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Monday, June 3, 2024

पाकिस्तान में हिंदू विरासत कैसे बचे?


यूँ तो पश्चिमी पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी आज बढ़ कर 2.1 प्रतिशत हो गई है, जो आज़ादी के समय पाकिस्तान में 1.6 प्रतिशत थी। इसमें भी ज़्यादातर हिंदू कराची, सियालकोट और लाहौर में रहते हैं। इनमें भी ज़्यादा प्रतिशत दलित और पिछड़ी जातियों के हिंदू हैं, जो गाँव में रहते हैं और उनकी आर्थिक हालत काफ़ी कमज़ोर है। हालाँकि भारत सरकार ने बँटवारे के समय पाकिस्तान में रह गये हिंदुओं को भारत आ कर बसने और यहाँ की नागरिकता लेने की प्रक्रिया आसान कर दी है फिर भी अपेक्षा के विपरीत पाकिस्तान में बसे हिंदू भारत आ कर बसने को तैयार नहीं हैं। क्योंकि वे सदियों से वहीं रहते आए हैं और वही उनकी मातृभूमि है। 



बँटवारे से पहले पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू हर शहर में बसे थे और वे बड़े ज़मींदार व संपन्न व्यापारी थे। जिन्हें रातों रात सब कुछ छोड़ कर भारत में शरणार्थी बन कर आना पड़ा। इन हिंदुओं व जैनियों ने पाकिस्तान में अपने आराध्य के एक से एक बढ़ कर मंदिर बनवाये थे। जिनकी संख्या 1947 में 428 थी। जो आज घट कर मात्र 20 मंदिर रह गये हैं। इसी तरह पाकिस्तान के पंजाब सूबे में सैंकड़ों गुरुद्वारे थे जो बाद में भारत से गए मुसलमान शरणार्थियों के आशियाने बन गये। वैसे बलूचिस्तान में स्थित हिंगलाज देवी का मंदिर विश्व प्रसिद्ध है। क्योंकि ये 64 शक्तिपीठों में से एक है और यहाँ सारे वर्ष तीर्थ यात्रियों का आना-जाना लगा रहता है। इसके अलावा कराची की हिंदू आबादी के बीच जो मंदिर हैं वे भी सुरक्षित हैं और उनमें भगवान की नियमित सेवा पूजा और उत्सवों का आयोजन होता रहता है। पर इतनी बड़ी संख्या में मंदिरों और गुरुद्वारों का नष्ट हो जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। क्योंकि जब उनमें आस्था रखने वाले लोग ही नहीं रहे तो ये मंदिर और गुरुद्वारे कैसे आबाद रहते? 



इस स्थिति में बड़ा बदलाव तब आया जब 2011 में पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत के आदेश के बाद पेशावर के ऐतिहासिक गोरखनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार पाकिस्तान सरकार द्वारा करवाया गया। इसी तरह कराची में दरियालाल मंदिर का भी जीर्णोद्धार सरकार और भक्तों ने मिलकर किया। 2019 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधान मंत्री इमरान खाँ ने घोषणा की थी कि बँटवारे के समय जो 400 मंदिर पाकिस्तान में थे उन सभी का आधिग्रहण करके सरकार उनका जीर्णोद्धार करवायेगी। इसी क्रम में सियालकोट में 1947 से बंद पड़े शिवाला तेजसिंह मंदिर का जीर्णोद्धार भी वहाँ की सरकार ने करवाया। पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि वहाँ की फ़ौज लोकतंत्र को सफल नहीं होने देतीं। इमरान खाँ अपदस्त कर दिये गये और उसके साथ ही उनकी यह योजना भी खटाई पड़ गई। पर पाकिस्तान के पढ़े लिखे मध्यम वर्गीय मुस्लिम समाज में अपनी इन ऐतिहासिक धरोहरों को लेकर नव-जागृति आई है। आप यूट्यूब पर अनेक टीवी रिपोर्ट्स देख सकते हैं जिनमें इन स्थलों को खोजने और दिखाने में पाकिस्तान के युवा यूट्यूबर उत्साह से जुटे हैं। चूँकि भारत और पाकिस्तान के बीच के रिश्ते बहुत मधुर नहीं हैं, इसलिए दुनिया के अन्य देशों विशेषकर यूरोप व अमरीका में रहने वाले संपन्न हिंदुओं को पाकिस्तान में स्थित ऐतिहासिक हिंदू तीर्थ स्थलों का उदारता से जीर्णोद्धार करवाना चाहिए। बशर्ते कि पाकिस्तान की मौजूदा सरकार और स्थानीय लोग इस बात के लिए तैयार हों और इन स्थलों की रक्षा और व्यवस्था की ज़िम्मेदारी भी लें। 


इसी क्रम में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की नील घाटी में पौराणिक शारदापीठ एक ऐसा तीर्थस्थल है जिसका विकास कश्मीरी पंडित व अन्य हिंदू ही नहीं, नील घाटी में रहने वाले मुसलमान भी करवाना चाहते हैं। क्योंकि श्री करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तरह विकसित हो जाने पर उन्हें यहाँ अपनी आर्थिक समृद्धि की असीम संभावनाएँ दिखाई देती हैं। भौगौलिक रूप से भी यह तीर्थ भारत की मौजूदा सीमा के परलीपार स्थित है। पाक नियंत्रण वाले इसी कश्मीर के मुज़फ्फराबाद जिले की सीमा के किनारे से पवित्र "कृष्ण-गंगा" नदी बहती है। कृष्ण-गंगा नदी वही है जिसमें समुद्र मंथन के पश्चात् शेष बचे अमृत को असुरों से छिपाकर रखा गया था और उसी के बाद ब्रह्मा जी ने उसके किनारे माँ शारदा का मंदिर बनाकर उन्हें वहां स्थापित किया था।


जिस दिन से माँ शारदा वहां विराजमान हुई उस दिन से ही सारा कश्मीर "नमस्ते शारदादेवी कश्मीरपुरवासिनी / त्वामहंप्रार्थये नित्यम् विदादानम च देहि में" कहते हुये उनकी आराधना करता रहा है और उन कश्मीरियों पर माँ शारदा की ऐसी कृपा हुई कि आष्टांग योग और आष्टांग हृदय लिखने वाले वाग्भट वहीं जन्में,नीलमत पुराण वहीं रची गई, चरक संहिता, शिव-पुराण, कल्हण की राजतरंगिणी, सारंगदेव की संगीत रत्नकार सबके सब अद्वितीय ग्रन्थ वहीं रचे गये, उस कश्मीर में जो रामकथा लिखी गई उसमें मक्केश्वर महादेव का वर्णन सर्व-प्रथम स्पष्ट रूप से आया। शैव-दार्शनिकों की लंबी परंपरा कश्मीर से ही शुरू हुई। 


चिकित्सा, खगोलशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन, विधि, न्यायशास्त्र, पाककला, चित्रकला और भवनशिल्प विधाओं का भी प्रसिद्ध केंद्र था कश्मीर क्योंकि उसपर माँ शारदा का साक्षात आशीर्वाद था। ह्वेनसांग के अपने यात्रा विवरण में लिखा है शारदा पीठ के पास उसने ऐसे-ऐसे विद्वान् देखे जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि कोई इतना भी विद्वान् हो सकता है। शारदापीठ के पास ही एक बहुत बड़ा विद्यापीठ भी था जहाँ दुनिया भर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन करने आते थे।


माँ शारदा के उस पवित्र पीठ में न जाने कितने सहस्त्र वर्षों से हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी के दिन एक विशाल मेला लगता था जहाँ भारत के कोने-कोने से वाग्देवी सरस्वती के उपासक साधना करने आते थे। भाद्रपद महीने की अष्टमी तिथि को शारदा अष्टमी इसीलिये कहा जाता था। शारदा तीर्थ श्रीनगर से लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा है और वहां के लोग तो पैदल माँ के दर्शन करने जाया करते थे। 


