Monday, June 24, 2013

धर्मस्थलों का व्यवसायीकरण

केदारनाथ से लेकर शेष उतराखंड में भोले नाथ का तांडव और माँ गंगा का रौद्र रूप हम सबके सामने है। जिसने भोगा नहीं उसने टीवी पर देखा या अखबार में पढ़ा। सबके कलेजे दहल गये हैं पर यह क्षणिक चिन्ता है। हफ्ते-दस दिन बाद कोई नई घटना भयानक इस त्रासदी से हमारा ध्यान हटा देगी। फिर पुराना ढर्रा चालू हो जायेगा। इसलिए कुछ खास बातों पर गौर करना जरुरी है।
 
जब से देश में टीवी चैनलों की बाढ़ आयी है तब से धार्मिक प्रवचनों का भी अंबार लग गया है। हर प्रवचनकर्ता पूरे देश और दुनियां के लोगों को अपने-अपने तीर्थस्थलों पर रात दिन न्यौता देता रहता है। इस तरह अपने अनुयायियों के मन पर एक अप्रत्यक्ष प्रभाव डाल देता है। इसलिए वे पहले के मुकाबले कई सौ गुना ज्यादा संख्या में तीर्थाटन को जाने लगे है। संचार और यातायात के साधनों मे आयी आशातीत प्रगति इन यात्राओं को और भी सुगम बना दिया है। इस तरह एक तरफ तो तीर्थस्थल जाने वालों का हुजूम खड़ा रहता है और दूसरी तरफ सम्बंधित राज्यों की सरकारें इतने बडे हुजूम को संभालने के लिए कोई माकूल व्यवस्था नहीं कर रही है। नतीजतन निजी स्तर पर होटल, टैक्सी, धर्मशाला, व बाजार आदि कुकुरमुत्ते की तरह इन तीर्थस्थलों पर अवैध रुप से बढ़ते जा रहे है। जिससे इन सभी तीर्थस्थलों की व्यवस्था चरमरा गई है। उतराखंड का ताजा उदाहरण उसकी एक  बानगी मात्र है। पिछले वर्षों में हमने बिहार, हिमाचल, राजस्थान और महाराष्ट्र के देवालयों मे मची भगदड मे सैकडों मौतों को इसी तरह देखा है। जब ऐसी दुर्घटना होती है तो दो-तीन दिन तक मीडिया इस पर शोर मचाता है फिर सब अगली दुर्घटना तक के लिए खामोश हो जाता है।
 
जरुरत इस बात की है कि तीर्थस्थलों के सही विकास, प्रबंधन व रखरखाव के लिए एक राष्ट्र नीति घोषित की जाये। इस नीति के तहत ऐसे सभी तीर्थस्थलों के हर पक्ष को एक केन्द्रीयकृत ईकाई अधिकार के साथ मॉनीटर करे और उस राज्य के सम्बंधित अधिकारी इस के अधीन हों। जिससे अनुभव, योग्यता, नेतृत्व की क्षमता और केन्द्र सरकार से सीधा समन्वय होने के कारण यह ईकाई देश के हर तीर्थस्थल के लिए व्यवहारिक और सार्थक नीतियाँ बना सके। जिन्हें शासन से स्वीकृत करा कर समयबद्ध कार्यक्रम के तहत लागू किया जा सके। इसके कई लाभ होंगे एक तो तीर्थस्थलों के विकास के नाम पर जो विनाश हो रहा है वो रुकेगा, दूसरा योजनाबद्ध तरीके से विकास होगाः तीसरा किसी भी संकट की घड़ी में अफरा तफरी नहीं मचेगीः
 
