Showing posts with label India. Show all posts
Showing posts with label India. Show all posts

Sunday, February 9, 2025

विकास ऐसा किया जाता है


हमारे पड़ोसी देश चीन ने पिछले सप्ताह एक बार फिर से सुर्ख़ियाँ बनाई। इस बार भारत में घुसपैठ नहीं बल्कि भारत और दुनिया भर के लिए एक उदाहरण बना। चीन ने अपने नवाचार द्वारा एक रेगिस्तान को न सिर्फ़ रोका बल्कि उसे हरा-भरा भी कर दिया। चीन का यह विकास कार्य आज काफ़ी चर्चा में है।
 


‘मौत का सागर’ के रूप में जाने जाना वाला टकलामकन रेगिस्तान 337,600 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इसका आकार लगभग पश्चिमी देश जर्मनी के बराबर का क्षेत्र है। इसके विशाल रेत के टीलों और बार-बार आने वाले रेतीले तूफानों ने लंबे समय तक मौसम के पैटर्न को बाधित किया है। कृषि को खतरे में डाला है और मानव स्वास्थ्य को प्रभावित किया है। जवाब में, चीन ने एक व्यापक हरित अवरोध लागू किया है, जिसे रेगिस्तान के किनारों को लॉक करने और इसके नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को स्थिर करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।


इन प्रयासों ने न केवल रेलवे और राजमार्गों जैसे महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे की रक्षा की है, बल्कि यह भी प्रदर्शित किया है कि टिकाऊ प्रौद्योगिकियां मरुस्थलीकरण का प्रतिकार कैसे कर सकती हैं। सौर ऊर्जा से संचालित सिंचाई प्रणालियों को एकीकृत करके, चीन पृथ्वी पर सबसे कठिन वातावरणों में से एक में वनस्पति को बनाए रखने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग कर रहा है। 



टकलामकन रेगिस्तान के इस व्यापक पहल पर चार दशकों से काम चलाया गया। ग्रीनबेल्ट का पहला 2,761 किलोमीटर का काम कई वर्षों में पूरा हुआ, अंतिम चरण नवंबर 2022 में शुरू हुआ, जिसमें रेगिस्तानी चिनार, लाल विलो और सैक्सौल पेड़ों जैसी लचीली, रेगिस्तान-अनुकूल प्रजातियों को रोपने के लिए 600,000 श्रमिकों को एक साथ लाया गया - जो शुष्क परिस्थितियों में जीवित रहने की अपनी क्षमता के लिए जाने जाते हैं।


ये पौधे कई उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं: वे खिसकती रेत को सहारा देते हैं, रेगिस्तान के विस्तार को धीमा करते हैं, और स्थानीय समुदायों को आर्थिक लाभ प्रदान करते हैं। यह परियोजना इतिहास में सबसे महत्वाकांक्षी पुनर्वनीकरण प्रयासों में से एक का प्रतिनिधित्व करती है, जो दुनिया भर में भूमि क्षरण से निपटने के लिए एक नई मिसाल कायम करती है। 



उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में ग्रीनबेल्ट का प्राथमिक लक्ष्य मरुस्थलीकरण को रोकना है, यह परियोजना दीर्घकालिक आर्थिक अवसर भी पैदा कर रही है। कुछ नए लगाए गए पेड़, जैसे कि रेगिस्तानी जलकुंभी, में औषधीय गुण होते हैं, जो संभावित रूप से हर्बल चिकित्सा के लिए आकर्षक बाजार खोलते हैं।



इसके अलावा, 2022 में, चीन ने हॉटन-रुओकियांग रेलवे का उद्घाटन किया, जो रेगिस्तान के चारों ओर दुनिया की पहली पूरी तरह से घिरी हुई रेलवे थी। 2,712 किलोमीटर लंबा रेलवे रेगिस्तानी शहरों को जोड़ता है, जिससे अखरोट और लाल खजूर जैसे स्थानीय कृषि उत्पादों को पूरे चीन के बाजारों तक पहुंचाना आसान हो जाता है, जिससे क्षेत्रीय व्यापार और विकास को और बढ़ावा मिलता है।


खबरों के मुताबिक़ चीन पुनर्वनरोपण पर रोक नहीं लगा रहा है बल्कि ताकलामाकन रेगिस्तान में एक विशाल नवीकरणीय ऊर्जा परियोजना भी चल रही है। चाइना थ्री गोरजेस कॉर्पोरेशन 8.5 गीगावाट सौर ऊर्जा और 4 गीगावाट पवन ऊर्जा स्थापित करने की योजना का नेतृत्व कर रहा है, जिसके अगले चार वर्षों में पूरा होने की उम्मीद है। झिंजियांग पहले से ही चीन की स्वच्छ ऊर्जा रणनीति में एक प्रमुख खिलाड़ी है, और इस पहल का उद्देश्य क्षेत्र के विशाल नवीकरणीय संसाधनों को राष्ट्रीय ग्रिड में एकीकृत करना है। रेगिस्तान की बहाली को टिकाऊ ऊर्जा उत्पादन के साथ जोड़कर, चीन उस चीज़ को हरित विकास के अवसर में बदल रहा है जो कभी एक पारिस्थितिक चुनौती थी।


ग़ौरतलब है कि टकलामकन ग्रीनबेल्ट की सफलता मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण से निपटने के वैश्विक प्रयासों के अनुरूप है। इसी तरह की बड़े पैमाने की परियोजनाएं, जैसे कि अफ्रीका की ग्रेट ग्रीन वॉल, का उद्देश्य पूरे महाद्वीप में 8,000 किलोमीटर लंबे वृक्ष अवरोधक लगाकर सहारा रेगिस्तान के विस्तार को रोकना है।


इस विकास कार्य पर चीन का दृष्टिकोण सौर ऊर्जा, वनीकरण और आर्थिक प्रोत्साहन को एकीकृत करना है। टकलामकन रेगिस्तान का विकास कार्य समान पारिस्थितिक खतरों का सामना करने वाले अन्य देशों के लिए एक खाका के रूप में भी कार्य कर रहा है। अब जब तकलामाकन ग्रीनबेल्ट पूरा हो गया है, तो अगले चरण में इसकी दीर्घकालिक दक्षता बढ़ाने और यह सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा कि यह एक टिकाऊ, आत्मनिर्भर पारिस्थितिकी तंत्र बना रहे। 


