि इस बार के प्रयोग का इतना प्रचार हो रहा है कि सम विषम कम बल्कि मुख्यमंत्री का चेहरा ज्यादा नजर आ रहा है। जनता के पैसे का दुरुपयोग इससे ज्यादा और कहीं नही दिख सकता।
सोचने वाली बात यह भी है कि आप आए दिन केंद्र की सरकार और दिल्ली के उपराज्यपाल व दिल्ली पुलिस से सहयोग न मिलने की गुहार लगाते रहते हैं। मगर दिल्ली के प्रदूषण को कम करने में जो तमाम गैर कानूनी फैक्ट्रियां, जो कि सीधे आपके नियंत्रण में हैं, उन पर आपकी नजर क्यों नहीं पड़ रही है। असली परीक्षण तो सोमवार की सुबह होगा जब सभी दफ्तर खुल चुके होंगे और तमाम दिल्लीवासी इस रायते का शिकार होंगे। केजरीवाल जी दिल्ली के निवासी आपकी नौटंकियों और रायता फैलाने की आदत से वाकिफ हो चुके हैं, कृपया सोच-समझकर ही अगला कदम उठाएं।

Monday, April 11, 2016

मठाधीशों के लिए मिसाल हैं अम्मा ?

हमारे देश में धर्माचार्यों, आश्रमों और मठों की भरमार है। पहले ये स्थान आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करने या ऊपर उठाने के लिए और सामाजिक समरसता को बढ़ाने के लिए पावर हाउस का काम करते थे। कलियुग के प्रभाव से हर धर्म में इतनी गिरावट आयी है कि अब ये तथाकथित धर्म केंद्र मल्टीनेशनल काॅरपोरेशन की तरह व्यापारी बन गए हैं। जहां अमीर और बड़े दान देने वाले को पूजा जाता है और असहाय, गरीब और निरीह को उपेक्षा या धक्के मिलते हैं। यहां हर क्रिया व्यापार है। भागवत कथा करवानी है, तो इतना रूपया दो। तथाकथित आश्रम में ठहरना है, तो वीआईपी सूट का इतना किराया, एसी कमरे का इतना किराया, नाॅन एसी का इतना किराया, डोरमैट्री का इतना किराया। मानो आश्रम न हो, कोई होटल हो गया। रसीद फिर भी दान की ही मिलती है, क्योंकि जैसे ही कमरे के किराए की रसीद काटेंगे, उनके प्रतिष्ठान का आयकरमुक्ति प्रमाण पत्र रद्द हो जाएगा। आप ऐसी किसी भी संस्था में जाकर कहिए कि अगर आपने कमरे का निर्धारित शुल्क लिया है, तो उसकी रसीद हमें दे दें, वे नहीं देंगे।
ऐसे दौर में गरीबों और बेसहारा लोगों को गले लगाकर और उनका दुख दूर करने का गंभीर प्रयास करने वाली ‘अम्मा’ पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल हैं। यही कारण है कि वे जहां भी जाती हैं, उनके दर्शनों को हजारों लोग उमड़ पड़ते हैं। उनका भी कमाल है कि वे हरेक को गले लगाती हैं, चाहे उन्हें 2 दिन और 2 रात तक एक ही आसन पर लगातार क्यों न बैठा रहना पड़े। माता अमृतानंदमयी देवी (अम्मा) जहां भी जाती हैं, एक नया जोश, सामाजिक एकता, मानव का मानव के प्रति दायित्व, मनुष्य के प्रकृति के प्रति दायित्व क्या हैं, इनका बोध कराती हैं। केवल उपदेश नहीं देतीं, बल्कि स्वयं और अपने शिष्यों के माध्यम से उसे कर्म में ढ़ालकर दिखाती भी हैं।
