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Sunday, June 1, 2025

रक्षा परियोजनाओं में देरी क्यों?

भारतीय वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह ने 29 मई 2025 को नई दिल्ली में आयोजित एक सभा में रक्षा परियोजनाओं में देरी को लेकर एक महत्वपूर्ण बयान दिया। उन्होंने कहा, टाइमलाइन एक बड़ा मुद्दा है। मेरे विचार में एक भी परियोजना ऐसी नहीं है जो समय पर पूरी हुई हो। कई बार हम कॉन्ट्रैक्ट साइन करते समय जानते हैं कि यह सिस्टम समय पर नहीं आएगा। फिर भी हम कॉन्ट्रैक्ट साइन कर लेते हैं। यह बयान न केवल रक्षा क्षेत्र में मौजूदा चुनौतियों को उजागर करता है, बल्कि भारत की रक्षा आत्मनिर्भरता की दिशा में चल रही प्रक्रिया पर भी सवाल उठाता है।


एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह ने अपने बयान में विशेष रूप से हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) द्वारा तेजस Mk1A फाइटर जेट की डिलीवरी में देरी का उल्लेख किया। यह देरी 2021 में हस्ताक्षरित 48,000 करोड़ रुपये के कॉन्ट्रैक्ट का हिस्सा है, जिसमें 83 तेजस Mk1A जेट्स की डिलीवरी मार्च 2024 से शुरू होनी थी, लेकिन अभी तक एक भी विमान डिलीवर नहीं हुआ है। इसके अलावा, उन्होंने तेजस Mk2 और उन्नत मध्यम लड़ाकू विमान (AMCA) जैसे अन्य महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स में भी प्रोटोटाइप की कमी और देरी का जिक्र किया। यह बयान ऐसे समय में आया है जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ रहा है, विशेष रूप से ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद, जिसे उन्होंने राष्ट्रीय जीत करार दिया।



उनके बयान का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि यह रक्षा क्षेत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही की आवश्यकता को रेखांकित करता है। यह पहली बार नहीं है जब HAL की आलोचना हुई है। फरवरी 2025 में, एयरो इंडिया 2025 के दौरान, एयर चीफ मार्शल सिंह ने HAL के प्रति अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा था, मुझे HAL पर भरोसा नहीं है, जो बहुत गलत बात है। यह बयान एक अनौपचारिक बातचीत में रिकॉर्ड हुआ था, लेकिन इसने रक्षा उद्योग में गहरे मुद्दों को उजागर किया।


रक्षा परियोजनाओं में देरी के कई कारण हैं, जिनमें से कुछ संरचनात्मक और कुछ प्रबंधन से संबंधित हैं। तेजस Mk1A की डिलीवरी में देरी का एक प्रमुख कारण जनरल इलेक्ट्रिक से इंजनों की धीमी आपूर्ति है। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में समस्याएं, विशेष रूप से 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद भारत पर लगे प्रतिबंधों ने HAL की उत्पादन क्षमता को प्रभावित किया है । सिंह ने HAL को मिशन मोड में न होने के लिए आलोचना की। उन्होंने कहा कि HAL के भीतर लोग अपने-अपने साइलो में काम करते हैं, जिससे समग्र तस्वीर पर ध्यान नहीं दिया जाता। यह संगठनात्मक अक्षमता और समन्वय की कमी का संकेत है। सिंह ने इस बात पर भी जोर दिया कि कई बार कॉन्ट्रैक्ट साइन करते समय ही यह स्पष्ट होता है कि समय सीमा अवास्तविक है। फिर भी, कॉन्ट्रैक्ट साइन कर लिए जाते हैं, जिससे प्रक्रिया शुरू से ही खराब हो जाती है। यह एक गहरी सांस्कृतिक समस्या को दर्शाता है, जहां जवाबदेही की कमी है। हालांकि सरकार ने AMCA जैसे प्रोजेक्ट्स में निजी क्षेत्र की भागीदारी को मंजूरी दी है, लेकिन अभी तक रक्षा उत्पादन में निजी क्षेत्र की भूमिका सीमित रही है। इससे HAL और DRDO जैसे सार्वजनिक उपक्रमों पर अत्यधिक निर्भरता बढ़ती है, जो अक्सर समय सीमा पूरी करने में विफल रहते हैं। भारत की रक्षा खरीद प्रक्रिया जटिल और समय लेने वाली है। इसके अलावा, डिजाइन और विकास में देरी, जैसे कि तेजस Mk2 और AMCA के प्रोटोटाइप की कमी, परियोजनाओं को और पीछे धकेलती है।



रक्षा परियोजनाओं में देरी का भारतीय वायुसेना की परिचालन तत्परता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। वर्तमान में, भारतीय वायु सेना के पास 42.5 स्क्वाड्रनों की स्वीकृत ताकत के मुकाबले केवल 30 फाइटर स्क्वाड्रन हैं। तेजस Mk1A जैसे स्वदेशी विमानों की देरी और पुराने मिग-21 स्क्वाड्रनों का डीकमीशनिंग इस कमी को और गंभीर बनाता है।



इसके अलावा, देरी से रक्षा आत्मनिर्भरता की दिशा में भारत की प्रगति भी प्रभावित होती है। सिंह ने कहा, हमें केवल भारत में उत्पादन की बात नहीं करनी चाहिए, बल्कि डिजाइन और विकास भी भारत में करना चाहिए। देरी न केवल IAF की युद्ध क्षमता को कमजोर करती है, बल्कि रक्षा उद्योग में विश्वास को भी प्रभावित करती है। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसे हालिया सैन्य अभियानों ने यह स्पष्ट किया है कि आधुनिक युद्ध में हवाई शक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका है, और इसके लिए समय पर डिलीवरी और तकनीकी उन्नति अनिवार्य है।


एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह के बयान ने रक्षा क्षेत्र में सुधार की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित किया है। रक्षा कॉन्ट्रैक्ट्स में यथार्थवादी समयसीमाएं निर्धारित की जानी चाहिए। सिंह ने सुझाव दिया कि हमें वही वादा करना चाहिए जो हम हासिल कर सकते हैं। इसके लिए कॉन्ट्रैक्ट साइन करने से पहले गहन तकनीकी और लॉजिस्टिकल मूल्यांकन की आवश्यकता है। AMCA प्रोजेक्ट में निजी क्षेत्र की भागीदारी एक सकारात्मक कदम है। निजी कंपनियों को रक्षा उत्पादन में और अधिक शामिल करने से HAL और DRDO पर निर्भरता कम होगी और प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। 


HAL और अन्य सार्वजनिक उपक्रमों को ‘मिशन मोड’ में काम करने के लिए संगठनात्मक सुधार करने चाहिए। इसके लिए समन्वय, प्रोजेक्ट मैनेजमेंट और कर्मचारी प्रशिक्षण में सुधार की आवश्यकता है। इंजन और अन्य महत्वपूर्ण घटकों के लिए विदेशी आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भरता को कम करने के लिए स्वदेशी विकास पर ध्यान देना होगा। रक्षा खरीद प्रक्रिया को सरल और तेज करने की आवश्यकता है ताकि अनावश्यक देरी से बचा जा सके।


एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह का बयान रक्षा क्षेत्र में गहरी जड़ें जमाए बैठी समस्याओं को उजागर करता है। उनकी स्पष्टवादिता न केवल जवाबदेही की मांग करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि भारत को आत्मनिर्भर और युद्ध के लिए तैयार रहने के लिए तत्काल सुधारों की आवश्यकता है। तेजस Mk1A, Mk2 और AMCA जैसे प्रोजेक्ट्स भारत की रक्षा क्षमता के लिए महत्वपूर्ण हैं। इनमें देरी न केवल हमारी फौज की तत्परता को प्रभावित करती है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा को भी खतरे में डालती है। सरकार, रक्षा उद्योग और निजी क्षेत्र को मिलकर इन चुनौतियों का समाधान करना होगा ताकि भारत न केवल उत्पादन में, बल्कि डिजाइन और विकास में भी आत्मनिर्भर बन सके। सिंह का यह बयान एक चेतावनी तो है ही, लेकिन साथ ही यह रक्षा क्षेत्र को ‘सर्वश्रेष्ठ’ करने  की दिशा में एक अवसर भी है।

Monday, May 19, 2025

‘ऑपरेशन सिंदूर’ और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय !


भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का इतिहास लंबा और जटिल रहा है। दोनों देशों के बीच कश्मीर को लेकर दशकों से चला आ रहा विवाद समय-समय पर हिंसक संघर्षों का कारण बनता रहा है। हाल ही में, अप्रैल 2025 में पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद दोनों देशों के बीच तनाव एक बार फिर चरम पर पहुंच गया। इस हमले में 26 पर्यटकों की जान गई थी, जिसके लिए भारत ने पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराया। इसके जवाब में भारत ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू किया, जिसमें पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में आतंकी ठिकानों पर हवाई हमले किए गए। इस घटनाक्रम ने दक्षिण एशिया में तनाव को और बढ़ा दिया। इस संदर्भ में, अमरीका के जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय की युद्ध मामलों की विशेषज्ञ प्रोफेसर क्रिस्टीन फेयर ने एक टीवी साक्षात्कार में इस संघर्ष के कारणों, परिणामों और भविष्य की संभावनाओं पर विस्तार से चर्चा की।


प्रोफेसर फेयर ने अपने साक्षात्कार में बताया कि पाकिस्तान की सेना और उसका खुफिया तंत्र लंबे समय से आतंकी संगठनों, जैसे लश्कर-ए-तैयबा आदि को समर्थन देता रहा है। उन्होंने स्पष्ट किया कि ये संगठन न केवल कश्मीर में सक्रिय हैं, बल्कि पाकिस्तान के आंतरिक सुरक्षा परिदृश्य में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनके अनुसार, पाकिस्तानी सेना इन संगठनों को रणनीतिक संपत्ति के रूप में देखती है, जो भारत के खिलाफ छद्म युद्ध छेड़ने में उपयोगी हैं।



पहलगाम हमले के जवाब में भारत ने ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया, जिसमें भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान में नौ आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया। इस ऑपरेशन को भारत ने अपनी आत्मरक्षा का अधिकार बताया, जबकि पाकिस्तान ने इसे अपनी संप्रभुता पर हमला करार दिया। प्रोफेसर फेयर ने इस ऑपरेशन को भारत की बदलती रणनीति का हिस्सा बताया। उन्होंने कहा कि भारत अब पहले की तरह केवल कूटनीतिक जवाब तक सीमित नहीं रहा, बल्कि वह सैन्य कार्रवाई के जरिए आतंकवाद के खिलाफ कड़ा संदेश भी देना जानता है। हालांकि, उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि ऑपरेशन सिंदूर जैसे कदम आतंकवाद को पूरी तरह खत्म नहीं कर सकते, क्योंकि पाकिस्तान की सेना के लिए भारत के खिलाफ संघर्ष अस्तित्वगत है।ये उनके वजूद का सवाल है। भारत का डर दिखा -दिखा कर ही पाकिस्तान अनेक देशों से आर्थिक मदद माँगता रहा है । 