इस तीर्थ के जीर्णोद्धार और इस संपूर्ण क्षेत्र के विकास के लिए शारदापीठ कश्मीर के शंकराचार्य स्वामी अमृतनंद देव तीर्थ कई वर्षों से सक्रिय हैं। उनके प्रशासनिक और राजनैतिक स्तर पर अच्छे संबंध हैं और उन्हें सनातन धर्मियों का उदार समर्थन प्राप्त है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में भक्तों की ये भावना पूरी होगी ही और श्री करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तरह ‘शारदा देवी कॉरिडोर’ का निर्माण हो सकेगा।  

Monday, October 9, 2023

भारत पाकिस्तान बटवारे के बुजुर्गों को वीज़ा दें


आज़ादी मिले 75 साल हो गये। उस वक्त के चश्मदीद गवाह बच्चे या जवान आज 80 साल से लेकर  100 की उम्र के होंगे, जो इधर भी हैं और उधर भी। बँटवारे की सबसे ज़्यादा मार पंजाब ने सही। ये बुजुर्ग आज तक उस खूनी दौर को याद करके सिहर जाते हैं। भारत के हिस्से में आए पंजाब से मुसलमानों का पलायन पाकिस्तान की तरफ़ हुआ और पाकिस्तान में रह रहे सिक्खों और हिंदुओं का पलायन भारत की तरफ़ हुआ। ऐसा कोई परिवार नहीं है जिसने अपने घर के दर्जनों बच्चे, बूढ़े और औरतों को अपनी आँखों के सामने क़त्ल होते न देखा हो। इस क़त्लेआम में जो बच गए, वो आज तक अपने सगे-संबंधियों को याद करके फूट-फूट कर रोते हैं। दोनों मुल्कों में मिला कर ऐसे लोगों की संख्या कुछ हज़ारों में है। 


जबसे करतारपुर साहिब कॉरिडोर खुला है तबसे अब तक सैंकड़ों ऐसे परिवार हैं जो 70 साल बाद अपने बिछड़े परिवार जनों से मिल पाये हैं। पर ये मुलाक़ात कुछ घंटों की ही होती है और इसके पीछे उन नौजवानों की मशक़्क़त है जो दोनों ओर के पंजाब में ऐसे बुजुर्गों के इंटरव्यू यूट्यूब पर डाल कर उन्हें मिलाने का काम कर रहे हैं। प्रायः ऐसे सारे इंटरव्यू ठेठ पंजाबी में होते हैं। फिर भी अगर आप ध्यान से सुने तो उनकी भाषा में ही नहीं उनकी आँखों और चेहरे का दर्द देख कर आपके आंसू थमेंगे नहीं। करतारपुर साहिब में जब इन परिवारों की 3-4 पीढ़ियाँ मिलती हैं तो उनका मिलन इतना हृदयविदारक होता है कि आसमान भी रो दे। एक ही परिवार के आधे सदस्य इधर के सिक्ख बने और उधर के मुसलमान बने।   



इन सब बुजुर्गों और इनके परिवारों की एक ही तमन्ना होती है कि दोनों देशों की सरकारें, कम से कम इन बुजुर्गों को लंबी अवधि के वीज़ा दे दें, जिससे ये एक दूसरे के मुल्क में जा कर अपने बिछड़े परिवारों के साथ ज़िंदगी के आख़िरी दौर में कुछ लम्हे बिता सकें। जिसकी तड़प ये सात दशकों से अपने सीने में दबाए बैठे हैं। हम सब जानते हैं कि नौकरशाही और राजनेता इतनी आसानी से पिघलने वाले नहीं। पर सोचने वाली बात यह है कि 80 वर्ष से ऊपर की उम्र वाला कोई बूढ़ा पुरुष या महिला, क्या किसी भी देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा हो सकता है? जिसने ज़िंदगी भर बटवारे का दर्द सहा हो और हज़ारों, लाखों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतरते देखा हो, वो उम्र के इस पड़ाव पर आतंकवादी क़तई नहीं हो सकता। इसलिए दोनों देशों की सरकारों को अपने-अपने देश के अख़बारों में विज्ञापन निकाल कर ऐसे सब बुजुर्गों से आवेदन माँगने चाहिए और उन्हें अविलंब प्रोसेस करके एक-दूसरे के मुल्क में जाने का कम से कम एक महीने का वीज़ा मुहैया करवाना चाहिए। 


आज के माहौल में जब सांप्रदायिकता की आग में दुनिया के कई देश झुलस रहे हैं, तब भारत और पाकिस्तान सरकार का ये मानवीय कदम एक अंतर्राष्ट्रीय मिसाल बन सकता है। इससे समाज में एक नयी चेतना का विस्तार हो सकता है। क्योंकि आज का मीडिया और राजनेता चाहें सरहद के इस पार हों या उस पार सांप्रदायिक आग को भड़काने का काम कर रहे हैं। ऐसे में जब दोनों मुल्कों की नई पीढ़ी जब इन बुजुर्गों से विभाजन के पूर्व के माहौल की कहानियाँ सुनेगी तो उसकी आँखें खुलेंगी। क्योंकि उस दौर में हिंदू, सिक्ख और मुसलमानों के बीच कोई भी वैमनस्य नहीं था। सब एक दूसरे के ग़म और ख़ुशी में दिल से शामिल होते थे और एक दूसरे की मदद करने को हर वक्त तैयार रहते थे। विभाजन की कहानियाँ दिखाने वाले दोनों मुल्कों के इन यूट्यूब चैनलों पर जब आप इन बुजुर्गों की कहानियाँ सुनेंगे तो आपको आश्चर्य होगा कि इतनी प्यार मौहब्बत से रहने वाले इन लोगों के बीच ऐसी हैवानियत अचानक कैसे पैदा हो गई कि वो एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये? ये बुजुर्ग बताते हैं कि इस माहौल को ख़राब करने का काम उस वक्त के फ़िरक़ापरस्त राजनैतिक संगठनों और उनके नेताओं ने किया। जबकि आख़िरी वक्त तक दोनों ओर के हिंदू, मुसलमान और सिक्ख, इस तसल्ली से बैठे थे कि हुकूमत बदल जाएगी पर उनका वतन उनसे नहीं छिनेगा। जो अपने घर, दुकान और खेत खलिहान छोड़ कर भागे भी तो इस विश्वास के साथ कि अफ़रा-तफ़री का ये दौर कुछ हफ़्तों में शांत हो जाएगा और वे अपने घर लौट आएँगे। पर ये हो न सका। 



उन्हें एक नए देश में, नए परिवेश में, नए पड़ोसियों के बीच शरणार्थी बनकर रहना पड़ा। जिनके घर दूध दही की नदियाँ बहती थी, उन्हें मेहनत करके, रेहड़ी लगा कर या ज़मीदारों के खेतों में मज़दूरी करके पेट पालना पड़ा। इन लोगों के ख़ौफ़नाक अनुभव पर दोनों मुल्कों में बहुत फ़िल्में बन चुकी हैं। लेख और उपन्यास लिखे जा चुके हैं और सद्भावना प्रतिनिधि मंडल भी एक दूसरे के देशों में आते-जाते रहे। पर उन्होंने जो झेला वो इतना भयावह था कि उस पीढ़ी के जो लोग अभी भी ज़िंदा बचे हैं वो आज तक उस मंजर को याद कर नींद में घबरा कर जाग जाते हैं और फूट-फूट कर रोने लगते हैं।



