Friday, December 11, 1998

फायर: नारी मुक्ति का यह कैसा रूप है ?


देश के अभिजात्य वर्ग में दीपा मेहता की नई फिल्म फायर की बडी चर्चा है। अपने पतियों की उपेक्षा से परेशान दो देवरानी और जेठानी कैसे पारस्परिक संबंध विकसित करती हैं यह है इस फिल्म की कथा। ये महिलाएं एक दूसरे को भावनात्मक सुरक्षा और नैतिक बल देने की सीमाओं से आगे जाकर समलैंगिक शारीरिक संबंधों तक की स्थापना की वकालत करती है। इस सशक्त फिल्म को देखने के बाद हर वह पति स्वयं को अपराधी महसूस करता है जो अपनी पत्नी को पूरा समय नहीं दे पाता। इस मायने में इसे सफल फिल्म कहा जा सकता है क्योंकि इससे घर की चारदीवारी में कैद रहने वाली महिलाओं की घुटन का पता चलता हैं वह घुटन जो अक्सर दिखाई नहीं देती या नजरंदाज कर दी जाती है लेकिन जो समाधान प्रस्तुत किया गया है वह भयानक ही नहीं वीभत्स भी है।
बात अगर फिल्मी कहानी तक होती तो शायद अपने सरोकार का विषय न होता। दुर्भाग्य से यह बात आज महानगरों के अभिजात्य वर्ग के बीच काफी दिखने लगी है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की महिला रोग विशेषज्ञ डा. दीपा डेका कुछ चैंकने वाले तथ्य प्रस्तुत करती हैं। देश भर से इलाज के लिये उनके पास आने वाली अभिजात्य वर्ग की या बुद्धिजीवी वर्ग की अनेक ऐसी महिलायें हैं जो नारी मुक्ति के आधुनिक दर्श का शिकार बन चुकी हैं। स्वतंत्रता, स्वच्छंदता व आर्थिक आत्मनिर्भरता की धुन में ये महिलायें ऐसे कदम उठा रही हैं जो न सिफ्र उनके लिये घातक हैं बल्कि उनके परिवार को भी उनका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इस तरह पूरे समाज के लिये खतरा पैदा हो रहा है जिसकी परिणति तनाव, डिप्रैशन और कभी कभी आत्महत्या के रूप में सामने आ रही है। डा. डेका बताती हैं। कि आजकल उनके पास आने वाले मरीजों में अनेक ऐसी महिलाएं हें जिन्होंने बिना विवाह किये ही संतान उत्पत्ति की है। आज उन्हें दोहरे संकट से जूझना पड़ रहा है। एक तो अपने अनाम पिता की पहचान को लेकर बालक की जिज्ञासाओं से और दूसरा अकेले जीवन ढोने के संत्रासों से। ये संकट उनके जीवन में तनाव पैदा कर रहा है जिससे अनेक दूसरी बीमारियां भी उत्पन्न हो रही हैं।
नारी मुक्ति की पश्चिमी मानसिकता वाली बहनें तुनक कर कहेंगी कि क्या पारंपरिक समाज की स्त्रियों की दुर्दशा नारी मुक्ति की समर्थ इन महिलाओं से कहीं कम थी ? शायद नहीं। संयुक्त परिवार और नाकारा पति की परमेश्वर रूप में सेवा की त्रासदियों को जिन बहनों ने झेला है वही इसका सही जवाब दे सकती हैं। इसमें भी कोई शक नहीं कि नारी मुक्ति की हामी ज्यादातर महिलाओं के मन में वह प्रसन्नता व संतोष नहीं है जिसके लिये उन्होंने ऐसे कठोर कदम उठाये थे। अगर होता तो डा. डेका को कुछऔर ही अनुभव होते।
दरअसल देश के अभिजात्य वर्ग को पश्चिमीकरण के कीड़े ने काट खाया है नतीजतन वह पश्चिम के हर किस्म के कूड़े करकट को बिना बिचारे बटोरने में जुट जाता है चाहे वह प्लास्टिक के लिफाफे हों या व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर समलैंगिकता, परन्तु हर बार मुंह की खाता है। फिर नये मायाजाल में फंस जाता है। यह बात दूसरी है कि पश्चिमी समाज अपने कटु अनुभवों से अब पुनः पारंपरिक मूल्यां की तरफ लौट रहा है। सिगरेट पीना या मुक्त सैक्स संबंध रखना पश्चिमी समाज में अब हिकारत की नजर से देखा जाने लगा है। एक जमाना था जब पश्चिमी देशों में सैक्स की भावना भड़काने वाले सामान खुलेआम बड़ी दुकानों और हवाई अड्डों पर बिकते थे। आज ऐसा नहीं है। पहले यूनिवर्सिटी के पुस्तकालयों तक में वैंडर-मशीनमें सिक्कर डालकर गर्भ निरोधक हर क्षण हर स्थान पर प्राप्त किये जा सकते थे। गोया कि गर्भनिरोधक न होकर मिनरल वाटरकी बोतल हो जिसके बिना जिंदा रहना भी मुश्किल होता हो। एड्स जैसी जानलेवा बीमारी के भय ने आज सैक्स से जुड़े हर कारोबार को उन देशों में लगभग समाप्त कर दिया है।यही वजह है कि एक साथ पनपी दो विख्यात बड़ी कंपनियों में से स्वस्थ मनोरंजन पर आधारित कंपनी मैक-डोनाल्डतो दिन दूनी रात चैगुनी प्रगति कर रही है जबकि सैक्स पर आधारित प्ले ब्वा¡कंपनी का बिस्तर गोल हो गया।