जानकारों के अनुसार यह अभूतपूर्व उपलब्धि नवीन पर्यावरणीय समाधानों के प्रति चीन की प्रतिबद्धता को उजागर करती है। हरित प्रौद्योगिकियों और बड़े पैमाने पर पुनर्वनीकरण का लाभ उठाकर, राष्ट्र ने न केवल अपने स्वयं के बुनियादी ढांचे और कृषि को सुरक्षित किया है, बल्कि भविष्य की वैश्विक रेगिस्तान बहाली परियोजनाओं के लिए भी मार्ग प्रशस्त किया है। अत्याधुनिक सौर ऊर्जा संचालित रेत नियंत्रण, बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण और नवीकरणीय ऊर्जा एकीकरण का संयोजन दर्शाता है कि मरुस्थलीकरण एक अपरिवर्तनीय प्रक्रिया नहीं है। निरंतर अनुसंधान और निवेश के साथ, रेगिस्तानों के अतिक्रमण से जूझ रहे अन्य क्षेत्र जल्द ही चीन के नक्शेकदम पर चल सकते हैं, जिससे यह साबित होगा कि सही तकनीक और रणनीति के साथ, यहां तक ​​कि सबसे कठिन परिदृश्यों को भी संपन्न पारिस्थितिकी तंत्र में बदला जा सकता है।


भारत सहित सभी विकासशील देशों को चीन से सबक़ लेते हुए यह सीखना चाहिए कि विषम परिस्थितियों में भी विकास कार्य किए जा सकते हैं। ओछी राजनीति करने से किसी का भी लाभ नहीं होता। यदि किसी भी प्रदेश में किसी विपक्षी दल ने उस क्षेत्र के विकास के लिए कुछ ठोस कदम उठाए हैं तो उन्हें प्रोत्साहन देना चाहिए। यदि केंद्र में और राज्य में दो अलग दलों की सरकार भी हो तो विकास कार्यों पर किसी भी तरह की रोक लगाना आम जनता के साथ धोखा है। यदि विपक्षी दल की सरकार के चुनाव हारने के बाद किसी अन्य दल की सरकार भी आती है तो उसे भी पुराने विकास के कार्यों को पूरा करना चाहिए। विकास कार्यों के निष्पादन में अक्सर भ्रष्टाचार का बोल बाला माना जाता है। परंतु कार्यों के निष्पादन में होने वाले भ्रष्टाचार से कहीं बड़ा उस कार्य की योजना में होने वाला भ्रष्टाचार होता है जिसे अनुभवहीन इंजीनियर और आर्किटेक्ट जन्म देते हैं। इसलिए यदि सही सोच वाला नेतृत्व सही योजनाओं को स्वीकृति करे तो ऐसे भ्रष्टाचार से बचा जा सकता है और ताकलामाकन रेगिस्तान जैसे कई विकास कार्य दोहराया जा सकते हैं।   

Monday, February 3, 2025

सही दिशा में सुधार की ज़रूरत


बीते कई दशकों से ऐसा देखने में आया है कि गणतंत्रता या दिवस पर शहीदों को नमन कर, देश की दुर्दशा पर श्मशान वैराग्य दिखा कर, देश वासियों को लंबे-चौड़े वायदों की सौगात देकर देश का भला करने के संकल्प लिए जाते हैं। परंतु इन सब से क्या देश का भला हो सकता है? सुजलाम्, सुफलाम्, शस्यश्यामलाम्, भारतभूमि  में किसी चीज की कमी नहीं है। षट् ऋतुएं, उपजाऊ भूमि, सूर्य, चन्द्र, वरूण की असीम कृपा, रत्नगर्भा भूमि, सनातन संस्कृति, कड़ी मेहनत कर सादा जीवन जीने वाले भारतवासी, तकनीकी और प्रबंधकीय योग्यताओं से सुसज्जित युवाओं की एक लंबी फौज, उद्यमशीलता और कुछ कर गुजरने की ललक, क्या यह सब किसी देश को ऊंचाईयों तक ले जाने के लिए काफी नहीं है? दुनिया भर के कई देशों में प्रवासी भारतीयों ने कई क्षेत्रों में बुलंदियों को छुआ है। इसका मतलब यह हुआ कि भारतीयों में योग्यता की कोई कमी नहीं है। यदि सभी को सही मौक़ा और प्रोत्साहन मिले तो कठिन से कठिन लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।



अगर यह बात सही है तो फिर क्या वजह है कि खिलाडि़यों पर खर्चा करने की बजाय खेल के खर्चीले आयोजनों पर अरबों रूपया बर्बाद किया जाता है? कुछ हजार रुपये का कर्जा लेने वाले किसान आत्म हत्या करते हैं और लाखों करोड़ रुपये का बैंकों का कर्जा हड़पने वाले उद्योगपति ऐश। आधी जनता भूखे पेट सोती है और एफसीआई के गोदामों में करोड़ों टन अनाज सड़ता है। विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया भी ऐसी अव्यवस्था  का नंगा नाच दिखाने में पीछे नहीं रहते। नतीजतन आतंकवाद और नक्सलवाद चरम सीमा पर पहुंचता जा रहा है। सरकार के पास विकास के लिए धन की कमी नहीं है। पर धन का सदुपयोग कर विकास के कामों को ईमानदारी से करने वाले लोग व संस्थाएँ तो पैसे-पैसे के लिए धक्के खाते हैं और नकली योजनाओं पर अरबों रुपया डकारने वाले सरकार का धन बिना किसी रुकावट के खींच ले जाते हैं। ऐसे में स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्रता दिवस का क्या अर्थ लिया जाए? यही न कि हमने आज़ादी के नाम पर गोरे साहबों को धक्का देकर काले साहबों को बिठा दिया। पर काले साहब तो लूट के मामले में गोरों के भी बाप निकले। स्विटजरलैंड के बैंकों में सबसे ज्यादा काला धन जमा करने वालों में भारत काफी आगे है।



इसलिए जरूरत है हमारी सोच में बुनियादी परिवर्तन की। ‘सब चलता है’ और ‘ऐसे ही चलेगा’ कहने वाले इस लूट में शामिल हैं। जज्बा तो यह होना चाहिए कि ‘देश सुधरेगा क्यों नहीं?’ ‘हम ऐसे ही चलने नहीं देंगे’। अब सूचना क्रांति का जमाना है। हर नागरिक को सरकार के हर कदम को जांचने परखने का हक है। इस हथियार का इस्तेमाल पूरी ताकत से करना चाहिए। सरकार चाहे किसी भी दल की क्यों न हो उसमें में जो लोग बैठे हैं उन्हें भी अपने रवैये को बदलने की जरूरत है। एक मंत्री या मुख्यमंत्री रात के अंधेरे में मोटा पैसा खाकर उद्योगपतियों के गैर कानूनी काम करने में तो एक मिनट की देर नहीं लगाता। पर यह जानते हुए भी कि फलां व्यक्ति या संस्था राज्य के बेकार पड़े संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल कर सकती है, उसके साथ वही तत्परता नहीं दिखाता। आखिर क्यों? जब तक हम सही और अच्छे को बढ़ावा नहीं देंगे, उसका साथ नहीं देंगे, उसके लिए आलोचना भी सहने से नहीं डरेंगे तब तक कुछ नहीं बदलेगा। नारे बहुत दिये जाएँगे पर परिणाम केवल कागजों तक सीमित रह जाएँगे। सरकारों ने अगर अपने अधिकारियों के विरोध की परवाह करते हुए अपने कार्यकालों में कई सक्षम लोगों को यदि खुली छूट न दी होती तो अमूल और मेट्रो जैसे हजारों करोड़ के साम्राज्य कैसे खड़े होते?



