Sunday, June 27, 2010

एंडरसन विवाद - इंका शर्मसार क्यों?

यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन अध्यक्ष वारेन एंडरसन को भारत से सुरक्षित भगाने के लिए जिम्मेदार लोगों को लेकर काफी विवाद खड़ा हो गया है। इंका में आपसी आरोप-प्रत्यारोप भी लगाये जा रहे हैं। उधर भाजपा के नेताओं पर भी इस मामले में गुनहगार कम्पनी के खिलाफ राजग सरकार के दौरान कोई कार्यवाही न करने के आरोप लग रहे हैं। इस पूरे विवाद में इंका के प्रवक्ता दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के बचाव में खड़े हो गये हैं।

यह सही है कि मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने वारेन एंडरसेन को भोपाल में गिरफ्तार किया था। पर बाद में उसे तुरत-फुरत जमानती कार्यवाही करके पूरी सुरक्षा के साथ विशेष विमान से दिल्ली पहुँचा दिया गया। जहाँ से वो देश छोड़कर भागने में सफल हो गया। इंका के अन्दरूनी स्रोतों का कहना है कि अर्जुन सिंह ने यह दोनों काम अपनी मर्जी से किये, इसमें केन्द्र सरकार की कोई भूमिका नहीं। पर आक्रामक राजनेताओं ने इसे सिरे से खारिज कर दिया है। कई अधिकारियों के बयान भी इस आशय के आये हैं कि अर्जुन सिंह को केन्द्र से आदेश हुए थे एंडरसन को भोपाल से सुरक्षित बाहर निकालने के लिए। इन दोनों ही आरोपों-प्रत्यारोपों में क्या सच है और क्या झूठ, यह तो आने वाले दिनों में और साफ हो जायेगा, पर इस पूरे विवाद का एक दूसरा पक्ष भी है। प्रधानमंत्री कार्यालय के पूर्व मंत्री रहे कमल मोरारका कहते हैं कि इंका को इसमें इतनी सफाई देने की जरूरत क्यों पड़ रही है? वे बताते हैं कि एंडरसन भारत आया ही इस शर्त पर था कि वो भोपाल गैस त्रासदी के नुकसान ज़ायजा ले सके। पर इसके लिए उसने भारत सरकार से सुरक्षित रास्ते की माँग की थी। जो मान ली गयी थी। सुरक्षित रास्ता यानि भारत आकर बिना गिरफ्तार हुए लौट जाने की शर्त। ऐसे में एंडरसन को गिरफ्तार करना वायदे का उल्लंघन होता। क्योंकि हमारा देश एक सम्मानित देश है जहाँ कानून का शासन है और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के नियमों का सम्मान करता है। यह कोई आतंकवादी देश नहीं जहाँ वायदा कुछ किया जाए और फिर धोखे से गिरफ्तार कर लिया जाए। अगर गिरफ्तार ही करना है तो अन्तर्राष्ट्रीय कानून के तहत हमारी पुलिस को अमरीका से अनुमति लेकर वहाँ जाकर गिरफ्तारी करनी होगी। इसलिए उस वक्त एंडरसन का वापिस भेजा जाना सही प्रशासनिक कदम था। जिसके लिए इंका को शर्मसार होने की कोई जरूरत नहीं। इसका अर्थ यह नहीं कि एंडरसन को अपराधी न माना जाए या उसके खिलाफ गिरफ्तारी की प्रक्रिया को ढीला छोड़ दिया जाए।

उल्लेखनीय है कि संवेदनशील स्थितियों में प्रशासनिक और राजनैतिक निर्णय सूझबूझ के साथ लिये जाते हैं और उसके कुछ अघोषित भी नियम होते हैं। उदाहरण के तौर पर मिजोरम के बागी नेता लालढेंगा एक फरार अपराधी थे और देश की पुलिस को उनकी तलाश थी। उसी दौरान उनकी कई बैठक दिल्ली के पाँच सितारा होटलों में प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के निजी सचिव यशपाल कपूर से हुई। श्रीमती गाँधी की श्री कपूर को हिदायत थी कि इन बैठकों की जानकारी पुलिस, मीडिया और खुफिया एजेन्सियों को न दी जाए। क्योंकि श्रीमती गाँधी नहीं चाहती थीं कि लालढेंगा से किसी समझौते पर सहमति हुए बिना ही स्थिति विस्फोटक बन जाए। यह उनकी राजनैतिक सूझबूझ थी। कोई भी समझौता, और वो भी जो राजनैतिक रूप से इतना संवेदनशील हो, एक दो बैठक में नहीं हुआ करता। इसलिए कई बैठकों की जरूरत होती है जो भूमिगत नेता से बात किये बिना सम्भव नहीं था। भूमिगत नेता को अगर गिरफ्तार कर लिया जाता तो समझौते की सम्भावना समाप्त हो जाती। अगर पुलिस को उन्हें पकड़ना ही था तो मिजोरम जाकर लालढेंगा को पकड़ लाती। कानून और पुलिस अपना काम करते हैं और राजनैतिक प्रक्रिया अलग चलती रहती है। पर सुरक्षा के आश्वासन के बाद गुप्त वार्ता करने आये किसी नेता के साथ, चाहे वह अलगाववादी ही क्यों न हो, विश्वासघात नहीं किया जा सकता था।