कई कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें 85 या 90 साल के बुजुर्ग अपने परिवारजनों के साथ अपने पैतृक गाँव, शहर या घर देखने पाकिस्तान या भारत आते हैं। वहाँ पहुँचते ही इनका फूलों, मालाओं और नगाड़ों से स्वागत होता है। वहाँ कभी-कभी उन्हें हमउम्र साथी मिल जाते हैं। तब बचपन के बिछड़े ये दो यार एक दूसरे से लिपट कर फूट-फूट कर रोते हैं। फिर इन्हें इनके बचपन का स्कूल, पड़ौस व इनका घर दिखाया जाता है। जहां पहुँच कर ये अतीत की यादों में खो जाते हैं। वहाँ रहने वाले परिवार से पूछते हैं कि क्या उनके माता-पिता की कोई निशानी आज भी उनके पास है? इनकी भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ता है जब इन्हें वो चक्की दिखाई जाती है, जिस पर इनकी माँ गेहूं पीसती थीं या इनके पिता के कक्ष में रखी लोहे की वो भारी तिजोरी दिखाई जाती है, जो आज भी काम आ रही है। ये उस घर की ऐसी निशानी और आँगन की मिट्टी उनसे माँग लेते हैं, ताकि अपने देश लौट कर अपने परिवार को दिखा सकें। मौक़ा मिले तो आप भी इन कहानियों को देखिएगा और सोचिएगा कि साम्प्रदायिकता या मज़हबी उन्माद में मारे तो आम लोग जाते हैं पर सत्ता का मज़ा वो उड़ाते हैं जो इस आग को भड़काते ही इसलिए हैं कि उन्हें सत्ता पानी है। धर्म और मज़हब तो उनके इस लक्ष्य तक पहुँचने की सीढ़ी मात्र होती है। हम किसी भी धर्म या मज़हब के मानने वाले क्यों न हों, इन फ़िरक़ापरस्ती ताक़तों से सावधान रहना चाहिए, इसी में हमारी भलाई है। 1947 का बँटवारा यही बताता है। 

Monday, April 11, 2022

पाक अधिकृत कश्मीर का ख़ौफ़नाक सच


‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ में जो दिखाया गया है वो उस ख़ौफ़नाक सच के सामने कुछ भी नहीं है जो अब अमजद अय्यूब मिर्ज़ा ने पाक अधिकृत कश्मीर में हुए हिंदुओं के वीभत्स नरसंहार के बारे में केलिफ़ोरनिया के अख़बार में प्रकाशित किया है। अय्यूब मिर्ज़ा ने पिछले महीने 21 मार्च को प्रकाशित अपने लेख में ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ को एक दमदार फ़िल्म बताते हुए इस बात की तारीफ़ की है कि कैसे इस फ़िल्म ने पाकिस्तान समर्थित जिहादियों और श्रीनगर के स्थानीय कट्टरपंथियों के आतंक को रेखांकित किया गया है। इस लेख में मिर्ज़ा लिखते हैं कि ये तो प्याज़ की पहली परत उखाड़ने जैसा है। उनके अनुसार जम्मू कश्मीर से अल्पसंख्यक हिंदुओं व सिखों को मारने और भगाने का सिलसिला 1990 से ही नहीं शुरू हुआ। इसकी जड़ें तो 1947 के भारत-पाक बँटवारे के अप्रकाशित इतिहास में दबी पड़ी हैं।
 

अमजद अय्यूब मिर्ज़ा पाक अधिकृत कश्मीर के मीरपुर ज़िले के निवासी हैं । जो अपने स्वतंत्र विचारों व मानव अधिकारों की वकालत करने के कारण आजकल इंगलेंड में निष्कासित जीवन जी रहे हैं। इसलिए इनकी सूचनाओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता। 


मिर्ज़ा बताते हैं कि जम्मू कश्मीर के हिंदुओं पर मौत का तांडव 22 अक्तूबर 1947 से शुरू हुआ, जिस दिन पाकिस्तानी फ़ौज ने जम्मू कश्मीर पर हमला किया। उस वक्त आज के पाक अधिकृत कश्मीर में हिंदुओं और सिक्खों की बड़ी आबादी रहती थी और वे सब सुखी व सम्पन्न थे। जबकि स्निडन द्वारा 2012 में प्रकाशित जनसंख्या सर्वेक्षण में कहा गया है कि इस क्षेत्र में अब हिंदुओं और सिक्खों की आबादी का कोई आँकड़ा नहीं मिला है। या तो उन सब को भगा दिया या मार डाला गया। इस रिपोर्ट को पूरी दुनिया के शोधकर्ताओं और बुद्धिजीवीयों ने गम्भीरता से लिया है और माना है कि पाक अधिकृत कश्मीर में अब एक भी हिंदू या सिख नहीं है। इससे ये अनुमान लगाया है कि 1947 के पाकिस्तानी हमले के बाद वहाँ रह रहे 1,22,500 हिंदू और सिख उस इलाक़े से ग़ायब हो गए।

मिर्ज़ा लिखते हैं कि हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि बँटवारे के समय दोनों देशों के पंजाब प्रांतों में हो रहे भारी सांप्रदायिक दंगों से बचने के लिए बड़ी संख्या में सिख और हिंदुओं ने पंजाब की सीमा से सटे पाक अधिकृत कश्मीर में शरण ली थी। यहाँ के भिम्बर शहर में कम से कम 2000, मीरपुर में 15,000, राजौरी में 5,000 और कोटली में अनगिनित हिंदू और सिखों ने शरण ली थी। 

भिम्बर तहसील में 35 फ़ीसद आबादी हिंदुओं की थी। पर 1947 के पाकिस्तानी हमले में एक भी नहीं बचा। मिर्ज़ा लिखते हैं कि सबसे बड़ा नरसिंहार तो मेरे गृह नगर मीरपूर में हुआ जहां 25,000 हिंदू और सिखों को एक जगह एकत्र करके मारा-काटा गया। उनकी बहू-बेटियों को पाकिस्तानी  फ़ौज और धर्मांद लशकरियों ने ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ का नारा लगा कर अपनी वहशियाना  हवस का शिकार बनाया। उस नरसिंहार से बच कर उन लोगों के परिवारजन जो किसी तरह जम्मू पहुँच गए, वे आजतक 25 नवम्बर को ‘मीरपुर नरसिंहार दिवस’ के रूप में मनाते हैं। इस मनहूस दिन 1947 में पाकिस्तानी फ़ौज और लश्कर ने मीरपुर में जगह-जगह आगजनी, लूट और नरसंहार किया था और ‘काफिरों’ के घरों और दुकानों को जला दिया था।

मिर्ज़ा बताते हैं कि, सौभाग्य से इस मनहूस दिन से केवल दो दिन पहले ही 2,500 हिंदू और सिख जम्मू कश्मीर की सेना के संरक्षण में जम्मू तक सुरक्षित पहुँचने में कामयाब हो गए थे। जो पीछे रह गए उन्हें पाकिस्तानी फ़ौज अली बेग इलाक़े में ये कह कर ले गयी कि वहाँ एक गुरुद्वारे में शरणार्थियों के लिए कैम्प लगाया गया है। पर जिस पैदल मार्च को हिंदू और सिक्खों ने इस उम्मीद में शुरू किया कि अब उनकी जान बच जाएगी वो मौत का कुआँ सिद्ध हुआ। इस पैदल मार्च के रास्ते में ही 10,00 हिंदू और सिक्खों को क़त्ल कर दिया गया। इनकी 5,000 बहू बेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाने के बाद रावलपिंडी, झेलम और पेशावर के बाज़ारों में बेच दिया गया। इस तरह कुल 5000 हिंदू और सिख ही अली बेग तक पहुँच पाए। जहां पहुँच कर भी वे सुरक्षित नहीं रहे और उनके पहरेदारों ने ही उनका क़त्ल करना जारी रखा। इस तरह मीरपुर के 25,000 हिंदू और सिक्खों में से केवल 1600 बचे, जिन्हें ‘इंटरनैशनल कमेटी ओफ़ रेड क्रॉस’ वाले सुरक्षित रावलपिंडी ले गए जहां से फिर उन्हें जम्मू भेज दिया गया।

