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Monday, November 25, 2024

उड़ता भारत


कुछ वर्ष पहले एक फ़िल्म आई थी ‘उड़ता पंजाब’, जिसमें दिखाया गया था कि प्रदेश सरकार की लापरवाही से पंजाब के घर-घर में मादक दवाओं का प्रयोग फैल गया है। जिसके चलते पंजाब कि पूरी युवा पीढ़ी तबाह हो रही है। जिनमें हर वर्ग के युवा शामिल हैं। ग़रीब-अमीर का कोई भेद नहीं। उस वक्त पंजाब में अकाली दल की सरकार थी, तो आम आदमी पार्टी ने सरकार को इस तबाही के लिए ज़िम्मेदार ठहराकर अपना चुनाव अभियान चलाया। इधर पिछले दस वर्षों से दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है, पर क्या ये सरकार दावे से कह सकती है कि दिल्ली में मादक पदार्थों की बिक्री सारे आम नहीं हो रही? कुछ महीने पहले हरियाणा के सोनीपत में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी स्थानीय डिग्री कॉलेज के छात्रों को नशीली दवाओं के सेवन के विरुद्ध भाषण दे रहे थे। तभी एक छात्र ने उनसे पूछा कि हमारे कॉलेज के बाहर पान की दुकान पर नशीली दवाएँ रात-दिन बिकती हैं तो आपकी पुलिस क्या कर रही है? जब हर युवा को पता है कि उनके शहर में कहाँ-कहाँ नशीली दवाएँ बिकती हैं तो आपका पुलिस विभाग इतना नकारा कैसे है कि वो इन बेचनेवालों को पकड़ नहीं पाता। पुलिस अधिकारी निरुत्तर हो गये।



मेरे एक पत्रकार मित्र ने 1996 में मुझे बताया था कि देश के एक प्रतिष्ठित औद्योगिक घराने के मुखिया के विरुद्ध मादक दवाएँ अवैध रूप से उत्पादन करने और अफ़ग़ानिस्तान भेजने के आरोप पर उनकी जनहित याचिका सारे सबूतों के बावजूद दो दशकों से ठंडे बस्ते में पड़ी है। क्योंकि उस घराने के गहरे संबंध हर प्रमुख दल के बड़े नेताओं से हैं। सबको इस कांड का पता भी है। पर कोई कुछ नहीं करता।


उधर पिछले कुछ वर्षों से गुजरात के एक पोर्ट से बार-बार भारी मात्रा में नशीली दवाएँ पकड़ी जा रही हैं। पर इसके पीछे कौन है वो सामने नहीं आ रहा।आए दिन देश में ऐसी अनेकों खबरें आती रहती हैं कि करोड़ों के मूल्य के नशीले पदार्थ पकड़े जाते हैं। इन पकड़ी गई ड्रग्स की मात्रा इतनी ज़्यादा होती है कि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ये ड्रग्स देश भर में वितरण के लिये ही आई हैं। पर ये कारोबार बिना रोक टोक जारी है। जबकि सिंगापुर में ड्रग्स के विरुद्ध इतना सख़्त क़ानून है कि वहाँ ड्रग्स को छूने से भी ये लोग डरते हैं। क्योंकि पकड़े जाने पर सज़ा-ए-मौत मिलती है, बचने का कोई रास्ता नहीं। 



गृह मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार दिल्ली-एनसीआर, मुंबई, भोपाल, अमृतसर और चेन्नई, यूपी के हापुड़ और गुजरात के अंकलेश्वर तक ड्रग्स तस्करों का नेटवर्क का भांडाफोड़ हुआ है. दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने 13 दिनों में 13,000 करोड़ रुपये कीमत की कोकीन और 40 किलो हाइड्रोपोनिक थाईलैंड मारिजुआना जब्त की। इतना ही नहीं 2004 से 2014 के बीच जब्त की गई ड्रग्स का मूल्य 5,900 करोड़ रुपए था, जबकि 2014 से 2024 के बीच जब्त की गई ड्रग्स का मूल्य 22,000 करोड़ रुपये है।



दूसरी तरफ़ दुनियाँ भर में दादागिरी दिखाने वाला अमरीका जो ख़ुद को बहुत ताकतवर मानता है वहाँ ड्रग्स का खूब प्रचलन है। ज़ाहिर है ड्रग माफिया की पकड़ बहुत ऊँची है। यही हाल दुनियाँ के तमाम दूसरे देशों का है जहां इस कार्टल के विरुद्ध आवाज़ उठाने वालों को दबा दिया जाता है या ख़त्म कर दिया जाता है। चाहे वो व्यक्ति न्यायपालिका या सरकार के बड़े पद पर ही क्यों न हो।


सब जानते हैं कि इन नशीली दवाओं के सेवन से लाखों घर तबाह हो जाते है। औरतें विधवा और बच्चे अनाथ हो जाते हैं। बड़े-बड़े घर के चिराग़ बुझ जाते हैं। पर कोई सरकार चाहें केंद्र की हो या प्रांतों की इसके ख़िलाफ़ कोई  ठोस और प्रभावी कदम नहीं उठाती। 


सनातन धर्म का बड़े तीर्थ श्री जगन्नाथ पुरी हो या पश्चिमी सैलानियों के आकर्षण का केंद्र गोवा, हिमाचल प्रदेश के पर्यटक स्थल कुल्लू, मनाली हो या धर्मशाला, भोलेनाथ की नगरी काशी हो या केरल का प्रसिद्ध समुद्र तटीय नगर त्रिवेंद्रम, राजधानी दिल्ली का पहाड़गंज इलाक़ा हो या मुंबई के फार्म हाउसों में होने वाली रेव पार्टियाँ, हर ओर मादक दवाओं का प्रचलन खुले आम हो रहा है। आज से नहीं दशकों से। हर आम और ख़ास को पता है कि ये दवाएँ कहाँ बिकती हैं, तो क्या स्थानीय पुलिस और नेताओं को नहीं पता होगा। फिर ये सब कारोबार कैसे चल रहा है? जिसमें करोड़ों रुपये के वारे न्यारे होते हैं। 