लालढेंगा और एंडरसन में कोई समानता नहीं है। एक भारत के ही एक प्रांत के उग्रवादी संगठन का नेता था। जो भारत से आजादी चाहता था और दूसरा हजारों निरीह लोगों की अकारण मौत की जिम्मेदार कम्पनी का मुखिया। पर जैसा पहले उल्लेख किया है कि अपराधी को पकड़ने की भी कानूनी प्रक्रिया होती है। जहाँ अन्धा कानून होता है या आतंक का राज होता है, वहाँ तो यह हो सकता है कि अजमल कसाब को चैराहे पर खड़ा करके गोली मार दी जाए। पर कानून के शासन में उस जाने-माने आतंकवादी को भी पूरी कानूनी लड़ाई लड़ने का हक दिया गया। अगर सबूत उसके पक्ष में होते तो वह आसानी से छूट सकता था। क्योंकि इस पूरे मुकदमें की सुनवाई अदालत में हुई। पर उसके खिलाफ इतने सबूत और चश्मदीद गवाह हैं कि उसको फाँसी की सजा सुनाई गयी। यही बात एंडरसन पर भी लागू होती है। तत्कालीन राज्य और केन्द्रीय सरकारों और उसके बाद सत्ता में आयी सरकारों को एंडरसन की गिरफ्तारी की प्रक्रिया को तीव्रगति से आगे बढ़ाना चाहिए था, जो नहीं किया गया और इसके लिए सत्ता में रहे सभी दल जबावदेह हैं। पर फिलहाल जो विवाद खड़ा किया गया है, उसको लेकर तो श्री मोरारका का तर्क काफी ठीक लगता है जिस पर विचार किया जाना चाहिए।

Sunday, June 20, 2010

होलैंड में साइकिल – भारत में कार

भारतीय विदेश सेवा के कितने ही अधिकारी होलैंड गए होंगे. ‍‌‌‌कितने ही हमारे दूतावास में तैनात भी हैं. न जाने कितने मंत्री, सांसद व देश के आला अफसर देश के खर्चे पर होलैंड की यात्रा कर आये हैं ? पर किसी ने आकर देशवासियों को ये नहीं बताया की इतने संपन्न देश में लोगों को कार व स्कूटर मोटरसाइकिल बेचने पर जोर नहीं है, जैसा की आज हमारे देश में है. बल्कि ज़ोर इस बात पर है की वहां की जनता चाहे धनि हो या साधारण ज्यादा से ज्यादा साइकिल पर सफर करे. जिससे पर्यावरण बचे, सडको पर ट्रैफिक की भीड़ न बढे  और पेट्रोलियम पदार्थों की खपत कम हो सके. ज़ाहिर है इससे लोगों की सेहत तो बनेगी ही.

होलैंड में, योरोप में सबसे ज्यादा साइकिल है. वहां के मंत्री, अफसर और पैसेवाले भी साइकिल को कार या स्कूटर मोटरसाइकिल से ज्यादा पसंद करते हैं. देश में हर सड़क पर साइकिल चलाने की पट्टी अलग बनी हुई है. साइकिल को ट्रेनों में रख कर ले जाने के लिए हर कोच में एक एक दरवाजा अलग होता है जिस पर साइकिल बनी होती है. मतलब यह की आप अपने घर से साइकिल पर निकलें, स्टेशन जाएं, टिकट खरीदें और साइकिल लेकर ट्रेन पर चढ़ जाएं. जब अपने गंतव्य पर उतरें तो स्टेशन से बाहर आते ही साइकिल पर चल दें. हैं न किफ़ायत और फायदे की बात. वहां की सरकार ने कारों पर ऐसे टैक्स लगा रखे हैं की ज्यादातर लोग कार खरीदने से बचें. पर हमारी सरकारों ने आज तक इस बढ़िया उदाहरण को अपनाने की कोई चेष्टा नहीं की है. नतीजतन आज देश की हर सड़क पर ट्रेफिक जाम होना आम बात है. पेट्रोल के धुएँ से बढता प्रदूषण हमारी सबसे बड़ी समस्या बन गया है. पेट्रोल के बड़ते दामों से हमारी अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है. हम निकम्मे और आलसी होते जा रहे हैं. मैं देखता हूँ की गांव के हट्टे कट्टे नौ जवान जो पहले कई किलोमीटर पैदल चलना शान समझते थे, वो आज गांव की गलियों में मोटरसाइकिल दौड़ाना शान समझते हैं. यह आत्मघाती प्रवृत्ति हैं.