मिर्ज़ा बताते हैं कि 1951 में पाक अधिकृत कश्मीर में केवल 790 ग़ैर मुसलमान बचे थे। पर आज एक भी नहीं है। मीरपुर के इस नरसंहार  से भयभीत बहुत सी औरतों और आदमियों ने तो पहाड़ से कूद कर या ज़हर खा कर आत्महत्या कर ली थी। हिंदू और सिखों का ऐसा ही नरसंहार  राजौरी, बारामूला, व मुज़फ़्फ़राबाद में भी हुआ। इसलिए मिर्ज़ा का कहना है कि ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ में जो दिखाया गया है उससे कहीं ज़्यादा ख़ौफ़नाक नरसंहार 1947 के बाद पाक अधिकृत कश्मीर में हिंदुओं और सिक्खों को झेलना पड़ा था। 

जहां यह रिपोर्ट हर हिंदू का ही नहीं बल्कि हर इंसान का दिल दहला देती है, वहीं ये बात भी महत्वपूर्ण है अमजद अय्यूब मिर्ज़ा जैसे मुसलमान भी हैं, जो अपने धर्म के कट्टरवादियों की धमकियों के बावजूद एक सच्चे इंसान की तरह सच को सच कहने से नहीं डरते।ऐसे मुसलमान भारत में भी बहुत बड़ी तादाद में हैं और पाकिस्तान में भी इनकी संख्या कम नहीं है। दिक्कत इस बात की है कि इस्लाम धर्म और उसको बताने वाले कट्टरपंथी मुल्ला इन बातों को कभी अहमियत नहीं देते बल्कि लगातार ज़हर घोलते रहते हैं। जिससे कभी साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित हो ही नहीं पाता। ज़रूरत इस बात की थी कि जज़्बाती और समझदार मुसलमान इन मुल्लाओं की ख़िलाफ़त करने की हिम्मत दिखाते। जिसके प्रभावी न होने के कारण बहुसंख्यक हिंदू समाज उनके प्रति हमेशा सशंकित रहता है। इसलिये ये ज़िम्मेदारी मुस्लिम समाज के पढ़े-लिखे और प्रगतिशील वर्ग की है कि वे अपने सुरक्षित घरों से बाहर निकलें और भारत में इंडोनेशिया, मलेशिया और तुर्की जैसे प्रगतिशील मुस्लिम समाज की स्थापना करें, जिससे हर हिंदुस्तानी अमन और चैन के साथ जी सके। तभी भारत में शांति स्थापित हो पाएगी। इसी में सभी का हित है। 

Monday, October 25, 2021

कैसे सफल हो नई कश्मीर नीति ?


धारा 370 और 35 ए हटने के बाद कश्मीर घाटी में जो हुआ उसके सकारात्मक परिणाम आने लगे थे। विकास की तमाम योजनाएँ चालू हो गई थीं। आईआईटी, आईआईएम व एम्स जैसे नए नए संस्थान बनने लगे थे। इन निर्माण कार्यों में लाखों मज़दूर उत्तर प्रदेश और बिहार से कश्मीर पहुँच गए थे। प्रधान मंत्री मोदी की कश्मीर नीति के तहत देश के कई उद्योगपति कश्मीर में विनियोग की संभावनाएँ खोजने में उत्साह दिखा रहे थे। सीमा पर बीएसएफ़ और फ़ौज की सख़्ती के कारण हथियारों और आतंकवादियों का कश्मीर में घुसना मुश्किल हो गया था। स्थानीय निकायों के चुनावों की सफलता ने आतंकवादियों के हौंसले पस्त कर दिए थे। पत्थरबाज़ी की घटनाएँ और आए दिन होने वाले बंद नदारद हो गए थे। हुरियत जैसे संगठनों पर कसे गए शिकंजे से अलगाववादी राजनीति ठंडी पड़ गयी थी। राज्यपाल मनोज सिन्हा के आने से भी घाटी में कई सकारात्मक काम हुए, जिनका अच्छा असर पड़ने लगा था। इस सबका नतीजा यह हुआ कि घाटी में पर्यटन में भी तेज़ी से उछल आया। कोविड काल में तो पूरी दुनिया में ही पर्यटन ठप्प हो गया था। पर इस जुलाई से अब तक घाटी में 35 लख पर्यटक आया जो की एक रिकॉर्ड है। ज़ाहिर है इससे घाटीकी अर्थव्यवस्था को भी नई ऊर्जा प्राप्त हुई है। यह कहना है जम्मू कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे डॉ शेष पाल वैद का। इस सबकी वजह से आतंकवादियों ने अपनी रणनीति बदली है।


अफगानिस्तान में तालिबान की सफलता से आतंकवादियों के हौंसले दुनिया भर में बुलंद हुए हैं। उन्हें लगता है कि जब उन्होंने अमरीका जैसे सुपर पावर को हरा दिया तो वे दुनिया में किसी भी सरकार को नाकों चने चबवा सकते हैं। उधर पाकिस्तान भी तालिबान के साथ मिलकर दक्षिण एशिया में अपनी नई भूमिका को लेकर बहुत उत्साहित है। जग-ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में आतंकवाद के कारख़ाने चल रहे हैं और इसी के सहारे वहाँ की राजनीति चल रही है। ताज़ा उदाहरण आईएसआई का है, जिसके चीफ़ को पाकिस्तान की फ़ौज ने प्रधान मंत्री इमरान खान की बिना जानकारी के रातों-रात बदल दिया। आईएसआई के नए चीफ़ ने अपनी कश्मीर नीति में फ़ौरन बदलाव किया। क्योंकि पुरानी नीति आब कामयाब नहीं हो रही थी। पुरानी नीति के तहत आतंकवादियों को और हथियारों को कश्मीर की सीमाओं में घुसा कर बड़ी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा था। पर नई व्यवस्थाओं ने जब ऐसा करना मुश्किल कर दिया तो आईएसआई ने अपनी रणनीति बदल दी। 


नई रणनीति में खर्च भी कम है और जान गंवाने का ख़तरा भी कम है। इस नीति के तहत बजाय बड़े हमले करने के दो-दो आतंकवादियों के अनेक समूह बनाकर और उन्हें साधारण हथियार देकर घाटी में फैला दिया गया है। जो फ़ौज, पुलिस या सरकारी प्रतिष्ठानों पर बड़े हमले करने के बजाय ‘सॉफ़्ट टार्गेटस’ जैसे मज़दूरों, अध्यापकों, दुकानदारों या रेहड़ी वालों पर हमले कर रहे हैं। इन हमलों में एक-एक, दो-दो लोग ही मारे जा रहे हैं। दिखने में ये हमले छोटे लगते हैं। पर इनका असर गहरा पड़ा है। इन हमलों से मजदूरों और साधारण लोगों में अचानक भय व्याप्त हो गया है और एक बार फ़िर 90 के दशक की तरह अल्पसंख्यकों में घाटी से पलायन करने की होड़ लग गयी है। इसका सीधा असर विकास प्रक्रिया पर पड़ेगा। क्योंकि सारा निर्माण कार्य इन्हीं लोगों के द्वारा किया जा रहा है। स्थानीय कश्मीरी तो अपने बगीचों से सेब तुड़वाने को भी बिहार, यूपी से मज़दूर मंगाते रहे हैं। 


विकास की प्रक्रिया बड़ी मात्रा में रोज़गार का सृजन करती। जबकि उसके रुक जाने से कश्मीर के युवाओं के भविष्य में मिलने वाले रोज़गार की संभावनाएँ धूमिल हो जाएँगी। जो अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवाद के विस्तार में मददगार होगी। क्योंकि इन बेरोज़गार युवाओं को ही फुसला कर आतंकवादी बनाया जाता रहा है। ये जग ज़ाहिर है कि चीन और पाकिस्तान मिल कर भारत को कमजोर करने की साज़िश कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को कई कड़े कदम उठाने होंगे। वैसे ये कदम पिछले 3 वर्ष में उठाने चाहिए थे, जिनकी ओर गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया गया। जिसके कारण आतंकवाद पर क़ाबू नहीं पाया जा सका है। 