इसके साथ ही आवश्यक है कि हज यात्रा की तरह या कैलाश-मानसरोवर की तरह शेष तीर्थस्थलों में भी यात्रियों के जाने की सीमा को निर्धारित करके चले। देश दुनिया के लोगों देश दुनिया के लोगों से तीर्थ यात्रा पर जाने के लिए आवेदन लिए जायें। उन्हें एक पारदर्शी प्रक्रिया के तहत शारीरिक क्षमता के अनुसार चुना जाये। फिर उन्हें सम्बंधित यात्राओं के जोखिम के बारे में प्रशिक्षित किया जाये, जिससे वे ऐसी अप्रत्याशित त्रासदी में भी अपनी स्थिति संभालने मे भी सक्षम हों। इसके साथ ही तीर्थस्थलों पर जो अरबों रुपया साल भर में दान में आता है। उसे नियंत्रित कर उस तीर्थ स्थल के विकास की व्यवहारिक योजनाएं तैयार की जायें। जिसमें पर्यावरण और सांस्कृतिक विरासत की दृष्टि से संवेदनहीनता न हो, जैसा आज तीर्थस्थलों में विकास के नाम पर दिखाई दे रहा है। जिससे इन तीर्थ स्थलों का तेजी से विनाश होता जा रहा है। इस पहल से साधनों की कमी नहीं रहेगी और दानदाताओं को अपने प्रिय धर्मक्षेत्र के सही विकास में योगदान करने का अवसर प्राप्त होगा। वरना यह अपार धन चन्द लोगों की जेबों में चला जाता है। जिसका कोई सद्उपयोग नहीं होता। यहां इस बात का विशेष ध्यान रखा जाये कि जिस धर्म क्षेत्र में ऐसा धन एकत्र हो रहा हो उसे उसी धर्मक्षेत्र के विकास पर लगाया जाये। अन्यथा इसका भारी विरोध होगा। इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि सरकारी अधिकारी सहयोग करने के लिए तैनात हों, रूकावट ड़ालने के लिए नहीं। योजनाओं के क्रियान्वन मे भी दानदाताओं के प्रतिनिधिओं का का भी नियंत्रण रहना चाहिए।
 
उतराखंड की त्रासदी पर आसूं बहाना और वहां की पिछली हर सरकार को कोसना बडी स्वाभाविक सी बात है। क्योंकि भाजपा और कांग्रेस की इन सरकारों ने ही उतराखंड में प्रकृति के विरोध में जाकर अंधाधुंध अवैध निर्माण को संरक्षण प्रदान किया है। जिसका खामियाजा आज आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। पर इस बर्बादी के लिए आम जनता भी कम जिम्मेदार नहीं। इसने तीर्थ स्थाटन का मूल सिद्धान्त ही भूला दिया है। पहले मन की शुद्धि और आत्मा की वृद्धि के लिए जोखिम उठाकर तीर्थ जाया जाता था। तीर्थ जाना मानों तपस्चर्या करना। आज ऐसी भावना से तीर्थ जाने वाले उंगलियों पर गिने जाते है। हम जैसे ज्यादातर लोग तो तीर्थ यात्रा पर भी गुलछर्रे उडाने और छुट्टियाँ मनाने जाते है। इससे न सिर्फ तीर्थस्थलों की दिव्यता नष्ट होती है बल्कि वहां के प्राकृतिक संसाधनों का भी भारी विनाश होता है। जो फिर ऐसी ही सुनामी लेकर आता है। इसलिए अब जागने का वक्त है। हम अगर सनातन धर्म के अनुयायी हैं तो हमें अपने सनातन धर्म की इस अत्यावश्यक सेवा के लिए उत्साह से आगे बढ़ना चाहिए।