नशीली दवाओं में प्रमुख हैं: अफ़ीम, पोस्त और इनसे बनने वाली मॉर्फिन, कोडीन, हेरोइन या सिंथेटिक विकल्प मेपरिडीन, मेथाडोन। इनकी भारी लोकप्रियता का कारण है कि इनके सेवन से भय, तनाव और चिंता से मुक्ति मिलती है। सदा असुरक्षा की भावना से ग्रस्त रहने वाले कलाकार और फ़िल्मी सितारों में ये इसीलिए जल्दी पैठ बना लेती हैं। इनमें से कुछ उत्पाद मेडिकल साइंस में भी चिकित्सा के लिये उपयोग किए जाते हैं। जैसे दर्द निवारक दवा बनाने के लिए। पर इस छूट का ग़लत फ़ायदा उठाकर प्रायः दवा कंपनियाँ नशीली दवाओं के नेटवर्क का हिस्सा बन जाती हैं और अरबों रुपया कमाती हैं। ऐसे में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि इस व्यापार को करने वाले न सिर्फ़ क़ानून का उल्लंघन कर रहे हैं बल्कि एक सामाजिक और नैतिक संकट को भी जन्म दे रहे हैं। ऐसे में यदि सरकार और संबंधित एजेंसियाँ सख़्ती नहीं दिखाएँगी तो ऐसे अपराध और अपराधी बढ़ते ही जाएँगे। 


ये सब बंद हो सकता है अगर केंद्रीय और प्रांतीय सरकारें अपने क़ानून कड़े बनायें और उन्हें सख्ती से लागू करें। अगर हर ज़िले के पुलिस अधीक्षक को ये आदेश मिले कि उसके ज़िले में ड्रग्स की बिक्री होती पायी गयी तो उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया जाएगा।फिर देखिए कैसे नशीली दवाओं का व्यापार बंद होता है। पर देश के जनता के हित में  ऐसा सोचने वाले नेता हैं ही कहाँ? अगर होते तो तपोभूमि भारत उड़ता भारत कैसे बनती ?  

Monday, October 9, 2023

भारत पाकिस्तान बटवारे के बुजुर्गों को वीज़ा दें


आज़ादी मिले 75 साल हो गये। उस वक्त के चश्मदीद गवाह बच्चे या जवान आज 80 साल से लेकर  100 की उम्र के होंगे, जो इधर भी हैं और उधर भी। बँटवारे की सबसे ज़्यादा मार पंजाब ने सही। ये बुजुर्ग आज तक उस खूनी दौर को याद करके सिहर जाते हैं। भारत के हिस्से में आए पंजाब से मुसलमानों का पलायन पाकिस्तान की तरफ़ हुआ और पाकिस्तान में रह रहे सिक्खों और हिंदुओं का पलायन भारत की तरफ़ हुआ। ऐसा कोई परिवार नहीं है जिसने अपने घर के दर्जनों बच्चे, बूढ़े और औरतों को अपनी आँखों के सामने क़त्ल होते न देखा हो। इस क़त्लेआम में जो बच गए, वो आज तक अपने सगे-संबंधियों को याद करके फूट-फूट कर रोते हैं। दोनों मुल्कों में मिला कर ऐसे लोगों की संख्या कुछ हज़ारों में है। 


जबसे करतारपुर साहिब कॉरिडोर खुला है तबसे अब तक सैंकड़ों ऐसे परिवार हैं जो 70 साल बाद अपने बिछड़े परिवार जनों से मिल पाये हैं। पर ये मुलाक़ात कुछ घंटों की ही होती है और इसके पीछे उन नौजवानों की मशक़्क़त है जो दोनों ओर के पंजाब में ऐसे बुजुर्गों के इंटरव्यू यूट्यूब पर डाल कर उन्हें मिलाने का काम कर रहे हैं। प्रायः ऐसे सारे इंटरव्यू ठेठ पंजाबी में होते हैं। फिर भी अगर आप ध्यान से सुने तो उनकी भाषा में ही नहीं उनकी आँखों और चेहरे का दर्द देख कर आपके आंसू थमेंगे नहीं। करतारपुर साहिब में जब इन परिवारों की 3-4 पीढ़ियाँ मिलती हैं तो उनका मिलन इतना हृदयविदारक होता है कि आसमान भी रो दे। एक ही परिवार के आधे सदस्य इधर के सिक्ख बने और उधर के मुसलमान बने।   



इन सब बुजुर्गों और इनके परिवारों की एक ही तमन्ना होती है कि दोनों देशों की सरकारें, कम से कम इन बुजुर्गों को लंबी अवधि के वीज़ा दे दें, जिससे ये एक दूसरे के मुल्क में जा कर अपने बिछड़े परिवारों के साथ ज़िंदगी के आख़िरी दौर में कुछ लम्हे बिता सकें। जिसकी तड़प ये सात दशकों से अपने सीने में दबाए बैठे हैं। हम सब जानते हैं कि नौकरशाही और राजनेता इतनी आसानी से पिघलने वाले नहीं। पर सोचने वाली बात यह है कि 80 वर्ष से ऊपर की उम्र वाला कोई बूढ़ा पुरुष या महिला, क्या किसी भी देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा हो सकता है? जिसने ज़िंदगी भर बटवारे का दर्द सहा हो और हज़ारों, लाखों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतरते देखा हो, वो उम्र के इस पड़ाव पर आतंकवादी क़तई नहीं हो सकता। इसलिए दोनों देशों की सरकारों को अपने-अपने देश के अख़बारों में विज्ञापन निकाल कर ऐसे सब बुजुर्गों से आवेदन माँगने चाहिए और उन्हें अविलंब प्रोसेस करके एक-दूसरे के मुल्क में जाने का कम से कम एक महीने का वीज़ा मुहैया करवाना चाहिए। 