आम आदमी के लिए रोजगार का सृजन करना हो या देश की गरीबी दूर करना हो, सरकार की नीतियों में बुनियादी बदलाव लाना होगा। केवल आंकड़े ही नहीं साक्षात परिणाम देखकर भी नीति बननी चाहिए। खोजी पत्रकारिता के चार दशक के मेरे अनुभव यही रहे कि बड़े से बड़ा भ्रष्टाचार बड़ी बेशर्मी से कर दिया जाता है। पर सच्चाई और अच्छाई का डटकर साथ देने की हिम्मत हमारे राजनेताओं में नहीं है। इसीलिए देश का सही विकास नहीं हो रहा। खाई बढ़ रही है। हताशा बढ़ रही है। हिंसा बढ़ रही है। पर नेता चारों ओर लगी आग देखकर भी कबूतर की तरह आंखे बंद किये बैठें हैं। इसलिए फिर से समाज के मध्यम वर्ग को समाज के हित में सक्रिय होना होगा। मशाल लेकर खड़ा होना होगा। टीवी सीरियलों और उपभोक्तावाद के चंगुल से बाहर निकल कर अपने इर्द-गिर्द की बदहाली पर निगाह डालनी होगी। ताकि हमारा खून खौले और हम बेहतर बदलाव के निमित्त बन सके। विनाश के मूक दृष्टा नहीं। तब ही हम सही मायने में आजाद हो पायेंगे। फिलहाल तो उन्हीं अंग्रेजों के गुलाम हैं जिनसे आजादी हासिल करने का मुगालता लिये बैठे हैं। हमारे दिमागों पर उन्हीं का कब्जा है। जो घटने की बजाय बढ़ता जा रहा है।



यह बातें या तो शेखचिल्ली के ख्वाब जैसी लगतीं हैं या किसी संत का उपदेश। पर ऐसा नहीं है। इन्हीं हालातों में बहुत कुछ किया जा सकता है। देश के हजारों लाखों लोग रात दिन निष्काम भाव से समाज के हित में समर्पित जीवन जी रहे हैं। हम इतना त्याग ना भी करें तो भी इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने इर्द-गिर्द की गंदगी को साफ करने की ईमानदार कोशिश करें। चाहे वह गंदगी हमारे दिमागों में हो, हमारे परिवेश में हो या हमारे समाज में हो। हम नहीं कोशिश करेंगे तो दूसरा कौन आकर हमारा देश सुधारेगा? इसलिए यह ज़िम्मेदारी अकेले केवल देश के नेतृत्व कर रहे नेताओं का नहीं है, इसके लिए अफ़सरशाही, मीडिया और जनता सभी का होना चाहिए।
 

Monday, January 6, 2025

देशी गाय के वैज्ञानिक महत्व को समझने की ज़रूरत


जबसे मुसलमान शासक भारत में आए तब से गौवंश की हत्या होनी शुरू हुई। हिन्दू लाख समझाते रहे कि गौमाता सारे संसार की जननी के समान है। उसके शरीर के हर अंश में लोक कल्याण छिपा है और तो और उसका मूत्र और गोबर तक औषधि युक्त है, इसलिये उसकी हत्या नहीं उसका पूजन किया जाना चाहिये। पर यवनों पर कोई असर नहीं पड़ा। आज भी मूर्खतावश बहुत से मुसलमान गौवंश की हत्या करते हैं। अक्सर यह दोनों धर्मों के बीच विवाद का विषय रहता है। अंग्रेज जब भारत में आए तो उन्होंने हिन्दुओं का मजाक उड़ाया। वे अपने सीमित ज्ञान के कारण यह समझने में असमर्थ थे कि हिन्दू गौवंश का इतना सम्मान क्यों करते हैं? आजादी के बाद धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वालों ने भी हिन्दुओं की इस मान्यता पर ध्यान नहीं दिया।
 



कुछ वर्ष पहले जब यह सूचना आई कि गौमूत्र का औषधि के रूप में अमरीका में पेटेंट हो गया है, तो सारे देश में सनसनी पैदा हो गई। योग और आयुर्वेद की तरह अब पूरी दुनिया जल्दी ही गोमाता के महत्व को स्वीकारने लगेगी। हमेशा की तरह हम अपनी ही धरोहर को विदेशी पैकेज में कई गुना दामों में खरीदने पर मजबूर होंगे। जिस तरह पेप्सी कंपनी हमारे बाजारों से दो रुपये किलो आलू खरीद कर 250 रुपये किलो के चिप्स बेचती है वैसे ही आने वाले दिनों में गौमूत्र व गोबर सुंदर पैकेजिंग और आकर्षक विज्ञापनों के सहारे सैकड़ों रुपये कीमत पर बिकेगा। आवश्यकता इस बात की है कि हम गोमाता के महत्व को समय रहते पहचानें। शास्त्रीय और वैज्ञानिक आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि गौमाता के शरीर के हर हिस्से से हम पर कृपा बरसती है।


गो दूध का वैज्ञानिक महत्व



अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हृदय विशेषज्ञों ने इस बात को ज़ोर देकर कहा है कि हृदय रोगियों के लिये देशी गाय का दूध विशेष रूप से उपयोगी है। देशी गाय के दूध के कण सूक्ष्म और सुपाच्य होते हैं। अतः वह मस्तिष्क की सूक्ष्मतम नाडि़यों में पहुँच कर मस्तिष्क को शक्ति प्रदान करते हैं। देशी गाय के दूध में केरोटीन (विटामिन-ए) नाम का पीला पदार्थ रहता है, जो आंख की ज्योति बढ़ाता है। चरक सूत्र स्थान 1/18 के अनुसार, देशी गाय का दूध जीवन शक्ति प्रदान करने वाले द्रव्यों में सर्वश्रेष्ठ है। देशी गाय के दूध में 8 प्रतिशत प्रोटीन, 8 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट और 0.7 प्रतिशत मिनरल (100 आई.यू) विटामिन ए और विटामिन बी, सी, डी एवं ई होता है। निघण्टु के अनुसार देशी गाय का दूध रसायन, पथ्य, बलवर्धक, हृदय के लिये हितकारी, बुद्धिवर्धक, आयुप्रद, पुंसत्वकारक तथा त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) नाशक है।