मध्ययुग में भारतीय उपमहाद्वीप में जब-जब हमारी सामाजिक और धार्मिक परंपराओं पर आघात हुए, तो इसी तरह के संतों के रूप में दैवीय शक्ति प्रकट हुईं। ब्रिटिश राज में भारतीय समाज के हर क्षेत्र में पतन की गति और तेज हुई। उस अंधकार के समय स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरूष का अभ्युदय हुआ, जिन्होंने भारतीय समाज का आत्मगौरव बढ़ाने में मदद की। आज के दौर में पश्चिमी सभ्यता में रंगे सत्ताधीशों एवं मठाधीशों के द्वारा प्रजा के शोषण के कारण समाज में रोष, ईष्र्या, क्रोध, द्वेष, अशिक्षा, जातिवाद और धर्मांधता बढ़ती जा रही है। जिससे समाज में विघटन हो रहा है और मानव की मनोवृत्ति संकीर्ण होती जा रही है। मानवीय उदारता घटती जा रही है। आज के दौर में धन ही धर्म का प्रतीक हो गया है। ऐसे समय में अम्मा ने मानव को मानव से जोड़ने के लिए भागीरथी प्रयास किए हैं।
ब्रज चैरासी कोस क्षेत्र भगवान कृष्ण के काल से आजतक भक्ति और साधना का केंद्र रहा है। जहां समय-समय पर एक से एक बढ़कर संतों ने भजन किया और समाज को दिशा दी। ब्रजवासी यह बताना नहीं भूलते कि उनका संबंध श्रीकृष्ण से भगवान और भक्त का नहीं, बल्कि मित्र, पुत्र या पति जैसा है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा था कि ब्रजवासियों को देखो तो दूर से प्रणाम करो और उनके मार्ग से हट जाओ। कहावत है कि ‘दुनिया के गुरू सन्यासी और सन्यासियों के गुरू ब्रजवासी’। ऐसे ब्रज में अगर ब्रज के संत और ब्रजवासी किसी के आगे नतमस्तक हो जाए, तो उसकी दिव्यता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। पिछले दिनों अम्मा अपने 2000 शिष्यों के साथ पहली बार वृंदावन आयीं, तो सारा ब्रज उनके मातृत्व और दैवीय शक्ति का स्वरूप देखकर उनका दीवाना हो गया। प्रातः 10 बजे से रात के 2 बजे तक अम्मा ने 10 हजार ब्रजवासियों को गले लगाया। कोई पूछ सकता है कि गले मिलने से क्या होगा ? आज का विज्ञान और तर्कवादी अपनी कसौटी पर कहीं भी इसकी व्याख्या नहीं कर सकते हैं। लेकिन भारत की वैदिक परंपरा आदिकाल से ऐसे अनुभवों का समर्थन करती आयी है। 1993 में शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन को संबोधित करते हुए अम्मा ने कहा था कि दुनिया में धर्मों की, शास्त्रों की और धर्माचार्यों की कमी नहीं है, फिर समाज इतना दुखी और बिखरा हुआ क्यों है ? इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि धर्म के मूल में है प्रेम। प्रेम के बिना संसार चल ही नहीं सकता। उन्होंने उदाहरण दिया कि अगर हमारी ही उंगली से हमारी आंख फूट जाए, तो क्या हम अपनी उंगली को तोड़ देते हैं या आंख का इलाज करते हैं और उंगली को कोई सजा नहीं देते। यही बात समाज में भी लागू होती है, अगर हम हर उस व्यक्ति को भी प्रेम करना सीख जाए, जिसने हमारा अहित किया है, तो संसार बहुत सुखमय हो जाएगा। आलिंगन कर अम्मा यही संदेश देती हैं। अब तक 4 करोड़ लोगों को दुनियाभर में गले लगाने वाली अम्मा के कंधों की हड्डियों के जोड़ों को देखकर चिकित्सक भी हैरान है कि ये अब तक घिसकर टूटी क्यों नहीं, जबकि सामान्य व्यक्ति अगर इस तरह का आलिंगन एक बार में 10-20 हजार लोगों को भी एक ले, तो उसके कंधे बोल जाएंगे। अम्मा से गले मिलने वाले लोगों का अनुभव है कि उनसे गले लगने के बाद मन में भरे हुए विषाद जोर मारकर बाहर निकलने लगते हैं और आंखों से स्वतः अश्रुपात होने लगता है।
