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Monday, March 13, 2023

भीषण गर्मी की आहट डरा रही है

पिछले कुछ हफ़्तों से, मौसम वैज्ञानिकों के हवाले से, ये खबर आ रही है कि इस साल भीषण गर्मी पड़ने वाली है। इसके संकेत तो पिछले महीने ही मिलने शुरू हो गये थे जब दशकों बाद फ़रवरी के महीने में तापमान काफ़ी ऊँचा चला गया। इस खबर से सबसे ज़्यादा चिंता कृषि वैज्ञानिकों और किसानों को है। ऐसी भविष्यवाणियाँ की जा रही हैं कि अभी से बढ़ती जा रही गर्मी आने वाले हफ़्तों में विकराल रूप ले लेगी। जिससे सूखे जैसे हालत पैदा हो सकते हैं। ख़रीब की फसल पर तो इसका बुरा असर पड़ेगा ही पर रवि की उपज पर भी विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि इस बढ़ती गर्मी के कारण गेहूं का उत्पादन काफ़ी कम रहेगा। इसके साथ ही फल और सब्ज़ियों के उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। नतीजतन खाद्य पदार्थों के दामों में काफ़ी बढ़ौतरी कि संभावना है। कितना असर होगा ये तो अप्रैल के बाद ही पता चल पाएगा पर इतना तो साफ़ है कि कम पैदावार के चलते किसान बुवाई भी कम कर देंगे। जिसका उल्टा असर ग्रामीण रोज़गार पर पड़ेगा। दरअसल गर्मी बढ़ने का एक प्रमुख कारण सर्दियों में होने वाली बारिश का लगातार कम होते जाना है। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार दिसंबर, जनवरी और फ़रवरी में औसत तापमान से एक या दो डिग्री ज़्यादा दर्ज किया गया है। इतना सा तापमान बढ़ने से बारिश की मात्रा घट गई है। 


ये तो रही कृषि उत्पादनों की बात, लेकिन अगर शहरी जीवन को देखें तो ये समस्या और भी बड़ा विकराल रूप धारण करने जा रही है। हमारा अनुभव है कि गर्मियों में जब ताल-तलैये सूख जाते हैं और नदियों में भी जल की आवक घट जाती है तो सिंचाई के अलावा सामान्य जन-जीवन में भी पानी का संकट गहरा जाता है। नगर पालिकाएँ आवश्यकता के अनुरूप जल की आपूर्ति नहीं कर पाती। इसलिए निर्बल वर्ग की बस्तियों में अक्सर सार्वजनिक नलों पर संग्राम छिड़ते हुए देखे जाते हैं। नलों में पानी बहुत कम देर के लिए आता है। मध्यम वर्गीय परिवारों को भी अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप पानी एकत्र करने के लिए काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है। राजनेताओं, अधिकारियों और संपन्न लोगों को इन विपरीत परिस्थितियों में भी जल संकट का सामना नहीं करना पड़ता। क्योंकि ये लोग आवश्यकता से कई गुना ज़्यादा जल जमा कर लेते हैं। असली मार तो आम लोगों पर पड़ती है। 