देशी गाय के घी का वैज्ञानिक महत्व



गोघृत खाने से कोलेस्टरोल नहीं बढ़ता। इसे सेवेन से हृदय पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। रूसी वैज्ञानिक शिरोविच के शोधानुसार देशी गाय के घी में मनुष्य शरीर में पहुँचे रेडियोधर्मी कणों का प्रभाव नष्ट करने की असीम शक्ति है। गोघृत से यज्ञ करने से आक्सीजन बनती है। देशी गाय के घी को चावल के साथ मिलाकर जलाने से (यज्ञ) ईथीलीन आक्साइड, प्रोपीलीन आक्साइड और फोरमैल्डीहाइड नाम की गैस पैदा होती है। ईथीलीन आक्साइड और फारमैल्डीहाइड जीवाणी रोधक है जिसका उपयोग आपरेशन थियेटर को कीटाणु रहित करने में आज भी होता है। प्रोपीलीन आक्साइड वर्षा करने के उपयोग में आती है- अर्थात गोघृत द्वारा किये गये यज्ञ से वातावरण की शुद्धि और वर्षा होना दोना स्वाभाविक परिणाम हैं। भाव प्रकाश निघण्टु के अनुसार गोघृत नेत्रों के लिये हितकारी, अग्निप्रदीपक, त्रिदोष नाशक, बलवर्धक, आयुवर्धक, रसायन, सुगंधयुक्त, मधुर, शीतल, सुंदर और सब घृतों में उत्तम होता है।


गोमूत्र का वैज्ञानिक महत्व


गोमूत्र में ताम्र होता है जो मानव शरीर में स्वर्ण के रूप में परिवर्तित हो जाता है। स्वर्ण सर्व रोग नाशक शक्ति रखता है। स्वर्ण सभी प्रकार का विषनाशक है। गोमूत्र में ताम्र के अतिरिक्त लोहे, कैल्शियम, फास्फोरस और अन्य प्रकार के क्षार (मिनरल्स), कार्बोनिक एसिड, पोटाश और लेक्टोज नाम के तत्व मिलते हैं। गोमूत्र में 24 प्रकार के लवण होते हैं जिनके कारण गोमूत्र से निर्मित विविध प्रकार की औषधियां कई रोगों के निवारण में उपयोगी हैं। गोमूत्र कीटनाशक होने से वातावरण को शुद्ध करता है और जमीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है। गोमूत्र त्रिदोष नाशक है, किन्तु पित्त निर्माण करता है। लेकिन काली देशी गाय का मूत्र पित्त नाशक होता है। नवयुवकों के लिये गोमूत्र शीघ्रपतन, धातु का पतलापन, कमजोरी, सुस्ती, आलस्य, सिरदर्द क्षीण स्मरण शक्ति में बहुत उपयोगी है। पंचगव्य गोघृत गोमय, गोदधि, गोदुग्ध, गोमुत्र से मिलकर बनता है। उसका सेवन मिर्गी, दिमागी कमजोरी, पागलपन, भयंकर पीलिया, बवासीर आदि में बहुत उपयोगी है। कैंसर जैसे दुस्साध्य और उच्च रक्तचाप तथा दमा जैसे रोगों में भी गोमूत्र सेवन अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है।


गोबर का वैज्ञानिक महत्व


इटली के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. जी.ई. बीगेड ने गोबर के अनेक प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया है कि देशी गाय के ताजे गोबर से टी बी तथा मलेरिया के कीटाणु मर जाते हैं। आणविक विकरण से मुक्ति पाने के लिये जापान के लोगों ने गोबर को अपनाया है। गोबर हमारी त्वचा के दाद, खाज, एक्जिमा और घाव आदि के लिये लाभदायक होता है। सिर्फ एक देशी गाय के गोबर से प्रतिवर्ष 45000 लीटर बायो गैस मिलती है। बायो गैस के उपयोग करने से 6 करोड़ 80 लाख टन लकड़ी बच सकती है जो आज जलाई जाती है। जिससे 14 करोड़ वृक्ष कटने से बचेंगे ओर देश के पर्यावरण का संरक्षण होगा। गोबर की खाद सर्वोत्तम खाद है। जबकि फर्टिलाइजर से पैदा अनाज हमारी प्रतिरोधक क्षमता को लगातार कम करता जा रहा है।


ऐसी तमाम जानकारियों का संचय कर उसके व्यापक प्रचार प्रसार में जुटे युवा वैज्ञानिक श्री सत्यनारायण दास बताते हैं कि विदेशी इतिहासकारों और माक्र्सवादी चिंतकों ने वैदिक शास्त्रों में प्रयुक्त संस्कृत का सतही अर्थ निकाल कर बहुत भ्रांति फैलाई है। इन इतिहासकारों ने यह बताने की कोशिश की है कि वैदिक काल में आर्य गोमांस का भक्षण करते थे। यह वाहियात बात है। ‘गौधन’ जैसे शब्द का अर्थ अनर्थ कर दिया गया। श्री दास के अनुसार वैदिक संस्कृत में एक ही शब्द के कई अर्थ प्रयुक्त होते हैं जिन्हें उनके सांस्कृतिक परिवेश में समझना होता है। इन विदेशी इतिहासकारों ने वैदिक संस्कृत की समझ न होने के कारण ऐसी भूल की। आईआईटी से बी.टेक. और एम.टेक. करने वाले श्री दास गो सेवा को सबसे बड़ा धर्म मानते हैं। इसलिए समय की माँग है कि अब भारत सरकार और प्रांतीय सरकारें गौवंश की हत्या पर कड़ा प्रतिबंध लगायें और इनके संवर्धन के लिये उत्साह से ठोस प्रयास करें। शहरी जनता को भी अपनी बुद्धि शुद्ध करनी चाहिये। गौवंश की सेवा हमारी परंपरा तो है ही आज के प्रदूषित वातावरण में स्वस्थ रहने के लिये हमारी आवश्यकता भी है। हम जितना गो माता के निकट रहेंगे उतने ही स्वस्थ और प्रसन्न रहेंगे। 