Monday, June 17, 2013

एफटीआईआई सुधारों के लिए मनीष तिवारी प्रयास करें

सूचना और प्रसारण मंत्रालय में कभी इन्दिरा गांधी मंत्री हुआ करती थीं। आज उसी मंत्रालय का भार प्रखर वक्ता, वकील व युवा नेता मनीष तिवारी के कंधों पर है। जाहिर है कि इस मंत्रालय से जुड़ी संस्थाओं को मनीष तिवारी से कुछ नया और ऐतिहासिक कर गुजरने की उम्मीद है। ऐसी ही एक संस्था पुणे का भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) है, जो देश-विदेश में अपनी उल्लेखनीय उपलब्धियों के बावजूद नौकरशाही की कोताही के कारण पिछले 6 दशकों से लावारिस संतान की तरह उपेक्षित पड़ा है। इस संस्थान की गणना विश्व के 12 सर्वश्रेष्ठ फिल्म संस्थानों में से की जाती है। संस्थान के छात्रों ने जहां फिल्म जगत मे सैकड़ों राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय अवार्ड जीते हैं। वही इसके छात्रों ने चाहे, वे फिल्मी कलाकार हों अन्य विधाओं के माहिर हों, सबने अपनी सृजनात्मकता से कामयाबी की मंजिले तय की हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि संस्थानों में प्रवेश लेने वाले छात्र बहुत गंभीरता से अध्ययन करते हैं और उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षक देश का सर्वश्रैष्ठ ज्ञान इन्हें देते हैं । बावजूद इसके यहां के प्राध्यापकों को न तो किसी विश्वविद्यालय केसमान दर्जा प्राप्त है। न ही वेतनमान। इतना ही नही इतने मेधावी छात्र 3 वर्ष का पोस्ट-ग्रेजुएट पाठयक्रम पूरा करने के बावजूद केवल 1 डिप्लोमा सर्टिफिकेट पाकर रह जाते हैं। उन्हे स्नातकोत्तर (मास्टर) की डिग्री तक नहीं दी जाती, जो इनके साथ सरासर नाइंसाफी है।
 
यह बात दूसरी है कि एफटीआईआई के छात्रों को डिग्री के बिना भी व्यवसायिक क्षेत्र में कोई नुकसान नहीं होता। क्योंकि जैसा शिक्षण वे पाते हैं और उनकी जो ‘ब्रांड वैल्यू‘ बनती है, वो उन्हें बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक काम दिलाने के लिए काफी होती है। यही कारण है कि यहां के छात्र वर्षों तक अपना डिप्लोमा सर्टिफिकेट तक लेने नहीं आते। पर जो छात्र देश के अन्य विश्वविद्यालयों में फिल्म और टेलीविजन की शिक्षा देना चाहते हैं या इस क्षेत्र मं रिसर्च करना चाहते हैं, उन्हे काफी मुश्किल आती है। क्योंकि इस डिप्लोमा को इतनी गुणवत्ता के बावजूद विश्वविद्यालयों मे किसी भी में पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री की मान्यता प्राप्त नहीं है। इससे यह छात्र शिक्षा जगत में आगे नहीं बढ़ पाते ।
 
आज जब फिल्मों और टेलीविजन का प्रचार प्रसार पूरे देश और दुनिया में इतना व्यापक हो गया है तो जाहिर है कि फिल्म तकनीकी की जानकारी रखने वाले लोगों की मांग भी बहुत बढ़ गयी है। किसी अच्छी शैक्षिक संस्था के अभाव में देश भर में फिल्म और टेलीविजन की शिक्षा देने वाली निजी संस्थाओं की बाढ़ आ गयी है। अयोग्य शिक्षकों के सहारे यह संस्थायें देश के करोड़ों नौजवानों को मूर्ख बनाकर उनसे मोटी रकम वसूल रही हैं। इनसे कैसे उत्पाद निकल रहे हैं, यह हमारे सामने है। टीवी चैनलों की संख्या भले ही सैंकड़ों में हो पर उनके ज्यादातर कार्यक्रमों का स्तर कितना भूफड और सड़कछाप है यह भी किसी से छिपा नहीं।
 
समयबद्ध कार्यक्रम के तहत डिग्री हासिल करने की अनिवार्यता न होने के कारण एफ टी आई आई के बहुत से छात्र वहां वर्षों पडे़ रहकर यूं ही समय बरबाद करते हैं। इससे संस्थान के शैक्षिक वातावरण पर विपरीत प्रभाव पडता है। वहां वर्षों से अकादमिक सत्र अनियमित चल रहे हैं । 1997 से आज तक वहां दीक्षांत समारोह नहीं हुआ। एफ टी आई आई की अव्यवस्थाओं पर सूचना प्रसारण मंत्रालय की अफसरशाही हर बार एक नई समिति बैठा देती है। जिसकी रिपोर्ट धूल खाती रहती है। पर सुधरता कुछ भी नहीं। कायदे से तो एफ टी आई आई को भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्व संस्था होना चाहिए और इसे आईआईटी या एआईआईएमएस जैसा दर्जा प्राप्त होना चाहिए। पर सूचना प्रसारण मंत्रालय इसे छोड़ने को तैयार नहींहैं । वही हाल है कि एक मां अपने लाड़ले को से गोद से उतारेगी नहीं तो उसका विकास कैसे होगा? अच्छी मां तो कलेजे पर पत्थर रखकर अपने लाड़ले को दूर पढ़ने भेज देती है, जिससे वह आगे बढ़े।
 
