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Monday, November 17, 2025

क्यों नहीं रुकते आतंकी हमले ?

एक बार फिर आतंकवादी हमलों ने देश की राजधानी दिल्ली को दहला दिया। लाल क़िले के भीड़ भरे इलाक़े में ये जानलेवा विस्फोट उस साज़िश से कहीं कम थे जो पूरी दिल्ली को दहलाने के लिए रची गई थी। इन आतंकी हमलों के पीछे पढ़े लिखे ऐसे लोग शामिल हैं जिनसे ऐसी वैशियाना हरकत की उम्मीद नहीं की जा सकती। प्रश्न है कि जब देश की सुरक्षा एजेंसियां हर समय अपने पंजों पर रहती हैं उसके बावजूद भी देश की राजधानी जो कि सुरक्षा के लिहाज़ से काफ़ी मुस्तैद मानी जाती है, वहाँ पर इतनी भारी मात्रा विस्फोटक सामग्री लेकर एक आतंकी कैसे घूम रहा था? कैसे इन विस्फोटक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पहुंचा? हमारी रक्षा और गृह मंत्रालय की खुफिया एजेंसियां  क्या कर रही थी?

इन हमलों से सारा देश हतप्रभ है पहलगाम में हुई आतंकवादी वारदात के छह महीने बाद ही ये दूसरा बड़ा झटका लगा है। सवाल उठता है कि देश में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाए? हमारा देश ही नहीं दुनिया के तमाम देशों का आतंकवाद के विरुद्ध इकतरफा साझा जनमत है। ऐसे में सरकार अगर कोई ठोस कदम उठाती है, तो देश उसके साथ खड़ा होगा। उधर तो हम सीमा पर लड़ने और जीतने की तैयारी में जुटे रहें और देश के भीतर आईएसआई के एजेंट आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहें तो यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। मैं पिछले 30 वर्षों से अपने लेखों में लिखता रहा हूं कि देश की खुफिया एजेंसियों को इस बात की पुख्ता जानकारी है कि देश के 350 से ज्यादा शहरों और कस्बों की सघन बस्तियों में आरडीएक्स, मादक द्रव्यों और अवैध हथियारों का जखीरा जमा हुआ है जो आतंकवादियों के लिए रसद पहुँचाने का काम करता है। प्रधान मंत्री को चाहिए कि इसके खिलाफ एक ‘आपरेशन क्लीन स्टार’ या ‘अपराधमुक्त भारत अभियान’ की शुरुआत करें और पुलिस व अर्धसैनिक बलों को इस बात की खुली छूट दें जिससे वे इन बस्तियों में जाकर व्यापक तलाशी अभियान चलाएं और ऐसे सारे जखीरों को बाहर निकालें।



गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली में हुए धमाके के बाद अपने बयान में यह साफ कहा कि आतंकियों को ऐसा सबक सिखाया जाएगा कि पूरी दुनिया देखेगी। उल्लेखनीय है कि कश्मीर के खतरनाक आतंकवादी संगठन ‘हिजबुल मुजाईदीन’ को दुबई और लंदन से आ रही अवैध आर्थिक मदद का खुलासा 1993 में मैंने ही अपनी विडियो समाचार पत्रिका ‘कालचक्र’ के 10वें अंक में किया था। इस घोटाले की खास बात यह थी कि आतंकवादियों को मदद देने वाले स्रोत देश के लगभग सभी प्रमुख दलों के बड़े नेताओं और बड़े अफसरों को भी यह अवैध धन मुहैया करा रहे थे। इसलिए सीबीआई ने इस कांड को दबा रखा था। घोटाला उजागर करने के बाद मैंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और आतंकवादियों को आ रही आर्थिक मदद के इस कांड की जांच करवाने को कहा।



सर्वोच्च अदालत ने मेरी मांग का सम्मान किया और भारत के इतिहास में पहली बार अपनी निगरानी में इस कांड की जांच करवाई। बाद में यही कांड ‘जैन हवाला कांड’ के नाम से मशहूर हुआ। जिसने भारत की राजनीति में भूचाल ला दिया। पर मेरी चिंता का विषय यह है कि इतना सब होने पर भी इस कांड की ईमानदारी से जांच आज तक नहीं हुई और यही कारण है कि आतंकवादियों को हवाला के जरिये, पैसा आना जारी रहा और आतंकवाद पनपता रहा।



उन दिनों हॉंगकॉंग से ‘फार ईस्र्टन इकोनोमिक रिव्यू’ के संवाददाता ने ‘हवाला कांड’ पर मेरा इंटरव्यू लेकर कश्मीर में तहकीकात की और फिर जो रिर्पोट छपी, उसका निचोड़ यह था कि आतंकवाद को पनपाए रखने में बहुत से प्रभावशाली लोगों के हित जुड़े हैं। उस पत्रकार ने तो यहां तक लिखा कि कश्मीर में आतंकवाद एक उद्योग की तरह है। जिसमें बहुतों को मुनाफा हो रहा है।


उसके दो वर्ष बाद जम्मू के राजभवन में मेरी वहाँ के तत्कालीन राज्यपाल गिरीश सक्सैना से चाय पर वार्ता हो रही थी। मैंने उनसे आतंकवाद के बारे में पूछा, तो उन्होंने अंग्रेजी में एक व्यग्यात्मक टिप्पणी की जिसका अर्थ था कि मुझे ‘घाटी के आतंकवादियों’ की चिंता नहीं है, मुझे ‘दिल्ली के आतंकवादियों’ से परेशानी है। अब इसके क्या मायने लगाए जाए?



आतंकवाद को रसद पहुंचाने का मुख्य जरिया है हवाला कारोबार। अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के तालिबानी हमले के बाद से अमरीका ने इस तथ्य को समझा और हवाला कारोबार पर कड़ा नियन्त्रण कर लिया। नतीजतन तब से आज तक वहां आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुइ। जबकि भारत में हवाला कारोबार बेरोकटोक जारी है। इस पर नियन्त्रण किये बिना आतंकवाद की श्वासनली को काटा नहीं जा सकता। एक कदम संसद को उठाना है, ऐसे कानून बनाकर जिनके तहत आतंकवाद के आरोपित मुजरिमों पर विशेष अदालतों में मुकदमे चला कर 6 महीनों में सजा सुनाई जा सके। जिस दिन मोदी सरकार ये 3 कदम उठा लेगी उस दिन से भारत में आतंकवाद का बहुत हद तक सफाया हो जाएगा।


ये चिंता का विषय है कि तमाम दावों और आश्वासनों के बावजूद पिछले चार दशक में कोई भी सरकार आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर उपाय कर नहीं पायी है। हर देश के नेता आतंकवाद को व्यवस्था के खिलाफ एक अलोकतांत्रिक हमला मानते रहे हैं और बेगुनाह नागरिकों की हत्याओं के बाद यही कहते रहे हैं कि आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। पर कई दशक बीत जाने के बाद भी विश्व में आतंकवाद के कम होने या थमने का कोई लक्षण हमें दिखाई नहीं देता।


नए हालात में जरूरी हो गया है कि आतंकवाद के बदलते स्वरुप पर नए सिरे से समझना शुरू किया जाए। हो सकता है कि आतंकवाद से निपटने के लिए बल प्रयोग ही अकेला उपाय न हो। क्या उपाय हो सकते हैं उनके लिए हमें शोधपरख अध्ययनों की जरूरत पड़ेगी। अगर सिर्फ 70 के दशक से अब तक यानी पिछले 40 साल के अपने सोच विचारदृष्टि अपनी कार्यपद्धति पर नजर डालें तो हमें हमेशा तदर्थ उपायों से ही काम चलाना पड़ा है। इसका उदाहरण कंधार विमान अपहरण के समय का है जब विशेषज्ञों ने हाथ खड़े कर दिए थे कि आतंकवाद से निपटने के लिए हमारे पास कोई सुनियोजित व्यवस्था ही नहीं है।

यदि विश्वभर के शीर्ष नेतृत्त्व एकजुट होकर कुछ ठोस कदम उठाऐं, तो उम्मीद है कि हम आतंकवाद के साथ भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, शोषण और बेरोजगारी जैसी समस्याओं का भी समाधान पा लें। देश इस समय गंभीर हालत से गुजर रहा है। मातम की इस घड़ी में रोने के बजाए सीमा सुरक्षा पर गिद्धदृष्टि और दोषियों को कड़ा जबाब देने की कार्यवाही की जानी चाहिए। पर ये भी याद रहे कि हम जो भी करें, वो दिलों में आग और दिमाग में बर्फ रखकर करें। 

Monday, November 10, 2025

सुप्रीम कोर्ट का आदेश और आवारा कुत्तों की समस्या!