Monday, December 30, 2024

डॉ मनमोहन सिंह: सबके मन को मोहा


दुनिया से जाने के बाद इंसान के सद्गुणों को याद करने की परंपरा है। इसलिए आज भारतवासी ही नहीं दुनिया के तमाम देशों के महत्वपूर्ण लोग डॉ मनमोहन सिंह को याद कर रहे हैं। पिछले तीस वर्षों में मेरा उनसे कई बार सामना हुआ। हर बार एक नया अनुभव मिला। मेरा छोटा बेटा और डॉ मनमोहन सिंह का धेवता माधव दिल्ली के सरदार पटेल विद्यालय में पहली कक्षा से 12वीं कक्षा तक साथ पड़े। इसलिए इन दोनों बच्चों के जन्मदिन पर मेरी पत्नी और डॉ सिंह की बेटी अपने सुपुत्र को लेकर जन्मदिन की पार्टी में आती-जाती थीं। जब डॉ सिंह वित्त मंत्री थे तो मेरी पत्नी ने उनके कृष्ण मेनन मार्ग के निवास से लौट कर बताया कि उनकी यह पार्टी उतनी ही सादगी पूर्ण थी जैसी आम मध्यम वर्गीय परिवारों की होती है। न कोई साज सज्जा, न कोई हाई-फ़ाई केटरिंग, सब सामान घर की रसोई में ही बने थे। कोई सरकारी कर्मचारी इस आयोजन में भाग-दौड़ करते दिखाई नहीं दिये। माधव के माता-पिता और नाना-नानी ही सभी अतिथि बच्चों को खिला-पिला रहे थे।
 



सरदार पटेल विद्यालय के वार्षिक समारोह में डॉ मनमोहन सिंह भारत के वित्त मंत्री के नाते मुख्य अतिथि थे। विद्यालय की मशहूर प्राचार्या श्रीमती विभा पार्थसार्थी, अन्य अध्यापकगण और हम कुछ अभिभावक उनके स्वागत के लिए विद्यालय के गेट पर खड़े थे। तभी विद्यालय का एक कर्मचारी प्राचार्या महोदया के पास आया और बोला कि एक सरदार जी हॉल में आकर बैठे हैं और आपको पूछ रहे हैं। विभा बहन और हम सब तेज़ी से हॉल की ओर गये तो देखा कि वो डॉ मनमोहन सिंह ही थे। हुआ ये कि वे आदत के मुताबिक़ कैबिनेट मंत्री की गाड़ी, सुरक्षा क़ाफ़िला साथ न ला कर अपनी सफ़ेद मारुति 800 कार को ख़ुद चला कर विद्यालय के उस छोटे गेट से अंदर आ गये जहां वे अक्सर माधव को स्कूल छोड़ने आते रहे होंगे। 



1993-96 में जैन हवाला कांड उजागर करने के दौरान मैं देश भर में प्रायः रोज़ ही जनसभाएँ संबोधित करने बुलाया जाता था। उन दिनों मीडिया की सुर्ख़ियों में भी मेरे बयान छपते रहते थे, ऐसे में इण्डियन एयरलाइंस का स्टाफ़ एयरपोर्ट पर चेक-इन करते वक्त मुझे और मेरे सहयोगी रजनीश कपूर को प्राथमिकता देते थे। एक बार मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो डॉ मनमोहन सिंह ब्रीफकेस हाथ में लिए लाइन में पीछे खड़े थे। मुझे झिझक लगी तो मैंने उनसे आगे बढ़कर कहा कि, पहले आप चेक-इन कर लीजिए। उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया और अपना नंबर आने पर ही चेक-इन किया। 



हवाला कांड के अभियान के दौरान मैं देश के हर बड़े दल के नेताओं के घर जा कर उनसे तीखे सवाल करता था और पूछता था कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े इतने बड़े कांड पर संसद मौन क्यों है? आप लोग सरकार से सवाल क्यों नहीं पूछते कि कश्मीर के आतंकवादियों को हवाला के ज़रिये अवैध धन पहुँचाने के मामले में सीबीआई जाँच क्यों दबाए बैठी है? इसी दौरान मैं तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह से मिलने उनके आवास भी गया। वे और उनकी पत्नी बड़े सम्मान से मिले। शिष्टाचार की औपचारिकता के बाद मैंने उन से पूछा, ‘आपकी छवि एक ईमानदार नेता की है। ये कैसे संभव हुआ कि बिना यूरिया भारत आए करोड़ों रुपये का भुगतान हो गया?’ फिर मैंने कहा, ‘हर्षद मेहता कांड और अब जैन हवाला कांड आपकी नाक के नीचे हो गये और आपको भनक तक नहीं लगी, ऐसे कैसे हो सकता है कि वित्त मंत्रालय को इसकी जानकारी न हो? यह भी संभव नहीं है कि आपके अफ़सरों ने आपको अंधेरे में रखा हो। पर अब तो ये मामले सार्वजनिक मंचों पर आ चुके हैं तो आपकी खामोशी का क्या कारण समझा जाए।’ उन्होंने मेरे इन प्रश्नों के उत्तर देने के बजाए चाय की चुस्की ली और मुझसे बोले, आपने बिस्कुट नहीं लिया। मैं समझ गया कि वे इन प्रश्नों का उत्तर देना नहीं चाहते या उत्तर न देने की बाध्यता है। फिर दोनों पति-पत्नी मुझे मेरी गाड़ी तक छोड़ने आए और जब तक मैं गाड़ी स्टार्ट करके चल नहीं दिया तब तक वहीं खड़े रहे। 



हवाला कांड के लंबे संघर्ष से जब मैं थक गया तो बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा की प्रेरणा से मथुरा वृंदावन और आस-पास के क्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थलियों का जीर्णोद्धार और संरक्षण करने में जुट गया। मुझे आश्चर्य हुआ यह देख कर कि 1947 से अब तक किसी भी राजनैतिक दल या उससे जुड़े सामाजिक संगठनों ने कभी भी भगवान श्री राधा कृष्ण की दिव्य लीलास्थलियों के जीर्णोद्धार का कोई प्रयास नहीं किया था। अगर कुछ किया तो सार्वजनिक ज़मीनों पर क़ब्ज़े करने का काम किया। ख़ैर भगवत कृपा और संत कृपा से हमारे कार्य की सुगंध दूर-दूर तक फैल गई। लेकिन इस दौरान मैं देश की मुख्य धारा के राजनैतिक और मीडिया दायरों से बहुत दूर चला गया। मेरी गुमनामी इस हद तक हो गई कि मात्र सात वर्षों में दिल्ली के महत्वपूर्ण लोग मुझे भूलने लगे। तभी   2009 में ‘आईबी डे’ पर आईबी के तत्कालीन निदेशक के आवास पर प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह अन्य गणमान्य लोगों से हाथ मिलाकर धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। मैं और मेरी पत्नी उनसे काफ़ी दूर लॉन में एक पेड़ के नीचे खड़े थे। मेरी पत्नी ने कहा कि चलिए हम भी आगे बढ़कर प्रधान मंत्री जी से मिल लेते हैं। पर मैं संकोचवश वहीं खड़ा रहा। इतने में डॉ सिंह मुड़े और दूर से मुझे देख कर मेरे पास चलते हुए आए और बोले, विनीत जी आपका मथुरा का काम कैसा चल रहा है? हमारी यह मुलाक़ात शायद लगभग 15 वर्ष बाद हो रही थी। मुझे आश्चर्य हुआ उनका यह प्रश्न सुन कर। मैंने कहा, ‘हमारा काम तो ठीक चल रहा है पर आपकी धर्मनिरपेक्ष सरकार से कोई मदद नहीं मिल रही।’ वे बोले, आप कभी आकर मुझ से मिलें। 