प्रोफेसर फेयर ने पाकिस्तानी सेना की भारत के प्रति कार्यशैली पर एक किताब भी लिखी है। इस साक्षात्कार में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि पाकिस्तान की सेना अपने देश की नीति-निर्माण प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाती है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी सेना भारत को अपने अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा मानती है और इस धारणा को बनाए रखने के लिए वह आतंकी संगठनों का इस्तेमाल करती है। फेयर के अनुसार, उनकी यह नीति न केवल भारत के लिए खतरा है, बल्कि पाकिस्तान के आंतरिक स्थायित्व को भी कमजोर करती है।



उन्होंने यह भी बताया कि पाकिस्तानी सेना के लिए कश्मीर विवाद केवल एक क्षेत्रीय मुद्दा नहीं है, बल्कि यह उनकी वैचारिक और रणनीतिक पहचान का हिस्सा है। फेयर ने कहा कि पाकिस्तान की सेना तब तक आतंकवाद को समर्थन देती रहेगी, जब तक कि उसे भारत के खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत करने का मौका मिलता रहेगा। भारत की हालिया सैन्य कार्रवाइयों, जैसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’, ने पाकिस्तान को यह संदेश दिया है कि भारत अब पहले की तरह निष्क्रिय नहीं रहेगा।



साक्षात्कार में प्रोफेसर फेयर ने भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल की रणनीति की भी चर्चा की। उन्होंने डोवाल को एक ऐसे रणनीतिकार के रूप में वर्णित किया, जो भारत की सुरक्षा नीति को आक्रामक और सक्रिय दिशा में ले जा रहे हैं। फेयर ने कहा कि डोवाल की सक्रिय रक्षा की नीति ने भारत को पाकिस्तान के खिलाफ अधिक प्रभावी बनाया है। ऑपरेशन सिंदूर इस नीति का एक उदाहरण है, जिसमें भारत ने न केवल आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया, बल्कि पाकिस्तान को कूटनीतिक और सैन्य रूप से भी जवाब दिया।


हालांकि, फेयर ने यह भी चेतावनी दी कि इस तरह की आक्रामक नीति के अपने जोखिम भी हैं। उन्होंने कहा कि भारत और पाकिस्तान, दोनों ही परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं और किसी भी सैन्य टकराव का बढ़ना दक्षिण एशिया में व्यापक विनाश का कारण बन सकता है। उनके अनुसार, भारत को अपनी रणनीति में संतुलन बनाए रखना होगा, ताकि वह आतंकवाद के खिलाफ कड़ा रुख अपनाए, लेकिन साथ ही स्थिति को पूर्ण युद्ध की ओर बढ़ने से रोके।


10 मई 2025 को भारत और पाकिस्तान ने एक युद्धविराम की घोषणा की, जिसे अमेरिका की मध्यस्थता से संभव माना गया। हालांकि, भारत ने इसे द्विपक्षीय समझौता बताया और अमेरिकी हस्तक्षेप को कमतर करने की कोशिश की। प्रोफेसर फेयर ने इस युद्धविराम को अस्थायी करार दिया। उन्होंने कहा कि जब तक पाकिस्तानी सेना अपनी नीतियों में बदलाव नहीं करती, तब तक इस तरह के तनाव बार-बार सामने आएंगे। उन्होंने यह भी भविष्यवाणी की कि पाकिस्तान भविष्य में फिर से भारत के खिलाफ आतंकी हमले कर सकता है, क्योंकि यह उसकी रणनीति का हिस्सा है।


फेयर के अनुसार अंतरराष्ट्रीय समुदाय, विशेष रूप से अमेरिका, इस क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका की मध्यस्थता हमेशा दोनों देशों को स्वीकार्य नहीं होती, खासकर भारत के लिए, जो कश्मीर को अपना आंतरिक मामला मानता है।


प्रोफेसर क्रिस्टीन फेयर का टीवी साक्षात्कार भारत-पाकिस्तान संघर्ष की जटिलताओं को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। उनके विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि यह संघर्ष केवल दो देशों के बीच का विवाद नहीं है, बल्कि इसमें गहरे ऐतिहासिक, वैचारिक और रणनीतिक आयाम हैं। पाकिस्तानी सेना की आतंकवाद समर्थक नीतियां और भारत की आक्रामक जवाबी रणनीति इस क्षेत्र में स्थायी शांति की राह में बड़ी बाधाएं हैं।


हालांकि, फेयर का यह भी मानना है कि दोनों देशों के बीच संवाद और कूटनीति के रास्ते अभी पूरी तरह बंद नहीं हुए हैं। यदि पाकिस्तान अपनी नीतियों में बदलाव लाता है और भारत संतुलित रुख अपनाता है, तो भविष्य में तनाव को कम करने की संभावना बनी रह सकती है। लेकिन इसके लिए दोनों पक्षों को न केवल अपनी रणनीतियों पर पुनर्विचार करना होगा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ सहयोग भी करना होगा। 