होलैंड तो योरोप का वह देश है जिसने अपने औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित किये. खूब धन कमाया. वहां थोड़े लोग हैं. काफी सम्पन्नता है. पर भारत की गरीब जनता और भारत के सीमित संसाधनों पर बढता दबाव हमें इस बात की आजादी नहीं देता की हम पेट्रोलियम आधारित वाहनों को बढने की इस कदर छूट दे दें की सारा देश ही बावला हो जाये. मैं पिछले तीन हफ़्तों से योरोप का भ्रमण कर रहा हूँ. हर शहर में खूब पैदल चलता हूँ. हर शहर में किराय पर साइकिल लेता हूँ और खूब घूमता हूँ. इतना मज़ा आ रहा है साइकिल चलाने में की मुझे लगा की आप सभी सुधि पाठकों का ध्यान इस खास उपलब्धि ओर आकर्षित करूँ. ऐसा नहीं है की यह मेरे लिए नई जानकारी है, गत तीस वर्षों में कई बार विदेश यात्रा पर यह दृश्य देखा. पर होलैंड पहली बार गया तो वहाँ के साइकिल प्रेम ने बहुत प्रभावित किया. पुरानी पीढ़ी के लोगों को याद होगा की ब्रिटिश साम्राज्य के ताकतवर प्रधानमंत्री चर्चिल भी साइकिल चला कर बाजार जाया करते थे.

हमारे देश में जब साइकिल आयी थी तो एकदम बहुत लोकप्रिय हो गई. यहाँ तक की शादी में दुल्हिन विदा करने की शर्त दहेज में साइकिल की मांग के साथ जुड़ गई. बहुत कम लोगों को पता होगा की देश के अति महत्वपूर्ण पद पर बैठ चुके एक व्यक्ति ने भी भोपाल में अपनी शादी के दौरान बिना साइकिल दहेज में लिए, विदाई न करने की जिद पकड़ ली थी. रात में ही साइकिल कसवाई गई और तब बारात विदा हुई. कुल मिलकर बात इतनी सी है की हमारे देश की आर्थिक सामाजिक स्तिथि को देखते हुए साइकिल हर दृष्टि से वरदान है. पर आज हम इसे गरीबों और मजदूरों का वाहन मान कर इसकी उपेक्षा कर रहे हैं. यह हमारे हित में नहीं. योरोप और अमरीका के छात्रों में साइकिल बहुत लोकप्रिय है. हर कैम्पस पर विद्यार्थी व शिक्षक साइकिल ही चलाते नज़र आते हैं. जबकि भारतीय शिक्षा संस्थानों में अपने परिसर के भीतर पेट्रोलियम आधारित निजी वाहनों के चलाने पर तो शिक्षा मंत्री कपिल सिबल रोक लगा ही सकते हैं. इससे कुछ उदाहरण सामने आएगा.

हमारे देश के पर्यावरण प्रेमीयों ने भी साइकिल के प्रति अपनी समझ विकसित नहीं की है. वे सब पश्चिम की इस नियामत को अनदेखा कर बैठे हैं. क्यूंकि उनके जीवन में साइकिल कहीं दिखाई नहीं देती. मुझे लगता है की समय आ गया है की जब देश में साइकिल चलाओ  अभियान की शुरुआत होनी चाहिए. सांसदों, विधायकों की दर्जनों प्रशंसकों से भरी गाड़ियों की जगह साइकिल की टोली जब संसद और विधान सभा पहुंचेगी तो नजारा कुछ और ही होगा. सुरक्षा के कारणों को अनदेखा किये बिना राहुल गाँधी को इस दिशा में पहल करनी चाहिए. उन्हें चाहिए की राजनीति में अश्लीलता की हद तक बड गयी पेट्रोल व् डीजल आधारित वाहनों की भीड़ की जगह उनके कार्यकर्ता साइकिल का प्रयोग गर्व से हर दिन करें. दिखावे और फोटो खिचवाने के ढोंग के लिए नहीं. फिर वे दूसरे दलों को भे मजबूर कर सकते हैं. क्यूंकि यह साफ़ होगा की जिस दल के कार्यकर्ताओं पर जितने ज्यादा पेट्रोलियम आधारित वाहन है वह उतना ही ज्यादा काला धन खर्च कर रहा है. मतलब यह की वह दल ज्यादा भ्रष्ट है.