भारत में आवारा कुत्तों की समस्या एक जटिल सामाजिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दा रही है। बीते शुक्रवार को  सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश जारी किया है जिसमें रेलवे स्टेशनों, अस्पतालों, स्कूलों सहित अन्य सार्वजनिक स्थलों से आवारा कुत्तों को तुरंत हटाने और उन्हें नसबंदी, टीकाकरण के बाद निश्चित आश्रमों में स्थानांतरित करने का निर्देश दिया गया है। साथ ही कोर्ट ने साफ किया है कि इन कुत्तों को उनकी मूल जगह वापस नहीं छोड़ा जाएगा, ताकि इन सार्वजनिक स्थलों से उनकी उपस्थिति खत्म हो सके। यह फैसला भारत में आवारा कुत्तों से जुड़ी बढ़ती समस्या, जैसे कि कुत्ते के काटने की घटनाओं में वृद्धि को देखते हुए लिया गया है। 

सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की बेंच ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि सभी राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय दो सप्ताह के अंदर सभी सरकारी और निजी स्कूलों, अस्पतालों, रेलवे स्टेशनों, बस स्टैंड आदि की पहचान करें जहां आवारा कुत्ते उपस्थित हैं। इसके बाद स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी होगी कि वे इन कुत्तों को पकड़कर सुरक्षित आश्रमों में स्थानांतरित करें, जहां उन्हें न सिर्फ नसबंदी और टीकाकरण दिया जाएगा, बल्कि उनकी देखभाल भी सुनिश्चित की जाएगी। कोर्ट ने यह भी चेतावनी दी है कि यदि कोई व्यक्ति या संगठन इस कार्रवाई में बाधा डालता है तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। यह आदेश 13 जनवरी 2026 को समीक्षा के लिए पुनः लाया जाएगा।


जानवर प्रेमियों और पशु अधिकार संगठनों ने इस आदेश पर व्यापक असंतोष जताया है। उनका कहना है कि इस तरह के आदेश से कुत्तों के प्रति चिंता और संरक्षण कम हो सकता है। कई संगठन इस बात पर जोर देते हैं कि नसबंदी और टीकाकरण के बाद कुत्तों को उनके मूल क्षेत्र में ही जारी रखना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से इलाके में कुत्तों की आबादी नियंत्रित रहती है और कुत्तों के व्यवहार पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वे पशु कल्याण बोर्ड के पुराने सुझावों का हवाला देते हैं, जिनमें कहा गया है कि आवारा कुत्तों का पुनः उनके क्षेत्र में छोड़ना बेहतर तरीका है न कि उन्हें जोर जबरदस्ती आश्रमों में बंद करना। कई जानवर प्रेमी और समाजसेवी समूह आशंकित हैं कि इस कदम से आवारा कुत्तों की संख्या और व्यवहार संबंधी समस्याएँ बढ़ सकती हैं।

पशु प्रेमी, जो जानवरों के कल्याण के प्रति संवेदनशील होते हैं, उन्हें इस निर्णय को एक सकारात्मक कदम के रूप में देखना चाहिए। यह आदेश केवल कुत्तों को सार्वजनिक स्थानों से हटाने की बात नहीं करता, बल्कि उनके लिए एक सुरक्षित और मानवीय वातावरण प्रदान करने पर भी जोर देता है। नसबंदी और टीकाकरण जैसे कदम न केवल कुत्तों की आबादी को नियंत्रित करेंगे, बल्कि उनके स्वास्थ्य को भी बेहतर बनाएंगे। सड़कों पर रहने वाले कुत्ते अक्सर भोजन, पानी और चिकित्सा सुविधाओं की कमी से जूझते हैं, जिसके कारण वे आक्रामक हो सकते हैं। आश्रय स्थलों में उन्हें नियमित भोजन, चिकित्सा देखभाल और सुरक्षित स्थान मिलेगा, जो उनके जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाएगा।


वहीं सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए सरकार को कई महत्वपूर्ण कदम उठाने होंगे। यदि इसे सही ढंग से अमल में लाया जाए तो यह पूरे देश के लिए एक मॉडल बन सकता है। केवल दिल्ली में अनुमानित 10 लाख आवारा कुत्तों को देखते हुए, इसे अमल करना एक चुनौती हो सकती है। सरकार को बड़े पैमाने पर आधुनिक आश्रय स्थल बनाने होंगे, जो स्वच्छता, भोजन और चिकित्सा सुविधाओं से सुसज्जित हों। इन आश्रय स्थलों में पशु चिकित्सकों और प्रशिक्षित कर्मचारियों की नियुक्ति आवश्यक है।

पशु प्रेमियों की मानें तो इस आदेश जारी करते समय कुछ सावधानियों और वैकल्पिक उपायों पर विचार किया जाना आवश्यक था जैसे: स्थानीय आश्रमों की संख्या, संसाधन और देखभाल क्षमता का आकलन, कुत्तों की संख्या नियंत्रित करने के लिए आम लोगों में जागरूकता और सामाजिक समन्वय, नसबंदी और टीकाकरण के बाद ही कुत्तों को उनके इलाके में छोड़ने की नीति, कुत्तों के प्रति मानवीय व्यवहार सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक शिक्षा, पशु अधिकार समूहों, नगर निगम और प्रशासन के बीच संवाद और सहयोग को बढ़ावा।

भारत में आवारा कुत्तों की संख्या बहुत अधिक है, और प्रबंधन के लिए अलग-अलग राज्यों में ABC (Animal Birth Control) नियम चलाए जाते हैं, जिसमें नसबंदी, टीकाकरण और पुनः छोड़ना शामिल है। उदाहरण स्वरूप, जयपुर और गोवा जैसे शहरों ने इस विधि से कुत्तों से होने वाली बीमारियों को काफी हद तक नियंत्रण में रखा है।

दूसरी ओर, विश्व के कई देशों ने भी अपनी-अपनी रणनीतियाँ अपनायी हैं: सिंगापुर में सरकारी निकाय द्वारा कुत्तों को पकड़कर नसबंदी और टीकाकरण के बाद या तो पुनः छोड़ दिया जाता है या फिर उनका पुनर्वास किया जाता है, तुर्की के इस्तांबुल में मोबाइल वेटरनरी क्लीनिक और सार्वजनिक फीडिंग स्टेशन बनाए गए हैं, जिससे कुत्तों का प्रबंधन प्रभावी ढंग से हो रहा है, भूटान में 2023 में 100% आवारा कुत्तों की नसबंदी का लक्ष्य हासिल किया गया, रोमानिया में कुत्तों की संख्या नियंत्रित करने के लिए नसबंदी पर जोर दिया गया है, साथ ही सार्वजनिक प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुए कुत्तों की हत्या से बचा गया है। 