Monday, December 16, 2024

मुसलमान ज़रा सोचें


हर जमात में शरीफ लोगों की कमी नहीं होती। मुसलमानों में भी नहीं है। चाहे भारत के हों या पाकिस्तान के। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इम्तियाज अहमद उन मुसलमानों में से थे जिन्होंने भारत में इस्लाम की हालत पर वर्षों गहन अध्ययन किया। इस अध्ययन के आधार पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। इस पुस्तकों में उन्होंने बताने की कोशिश की है कि भारत में रहने वाले मुसलमानों का सामाजिक जीवन, सोच और प्राथमिकतायें दूसरे देशों के मुसलमानों से भिन्न हैं और भारतीय हैं। उनका मानना है कि धर्मान्धता से ग्रस्त होकर विद्वेष की भावना रखने वाले मुसलमानों की संख्या बहुत थोड़ी है। भारत में रहने वाले ज्यादातर मुसलमान ये जानते हैं कि उनका जीवन पाकिस्तान में रह रहे मुसलमानों से कही बेहतर है। जितनी आजादी और आगे बढ़ने के अवसर उन्हें भारत में मिले हैं, उतने कट्टरपंथी पाकिस्तान में नहीं मिलते।



आमतौर पर यह माना जाता है कि पूरे देश का समाज हिन्दू और मुसलमान दो खेमों में बंटा है। इन दोनों खेमों के बीच स्थाई द्वेष और अपने अपने खेमे के भीतर भारी एकजुटता है। दोनों पक्षों के धर्मान्ध नेता इस मान्यता को बढ़ाने में काफी तत्पर रहते हैं। हकीकत यह नहीं है। कश्मीर के एक मुसलमान को यह देखकर आश्चर्य होगा कि तमिलनाडु के मुसलमानों के घर बारात का स्वागत केले के पत्ते, नारियल और इलायची से वैसे ही किया जाता है जैसे किसी हिन्दू के घर में। कश्मीर का मुसलमान तमिलनाडु के मुसलमान के घर का भोजन खाकर तृप्त नहीं होता ठीक वैसे ही जैसे तमिलनाडु का मुसलमान तमिल घर में भोजन खाकर ही प्रसन्न होता है। बात बात पर उत्तेजित हो जाने वाली बंगाल की आम जनता के साथ अगर आप रेलगाड़ी के साधारण डिब्बे में सफर कर रहे हैं और आपकी बहस किसी स्थानीय व्यक्ति से हो जाए तो आप अपने को अकेला पाएंगे। आपके विरोध में हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोग एकजुट होकर खड़े हो जायेंगे। वहां सवाल इस बात का नहीं होगा कि आप हिन्दू हैं या मुसलमान। आप गैर बंगाली हैं इसलिये आपके प्रति स्थानीय लोगों की हमदर्दी हो ही नहीं सकती। हर राज्य का यही हाल है। भाषा, पहनावा, भोजन, आचार विचार के मामले में भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों में रहने वाले लोग भिन्न भिन्न समुदायों में बंटै हैं मसलन तमिल, कन्नड, केरलीय, मराठी, गुजराती, उडि़या, बंगाली, असमिया, पंजाबी, बिहारी, हरियाणवी आदि। जब तक कोई धर्मान्धता की घुट्टी पिलाने न जाए स्थानीय जनता अपने धर्म के संकुचित दायरे में ही सिमट कर नहीं रहती बल्कि परदेशी के विरूद्ध स्थानीय लोगों की एकजुटता का प्रदर्शन करती है। इसलिये यह कहना कि सारे मुसलमान एक जैसे हैं, ठीक नहीं।



ठीक इसी तरह से ये सोचना भ्रम है कि इस्लाम धर्म के मानने वाले सभी लोगों में भारी एकजुटता होती है। कुरान शरीफ के मुताबिक खुदा की नजर में उसका हर बंदा एक समान हैसियत रखता है। कोई भेद नहीं। मुसलमान दावा भी करते हैं कि वे एक पंगत में बैठकर नमाज अदा करते हैं और एक ही पंगत में बैठकर खाते हैं पर यह भी हकीकत है कि उनकी यह एकजुटता कुछ खास मकसद तक सिमट कर रह जाती है। कायदे से मुसलमानों में जाति व्यवस्था नहीं होनी चाहिये पर चूंकि भारत में रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान स्थानीय मूल के ही लोग हैं जिन्होंने किन्हीं कारणों से इस्लाम स्वीकार कर लिया था और जब वे मुसलमान बने तो अपने साथ वे न सिर्फ अपनी जीवनशैली ले गये बल्कि जाति व्यवस्था को भी ले गये। इसीलिये मुस्लिम समाज में भी अनेक जातियां हैं। मसलन जुलाहे, बढ़ई, लुहार, धुनिया, नाई आदि। मुसलमानों में भी तथाकथित ऊंची और नीची जातियां होती हैं ऊंची जातियों में प्रमुख हैं- सैय्यद, लोधी, पठान वगैरह। अब अगर कोई गरीब मुसलमान जुलाहा किसी पठान या सैययद के बैटे से अपनी बेटी के निकाह का पैगाम लेकर जाए तो उसे कामयाबी नहीं मिलेगी। शायद इज्जत बचाकर लौटना भी मुश्किल होगा। ठीक वैसे ही जैसे हिन्दुओं में अगर कोई केवट जाति का पिता ब्राह्मण परिवार में अपनी कन्या का प्रस्ताव लेकर जाये तो उसके साथ भी ऐसा ही होगा। इसलिये यह मानना कि सारे हिन्दू एक तरफ हैं और सारे मुसलमान एक तरफ, गलत होगा।


हिन्दूओं की तरह ही मुसलमानों में बहुसंख्यक लोग ऐसे हैं जिन्हें मजहब से ज्यादा रोजी रोटी की फिक्र है। वे चाहे पाकिस्तान में रह रहे हों या भारत में। लाहौर में बसे राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर मुबारक अली बताते हैं कि पाकिस्तान की पढ़ी लिखी आबादी तालिबान की नीतियों की समर्थक नहीं है। उन्हें डर है कि अगर कठमुल्लापन इसी तरह बढ़ता गया और इसे रोका न गया तो पाकिस्तान की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था चूर चूर हो जाएगी