पर्यावरण की चेतना टीवी पर रोजाना देने वाले टीवी चैनलों को भी आत्मविश्लेषण करना चाहिए की वे खुद अपने दैनिक जीवन में पर्यावरण पर कितना बोझ दाल रहे हैं. जब तक हमारी कथनी और करनी एक नहीं होगी तो हम किसी को भी प्रभावित नहीं कर पाएंगे. अपने पर्यावरण को भी नहीं बचा पाएंगे. इसलिए समय की मांग है की हमारे देश के साधन संपन्न लोग साइकिल की ओर चलें.

Sunday, June 13, 2010

क्या टीवी समाचारों पर सेंसर हो

पिछले दिनों अजमल कसाब को जब फांसी की सजा सुनाई गई तो देश के टीवी चैनलों पर रिपोर्टिंग देखकर सिर धुनने को मन करा। रिपोर्टर दौड़ दौड़ कर ओबी वैन के सामने आकर कचहरी के कमरे की खबर ऐसे दे रहे थे मानों कोई बहुत गहरी और गोपनीय जानकारी निकाल लाए हों। ऐंकर पर्सन भी उसी उत्तेजना में ऐसे बोल रहे थे मानों भारत की पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध में विजय हो गई हो। कसाब के कृत्य, उसके विरुद्ध मौजूदा सबूत और गवाहों के बयान आने के बाद इससे इतर और क्या फैसला अदालत दे सकती थी फिर इतनी उत्तेजना और हड़बड़ी किस बात की। 

क्या आपको नहीं लगता कि आज टीवी चैनलों पर जो समाचार दिखाए जा रहे हैं उनपर सेंसर लगाया जाए। बीस बरस पहले सन 1990 में दिल्ली हाई कोर्ट में मैंने वीडियो समाचारों पर सेंसर के विरुद्ध एक जनहित याचिका दायर की थी। तब देश में टीवी चैनल नहीं आए थे। कालचक्र वीडियो की मार्फत मैंने देश में पहली बार हिन्दी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत की थी। जितनी पैनी और खोजी टीवी रिपोर्ट इस वीडियो में तब दिखाई गई थी उनसे घबराकर सरकार ने वीडियो समाचारों पर सेंसर लगा दिया। इसके विरूद्ध हमने एक लंबी लड़ाई लड़ी। बाद में टीवी चैनल आ गए। इसी बीच प्रसार भारती का भी गठन हुआ। बीजी वर्गीज समिति की रिपोर्ट आई। कुल मिलाकर, टीवी समाचारों की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो गई। टीवी दर्शकों और देश के जागरूक नागरिकों ने राहत की सांस ली। फिर तो समाचार चैनलों की बाढ़ सी आ गई।

आज जितने समाचार चैनल हैं कि आम दर्शक को उनके नाम तक याद नहीं हैं। ज्यादातर चैनलों को विज्ञापन नहीं मिल रहे या इतने कम मिल रहे हैं कि वे घाटे में चल रहे हैं। कोई घाटे में टीवी चैनल भला क्यों चलाएगा? जाहिर है इससे कुछ दूसरे हित साधे जा रहे हैं। नतीजतन खबरों की जगह कचरा परोसा जा रहा है। चाहे वो लोगों की निजी जिन्दगी में ताकझांक हो या अश्लीलता की नुमाईश। इन समाचार चैनलों में न तो विषय के प्रति गंभीरता दिखाई देती है न चैनल की कोई संपादकीय नीति समझ में आती है। दिशाहीन और आत्मविमोहित एंकर पर्सन और रिपोर्टर बौराए से दीखते हैं। बहुतों की तो प्रस्तुति देखकर उन्हें एक थप्पड़ जड़ने का जी होता है। इनमें कई नामी चेहरे भी हैं जिन्हें सवाल पूछने तक की तमीज नहीं है। जिन गिने चुने चेहरों ने विज्ञापनों के माध्यम से खुद को देश का सर्वश्रेष्ठ टीवी ऐंकर स्थापित किया था उनके नाम बड़ी बड़ी दलालियों में आने के बाद वे भी अपनी चमक खो चुके हैं। ऐसे में दर्शक परेशान हैं कि समाचार के नाम पर उसके साथ कैसा मजाक किया जा रहा है।     

