Monday, August 19, 2019

अचानक क्यों बढ़ रही हैं देश की आर्थिक हालत की चर्चाएँ

देश की आर्थिक स्थिति को लेकर मीडिया में चर्चाएं अचानक बढ़ गई हैं। पिछली तिमाहीं में कार और दो पहिया वाहनों की माँग में तेज़ी से आयी गिरावट के बाद तो कुछ ज्यादा ही चिंता जताई जाने लगी है। उधर विश्व में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भारत का ओहदा घट जाने की खबर ने भी ऐसी चर्चाओं को और हवा दे दी। अंदरूनी तौर पर वास्तविक स्थिति क्या है, इसका पता फ़ौरन नहीं चलता। हकीकत बाद में पता चलेगी। लेकिन फिलहाल सरकार उतनी चिंतित नहीं दिखाई देती। उसके पास कुछ तर्क भी हैं। मसलन जीएसटी से कर संग्रह पर असर पड़ा नहीं दिख रहा है। दूसरा तर्क यह कि अपने देश में उत्पादन में सुस्ती का एक कारण वैश्विक मंदी है। बहरहाल, आर्थिक हालत अभी उतनी बुरी न सही लेकिन आगे के लिए सतर्कता बरतना हमेशा ही जरूरी माना जाता है।
सकल घरेलू उत्पाद में आधा पौन फीसद की घटबढ़ एक रूझान तो हो सकता है लेकिन यह किसी आफत का लक्षण नहीं कहा जा सकता। इसी आंकड़े से देश की अर्थव्यवस्था का आकार तय होता है। हाल ही में हम विश्व में पांचवे से खिसककर सातवें पर भले ही आ गए हों लेकिन यह उतनी चिंताजनक बात है नहीं। बल्कि यह आंकड़ा हमें उत्पादक कामकाज में सुधार के लिए प्रेरित कर सकता है। 
पिछली तिमाही में वाहनों की बिक्री में फिलहाल कमी ही दिखी है, ये उघोग खत्म नहीं हो गया है। विशेष प्रयासों से देश में आर्थिक गतिविधियाँ कभी भी बढ़ाई जा सकती हैं। देश में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ाने के कई उपाय किए जा सकते है और स्थिति को सुधारा जा सकता है। खबरें हैं कि वित्तमंत्री इस काम पर लग भी गई हैं। फिर भी सावधानी के तौर पर  यह समय देश की माली हालत के कई पहलुओं पर गौर करने का जरूर है।
आर्थिक मामलों के जानकार बताते रहते हैं कि अपने देश की अर्थव्यवस्था तीन क्षेत्रों में वृद्धि से तय होती है। ये क्षेत्र हैं विनिर्माण, सेवा और कृषि। मौजूदा चिंता विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में सुस्ती से उपजी है। कृषि को कोई लेखे में नही ले रहा है। भले ही जीडीपी में कृषि का योगदान थोड़ा सा ही बचा हो लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि कृषि ही वह क्षेत्र है जो देश में आधी से ज्यादा आबादी को उत्पादक काम में लगाए हुए है। और यही वह क्षेत्र है जिसमें बेरोजगारी की समस्या ज्यादा बढ़ गई है। इसी क्षेत्र के लोगों को उत्पादक कार्यो में लगाने की गुंजाइश भी है और मौजूदा हालात से निपटने का मौका भी इसी क्षेत्र में बन सकता है।
कई विद्वानों की तरफ से सुझाव मिल रहा है कि देश में किसी भी तरह से मांग बढ़ाने की कोशिश होनी चाहिए। लेकिन मांग बढ़ाने के लिए क्या यह जरूरी नहीं कि लोगों की जेब में ज्यादा पैसा हो। सरकार ने किसानों के बैंक खातों में हर महीने पांच सौ रूप्ए डालने का फैसला किया था। इस योजना में  सरकारी खजाने से हर साल 90 हजार करोड़ निकल कर किसानों की जेब में जाना है। कुछ विश्लेषकों ने अंदाजा लगाया था कि यह रकम देश में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ा देगी और उत्पादन में सुस्ती कम होगी। लेकिन पिछले छह महीनों का अनुभव यह है कि इस योेजना का ऐसा असर अभी दिखा नहीं है। हो सकता है कि इस कारण से न दिखा हो क्योंकि अभी यह रकम सभी किसानों के खातों में पहुंच नहीं पाई है। अगर वाकई देश में मांग घटने की समस्या बड़ी होती जा रही है तो किसानों को रकम भेजने का काम फौरन तेज किया जाना चाहिए। लोगों की जेबों में पैसा डालने के तरीके अपनाए जाने चाहिए।
सरकार के स्तर पर सतर्कता बरतने के लिए एक क्षेत्र और है। यह मामला भी कृषि क्षेत्र से जुड़ा है। वह ये है कि देश में बारिश के आंकड़े सामान्य नहीं हैं। बारिश के दो महीने से ज्यादा गुजरने के बाद भी देश में नौ फीसद वर्षा कम हुई है। आने वाले समय में अगर देश में औसम वर्षा की भरपाई न हुई तो कृषि उत्पादन पर भारी असर पड़ सकता है। वैसे यह अभी उतनी चिंता की बात नहीं है। फिर भी किसी ख़तरे की आशंका पर नज़र तो रखनी ही पड़ेगी।
आर्थिक मंदी की सबसे ज़्यादा मार रोजगार पर पड़ती है। हम पहले से ही बेरोेजगारी से परेशान हैं। इस तरह से वर्तमान परिस्थितियों में अगर सबसे ज्यादा सतर्कता की जरूरत है तो वह बेरोज़गारी के मोर्चे पर चैकस रहने की है।
एक तबका महंगाई को लेकर परेशानी जता रहा है। हालांकि यह शिकायत खाने पीने की कुछ चीजों को लेकर है। लेकिन देश में महंगाई की चिंता का तुक बैठता नहीं है। जहां मंदी के लक्षण हो वहां शुरूआती तौर पर माल बिकने की ही परेशानी खड़ी होती है और दाम गिरते हैं। विद्वानों ने इस बात पर ज्यादा गौर नहीे किया है कि पिछला एक साल खाद्य महंगाई की दर ज्यादा नहीं बढ़ने का रहा है। कृषि उत्पाद के दाम न बढ़ने से किसान बहुत परेशान रहे हैं। देश में मौसम की गड़बड़ी उनको और ज्यादा चिंता में डाले है। 

