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Monday, October 23, 2023

मोदी जी की राह आसान करेगा ‘इंडिया’ गठबंधन


जबसे पटना, बेंगलुरु और मुंबई में प्रमुख विपक्षी दलों की महत्वपूर्ण बैठकें हुईं और ‘इंडिया’ गठबंधन की घोषणा हुई तब से विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में एक उत्साह की लहर दौड़ गई थी। क्योंकि पिछले नौ वर्षों से राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा विपक्षी दलों पर हावी रही है। पर पिछले दिनों ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल कुछ दलों के प्रवक्ताओं ने एक दूसरे दल पर ऐसी तीखी टिप्पणियाँ की हैं जिससे गठबंधन में दरार पड़ सकती है। आगामी विधान सभा चुनावों में मध्य प्रदेश की कुछ सीटों को लेकर कांग्रेस और समाजवादी दल की जो बयानबाज़ी हुई है वो भी ‘इंडिया’ गठबंधन के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। हालाँकि मध्य प्रदेश में कमल नाथ ने जो कड़ी मेहनत की है उससे हवा कांग्रेस के पक्ष में बह रही है। शायद इसी आत्मविश्वास के कारण कांग्रेस को समाजवादी पार्टी की कोई अहमियत नज़र नहीं आई। पर अगर यही रवैया रहा तो लोक सभा के चुनाव में ‘इंडिया’ गठबंधन कैसे मज़बूती से लड़ पाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि विपक्षी दल तीसरी बार भी मोदी जी के प्रधान मंत्री बनने की राह आसान कर देंगे?
 



पिछले नौ वर्षों में विपक्ष ने तमाम हमले सत्तारूढ़ दल पर किए। पर फिर भी कामयाबी नहीं मिली। ज़्यादातर हमले मोदी जी की सार्वजनिक घोषणाओं, उनकी नीतियों और कार्यप्रणाली पर हुए। जैसे मोदी जी की 2014 की घोषणाओं को याद दिलाना कि 2 करोड़ नौकरी हर साल मिलने का और 2022 तक सबको पक्के घर मिलने का वायदा क्या हुआ? 15 लाख सबके खातों में कब आएँगे? 100 स्मार्ट सिटी क्यों नहीं बन पाए? माँ गंगा मैली की मैली क्यों रह गई? विदेशों से काला धन वापस क्यों नहीं आया? इसके अलावा मोदी जी के अडानी समूह से संबंधों को लेकर भी संसद में और बाहर बार-बार सवाल पूछे गये। 


आम आदमी पार्टी ने मोदी जी की डिग्रियों को लेकर सवाल खड़े किए। आरबीआई की जानकारी के अनुसार पिछले नौ वर्षों में बैंकों का 25 लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में चला गया। आम जनता के खून पसीने की कमाई की ऐसी बर्बादी और लाखों करोड़ के ऋण लेकर विदेश भागने वाले नीरव मोदी जैसे लोगों के बारे में भी सवाल पूछे गये। मोदी सरकार पर सीबीआई, ईडी व आयकर एजेंसियों के बार-बार दुरूपयोग के आरोप लगातार लगते रहे। इन एजेंसियों की विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ इकतरफ़ा कारवाई और चुनावों के पहले उन पर छापे और गिरफ़्तारियों को लेकर भी पूरा विपक्ष उत्तेजित रहा। किसान आंदोलन की उपेक्षा और सैंकड़ों किसानों की शहादत व गृह राज्य मंत्री के बेटे का लखीमपुर में आंदोलनकारी किसानों पर क़ातिलाना हमला भी मोदी सरकार पर हमले का सबब बना। ओलंपिक पदक विजेता महिला खिलाड़ियों के यौन शोषण के आरोपों पर मोदी सरकार की चुप्पी और बाद में उन्हें पुलिस के ज़ोर पर धरने से हटाने को लेकर भी सरकार की बार-बार खिंचाई की गई। मणिपुर में भारी हिंसा के बावजूद प्रधान मंत्री का महीनों तक वहाँ न जाना भी बड़े विवाद का कारण बना हुआ है। ऐसे तमाम गंभीर सवालों पर प्रधान मंत्री का लगातार चुप रह जाना और एक बार भी संवाददाता सम्मेलन न करना, लोकतंत्र के करोड़ों मतदाताओं को आजतक समझ में नहीं आया।



उधर हर चुनाव में प्रधान मंत्री का आक्रामक प्रचार और विपक्षियों को भ्रष्ट बता कर हमला करना। जबकि दूसरी तरफ़ प्रधान मंत्री द्वारा ही बार-बार भ्रष्ट बताए गये विपक्षी नेताओं को भाजपा में शामिल करवा कर उनके साथ सत्ता में भागीदारी करना भी एक बड़े विवाद का कारण रहा है। इस सबसे देश में ऐसा माहौल बना कि विपक्ष इसे अघोषित आपातकाल कहने लगा। किंतु स्थानीय राजनीति पर अपनी पकड़ छोड़ने को कोई क्षेत्रीय दल तैयार न था। इसलिए विपक्ष के दल जहाँ एक तरफ़ भाजपा पर निशाना साधते रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ आपस में भी एक दूसरे पर छींटाकशी करने से बाज नहीं आए। यहीं कारण है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के समर्थन का दावा करने वाले विपक्ष के नेता अपने-अपने क्षेत्रों में तो कामयाब हुए पर राष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार को चुनौती नहीं दे पाए। आज भी जनाधार वाले ये तमाम विपक्षी दल एकजुट होकर चुनाव नहीं लड़ पा रहे हैं। इसलिए केंद्र में सत्ता पाने का उनका सपना पूरा नहीं हो पा रहा। 



विपक्ष को इस अंधकार से निकालने की पहल कुछ तो प्रांतीय नेताओं ने की जिनके प्रयास से केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, हिमाचल, बिहार, राजस्थान, झारखंड, पंजाब, छत्तीसगढ़, झारखंड, दिल्ली, महाराष्ट्र, जैसे राज्यों में विपक्ष की सरकारें बनीं। दूसरा काम ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के माध्यम से राहुल गांधी ने किया। जिन राहुल गांधी को भाजपा और संघ परिवार ने ‘पप्पू’ सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी उन्हीं राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में हर आम आदमी को गले लगा कर अपनी छवि में चार चाँद लगा दिये। बिना मीडिया से डरे, हर दिन सैंकड़ों संवाददाताओं के तीखे सवालों के सहजता से उत्तर दिये। संसद में मोदी सरकार पर इतना कड़ा हमला बोला कि उनकी संसद सदस्यता ही ख़तरे में पड़ गई। पर राहुल गांधी के इस नए तेवर ने और कर्नाटक विधान सभा में कांग्रेस की जीत ने राहुल गांधी को एक आत्मविश्वास दिया कि वे बाँहें फैला कर हर विपक्षी दल को ‘इंडिया’ गठबंधन में जोड़ सके। इसी से भारतीय लोकतंत्र में एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ। 


पर जिस ज़ोर-शोर से ‘इंडिया’ गठबंधन की घोषणा हुई थी वो गर्मी अब धीरे-धीरे शांत होती जा रही है, ऐसा प्रतीत होता है। पिछले दिनों ‘इंडिया’ गठबंधन के सहयोगी दल तृण मूल कांग्रेस पर कांग्रेस के नेता अधिरंजन चौधरी ने जो हमला बोला उससे इस गठबंधन में दरार पड़ने का संदेश गया। उधर मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए कांग्रेस के द्वारा वायदा करने बावजूद सपा को 5-7 टिकटें नहीं दी गईं। जिसपर सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सार्वजनिक रूप से अपनी नाराज़गी व्यक्त की। हर योद्धा जानता है कि युद्ध जीतने के लिए स्पष्ट लक्ष्य, सुविचारित रणनीति, टीम में एकता और अनुशासन, सामने वाले की व स्वयं की क्षमता का सही आँकलन और सही मौक़े पर सही निर्णय लेने की राजनैतिक समझ की ज़रूरत होती है। अगर ‘इंडिया’ गठबंधन को वास्तव में अपना लक्ष्य हासिल करना है तो उसे सहयोगी दलों के पारस्परिक संबंधों पर विशेष ध्यान देना होगा अन्यथा ‘टीम इंडिया’ बनने से पहले ही बिखर जाएगी।   

Monday, June 20, 2016

कमलनाथ से क्यों डरते हैं केजरीवाल ?