सबसे पहले तो देश भर में चल रहे मदरसों पर शिकंजा कसने की ज़रूरत है। इन्हें कहाँ से और कैसा पैसा आता है इस पर कड़ी नज़र ज़रूरी है। इन मदरसों में क्या शिक्षा के नाम पर आतंकवाद का ज़हर तो नहीं पिलाया जा रहा? ये काम कश्मीर में अविलंब  हो चाहिए। जिससे जिहादी मानसिकता को पनपने से पहले ही रोका जा सकेगा। 


दूसरा काम जो नहीं किया गया वो था कश्मीर के युवाओं को आतंकवादियों के चंगुल में फँसने से बचाना। जहां एक तरफ़ विकास के कई काम घाटी में शुरू किए गए वहीं इस बात पर निगाह नहीं रखी गयी कि घाटी के बेरोज़गार नौजवानों को आतंकवादी संगठन किस तरह से फुसला कर प्रशिक्षित कर रहे हैं। इसको बहुत सख़्ती से रोकने की ज़रूरत है। जिससे इन नौजवानों की ऊर्जा रचनात्मक काम में लगे और ये आत्मघाती हमलों में अपनी जान न गँवाएँ। 


तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण काम जो नहीं किया गया, जिसे आईबी और मिलिटरी इंटेल्लीजेंस को करना चाहिए था, वो ये कि कश्मीर में सरकारी नौकरियों में जमाती मानसिकता के जो लोग घुस गए हैं, उन्हें पहचान कर नौकरी से अलग करना। जैसा हाल ही में गिलानी के पोते को हटाया गया है, जिसे बिना लोक सेवा आयोग की प्रक्रिया के सीधी भर्ती करके अफ़सर बना दिया गया था। कश्मीर में शिक्षा, प्रशासन, पुलिस, चिकित्सा आदि विभागों में काफ़ी तादाद में जमायती मानसिकता के लोगों की है, जो वेतन तो सरकार से लेते हैं और अलगाववादी ताक़तों को पालते पोसते हैं। इनकी छटनी किए बिना आतंकवाद पर क़ाबू नहीं पाया जा सकेगा। कश्मीर मामलों के कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि प्रधान मंत्री को फ़्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों की तरह कट्टरपंथियों और आतंकवादियों के विरूद्ध कुछ कड़ी नीतियाँ अपनानी होंगी। 


ये दावा तो कोई भी नहीं कर सकता कि हर नीति सफल होगी और आतंकवाद पर पूरी तरह क़ाबू पा लिया जाएगा पर जिस तरह तालिबान का अफगानिस्तान में उदय हुआ और उसके बाद उनकी हुकूमत अपने ही धर्म के मानने वाले पुरुष, स्त्रियों और बच्चों पर वहशियाना नीतियाँ थोप रही है उससे पूरी दुनिया में आतंकवाद को लेकर जो डर था वो और ज़्यादा बढ़ गया है। यहाँ यह कहना भी ज़रूरी है कि चाहे स्वरूप में अंतर हो पर आतंकवाद, अतिवाद और धर्मांदता हर धर्म के लिए घातक होती है, केवल इस्लाम के लिए ही नहीं। 

Monday, July 26, 2021

पंजाब : बँटवारे के ज़ख़्म आज भी हरे हैं


हिंदुस्तान-पाकिस्तान बँटवारे को 74 वर्ष हो गए। पर इसके ज़ख़्म आज भी हरे हैं। इस बँटवारे की सबसे ज़्यादा मार सीमा के दोनो तरफ़ रहने वालों ने झेली। दोनो तरफ़ के सिख, हिंदू व मुसलमान बँटवारे की आग में झुलसे। उनके परिजनों की नृशंस हत्याएँ हुई। उनकी बहू-बेटियों की इज़्ज़त लुटी या उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन करा कर अनचाहे विवाह के बंधन में बंधना पड़ा। भई-बहन, माँ-बाप, बेटे-बेटी भगदड़ में बिछुड़ गए। उनके घर-बार, खेत-खलियान व दुकान-कारोबार पीछे छूट गए। उन्हें एक नए देश में, नए परिवेश में, नए पड़ोसियों के बीच शरणार्थी बनकर रहना पड़ा। जिनके घर दूध दही की नदियाँ बहती थी, उन्हें मेहनत करके, रेहड़ी लगा कर या ज़मीदारों के खेतों में मज़दूरी करके पेट पालना पड़ा। इन लोगों के ख़ौफ़नाक अनुभव पर दोनों मुल्कों में बहुत फ़िल्में बन चुकी हैं। लेख और उपन्यास लिखे जा चुके हैं और सद्भावना प्रतिनिधि मंडल भी एक दूसरे के देशों में आते-जाते रहे। पर उन्होंने जो झेला वो इतना भयावह था कि उस पीढ़ी के जो लोग अभी भी ज़िंदा बचे हैं वो आज तक उस मंजर को याद कर नींद में घबरा कर जाग जाते हैं और फूट-फूट कर रोने लगते हैं।
 


दोनों देशों की सरकारें और सामाजिक सरोकार रखने वाले लोग भी इनका दुःख दूर नहीं कर पाए हैं। यह काम किया है दोनो देशों के टीवी मीडिया में काम करने वाले कुछ उत्साही नौजवानों ने। इनमें ख़ासतौर पर हिंदुस्तान से 47नामा, केशु मुलतानी की केशु फ़िल्मस, धरती देश पंजाब दियाँ और पाकिस्तान से संताली दी लहर, पंजाबी लहर, एक पिंड पंजाब दा, मौहम्मद सरफ़राज़ व मौहम्मद आलमगीर के नाम उल्लेखनीय है। इसके लिए उन्हें किसी टीवी चैनल या सरकार से कोई मदद नहीं मिली। ये प्रयास उन्होंने अपनी पहल, पर थोड़े बहुत साधन जुटा कर किया और इतनी सफलता पाई कि आज हमारे दो देशों के बीच ही नहीं बल्कि कनाडा, इंगलेंड, जर्मनी, औस्ट्रेलिया या अमरीका तक में इनके काम की भरपूर प्रशंसा हो रही है। यूट्यूब पर इनकी रिपोर्टस के लाखों दर्शक हैं। जबकि ये रिपोर्ट ऊँची लागत, तकनीकी कारीगरी और महंगे उपकरणों के बिना, प्रायः साधाहरण कैमरों या स्मार्टफ़ोन की मदद से बनाई गई हैं। बावजूद इसके इनकी विषय वस्तु इतनी गहरी है कि देखने वाला देखता ही रह जाता है। 20-25 मिनट की ये रिपोर्ट जब अपने क्लाइमैक्स तक पहुँचती हैं, देखने वाला बरबस आंसू बहाने लगता है। इनकी भाषा पंजाबी, हिंदी, झाँगी, हरियाणवी व मुलतानी है। 


इन नौजवानों ने पिछले कुछ सालों में भारत, पाकिस्तान सहित उन सभी देशों में अनौपचारिक रूप से अपना जाल बिछा लिया है, जिन देशों में बँटवारे के विस्थापित रहते हैं। ये लड़के सिख, हिंदू या मुसलमान हैं पर इनके दिल में इंसान बसता है। साम्प्रदायिकता या फ़िरक़ापरस्ती की घिनौनी दीवारों की लांघ कर ये नौजवान उन लोगों तक पहुँचे हैं, जिन्होंने बँटवारे का दंश झेला था और वो आज भी ज़िंदा हैं। ज़ाहिर है 74 साल पहले की उस त्रासदी के चश्मदीदों में वही अपनी यादें साझा कर सकते हैं, जिनकी उम्र 1947 में कम से कम दस वर्ष की रही होगी। यानी आज उनकी उम्र 84 के पार है। ऐसे लोग उँगलियों पर गिने जा सकते हैं पर फिर भी इनकी संख्या बहुत है। अकेले केशु ने 600 ऐसे लोगों के साक्षात्कार रिकॉर्ड किए हैं जो आज अपने नाती पोतों के साथ सुख से रह रहे हैं। 