मिस्त्र, इरान, इराक, मलेशिया, इंडोनेशिया और तमाम दूसरे ऐसे देश हैं जो घोषित रूप से इस्लाम में आस्था रखने वाले देश हैं पर अगर इनकी तरक्की, वेशभूषा और आधुनिकता को देखा जाए तो यह आश्चर्य होगा कि मुसलमान होते हुए भी ये इतने प्रगतिशील कैसे हैं। इन देशों के संतुश्ट और खुशहाल नागरिक बताते हैं कि उन्होंने कुरान के मूल संदेश को अपनाया है। पर साथ ही हर मोर्चे पर आगे बढ़ने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता।


जिन लोगों को 1980 के मुरादाबाद के साम्प्रदायिक दंगों की याद है उन्हें ये भी याद होगा कि इन दंगों के बाद मुरादाबाद के कलात्मक बर्तनों के निर्यात में भारी कमी आयी थी। जिसके बाद हजारों हुनरमंद कारीगरों को बदहाली से मजबूर होकर अपने बच्चों के पेट पालने के लिये रिक्शा चलाना पड़ा। जो यह करने के बाद भी अपने बच्चों का पेट नहीं भर सके उन्होंने पूरे परिवार को तेजाब पिलाकर खुद भी पी लिया और खुदा को प्यारे हो गये। आज हालात फिर वैसे ही बन रहे हैं।


दुर्भाग्य से अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिये तमाम सियासती लोग और मजहबों के ठेकेदार देश की जनता को धार्मिक और जातीय खेमों में बांटते जा रहे हैं। जिसका भारी खामियाजा देश की आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। इसलिये ऐसे संवेदनशील माहौल में जब आतंकवाद का चारों तरफ तांडव हो रहा हो भारत के मुसलमानों को चाहिये कि वे वतनपरस्ती की एक ऐसी जलवाफरोशी करें कि उनके आलोचक भी दंग रह जायें। अक्सर यह सवाल उठाया जा सकता है कि इसी मुल्क में पैदा होने के बावजूद मुसलमानों से बार बार देश प्रेम का सबूत क्यों मांगा जाता है ? सवाल बिल्कुल जायज है। क्या ऐसा नहीं है कि देश के साथ अनेक मोर्चों पर गद्दारी करने वालों में विभिन्न प्रांतों के अनेक हिन्दू ही शामिल रहे हैं तो फिर ऐसी अपेक्षा मुसलमानों से ही क्यो? इसकी एक वजह है। पिछले कुछ वर्षों से देश में फैल रहे आतंकवाद में शामिल नौजवान मुस्लिम समाज से ही आये हैं। इसलिये अगर देश की शेष जनता मुस्लिम समुदाय और आतंकवादियों के बीच सीधा सम्बन्ध देखती है तो यह अस्वाभाविक नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे अमरीका में हुए आतंकवादी हमले के बाद अमरीकी जनता ने एक सरदार जी को इसलिये मार डाला क्योंकि उनकी शक्ल ओसामा बिन लादेन से मिलती थी। गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। 


इसलिये भारत के मुसलमानों को चाहिये कि वे कट्टरपंथी और दहशतगर्दों से बचकर रहे। इतना ही नहीं इनको पकड़वाने और इनके हौसले नाकामयाब करने में सक्रिय हों। देश भर में होने वाले आतंकी हमले, ख़ासकर जम्मू कश्मीर में होने वाले  भयानक विस्फोटों की निंदा सारे भारत में उसी तरह की जानी चाहिये जैसे अमरीका में रहने वाले हर धर्म के लोगों ने न्यूयार्क के हमले के विरोध में प्रदर्शन और प्रार्थनायें कीं। यदि ऐसा किया जाता है तो इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। न सिर्फ फिरकापरस्त सियासतदानों के हौसले पस्त होंगे बल्कि समाज में जानबूझकर पैदा कर दी गयी खाई भी पटने लगेगी। इसमें कोई बुरा मानने की बात नहीं है। मौके की नजाकत को देखकर कभी कभी हमें रोजमर्रा की जिंदगी से हटकर भी कुछ करना पड़ता है। इससे आवाम का ही फायदा होता है। उम्मीद की जानी चाहिये कि भारत के मुसलमान वक्त के इस नाजुक दौर में परिपक्वता और होशियारी का परिचय देंगे ताकि हर परिवार में खुशहाली और अमन चैन बढ़े, नफरत और बैर नहीं। 

Monday, June 3, 2024

पाकिस्तान में हिंदू विरासत कैसे बचे?