लीक से हटकर काम करने वाले भारत के टेलीविजन व फिल्म मीडिया में दुर्भाग्ये से आज उसी वर्ग का बोलबाला है जो अस्वाभाविक किस्त के मानवीय संबंधों की वकालत करता है जबकि ही कीमत यह है कि पूरे समाज का वह एक नगण्य प्रतिशत है जबकि अधिकांश समुदाय इस प्रकार की वार्ता को हिकारत की निगाह से देखता है। उसकी चर्चा तक करने से बचता है। चूंकि अप्राकष्तिक संबंधों का हिमायती वर्ग बुद्धिजीवियों, कलाकारों, राजनीतिज्ञों जेसे लोगों से भरा है इसलिये यह समूह ज्यादा मुखर है, अपनी बात जोरदार तरीके से कहने में कुशल है, इसलिये यह समूह कभी कभी अपने बारे में ताकतवर व विशाल होने का भ्रम पैदा कर देता है। संचार माध्यमों पर अपनी पकड़ के कारण अपने विचारों को बड़े जोर शोर से प्रचारित करता है। चूंकि फिल्म संप्रेषण का सबसे सशक्त माध्यम है इसलिये इस पर कही बात गहरी चोट करती है।
चिंता की बात यह हे कि फायर फिल्म में जिस तरह भारतीय दर्शन का उपहास किया गया है, वह अशोभनीय व असंतुलित ही नहीं, सतही भी है। समलैंगिकता में रत दो महिलायें भारतीय दर्शनके इस मूल सिद्धांत का उपहास करती हैं कि इच्छाओं के दमन से चिंताओं का दमन होता है। भगवद गीता से लेकर बौद्ध, जैन, सिख व सूफी संतों ने हजारों वर्षों से भारतीय दर्शन के इस मूल मंत्र का प्रचार किया है। समाज ने इसे अनुभवभी किया है। यही वजह है कि भौतिक प्रगति की बुलंदियों को छूने के बावजूद अमरीका से लेकर जापान तक का जिज्ञासु मन इसी दर्शन की खोज में भटकता हुआ भारत आता है, परन्तु यह दुर्भाग्य है अपने समाज का कि स्वयं को बुद्धिजीवी मानने वाले तथाकथित आधुनिक लोग पश्चिमी समाज के भौंडेपन को मानव स्वतंत्रता के नाम पर महिमामंडित करने में जुटे हैं।इसका अर्थ यह नहीं कि भारतीय समाज में कोई दोष ही नहीं। लिंग, जाति व वर्ग के आधार पर समाज में शोषण का एक लम्बा इतिहास है। पर यह सिर्फ भारत में हुआ हो ऐसा नहीं। नारी मुक्ति की समर्थक न्यूयार्क टाइम्स की एक महिला पत्रकार ने एशिया, अफ्रीका व पश्चिमी देशों की महिलाओं के सर्वेक्षण के बाद कुछ चैंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किये थे, जिनके अनुसार उन देशों की महिलाओं की सामाजिक और मानसिक स्थिति में भारतीय महिलाओं से कोई विशेष बुनियादी अंतर नहीं था। काम से लौटे दम्पत्ति घर में घुस कर वहां भी वही करते हैं जो भारत में। मसलन पति आराम कुर्सी पर बैठकर टीवी देखता है या अखबार पढ़ता है और पत्नी रसोई घर में घुसकर खाना पकाती है। इस सर्वेक्षण में चैंकने वाली बात यह थी कि भारत की कामगार देहाती महिलायें शहरों की तथाकथति आधुनिक महिलाओं के मुकाबले ज्यादा आत्मनिर्भर हैं, इसलिये ज्यादा स्वतंत्र भी हैं। यदि भारत की महिलाओं से फायर जैसी फिल्म पर प्रतिक्रिया मांगी जाएतो सिवाय हिकारत के और कुछ नहीं मिलेगा।
दूसरी तरफ ये तथाकथित आधुनिक महिलायें उनका उपहास करेंगी। यह कहकर कि बेचारी अंधकार में हैं, अज्ञानी हैं, बचपन से मिले संस्कारों के जाल में जकड़ी हैं, विकल्प के अभाव में हालात से समझौता करने पर मजबूर हैं। आजादी की कोई परिकल्पना उनके दिमाग में नहीं है, इसलिये रात दिन चक्की में पिस रही हैं। किन्तु आंकड़े सिद्ध करदेंगे कि ये वाहियात तर्क हैं। पारंपरिक मूल्यों से जुड़ी ज्यादातर महिलाओं के परिवारों में जो सुख व शांति है वह इन तथाकथित आधुनिक महिलाओं के परिवारों की तुलना में कई गुना ज्यादा है। इतना ही नहीं आधुनिक शिक्षाा से लैस किन्तु पारंपरिक मूल्यों में आस्था रखने वाली भारतीय महिलाओं