ऐसे लोगों को ये लड़के पहले सोशल मीडिया की मदद से ढूँढते थे। पर आज इनके पास अलग अलग देशों से फ़ोन या ईमेल आते हैं कि हमारे बुजुर्ग का इंटरव्यू भी कर लें। फिर अपने खर्चे पर, तकलीफ़ उठा कर उन तक पहुँचते हैं और उनके इंटरव्यू रिकॉर्ड करते हैं। इस कवायद का सबसे सुखद क्षण वो होता है जब यूट्यूब पर इन साक्षात्कारों को देख कर और उनसे उनके मूल परिवारों का विवरण सुनकर उनके बिछड़े परिवारजन, किसी दूसरे देश में बैठे, इन्हें पहचान लेते हैं। फिर ‘यादों की बारात’ आगे बढ़ती है और दोनों ओर के परिवार एक दूसरे से मिलने को बेचैन हो जाते हैं। फिर उनकी रोज़ाना घंटों चलने वाली विडीओ कॉल्ज़ का सिलसिला शुरू हो जाता है। इस कहानी का क्लाइमैक्स तो तब होता है जब ये दो परिवार आपस में मिलते हैं। उस क्षण की कल्पना कीजिए जब दो बहनें 1947 में अलग हुईं और 72 साल बाद मिलीं। उनमें से कनाडा वाली बहन सिख है और पाकिस्तान वाली बहन मुसलमान। अब दोनों के बच्चे अपने मौसेरे भाई-बहनों से मिलने को बेताब हैं। 


कई कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें 85 या 90 साल के बुजुर्ग अपने परिवारजनों के साथ अपने पैतृक गाँव, शहर या घर देखने पाकिस्तान या भारत आते हैं। वहाँ पहुँचते ही इनका फूलों, मालाओं और नगाड़ों से स्वागत होता है। वहाँ कभी-कभी उन्हें हमउम्र साथी मिल जाते हैं। तब बचपन के बिछड़े ये दो यार एक दूसरे से लिपट कर फूट-फूट कर रोते हैं। फिर इन्हें इनके बचपन का स्कूल, पड़ौस व इनका घर दिखाया जाता है। जहां पहुँच कर ये अतीत की यादों में खो जाते हैं। वहाँ रहने वाले परिवार से पूछते हैं कि क्या उनके माता-पिता की कोई निशानी आज भी उनके पास है? इनकी भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ता है जब इन्हें वो चक्की दिखाई जाती है, जिस पर इनकी माँ गेहूं पीसती थीं या इनके पिता के कक्ष में रखी लोहे की वो भारी तिजोरी दिखाई जाती है, जो आज भी काम आ रही है। ये उस घर की ऐसी निशानी और आँगन की मिट्टी उनसे माँग लेते हैं, ताकि अपने देश लौट कर अपने परिवार को दिखा सकें। मौक़ा मिले तो आप भी इन कहानियों को देखिएगा और सोचिएगा कि साम्प्रदायिकता या मज़हबी उन्माद में मारे तो आम लोग जाते हैं पर सत्ता का मज़ा वो उड़ाते हैं जो इस आग को भड़काते ही इसलिए हैं कि उन्हें सत्ता पानी है। धर्म और मज़हब तो उनके इस लक्ष्य तक पहुँचने की सीढ़ी मात्र होती है। हम किसी भी धर्म या मज़हब के मानने वाले क्यों न हों, इन फ़िरक़ापरस्ती ताक़तों से सावधान रहना चाहिए, इसी में हमारी भलाई है। 1947 का बँटवारा यही बताता है। 

Monday, February 1, 2021

पधारो म्हारे देस


पूरा साल कोविड के चक्कर में कहीं घूमने जाना नहीं हुआ। इस हफ़्ते हिम्मत करके जैसलमेर, जोधपुर में छुट्टी बिताने का सोचा। थार के रेगिस्तान में बसा जैसलमेर, आमतौर पर इन दिनों हज़ारों विदेशी सैलानियों से पटा रहता है। लेकिन इस बार एक साल से कोई विदेशी पर्यटक नहीं आया, जिससे पर्यटन पर आधारित यहाँ की अर्थव्यवस्था पूरी तरह बैठ चुकी है। तमाम छोटे बड़े होटल बंद पड़े थे या बंद होने की कगार पे थे। पिछले तीन महीनों में जैसे ही कोविड का डर लोगों के मन से दूर हुआ तो गुजरात, राजस्थान और दिल्ली आदि के पर्यटकों का सैलाब टूट पड़ा। उससे यहाँ के पर्यटन उद्योग को कुछ आक्सीजन मिली है। स्थानीय लोगों का कहना था कि पूरे कोविड काल में जैसलमेर और आसपास के इलाक़े में इस महामारी का कोई ख़ास असर नहीं था। न तो लोगों ने मास्क पहने और न सामाजिक दूरी बनाई। कमोबेश यही हालत सारे देश की रही है। कोविड का जो भी घातक असर देखने को मिला वो केवल मुंबई, इंदौर, दिल्ली जैसे नगरों और मध्यमवर्गीय या उच्चवर्गीय परिवारों में ही देखा गया। हमारे मथुरा ज़िले के किसी भी गाँव में कोविड महामारी के रूप में नहीं आया। पर कोविड के आतंक से जिस तरह के अप्रत्याशित कदम उठाए गए उससे अर्थव्यवस्था की रीढ़ पूरी तरह टूट गई। यही कारण है कि गरीब आदमी, मजदूर, किसान और छोटे दुकानदार और कारख़ानेदार हर शहर में ये प्रश्न करते हैं कि क्या वह सब ज़रूरी था? अगर यह माना जाए कि ऐसी कड़ी रोकथाम से ही भारत में कोविड पर क़ाबू पाया जा सका तो यह भी सही नहीं होगा। क्योंकि जब देश की बहुसंख्यक आबादी ने कोविड के प्रतिबंधों का पालन ही नहीं किया और फिर भी इस महामारी के प्रकोप से ईश्वर ने भारतवासियों की रक्षा की तो यह स्पष्ट है कि भारत के लोगों में प्रतिरोधी क्षमता, पश्चिमी देशों के लोगों के मुक़ाबले ज़्यादा है। क्योंकि हम बचपन से विपरीत परिस्थितियों से जूझ कर बड़े होते हैं और वे बहुत ज़्यादा सावधानियों के साथ। 



इस इलाक़े में आने से पहले, एक कल्पना थी कि चारों ओर रेत के टीले ही टीले होंगे। पर राजमार्ग के दोनों तरफ़ हरयाली और खेत देख कर आश्चर्य हुआ। पता चला ये कमाल है इंदिरा नहर का। जिसके आने के बाद से अब यहाँ बारिश भी साल में 10-12 बार हो जाती है। जबकि पहले बारिश सालों में एक बार होती थी। इससे ये सिद्ध होता है कि समुचित जल प्रबंधन से देश का कायाकल्प हो सकता था। आज़ादी के बाद खर्बों रुपया बहुउद्देशीय नदी परियोजनाओं पर खर्च हुआ। बावजूद इसके आज भी हम वर्षा के मात्र 10 फ़ीसदी जल का ही संचयन कर पाते हैं। जबकि 90 फ़ीसदी जल बह कर नदियों के रास्ते समुद्र में चला जाता है। जल संचयन के राजस्थान के इतिहास को सराहना पड़ेगा। जहां पानी की एक एक बूँद को सोने से भी ज़्यादा क़ीमती मानकर सहेजने की स्थानीय तकनीकी विकसित की गई जो आजतक कारगर हैं। जबकि पाइपलाइन से जल आपूर्ति की ज़्यादातर योजनाएँ समय से पहले ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गई। जल के विषय में इतना शोर मच रहा है पर हम अनुभव से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। कुंडों, सरोवरों और तालाबों के जीर्णोद्धार के नाम पर कैसे काग़ज़ी घोड़े दौड़ाए जा रहे हैं इस पर हम पहले भी काफ़ी लिख चुके हैं। आधुनिक जीवन शैली में हमारे बाथरूम पानी की आपराधिक बर्बादी करते हैं। जबकि जैसलमेर की सबसे धनी सेठों की ‘पटवों की हवेली’ में जिस पानी से नहाया जाता था, उसी को एकत्र करके कपड़े धुलते थे और कपड़े धुलने के बाद उसी पानी से फिर फ़र्श और गली धोए जाते थे। आज हम ऐसा नहीं कर सकते पर पानी की बर्बादी पर रोक लगाने की मानसिकता भी विकसित करने को तैयार नहीं हैं। जबकि हर शहर का भूजल स्तर तेज़ी से गिरता जा रहा है और जल संकट गहराता जा रहा है। 