कुल मिलाकर मंदी की आहट के इस दौर में सरकार को अगर किसी की चिंता करने की जरूरत है तो सबसे ज्यादा किसानों की चिंता करने की है।

Monday, August 12, 2019

अब कश्मीर में क्या होगा?


जहाँ सारा देश मोदी सरकार के कश्मीर कदम से बमबम है वहीं अलगाववादी तत्वों के समर्थक अभी भी मानते हैं कि घाटी के आतंकवादी फिलिस्तानियों की तरह लंबे समय तक आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहेंगे। जिसके कारण अमरीका जैसे-शस्त्र निर्माता देश भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव को बढ़ाकर हथियारों बिक्री करेंगे। उनका ये भी मानना है कि केंद्र के निर्देश पर जो पूंजी निवेश कश्मीर में करवाया जाएगा, उसका सीधा लाभ आम आदमी को नहीं मिलेगा और इसलिए कश्मीर के हालात सामान्य नहीं होंगे। पर ये नकारात्मक सोच है।

इतिहास गवाह है कि मजबूत इरादों से किसी शासक ने जब कभी इस तरह के चुनौतीपूर्णं कदम उठाये हैं, तो उन्हें अंजाम तक ले जाने की नीति भी पहले से ही बना ली होती है।

कश्मीर में जो कुछ मोदी और शाह जोड़ी ने किया, वो अप्रत्याशित और ऐतिहासिक तो है ही, चिरप्रतिक्षित कदम भी है। हम इसी कॉलम में कई बार लिखते आए हैं, कि जब कश्मीरी सारे देश में सम्पत्ति खरीद सकते हैं, व्यापार और नौकरी भी कर सकते हैं, तो शेष भारतवासियों को कश्मीर में ये हक क्यों नहीं मिले?