उल्लेखनीय है कि दुनिया भर में केवल नीदरलैंड ही एक ऐसा देश है जहां पर आपको आवारा कुत्ते नहीं मिलेंगे। नीदरलैंड सरकार ने एक अनूठा नियम लागू किया। किसी भी पालतू पशु की दुकान से ख़रीदे गये महेंगी नसल के कुत्तों पर वहाँ की सरकार भारी मात्रा में टैक्स लगती है। वहीं दूसरी ओर यदि कोई भी नागरिक इन बेघर पशुओं को गोद लेकर अपनाता है तो उसे आयकर में छूट मिलती है। इस नियम के लागू होते ही लोगों ने अधिक से अधिक बेघर कुत्तों को अपनाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे नीदरलैंड की सड़कों व मोहल्लों से आवारा कुत्तों की संख्या घटते-घटते बिलकुल शून्य हो गई।

ये मॉडल भारत के लिए भी प्रासंगिक हैं, जहाँ मानवीय और वैज्ञानिक तरीके से आवारा कुत्तों की संख्या नियंत्रित करना अत्यंत आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश आवारा कुत्तों की समस्या पर कड़ा कदम है, लेकिन इसके अमल में स्थानीय प्रशासन, जानवर प्रेमी और स्थानीय समुदाय के बीच सामंजस्य और समझ जरूरी है। आवारा कुत्तों को हटाने के बजाय उन्हें स्थायी और मानवीय तरीके से नियंत्रित करने के लिए बेहतर नीतियों और जागरूकता की आवश्यकता है, ताकि न सिर्फ इंसानी सुरक्षा सुनिश्चित हो बल्कि पशु कल्याण भी बना रहे। भारत जैसे बहु-आयामी सामाजिक परिवेश में आवारा कुत्तों की समस्या का समाधान सामूहिक और संवेदनशील दृष्टिकोण से ही संभव है। इस लिहाज से यह आवश्यक होगा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ पशु अधिकार संगठनों और स्थानीय निकायों की मदद से ऐसे उपाय किए जाएं, जो दोनों पक्षों के हित में हों और आवारा कुत्तों का हानिरहित प्रबंधन सुनिश्चित करें।   

Monday, October 27, 2025

बिहार चुनाव: एक नया मोड़ या वही राह?

बिहार की राजनीति हमेशा से प्रयोगों, व्यक्तित्वों और गठबंधनों की धरती रही है। यहाँ सत्ता तक पहुँचने का रास्ता सिर्फ वोटों से नहीं, बल्कि समाजिक समीकरणों, जातीय गणित और जनभावनाओं से होकर गुजरता है। अब जब 2025 के विधानसभा चुनावों की दस्तक हो चुकी है, पूरा देश बिहार की ओर देख रहा है। यह चुनाव न केवल राज्य की राजनीति को बल्कि राष्ट्रीय समीकरणों को भी प्रभावित करने की क्षमता रखता है। 

इस बार मुकाबला दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण इसलिए है क्योंकि मैदान में तीन धाराएँ साफ तौर पर दिखाई दे रही हैं। ‘इंडिया’ गठबंधन, जिसमें मुख्य भूमिका में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) है। एनडीए, जिसमें जनता दल (यू) के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फिर एक बार केंद्र में हैं। वहीं, तेजी से उभरती शक्ति के रूप में प्रशांत किशोर का ‘जन सुराज अभियान’।


राजद की अगुवाई वाला ‘इंडिया’ गठबंधन इस चुनाव को अपनी साख बचाने के साथ-साथ केंद्र की राजनीति पर असर डालने के अवसर के रूप में देख रहा है। तेजस्वी यादव पिछले कुछ वर्षों में अपनी राजनीतिक परिपक्वता दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, चाहे वह बेरोजगारी का मुद्दा हो, युवाओं से संवाद हो या नीतीश सरकार की नीतियों की कड़ी आलोचना। 


राजद के पास एक ठोस सामाजिक आधार है, लेकिन उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती विश्वसनीयता की है। भ्रष्टाचार के पुराने मामलों और शासन की यादें आज भी मतदाताओं के दिमाग में ताजा हैं। कांग्रेस, वामदलों और अन्य सहयोगियों के बीच सीट बँटवारे को लेकर संभावित खींचतान भी गठबंधन की मजबूती पर सवाल उठाती है।फिर भी, तेजस्वी का युवा जोश और उनके प्रचार की डिजिटल समझबूझ उन्हें पहले से अलग बनाती है। ‘इंडिया’ गठबंधन यह भलीभाँति जानता है कि अगर बिहार में उसकी पकड़ मजबूत होती है, तो यह 2029 के लोकसभा समीकरणों में एक नई ऊर्जा भर सकता है।

एनडीए का चेहरा इस बार भी नीतीश कुमार ही हैं, जिनका राजनीतिक अनुभव किसी परिचय का मोहताज नहीं। वे सात बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं, लेकिन अब जनता उनसे बदलाव की बजाय जवाब चाहती है। उनकी सबसे बड़ी ताकत रही है साफ़ छवि और साझा सामाजिक आधार। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि पिछले कुछ सालों में उनके राजनीतिक पलटवारों, कभी महागठबंधन में, कभी एनडीए में आने-जाने ने उनकी विश्वसनीयता को काफ़ी कमजोर किया है।


भाजपा, जो एनडीए की दूसरी बड़ी ताकत है, नीतीश के साथ रहते हुए भी अपने संगठन को बढ़ाने की कोशिश कर रही है। उसे यह अंदाज़ा है कि बिहार में अगर उसे भविष्य में स्वतंत्र रूप से मज़बूत होना है, तो नीतीश के बाद का दौर भी ध्यान में रखना होगा। यही कारण है कि भाजपा अब स्थानीय नेताओं को उभारने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के सहारे मैदान को अपने पक्ष में करने की योजना पर काम कर रही है।

एनडीए का सबसे बड़ा फायदा यह है कि उसके पास वोटों का एक स्थिर कोर आधार है और शासन की निरंतरता की छवि बनी हुई है। लेकिन एंटी-इनकम्बेंसी, बेरोजगारी और ग्रामीण ढाँचों में ठहराव जैसे मुद्दे उनके लिए सिरदर्द बन सकते हैं।

बिहार के इस राजनीतिक त्रिकोण में सबसे दिलचस्प और नया पैदा हुआ  कारक हैं प्रशांत किशोर (पीके)। उन्होंने रणनीतिकार से जननेता बनने की जो यात्रा शुरू की, वह अब निर्णायक दौर में पहुँची है। उनका जन सुराज अभियान पिछले दो वर्षों से गाँव-गाँव में सक्रिय रहा है। वे न तो स्वयं को किसी पारंपरिक पार्टी की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं और न किसी गठबंधन का हिस्सा हैं। उनका संदेश सीधा है — "सिस्टम को बदलने के लिए राजनीति में साफ और नई सोच लानी होगी।" प्रशांत किशोर का यह प्रयोग बिहार की राजनीति की जमीनी सच्चाई को चुनौती देता है। वे युवाओं और शिक्षित तबके में धीरे-धीरे एक विकल्प के रूप में उभर रहे हैं।

हालाँकि यह कहना जल्दबाजी होगी कि वे बड़े पैमाने पर सीटें जीतेंगे, लेकिन उनका प्रभाव दो स्तरों पर होगा। वोट कटवा असर: कई क्षेत्रों में वे परंपरागत दलों का समीकरण बिगाड़ सकते हैं। विचारधारात्मक बदलाव: उनकी राजनीति भ्रष्टाचार विरोधी और विकास-केंद्रित विमर्श को चुनावी बहस के केंद्र में ला रही है। अगर उनका अभियान थोड़ा भी जनसमर्थन जुटाने में सफल रहता है, तो यह बिहार में तीसरी शक्ति के उदय की भूमिका लिख सकता है। 