कमलनाथ के पंजाब का प्रभारी बनते ही केजरीवाल इतने बौखला क्यों गए ? 1984 के दंगों को भुनाने की नाकाम कोशिश में होश गवां बैठे। जिन दंगो से कमलनाथ का दूर दूर तक कोई नाता नहीं उसमें उनका नाम घसीट कर केजरीवाल ने सिर्फ अपने मानसिक दिवालियापन और हताशा का परिचय दिया।

हैरत की बात है कि आज कहीं केजरीवाल सरकार के कामकाज की बातें नहीं होतीं। केवल उनके झूंठे वायदों का बखान होता है। होती भी हैं तो वे बातें खुद केजरीवाल को ही करनी पड़ती हैं। हालत यहां तक पंहुच गई है कि केजरीवाल के प्रचार पर दिल्ली सरकार के सैंकडों करोड़ रूपये के खर्च का आंकड़ा आम आदमी को परेशान कर रहा है। काम कुछ नहीं प्रचार इतना ज्यादा। इससे ज्यादा अचंभे की क्या बात क्या हो सकती है कि जिन बातों पर हल्ला बोलकर केजरीवाल ने सत्ता कब्जाने का माहौल बनाया था वे सारी बातें आज उनके कामकाज के तरीकों से गायब हैं। एक लाइन में समीक्षा करें तो व्यापार प्रबंधन की चमत्कारी विधियों से केजरीवाल ने अपना जो ब्रांड बनाया था उसके विस्तार के लिए वे अपनी नई ब्रांच पंजाब में खोलने का प्लान बना रहे हैं।

पर केजरीवाल को अपनी सत्ता के विस्तार के लिए क्या दाव पर लगाना पड़ सकता है? क्योंकि केजरीवाल ने दिल्ली में सत्ता हथियाने के लिए जो हथियार चलाया उसकी अब परीक्षा होगी। दिल्ली में विकास की पर्याय बन चुकीं शीला दीक्षित को उखाड़ना आसान नहीं था। लेकिन सब जानते है कि अन्ना के आंदोलन के जरिए केंद्र की यूपीए को उखाडने के लिए जो आंदोलन चलवाया गया था उसने दरअसल कांग्रेस के खिलाफ ही बिसात बिछाई थी। सत्ता के खेल की बहुत ही मजेदार बात है कि उस समय कांग्रेस विरोधी ताकतों ने आंख बंद करके अन्ना और उनके केजरीवाल जैसे अतिमहत्वकांशी कार्यकर्ताओं की पीठ पर हाथ रख दिया था। यूपीए को येन केन प्राकारेण सत्ता से बेदखल करने के लिए जो खेल चला वो  धीरे धीर बेपर्दा जरूर हो गया हो, लेकिन केजरीवाल इस सबके बीच बड़ी चालाकी से और अपने सभी विश्वसनीय साथियों को दगा देकर, केवल अपनी निजी हैसियत बनाकर, दिल्ली की कुर्सी पर काबिज होने में सफल हो ही गए। सारी दिल्ली ठगी गयी। जो उसे आज समझ आ रहा जब दिल्ली के हालात बाद से बदतर हो गए हैं।

इसलिए दिल्ली से उचक कर पंजाब जाने की जुगत में केजरीवाल को सबसे बड़ी दिक्कत आ रही है कि दिल्ली में अगर कुछ बोलेंगे तो फौरन उनके कामकाज का मूल्यांकन होगा ही। जिसमें वो बगलें झांकेंगे। भ्रष्टाचार के मुददे का नारा लगाकर जो आंदोलन उन्होंने चलाया था, उसे याद दिलाया जाएगा, तो भी वो बेनकाब होंगे।