की संख्या भी इन तथाकथित आधुनिक महिलाओं से कई गुना ज्यादा है। ये महिलायें करोड़ों की तादाद में भारत के नगरों में रहती हैं तो लाखों की तादाद में अनिवासी भारतीयों के परिवारों की शोभा पश्चिमी देशों में बढ़ा रही हैं। जितने संतुलित व्यक्त्वि वाले बच्चे इन परिवारों में बड़े हो रहे हैं जितना प्रेम और सोहार्द इन परिवारों में है उसका शतांश भी तथाकथित आधुनिक महिलाओं के घरों में दिखाई नहीं देता। महिलाओं की समस्याओं पर लेख लिखे जायें, सेमिनार किये जायें, टीवी टा¡क शो किये जायें या भाषण आयोजित किये जायें तो विशेषज्ञ के तौर पर प्रायः ये तथाकथित आधुनिक महिलायें ही आमंत्रित की जाती है। प्रांतों के नगरों में एक आम परिवार की महिला जब इन आत्मघोषित क्रांतिकारी महिलाओं के विचार सुनती है तो हैरान रह जाती है। वह स्वयं को ऐसे हवाई विचारों से कोसों दूर पाती है यही वजह है कि नारी मुक्ति की आधुनिक अवधारणा प्रस्तुत करने वाली ये बुद्धिजीवी महिलाये आज तक अपना जनाधार नहीं बना सकी हैं। इसलिये सरकारी प्रतिनिधिमंडलों की सदस्य बन कर हवा में उड़ा करती हैं आवश्यकता तो नारी मुक्ति के उस प्रारूप की है जिसे भारत के समाज में पनपे मनीषियों, समाज सुधारकों, संतों व युग पु3षों और महिलाओं ने अपने लेख, व्याख्यानों और आचरण से प्रस्तुत किया है। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानदं, ज्योति बाफुले, गांधी जैसे कुछ नाम हैं जो शायद इन आधुनिक महिलाओं के शब्दकोष में नहीं हैं वर्ना ऐसी कुत्सित मानसिकता को नारी मुक्ति के नाम पर न परोसा जाता। जाहिर है कि फायर जैसी फिल्मों में सुझाये गये समलैंगिकता के समाधान का भारतीय समाज की बहुसंख्यक महिलाओं की स्वतंत्रता से कोई लेना देना नहीं है। उनके लिये यह एक विकृति से अधिक कुछ भी नहीं है।

Friday, May 22, 1998

परमाणु विस्फोट से स्वदेशी आंदोलन को बल मिला

परमाणु विस्फोट से स्वदेषी आंदोलन को बहुत फायदा हुआ है। उदारीकण के नाम पर जोदबाव इस आंदोलन पर बनाया गया था,

उसमें अब कमी आएगी। बड़े देषों को धमकियों पर देष के उद्योगपतियों व आप्रवासी भारतीयों की प्रतिक्रियाएं इसके प्रमाण हैं। दरअसल उदारीकण का जो कांग्रेसी संस्करण देश को परोसा गया था, वह देशभक्तों के गले कभी नहीं उतरा। पहले तो पचास वर्षों तक समाजवादी के नाम पर देश के स्वाभाविक औद्योगिक विकास पर शिकंजा कसा गयचा। कोटा लाइसेंस राज चलाकर भ्रष्टाचार कोपूरे देश में पनपने का मौका दिया गया। सरकारी क्षेत्र में उद्योगों के नाम पर भ्रष्टाचार के बड़े बड़ेसफेद हाथी पाले गये। लेकिन जब पानी सिर से गुजर गया, इन क्षेत्रों से और पेसा खींचने का जरिया न बचा, तो उदारीकण केनाम पर धड़ाधड़ पेप्सी कोला व डोमिनो पिज्जा जैसी तमाम वाहियात चीजों को भारत में घ्ज्ञुसने दिया गया। जो आलू दे?श में दो रुपये किलो के भाव बिक रहा था, उसके अंकल चिप्स ढाई सौ रुपये किलो बेचे जाने लगे।
 
इसी तरह आज सेपचास वर्श पहले दुनिया भर में पश्चिमी देशोंने प्रचार किया कि डिब्बे का दूध मां के दूध से बेहतर होता है, उससे बच्चे तंदरुस्त होते हैं फिर जब डिब्बे के दूध के दुष्परिणाम सामने आये तो पूरी दुनिया में प्रचार किया गया कि ठहरो! ठहरो! गलती हो गयी। मां का दूध डिब्बे के दूध से बेहतर होता है। इसमें कौन सी नई बात बता दी ? लेकिन उन्हें तो अपना दूध बेचना था उन्होंने वहीं किया। पचास वर्षों तक अरबों रुपये को डिब्बे का दूध भारत जैसे पारंपरिक देश में भी बेचकर मोटा पैसा कमा लिया। इन्हीं देशों ने पहले आर्थिक मदद के नाम पर रासायनिक उर्वरक व कीटनाशक दवाइयों से भारतीय जमीन को प्रदूषित कर दिया और अब वे कह रहे हैं कि गलती हो गयी, गोबर की खाद रासायनिक खादों से कहीं बेहतर होती है। हम इतने मूर्ख हैं कि दुनिया की सबसे बड़ी पशु आबादी देश में होने के बावजूद इनके छलावे में आ गये, वरना गोबर की खाद का विकास करते, जिसे ये देश आज आ¡र्गेनिक फार्मिंग कहकर बेच रहे हैं इनकी बेशर्मी की हद यहां तक हो गयी कि आयुर्वेद की पुस्तकों में से ज्ञान चुराकर ये अरदक,नीम, बासमती चावल और हल्दी जैसी आम इस्तेमाल की भारतीय वस्तुओं को अपने देश में पेटेंट करा रहे हैं ताकि इन्हें बेचने में भी केवल इनकी दादागिरी चले। हजारों उदाहरणहैं जिनसे सिद्ध होता है कि देश के राजनेताओं और अफसरों ने चांदी के टुकड़ों के लालच में देश की धरोहर और आत्मनिर्भरता को किसी बेदर्दी से गिरवी रख दिया। जहां तक विदेशी आर्थिक मदद की बात है, यह तथ्य किसी से छिपानहीं है कि एक सौ दस से लेकर तीन सौ अरब डालर तक की अनुमानित रकम अवैध रूप से भारत से ले जाकर बाहरी बैंकों में जमा करा दी गयी है।जबकि भारत पर विदेशी ऋण मात्र bक्यानबे अरब डा¡लर है। यानि जितना कर्ज हम पर है उससे ज्यादा पैसा विदेशी बैंकों में अवैध रूप से पड़ा है।

पिछले दिनों सुप्रसिद्ध पत्रिका फा¡र ईस्टर्न इका¡नोमिक रिव्यू के एक वरिष्ठ पत्रकार हांगकांग से भारत आये हुए थे। हाल ही में उन्होंने उन तमाम देशों का अध्ययन किया है जहां पिछले दस वर्षों में तथाकथित उदारीकरण ने अपने झंडे गाड़े हैं। उनके अध्ययन को निचोड़ यह था कि जिन देशों में भी ऐसा हुआ है, उन्हीं देशों में सैकड़ों हजारों करोड़ रुपये के घोटाले भी बहुत तेजी से हो रहे हैं। पिछले दिनों भारत में जो करार बहुराष्ट्रीय कंपनियों से किये गये, उनमें से कई तो इतने आत्मघाती हैं कि उन्होंने अगले तीस वर्षों तक Hkkरत को लूटने को पक्का इंतजाम कर लिया है। दरअसल विदेशी मदद के नाम पर जो पैसा आता हैउससे देश का स्थायी विकास नहीं हो रहा है। दुनिया के जिन देशों में भी उदारीकरण ने पांव पसारे, उन्हे ही कंगाल करके छोड़ दिया। मलेशिया, इंडोनेशिया और थाईलैंड इसके सुबूत हैं। जहां पहले तो पश्चिमी उदारीकरण की चमक दमक ने लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया। मगर फिर अचानक इनकें पैरों के नीचे से जमीन खींच ली। ये देश इतनी जोर से गिर कि आज वहां आर्थिक दुर्दषा के कारण चीत्कार मचा है। साधारण लोग ही नहीं, संपन्न घरों के लोग भी त्राहिमाम कर रहे हैं। दुकानें लुट रही हैं। लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं। सड़कों पर हिंसा और आगजनी खुलेआम हो रही है। करोड़ों नौजवानों में भारी आक्रोष और हताषा है। दक्षिणी अमेरिका और अफ्रीका से लेकर कोरिया तक यही कहानी है। फिर भी अगर हम कोई सावधानी न बरतें, तो कौन गारंटी दे सकता है कि यही दुर्दषा भारत के भी नहीं होगी ? ऊर्जा मंत्री कुमारमंगलम को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ करार करके बिजली प्लांट लगवाने की बहुत जल्दी है। वैसे जहां तक बिजली की कमी की बात है, हकीकत यह है fक भारत को ऐसे सहयोग की कोई जरूरत नहीं है। भारत की मौजूदा विद्युत उत्पादन क्षमता छियासी हजार मेगावाट है जबकि उत्पादन मात्र इकतालीस हजार मेगावाट ही हो रहा है। क्षमता से आधा उत्पादन होने पर भी यह हमारी राष्ट्रीय आवष्यकता से मात्र सोलह प्रतिशत कम है। वह भी तब जब भ्रष्टाचार के कारण इक्कीस प्रतिशत उत्पादित बिजली चोरी करवा दी जाती है।यानी आज भी हमारी बिजली आवश्यकता से ज्यादा हे। पर सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार देष के विद्युत बोर्डों में ही व्याप्त है। इसीलिये बिजली की आपूर्ति में व्यवधान आता रहता है या बिजली की दर बिना वजह बढ़ाईजाती हैं। अगर बिजली विभाग से भ्रष्टाचार दूर करने के लिये जनता व सरकार कमर कस ले तो न तो विदेशी पावर प्लांटों की जरूरत है और न विदेशी पूंजी की। फिर हम प्रतिबंधों या धमकियों से क्यों डरें? वैसे ध्यान देने योग्य बात है कि प्रतिबंधों की घोषणा के बावजूद यूरोप की तीन बड़ी कंपनियों ने भारत में अपने प्लांट लगाने की पेशकश की है। जारि है, इसमें उन्हें भारी मुनाफा है जो हम बेअक्ली के कारण उन्हें देने को तैयार हैं। उल्लेखनीय है कि जब से तेरह दिनों की भाजपा सरकार ने एनरा¡न से समझौते पर दस्तखत किये थे तभी से स्वदेश्ज्ञी ला¡बी काफी विचलित रही है। उसकी शिकायत है कि भाजपा के नेता नारा तो स्वदेशी का देते हैं पर नीतियां वही कांग्रेस की चला रहे हैं।