गौरतलब है कि बिहार की राजनीति बिना जातीय समीकरणों के समझी ही नहीं जा सकती। यादव, कुशवाहा, भूमिहार, राजपूत और मुसलमानों के बीच सामंजस्य और टकराव हमेशा परिणामों को प्रभावित करते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में एक नया सामाजिक तबका, युवा और प्रवासी मजदूर वर्ग, निर्णायक बनकर उभर रहा है।

प्रशासन, कृषि संकट, रोजगार और शिक्षा की स्थिति इस बार मुख्य मुद्दे होंगे। डिजिटल मीडिया और सोशल प्लेटफॉर्मों के उदय ने इस बार चुनावी प्रचार के तरीके को भी बदल दिया है। अब गाँवों तक व्हाट्सऐप समूह और सोशल अभियानों के माध्यम से राजनीतिक विमर्श पहुँच रहा है और यहाँ पर प्रशांत किशोर जैसे नेताओं की रणनीतिक क्षमता का उन्हें फायदा हो सकता है।

इस चुनाव की सबसे बड़ी बहस विकास बनाम विश्वसनीयता की होगी। नीतीश कुमार कहेंगे कि उन्होंने राज्य को बुनियादी ढाँचे और शासन में सुधार दिया, जबकि विरोधी पक्ष यह पूछेगा कि इतने वर्षों में युवाओं के लिए अवसर क्यों नहीं बढ़े। तेजस्वी यादव रोजगार और सामाजिक न्याय का नारा देंगे; भाजपा मोदी के नाम और केंद्रीय योजनाओं की बदौलत वोट जुटाने की कोशिश करेगी और प्रशांत किशोर नई राजनीति की बात करेंगे। नतीजतन, यह चुनाव किसी एक मुद्दे या व्यक्ति पर निर्भर नहीं रहेगा — बल्कि यह आस्था, असंतोष और आकांक्षा के मिश्रण से तय होगा।

बिहार के 2025 के चुनाव इसलिए रोचक हैं क्योंकि तीन पीढ़ियाँ और तीन दृष्टिकोण आमने-सामने हैं। नीतीश कुमार, जिनकी राजनीति स्थिरता और अनुभवी शासन का प्रतीक है। तेजस्वी यादव, जो परिवर्तन और युवा आकांक्षाओं के वाहक हैं। प्रशांत किशोर, जो मौजूदा राजनीति को बदलने की चुनौती दे रहे हैं। यह चुनाव यह तय करेगा कि बिहार पुरानी राजनीति की सीमाओं में रहेगा या सोच के नए अध्याय की ओर कदम बढ़ाएगा। चाहे परिणाम कुछ भी हो, इतना तो तय है कि इस बार बिहार का जनादेश केवल सरकार नहीं, बल्कि देश की  राजनीति की दिशा भी तय करेगा। 

Monday, October 20, 2025

धरातल पर कैसे उतरे ‘स्वदेशी’ आंदोलन?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधनों में ‘वोकल फॉर लोकल’ और ‘हर घर स्वदेशी’ की अपील के जरिए आम जनता से भारतीय वस्तुओं को अपनाने का आग्रह किया है। इसका उद्देश्य आर्थिक आत्मनिर्भरता, देशी उद्योगों व रोजगार बढ़ाना और भारत के आर्थिक स्वावलंबन की दिशा में एक मजबूत कदम उठाना है। इस अभियान के ज़रिए  देशभर में युवाओं, महिलाओं, व्यापारियों सहित सभी वर्गों को जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। जिसमें 20,000 से अधिक ‘आत्मनिर्भर भारत संकल्प अभियान’, 1,000 से ज्यादा मेले और 500 ‘संकल्प रथ’ यात्राएँ आयोजित  करने का भाजपा का कार्यक्रम है। 

भाजपा और संघ के कार्यकर्ता इन दिनों इस ‘स्वदेशी’ अभियान को मजबूती से आगे बढ़ाने में जुटे हैं। अगले तीन महीने में वे लोगों को भारतीय उत्पादों को प्राथमिकता देने के लिए प्रेरित करेंगे। जिससे आज़ादी के आंदोलन में महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए स्वदेशी व स्वावलंबन के ऐतिहासिक अभियान को फिर से स्थापित किया जा सके।


इसी क्रम में पिछले दिनों एक दिवाली मेले के दौरान दक्षिण दिल्ली के महरौली और वसंत कुंज क्षेत्र के बीजेपी विधायक गजेंद्र यादव ने उपस्थित जन समुदाय से स्वदेशी को अपनाने की अपील की। विडंबना देखिए कि जिस मंच से श्री यादव पूरी गंभीरता से ये अपील कर रहे थे उसी मंच के सामने, मेले के आयोजकों ने, चीन के बने खिलौनों की दुकानें सजा रखी थीं और विदेशी कारों के दो मॉडलों को इस मेले में बिक्री के लिए रखवाया हुआ था। आम जीवन में ऐसा विरोधाभास हर जगह देखने को मिलेगा। क्योंकि पिछले चार दशकों में शहरी भारतवासी अपने दैनिक जीवन में ढेरों विदेशी उत्पाद प्रयोग करने का आदि हो चुका है। फिर भी बीजेपी का हर सांसद, विधायक और कार्यकर्ता इस अभियान को उत्साह से चला रहा है। उनका ये प्रयास सही भी है क्योंकि दीपावली पर देश भर के हिंदुओं द्वारा भारी मात्र में खरीदारी की जाती है। पिछले दो दशकों से क्रमशः चीनी माल ने भारत के बाजारों को अपने उत्पादनों से पाट दिया है। 


दीवाली पर लक्ष्मी पूजन के लिए गणेश-लक्ष्मी जी के विग्रह अब चीन से ही बन कर आते हैं। पटाखे और बिजली की लड़ियाँ भी अब चीन से ही आती हैं। इसी तरह राखियां, होली के रंग पिचकारी, जन्माष्टमी के लड्डू गोपाल व अन्य देवताओं के विग्रह भी वामपंथी चीन बना कर भेज रहा है, जो भगवान के अस्तित्व को ही नकारता हैं। ये कितनी शर्म और दुर्भाग्य की बात है। इससे हमारे कारीगरों और दुकानदारों के पेट पर गहरी लात पड़ती है। उधर अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा लागू की गयीं बेहूदा आयात शुल्क दरों को देखकर भी हमें जागना होगा । हमें अपने उपभोग के तरीकों को बदलना होगा। इसलिए जहाँ तक संभव हो हम भारत में निर्मित वस्तुओं का ही प्रयोग करें। 

किसी भी अभियान को प्रचारित करना आसान होता है, जो कि अखबारों और टीवी विज्ञापनों के ज़रिए किया जा सकता है। पर उस अभियान की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि देश की जनता ने उसे किस सीमा तक आत्मसात किया। अब मोदी जी के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को ही ले लीजिए। जितना इस अभियान का शोर मचा और प्रचार हुआ उसका 5 फ़ीसदी भी धरातल पर नहीं उतरा। भारत के किसी भी छोटे बड़े शहर, गांव या कस्बे में चले जाइए तो आपको गंदगी के अंबार पड़े दिखाई देंगे। इसलिए इस अभियान का निकट भविष्य में भी सफल होना संभव नहीं लगता। क्योंकि जमीनी चुनौतियां ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। स्वदेशी अभियान की सफलता भी जन-जागरण, सतत् निगरानी और व्यवहार परिवर्तन पर निर्भर करती है। अगर आम नागरिक इसमें सक्रिय भूमिका निभाएँ तभी यह आंदोलन सफल होगा।

निसंदेह ‘स्वच्छ भारत अभियान’ मोदी जी की एक प्रशंसनीय पहल थी। पहली बार किसी प्रधान मंत्री ने हमारे चारों ओर दिनों-दिन जमा होते जा रहे कूड़े के ढेरों की बढ़ती समस्या के निस्तारण का एक देश व्यापी अभियान छेड़ा था। उस समय बहुत से नेताओं, फिल्मी सितारों, मशहूर खिलाड़ियों व उद्योगपतियों तक ने हाथ में झाड़ू पकड़ कर फ़ोटो खिंचवा कर इस अभियान का श्रीगणेश किया था। पर सोचें आज हम कहाँ खड़े हैं?

शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में स्थायी सफाई व्यवस्था बनाना अब भी एक बड़ी चुनौती है। कचरा पृथक्करण, पुनः उपयोग और रीसायक्लिंग की जागरूकता में अपेक्षाकृत कमी दिखती है। कुछ जगहों पर शौचालयों के रख-रखाव, जल आपूर्ति और व्यवहार परिवर्तन को लेकर समस्याएं बनी हुई हैं। इसलिए अभियान के उद्देश्य और जमीनी सच्चाई में अंतर बना हुआ है और अनेक स्थानों पर पुराने तरीकों का पालन अब भी हो रहा है।

दिल्ली हो या देश का कोई अन्य शहर यदि कहीं भी एक औचक निरीक्षण किया जाए तो स्वच्छ भारत अभियान की सफलता का पता चल जाएगा। यदि इतने बड़े स्तर शुरू किए गए अभियान की सफलता अगर काफ़ी कम पाई जाती है तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? निसंदेह स्थानीय निकाय जिम्मेदार हैं। किंतु हम सब नागरिक भी कम जिम्मेदार नहीं है। उल्लेखनीय है कि यदि हम नागरिक किसी साफ़ सुथरे मॉल या अन्य स्थान पर जाते हैं तो सभी नियमों का पालन करते हैं। कचरे को केवल कूड़ेदान में ही डालते हैं। इस तरह हम एक साफ़ सुथरी जगह को साफ़ रखने में सहयोग अवश्य देते हैं। लेकिन ऐसा क्या कारण है कि जहाँ किसी नियम को सख़्ती से लागू किया जाता है तो हम पूरा सहयोग देते हैं। परंतु जहाँ कहीं भी किसी नियम को लागू करने में एजेंसियां ढिलाई बरतती हैं या हमारे विवेक पर छोड़ देती हैं तो आम नागरिक भी उसे हल्के में ले लेता है। भाजपा या अन्य दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं, स्थानीय निकायों और हम सब आम नागरिकों को भी भारत को कचरा मुक्त देश बनाने के लिए अब कमर कसनी होगी। क्योंकि ये कार्य केवल नारों और विज्ञापनों से नहीं हो पाएगा।

आश्चर्य की बात तो यह है कि हम सब जानते हैं कि लगातार कचरे के ढेरों का, हमारे परिवेश में चारों तरफ़ बढ़ते जाना, हमारे व हमारी आनेवाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य के लिए कितना ख़तरनाक है? फिर भी हम सब निष्क्रिय बैठे हैं। हमें जागना होगा और इस समस्या से निपटने के लिए सक्रिय होना होगा। इसलिए नारे चाहे ‘स्वच्छता’ के लगें या ‘स्वदेशी’ के, जनता की भागीदारी के बिना, नारे नारे ही रहेंगे।   

Monday, October 13, 2025

जल संकट की दस्तक: अब दिल्ली से दूर नहीं

इस वर्ष देश भर में हुई भारी बारिशों और जल प्रलय के बावजूद भारत के शहरी क्षेत्रों में जल संकट अब कोई दूर की आशंका नहीं, बल्कि एक कठोर सच्चाई बन चुका है। दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, बेंगलुरु जैसे महानगर, जो आर्थिक प्रगति और आधुनिक जीवनशैली के प्रतीक हैं, अब जल प्रबंधन की विफलता के गंभीर परिणाम झेल रहे हैं। हाल ही में दिल्ली के वसंत कुंज क्षेत्र में तीन बड़े मॉल और आसपास की कॉलोनियों में पानी की सप्लाई पूरी तरह ठप हो जाने से यह संकट फिर सुर्ख़ियों में आया। इन प्रतिष्ठानों को बंद करने की नौबत इसलिए आ गई है क्योंकि टैंकरों से इनकी जल आपूर्ति रुक गई, जबकि भूजल दोहन (ग्राउंड वॉटर बोरिंग) पर पहले से ही एनजीटी ने प्रतिबंध लगा रखा है। यह स्थिति केवल अस्थायी तकनीकी समस्या नहीं, बल्कि एक गहरे प्रशासनिक और नैतिक संकट की ओर संकेत करती है। पिछले सात दशकों में खरबों रुपया जल प्रबंधन पर खर्च किए जाने के बावजूद ऐसा क्यों है? 


दिल्ली जैसे शहर में जहाँ जनसंख्या 2 करोड़ से अधिक है, जल आपूर्ति व्यवस्था लंबे समय से दबाव में है। दिल्ली जल बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार, शहर में प्रतिदिन करीब 1,000 मिलियन गैलन पानी की मांग है, जबकि उपलब्धता मुश्किल से 850 मिलियन गैलन तक पहुँच पाती है। वसंत कुंज जैसे पॉश इलाकों में भी पिछले कुछ वर्षों से पानी की टंकियों और निजी टैंकरों पर निर्भरता बढ़ी है। परंतु इस बार स्थिति पहले से कहीं अधिक भयावह हो गई क्योंकि प्रशासन ने सुरक्षा और ट्रैफिक कारणों से टैंकरों की आवाजाही पर रोक लगा दी। इस निर्णय का सबसे बड़ा असर व्यापारिक केंद्रों जैसे मॉल्स, रेस्तरां और दुकानों पर पड़ा है। इन मॉल्स में हज़ारों कर्मचारी काम करते हैं और प्रतिदिन लाखों ग्राहक आते हैं; बिना पानी के ऐसी व्यवस्था एक दिन भी नहीं चल सकती। शौचालय, सफाई, भोजनालय, अग्निशमन प्रणाली, सब कुछ जल आपूर्ति पर निर्भर हैं। जब टैंकरों की आपूर्ति रुकी, तो केवल व्यापार ही नहीं, आसपास के आवासीय समाज भी संकट में पड़ गए।



दिल्ली सरकार ने कुछ वर्ष पहले भूजल दोहन पर सख्त प्रतिबंध लगाया था। उद्देश्य यह था कि गिरते जलस्तर को रोका जाए। यह पहल पर्यावरणीय दृष्टि से आवश्यक थी, क्योंकि लगातार बढ़ते दोहन ने दिल्ली के अधिकांश क्षेत्रों में भूजल को 300 फीट से भी अधिक नीचे पहुँचा दिया था। लेकिन सवाल यह है कि क्या वैकल्पिक व्यवस्था पर्याप्त रूप से विकसित की गई?


जब सरकार ने ग्राउंड वॉटर बोरिंग को गैरकानूनी घोषित किया, तब उसे समानांतर रूप से मजबूत टैंकर नेटवर्क, पुनर्चक्रण संयंत्र और रेन वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम विकसित करने चाहिए थे। दुर्भाग्यवश, नीतियाँ बनीं पर उनका कार्यान्वयन अधूरा रह गया। परिणामस्वरूप, लोग न तो कानूनी तरीके से पानी निकाल सकते हैं, न सरकारी वितरण पर भरोसा कर सकते हैं। सोचने वाली बात ये है कि यदि जाड़ों में यह हाल है तो गर्मियों में क्या होगा?