अम्मा सिर्फ मलयालम बोलती हैं, फिर भी पूरी दुनिया के लोग उनसे संवाद कर लेते हैं। दक्षिण भारतीय संत अम्मा को ब्रज के लोगों ने भी बड़ी आशा भरी निगाहों से देखा। इससे एक बात तो तय है, भारतीय संस्कृति की जड़ें कितनी गहरी हैं। उसको प्रांत, भाषा, जाति या संस्कृति के नाम पर नहीं बांटा जा सकता है। अम्मा के आदर्शों को सिद्धांत बनाकर भारत सरकार यदि कोई पहल करती है, तो भारत में उपजी सामाजिक विषमता को समाप्त किया जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक पहल की है ‘स्वच्छ भारत अभियान’। जो कि मूल रूप से अम्मा के ‘अमल भारतम् अभियान’ की प्रेरणा से ही शुरू हुआ है, लेकिन यह काफी नहीं है। अम्मा से प्रेरणा लेकर समाज के अनेक क्षेत्रों में ऐसी नीतियां बनाई जा सकती हैं, जिससे राष्ट्र का उत्थान हो। क्योंकि अपने विशाल कार्य क्षेत्र में अम्मा ने इसका प्रमाण प्रस्तुत कर दिया है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं देखें  ूूूण्अपदममजदंतंपदण्दमज 

Monday, April 4, 2016

कितनी महत्वपूर्ण है कृषि क्षेत्र पर श्वेतपत्र की मांग

शुक्रवार को दिल्ली के जंतर मंतर पर किसान पंचायत में किसान नेताओं के अनुशासन ने सरकार को चैंका दिया। सबको पता है कि देश में किसानों की क्या हालत है। लग रहा था कि किसानों के इस आयोजन में किसान नेताओं के तेवर उग्र होंगे। लेकिन कारण जो भी रहे हों, किसानों ने अपनी पंचायत में गंभीरता से सोच विचार किया। इस पंचायत में किसानों ने एक बुद्धिमत्तापूर्ण मांग रखी कि बुंदेलखंड पर चैतरफा संकट के मद्देनजर भारत सरकार बुंदेलखंड पर श्वेतपत्र जारी करे। किसानांे ने पानी के संकट को लेकर सरकार को आगाह किया और याद दिलाया कि ऐसी परिस्थितियों में सरकारें हमेशा अतिरिक्त प्रबंध करती आई हैं। लेकिन इस साल यह काम उतनी शिद्दत से होता नहीं दिख रहा है।
श्वेतपत्र जारी करने की मांग दसियों साल बाद सुनाई दी है। ऐसी मांग पहले राजनीतिक क्षे़त्र में विपक्षी दल किया करते थे। याद पड़ता है कि 27 साल पहले सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठान जब सफेद हाथी साबित होते जा रहे थे, तब सार्वजनिक क्षेत्र की स्थिति पर श्वेतपत्र जारी करने की मांग उठी थी। कुछ ही साल बाद पूरी दुनिया में ही निजीकरण और वैश्वीकरण का ऐसा दौर चला कि सार्वजनिक क्षेत्र का वजन कम होता चला गया।
बहरहाल जंतर मंतर पर किसानों की तरफ से उठी इस मांग को अगर गौर से देखें तो वाकई यह बड़े काम की मांग साबित हो सकती है। क्योंकि इतने बड़े देश में और अलग अलग भौगोलिक मिजाज के इलाकों के होने के कारण वाकई कोई एक सामान्य राष्ट्रीय नीति या कार्यक्रम लागू करना मुश्किल होता है। इस लिहाज से किसानों की तरफ से यह मांग करना जायज तो है ही सरकार के लिए भी बहुत काम की है। अभी आठ साल पहले ही बुंदेलखंड में जब मुश्किल हालात पैदा हुए थे तब उस समय की केंद्र सरकार को अपने तमाम घोड़े बुंदेलखंड की तरफ दौड़ाने पड़े थे। और तब पता चला था कि वहां के गांवों और किसानों की समस्या इतनी जटिल है कि तुरत-फुरत कोई इंतजाम नहीं किया जा सकता। यह वही दौर है जब बुंदेलखंड के लिए सात हजार करोड़ रूपए के पैकेज का एलान किया गया था।