मोदी है, तो मुमकिन है। आज ये हो गया। जिस तरह का प्रशासनिक, फौजी और पुलिस बंदोबस्त करके गृहमंत्री अमित शाह ने अपनी नीति को अंजाम दिया है, उसमें अलगावादी नेताओं और आतंकवादियों के समर्थकों के लिए बच निकलने का अब कोई रास्ता नहीं बचा। अब अगर उन्होंने कुछ भी हरकत की, तो उन्हें बुरे अंजाम भोगने होंगे। जहां तक  कश्मीर की बहुसंख्यक आबादी का प्रश्न है, वो तो हमेशा ही आर्थिक प्रगति चाहती है। जो बिना अमन-चैन कायम हुए संभव नहीं है। इसलिए भी अब कश्मीर में अराजकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची।

कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर, गृहमंत्री ने वहंा की कानून व्यवस्था पर अपना सीधा नियंत्रण स्थापित कर लिया है। अब जम्मू-कश्मीर पुलिस की जबावदेही वहां के मुख्यमंत्रियों के प्रति नहीं, बल्कि केंद्रीय गृहमंत्री के प्रति होगी। ऐसे में अलगाववादी शक्तियों से निपटना और भी सरल होगा।

जहां तक स्थानीय नेतृत्व का सवाल है। कश्मीर की राजनीति में मुफ्ती मोहम्मद सईद और मेहबूबा मुफ्ती ने सबसे ज्यादा नकारात्मक भूमिका निभाई है। अब ऐसे नेताओं को कश्मीर में अपनी जमीन तलाशना मुश्किल होगा। इससे घाटी में से नये नेतृत्व के उभरने की संभावनाऐं बढ़ गई हैं। जो नेतृत्व पाकिस्तान के इशारे पर चलने के बजाय अपने आवाम के फायदे को सामने रखकर आगे बढ़ेगा, तभी कामयाब हो पाऐगा।

जहां तक कश्मीर की तरक्की की बात है। आजादी के बाद से आज तक कश्मीर के साथ केंद्र की सरकार ने दामाद जैसा व्यवहार किया है। उन्हें सस्ता राशन, सस्ती बिजली, आयकर में छूट जैसी तमाम सुविधाऐं दी गई और विकास के लिए अरबों रूपया झोंका गया। इसलिए ये कहना कि अब कश्मीर का विकास तेजी से करने की जरूरत है, सही नहीं होगा। भारत के अनेक राज्यों की तुलना में कश्मीरीयों का जीवन स्तर आज भी बहुत बेहतर है।