भीषण गर्मी पड़ने के साथ अब लोग कूलर या एयर कंडीशनर की तरफ़ भागते हैं। इससे जल और विद्युत दोनों का संकट बड़ जाता है। हाइड्रो पावर प्लांट में जल आपूर्ति की मात्रा घटने से विद्युत उत्पादन गिरने लगता है। जैसे-जैसे समाज पारंपरिक तरीक़ों को छोड़ कर बिजली से चलने वाले उपकरणों की तरफ़ बढ़ रहा है वैसे-वैसे वातावरण और भी गर्म होता जा रहा है। एयर कंडीशनरों से निकलने वाली गैस भी वातावरण को प्रदूषित करने और गर्मी बढ़ाने का काम कर रही है। 1974-76 के बीच मैं एक स्वयंसेवक के रूप में मुरादाबाद के निकट अमरपुरकाशी गाँव में समाज सेवा की भावना से काफ़ी समय तक रहा। इस दौरान हर मौसम में गाँव के जीवन को जिया। मुझे याद है कि मई जून की तपती गर्मी और लू के बावजूद हम सब स्वयंसेवक दोपहर में खुले दालान पर नीम के पेड़ की छाया में सोया करते थे। तब वो छाया ही काफ़ी ठण्डी लगती थी। गर्म लू जब पसीना सुखाती थी तो शरीर में ठंडक महसूस होती थी। इसी तरह रात में छत पर पानी छिड़क कर सब सो जाते थे। रात के ग्यारह-बारह बजे तक तो गर्म हवा चलती थी, फिर धरती की तपिश ख़त्म होने के बाद ठण्डी हवा चलने लगती थी। सूर्योदय के समय की बयार तो इतनी स्फूर्तिदायक होती थी कि पूरा शरीर नई ऊर्जा से संचालित होता था। वहाँ न तो फ्रिज का ठण्डा पानी था, न कोई और इंतज़ाम। लेकिन हैंडपम्प का पानी या मिट्टी के घड़े का पानी शीतलता के साथ सौंधापन लिये शरीर के लिए भी गुणकारी होता था। जबकि आज आरओ के पानी ने हम सबको बीमार बना दिया है। क्योंकि आरओ की मशीन जल के सभी प्राकृतिक गुणों को नष्ट कर देती है। कुएँ से एक डोल पानी खींच कर सिर पर उड़ेलते ही सारे बदन में फुरफुरी आ जाती थी। जिस से दिन भर के श्रमदान की सारी थकावट क्षणों में काफ़ूर हो जाती थी। 


आजकल हर व्यक्ति, चाहे उसकी हैसियत हो या न हो शरीर को कृत्रिम तरीक़े से ठण्डा रखने के उपकरणों को ख़रीदने की चाहत रखता है। हम सब इसके शिकार बन चुके हैं और इसका ख़ामियाज़ा मौसम के बदले मिज़ास और बढ़ती गर्मी को झेल कर भुगत रहे हैं। इस आधुनिक दिनचर्या का बहुत बुरा प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ रहा है। हर शहर में लगातार बढ़ते अस्पताल और दवा की दुकानें इस बात का प्रमाण हैं कि ‘सुजलाम् सुफलाम् मलय़जशीतलाम्, शस्यश्यामलाम्’ वाले देश के हम सब नागरिक बीमारियों से घिरते जा रहे हैं। न तो हमें अपने भविष्य की चिंता है, न ही सरकारों को। समस्याएँ दिन प्रतिदिन सुलझने के बजाए उलझती जा रही हैं।

दूसरी तरफ़ हर पर्यावरणविद् मानता है कि पारंपरिक जलाशयों को सुधार कर उनकी जल संचय क्षमता को बढ़ा कर और सघन वृक्षावली तैयार करके मौसम के मिज़ाज को कुछ हद तक बदला भी जा सकता है। प्रधान मंत्री मोदी का जल शक्ति अभियान और बरसों से चले आ रहे वृक्षारोपण के सरकारी अभियान अगर ईमानदारी से चलाए जाते तो देश के पर्यावरण की हालत आज इतनी दयनीय न होती। सभी जानते हैं कि सरकार द्वारा जहां एक ओर तो वृक्षारोपण व तालाब खोदने को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं जमीनी स्तर पर कथनी और करनी में काफ़ी अंतर है। मिसाल के तौर पर जालौन क्षेत्र में 400 छोटे बांध बनाए गए थे। इनमें से आधे से ज्यादा तबाह हो चुके हैं। ललितपुर जिले में जल संरक्षण के लिए तीन करोड़ रुपये से चल रहा काम निरर्थक हो चुका है। इसी इलाके में बादहा और रसिन बांध के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च हुए, लेकिन इनका भी नतीजा शून्य ही रहा। उधर मथुरा में 2019 दावा किया गया कि सरकार द्वारा 1086 कुंड गहरे खोद कर जल से लबालब भर दिए गए हैं जबकि जमीनी हकीकत इसके बिलकुल विपरीत पाई गई। 