यूँ तो पश्चिमी पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी आज बढ़ कर 2.1 प्रतिशत हो गई है, जो आज़ादी के समय पाकिस्तान में 1.6 प्रतिशत थी। इसमें भी ज़्यादातर हिंदू कराची, सियालकोट और लाहौर में रहते हैं। इनमें भी ज़्यादा प्रतिशत दलित और पिछड़ी जातियों के हिंदू हैं, जो गाँव में रहते हैं और उनकी आर्थिक हालत काफ़ी कमज़ोर है। हालाँकि भारत सरकार ने बँटवारे के समय पाकिस्तान में रह गये हिंदुओं को भारत आ कर बसने और यहाँ की नागरिकता लेने की प्रक्रिया आसान कर दी है फिर भी अपेक्षा के विपरीत पाकिस्तान में बसे हिंदू भारत आ कर बसने को तैयार नहीं हैं। क्योंकि वे सदियों से वहीं रहते आए हैं और वही उनकी मातृभूमि है। 



बँटवारे से पहले पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू हर शहर में बसे थे और वे बड़े ज़मींदार व संपन्न व्यापारी थे। जिन्हें रातों रात सब कुछ छोड़ कर भारत में शरणार्थी बन कर आना पड़ा। इन हिंदुओं व जैनियों ने पाकिस्तान में अपने आराध्य के एक से एक बढ़ कर मंदिर बनवाये थे। जिनकी संख्या 1947 में 428 थी। जो आज घट कर मात्र 20 मंदिर रह गये हैं। इसी तरह पाकिस्तान के पंजाब सूबे में सैंकड़ों गुरुद्वारे थे जो बाद में भारत से गए मुसलमान शरणार्थियों के आशियाने बन गये। वैसे बलूचिस्तान में स्थित हिंगलाज देवी का मंदिर विश्व प्रसिद्ध है। क्योंकि ये 64 शक्तिपीठों में से एक है और यहाँ सारे वर्ष तीर्थ यात्रियों का आना-जाना लगा रहता है। इसके अलावा कराची की हिंदू आबादी के बीच जो मंदिर हैं वे भी सुरक्षित हैं और उनमें भगवान की नियमित सेवा पूजा और उत्सवों का आयोजन होता रहता है। पर इतनी बड़ी संख्या में मंदिरों और गुरुद्वारों का नष्ट हो जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। क्योंकि जब उनमें आस्था रखने वाले लोग ही नहीं रहे तो ये मंदिर और गुरुद्वारे कैसे आबाद रहते? 



इस स्थिति में बड़ा बदलाव तब आया जब 2011 में पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत के आदेश के बाद पेशावर के ऐतिहासिक गोरखनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार पाकिस्तान सरकार द्वारा करवाया गया। इसी तरह कराची में दरियालाल मंदिर का भी जीर्णोद्धार सरकार और भक्तों ने मिलकर किया। 2019 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधान मंत्री इमरान खाँ ने घोषणा की थी कि बँटवारे के समय जो 400 मंदिर पाकिस्तान में थे उन सभी का आधिग्रहण करके सरकार उनका जीर्णोद्धार करवायेगी। इसी क्रम में सियालकोट में 1947 से बंद पड़े शिवाला तेजसिंह मंदिर का जीर्णोद्धार भी वहाँ की सरकार ने करवाया। पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि वहाँ की फ़ौज लोकतंत्र को सफल नहीं होने देतीं। इमरान खाँ अपदस्त कर दिये गये और उसके साथ ही उनकी यह योजना भी खटाई पड़ गई। पर पाकिस्तान के पढ़े लिखे मध्यम वर्गीय मुस्लिम समाज में अपनी इन ऐतिहासिक धरोहरों को लेकर नव-जागृति आई है। आप यूट्यूब पर अनेक टीवी रिपोर्ट्स देख सकते हैं जिनमें इन स्थलों को खोजने और दिखाने में पाकिस्तान के युवा यूट्यूबर उत्साह से जुटे हैं। चूँकि भारत और पाकिस्तान के बीच के रिश्ते बहुत मधुर नहीं हैं, इसलिए दुनिया के अन्य देशों विशेषकर यूरोप व अमरीका में रहने वाले संपन्न हिंदुओं को पाकिस्तान में स्थित ऐतिहासिक हिंदू तीर्थ स्थलों का उदारता से जीर्णोद्धार करवाना चाहिए। बशर्ते कि पाकिस्तान की मौजूदा सरकार और स्थानीय लोग इस बात के लिए तैयार हों और इन स्थलों की रक्षा और व्यवस्था की ज़िम्मेदारी भी लें। 


इसी क्रम में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की नील घाटी में पौराणिक शारदापीठ एक ऐसा तीर्थस्थल है जिसका विकास कश्मीरी पंडित व अन्य हिंदू ही नहीं, नील घाटी में रहने वाले मुसलमान भी करवाना चाहते हैं। क्योंकि श्री करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तरह विकसित हो जाने पर उन्हें यहाँ अपनी आर्थिक समृद्धि की असीम संभावनाएँ दिखाई देती हैं। भौगौलिक रूप से भी यह तीर्थ भारत की मौजूदा सीमा के परलीपार स्थित है। पाक नियंत्रण वाले इसी कश्मीर के मुज़फ्फराबाद जिले की सीमा के किनारे से पवित्र "कृष्ण-गंगा" नदी बहती है। कृष्ण-गंगा नदी वही है जिसमें समुद्र मंथन के पश्चात् शेष बचे अमृत को असुरों से छिपाकर रखा गया था और उसी के बाद ब्रह्मा जी ने उसके किनारे माँ शारदा का मंदिर बनाकर उन्हें वहां स्थापित किया था।


जिस दिन से माँ शारदा वहां विराजमान हुई उस दिन से ही सारा कश्मीर "नमस्ते शारदादेवी कश्मीरपुरवासिनी / त्वामहंप्रार्थये नित्यम् विदादानम च देहि में" कहते हुये उनकी आराधना करता रहा है और उन कश्मीरियों पर माँ शारदा की ऐसी कृपा हुई कि आष्टांग योग और आष्टांग हृदय लिखने वाले वाग्भट वहीं जन्में,नीलमत पुराण वहीं रची गई, चरक संहिता, शिव-पुराण, कल्हण की राजतरंगिणी, सारंगदेव की संगीत रत्नकार सबके सब अद्वितीय ग्रन्थ वहीं रचे गये, उस कश्मीर में जो रामकथा लिखी गई उसमें मक्केश्वर महादेव का वर्णन सर्व-प्रथम स्पष्ट रूप से आया। शैव-दार्शनिकों की लंबी परंपरा कश्मीर से ही शुरू हुई। 