चालीस वर्षों की पत्रकारिता में देश के सभी बड़े राजनेताओं से अच्छा संपर्क रहा। अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि प्रधान मंत्री के पद पर रहते हुए भी जिस आत्मीयता से श्री चंद्रशेखर जी, श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी व डॉ मनमोहन सिंह जी मुझ से मिलते रहे वह चिरस्मरणीय है। ये तो तब जब इन तीनों की, उनके इस महत्वपूर्ण पद पर रहते हुए, मैं अपने लेखों और भाषणों में तीखी आलोचना करता था।   

Monday, December 16, 2024

मुसलमान ज़रा सोचें


हर जमात में शरीफ लोगों की कमी नहीं होती। मुसलमानों में भी नहीं है। चाहे भारत के हों या पाकिस्तान के। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इम्तियाज अहमद उन मुसलमानों में से थे जिन्होंने भारत में इस्लाम की हालत पर वर्षों गहन अध्ययन किया। इस अध्ययन के आधार पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। इस पुस्तकों में उन्होंने बताने की कोशिश की है कि भारत में रहने वाले मुसलमानों का सामाजिक जीवन, सोच और प्राथमिकतायें दूसरे देशों के मुसलमानों से भिन्न हैं और भारतीय हैं। उनका मानना है कि धर्मान्धता से ग्रस्त होकर विद्वेष की भावना रखने वाले मुसलमानों की संख्या बहुत थोड़ी है। भारत में रहने वाले ज्यादातर मुसलमान ये जानते हैं कि उनका जीवन पाकिस्तान में रह रहे मुसलमानों से कही बेहतर है। जितनी आजादी और आगे बढ़ने के अवसर उन्हें भारत में मिले हैं, उतने कट्टरपंथी पाकिस्तान में नहीं मिलते।



आमतौर पर यह माना जाता है कि पूरे देश का समाज हिन्दू और मुसलमान दो खेमों में बंटा है। इन दोनों खेमों के बीच स्थाई द्वेष और अपने अपने खेमे के भीतर भारी एकजुटता है। दोनों पक्षों के धर्मान्ध नेता इस मान्यता को बढ़ाने में काफी तत्पर रहते हैं। हकीकत यह नहीं है। कश्मीर के एक मुसलमान को यह देखकर आश्चर्य होगा कि तमिलनाडु के मुसलमानों के घर बारात का स्वागत केले के पत्ते, नारियल और इलायची से वैसे ही किया जाता है जैसे किसी हिन्दू के घर में। कश्मीर का मुसलमान तमिलनाडु के मुसलमान के घर का भोजन खाकर तृप्त नहीं होता ठीक वैसे ही जैसे तमिलनाडु का मुसलमान तमिल घर में भोजन खाकर ही प्रसन्न होता है। बात बात पर उत्तेजित हो जाने वाली बंगाल की आम जनता के साथ अगर आप रेलगाड़ी के साधारण डिब्बे में सफर कर रहे हैं और आपकी बहस किसी स्थानीय व्यक्ति से हो जाए तो आप अपने को अकेला पाएंगे। आपके विरोध में हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोग एकजुट होकर खड़े हो जायेंगे। वहां सवाल इस बात का नहीं होगा कि आप हिन्दू हैं या मुसलमान। आप गैर बंगाली हैं इसलिये आपके प्रति स्थानीय लोगों की हमदर्दी हो ही नहीं सकती। हर राज्य का यही हाल है। भाषा, पहनावा, भोजन, आचार विचार के मामले में भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों में रहने वाले लोग भिन्न भिन्न समुदायों में बंटै हैं मसलन तमिल, कन्नड, केरलीय, मराठी, गुजराती, उडि़या, बंगाली, असमिया, पंजाबी, बिहारी, हरियाणवी आदि। जब तक कोई धर्मान्धता की घुट्टी पिलाने न जाए स्थानीय जनता अपने धर्म के संकुचित दायरे में ही सिमट कर नहीं रहती बल्कि परदेशी के विरूद्ध स्थानीय लोगों की एकजुटता का प्रदर्शन करती है। इसलिये यह कहना कि सारे मुसलमान एक जैसे हैं, ठीक नहीं।



ठीक इसी तरह से ये सोचना भ्रम है कि इस्लाम धर्म के मानने वाले सभी लोगों में भारी एकजुटता होती है। कुरान शरीफ के मुताबिक खुदा की नजर में उसका हर बंदा एक समान हैसियत रखता है। कोई भेद नहीं। मुसलमान दावा भी करते हैं कि वे एक पंगत में बैठकर नमाज अदा करते हैं और एक ही पंगत में बैठकर खाते हैं पर यह भी हकीकत है कि उनकी यह एकजुटता कुछ खास मकसद तक सिमट कर रह जाती है। कायदे से मुसलमानों में जाति व्यवस्था नहीं होनी चाहिये पर चूंकि भारत में रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान स्थानीय मूल के ही लोग हैं जिन्होंने किन्हीं कारणों से इस्लाम स्वीकार कर लिया था और जब वे मुसलमान बने तो अपने साथ वे न सिर्फ अपनी जीवनशैली ले गये बल्कि जाति व्यवस्था को भी ले गये। इसीलिये मुस्लिम समाज में भी अनेक जातियां हैं। मसलन जुलाहे, बढ़ई, लुहार, धुनिया, नाई आदि। मुसलमानों में भी तथाकथित ऊंची और नीची जातियां होती हैं ऊंची जातियों में प्रमुख हैं- सैय्यद, लोधी, पठान वगैरह। अब अगर कोई गरीब मुसलमान जुलाहा किसी पठान या सैययद के बैटे से अपनी बेटी के निकाह का पैगाम लेकर जाए तो उसे कामयाबी नहीं मिलेगी। शायद इज्जत बचाकर लौटना भी मुश्किल होगा। ठीक वैसे ही जैसे हिन्दुओं में अगर कोई केवट जाति का पिता ब्राह्मण परिवार में अपनी कन्या का प्रस्ताव लेकर जाये तो उसके साथ भी ऐसा ही होगा। इसलिये यह मानना कि सारे हिन्दू एक तरफ हैं और सारे मुसलमान एक तरफ, गलत होगा।