आज के माहौल में जब सांप्रदायिकता की आग में दुनिया के कई देश झुलस रहे हैं, तब भारत और पाकिस्तान सरकार का ये मानवीय कदम एक अंतर्राष्ट्रीय मिसाल बन सकता है। इससे समाज में एक नयी चेतना का विस्तार हो सकता है। क्योंकि आज का मीडिया और राजनेता चाहें सरहद के इस पार हों या उस पार सांप्रदायिक आग को भड़काने का काम कर रहे हैं। ऐसे में जब दोनों मुल्कों की नई पीढ़ी जब इन बुजुर्गों से विभाजन के पूर्व के माहौल की कहानियाँ सुनेगी तो उसकी आँखें खुलेंगी। क्योंकि उस दौर में हिंदू, सिक्ख और मुसलमानों के बीच कोई भी वैमनस्य नहीं था। सब एक दूसरे के ग़म और ख़ुशी में दिल से शामिल होते थे और एक दूसरे की मदद करने को हर वक्त तैयार रहते थे। विभाजन की कहानियाँ दिखाने वाले दोनों मुल्कों के इन यूट्यूब चैनलों पर जब आप इन बुजुर्गों की कहानियाँ सुनेंगे तो आपको आश्चर्य होगा कि इतनी प्यार मौहब्बत से रहने वाले इन लोगों के बीच ऐसी हैवानियत अचानक कैसे पैदा हो गई कि वो एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये? ये बुजुर्ग बताते हैं कि इस माहौल को ख़राब करने का काम उस वक्त के फ़िरक़ापरस्त राजनैतिक संगठनों और उनके नेताओं ने किया। जबकि आख़िरी वक्त तक दोनों ओर के हिंदू, मुसलमान और सिक्ख, इस तसल्ली से बैठे थे कि हुकूमत बदल जाएगी पर उनका वतन उनसे नहीं छिनेगा। जो अपने घर, दुकान और खेत खलिहान छोड़ कर भागे भी तो इस विश्वास के साथ कि अफ़रा-तफ़री का ये दौर कुछ हफ़्तों में शांत हो जाएगा और वे अपने घर लौट आएँगे। पर ये हो न सका। 



उन्हें एक नए देश में, नए परिवेश में, नए पड़ोसियों के बीच शरणार्थी बनकर रहना पड़ा। जिनके घर दूध दही की नदियाँ बहती थी, उन्हें मेहनत करके, रेहड़ी लगा कर या ज़मीदारों के खेतों में मज़दूरी करके पेट पालना पड़ा। इन लोगों के ख़ौफ़नाक अनुभव पर दोनों मुल्कों में बहुत फ़िल्में बन चुकी हैं। लेख और उपन्यास लिखे जा चुके हैं और सद्भावना प्रतिनिधि मंडल भी एक दूसरे के देशों में आते-जाते रहे। पर उन्होंने जो झेला वो इतना भयावह था कि उस पीढ़ी के जो लोग अभी भी ज़िंदा बचे हैं वो आज तक उस मंजर को याद कर नींद में घबरा कर जाग जाते हैं और फूट-फूट कर रोने लगते हैं।



कई कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें 85 या 90 साल के बुजुर्ग अपने परिवारजनों के साथ अपने पैतृक गाँव, शहर या घर देखने पाकिस्तान या भारत आते हैं। वहाँ पहुँचते ही इनका फूलों, मालाओं और नगाड़ों से स्वागत होता है। वहाँ कभी-कभी उन्हें हमउम्र साथी मिल जाते हैं। तब बचपन के बिछड़े ये दो यार एक दूसरे से लिपट कर फूट-फूट कर रोते हैं। फिर इन्हें इनके बचपन का स्कूल, पड़ौस व इनका घर दिखाया जाता है। जहां पहुँच कर ये अतीत की यादों में खो जाते हैं। वहाँ रहने वाले परिवार से पूछते हैं कि क्या उनके माता-पिता की कोई निशानी आज भी उनके पास है? इनकी भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ता है जब इन्हें वो चक्की दिखाई जाती है, जिस पर इनकी माँ गेहूं पीसती थीं या इनके पिता के कक्ष में रखी लोहे की वो भारी तिजोरी दिखाई जाती है, जो आज भी काम आ रही है। ये उस घर की ऐसी निशानी और आँगन की मिट्टी उनसे माँग लेते हैं, ताकि अपने देश लौट कर अपने परिवार को दिखा सकें। मौक़ा मिले तो आप भी इन कहानियों को देखिएगा और सोचिएगा कि साम्प्रदायिकता या मज़हबी उन्माद में मारे तो आम लोग जाते हैं पर सत्ता का मज़ा वो उड़ाते हैं जो इस आग को भड़काते ही इसलिए हैं कि उन्हें सत्ता पानी है। धर्म और मज़हब तो उनके इस लक्ष्य तक पहुँचने की सीढ़ी मात्र होती है। हम किसी भी धर्म या मज़हब के मानने वाले क्यों न हों, इन फ़िरक़ापरस्ती ताक़तों से सावधान रहना चाहिए, इसी में हमारी भलाई है। 1947 का बँटवारा यही बताता है। 

Monday, November 7, 2022

हर साल जहरीली धुंध से क्यों घिर जाता है एनसीआर?