बुंदेलखंड के तेरह जिलों के लिए सात हजार करोड़ रूपए से क्या-क्या हो सकता है, इसका हिसाब लगाए बगैर ही उस मदद का फौरी एलान हुआ था। उप्र और मप्र यानी दो प्रदेशों के भौगोलिक क्षेत्र में आने वाले बुंदेलखंड में यह रकम कोई भी असर नहीं डाल पाई। हां, इसमें कोई शक नहीं कि क्षेत्र में तरह-तरह के कामों से बुंदेलखंड के बदहाल लोगों के हाथों को कुछ काम मुहैया हो गया था और इससे उन्हें फौरी राहत मिल गई। लेकिन जल्द ही यह पता चल गया कि किसानों की समस्या का आकार प्रकार हम जान नहीं पाए है और तभी यह समझ में आया था कि खेती किसानी के बारे में पहले हमें तथ्यों को जमा करना पड़ेगा। यही बात एक अपै्रल को जंतर मतर पर आयोजित किसान पंचायत में हुई।
श्वेतपत्र की मांग के अलावा किसानों ने अपनी पंचायत में जल प्रबंधन पर भी सोच विचार किया। इस मुददे पर विचार-विमर्श के लिए किसान नेताओं ने बुंदेलखंड की जल समस्या पर शोधकार्य कर चुके कुछ अनुसंधानकर्ताओं को भी आमंत्रित कर रखा था। इन जल विशेषज्ञों को किसानों की तरफ सेे यह सुझाव सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि अब नई सिंचाई प्रणालियों पर निर्भर रहना ही अकेला विकल्प नहीं है। किसानों का सुझाव था कि पुरानी जल प्रणालियों और पुराने तालाबों और जलाशयों को भी पुनर्जीवित करना पड़ेगा। उनकी चिंता गांवों में पाट दिए गए पुराने तालाबों को फिर से जीवित करने की थी। बस वे नहीं सोच पाए तो यह नहीं सोच पाए कि यह काम किया कैसे जा सकता है। सभी ने माना कि यह अंदाजा नहीं पड़ पा रहा है कि समग्र रूप से ऐसा काम करने के लिए किस पैमाने पर मुहिम छेड़ना पडे़गी। तभी यह तय हुआ कि सबसे पहले सरकार से श्वेत पत्र जारी करने की मांग की जाए। वैसे यह बात भी एक तथ्य के रूप में है कि देश में साल दर साल बढ़ते जा रहे संकट को देखते हुए पिछलेे दो दशकों से कई स्वयंसेवी संस्थाएं जल प्रबंधन के क्षेत्र में विशेषज्ञता के साथ काम कर रही है। जाहिर है अब यह समय भी आ गया लगता है कि ऐसे कामों की संजीदगी से समीक्षा शुरू की जाए।
इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि योजना या कार्यक्रम बनाने का काम सामाजिक स्तर पर उतना संभव नहीं है। जो स्वयंसेवी संस्थाएं अपने स्तर पर ऐसे कामों में लगी हैं, उनकी सीमाओं का अंदाजा भी हो चुका है। ये सस्थाएं अपनी सफलताओं से एक माॅडल बनाकर तो दे सकती हैं, लेकिन 130 करोड़ आबादी की इस विकट समस्या के समाधान के लिए कार्यक्रम बनाकर लागू नहीं कर सकती। यहीं यह बात उठती है कि सरकारें सामाजिक स्तर पर किए गए सफल कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए कम से कम उन्हें संसाधन मुहैया कराने की व्यवस्था तो बना सकती है। खासतौर पर देशभक्ति के प्रदर्शन के लिए आज अचानक बने माहौल में क्या जल प्रबंधन के सामाजिक कार्यों में लगीं स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रोत्साहित करके देश के निर्माण की नई मुहिम नहीं छेड़ी जा सकती।