चिकित्सा, खगोलशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन, विधि, न्यायशास्त्र, पाककला, चित्रकला और भवनशिल्प विधाओं का भी प्रसिद्ध केंद्र था कश्मीर क्योंकि उसपर माँ शारदा का साक्षात आशीर्वाद था। ह्वेनसांग के अपने यात्रा विवरण में लिखा है शारदा पीठ के पास उसने ऐसे-ऐसे विद्वान् देखे जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि कोई इतना भी विद्वान् हो सकता है। शारदापीठ के पास ही एक बहुत बड़ा विद्यापीठ भी था जहाँ दुनिया भर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन करने आते थे।


माँ शारदा के उस पवित्र पीठ में न जाने कितने सहस्त्र वर्षों से हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी के दिन एक विशाल मेला लगता था जहाँ भारत के कोने-कोने से वाग्देवी सरस्वती के उपासक साधना करने आते थे। भाद्रपद महीने की अष्टमी तिथि को शारदा अष्टमी इसीलिये कहा जाता था। शारदा तीर्थ श्रीनगर से लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा है और वहां के लोग तो पैदल माँ के दर्शन करने जाया करते थे। 


इस तीर्थ के जीर्णोद्धार और इस संपूर्ण क्षेत्र के विकास के लिए शारदापीठ कश्मीर के शंकराचार्य स्वामी अमृतनंद देव तीर्थ कई वर्षों से सक्रिय हैं। उनके प्रशासनिक और राजनैतिक स्तर पर अच्छे संबंध हैं और उन्हें सनातन धर्मियों का उदार समर्थन प्राप्त है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में भक्तों की ये भावना पूरी होगी ही और श्री करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तरह ‘शारदा देवी कॉरिडोर’ का निर्माण हो सकेगा।  

Monday, October 9, 2023

भारत पाकिस्तान बटवारे के बुजुर्गों को वीज़ा दें


आज़ादी मिले 75 साल हो गये। उस वक्त के चश्मदीद गवाह बच्चे या जवान आज 80 साल से लेकर  100 की उम्र के होंगे, जो इधर भी हैं और उधर भी। बँटवारे की सबसे ज़्यादा मार पंजाब ने सही। ये बुजुर्ग आज तक उस खूनी दौर को याद करके सिहर जाते हैं। भारत के हिस्से में आए पंजाब से मुसलमानों का पलायन पाकिस्तान की तरफ़ हुआ और पाकिस्तान में रह रहे सिक्खों और हिंदुओं का पलायन भारत की तरफ़ हुआ। ऐसा कोई परिवार नहीं है जिसने अपने घर के दर्जनों बच्चे, बूढ़े और औरतों को अपनी आँखों के सामने क़त्ल होते न देखा हो। इस क़त्लेआम में जो बच गए, वो आज तक अपने सगे-संबंधियों को याद करके फूट-फूट कर रोते हैं। दोनों मुल्कों में मिला कर ऐसे लोगों की संख्या कुछ हज़ारों में है। 


जबसे करतारपुर साहिब कॉरिडोर खुला है तबसे अब तक सैंकड़ों ऐसे परिवार हैं जो 70 साल बाद अपने बिछड़े परिवार जनों से मिल पाये हैं। पर ये मुलाक़ात कुछ घंटों की ही होती है और इसके पीछे उन नौजवानों की मशक़्क़त है जो दोनों ओर के पंजाब में ऐसे बुजुर्गों के इंटरव्यू यूट्यूब पर डाल कर उन्हें मिलाने का काम कर रहे हैं। प्रायः ऐसे सारे इंटरव्यू ठेठ पंजाबी में होते हैं। फिर भी अगर आप ध्यान से सुने तो उनकी भाषा में ही नहीं उनकी आँखों और चेहरे का दर्द देख कर आपके आंसू थमेंगे नहीं। करतारपुर साहिब में जब इन परिवारों की 3-4 पीढ़ियाँ मिलती हैं तो उनका मिलन इतना हृदयविदारक होता है कि आसमान भी रो दे। एक ही परिवार के आधे सदस्य इधर के सिक्ख बने और उधर के मुसलमान बने।   



इन सब बुजुर्गों और इनके परिवारों की एक ही तमन्ना होती है कि दोनों देशों की सरकारें, कम से कम इन बुजुर्गों को लंबी अवधि के वीज़ा दे दें, जिससे ये एक दूसरे के मुल्क में जा कर अपने बिछड़े परिवारों के साथ ज़िंदगी के आख़िरी दौर में कुछ लम्हे बिता सकें। जिसकी तड़प ये सात दशकों से अपने सीने में दबाए बैठे हैं। हम सब जानते हैं कि नौकरशाही और राजनेता इतनी आसानी से पिघलने वाले नहीं। पर सोचने वाली बात यह है कि 80 वर्ष से ऊपर की उम्र वाला कोई बूढ़ा पुरुष या महिला, क्या किसी भी देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा हो सकता है? जिसने ज़िंदगी भर बटवारे का दर्द सहा हो और हज़ारों, लाखों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतरते देखा हो, वो उम्र के इस पड़ाव पर आतंकवादी क़तई नहीं हो सकता। इसलिए दोनों देशों की सरकारों को अपने-अपने देश के अख़बारों में विज्ञापन निकाल कर ऐसे सब बुजुर्गों से आवेदन माँगने चाहिए और उन्हें अविलंब प्रोसेस करके एक-दूसरे के मुल्क में जाने का कम से कम एक महीने का वीज़ा मुहैया करवाना चाहिए। 