हर साल दिवाली के आसपास पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा पराली जलाने से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र जहरीली धुंध से घिर जाता है। हमेशा की तरह इस साल भी इस धुंध ने यहाँ के रहने वालों के होश उड़ा दिए हैं। दिल्ली और उसके नजदीकी दूसरे शहरों में हाहाकार मचा हुआ है। आंखों को उंगली से रगड़ते और खांसते लोगों की तदाद बढ़ती जा रही है। सबसे ज़्यादा ख़तरा तों छोटे बच्चों के लिये हो गया है। केंद्र और दिल्ली सरकार किमकर्तव्य विमूढ़ हो गई है। वैसे यह कोई पहली बार नहीं है। कई साल पहले 1999 में ऐसी ही हालत दिखी थी। तब क्या सोचा गया था और अब क्या सोचना चाहिए? इसकी जरूरत एक बार फिर से आन पड़ी है।


पर्यावरण विशेषज्ञ, नेता और संबंधित सरकारी विभागों के अफसर हर साल की तरह इस साल भी इस समस्या को लेकर सिर खपा रहे हैं।उन्होंने अब तक के अपने सोच विचार का नतीजा यह बताया है कि खेतों में फसल कटने के बाद जो ठूंठ बचते हैं उन्हें खेत में जलाए जाने के कारण ये धुंआ बना है जो एनसीआर के उपर छा गया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि यह तो हर साल ही होता है तो नए जवाबों की तलाश क्यों हो रही है? 



दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण को हम कई सालों से सुनते आ रहे हैं। एक से एक सनसनीखेज वैज्ञानिक रिपोर्टो की बातों को हमें भूलना नहीं चाहिए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा करकट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया। सरकार यही सोचने में लगी है कि यह पूरा का पूरा कूड़ा कहां फिंकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तार यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को चोरी छुपे जलाने के अलावा और क्या चारा बचता होगा? इस गैरकानूनी हरकत से उपजे धुंए और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है इसका कोई हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं लगाया जा रहा है।


हवा के माणकों में 0-50 के बीच एक्यूआई को ‘अच्छा’, 51-100 को ‘संतोषजनक’, 101-200 को ‘मध्यम’, 201-300 को ‘खराब’, 301-400 को ‘बहुत खराब’ और 401-500 को ‘गंभीर’ श्रेणी में माना जाता है। पिछले गुरुवार सुबह छह बजे ही दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) 408 के खतरनाक स्तर पर पहुंच गया।यानि भयावह स्तर का प्रदूषण था। इसी से इस समय की गम्भीरता का अनुमान लगाया जा सकता है।


सांख्यिकी की एक अवधारणा है कि कोई भी प्रभाव किसी एक कारण से पैदा नहीं होता। कई कारण अपना-अपना प्रभाव डालते हैं और वे जब एक साथ जुड़कर प्रभाव दिखने लायक मात्रा में हो जाते हैं तो वह असर अचानक दिखने लगता है। दिल्ली में रिकार्ड तोड़ती जहरीली धुंध इसी संचयी प्रभाव का नतीजा हो सकती है। खेतों में ठूंठ जलाने का बड़ा प्रभाव तो है ही लेकिन चोरी छुपे घरों से निकला कूड़ा जलाना, दिल्ली में चकरडंड घूम रहे वाहनों का धुंआ उड़ना, हर जगह पुरानी इमारतों को तोड़कर नई-नई इमारते बनते समय धूल उड़ना, घास और हिरयाली का दिन पर दिन कम होते जाना और ऐसे दर्जनों छोटे बड़े कारणों को जोड़कर यह प्राणांतक धुंध तो बनेगी ही बनेगी।



इस समस्या को लेकर होने वाली आपात बैठकें सोच विचार कर बड़ा रोचक नतीजा निकालती हैं। खासतौर पर लोगों को यह सुझाव कि ज्यादा जरूरत न हो तो घर से बाहर न निकलें। इस सुझाव की सार्थकता को विद्वान लोग ही समझ और समझा सकते हैं। वे ही बता पाएंगे कि क्या यह सुझाव किसी समाधान की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक कार्रवाई सरकार ने यह की है कि कुछ दिनों के लिए निर्माण कार्य पर रोक लगा दी है। सिर्फ निर्माण कार्य का धूल धक्कड़ ही तो भारी होता है जो बहुत दूर तक ज्यादा असर नहीं डाल पाता। कारों पर ओड-ईवन की पाबंदी फौरन लग सकती थी। लेकिन हाल का अनुभव है कि यह योजना कुछ अलोकप्रिय हो गई थी। सो इसे फौरन फिर से चालू करने की बजाए आगे के सोच विचार के लिए छोड़ दिया गया। हां कूड़े कचरे को जलाने पर कानूनी रोक को सख्ती से लागू करने पर सोच विचार हो सकता था। लेकिन इससे यह पोल खुलने का अंदेशा रहता हे कि यह कानून शायद सख्ती से लागू हो नहीं पा रहा है। साथ ही यह पोल खुल सकती थी कि ठोस कचरा प्रबंधन का ठोस काम दूसरे प्रचारात्मक कामों की तुलना में ज्यादा खर्चीले हैं।


बहरहाल अभी तक व्यवस्था के किसी भी विभाग या स्वतंत्र कार्यकर्ताओं की तरफ से कोई भी ऐसा सुझाव सामने नहीं आया है जो जहरीले धुंध का समाधान देता हो। वैसे भी भाग्य निर्भर होते जा रहे भारतीय समाज में हमेशा से भी कुदरत का ही आसरा रहा है। उम्मीद लगाई जा सकती है कि हवा चल पड़ेगी और सारा धुंआ और ज़हरीली धुंध उड़ा कर कहीं और ले जाएगी। यानी अभी जो अपने कारनामों के कारण राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्रों में जहरीला धुंआ उठ  रहा है उसे शेष भारत से आने वाली हवाएं हल्का कर देंगी और आगे भी करती रहेंगी।ये शेख़चिल्ली के सपने जैसा है। 


वक्त के साथ हर समस्या का समाधान खुद ब खुद हो ही जाता है यह सोचने से हमेशा ही काम नहीं चलता। जल,जंगल और जमीन का बर्बाद होना शुरू हो ही गया है । अब हवा की बर्बादी का शुरू होना एक गंभीर चेतावनी है। ये ऐसी बर्बादी है कि यह अमीर गरीब का फर्क नहीं करेगी। महंगा पानी और महंगा आर्गनिक फूड धनवान लोग खरीद सकते हैं। लेकिन साफ हवा के सिलेंडर या मास्क या एअर प्यूरीफायर वायु प्रदूषण का समाधान दे नहीं सकते। इसीलिए सुझाव है कि विद्वानों और विशेषज्ञों को समुचित सम्मान देते हुए उन्हें विचार के लिए आमंत्रित कर लिया जाए। खासतौर पर फोरेंसिक साइंस की विशेष शाखा यानी विष विज्ञान के विशेषज्ञों का समागम तो फौरन ही आयोजित करवा लेना चाहिए। यह समय इस बात से डरने का नहीं है कि वे व्यवस्था की खामियां गिनाना शुरू कर देंगे। जब सरकारें खामियां जानने से बचेंगी तो समाधान कैसे ढूंढेंगे? 