इस बात के तमाम प्रमाण व आंकड़े उपलब्ध हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि देश में विदेशी पंजी निवेश के नाम पर कैसीतबाही मचाईगयी है। ऐसी स्थिति में यदि आणविक परीक्षण से नाराज होकर अमेरिका, जापन, आस्ट्रेलिया, जर्मनी या कोईभी देश भारत को धमकाता है तो हमें डरने की कोईजरूरत नहीं है। देश के शहरों और कस्बोंमें मध्यम श्रेणी के कारखानेदारों व दुकानदारों को इतना बड़ा जाल है कि देश की ज्यादातर जरूरतों को बड़ी आसानी से पूरा किया जा सकता है। बशर्ते इन लोगों को इज्जत के साथ काम करने की छूट दी जाए। इसलिये भारत के रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने ये हिम्मत दिखाई जिससे आज आत्मनिर्भरता का माहौल अपने आप बनने लगा हे।

हालांकि दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि चुनाव के लिये माहौल तैयार करने को यह कदम उठाया गया है। भाजपा सरकार ने अपने अंतर्विरोधों और जनता से जुड़े मुद्दों पर अपनी असफलताओं से ध्यान बंटाने के लिये यह किया हे। यह अगर सच हो तो भीकिसी को यह नहीं भूलना चाहिये कि 1974 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने पोकरण में जो विस्फोट किया था उसके बाद उन्हें तात्कालिक प्रसिद्धि भले ही मिली हो, किन्तु राजनीतिक लाभ नहीं मिला। 1975 में जेपी आंदोलन षुरू हुआ। 1977 में श्रीमती गांधी का सफाया हो गया। वह खुद तकचुनाव हार गईं। परमाणु विस्फोट एक राष्ट्रीय उपलब्धि है। इसमें वैज्ञानिकों की पांच दशकों की मेहनत छिपी है किसी एक व्यक्ति या दल का कोईयोगदान नहीं।पर इस समय यह निर्णय लेकरअटल् बिहारी वाजपेई ने एक अच्छी षुरूआत की है। देश को इसका पूरा फायदा तभी मिलेगा जब इस मौके का लाभउठाकर स्वदेशी आंदोलन जोर पकड़े। बाहरी मदद या सहयोग वहीं लिया जाए जहां जरूरी हो।देश की आधी से अधिक भूखी प्यासी आबादी को पानी और रोटी चाहिये, पेप्सी कोला औ केंटकी फ्राइड चिकन नहीं।देश के किसानों को उनकी मेहनत और उपज का वाजिब दाम चाहिये। देश के करोड़ों बेरोजगार युवाओं को रोजगार के अवसर चाहिये जो आज के मा¡डल का उदारीकरण नहीं दे सकता। भाजपा सरकार के इसमजबूत कदम का औचित्य तभी सिद्ध होगा जब देश कोतेजी से आत्मनिर्भरता की ओर ले जाया जाए। देश्रूा के संसाधनों व क्षमता का पूरा उपयोग करके देश की हर जरूरत देश में पूरी करने अभियान और कार्यक्रम तेजी से चलाया जाए। यह संभव है और अपरिहार्य भी।

Monday, March 23, 1998

मदर टेरेसा के सेवा केन्द्रों में प्रार्थना ज्यादा-सेवा से लेकर कम


मदर टेरेसा के काम की आलोचना अग्रेजीदां हिन्दुस्तानियों के गले नहीं उतरेगी। पर अगर ये आलोचना इंग्लैंड के प्रतिष्ठित और विश्वविख्यात अखबार दी गार्डियन में छपी हो तब वे क्या कहेंगे? आलोचना करने वाला कोई ईसाई मिशनरियों का विरोधी या हिन्ंदू कट्टरपंथी नहीं है, बल्कि खुद एक अंग्रेज है। पीटर टेलर नाम के इस व्यक्ति का तक मदर टेरेसा के मिशनरीज आफ चैरिटीज से संबंध रहा था। पीटर स्वयं कैथलिक ईसाई हैं। मदर टेरेसा के सेवा केन्द्र से वे दसवर्षों में बतौर स्वयंसेवी जुड़े रहे हैं। इन वर्षों में उन्होंने हफ्तों मिशनरीज आफ चैरीटीज के केन्द्र आशादान में गुजारे। जहां बीमार और लावारिस गरीब बच्चों की देखभाल’’ की जाती है। लेकिन आशादान नाम के केन्द्रों से श्री टेलर के अनुभव अच्छे नहीं हैं। उन्हें इस बात का भारी दुख है कि मदर टेरेसा केन्द्रों में कुछ बच्चों को यातनापूर्ण जीवन जीना पढ़ता है। मिशनरीज आफ चैरिटीज से जड़े अपने कड़वे अनुभवों और प्रमाणों को लेकर श्री पीटर टेलर अभी हाल ही में मुझसे मिले। मानवीय संवेदनाओं की उपेक्षा से जुड़ी इस जानकारी को पाठकों तक पहंqचाने के लिये मैंने श्री टेलर से एक लंबी बात की और उनसे इस दर्दनाक दास्तान को सुना।