दिल्ली ही नहीं, बल्कि पूरे देश में पानी की आपूर्ति से जुड़ा टैंकर कारोबार वर्षों से विवादों में रहा है। कई जगह यह सार्वजनिक सेवा से अधिक निजी व्यवसाय बन चुका है। अधिकारियों और टैंकर ठेकेदारों के बीच मिलीभगत के आरोप नए नहीं हैं। दिल्ली में जल आपूर्ति में आई यह हालिया बाधा भी ऐसे ही भ्रष्टाचार की परतें उजागर करती प्रतीत होती है।


त्योहारों के मौसम में जब पानी की मांग बढ़ जाती है, घरों में सजावट, साफ-सफाई और उत्सव आयोजन अधिक होते हैं।ऐसे समय पर टैंकरों की आवाजाही पर प्रतिबंध या ‘तकनीकी समस्या’ का बहाना बना देना संदेह उत्पन्न करता है। कई स्थानीय निवासियों का कहना है कि कुछ जल एजेंसियों ने टैंकरों की उपलब्धता को कृत्रिम रूप से सीमित कर कीमतें बढ़ाने की कोशिश की है। इससे न केवल आम नागरिकों पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ा, बल्कि मॉल्स और व्यापारिक प्रतिष्ठानों को बंद करने की स्थिति आ गई। अगर ये आरोप सही साबित होते हैं, तो यह सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही नहीं, बल्कि नैतिक दिवालियापन का उदाहरण होगा। जल जैसी बुनियादी संपदा के साथ ऐसा बर्ताव किसी नागरिक समाज में अक्षम्य अपराध है।


भारत में जल नीति के कई स्तर हैं। केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और नगरपालिका निकाय सब अपने ढंग से काम करते हैं। लेकिन इन सबमें तालमेल का अभाव है। राष्ट्रीय जल नीति (2012) यह कहती है कि हर नागरिक को पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण जल मिलेगा, पर छोटे शहरों को तो छोड़ें, दिल्ली जैसे शहरों में भी वास्तविकता इसके उलट है। नगर पालिकाएँ रेन वॉटर हार्वेस्टिंग की अनिवार्यता घोषित तो करती हैं, पर अधिकांश इमारतों में यह प्रणाली केवल कागज़ों पर मौजूद है। जल पुनर्चक्रण संयंत्रों की क्षमता भी इस संकट का सामना करने के लिए अपर्याप्त है। यमुना का प्रदूषण भी दिल्ली की जल आपूर्ति पर सीधा असर डालता है। यदि यमुना से शुद्ध जल नहीं मिलेगा, तो शहर को बाहरी स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ेगा, जिससे राजनीतिक टकराव भी बढ़ते हैं।


हालाँकि नीति-निर्माण और कार्यान्वयन की बड़ी जिम्मेदारी सरकार पर है, नागरिक भी पूरी तरह निर्दोष नहीं हैं। शहरी समाज में जल का अनावश्यक उपयोग आम बात है। बागवानी में अत्यधिक पानी, कार धोने में व्यर्थ बहाव, और रिसाव की अनदेखी। स्वच्छ भारत मिशन या हर घर जल जैसे अभियानों की सफलता तभी संभव है जब लोग खुद बदलाव का हिस्सा बनें। रेन वॉटर हार्वेस्टिंग और ग्रे-वॉटर रीसाइक्लिंग जैसे उपाय व्यक्तिगत और सामुदायिक स्तर पर अपनाए जा सकते हैं। मॉल्स और हाउसिंग सोसाइटीज़ में यह व्यवस्था अनिवार्य की जानी चाहिए, ताकि टैंकरों पर निर्भरता घटे।


दिल्ली का वर्तमान संकट केवल एक चेतावनी है। आने वाले वर्षों में ऐसी घटनाएँ और बढ़ सकती हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक़, यदि ठोस कदम नहीं उठाए गए तो 2030 तक देश के आधे बड़े शहर ‘जल-विहीन’ क्षेत्रों की श्रेणी में आ सकते हैं। इसलिए अब समय है कि सरकार और समाज दोनों मिलकर दीर्घकालिक रणनीति अपनाएँ। गौरतलब है कि अकबर की राजधानी फतेहपुर सीकरी पानी के अभाव के कारण मात्र 15 सालों में ही उजड़ गई थी। महानगरों में वर्षा जल संग्रहण प्रणाली को सख्ती से लागू करना। जल पुनर्चक्रण संयंत्रों की संख्या और क्षमता बढ़ाना। टैंकर संचालन को पारदर्शी और जीपीएस-नियंत्रित बनाना ताकि रिश्वतखोरी पर रोक लगे। यमुना जैसी नदियों की सफाई और पुनर्जीवन को प्राथमिकता देना। पानी की बर्बादी रोकने के लिए सख्त कानून और जनजागरूकता अभियान चलाना। इन कदमों के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित करना होगा कि जल प्रबंधन केवल संकट आने पर चर्चा का विषय न बने, बल्कि शहरी नियोजन की मूल नीति का हिस्सा हो। 


दिल्ली पर आई जल संकट की दस्तक यह याद दिलाता है कि पानी केवल संसाधन नहीं, बल्कि जीवन का आधार है। जब-जब हम इसे समझने में चूक करते हैं, तो सभ्यता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है। यदि सरकार और नागरिक समाज अब भी इस संकट को गंभीरता से नहीं लेते, तो ‘जल युद्ध’ भविष्य का नहीं, वर्तमान का शब्द बन जाएगा। जलसंकट का समाधान केवल योजनाओं से नहीं, ईमानदार नीयत और सामूहिक प्रयासों से ही संभव है। 

 Corruption

Monday, October 6, 2025

भगदड़: भारत क्यों बार-बार विफल हो रहा है ?

भारत, दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश, जहां धार्मिक उत्सव, राजनीतिक रैलियां और सांस्कृतिक आयोजन में लाखों-करोड़ों लोग एकत्रित होते हैं। वहां भीड़ प्रबंधन की विफलता एक बार फिर से राष्ट्रीय शर्म का कारण बन रही है। हाल के वर्षों में हुई कई भयानक घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि प्रशासनिक लापरवाही, अपर्याप्त योजना और बुनियादी ढांचे की कमी कैसे निर्दोष लोगों की जान ले रही है। सितंबर 2025 में तमिलनाडु के करूर में अभिनेता-नेता विजय की राजनीतिक रैली में 41 लोगों की मौत हो गई, जब देरी से पहुंचे काफिले को देखने के लिए लोग सड़क पर उमड़ पड़े। भगदड़ के हादसों की सूची बहुत लंबी है लेकिन यहाँ सवाल उठता है कि एक के बाद एक हादसों से हमने क्या सीखा? क्या ऐसे हादसे कभी कम होंगे? 



2024 में उत्तर प्रदेश के हाथरस में भोले बाबा के सत्संग के दौरान हुई भगदड़ में 121 लोगों की मौत हो गई, ज्यादातर महिलाएं और बच्चे थे। यह घटना कार्यक्रम समाप्ति के समय भीड़ के बहाव के कारण हुई, जब लोग बाबा के चरण छूने या उनकी चरण रज लेने के लिए उमड़ पड़े। इसी तरह, 2025 में प्रयागराज के महाकुंभ मेला में 'मौनी अमावस्या' के दिन पवित्र नदी में स्नान के दौरान हुई भगदड़ ने 30 लोगों की जान ले ली और 60 से अधिक घायल हो गए। इन घटनाओं से स्पष्ट है कि भारत अपनी जनता की सुरक्षा सुनिश्चित करने में बार-बार असफल हो रहा है। इन घटनाओं पर शासन और प्रशासन इतना गंभीर क्यों नहीं दिखाई देता?