Monday, January 10, 2022

प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक


प्रधान मंत्री मोदी के क़ाफ़िले के साथ जो फ़िरोज़पुर में हुआ उससे कई सवाल उठते हैं। इस घटना का संज्ञान अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी लिया है। घटना की जाँच होगी और पता चलेगा चूक कहाँ हुई। लेकिन इस बीच सोशल मीडिया पर तमाम तरह के विश्लेषण भी आने लग गए हैं। इसमें ऐसे कई पत्रकार हैं जो काफ़ी समय से गृह मंत्रालय को कवर करते आए हैं। उनका गृह मंत्रालय के उच्च अधिकारियों से अच्छा संपर्क होता है। उसी संपर्क के चलते कुछ पत्रकारों प्रधान मंत्री की सुरक्षा के लिए गठित स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रूप ‘एसपीजी’ की कार्यप्रणाली से सम्बंधित सवाल भी उठाए हैं। दूसरे पंजाब सरकार को ही दोषी बता रहे हैं।
 



विभिन्न राजनैतिक दलों ने भी इस घटना की निंदा करते हुए पंजाब की सरकार व केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश की है। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि इस घटना को लेकर अभी तक किसी भी तरह की कोई औपचारिक घोषणा नहीं हुई है। 


आरोप प्रत्यारोप के बीच पंजाब के मुख्य मंत्री ने अपनी सफ़ाई भी दे डाली है। आनन-फ़ानन में फ़िरोज़पुर के एसएसपी को सस्पेंड कर दिया गया है।उधर सोशल मीडिया पर कई तरह के विडीयो भी सामने आ रहे हैं। जहां भाजपा का झंडा लिए हुए कुछ लोग ‘मोदी ज़िंदाबाद’ के नारे लगाते हुए दिखाई दे रहे हैं और एसपीजी वाले चुप-चाप खड़े हैं। कुछ लोगों का तो यह तक कहना है कि प्रधान मंत्री बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के लाहोर चले गए तो उनकी जान कोई ख़तरा नहीं था। लेकिन अचानक उनके रास्ते में एक किलोमीटर आगे किसान आ गए तो उनकी जान को ख़तरा कैसे हो गया? औपचारिक घोषणा के न होने से अटकलों का बाज़ार गर्म होता जा रहा है। ऐसे में एक गम्भीर घटना भी मज़ाक़ बन कर रह जाती है। चूक कहाँ हुई इसकी जानकारी नहीं मिल पा रही। 


वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया पर कुछ ऐसी जानकारी भी साझा की जा रही है जहां पूर्व प्रधान मंत्रियों पर हुए ‘हमले’ के विडीयो भी सामने आए हैं। फिर वो चाहे इंदिरा गांधी के साथ हुई भुवनेश्वर की घटना हो या राजीव गांधी पर राजघाट पर हुए हमले की हो या फिर मनमोहन सिंह पर अहमदाबाद में जूता फेंके जाने की घटना हुई हो। इन में से किसी भी घटना में किसी भी प्रधान मंत्री ने अपना कार्यक्रम रद्द नहीं किया। बल्कि उनकी सुरक्षा में तैनात कमांडो ने बहुत फुर्ती दिखाई। फ़िरोज़पुर की घटना के बाद एक न्यूज़ एजेंसी के हवाले से ऐसा पता चला है कि प्रधान मंत्री ने एक अधिकारी से कहा कि अपने सीएम को थैंक्स कहना कि मैं ज़िंदा लौट पाया। ये अधिकारी कौन है इसकी पुष्टि अभी तक नहीं हुई है, क्योंकि उस अधिकारी द्वारा ऐसा संदेश औपचारिक रूप से नहीं भिजवाया गया। लेकिन घटना के बाद से ही यह लाइन काफ़ी प्राथमिकता से मीडिया में घूमने लग गई। जिससे आम जनता में एक अलग ही तरह का संदेश जा रहा है। 


फ़रवरी 1967 में जब चुनावी रैली के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी भुवनेश्वर पहुँची तो वहाँ की उग्र भीड़ में से एक ईंट आ कर उनकी नाक पर लगी और खून बहने लगा। इंदिरा गांधी ने अपनी नाक से बहते हुए खून को अपनी साड़ी से रोका और अपनी चुनावी सभा पूर्ण की। उस सभा में उन्होंने उपद्रवियों से कहा, ‘ये मेरा अपमान नहीं है बल्कि देश का अपमान है। क्योंकि प्रधान मंत्री के नाते मैं देश का प्रतिनिधित्व करती हूं।’ इस घटना ने भी उनके चुनावी दौरे में परिवर्तन नहीं होने दिया और वे भुवनेश्वर के बाद कलकत्ता भी गयीं। उन्होंने अपने पर हुए हमले के बाद ऐसा कोई भी बयान नहीं दिया कि ‘मैं ज़िंदा लौट पाई!’। बल्कि एक समझदार राजनीतिज्ञ के नाते उन्होंने इस घटना को एक ‘मामूली घटना’ बताते हुए कहा कि चुनावी सभाओं ऐसा होता रहता है। 