पर्यटन की दृष्टि से अब भारत के मध्यमवर्गीय परिवारों ने एक बड़ा बाज़ार खड़ा कर दिया है। इसलिए इस वर्ग को भी पर्यटन के शिष्टाचार सीखने की ज़रूरत है। आप दुबई के रेगिस्तान में बने ‘डेज़र्ट सफ़ारी’ में जाएं तो आपको प्लास्टिक छोड़ ऊँटों की लीद भी देखने को नहीं मिलेगी। जबकि जैसलमेर के पास मशहूर ‘डेज़र्ट रिज़ॉर्ट’ सम नाम के क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय हो गया है। हज़ारों टेंटों में पर्यटक यहाँ रात बिताते हैं पर पूरे क्षेत्र को प्लास्टिक की बोतलों, थैलों, शराब की बोतलों व दूसरे कचरों से पाट कर चले जाते हैं। ऊँट की लीद तो सारे इलाक़े में फैली पड़ी है। इस पर राजस्थान सरकार के पर्यटन विभाग को ध्यान देना चाहिए। 


हमारी इस यात्रा का ‘हाई पोईंट’ था भारत पाकिस्तान के बॉर्डर पर सीमा सुरक्षा बल की पोस्ट पर जा कर उनके जीवन को देखना। जिस गलवान घाटी में बर्फ़ की तहों के अंदर खड़े हो कर हमारे सैनिक सीमा की रक्षा करते हैं। उससे कम नहीं है थार के रेगिस्तान में 55 डिग्री सेल्सियस की तपती लू और कई दिनों चलने वाली काली आँधी में बीएसएफ़ के जवानों का पाकिस्तान के विरुद्ध मोर्चा लेना। इन जवानों और अफ़सरों के हौसले को सलाम हैं। रोचक बात यह पता चली कि जहां भारत ने 1751 किलोमीटर की पूरी सीमा पर कटीले तारों की मज़बूत बाड़, हर 100 मीटर पर सर्च लाइट के खम्बे और निरीक्षण कक्ष बना रखे हैं, वहीं अपनी आर्थिक तंगी के चलते पाकिस्तान ऐसा कुछ भी नहीं किया। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि पाकिस्तान गुरिल्ला युद्ध या आतंकवाद पनपाने का काम तो कर सकता है पर कोई बड़ा युद्ध लड़ने की उसकी औक़ात नहीं है। यह हमारे लिए संतोष की बात है। कुल मिलाकर ‘पधारो म्हारे देस’ का ये अनुभव बहुत रोचक रहा और उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले महीनों में देश की हालत और सुधरेगी और फिर हम सब भारतवासी आनंद और उमंग से वैसे ही जिएँगे जैसा सदियों से जीते आए हैं।        

Monday, February 18, 2019

आतंकवाद के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो

जम्मू कश्मीर के पुलवामा में हुए आत्मघाती हमले से पूरा भारत आज दुखी है और आक्रोश में है। इस त्रासदी के समय हम सब प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के साथ हैं। देशवासी चाहते हैं कि आतंकी वारदात पर कड़़ी कार्यवाही हो। पर सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कड़ी कार्यवाही तो पहले भी होती रही है। प्रश्न है कि जब सुरक्षाबलों का काफिला चलता है, तो उस मार्ग को पहले सुरक्षित कर दिया जाता है। जब ढाई्र हजार जवानों का आधा किलोमीटर लंबा काफिला एक जगह से दूसरी जगह सड़क मार्ग से जा रहा था, तो क्या उस पर ड्रोन से नजर, हेलिकॉप्टर से निगरानी रखते हुए, सुरक्षा कवच नहीं होना चाहिए था? ताकि अगल-बगल से कोई अनाधिकृत गाड़ी या बारूद से भरी कार, बस द्वारा किसी तरह की संदिग्ध गतिविधि न हो। आश्चर्य है कि इतनी भारी मात्रा विस्फोटक का प्रयोग कैसे कर लिया गया? कैसे इन विस्फोटक अतिसंवेनशील क्षेत्र में आतंकवादी तक पहुंचा? हमारी रक्षा और गृह मंत्रालय की खुफिया ऐजेंसी क्या कर रही थी?
अब सवाल उठता है कि देश में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाए। हमारा देश ही नहीं दुनिया के तमाम देशों का आतंकवाद के विरुद्ध इकतरफा साझा जनमत है। ऐसे में सरकार अगर कोई ठोस कदम उठाती है, तो देश उसके साथ खड़ा होगा। उधर तो हम सीमा पर लड़ने और जीतने की तैयारी में जुटे रहें और देश के भीतर आईएसआई के एजेंट आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहें तो यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। मैं कई वर्षों से लिखता रहा हूं कि देश की खुफिया एजेंसियों को इस बात की पुख्ता जानकारी है कि देश के 350 से ज्यादा शहरों और कस्बों की सघन बस्तियों में आरडीएक्स, मादक द्रव्यों और अवैध हथियारों का जखीरा जमा हुआ है जो आतंकवादियों के लिए रसद पहुँचाने का काम करता है। प्रधानमंत्री को चाहिए कि इसके खिलाफ एक ‘आपरेशन क्लीन स्टार’ या ‘अपराधमुक्त भारत अभियान’ की शुरुआत करें और पुलिस व अर्धसैनिक बलों को इस बात की खुली छूट दें जिससे वे इन बस्तियों में जाकर व्यापक तलाशी अभियान चलाएं और ऐसे सारे जखीरों को बाहर निकालें।
आतंकवाद को रसद पहुंचाने का दूसरा जरिया है हवाला कारोबार। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के तालिबानी हमले के बाद से अमरीका ने इस तथ्य को समझा और हवाला कारोबार पर कड़ा नियन्त्रण कर लिया। नतीजतन तब से आज तक वहां आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुइ। जबकि भारत में पिछले 23 वर्षों से हम जैसे कुछ लोग लगातार हवाला कारोबार पर रोक लगाने की मांग करते आये हैं। पर ये भारत में बेरोकटोक जारी है। इस पर नियन्त्रण किये बिना आतंकवाद की श्वासनली को काटा नहीं जा सकता। तीसरा कदम संसद को उठाना है द्य ऐसे कानून बनाकर जिनके तहत आतंकवाद के आरोपित मुजरिमों पर विशेष अदालतों में मुकदमे चला कर 6 महीनों में सजा सुनाई जा सके। जिस दिन मोदी सरकार ये 3 कदम उठा लेगी उस दिन से भारत में आतंकवाद का बहुत हद तक सफाया हो जाएगा।
अगर आतंकवाद पर राजनीतिकों की दबिश की समीक्षा करें तो यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि सरकारें अब तक आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर उपाय कर नहीं पायी है। राजनीतिक तबका आतंकवाद को व्यवस्था के खिलाफ एक अलोकतांत्रिक यंत्र ही मानता रहा है और बेगुनाह नागरिकों की हत्याओं के बाद येही कहता रहा है कि आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। होते होते कई दशक बीत जाने के बाद भी विश्व में आतंकवाद के कम होने या थमने का कोई लक्षण हमें देखने को नहीं मिलता।
नए हालात में जरूरी हो गया है कि आतंकवाद के बदलते स्वरुप पर नए सिरे से समझना शुरू किया जाए। हो सकता है कि आतंकवाद से निपटने के लिए बल प्रयोग ही अकेला उपाए न हो। क्या उपाय हो सकते हैं उनके लिए हमें शोधपरख अध्ययनों की जरूरत पड़ेगी। अगर सिर्फ 70 के दशक से अब तक यानी पिछले 40 साल के अपने सोच विचारदृष्टि अपनी कार्यपद्धति पर नजर डालें तो हमें हमेशा तदर्थ उपायों से ही काम चलाना पड़ा ह। इसका उदाहरण कंधार विमान अपहरण के समय का है जब विशेषज्ञों ने हाथ खड़े कर दिए थे कि आतंकवाद से निपटने के लिए हमारे पास कोई सुनियोजित व्यवस्था ही नहीं है।
यदि विश्वभर के शीर्ष नेतृत्त्व एकजुट होकर कुछ ठोस कदम उठाऐं, तो उम्मीद है कि हम आतंकवाद के साथ भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, शोषण और बेरोजगारी जैसी समस्याओं का भी समाधान पा लें।
देश इस समय गंभीर हालत से गुजर रहा है। मातम की इस घड़ी में रोने के बजाए सीमा सुरक्षा पर गिद्धदृष्टि और दोषियों को कड़ा जबाब देने की कार्यवाही की जानी चाहिए। पर ये भी याद रहे कि हम जो भी करें, वो दिलों में आग और दिमाग में बर्फ रखकर करें।