Monday, August 16, 2021

बढ़ता जल संकट: एक ओर बाढ़ तो दूसरी ओर सूखा


आज देश में जल संकट इतना भयावह हो चुका है कि एक ओर तो देश के अनेक शहरों में सूखा पड़ा हुआ है तो दूसरी ओर कई शहर बाढ़ की चपेट में हैं। इस सबसे आम जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है। चेन्नई देश का पहला ऐसा शहर हो गया है जहां भूजल पूरी तरह से समाप्त हो चुका है। जहां कभी चेन्नई में 200 फुट नीचे पानी मिल जाता था आज वहाँ भूजल 2000 फुट पर भी पानी नहीं है। यह एक गम्भीर व भयावह स्थिति है। ये चेतावनी है भारत के बाकी शहरों के लिए कि अगर समय से नहीं जागे तो आने वाले समय में ऐसी दुर्दशा और शहरों की भी हो सकता है। चेन्नई में प्रशासन देर से जागा और अब वहाँ बोरिंग को पूरी तरह प्रतिबंध कर दिया गया है।
 


एक समय वो भी था जब चेन्नई में खूब पानी हुआ करता था। मगर जिस तरह वहां शहरीकरण हुआ उसने जल प्रबंधन को अस्त व्यस्त कर दिया। अब चेन्नई में हर जगह सीमेंट की सड़क बन गई है। कही भी खाली जगह नहीं बची, जिसके माध्यम से पानी धरती में जा सके। बारिश का पानी भी सड़क और नाली से बह कर चला जाता है कही भी खाली जगह नहीं है जिससे धरती में पानी जा सके। इसके अलावा प्रशासन ने आम लोगों से आग्रह किया है कि वे अपने घरों के नीचे तलघर में बारिश का जल जमा करने का प्रयास करें। ताकि कुछ महीनों तक उस पानी का उपयोग हो सके। 


दरअसल, चेन्नई हो या उस जैसा देश का कोई और नगर, असली समस्या वहाँ की वाटर बॉडीज पर अनाधिकृत क़ब्जे की है। जिस पर भवन आदि बनाकर जल को भूमि के अंदर जाने से रोक दिया जाता है। चूँकि चेन्नई समंदर के किनारे है इसलिए थोड़ी सी बारिश से भी पानी नालों व पक्की सड़को से बहकर समंदर में चला जाता है। भूमि के नीचे अगर पानी किसी भी रास्ते नहीं जाएगा तो जल स्रोत समाप्त हो ही जाएँगे। जल आपदा नियंत्रण सरकार की एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी होती है। लेकिन जिस तरह अवैध भवन बन जाते हैं और हादसे होने के बाद ही सरकार जागती है। उसी तरह जल आपदा के संकट को भी यदि समय रहते नियंत्रित न किया जाए तो यह समस्या काफ़ी गम्भीर हो सकती है। 


अब बात करें सूखे और अकाल का पर्याय बन चुके बुंदेलखंड की जहां इस वर्ष भारी बारिश हुई है। आँकड़ों के अनुसार पिछले साल हुई 372 मिलीमीटर बारिश के मुक़ाबले इस साल अगस्त के दूसरे सप्ताह तक औसत 1,072 मिलीमीटर वर्षा हो चुकी है। जो कि पिछले 20 सालों का रिकॉर्ड है। ग़ौरतलब है कि बुंदेलखंड का यह संकट नया नहीं है। सूखे के बाद बाढ़ के संकट के पीछे बिगड़ते हुए पर्यावरण, खासकर अनियंत्रित खनन, नदियां से रेत का खनन, वनों के विनाश तथा परंपरागत जलस्रोतों के नाश जैसे कारणों को माना जा सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो यह पिछले कुछ सालों से प्राकृतिक पर्यावरण की उपेक्षा करके अपनाए गए विकास मॉडल की वजह से पैदा होने वाले दीर्घकालीन जलवायु परिवर्तन का नतीजा है। सरकार द्वारा इसके लिए किए जाने वाले तात्कालिक उपाय नाकाफी हैं। 