ब्रिटिश एअरवेज में वर्षों नौकरी कर चुके पीटर टेलर बताते हैं कि 1984 में उन्होंने आशादान में जाना शुरू किया था।शुरूआत के दिनों से ही श्री टेलर आशादान के बच्चों व सेविकाओं के बीच काफी लोकप्रिय थे। देखभाल के अलावा वे बच्चों को घुमाने फिराने के लिये बाहर भी ले जाते थे। आशादान के कर्मचारी भी श्री टेलर को अच्छी तरह जान और समझ चुके थे। लेकिन 1994 में अपने साथ हुए बर्ताव की श्री टेलर को उम्मीद तक नहीं थी। अचानक एक दिन आशादान में उनका प्रवेश निषेध कर दिया गया। खुद पर इस पाबंदी की वजह श्री टेलर यह बताते हैं कि गंभीर रूप से बीमार कुछ बच्चों की उपेक्षा जब उनसे नहीं देखी गयी तो उन्होंने इसकी शिकायत वहां काम कर रही वरिष्ठ सेविकाओं से की। शुरूआत में तो श्री टेलर की शिकायतों पर ध्यान दिया गया, पर थोड़ा बहुत ही। इसके बावजूद जब कुछ बच्चों की हालत में सुधार नहीं हुआ तो श्री टेलर ने इस बारे में सेविकाओं से बतौर स्वयंसेवी सवाल जवाब किया। पर इसका नतीजा उन्हें प्रतिबंध के रूप में झेलना पड़ा। आशादान के दरवाजे उनके लिये हमेशा के लिये बंद कर दिये गये।
वे आगे बताते हैं कि आशादान में कुछ बच्चों के रखरखाव का सतर उपेक्षा की हद तक गिरा हुआ है। वहां उनकी हालात सुधारने के लिये कोई विशेष कदम नहीं उठाये जाते। भोजन पानी के नाम पर उनको जैसे तैसे जिंदा रखा जाता है। इसके अतिरिक्त उनका कोई विशेष ध्यान नहीं रखा जाता। भारी मात्रा में विदेशी अनुदान के बावजूद यहां कुछ बच्चों को ऐसा यातनापूर्ण जीवन क्यों जीना पड़ता है यह बात श्री टेलर की समझ से परे है।
श्री टेलर के अनुसार आशादान में उपलब्ध स्वास्थ्य सेवायें भी बड़ी अव्यवस्थित हैं। स्वयंसेवी चिकित्सक हफ्ते में मात्र दो एक बार ही आते हैं और वो भी केवल खानापूरी के लिये। आशादान में दिखावे के लिये तो देख रेख और सेवा का अच्छा प्रबंध है लेकिन कई बार यहां की सेविकायें दर्द से कराहते बच्चों को अनदेखा कर देती हैं। अनेक मौकों पर जब खुद श्री टेलर ने सेविकाओं का ध्यान इस तरफ दिलाया तब जो जवाब इन समर्पितसेविकाओं ने श्री टेलर को दिया वो चैंकाने वाला था- ‘‘ये तो भगवान की मर्जी है।’’
कहने को तो इन सेविकाओं ने नर्सिंग की ट्रेनिंग ली है पर वे मरीजों की रख रखव के बुनियादी पहलू तक का पालन नहीं करतीं। बैड सोरसे पीडि़त मरीजों के जख्मों पर सिर्फ मलहम पट्टी करके ही वह अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती हें। जकि उन्हें इससे कहीं ज्यादा देखभाल और स्नेह की जरूरत होती है।
इन सेविकाओं के समर्पणके जिस पहलू ने श्री टेलर को सबसे ज्यादा परेशान किया वो ये कि इन सेविकाओं का ध्यान सेवा में कम और प्रार्थनाओं मs अधिक था। और तो और स्वयं मदर टेरेसा इस सोच की प्रबल रहनुमा थी। श्री टेलर के अनुसार वे खुदकाम से ज्यादा प्रार्थना को तरजीह देती थी। प्रार्थना के समय इन बच्चों की इस हद तक उपेक्षा की जाती कि ये सेविकाएं इन बच्चों को अप्रशिक्षित अम्माओंकी देखरेख में छोड़कर प्रार्थना के लिये चली जाती। जिस समय बच्चे दर्द व उपेक्षा से कलप रहे होते थे, ये सेविकायें प्रार्थना में मग्न होती। इससे जुड़ी एक घटना का जिक्र करते हुए श्री टेलर बताते हैं कि उन्होंने जब उच्च प्रशिक्षण के लिये जाती एक सेविका से उसकी ट्रेनिंग के बारे में कुछ जानना चाहा तो उसका यह जवाब मिला, ‘‘ट्रेनिंग तीन हिस्सों में होगी। पहले, प्रार्थना सिखाई जाएगी फिर सघन प्रार्थना और उसके बाद और सघन प्रार्थना।’’