इसी संभावना के डर से वे दिल्ली के अखबारों में भारी विज्ञापन करवाने में लगे रहे कि पुल और सड़को के काम सस्ते में करवा कर उन्होंने सरकारी खजाने का कितना पैसा बचवा दिया। लेकिन उनकी पोल तब खुली जब दिल्ली में सफाई और बिजली के इंतजाम तक के लिए पैसों का टोटा पड़ गया। विकास के दूसरे कामों के लिए वे योजनाएं तक नहीं बना पाए। उपर से दिल्ली में ऑड-ईवन की नौटंकी के बावजूद बढ़ते प्रदूषण ने केजरीवाल सरकार की पोल खोल दी।

केजरीवाल को लगा होगा कि प्रचार तंत्र से वे सब संभाल लेंगे। लेकिन मोटी फीस लेकर, देश विदेश में केजरीवाल की छवि बनाने के ठेकेदार या मीडिया मेनेजर शायद ये भूल गए कि प्रचार से आपको कुछ दिन तक तो बेचा जा सकता है।पर असल में तो आपके काम को ही परखा जाता है। मतलब ये कि पंजाब में घुसने के पहले केजरीवाल को दिल्ली में अपनी उपलब्ध्यिों की प्रचार सामग्री बनवानी पड़ेगी। लेकिन इसमें अड़चन यह है कि कांग्रेस के खिलाफ सड़कों पर ताबड़तोड़ ढंग से चलाये उनके प्रचार अभियान को जुम्मे जुम्मे दो साल ही हुए हैं। सो इतनी जल्दी उसे भुलाना आसान नहीं होगा। जो तब ढोल पीट-पीट कर कहा था वो कुछ किया नहीं। काठ की हंडिया बार-बार नहीं चढ़ती। दिल्ली में चढ़ चुकी काठ की हंडिया पंजाब में फिर से चढ़ा देने की बात उनके देशी विदेशी विशेषज्ञ कतई नहीं सोच सकते। अगर इस्तीफा न देते तो कमलनाथ पंजाब में केजरीवाल को शीशा दिखा देते। इसलिए कमलनाथ के नाम से केजरीवाल पेट में हुलहुली हो गयी।

इन्ही सब कारणों से केजरीवाल ने पंजाब में नशे का शोर मचाकर चुनाव में नया मुद्दा पेश किया है। पर इसके बारे में बॉलीवुड और वहां की मौजूदा सरकार के बीच जो विवाद खड़ा हो गया है उसमें केजरीवाल के घुसने की गुंजाइश ही नहीं बची। फिल्मी कलाकारों को छोटे मोटे लालच में फंसाना आसान नहीं होता। राजनीति के चक्कर में उनका शौक और धंधा दोनों चैपट हो जाते हैं। इसके तमाम उदाहरण उनके सामने  हैं।

रही बात पंजाब में राजनीतिक समीकरण की। तो यह सबके सामने है कि वहां दो ध्रुवीय राजनीति ही है। कांग्रेस के सो कर उठने की संभावना बनती है तो हाल फिलहाल पंजाब में ही बनती है। ऐसे में केजरीवाल वहां सत्तारूढ़ दलों के खिलाफ माहौल को भुनाने में लगेंगे तो मुश्किल यह ही है कि कांग्रेस के खिलाफ भी प्रचार करना पड़ेगा। ऐसा करते समय केजरीवाल कितने भी हथकंडे क्यों न अपनाये आसानी से बेनकाब हो जायेंगे। इसी का उन्हें आज खौफ है। अंदरखाने से जो खबरें मिल रही है उसके मुताबिक केजरीवाल अगर जीत गए तो एलानिया तरीके से दिल्ली को अपने किसी विश्वसनीय दोस्त को सौंपकर पंजाब जाने का फैसला कर सकते हैं। सवाल उठता है कि उन्हें इतनी जल्दी पैर पसारने की जरूरत क्यों पड़ रही है? दरअसल सिद्धान्त तो केजरीवाल के लिए सत्ता पाने के हथकंडे हैं। इसलिए उन्हें दिल्ली में अपनी पोल पूरी तरह से खुलने से बचना है ताकि  सत्ता की हवस पूरी हो सके। पर कोई भी कारोबार बहुत देर तक एक ही मुकाम पर खड़ा नहीं रह सकता। उतार चढ़ाव आते ही हैं। केजरीवाल का कहीं वो हाल न हो कि छब्बे बनने के चक्कर में चैबे जी दुबे बनकर लौट आए।