सभी जानते हैं कि सरकार द्वारा जहां एक ओर तो वृक्षारोपण व तालाब खोदने को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं जमीनी स्तर पर कथनी और करनी में काफ़ी अंतर है। मिसाल के तौर पर जालौन क्षेत्र में 400 छोटे बांध बनाए गए थे। इनमें से आधे से ज्यादा तबाह हो चुके हैं। ललितपुर जिले में जल संरक्षण के लिए तीन करोड़ रुपये से चल रहा काम निरर्थक हो चुका है। इसी इलाके में बादहा और रसिन बांध के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च हुए, लेकिन इनका भी नतीजा शून्य ही रहा। उधर मथुरा में 2019 दाबा किया गया कि सरकार द्वारा 1086 कुंड जल से लबालब भर दिए गए हैं जबकि जमीनी हकीकत इसके बिलकुल विपरीत पाई गई।  


बुंदेलखंड का पंजाब कहा जाने वाला जालौन जिला, खेती की दृष्टि से सबसे उपयुक्त है। पंजाब की तरह यहां भी पांच नदियां-यमुना, चंबल, सिंध, कुमारी और पहुज आकर मिलती हैं। आज यह पूरा इलाका बाढ़ से जूझ रहा है। बेमौसम की बारिश ऐसी तबाही मचा रही है कि यहाँ के किसान बर्बादी की कगार पर पहुंच गए हैं। कर्ज लेकर तिल, मूंगफली, उड़द, मूंग की बुआई करने वाले किसानों का मूलधन भी डूब रहा है। 


इसी अगस्त माह की शुरुआत के दिनों में राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में हुई भारी बारिश के कारण भारी संकट पैदा हो गया। इन क्षेत्रों में बाढ़ को रोकने और बढ़ते जल स्तर को नियंत्रित करने के लिए राजस्थान के कोटा स्थित बैराज के 10 गेट खोलकर 80 हजार क्यूसेक पानी की निकासी की गई। जिसके कारण चंबल नदी के जल स्तर में अचानक वृद्धि हो गई। परिणामतः चंबल तथा इसकी सहायक नदियों-सिंध, काली सिंध एवं कूनो के निचले इलाकों में बाढ़ के हालात उत्पन्न हो गए। चंबल में आई बाढ़ ने राजस्थान के कोटा, धौलपुर तथा मध्य प्रदेश के मुरैना व भिंड आदि जिलों से होते हुए उत्तर प्रदेश के जनपद जालौन को भी अपनी चपेट में ले लिया।


बुंदेलखंड में लगातार पड़ने वाले सूखे से निपटने के लिए केंद्र व राज्य सरकार हजारों करोड़ रुपया खर्च कर चुकी है यह बात दूसरी है कि इस सबके बावजूद जल प्रबंधन की कोई भी योजना अभी तक सफल नहीं हुई है। बाढ़ के इस प्रकोप के बाद भी अगर जल संचय की उचित और प्रभावी योजना नहीं बनाई गई तो हालात कभी नहीं सुधरेंगे। इतनी वर्षा के बाद बुंदेलखंड में, अनेक वर्षों से किसानों के लिए प्रतिकूल होते हुए मौसम का कुछ भी फ़ायदा किसानों को नहीं मिल पाएगा। इसलिए समय की माँग है कि बुंदेलखंड व ऐसे अन्य इलाकों में स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल जल संरक्षण और संचयन की दीर्घकालीन योजना बनाई जाए। एक समस्या और है और वो शाश्वत है। योजना कितनी भी अच्छी हो अगर उसके क्रियान्वयन में भारी भ्रष्टाचार होगा, जैसा कि आज तक होता आ रहा है तो फिर रहेंगे वही ढाक के तीन पात।  

Monday, June 27, 2016

अच्छे मानसून के बावजूद कितने निश्चिंत हैं हम ?