Monday, October 3, 2016

आतंकवाद से निपटने के लिए और क्या करें



छप्पन इंच का सीना रखने वाले भारत के लोकप्रिय प्रधान मंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने वो कर दिखाया जिसका मुझे 23 बरस से इंतज़ार था | उन्होंने पाकिस्तान को  ही चुनौती नही दी बल्कि आतंकवाद से लड़ने की दृढ इच्छा शक्ति दिखाई है | जिसके लिए वे और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलहाकार अजीत डोभाल दोनों बधाई के पात्र हैं | यहाँ याद दिलाना चाहूँगा कि 1993 में जब मैंने कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन को दुबई और लन्दन से आ रही अवैध आर्थिक मदद के खिलाफ हवाला काण्ड को उजागर कर सर्वोच्च न्यायलय में जनहित याचिका दायर की थी, तब किसी ने इस खतरनाक और लम्बी लड़ाई में साथ नहीं दिया | तब न तो आतंकवाद इतना बढ़ा था और न ही तब इसने अपने पैर दुनिया भर में पसारे थे | तब अगर देश के हुक्मरानों, सांसदों, जांच एजेंसियों और मीडिया ने आतंकवाद के खिलाफ इस लड़ाई में साथ दिया होता तो भारत को हजारों बेगुनाह और जांबाज़ सिपाहियों और अफसरों की क़ुरबानी नहीं देनी पड़ती | आज टीवी चैनलों पर जो एंकर परसन और विशेषज्ञ उत्साह में भर कर आतंकवाद के खिलाफ लम्बे चौड़े बयान दे रहे हैं वे 1993 से 1998 के दौर में अपने लेखों और वक्तव्यों को याद करें तो पायेंगे कि उन्होंने उस वक्त अपनी ज़िम्मेदारी का ईमानदारी से निर्वाह नहीं किया |

हवाला काण्ड उजागर करने के बाद से आज तक देश विदेश के सैंकड़ों मंचों पर, टीवी चैनलों पर और अखबारों में मैं इन सवालों को लगातार उठाता रहा हूँ | मुम्बई पर हुए आतंकी हमले के बाद देश के दो दर्जन बड़े उद्योगपतियों ने मुझे मुम्बई बुलाया था वे सब बुरी तरह भयभीत थे | जिस तरह आतंकवादियों ने ताज होटल से लेकर छत्रपति शिवाजी स्टेशन तक भारी नरसंहार किया उससे उनका विश्वास देश की पुलिस और सुरक्षा व्यवस्था पर से हिला हुआ था | वे मुझसे जानना चाहते थे कि देश में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाय| जो बात तब मैंने उनके सामने रखी वही आज एक बार फिर दोहराने की जरूरत है | अंतर इतना है कि आज देश के भीतर और देश के बाहर श्री नरेंद्र मोदी को आतंकवाद से लड़ने में एक मजबूत नेतृत्व के रूप में देखा जा रहा है | साथ ही देशवासियों और दुनिया के तमाम देशों का आतंकवाद के विरुद्ध इकतरफा साझा जनमत है | ऐसे में प्रधान मंत्री अगर कोई ठोस कदम उठाते हैं तो उसका विरोध करने वालों को देशद्रोही समझा जायेगा और जनता ऐसे लोगों को सडकों पर उतर कर सबक सिखा देगी | हम सीमा पर लड़ने और जीतने की तय्यारी में जुटे रहें और देश के भीतर आईएसआई के एजेंट आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहें तो यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती | देश की ख़ुफ़िया एजेंसियों को इस बात की पुख्ता जानकारी है कि देश के 350 से ज्यादा शहरों और कस्बों की सघन बस्तियों में आरडीएक्स, मादक द्रव्यों और अवैध हथियारों का जखीरा जमा हुआ है जो आतंकवादियों के लिए रसद पहुँचाने का काम करता है | प्रधान मंत्री को चाहिए कि इसके खिलाफ एक ‘आपरेशन क्लीन स्टार’ या ‘अपराधमुक्त भारत अभियान’ की शुरुआत करें और पुलिस व अर्धसैनिक बलों को इस बात की खुली छूट दें जिससे वे इन बस्तियों में जाकर व्यापक तलाशी अभियान चलाएं और ऐसे सारे जखीरों को बाहर निकालें|

आतंकवाद को रसद पहुंचाने का दूसरा जरिया है हवाला कारोबार | वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के तालिबानी हमले के बाद से अमरीका ने इस तथ्य को समझा और हवाला कारोबार पर कड़ा नियन्त्रण कर लिया | नतीजतन तब से आज तक वहां आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुई | जबकि भारत में पिछले 23 वर्षों से हम जैसे कुछ लोग लगातार हवाला कारोबार पर रोक लगाने की मांग करते आये हैं | पर ये भारत में बेरोकटोक जारी है | इस पर नियन्त्रण किये बिना आतंकवाद की श्वासनली को काटा नहीं जा सकता | तीसरा कदम संसद को उठाना है | ऐसे कानून बनाकर जिनके तहत आतंकवाद के आरोपित मुजरिमों पर विशेष अदालतों में मुकदमे चला कर 6 महीनों में सज़ा सुनाई जा सके | जिस दिन मोदी सरकार ये 3 कदम उठा लेगी उस दिन से भारत में आतंकवाद का बहुत हद तक सफाया हो जाएगा |

आज के माहौल में ऐसे कड़े कदम उठाना मोदी सरकार के लिए मुश्किल काम नहीं है | क्योंकि जनमत उसके पक्ष में है | आतंकवाद से पूरी दुनिया त्रस्त है | भारत में ही नहीं पाकिस्तान तक में आम जनता का जीवन आतंकवादियों ने खतरे में डाल दिया है | कौन जाने कब, कहाँ और कैसे आतंकवादी हमला हो जाय और बेकसूर लोगों की जानें चली जाएं | इसलिए हर समझदार नागरिक, चाहे किसी भी देश या धर्म का हो, आतंकवाद को समाप्त करना चाहता है | उसकी निगाहें अपने हुक्मरानों पर टिकी हैं | मोदी इस मामले में अपने गुणों के कारण सबसे आगे खड़े हैं | आतंकवाद से निपटने के लिए वे सीमा के पार या सीमा के भीतर जो भी करेंगे सब में जनता उनका साथ देगी |
जामवंत कहि सुन हनुमाना | का चुप साध रह्यो बलवाना ||