अब फ़िरोज़पुर की घटना को लें तो प्रधान मंत्री के क़ाफ़िले से काफ़ी आगे किसानों का एक शांतिपूर्ण धरना चल रहा था। प्रधान मंत्री मोदी अपनी गाड़ी में बैठे हुए थे और क़रीब 20 मिनट तक उन्हें रुकना पड़ा। न तो कोई भी प्रदर्शनकारी उनकी गाड़ी तक पहुँचा और न ही उन पर किसी भी प्रकार का हमला हुआ। इतनी देर तक प्रधान मंत्री को एक फ़्लाईओवर पर खड़े रहना पड़ा इसकी जवाबदेही तो एसपीजी की है। क्योंकि सुरक्षा के जानकारों के मुताबिक़ प्रधान मंत्री की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी एसपीजी की है न कि किसी भी राज्य पुलिस की। प्रधान मंत्री के क़ाफ़िले में कई गाड़ियाँ उनकी गाड़ी से आगे भी चलती हैं। अगर एसपीजी को प्रदर्शन की जानकारी लग गई थी तो प्रधान मंत्री की गाड़ी को आगे तक आने क्यों दिया गया? दिल्ली में जब भी प्रधान मंत्री का क़ाफ़िला किसी जगह से गुजरता है तो जनता को काफ़ी दूर तक और देर तक रोका जाता है। इसका मतलब एसपीजी इसे सुनिश्चित कर लेती है कि कोई भी प्रधान मंत्री के क़ाफ़िले के मार्ग में नहीं आएगा। 


यहाँ एक बात कहना चाहता हूँ जिसे मैंने भी अपने ट्विटर पर प्रधान मंत्री को सम्बोधित करते हुए लिखा है। अच्छा होता कि प्रधान मंत्री एसपीजी से कह कर प्रदर्शन करने वालों के एक प्रतिनिधि को अपने पास बुलवाते और उससे बात करते। इससे किसानों के बीच एक अच्छा संदेश जाता और आने वाले चुनावों में भी शायद इसका फ़ायदा मिलता। एक साल तक प्रदर्शन करते किसानों से तो आप मिले नहीं। अगर एक छोटे से समूह के प्रतिनिधि से मिल लेते तो सोशल मीडिया पर चल रहे मेघालय के राज्यपाल श्री सत्यपाल मालिक द्वारा आपके मेरे लिए थोड़ी मरे वाले बयान पर थोड़ी मरहम लग जाती। पर देश के प्रधानमंत्री के मुँह से मैं ज़िंदा बच कर लौट आया जैसा बयान किसी के गले नहीं उतर रहा। विपक्ष इसे नौटंकी और सत्ता पक्ष जान लेवा साज़िश बता रहा है। ये बयान प्रधानमंत्री के पद की गरिमा के अनुरूप नहीं था।

Monday, July 26, 2021

पंजाब : बँटवारे के ज़ख़्म आज भी हरे हैं


हिंदुस्तान-पाकिस्तान बँटवारे को 74 वर्ष हो गए। पर इसके ज़ख़्म आज भी हरे हैं। इस बँटवारे की सबसे ज़्यादा मार सीमा के दोनो तरफ़ रहने वालों ने झेली। दोनो तरफ़ के सिख, हिंदू व मुसलमान बँटवारे की आग में झुलसे। उनके परिजनों की नृशंस हत्याएँ हुई। उनकी बहू-बेटियों की इज़्ज़त लुटी या उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन करा कर अनचाहे विवाह के बंधन में बंधना पड़ा। भई-बहन, माँ-बाप, बेटे-बेटी भगदड़ में बिछुड़ गए। उनके घर-बार, खेत-खलियान व दुकान-कारोबार पीछे छूट गए। उन्हें एक नए देश में, नए परिवेश में, नए पड़ोसियों के बीच शरणार्थी बनकर रहना पड़ा। जिनके घर दूध दही की नदियाँ बहती थी, उन्हें मेहनत करके, रेहड़ी लगा कर या ज़मीदारों के खेतों में मज़दूरी करके पेट पालना पड़ा। इन लोगों के ख़ौफ़नाक अनुभव पर दोनों मुल्कों में बहुत फ़िल्में बन चुकी हैं। लेख और उपन्यास लिखे जा चुके हैं और सद्भावना प्रतिनिधि मंडल भी एक दूसरे के देशों में आते-जाते रहे। पर उन्होंने जो झेला वो इतना भयावह था कि उस पीढ़ी के जो लोग अभी भी ज़िंदा बचे हैं वो आज तक उस मंजर को याद कर नींद में घबरा कर जाग जाते हैं और फूट-फूट कर रोने लगते हैं।
 


दोनों देशों की सरकारें और सामाजिक सरोकार रखने वाले लोग भी इनका दुःख दूर नहीं कर पाए हैं। यह काम किया है दोनो देशों के टीवी मीडिया में काम करने वाले कुछ उत्साही नौजवानों ने। इनमें ख़ासतौर पर हिंदुस्तान से 47नामा, केशु मुलतानी की केशु फ़िल्मस, धरती देश पंजाब दियाँ और पाकिस्तान से संताली दी लहर, पंजाबी लहर, एक पिंड पंजाब दा, मौहम्मद सरफ़राज़ व मौहम्मद आलमगीर के नाम उल्लेखनीय है। इसके लिए उन्हें किसी टीवी चैनल या सरकार से कोई मदद नहीं मिली। ये प्रयास उन्होंने अपनी पहल, पर थोड़े बहुत साधन जुटा कर किया और इतनी सफलता पाई कि आज हमारे दो देशों के बीच ही नहीं बल्कि कनाडा, इंगलेंड, जर्मनी, औस्ट्रेलिया या अमरीका तक में इनके काम की भरपूर प्रशंसा हो रही है। यूट्यूब पर इनकी रिपोर्टस के लाखों दर्शक हैं। जबकि ये रिपोर्ट ऊँची लागत, तकनीकी कारीगरी और महंगे उपकरणों के बिना, प्रायः साधाहरण कैमरों या स्मार्टफ़ोन की मदद से बनाई गई हैं। बावजूद इसके इनकी विषय वस्तु इतनी गहरी है कि देखने वाला देखता ही रह जाता है। 20-25 मिनट की ये रिपोर्ट जब अपने क्लाइमैक्स तक पहुँचती हैं, देखने वाला बरबस आंसू बहाने लगता है। इनकी भाषा पंजाबी, हिंदी, झाँगी, हरियाणवी व मुलतानी है। 