देश में मानसून की स्थिति पर नजर रखने वालों का ध्यान लगता है कि कहीं और लगा है। हर साल मौसम विभाग भी बहुत चैकस दिखता था। लेकिन इस बार मानसून आने के एक महीने पहले जो पूर्वानुमान मौसम विभाग ने बताए थे उसके बाद वह अपनी साप्ताहिक विज्ञप्ति जारी करने के अलावा ज्यादा कुछ बता नहीं पा रहा है। उसकी साप्ताहिक विज्ञप्तियों को देखें तो इस मानसून में अब तक औसत बारिश औसत से दस फीसद कम हुई है। जबकि मानसून के चार महीनों का अनुमान नौ फीसद ज्यादा बारिश होने का लगा था।

मानसून की अबतक की स्थिति का विश्लेषण करें तो दो अंदेशे पैदा हो गए हैं। एक यह कि अगर पूरे मानसून का अनुमान सही होने पर विश्वास करके चलें तो अब बाकी के दिनों में भारी बारिश का अंदेशा है और अगर अब तक के आंकड़ों के हिसाब से मानसून के मिजाज का अंदाजा लगाएं तो इस बार लगातार तीसरे साल  बारिश औसत से  कम होने का डर भी है।

अगर बारिश का अनुमान सही निकला तो आज की स्थिति यह है कि देश में एक साथ ज्यादा पानी गिरने से बाढ़ की आशंका सिर पर आकर खड़ी हो गई है। विशेषज्ञ जल विज्ञानी के के जैन के मुताबिक देश में सूखे पड़ने की आवृत्ति बढ़ रही है। आंकड़े बता रहे हैं कि पहले जहां 16 साल में एक बार सूखा पड़ता था वहां पिछले तीन दशकों से हर सोलह साल में तीन बार सूखा पड़ने लगा है। विशेषज्ञों की इस बात पर गौर करने का समय आ गया है कि बदलते हालात में हमें बारिश के पानी को बाकी के आठ महीनों के लिए रोक कर रखने के फौरन ही अतिरिक्त प्रबंध करने होंगे।

उधर इन विशेषज्ञों का यह अध्ययन भी ध्यान देने लायक हो गया है कि देश में जल संचयन या जल भंडारण की क्षमता बढ़ाने से हम बाढ़ की समस्या पर भी काबू पा लेंगे। अभी जो ज्यादा बारिश होने से अतिरिक्त पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में जाता है वह देश की 32 करोड़ हैक्टेयर जमीन पर जहां तहां कुंडों और पोखरों में जमा होकर नदियों को उफनने से रोक देगा और यही पानी सिंचाई की जरूरतों के दिनों में भी काम आने लगेगा। इससे बड़ी शर्मिंदगी की बात क्या हो सकती है कि किसी देश में उसी साल बाढ़ आए और उसी साल सूखा भी पड़ने लगे। सन् 2016 का यह साल इस जल कुप्रबंधन का जीता जागता उदाहरण बनने वाला है। हद की बात यह है कि वर्षा के सटीक अनुमान लगाने में सक्षम होने के बाद हमारी यह स्थिति है।

यह साल इस मायने में भी हमारी पोल खोलने जा रहा है कि अगर बाढ़ के हालात बने तो जानमाल का भारी नुकसान होगा। और अगर वर्षा का अनुमान गलत निकला, यानी पानी कम गिरा तो लगातार तीसरे साल सूखे के हालात को भुगतना पड़ेगा। तीसरी स्थिति सामान्य बारिश की बनती है। यह भी सुखद स्थिति का आश्वासन नहीं दे रही है। इसका तर्क यह है कि देश की आबादी हर साल दो करोड़ की रफ्तार से बढ़ रही है। यानी हमें हर साल डेढ़ फीसद ज्यादा पानी का प्रबंध करना ही करना है।