हिन्दूओं की तरह ही मुसलमानों में बहुसंख्यक लोग ऐसे हैं जिन्हें मजहब से ज्यादा रोजी रोटी की फिक्र है। वे चाहे पाकिस्तान में रह रहे हों या भारत में। लाहौर में बसे राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर मुबारक अली बताते हैं कि पाकिस्तान की पढ़ी लिखी आबादी तालिबान की नीतियों की समर्थक नहीं है। उन्हें डर है कि अगर कठमुल्लापन इसी तरह बढ़ता गया और इसे रोका न गया तो पाकिस्तान की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था चूर चूर हो जाएगी


मिस्त्र, इरान, इराक, मलेशिया, इंडोनेशिया और तमाम दूसरे ऐसे देश हैं जो घोषित रूप से इस्लाम में आस्था रखने वाले देश हैं पर अगर इनकी तरक्की, वेशभूषा और आधुनिकता को देखा जाए तो यह आश्चर्य होगा कि मुसलमान होते हुए भी ये इतने प्रगतिशील कैसे हैं। इन देशों के संतुश्ट और खुशहाल नागरिक बताते हैं कि उन्होंने कुरान के मूल संदेश को अपनाया है। पर साथ ही हर मोर्चे पर आगे बढ़ने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता।


जिन लोगों को 1980 के मुरादाबाद के साम्प्रदायिक दंगों की याद है उन्हें ये भी याद होगा कि इन दंगों के बाद मुरादाबाद के कलात्मक बर्तनों के निर्यात में भारी कमी आयी थी। जिसके बाद हजारों हुनरमंद कारीगरों को बदहाली से मजबूर होकर अपने बच्चों के पेट पालने के लिये रिक्शा चलाना पड़ा। जो यह करने के बाद भी अपने बच्चों का पेट नहीं भर सके उन्होंने पूरे परिवार को तेजाब पिलाकर खुद भी पी लिया और खुदा को प्यारे हो गये। आज हालात फिर वैसे ही बन रहे हैं।


दुर्भाग्य से अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिये तमाम सियासती लोग और मजहबों के ठेकेदार देश की जनता को धार्मिक और जातीय खेमों में बांटते जा रहे हैं। जिसका भारी खामियाजा देश की आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। इसलिये ऐसे संवेदनशील माहौल में जब आतंकवाद का चारों तरफ तांडव हो रहा हो भारत के मुसलमानों को चाहिये कि वे वतनपरस्ती की एक ऐसी जलवाफरोशी करें कि उनके आलोचक भी दंग रह जायें। अक्सर यह सवाल उठाया जा सकता है कि इसी मुल्क में पैदा होने के बावजूद मुसलमानों से बार बार देश प्रेम का सबूत क्यों मांगा जाता है ? सवाल बिल्कुल जायज है। क्या ऐसा नहीं है कि देश के साथ अनेक मोर्चों पर गद्दारी करने वालों में विभिन्न प्रांतों के अनेक हिन्दू ही शामिल रहे हैं तो फिर ऐसी अपेक्षा मुसलमानों से ही क्यो? इसकी एक वजह है। पिछले कुछ वर्षों से देश में फैल रहे आतंकवाद में शामिल नौजवान मुस्लिम समाज से ही आये हैं। इसलिये अगर देश की शेष जनता मुस्लिम समुदाय और आतंकवादियों के बीच सीधा सम्बन्ध देखती है तो यह अस्वाभाविक नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे अमरीका में हुए आतंकवादी हमले के बाद अमरीकी जनता ने एक सरदार जी को इसलिये मार डाला क्योंकि उनकी शक्ल ओसामा बिन लादेन से मिलती थी। गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। 


इसलिये भारत के मुसलमानों को चाहिये कि वे कट्टरपंथी और दहशतगर्दों से बचकर रहे। इतना ही नहीं इनको पकड़वाने और इनके हौसले नाकामयाब करने में सक्रिय हों। देश भर में होने वाले आतंकी हमले, ख़ासकर जम्मू कश्मीर में होने वाले  भयानक विस्फोटों की निंदा सारे भारत में उसी तरह की जानी चाहिये जैसे अमरीका में रहने वाले हर धर्म के लोगों ने न्यूयार्क के हमले के विरोध में प्रदर्शन और प्रार्थनायें कीं। यदि ऐसा किया जाता है तो इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। न सिर्फ फिरकापरस्त सियासतदानों के हौसले पस्त होंगे बल्कि समाज में जानबूझकर पैदा कर दी गयी खाई भी पटने लगेगी। इसमें कोई बुरा मानने की बात नहीं है। मौके की नजाकत को देखकर कभी कभी हमें रोजमर्रा की जिंदगी से हटकर भी कुछ करना पड़ता है। इससे आवाम का ही फायदा होता है। उम्मीद की जानी चाहिये कि भारत के मुसलमान वक्त के इस नाजुक दौर में परिपक्वता और होशियारी का परिचय देंगे ताकि हर परिवार में खुशहाली और अमन चैन बढ़े, नफरत और बैर नहीं। 

Monday, December 9, 2024

राजनेताओं के प्रेम प्रसंग


हमेशा की तरह राजनेताओं के प्रेम प्रसंग लगातार चर्चा में रहते हैं। ये बात दूसरी है कि ऐसे सभी मामलों को बल पूर्वक दबा दिया जाता है। जल्दी ही ऐसी घटनाएँ जनता के मानस से ग़ायब हो जाती हैं। पर दुनिया भर के राजनेताओं के चरित्र और आचरण पर जनता और मीडिया की पैनी निगाह हमेशा लगी रहती है। जब तक राजनेताओं के निजी जीवन पर परदा पड़ा रहता है, तब तक कुछ नहीं होता। पर एक बार सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। फिर तो उस राजनेता की मीडिया पर ऐसी धुनाई होती है कि कुर्सी भी जाती है और इज्जत भी। ज्यादा ही मामला बढ़ जाए, तो आपराधिक मामला तक दर्ज हो जाता है। विरोधी दल भी इसी ताक में लगे रहते हैं और एक दूसरे के खिलाफ सबूत इकट्ठे करते हैं। उन्हें तब तक छिपाकर रखते हैं, जब तक उससे उन्हें राजनैतिक लाभ मिलने की परिस्थितियाँ पैदा न हो जाऐं। मसलन चुनाव के पहले एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का काम जमकर होता है। पर यह भारत में ही होता हो, ऐसा नहीं है।
 