इन नौजवानों ने पिछले कुछ सालों में भारत, पाकिस्तान सहित उन सभी देशों में अनौपचारिक रूप से अपना जाल बिछा लिया है, जिन देशों में बँटवारे के विस्थापित रहते हैं। ये लड़के सिख, हिंदू या मुसलमान हैं पर इनके दिल में इंसान बसता है। साम्प्रदायिकता या फ़िरक़ापरस्ती की घिनौनी दीवारों की लांघ कर ये नौजवान उन लोगों तक पहुँचे हैं, जिन्होंने बँटवारे का दंश झेला था और वो आज भी ज़िंदा हैं। ज़ाहिर है 74 साल पहले की उस त्रासदी के चश्मदीदों में वही अपनी यादें साझा कर सकते हैं, जिनकी उम्र 1947 में कम से कम दस वर्ष की रही होगी। यानी आज उनकी उम्र 84 के पार है। ऐसे लोग उँगलियों पर गिने जा सकते हैं पर फिर भी इनकी संख्या बहुत है। अकेले केशु ने 600 ऐसे लोगों के साक्षात्कार रिकॉर्ड किए हैं जो आज अपने नाती पोतों के साथ सुख से रह रहे हैं। 


ऐसे लोगों को ये लड़के पहले सोशल मीडिया की मदद से ढूँढते थे। पर आज इनके पास अलग अलग देशों से फ़ोन या ईमेल आते हैं कि हमारे बुजुर्ग का इंटरव्यू भी कर लें। फिर अपने खर्चे पर, तकलीफ़ उठा कर उन तक पहुँचते हैं और उनके इंटरव्यू रिकॉर्ड करते हैं। इस कवायद का सबसे सुखद क्षण वो होता है जब यूट्यूब पर इन साक्षात्कारों को देख कर और उनसे उनके मूल परिवारों का विवरण सुनकर उनके बिछड़े परिवारजन, किसी दूसरे देश में बैठे, इन्हें पहचान लेते हैं। फिर ‘यादों की बारात’ आगे बढ़ती है और दोनों ओर के परिवार एक दूसरे से मिलने को बेचैन हो जाते हैं। फिर उनकी रोज़ाना घंटों चलने वाली विडीओ कॉल्ज़ का सिलसिला शुरू हो जाता है। इस कहानी का क्लाइमैक्स तो तब होता है जब ये दो परिवार आपस में मिलते हैं। उस क्षण की कल्पना कीजिए जब दो बहनें 1947 में अलग हुईं और 72 साल बाद मिलीं। उनमें से कनाडा वाली बहन सिख है और पाकिस्तान वाली बहन मुसलमान। अब दोनों के बच्चे अपने मौसेरे भाई-बहनों से मिलने को बेताब हैं। 


कई कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें 85 या 90 साल के बुजुर्ग अपने परिवारजनों के साथ अपने पैतृक गाँव, शहर या घर देखने पाकिस्तान या भारत आते हैं। वहाँ पहुँचते ही इनका फूलों, मालाओं और नगाड़ों से स्वागत होता है। वहाँ कभी-कभी उन्हें हमउम्र साथी मिल जाते हैं। तब बचपन के बिछड़े ये दो यार एक दूसरे से लिपट कर फूट-फूट कर रोते हैं। फिर इन्हें इनके बचपन का स्कूल, पड़ौस व इनका घर दिखाया जाता है। जहां पहुँच कर ये अतीत की यादों में खो जाते हैं। वहाँ रहने वाले परिवार से पूछते हैं कि क्या उनके माता-पिता की कोई निशानी आज भी उनके पास है? इनकी भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ता है जब इन्हें वो चक्की दिखाई जाती है, जिस पर इनकी माँ गेहूं पीसती थीं या इनके पिता के कक्ष में रखी लोहे की वो भारी तिजोरी दिखाई जाती है, जो आज भी काम आ रही है। ये उस घर की ऐसी निशानी और आँगन की मिट्टी उनसे माँग लेते हैं, ताकि अपने देश लौट कर अपने परिवार को दिखा सकें। मौक़ा मिले तो आप भी इन कहानियों को देखिएगा और सोचिएगा कि साम्प्रदायिकता या मज़हबी उन्माद में मारे तो आम लोग जाते हैं पर सत्ता का मज़ा वो उड़ाते हैं जो इस आग को भड़काते ही इसलिए हैं कि उन्हें सत्ता पानी है। धर्म और मज़हब तो उनके इस लक्ष्य तक पहुँचने की सीढ़ी मात्र होती है। हम किसी भी धर्म या मज़हब के मानने वाले क्यों न हों, इन फ़िरक़ापरस्ती ताक़तों से सावधान रहना चाहिए, इसी में हमारी भलाई है। 1947 का बँटवारा यही बताता है। 

Monday, April 20, 2020

कोरोना क़हर में पुलिस के जबाँजो का सहयोग करें

आज जब पूरा विश्व कोरोना की महामारी से जूझ रहा है, भारत में पुलिसवालों या कहें कोरोना के जाँबाज़ों को एक अलग ही तरह के समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इंदौर हो, पटियाला हो, मुरादाबाद हो, या राजस्थान  जिस तरह से पुलिसकर्मियों को कुछ ख़ास इलाक़ों में जाहिल लोगों के ग़ुस्से का सामना करते हुए अपना फ़र्ज़ निभाना पड़ रहा है वो क़ाबिले तारिफ़ है।