जल विज्ञानी बताते हैं कि अभी हमारी जल संचयन क्षमता सिर्फ 253 घन किलोमीटर पानी को रोककर रखने की है। यह पानी खेती की कुल जमीन में से आधे खेतों तक को सींचने के लिए पर्याप्त नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो खेती लायक देश की आधी से जयादा जमीन पर बारिश के भरोसे ही खेती हो रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण हो या अपने जल कुप्रबंध के कारण हो या फिर बढ़ती आबादी के कारण हो, यह बात सामने दिखने लगी है कि जरूरत के दिनों में पानी कम पड़ने लगा है।

भले ही अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के लिहाज से भारत आज जल विपन्न देशों की श्रेणी में आ गया हो, लेकिन आंकड़े बता रहे है कि अभी भी हमारे पास पांच सौ घन किलोमीटर पानी रोकने की गुंजाइश बाकी है। यानी हम अपनी जल भंडारण क्षमता दुगनी करने लायक अभी भी हैं। बस दिक्कत यही है कि जल परियोजनाओं पर खर्चा बहुत होता है। मोटा अनुमान है कि जल के संकट से उबरने के लिए कम से कम एकमुश्त पांच लाख करोड़ का निवेश चाहिए। इससे कम में अब काम इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि फुटकर-फुटकर जो काम हम इस समय कर रहे हैं वह तो बढ़ती आबादी की न्यूनतम जरूरत पूरी करने के लिए भी नाकाफी है।

इन तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस बार मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही निकलने के बाबजूद हम देश में पर्याप्त अनाज, दालों और दूसरे कृषि उत्पादन को लेकर निश्चिंत नहीं हैं। कृषि प्रधान देश में जहां दो तिहाई आबादी आज भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर हो, वहां देश की मुख्य नीति अगर कृषि को केंद्र में रखकर न हो तो आने वाले दिनों में संकट को कौन रोक सकता है ?

Monday, September 1, 2014

कुण्ड ही हैं सूखे से राहत का कारगर तरीका

 
इस साल भी देश के ज्यादातर हिस्सों में सूखे की मार पड़ रही है। किसान हाहाकार कर रहे हैं। मीडिया अपना काम ही समस्या को बताना ही समझता है, लिहाजा सूखे की तीव्रता को बताने का काम वह गंभीरता से  करता रहता है। लेकिन हैरत की बात यह है कि इसके समाधान या इस सूखे की मार से बचाव के उपायों पर उतनी गंभीरता से कुछ भी होता नहीं दिखता। सरकारें और सरकारी एजेंसियां ऐसे मौकों पर समस्या की गेंद एक-दूसरे के पाले में फेंकने के अलावा कुछ खास करती नहीं दिखती। कुछ करती दिखती हैं, तो बस इतना कि पीड़ित इलाकों को सूखाग्रस्त घोषित करती हैं और सांकेतिक मुआवजे का मरहम लगाकर अपने फर्ज की इतिश्री समझती हैं।
 
सूखे या बाढ़ की समस्या का एक बड़ा ही शातिराना पहलू यह है कि इस समस्या के कारणों को आसमानी  या सुल्तानी मार बताकर बड़ी चतुराई से आसमानी साबित कर दिया जाता है। लेकिन क्या सूखे को महज प्राकृतिक विपदा कहकर यूं ही छोड़ सकते हैं ? 2 दिन पहले ब्रज क्षेत्र में चैरासी कोसीय परिक्रमा मार्ग पर इनोवेटिव इंडियन फाउण्डेशन की टीम कुछ गांवों में कुण्डों और जलाशयों का जायजा ले रही थी। संस्था के निदेशक संकर्षण कुण्ड पर पुनर्रोद्धार कार्य का जायजा लेने भी रूके थे। वहां जमा पास के आन्यौर गांव वालों ने उन्हें परिक्रमा मार्ग से 2 किलोमीटर भीतर ले जाकर अपने खेतों की हालत दिखाई। आईआईएफ के विशेषज्ञों को देखकर बड़ी हैरानी हुई कि सरकार की भरी-पूरी प्रणालियों की मौजूदगी के बावजूद बिना पानी के उनकी धान की फसलें तबाह हो चुकी थीं।
 