आज के माहौल में जब सांप्रदायिकता की आग में दुनिया के कई देश झुलस रहे हैं, तब भारत और पाकिस्तान सरकार का ये मानवीय कदम एक अंतर्राष्ट्रीय मिसाल बन सकता है। इससे समाज में एक नयी चेतना का विस्तार हो सकता है। क्योंकि आज का मीडिया और राजनेता चाहें सरहद के इस पार हों या उस पार सांप्रदायिक आग को भड़काने का काम कर रहे हैं। ऐसे में जब दोनों मुल्कों की नई पीढ़ी जब इन बुजुर्गों से विभाजन के पूर्व के माहौल की कहानियाँ सुनेगी तो उसकी आँखें खुलेंगी। क्योंकि उस दौर में हिंदू, सिक्ख और मुसलमानों के बीच कोई भी वैमनस्य नहीं था। सब एक दूसरे के ग़म और ख़ुशी में दिल से शामिल होते थे और एक दूसरे की मदद करने को हर वक्त तैयार रहते थे। विभाजन की कहानियाँ दिखाने वाले दोनों मुल्कों के इन यूट्यूब चैनलों पर जब आप इन बुजुर्गों की कहानियाँ सुनेंगे तो आपको आश्चर्य होगा कि इतनी प्यार मौहब्बत से रहने वाले इन लोगों के बीच ऐसी हैवानियत अचानक कैसे पैदा हो गई कि वो एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये? ये बुजुर्ग बताते हैं कि इस माहौल को ख़राब करने का काम उस वक्त के फ़िरक़ापरस्त राजनैतिक संगठनों और उनके नेताओं ने किया। जबकि आख़िरी वक्त तक दोनों ओर के हिंदू, मुसलमान और सिक्ख, इस तसल्ली से बैठे थे कि हुकूमत बदल जाएगी पर उनका वतन उनसे नहीं छिनेगा। जो अपने घर, दुकान और खेत खलिहान छोड़ कर भागे भी तो इस विश्वास के साथ कि अफ़रा-तफ़री का ये दौर कुछ हफ़्तों में शांत हो जाएगा और वे अपने घर लौट आएँगे। पर ये हो न सका। 



उन्हें एक नए देश में, नए परिवेश में, नए पड़ोसियों के बीच शरणार्थी बनकर रहना पड़ा। जिनके घर दूध दही की नदियाँ बहती थी, उन्हें मेहनत करके, रेहड़ी लगा कर या ज़मीदारों के खेतों में मज़दूरी करके पेट पालना पड़ा। इन लोगों के ख़ौफ़नाक अनुभव पर दोनों मुल्कों में बहुत फ़िल्में बन चुकी हैं। लेख और उपन्यास लिखे जा चुके हैं और सद्भावना प्रतिनिधि मंडल भी एक दूसरे के देशों में आते-जाते रहे। पर उन्होंने जो झेला वो इतना भयावह था कि उस पीढ़ी के जो लोग अभी भी ज़िंदा बचे हैं वो आज तक उस मंजर को याद कर नींद में घबरा कर जाग जाते हैं और फूट-फूट कर रोने लगते हैं।



कई कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें 85 या 90 साल के बुजुर्ग अपने परिवारजनों के साथ अपने पैतृक गाँव, शहर या घर देखने पाकिस्तान या भारत आते हैं। वहाँ पहुँचते ही इनका फूलों, मालाओं और नगाड़ों से स्वागत होता है। वहाँ कभी-कभी उन्हें हमउम्र साथी मिल जाते हैं। तब बचपन के बिछड़े ये दो यार एक दूसरे से लिपट कर फूट-फूट कर रोते हैं। फिर इन्हें इनके बचपन का स्कूल, पड़ौस व इनका घर दिखाया जाता है। जहां पहुँच कर ये अतीत की यादों में खो जाते हैं। वहाँ रहने वाले परिवार से पूछते हैं कि क्या उनके माता-पिता की कोई निशानी आज भी उनके पास है? इनकी भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ता है जब इन्हें वो चक्की दिखाई जाती है, जिस पर इनकी माँ गेहूं पीसती थीं या इनके पिता के कक्ष में रखी लोहे की वो भारी तिजोरी दिखाई जाती है, जो आज भी काम आ रही है। ये उस घर की ऐसी निशानी और आँगन की मिट्टी उनसे माँग लेते हैं, ताकि अपने देश लौट कर अपने परिवार को दिखा सकें। मौक़ा मिले तो आप भी इन कहानियों को देखिएगा और सोचिएगा कि साम्प्रदायिकता या मज़हबी उन्माद में मारे तो आम लोग जाते हैं पर सत्ता का मज़ा वो उड़ाते हैं जो इस आग को भड़काते ही इसलिए हैं कि उन्हें सत्ता पानी है। धर्म और मज़हब तो उनके इस लक्ष्य तक पहुँचने की सीढ़ी मात्र होती है। हम किसी भी धर्म या मज़हब के मानने वाले क्यों न हों, इन फ़िरक़ापरस्ती ताक़तों से सावधान रहना चाहिए, इसी में हमारी भलाई है। 1947 का बँटवारा यही बताता है।