टीवी चैनलों पर आने वाले विभिन्न कार्यक्रमों के बारे में अलग-अलग लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है और भिन्न लोग भिन्न कार्यक्रमों को पसंद करते हैं। पहले का बुद्धु बक्सा जब एक साथ कई तरह के कार्यक्रम दिखा सकने वाले मनोरंजन यंत्र में बदल रहा था तो इसका विरोध भी किया गया था और यह आशंका जताई गई थी कि विदेशी कार्यक्रमों से देश की संस्कृति खराब होगी। अब इतने समय बाद कहा जा सकता है कि बाजार रूपी इस विशाल देश ने चैनलों को भारतीय रंग में रंगने के लिए मजबूर कर दिया । कुछेक चैनलों ने अपने कार्यक्रमों का भारतीयकरण भले ही नहीं किया हो और आप चाहे उन्हें अच्छा न मानें पर यह तो सत्य है कि भारतीय बाजार में बने रहने के लिए उन्हें भारतीय भाषाओं को अपनाना पड़ा है।

पर जहां तक खबरों का सवाल है, खबरों का मतलब ही बदल गया है और आज की स्थिति में मैं मानने लगा हूं कि टेलीविजन समाचारों पर नियंत्रण जरूरी है। खबरों को फूहड़ और बिकाऊ बनाने के लिए टीआरपी को बहाना बनाया जाता है और खबरों के नाम पर ज्यादातर चैनल जो कुछ परोस रहे हैं उसे झेलना बेहद मुश्किल हो गया है। एक समय था जब रात में सिर्फ एक बार नौ बजे खबरें प्रसारित होती थीं। पहले रेडियो पर और फिर टीवी पर। उस समय खबरें सुनने या जानने में जो दिलचस्पी होती थी वह क्या अब किसी में रह गई है। तब खबरें नई होती थीं वाकई खबर होती थीं। पर अब दिन भर चलने वाली खबरों को जानने के लिए वो उत्सुकता नहीं रहती है। एक तो संचार के साधन बढ़ने और लगातार सस्ते होते जाने से लोगों तक सूचनाएं बहुत आसानी से और बहुत कम समय में पहुंचने लगी हैं। ऐसे में दर्शकों को खबरों से जोड़ने के लिए कुछ नया और अभिनव किए जाने की जरूरत है। पर ऐसा नहीं करके ज्यादातर चैनल फूहड़पन पर उतर आए हैं।

दूसरी ओर, नए और अपरिपक्व लोगों को समाचार संकलन और संप्रेषण जैसे काम में लगा दिए जाने का भी नुकसान है। किसी भी अधिकार के साथ जिम्मेदारी भी आती है। नए और युवा लोग अधिकार तो मांगते हैं पर जिम्मेदारी निभाने में चूक जाते हैं। उन्हें मीडिया की आजादी तो मालूम है पर इस आजादी के प्रभाव का अनुमान नहीं है। आपने देखा होगा कि दिन भर चलने वाले समाचार चैनल अपने प्रसारण में हिन्सा और अपराध की खबरें खूब दिखाते हैं और कई-कई बार या काफी देर तक दिखाते रहते हैं। दर्शकों को आकर्षित करने के लिए ये अपने हिसाब से अपराधी तय कर लेते हैं और अदातल में मुकदमा कायम होने से पहले ही किसी को भी अपराधी साबित कर दिया जाता है। बाद में अगर वह निर्दोष पाया जाए तो उसकी कोई खबर दिखाई बताई नहीं जाती है। ऐसी खबरों से आहत होकर लोगों के आत्म हत्या कर लेने के भी मामले सामने आए हैं पर टेलीविजन चैनल संयम बरत रहे हों, ऐसा नहीं लगता है। दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में पीड़ितों से बेसिर-पैर के सवाल पूछे जाने के कई उदाहरण हैं। नए और गैरअनुभवी लोगों पर समाचारों के चयन और प्रसारण की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी डाल दिए जाने और टीआरपी की भूख से ऐसा हो रहा है। समय की मांग है समाचार चयन और चनेल का संचालन अनुभवी हाथों में हो और हम तक निष्पक्ष खबरें ही पहुंचें।