आशादान में डाक्टरों और सेविकाओं के इस रवैये से क्षुब्ध श्री टेलर काफी दिनों तक इस बात पर मंथन करते रहे कि उन्हें आशादान में कुछ बच्चों पर की जा रही यातनापूर्ण उपेक्षा पर खुल कर आलोचना करनी चाहिये या नहीं। उन्हें डर था कि लोग मदर की संस्था पर लगे आरोपों को गंभीरता से नहीं लेंगे और आशादान की सेविकाओं के समर्पण पर कोई उंगली नहीं उठने देंगे। अंततः उन्हें हार ही माननी पड़ेगी। लेकिन कुछ ऐसी घटनाएं हुई कि श्री टेलर का मिशनरीज आफ चैरिटीज की अनियमितताओं के खिलाफ अपना मुंह खोलना ही पड़ा।
घटना आशादान में दो मासूम बच्चों की दुर्दशा से जुड़ी है। मीनू नाम की इस बच्ची से टेलर की मुलाकात 1984 में आशादान में ही पहली बार हुई थी। तब श्री टेलर को बताया गया था कि मीनू की आंखों की नस क्षतिग्रस्त है और वो कभी देख नहीं पाएगी। पर यह सच नहीं था।जब श्री टेलर ने मीनw को अपने प्रयासों से नेत्र विशेषज्ञों को दिखाया तो उन्हें हैरानी हुई। डाक्टरों ने बताया कि आपरेशन से मीनू की आंखें ठीक हो सकती हैं। लेकिन इस इलाज के लिये मीनू को इंग्लैंड ले जाना होगा।डाक्टरों की परामर्श से श्री टेलर ने मीनू के जाने का बंदोबस्त लगभग कर ही दिया था जब उन्हें यह पता चला कि इसके लिये मदर टेरेसा की इजाजत जरूरी है। श्री टेलर को उम्मीद थी कि मदर इस मामले में हां कर देंगी लेकिन उन्हें बारह वर्ष तक इंतजार करना पड़ा। उन्होंने जब भी मदर से मीनू के बारे में बात छेड़ी तो मदर का रूखा सा जवाब होता कि वे मीनू के लिये यीशू से प्रार्थना करेंगी। श्री टेलर को आश्चर्य है कि मदर को यह जानने के लिये कि अंधेपन और रोशनी में कौन बेहतर है यीशू की आज्ञा का बारह वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। लेकिन श्री टेलर लगातार मदर से इस बारे में मिलते रहे। काफी ऊहापोह के बाद अंततः जब मदर ने अनुमति दी तो श्री टेलर को यह बताया गया कि अब मीनू ने खुद अपना निर्णय बदल दिया है। टेलर को संदेह है कि मदर के इशारे पर ऐसा किया गया। शायद वे नहीं चाहती थीं कि मीनू देख सके। क्योंकि आशादान का आर्थिक स्वास्थ्य कुछ हद तक मीनू की वहां मौजूदगी से बेहतर होता था। नेत्रहीन मीनू के नाम पर शायद काफी अनुदान इकट्ठा किया जाता था इसीलिये मीनू को दुनिया देखने की इजाजत नहीं दी गयी।
दूसरी घटना विनसेंट नाम के एक और भारतीय लड़के की है। विन्सेंट नौ वर्ष का था जब टेलर की उससे मुलाकात आशादान में हुई। दौड़ना तो दूर विनसेंट चल और बैठ भी नहीं पाता था। इसका कारण था उसकी पीठ में एक बहुत बड़ा फोड़ा। जिसकी वजह से वह बिस्तर पर लेटे लेटे अपनी गर्दन ही केवल इधर से उधर घुा सकता थौ। फोड़े केदर्द से विन्सेंट हमेशा कराहता रहता था। अपनी आंखों के सामने उसकी बिगड़ती हालत श्री टेलर से नहीं देखी गई तो इसकी शिकायत उन्होंने मदर सुपीरियर से की। श्री टेलर ने उन्हें सचेत किया कि यदि ऐसी जघन्य उपेक्षा उन्होंने पश्चिम के किसी देश में दिखाई तो उन्हें सजा तक हो सकती थी। इससे डर कर विन्सेंट की ठीक से देखभाल शुरू की गई। लेकिन कुछ समय के लिये ही। श्री टेलर के वहां से जाते ही विन्सेंट की फिर से उपेक्षा शुरू हो गयी। कुछ समय बाद लौटने पर श्री टेलर को विन्सेंट का घाव जैसे का तैसा मिला। उन्होंने जब संस्था का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया तो उन्हें उपेक्षित करने वाला और निराशाजनक जवाब मिला,‘‘न जाने ये दोबारा कैसे हो गया’’। जबकि संस्था के डाक्टर हफ्ते में कम से कम दो बार विन्सेंट के बिस्तर के पास से जरूर गुजरते थे।