एफटीआईआई के सुधारों के लिए एक विधेयक तैयार पड़ा है। केन्द्रीय मंत्री मनीष तिवारी को इस विधेयक को केबिनेट मे पास करावकर संसद मे प्रस्तुत करना है। यह एक ऐसा विधेयक है, जिस पर किसी भी राजनैतिक दल को कोई आपत्ती नहीं है। सबका समर्थन उन्हें मिलेगा और इस तरह मनीष तिवारी अपने छोटे से कार्यकाल में भारतीय सिनेमा जगत में एक इतिहास रच जायेंगे। वैसे भी यह अजीब बात है कि देश में तमाम छोटी बड़ी धार्मिक व सामाजिक शैक्षिक संस्थाओं को संसद में विधेयक पारित कर ‘डीम्ड यूनीवर्सिटी‘ का दर्जा दिया जाता
रहा है तो फिर एफटीआईआई जैसी अतंराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त संस्था के साथ यह उपेक्षा क्यों ?

Monday, June 10, 2013

नरेन्द्र मोदी का आगे का सफर आसान नहीं

भाजपा का आम कार्यकर्ता जो चाहता था वो उसे गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मे मिल गया। राजनैतिक क्ष्तिज  पर से अटल बिहारी वाजपेयी का हटना भाजपा के लिए एक बडा शून्य छोड़ गया। हालांकि लालकृष्ण आडवाणी ने इस शून्य को भरने का भरसक प्रयास किया। पर वे सफल नहीं हो सके। पाकिस्तान में कायदे आजम जिन्ना कि मजार पर आडवाणी का बयान उनके लिए आत्मघाती बन गया। संघ ने आडवाणी को अपनी छाया से भी दूर कर दिया। घर्मनिरपेक्ष छवि बनाने के चक्कर में आडवाणी जी अपना हिन्दु वोट बैंक खो बैठै। पार्टी मे दो धडे़ साफ हो गये। एक संघ की मानसिकता का और एक आडवाणी जी का खेमा। इसलिए आडवाणी जी भाजपा पर अपना एकछत्र वर्चस्व स्थापित नहीं कर पाये। उधर नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह गुजरात में अपने को स्थापित किया और जिस तरह मीडिया में अपनी छवि बनवायी, उससे मोदी का कद लगातार बढता गया। पिछले कुछ वर्षो से तो यह बात हमेशा चर्चा में रही कि आडवाणी-नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रीय नेतृत्व पर दावेदारी को पसंद नहीं करते। आडवाणी के साथ जुडे भाजपा के कई बडे नेता और मुख्यमंत्री भी इसी तरह की बयानबाजी करते रहे जिससे नरेन्द्र मोदी की भाजपा में नम्बर 1 की पोजीशन न बन पाये। जाहिर है कि इससे मोदी खेमे में नाराजगी बढ़ती गयी। हद तो यह हो गयी 2 सांसदो से 115 सांसद तक पार्टी को बढ़ाने वाले आडवाणी के घर के बाहर उन्हीं के दल के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किया। नरेन्द्र मोदी को जिन हालातों में भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के चुनाव की कमान सौंपी है वह कार्यकर्ताओं के दबाव के कारण पैदा हुए हैं। भाजपा का युवा कार्यकर्ता भाजपा से जुडे उद्योगपति और व्यापारी व मध्यम वर्ग का हिन्दुवादी हिस्सा इस वक्त नरेन्द्र मोदी की अगुवायी से बनी सरकार देखना चाहता है। इसलिए इन सब लोगों मे भारी उत्साह है। दूसरी तरफ आडवाणी के खेमे के नेता इस गोवा घोषणा से जाहिरन नाखुश हैं। वे किस करवट बैठेंगे अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। ऐसे में नरेन्द्र मोदी की आगे की राह अभी इतनी आसान नहीं है। वैसे भी जो सच्चाई है वह नरेन्द्र मोदी के पक्ष में नहीं है। नरेन्द मोदी एक साधारण परिवार से अपने काम के बलबूते यहां तक पहुंचे हैं। लेकिन जब कोई राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति करना चाहता है तो उसे अपने ही दल के वरिष्ठ नेतृत्व का इसी तरह विरोध झेलना पडता है। क्षेत्रिय नेता जब किसी राष्ट्रीय नेता को किनारे करेगा तभी तो उसकी राष्ट्रीय पहचान बनेगी। पर पार्टी के शिखर पर काबिज नेतृत्व आसानी से किसी को ऊपर नहीं चढ़ने देता। नतीजतन दोंनो में खूब रस्साकशी चलती है। जो अब मोदी को झेलनी पडेगी।
 