उन्मुक्त जीवन व विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध को मान्यता देने वाले अमरीकी समाज में भी जब उनके राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का अपनी सचिव मोनिका लेवांस्की से प्रेम सम्बन्ध उजागर हुआ तो अमरीका में भारी बवाल मचा था। इटली, फ्रांस व इंग्लैंड जैसे देशों में ऐसे सम्बन्धों को लेकर अनेक बार बड़े राजनेताओं को पद छोड़ने पड़े हैं। मध्य युग में फ्रांस के एक समलैंगिक रूचि वाले राजा को तो अपनी दावतों का अड्डा पेरिस से हटाकर शहर से बाहर ले जाना पड़ा। क्योंकि आए दिन होने वाली इन दावतों में पेरिस के नामी-गिरामी समलैंगिक पुरूष शिरकत करते थे, और जनता में उसकी चर्चा होने लगी थी। 



आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई मामले प्रकाश में आ चुके हैं, जहाँ मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों आदि के प्रेम प्रसंगों पर बवाल मचते रहे हैं। उड़ीसा के मुख्यमंत्री जी.बी. पटनायक पर समलैंगिकता का आरोप लगा था। आन्ध्र प्रदेश के राज्यपाल एन. डी. तिवारी का तीन महिला मित्रों के साथ शयनकक्ष का चित्र टी.वी. चैनलों पर दिखाया गया। अटल बिहारी वाजपयी का यह बयान कि वे न तो ब्रह्मचारी हैं और न ही विवाहित, काफी चर्चित रहा था। क्योंकि इसके अनेक मायने निकाले गए। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के सम्बन्धों को लेकर पार्टी में काफी विरोध हुआ था। ऐसे अनेक मामले हैं। पर यहाँ कई सवाल उठते हैं। 



घोर नैतिकतावादी विवाहेत्तर सम्बन्धों की कड़े शब्दों में भर्त्सना करते हैं। उसे निकृष्ट कृत्य और समाज के लिए घातक बताते हैं। पर वास्तविकता यह है कि अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना राजाओं और नेताओं को छोड़, संतों और देवताओं के लिए भी अत्यंत दुष्कर कार्य रहा है। महान तपस्वी विश्वामित्र को स्वर्ग की अप्सरा मेनका ने अपनी पायल की झंकार से विचलित कर दिया। यहाँ तक कि भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देखकर भोलेशंकर समाधि छोड़कर उठ भागे और मोहिनी से संतान उत्पत्ति की। इसी तरह अन्य धर्मों में भी संतो के ऐसे आचरण पर अनेक कथाऐं हैं। वर्तमान समय में भी जितने भी धर्मों के नेता हैं, वे गारण्टी से यह नहीं कह सकते कि उनका समूह शारीरिक वासना की पकड़ से मुक्त है। ऐसे में राजनेताओं से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे भगवान राम की तरह एक पत्नी व्रतधारी रहेंगे? विशेषकर तब जब सत्ता का वैभव सुन्दरियों को उन्हें अर्पित करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। ऐसे में मन को रोक पाना बहुत कठिन काम है।


प्रश्न यह उठता है कि यह सम्बन्ध क्या पारस्परिक सहमति से बना है या सामने वाले का शोषण करने की भावना से? अगर सहमति से बना है या सामने वाला किसी लाभ की अपेक्षा से स्वंय को अर्पित कर रहा है तो राजनेता का बहुत दोष नहीं माना जा सकता। सिवाय इसके कि नेता से अनुकरणीय आचरण की अपेक्षा की जाती है। किन्तु अगर इस सम्बन्ध का आधार किसी की मजबूरी का लाभ उठाना है, तो वह सीधे-सीधे दुराचार की श्रेणी में आता है। लोकतंत्र में उसके लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। यह तो राजतंत्र जैसी बात हुई कि राजा ने जिसे चाहा उठवा लिया। 


ऐसे सम्बन्ध प्रायः तब तक उजागर नहीं होते, जब तक कि सम्बन्धित व्यक्ति चाहे पुरूष हो या स्त्री, इस सम्बन्ध का अनुचित लाभ उठाने का काम नहीं करता। जब वह ऐसा करता है, तो उसका बढ़ता प्रभाव, विरोधियों में ही नहीं, अपने दल में भी विरोध के स्वर प्रबल कर देता है। वैसे शासकों से जनता की अपेक्षा होती है कि वे आदर्श जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। पर अब हालात इतने बदल चुके हैं कि राजनेताओं को अपने ऐसे सम्बन्धों का खुलासा करने में संकोच नहीं होता। फिर भी जब कभी कोई असहज स्थिति पैदा हो जाती है, तो मामला बिगड़ जाता है। फिर शुरू होता है, ब्लैकमेल का खेल। जिसकी परिणिति पैसा या हत्या दोनों हो सकती है। जो राजनेता पैसा देकर अपनी जान बचा लेते हैं, वे उनसे बेहतर स्थिति में होते हैं जो पैसा भी नहीं देते और अपने प्रेमी या प्रेमिका की हत्या करवाकर लाश गायब करवा देते हैं। इस तरह वे अपनी बरबादी का खुद इंतजाम कर लेते हैं। 


मानव की इस प्रवृत्ति पर कोई कानून रोक नहीं लगा सकता। आप कानून बनाकर लोगों के आचरण को नियन्त्रित नहीं कर सकते। यह तो हर व्यक्ति की अपनी समझ और जीवन मूल्यों से ही निर्धारित होता है। अगर यह माना जाए कि मध्य युग के राजाओं की तरह राजनीति के समर में लगातार जूझने वाले राजनेताओं को बहुपत्नी या बहुपति जैसे सम्बन्धों की छूट होनी चाहिए तो इस विषय में बकायदा कोई व्यवस्था की जानी चाहिए। ताकि जो बिना किसी बाहरी दबाव के, स्वेच्छा से, ऐसा स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें ऐसा जीने का हक मिले। पर यह सवाल इतना विवादास्पद है कि इस पर दो लोगों की एक राय होना सरल नहीं। इसलिए देश, काल और वातावरण के अनुसार व्यक्ति को व्यवहार करना चाहिए, ताकि वह भी न डूबे और समाज भी उद्वेलित न हो।