विन्सेंट के मामले में श्री टेलर की बढ़ती रुचि को देखते हुए उन्हें मिशनरीज आफ चैरिटीज में कदम कदम पर हतोत्साहित किया गया। विन्सेंट को पीटर टेलर की पहंqच से बाहर रखने की कोशिश शुरू हो गयीं। आशादानके सक्रिय स्वयंसेवी श्री टेलर को क्या इतना अधिकार भी नहीं था कि वे बीमार और अपाहिज विन्सेंट की स्वास्थ्य के बारे में कुछ जान सकते। विन्सेंट की देखभाल करने वाली सेविकाओं ने श्री टेलर को कई बार तो यह कहकर मना कर दिया कि ‘‘विन्सेंट के पास बाहर वालों का जाना मना है।’’ पर श्री टेलर ने हार नहीं मानी अपने कुछ भारतीय दोस्तांे के जरिये जब उन्होंने विन्सेंट के बारे में जानना चाहा तो बताया गया कि, ‘उसे दूसरे सेवा केन्द्र पर भेज दिया गया है।पर किस सेवा केन्द्र पर, ये जानकारी नहीं दी गयी। श्री टेलर के अनुसार उन्होंने इसकी बाबत भरपूर कोशिशें की। उन्हें डर हैकि विन्सेंट उपेक्षा का शिकार होकर अपने दुखों से हमेशा के लिये मुक्त हो गया होगा। ये कहते हुए श्री टेलर की आंख से आंसू लुढ़क आते हैं। पर उनका जी चाहता है कि विन्सेंट जिंदा हो और स्वस्थ भी।
केवल मीनू या विन्सेंट ही नहीं श्री टेलर के अनुसार आशादान में उन्होंने ऐसे कई मामले देखे जिनसे मदर टेरेसा के सेवा केन्द्रांे से उनका भरोसा उठ गया। सेवा केबहाने यहां धार्मिक कर्मकांडों और ईसाई धर्म केप्रचारको प्राथमिकता दी जाती है। इसी वजह से कईमरीजों की ठीक सेदेखभाल नहीं हो पाती औरउनकी हालत बिगढ़ने दी जाती है। ‘‘क्या गा¡ड की यही इच्छा है कि प्रार्थना के आगे दर्द से कराहते बच्चों की आवाज अनसुनी कर दी जाए और उन्हें देखकर भी अनदेखा छोढ़ दिया जाए?’’ श्री टेलर पूछते हैं। उनके विचार से ऐसे सेवा केन्द्रों को अपनी प्राथमिकतायें मानवाधिकार के मौजूदा कानूनों की रोशनी में बदल देनी चाहिये। ‘‘ सेवा जरूरी हैन कि प्रार्थना।’’
श्री टेलर को उन सेविकाओं से भी नाराजगी हैजो समर्पण भाव से काम करने के बजाय सेवा केन्द्र केप्रांगण मेंदोपहरके भोजन के बाद हाथमें हाथ डाले मटरमश्ती करती रहती हैं। उनके ऐसे रूखे ओर गैर जिम्मेदाराना बर्ताव से ही विन्सेंट जैसे बच्चे, जिन्हें थोड़े से स्नेह ओर देखभाल से बचाया जा सकता था असमयकाल के शिकार हो जाते हैं। अब यह सवाल उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि विन्सेंट कहां है, कैसा है और वो जिंदाहै भी या नहीं? मीनू अब कभी  ns  भी पाएगी यानहीं? चिंता केवल इसबात की है कि कितने ही विन्सेंट और मीनू आज इन सेवा केन्द्रों में अमानवीय उपेक्षा के शिकार हो रहे ? जबकि दूसरी तरफ बाहर की दुनिया को ये तसल्ली है कि मानवीय संवेदनाएं इन केन्द्रों में अभी भी जीवित हैं। केवल एक पीटर टेलर के अनुभवों को काफीन माना जाए तब भी जो साक्ष्य उन्होंने मेरे सामने रखे उनसे आंखें मूंदी नहीं जा सकतीं।
वर्षों तक मिशनरीज आफ चैरिटीज को काफी करीब से देख चुके श्री टेलर बताते हैं कि मदर टेरेसा केपास जब तककलकत्ता के सीमित क्षेत्रमें काम था तब तक उनके काम का स्तर काफी ऊंचा था। मदर सेवा कार्य में गहरी रूचि लेती थीं और वहां कार्य करने वाले स्वयंसेविओं पर पूरानियंत्रणरखती थीं हैल्स एंजल्स (नर्क की फरिश्ता) नाम से मटर टेरेसा के कामों पर बनी  fQल्म ने उन्हें जरूरतमंद लोगों की मसीहा के रूप में सारी दुनिया में स्थापित करदिया था। दुनिया भर से उन पर आर्थिक अनुदान और पुरस्कारों की वर्षा होने लगी थी। मीडिया की इसचमक दमक और उत्साहके अतिरेक में मदर टेरेसा ने वायुदूतके हवाई अड्डों की तरह निरंतर नये सेंटर खोलना शुरू करदिये। काम इतना फैला लिया कि ना तो स्वयंसेवियों के समर्पण को और ना ही मिशनरियों की योग्यता कोपरखने कासमयरहा और ना ही उन्हेंप्रशिक्षित करने का। श्री टेलरके षब्दों में, ‘‘नतीता यह हुआ कि काम का दिखावा तो खूबरहुआपर ठोस काम नदारदरहा।’’ गंभीर व्यक्तित्व वाले श्री टेलर गहरी सांस छोढड़ते हुए केन्द्रों में ‘‘टू मच प्रेयर,लैसकेयर’’की बात कहते हैं और यह भी कहते हैं। कि, ‘‘करुणावतार ईसा मसीह केचित्र के आगे घंटों मोमबत्ती जलाने वाले प्रार्थना तोबहुत करते हैं पर दर्दसे कराहते बच्चों के लिये करुणा नहीं दिखा पाते। काश! इनकी कथनी और करनी में ऐसा भेद न होता।