दरअसल मोदी को लगने लगा था कि अब उन्हे राष्ट्रीय स्तर पर जाना है इसलिए वे अपनी छवि और अपने साधन जुटाने मे लगे रहे। जोकि राष्ट्रीय नेतृत्व की नाराजगी का कारण बना। राष्ट्रीय नेतृत्व चाहता है कि हर मुख्यमंत्री उनको नियमित हिस्सा भेजे जो पार्टी और संगठन चलाने के लिए जरूरी होता है। जो मुख्यमंत्री ऐसा नहीं कर पाते, उसका बोरिया बिस्तर गोल कर दिया जाता है। यह भी स्थापित तथ्य है कि पार्टी व संगठन को चलाने के लिए साधनों की जरूरत होती है। जिन्हे मुख्यमंत्री ही आसानी से जमा कर पाते हैं। नरेन्द्र मोदी इसके अपवाद नहीं हैं। ऐसे में यह साफ जाहिर कि मोदी को लगा होगा कि पार्टी के लिए धन मैं इकठ्ठा कर रहा हूँ तो क्यूं न दल की कमान भी मेरे हाथ मे दी जाये। इसलिए वे अपने मकसद मे सफल हुए। पर अभी कई इम्तिहान बाकी है। गुजरात का शेर या गुजरात के लौहपुरूष बताकर मोदी ने स्वंय को लगभग आधे गुजरातियों का नेता तो बना ही लिया। शेष आधे वो हैं जिन्होंने हाल के विधानसभा चुनाव मे मोदी को वोट नहीं दिया। इसके अलावा उ.प्र., राजस्थान और बिहार की आम जनता नरेन्द्र मोदी को वैसा भाव नहीं देती जैसा गुजरात की जनता देती है। ऐसे मे नरेन्द्र मोदी का चुनावी अभियान जहां भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं को उत्साहित करेगा और उनमे जोश भरेगा वही इन राज्यों के बहुत से मतदाताओं को सशंकित करेगा। ऐसे में उन्हें गुजरात से इतर रणनीति बनाकर चुनावी अभियान चलाना होगा। जो कितना सफल होगा, अभी नहीं कहा जा सकता। कुल मिलाकर साधारण पृष्ठ भूमि के नरेन्द्र मोदी के लिए यहां तक पहुंचना भी बहुत बडी उपलब्धि है। पर इससे देश के चुनावी समीकरण कितने बदलेंगे अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। आडवाणी - मोदी विवाद का एक लाभ भाजपा को जरूर मिला है कि उसने सारे मीडिया का ध्यान अपने दल की ओर आर्कषित करवा लिया इस विवाद से भाजपा को दोहरा लाभ होगा। धर्मनिरपेक्षता वाले लोगों को आडवाणी समर्थक लामबंद करेंगे और हिन्दूवादी सर्मथकों को मोदी खेमा लामबंद करेगा। अंततः दोंनो एक हो जायेंगे। इसे भाजपा का मास्टर स्ट्रोक मानना चाहिए। इसलिए आने वाले दिन जहां मोदी के लिए चुनौती भरे होंगे वही राजनैतिक रंगमंच पर अनेक रंग भी बिखेरेंगे।

Monday, June 3, 2013

कैसे निपटें नक्सलवाद से ?