हाल के वर्षों में भारत में भगदड़ की घटनाएं एक चक्रव्यूह की तरह घूम रही हैं। 2024 के दिसंबर में हैदराबाद के संध्या थिएटर में 'पुष्पा 2' फिल्म की स्क्रीनिंग के दौरान हुई भगदड़ में एक महिला की मौत हो गई। 2025 की शुरुआत में आंध्र प्रदेश के तिरुपति मंदिर में वैकुंठ द्वार दर्शन के टोकन वितरण के समय छह भक्तों की मौत हो गई, जब हजारों लोग टोकन के लिए उमड़ पड़े। फरवरी 2025 में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर फुट ओवर ब्रिज पर हुई भगदड़ ने कई जानें लीं। बेंगलुरु में क्रिकेट टीम रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु (आरसीबी) की आईपीएल विजय परेड के दौरान 11 लोगों की मौत हुई, जहां प्रशासन ने भीड़ का अनुमान लगाने में चूक की। बिहार के बाबा सिद्धनाथ मंदिर में अगस्त 2024 की भगदड़ में सात मौतें हुईं। ये घटनाएं धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आयोजनों में ही नहीं, बल्कि रेलवे स्टेशनों और सिनेमा घरों जैसे सार्वजनिक स्थानों पर भी हो रही हैं। 1954 से 2012 तक भारत में 79% भगदड़ें धार्मिक आयोजनों के दौरान हुईं, जो आज भी जारी है।  


इन विफलताओं के पीछे कई गहरे कारण हैं। सबसे प्रमुख है आमंत्रित भीड़ का होना और अपर्याप्त प्रबंधन। आयोजक अक्सर अनुमानित संख्या से अधिक लोगों को आने की अनुमति माँग करते हैं, जबकि निकास मार्ग संकरे और अपर्याप्त होते हैं। अनुमति देने वाले विभाग भी, किन्हीं कारणों के चलते, सुरक्षा व्यवस्था के पुख्ता इंतज़ामों पर ज़ोर नहीं देते। हाथरस में अस्थायी टेंट में पर्याप्त निकास न होने से भगदड़ बढ़ी। अफवाहें, जैसे आग लगने या ढांचा गिरने की, घबराहट और भगदड़ पैदा करती हैं। बुनियादी ढांचे की कमी, पुरानी इमारतों, संकरी सड़कों और पहाड़ी इलाकों में तो समझी जा सकती है। वहीं सुरक्षा कर्मियों की कमी और अप्रशिक्षित होना एक और समस्या है। महाकुंभ में वीआईपी व्यवस्थाओं पर फोकस से आम भक्तों की उपेक्षा हो जाती है। राजनीतिक और धार्मिक आयोजनों में भावनाओं का उफान भीड़ को अनियंत्रित बनाता है। इसके अलावा, आपदा प्रबंधन में पुलिस, आयोजकों और स्थानीय प्रशासन के बीच समन्वय की कमी घटनाओं को बढ़ावा देती है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के दिशानिर्देशों का पालन न होना एक बड़ी लापरवाही है। ये सभी कारक मिलकर भारत को बार-बार विफल कर रहे हैं, जहां जनता की जानें सस्ती साबित हो रही हैं।


ये भगदड़ें केवल आंकड़ों तक सीमित नहीं हैं, इनका मानवीय और सामाजिक प्रभाव बहुत गहरा है। परिवार टूट जाते हैं, बच्चे अनाथ हो जाते हैं और परिवार पर आर्थिक बोझ बढ़ता है। हाथरस में ज्यादातर महिलाओं की मौत ने लिंग असमानता को भी उजागर किया। मनोवैज्ञानिक आघात पीड़ितों और गवाहों को वर्षों तक सताता है। सामाजिक विश्वास कम होता है और अंतरराष्ट्रीय छवि खराब होती है। भारत जैसे विकासशील देश में ये घटनाएं प्रगति की राह में बाधा हैं।


फिर सवाल उठता है कि इनसे कैसे बचा जाए? प्रबंधन के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाना होगा। सबसे पहले, पूर्व नियोजन जरूरी है। आयोजकों को अनुमति देते समय क्षमता का सख्त आकलन हो और अधिकतम संख्या तय की जाए। बुनियादी ढांचे में सुधार लाएं, चौड़े निकास, आपातकालीन मार्ग और मजबूत संरचनाएं। एनडीएमए के अनुसार, सीसीटीवी, ड्रोन और एआई का उपयोग भीड़ निगरानी के लिए किया जाए, जैसा कुंभ में प्रयास हुआ।   सुरक्षा कर्मियों की संख्या बढ़ाएं और उन्हें विशेष प्रशिक्षण दें। अफवाहों पर नियंत्रण के लिए ‘रियल टाइम’ संचार प्रणाली लगाएं। अंतर-एजेंसी समन्वय मजबूत करें—पुलिस, आयोजक और नागरिक प्रशासन एक साथ काम करें।   कानूनी सख्ती लाएं, लापरवाह आयोजकों पर कड़ी सजा और मुआवजा सुनिश्चित करें। जन जागरूकता अभियान चलाएं, जहां लोग भीड़ में धैर्य रखें और सहयोग करें। शासन और प्रशासन की ज़िम्मेदारी है कि नियमित रूप से देश भर में ‘मॉक ड्रिल’ का आयोजन किया जाए, जिससे जागरूकता बढ़ेगी। अंतरराष्ट्रीय उदाहरण लें, जैसे दुनिया भर के कई देशों में स्कूलों में भी आपात स्थिति से निपटने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है।  

भारत को एक बाद एक हुई इन विफलताओं से सबक लेना होगा। सरकार, आयोजक और नागरिकों की संयुक्त जिम्मेदारी से ही भविष्य की त्रासदियां रोकी जा सकती हैं। अन्यथा, ये घटनाएं जारी रहेंगी और देश अपनी जनता को बचाने में असमर्थ साबित होगा। समय आ गया है कि प्रोएक्टिव अप्रोच अपनाया जाए, जैसा कि कहा जाता है  कि, ‘प्रिवेंशन इज बेटर दैन क्योर’। केवल तभी हम एक सुरक्षित भारत का निर्माण कर पाएंगे। 

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Monday, September 22, 2025

स्वच्छ ऊर्जा की दौड़ में चीन का बढ़ता वर्चस्व !