जरूरत इस बात है कि कश्मीर के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना वहाँ पर्यटन, फल-फूल और सब्जी से जुड़े उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए और देशभर के लोगों को वहां ऐसे उद्योग व्यापार स्थापित करने में मदद दी जाऐ। ताकि कश्मीर की जनता शेष भारत की जनता के प्रति द्वेष की भावना से निकलकर सहयोग की भावना की तरफ आगे बढ़े।
आज तक सबसे ज्यादा प्रहार तो कश्मीर में हिंदू संस्कृति पर किया गया। जब से वहां मुसलमानों का शासन आया, तब से हजारों साल की हिंदू संस्कृति को नृशंस तरीके से नष्ट किया गया। आज उस सबके पुनरोद्धार की जरूरत है। जिससे दुनिया को एक बार फिर पता चल सके कि भारत सरकार कश्मीर में ज्यात्ती नहीं कर रही थी, जैसा कि आज तक दुष्प्रचार किया गया, बल्कि मुस्लिम आक्रांताओं ने हिंदूओं पर अत्याचार किये, उनके शास्त्र और धम्रस्थल नष्ट किये और उन्हें खदेड़कर कश्मीर से बाहर कर दिया। जिसे देखकर सारी दुनिया मौन रही। श्रीनगर के सरकारी संग्रहालय में वहाँ की हिंदू संस्कृति और इतिहास के अनेक प्रमाण मौजूद हैं पर वहाँ की सरकारों ने उनको उपेक्षित तरीकों से पटका हुआ है। जब हमने संग्रहालय के धूप सेंकते कर्मचारियों से संग्रहालय की इन धरोहरों के बारे में बताने को कहा तो उन्होंने हमारी ओर उपेक्षा से देखकर कहा कि वहाँ पड़ी हैं, जाकर देख लो। वो तो गनीमत है कि प्रभु कृपा से ये प्रमाण बचे रह गए, वरना आतंकवादी तो इस संग्रहालय को ध्वस्त करना चाहते थे। जिससे कश्मीर के हिंदू इतिहास के सबूत ही नष्ट हो जाएँ। अब इस सबको बदलने का समय आ गया है। देशभर के लोगों को उम्मीद है कि मोदी और शाह की जोड़ी के द्वारा लिए गए इस ऐतहासिक फैसले से ऐसा मुमकिन हो पायेगा।

Monday, August 5, 2019

2500 वर्ष बाद की दुनिया को हम क्या देंगे?