छत्तीसगढ में हुए नक्सली हमले से कांग्रेस पार्टी ही नहीं पूरी राजनैतिक जमात हिली हुई है। नक्सलियों ने आज एक दल के नेतृत्व का सफाया किया है। कल किसी दूसरे दल का भी कर सकते हैं । टी वी चैनलों व अखबारों में इस मुद्दे पर खूब बहस चल रही है। जो जल्दी ही ठण्डी पड जायेगी जब तक कोई दूसरा हादसा न हो। समस्या सुलझने के आसार दिखाई नहीं देते। राज्य या केन्द्र की सरकारों की नीति स्पष्ट नहीं है। अगर वे इसे एक युद्ध के रूप मे देखती है तो यह सही नहीं। क्योंकि अपने ही लोगो के खिलाफ कोई सरकार युद्ध कैसे लड़ सकती है ?
 
जहाँ तक नक्सलवाद से जुडे ज्यादातर नौजवानों के समर्पण, त्याग, निष्ठा और शहादत की भावना का सवाल है, उस पर कोई सन्देह नहीं कर सकता। जो सवाल इन्होंने उठाये हैं वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। दरअसल ये नौजवान उन्हीं सवालों को उठा रहे हैं, जिन्हें हमारे संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों ने इस लोकतंत्र का लक्ष्य माना है। यह विडम्बना है कि आज आजादी के 62 वर्ष बाद भी हम इन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाये हैं। देश के करोड़ों बदहाल लोगों की जिंदगी सुधारने के लिए सरकारें दर्जनों महत्वाकांक्षी योजनाऐं बनाती आयी है। इन पर अरबों रूपये के आवण्टन किये गये हैं। पर जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी कहती है। कार्यपालिका के अलावा भी लोकतंत्र के बाकी तीन खम्बे अपनी अहमियत और स्वतंत्रता का ढिंढोरा पीटने के बावजूद इस देश के करोड़ों बदहाल लोगों को न तो न्याय दिला पाये हैं और न ही उनका हक। इसलिए नक्सलवाद जन्म लेता है। पर जिस तरह की वीभत्स हिंसा छत्तीसगढ मे हाल मे देखने को मिली वह कोई सामाजिक परिवर्तन की लडाई का नमूना नहीं बल्कि विकृत मानसिकता का परिचायक है। भोले भाले आदिवासियों को नक्सलवाद के नाम पर जो माओवादी गुमराह कर रहे है उनके पास इतनी भारी आर्थिक मदद और दुनिया के सर्वश्रेष्ठ हथियार कहाँ से आ रहे हैं ?
 