आज की दुनिया में ऊर्जा नीतियां सिर्फ आर्थिक निर्णय नहीं हैं, बल्कि वैश्विक वर्चस्व की कुंजी हैं। जब अमेरिका तेल और गैस पर दांव लगाकर पुरानी राह पर लौट रहा है, वहीं चीन स्वच्छ ऊर्जा क्रांति को गति दे रहा है। यह विरोधाभास न केवल आर्थिक असंतुलन पैदा कर रहा है, बल्कि भविष्य की तकनीकी दिग्गजों—जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई)—के लिए बुनियादी ढांचे को भी प्रभावित कर रहा है। साइरस जेन्सेन की हालिया वीडियो ‘अमेरिका जस्ट मेड द ग्रेटेस्ट मिस्टेक ऑफ द 21वीं सेंचुरी’ इस मुद्दे को बेबाकी से उजागर करती है। 



अमेरिका, जो कभी नवाचार का प्रतीक था, अब अपनी ऊर्जा नीतियों में उल्टा चढ़ाव दिखा रहा है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में, अमेरिका ने अलास्का में 44 अरब डॉलर का प्राकृतिक गैस प्रोजेक्ट शुरू किया था। जनरल मोटर्स जैसी कंपनियां इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) की योजनाओं को रद्द कर रही हैं और वी8 गैस इंजनों पर लौट रही हैं। यहां तक कि ईवी खरीद पर टैक्स क्रेडिट भी समाप्त कर दिए गए हैं। यह सब तब हो रहा है जब दुनिया जलवायु परिवर्तन से जूझ रही है और नवीकरणीय ऊर्जा ही भविष्य का रास्ता दिख रही है।


जेन्सेन की वीडियो में साफ कहा गया है कि अमेरिका की यह रणनीति अल्पकालिक लाभ के लिए है। तेल और गैस निर्यात बढ़ाने से तत्काल आर्थिक फायदा तो मिलेगा, लेकिन लंबे समय में यह वैश्विक बाजारों में पीछे धकेल देगा। अमेरिका ने 1950 के दशक में सोलर पैनल विकसित किए थे, 1970 के दशक में लिथियम-आयन बैटरी का आविष्कार किया, लेकिन रोनाल्ड रीगन जैसे नेताओं ने जिमी कार्टर के व्हाइट हाउस सोलर पैनल हटाकर इसकी उपेक्षा की। आज भी वही पुरानी सोच हावी है। परिणामस्वरूप, अमेरिका ईवी निर्यात में मात्र 12 अरब डॉलर और बैटरी निर्यात में 3 अरब डॉलर पर सिमट गया है, जबकि सोलर पैनल निर्यात तो महज 69 मिलियन डॉलर का है।



यह भूल सिर्फ आर्थिक नहीं, भू-राजनीतिक भी है। वैश्विक दक्षिण—जो सौर और पवन ऊर्जा के 70 प्रतिशत स्रोतों और महत्वपूर्ण खनिजों के 50 प्रतिशत का नियंत्रण रखता है—अब नवीकरणीय ऊर्जा की ओर मुड़ रहा है। अमेरिका का जीवाश्म ईंधन पर फोकस इन देशों को अलग-थलग कर देगा, जबकि चीन इनके साथ साझेदारी कर रहा है। वहीं, चीन ने स्वच्छ ऊर्जा को राष्ट्रीय प्राथमिकता बना लिया है। 2024 में चीन ने दुनिया के बाकी देशों से ज्यादा विंड टर्बाइन और सोलर पैनल लगाए। ईवी और बैटरी स्टोरेज में निवेश ने इसे वैश्विक नेता बना दिया है। पिछले साल चीन ने 38 अरब डॉलर के ईवी निर्यात किए, 65 अरब डॉलर की बैटरी बेचीं, और सोलर पैनल के 40 अरब डॉलर के निर्यात किए। स्वच्छ ऊर्जा पेटेंट में चीन के पास 7 लाख से ज्यादा हैं, जो दुनिया के आधे से अधिक हैं।



जेन्सेन उद्धृत करते हुए बताते हैं कि चीन की सफलता का राज समन्वित प्रयास है। सीएल के सह-अध्यक्ष शिएन पैन कहते हैं, चीन को लंबे लक्ष्य पर प्रतिबद्ध करना मुश्किल है, लेकिन जब हम प्रतिबद्ध होते हैं, तो समाज के हर पहलू—सरकार, नीति, निजी क्षेत्र, इंजीनियरिंग—सभी एक ही लक्ष्य की ओर कड़ी मेहनत करते हैं। यह दृष्टिकोण अमेरिका की छिटपुट नीतियों से बिल्कुल अलग है।


चीन अब वैश्विक बाजारों में फैल रहा है। ब्राजील, थाईलैंड, मोरक्को और हंगरी में ईवी और बैटरी फैक्टरियां बना रहा है। हंगरी में 8 अरब डॉलर का कारखाना, इंडोनेशिया में 11 अरब डॉलर का सोलर प्लांट—ये निवेश न केवल आर्थिक, बल्कि भू-राजनीतिक लाभ भी दे रहे हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स के हवाले से जेन्सेन कहते हैं, ईवी बैटरी बनाने वाले देश दशकों तक आर्थिक और भू-राजनीतिक फायदे काटेंगे। अभी तक का एकमात्र विजेता चीन है।



पिछले 15 वर्षों में चीन ने बिजली उत्पादन में अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है। यह आंकड़ा महत्वपूर्ण है क्योंकि एआई जैसी उभरती तकनीकें बिजली पर निर्भर हैं। चीन का स्वच्छ ऊर्जा निवेश न केवल पर्यावरण बचाएगा, बल्कि एआई क्रांति में भी नेतृत्व देगा। आरएमआई की ‘पावरिंग अप द ग्लोबल साउथ’ रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक दक्षिण के 70 प्रतिशत सौर-पवन संसाधन चीन की रणनीति से जुड़ रहे हैं।


यह संघर्ष सिर्फ दो महाशक्तियों का नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का है। वैश्विक दक्षिण—अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, दक्षिण एशिया—अब सस्ती और सतत ऊर्जा की तलाश में है। चीन ने इन देशों में सस्ते सोलर पैनल और ईवी तकनीक पहुंचाई है, जबकि अमेरिका के महंगे गैस प्रोजेक्ट इनके लिए बोझ साबित हो रहे हैं। परिणाम? ये देश चीन की ओर झुक रहे हैं।


भारत के संदर्भ में देखें तो यह चेतावनी स्पष्ट है। हमारी ‘मेक इन इंडिया’ और ‘प्लेड्ज फॉर क्लाइमेट’ पहलें स्वच्छ ऊर्जा पर केंद्रित हैं, लेकिन चीन का वर्चस्व चुनौती है। भारत सोलर और विंड में प्रगति कर रहा है, लेकिन बैटरी और ईवी चिप्स में आयात पर निर्भरता बनी हुई है। यदि हम चीन की तरह समन्वित नीति नहीं अपनाते, तो वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में पीछे रह जाएंगे। अमेरिका की गलती से सबक लेते हुए, भारत को स्वदेशी नवाचार पर जोर देना चाहिए—जैसे लिथियम खनन और बैटरी रिसाइक्लिंग में निवेश।


अमेरिका की यह भूल नई नहीं है। 20वीं सदी में जापान ने इलेक्ट्रॉनिक्स में अमेरिका को पीछे छोड़ा था, क्योंकि अमेरिका ने अल्पकालिक लाभ को प्राथमिकता दी। आज चीन स्वच्छ ऊर्जा में वही कर रहा है। जेन्सेन की वीडियो एक चेतावनी है: जो देश बिजली उत्पादन में आगे होगा, वही एआई और अगली औद्योगिक क्रांति जीतेगा।

अमेरिका को अपनी नीतियां पलटनी होंगी—ईवी सब्सिडी बहाल करनी होंगी, नवीकरणीय अनुसंधान में निवेश बढ़ाना होगा। लेकिन समय कम है। चीन का बढ़त 10 वर्षों का नहीं, बल्कि दशकों का हो सकता है। अमेरिका ने 21वीं सदी की सबसे बड़ी गलती कर दी है—जीवाश्म ईंधन पर दांव लगाकर स्वच्छ ऊर्जा के भविष्य को गंवा दिया। चीन का उदय एक सबक है: समन्वित, दूरदर्शी नीतियां ही विजेता बनाती हैं। भारत जैसे देशों को इस दौड़ में शामिल होना चाहिए, ताकि हम न केवल पर्यावरण बचाएं, बल्कि आर्थिक स्वतंत्रता भी हासिल करें। समय आ गया है कि दुनिया एकजुट होकर स्वच्छ ऊर्जा को अपनाए। अन्यथा, इतिहास हमें माफ नहीं करेगा।