मैं जीवन में पहली बार यूनान (ग्रीस) आया हूँ। जिसे पश्चिमी दुनिया की सभ्यता का पालना कहते हैं। यहाँ आज भी 2500 साल पुराने संगेमरमर के विशाल मंदिर और 30 मी. की ऊँची देवी-देवताओं की मूत्र्तियों के अवशेष या प्रमाण मौजूद हैं। जिन्हें देखकर पूरी दुनिया के लोग हतप्रभ हो जाते हैं। हमारा टूरिस्ट गाईड एक बहुत ही पढ़ा लिखा व्यक्ति है। जिसने पुरातत्व पर पीएचडी. की है और लंदन से मास्टर की डिग्री हासिल की है। उसने हमें 2 घंटे में यूनान का 3000 साल का इतिहास तारीखवार इतना सुंदर बताया कि हम उसके मुरीद हो गऐ। जब हमने इन भव्य इमारतों के खंडहरों को देखकर आश्चर्य व्यक्त किया, तो उसने पलटकर एक ऐसा सवाल पूछा, जिसे सुनकर मैं सोच में पड़ गया। उसने कहा, ‘‘ये इमारते तो 2500 साल बाद भी अपनी संस्कृति और सभ्यता का प्रमाण दे रही हैं, पर क्या आज की दुनिया में हम कुछ ऐसा छोड़कर जा रहे हैं, जो 2500 वर्ष बाद भी दुनिया में मौजूद रहेगा’’। उसने आगे कहा,‘‘हम प्रदूषण बढ़ा रहे हैं, जल, जमीन और हवा जितनी प्रदूषित पिछले 50 साल में हुई है, उतनी पिछले 1 लाख साल में भी नहीं हुई थी। आज ग्रीस गर्मी से झुलस रहा है, हमारे जंगलों आग लग रही है, रूस के जंगलों में भी लग रही है, कैलिफोर्निया के जंगलों में भी लग रही है। ये तो एक ट्रेलर है। अगर ‘ग्लोबल वाॅर्मिंग’ इसी तरह बढ़ती गई,तो उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव के ग्लेश्यिर अगले 2-3 दशकों में ही काफी पिघल जाऐंगे। जिससे समुद्र का जलस्तर ऊँचा होकर, दुनिया के तमाम उन देशों को डूबो देगा, जो आज टापुओं पर बसे हैं’’।
उसे संस्कृति में आई गिरावट पर भी बहुत चिंता थी। उसका कहना था कि जिस संस्कृति को आज दुनिया अपना रही है, यह भक्षक संस्कृति है। जो भविष्य में हमें लील जाऐगी।
दुनिया के सबसे पुराने ऐतिहासिक सांस्कृतिक केंद्र ऐथेंस नगर का यह टूरिस्ट गाईड हर रोज दुनिया के कोेने-कोने से आने वाले पर्यटकों को घुमाता है और इसलिए इस तरह की बातचीत वह दुनियाभर के लोगों से करता है। जाहिर है कि दुनिया के हर हिस्से में विचारवान लोगों की सोच इस टूरिस्ट गाईड की सोच से बहुत मिलती है। पर प्रश्न है कि सब कुछ जानते-बूझते हुए भी हम इतना आत्मघाती जीवन क्यों जी रहे हैं? जबाव सरल है। किसी देश में सही सोचने वाले मुट्ठीभर लोग होते हैं। ज्यादातर लोग भेड़ों की तरह ताकतवर या पैसे वाले लोगों का अनुसरण करते हैं। अब वो ताकत जिसके पास होगी, वो अपनी मर्जी से दुनिया का नक्शा बनायेगा। फिर वो चाहे राज सत्ता के शिखर पर बैठा व्यक्ति हो या फिर कुबेर के खजाने पर बैठा हुआ। दोनों की ही सोच समाज से बिल्कुल कटी हुई या यूं कहे कि  जनहित के मुद्दों से हटी हुई होती है। इसलिए वे एक से एक वाहियात् और फिजूल खर्ची वाली योजनाऐं लेकर आते हैं। चाहे उससे देश के प्राकृतिक या आर्थिक संसाधनो का दोहन हो या समाज में विषमता फैले। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। 
ग्रीस का इतिहास दुनिया के तमाम दूसरे देशों की तरह है, जहां राज सत्ताओं ने या आक्रांताओं ने बार-बार तबाही मचाई और सबकुछ पूरी तरह नष्ट कर दिया। ये तो आम आदमी की हिम्मत है कि वो बार-बार ऐसे तूफान झेलकर भी फिर उठ खड़ा होता है और तिनके-तिनके बीनकर अपना आशियाना फिर बना लेता है। पिछली सदियों में जो नुकसान हुआ, उसमें जनधन की ही हानि हुई। पर अब जो पाश्विक वृत्ति की सत्ताऐं हैं, वो लगभग दुनिया के हर देश में है। ऐसी तबाही मचा रही है, जिसका खामियाजा आने वाली पीढ़िया बहुत गहराई तक, महसूस करेंगी। पर उससे उबरने के लिए उनके पास बहुत विकल्प नहीं बचेंगे। 
जलवायु परिवर्तन के शिखर सम्मेलन में फ्रांस में दुनियाभर के राष्ट्राध्यक्ष  इकट्ठे हुए और सबने ‘ग्लाबल वाॅर्मिंग’ पर चिंता जताई  और गंभीर प्रयास करने की घोषणाऐं की ।पर अपने देश में जाकर मुकर गऐ, जैसे अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने पेरिस में कुछ कहा और वाॅशिंग्टन में जाकर कुछ और बोला। राष्ट्राध्यक्षों की ये दोहरी नीति समाज और पर्यावरण के लिए घातक सिद्ध हो रही है। सूचनाक्रांति के इस युग में हर देश की जागरूक जनता को इस नकारात्मक प्रवृत्ति के विरूद्ध मिलकर जोरदार आवाज उठानी चाहिए और अपने जीवन में ऐसा बदलाव लाना चाहिए कि हम प्रकृति का दोहन न कर, उसके साथ संतुलन में जीना सीखे। तभी हमारी भावी पीढ़ियों का जीवन सुधर पाऐगा।