इसलिए सरकारों का सोचना भी पूरी तरह गलत नहीं हैं। अगर कुछ लोग कानून और व्यवस्था को गिरवी बना दें तो उनके साथ कड़े से कड़ा कदम उठाना ही पडता है। माओवादी हिंसा जिस तेजी से देश में फैल रही है, वह स्वाभाविक रूप से सरकार की चिंता का विषय होना चाहिए। पर यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है, क्या माओवाद का यह विस्तार आत्मस्फूर्त है या इसे चीन के शासनतंत्र की परोक्ष मदद मिल रही है ? खुफिया एजेंसियों का दावा है कि भारत में बढ़ता माओवाद चीन की विस्तावादी रणनीति का हिस्सा है। जो देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए गम्भीर खतरा बन गया है। ऐसे में इन युवाओं को यह सोचना चाहिए कि वे किसके हाथों में खेल रहे हैं। अगर दावा यह किया जाये कि चीन सही मामलों में घोर साम्यवादी देश है तो यह ठीक नहीं होगा। जबसे चीन ने आर्थिक आदान-प्रदान के लिए अपने द्वार खोले हैं तबसे भारत से अनेक बड़े व्यापारी और उद्योग जगत के बड़े अफसर नियमित रूप से चीन जाने लगे हैं। बाहर की चमक-दमक को छोड़कर जब वे चीन के औद्योगिक नगरों में पहुँचते हैं तो वहाँ चीन के निवासियों की आर्थिक दुर्दशा देखकर दंग रह जाते हैं। बेचारों से बन्धुआ मजदूर की तरह रात-दिन कार्य कराया जाता है। लंच टाइम में उनके चावल का कटोरा और पानी सी दाल देखकर हलक सूख जाता है। ‘हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते।’ रूस की क्रांति के बाद भी क्या रूस में सच्चा साम्यवाद आ सका ? मैं अभी-अभी रूस का दौरा करके लौटा हूँ। मास्को मे आज दुनिया के सबसे ज्यादा अरबपति रहते हैं। साम्यवादी शासन ने रूस में नौकरशाही और पोलितब्यूरो के नेताओं को खुला भ्रष्टाचार करने की छूट दी। वही लोग आज रूस मे सबसे ज्यादा धनी हैं। नेपाल में माओवादी क्रान्ति के बाद जो बदहाली फैली है वह किसी से छिपी नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि साम्यवादी लक्ष्यों जैसा आदर्श समाज हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह एक काल्पनिक आदर्श स्थिति है। धरातल की सच्चाई नहीं।
 
एक खतरनाक बात यह भी है कि इन हिंसक माओवादी गुटों को परोक्ष रूप से देश के कुछ मशहुर नेताओं का संरक्षण प्राप्त है। यह कहना है झारखण्ड मे नक्सलवाद के खिलाफ सफल अभियान चला चुके पूर्व पुलिस महानिदेशक शिवाजी महान कैरे का। सेवा निवृत्त होते ही उन्हें ‘स्टील किंग‘ लक्ष्मी मित्तल ने झारखण्ड मे नक्सलियों के खतरे के बीच अपनी लोहे की खानों से सुरक्षित खनन करवाने की ऐवज मे मुंहमांगे वेतन पर नौकरी का प्रस्ताव किया तो आध्यात्मिक रूचि वाले श्री कैरे ने यह कहकर ठुकरा दिया कि जो पैसे आप मुझे देंगे वे आप झारखण्ड और बिहार के ‘इन‘ राजनेताओं को दे दें तो आपकी समस्या का हल निकल जायेगा। उनका अनुभव और विश्वास है कि अगर सरकारें इन नक्सलवादी समूहों के नेताओं से बातचीत के रास्ते इनका दिमाग पलटने का प्रयास करें। इन्हें जो भी आश्वासन दिया जाये वह समय से पूरा किया जाये। व्यवस्था को लेकर इनकी शिकायतों पर गम्भीरता से ध्यान दिया जाये ताकि इनके आक्रोश का ज्वालामुखी फटने न पाये। दूसरी तरफ हिंसा पर उतारू माओवादियों से पूरी सख्ती से निपटा जाये तो समस्या का हल निकल सकता है। पर एक समस्या यह भी है कि आतंकवाद की ही तरह नक्सलवाद को पनपाये रखने में भी कुछ निहित स्वार्थो की भूमिका रहती है। जिनका खुलासा करना देश की खुफिया ऐजेन्सिओं की जिम्मेदारी है।
 
दूसरी तरफ अगर हमारे देश के कर्णधार ईमानदारी से गरीब के मुद्दों पर ठोस कदम उठाना शुरू कर दें तो नक्सलवाद खुद ही निरर्थक बन जायेगा। पर फिलहाल तो यह बड़ी चुनौती है। जिससे जल्दी निपटना होगा वरना हालात बेकाबू होते जायेंगे। भारत आतंकवाद, पाकिस्तान, चीन से तो सीमाओं पर उलझा ही रहता है। ऐसे में अगर घरेलू स्थिति को माओवादी अशांत कर देंगे तो केन्द्र व प्रान्तीय सरकारों के लिए भारी मुश्किल पैदा हो जायेगी।