इसी दौरान इन विशेषज्ञों ने महाजलप्रबंधन और ब्रज में भगवान श्रीकृष्ण और राधारानी की लीलास्थलियों को संवारने में जुटी संस्था द ब्रज फाउण्डेशन के परियोजना निदेशक से भी बात की। उनसे ब्रज क्षेत्र के इन कुण्डों के उपयोगिता की भी चर्चा की। एक खास बात यह है कि आसमानी आफत से निपटने के लिए प्राचीनकाल से ही कुण्ड, तालाब और जलाशय बनते आए हैं। लेकिन आज शहरीकरण और भवन निर्माण की अपनी रोज बढ़ती जरूरतों के कारण नए कुण्ड और तालाब बनाना तो दूर पुरानी धरोहरों को भी हम बेदर्दी से मिटाने में लगे हैं। ऐसे कुण्ड और तालाब मैट्रोलॉजिकल ड्राउट यानी मौसमी सूखे के दौरान राहत देने के काम आते थे। अगर आधुनिक जलविज्ञान से किए गए उपाय यानी सिंचाई के प्रबंध को देखें, तो उसकी सीमाओं के कारण उत्पन्न होने वाली समस्या यानी हाइड्रोलिक ड्राउट के दौरान भी कुण्डों में जल होने से एग्रीकल्चरल ड्राउट के अंदेशे कम हो जाते हैं। अगर इस बात को सरलता से कहें, तो कुछ इस तरह से कहा जाएगा कि अगर पानी न बरसे और हमारी जलप्रबंध प्रणाली में जमा पानी भी न बचे, तो ये कुण्ड और तालाब खेतों में न्यूनतम पानी या नमी बनाए रखकर प्राणदायक की भूमिका निभाते थे।
 
फिलहाल निर्माणाधीन संकर्षण कुण्ड अगर अपनी मूल स्थिति में आता है, तो गोवर्धन पर्वत की तलहटी में बसे गांव आन्यौर के खेतों में भूमिगत जलस्तर आश्चर्यजनक रूप से खुद-ब-खुद उपर आ सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि पूरे उ0प्र0 के 9 लाख से ज्यादा तालाबों, पोखरों और कुण्डों का हिसाब लगाएं, तो इनकी क्षमता 10 हजार करोड़ रूपये की लागत वाले किसी भी बड़े से बड़े बांध की क्षमता से कम नहीं होगी। एक मोटा अनुमान है कि इन कुण्डों और तालाबों के जीर्णोद्धार, पुनरोद्धार या पुर्ननिर्माण पर आधी से कम रकम खर्च करके वहां गिरा पानी वहीं जमा किया जा सकता है। बाढ़ की विभीषिका कम की जा सकती है और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कि आसमानी हो या सुल्तानी हो, सूखे जैसे समस्या से निपटने का एक स्वचालित प्रबंध बड़ी आसानी से किया जा सकता है।
 
लगे हाथ यह कह लेना भी जरूरी लगता है कि सूखे की समस्या भले ही कालजयी साबित हो रही हो, लेकिन आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी का काम उसके समाधान के लिए उपाय ढूढ़ना है। जब हमारे पास पारंपरिक ज्ञान उपलब्ध हो, ऐतिहासिक निर्माण कार्य के प्रत्यक्ष प्रमाण हों, और चिंतनशील विशेषज्ञ हों, तो सूखे जैसी आसमानी आफत से बचाव के उपाय हम क्यों नहीं कर सकते ? इसके लिए प्रबल राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है।