सोशल मीडिया पर आपको ऐसे कई विडियो देखने को मिलेंगे जहां पुलिसकर्मी अपने घर भी नहीं जा पा रहे हैं। यदि वो अपनी ड्यूटी करने की जगह से दोपहर का भोजन करने भी घर जाते हैं तो परिवार से दूर, खुले आँगन में ही भोजन कर तुरंत ड्यूटी पर लौट जाते हैं। उनके छोटे बच्चे उन्हें घर पर कुछ देर और ठहरने के लिए फ़रियाद करते रह जाते हैं । 

विश्व के अन्य देशों के मुक़ाबले हमारे देश में अगर कोरोना के क़हर की रफ़्तार फ़िलहाल कम है तो वो केवल मोदी जी के लाक्डाउन के इस सख़्त कदम और उसे लागू करने में इन पुलिसकर्मियों की वजह से ही है । 

सड़कों पे तैनात इन पुलिसकर्मियों को कड़ी धूप में रह कर अपनी ड्यूटी करनी पड़ रही है। कई जगह तो इनके सर पर कनात तक नहीं है। लेकिन सिर्फ़ कनात होने से काम नहीं चलता। आने वाले दिनों में पारा और ऊपर जाएगा तो पूरी बाजू की वर्दी पहन कर ड्यूटी करना इनके लिये और कठिन हो जाएगा। आपने पढ़ा होगा कि कुछ ज़ाहिल लोगों ने किस बेदर्दी से पटियाला पुलिस के अफ़सर हरजीत सिंह का हाथ काटा। ज़रा सोचें इसका क्या असर पुलिस फ़ोर्स के मनोबल पर पड़ेगा? ये घोर निंदनीय कृत्य था, जिसका पूरे समाज को ताक़त से विरोध करना चाहिये। 

हमें सोचना चाहिए कि चाहे वो महिला पुलिसकर्मी हों या पुरुष इनका योगदान हमारे जीवन की रक्षा के लिये अतुल्य है। जहां ये पुलिसकर्मी न सिर्फ़ सड़कों पर तैनात हो कर दिन रात चौकसी से अपनी ड्यूटी कर रहे हैं वहीं  जरूरतमंदों को राशन व अन्य ज़रूरी सामान भी पहुँचा रहे हैं। महिला पुलिसकर्मी अपने अपने थानों में रहकर न सिर्फ़ अपनी सामान्य ड्यूटी कर रही हैं बल्कि ज़रूरतमंदो के लिए फ़ेस मास्क भी सिल रहीं हैं। कुछ शहरों से तो ये भी खबर आई है कि पुलिसकर्मी बेज़ुबान जानवरों को भी भोजन दे रहे हैं।

इसलिये प्रधान मंत्री हों, आम लोग हों या मशहूर हस्तियाँ, आज सभी लोग बढ़-चढ़ कर इन जाँबाज़ों की खुल कर तारीफ कर रहे हैं। यहाँ तक कि कोरोना से लड़ने वाले डाक्टर भी इन पुलिसकर्मियों के सहयोग के बिना कुछ नहीं कर पाएँगे। इसलिए हम सबको, चाहे हम किसी भी धर्म या जाति के हों बिना किसी के उकसाये में आए पुलिस विभाग के इन वीरों को सम्मान देना चाहिए। जहां तक संभव हो उनकी देखभाल भी करनी चाहिये। आपके घर के पास तैनात पुलिसकर्मी को चाय-पानी पूछना तो मानवता का सामान्य तक़ाज़ा है । 

आज अगर पुलिसकर्मी अपनी ड्यूटी ठीक से न करें तो लाकडाउन के बेअसर होने में देर नही लगेगी। कौन जाने फिर हमारे देश में भी कोरोना से संक्रमित होने वालों की संख्या अमरीका से कई अधिक हो जाए। इसलिये समय की माँग ये है कि हम सब जब अपने अपने घरों में आराम से बैठे हैं तो हम से जो भी बन पड़े इन पुलिसकर्मियों का सहयोग करना चाहिए। वो सहयोग किसी भी तरह से हो सकता है। युवा साथी स्वयमसेवकों कि तरह उनसे सहयोग करें। हर मोहल्ले में प्रवेश और निकासी पर कुछ ज़िम्मेदार नागरिक भी अपनी सेवाएँ भी दे सकते हैं। अगर आपके मोहल्ले में या आसपास में कुछ मज़दूर या कामगार लोग रहते हैं तो उन्हें भोजन बाँटने में भी आप पुलिस का सहयोग करें। 

इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि अगर ये पुलिसकर्मी, जो अपनी जान खतरे में डालकर हमारी जान बचा रहे हैं, तो इनका आभार प्रकट करने के लिए हमें प्रधान मंत्री जी की अपील का इंतेज़ार न करना पड़े बल्कि हम स्वयं ही ये कार्य करें।

आज जाहिल जमातियों ने अपने लोगों में ऐसा डर फैला दिया गया है कि जो भी डाक्टर इनकी जाँच के लिए इनके इलाक़े में आ रहा है वो इन्हें गिरफ़्तार करने आए हैं, जबकि ये सत्य नहीं है। इसलिये इसी समाज के चर्चित चेहरों  को अपने समाज के लोगों से ये अपील करनी चाहिए कि वो सभी पुलिसकर्मियों और डाक्टरों का सहयोग करें और जैसा सिनेस्टार सलमान खान ने भी कहा कि ऐसा न करके वे न सिर्फ़ अपनी ही मौत का कारण बन रहे हैं बल्कि समाज के लिए भी एक बड़ा ख़तरा बनते जा रहे हैं।

जिस तरह से समाज के कई वर्गों से ग़रीबों व जरूरतमंदों को भोजन व राशन मुहैया कराया जा रहा है ठीक उसी तरह सरकार और समाज सेवी संस्थाओं को कोरोना के युद्ध में जुटे इन सिपाहियों के बारे में भी कुछ ठोस कदम उठाने चाहिये। 

ग़ौरतलब है कि 1977 में बनी जनता पार्टी की पहली सरकार ने एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया था जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों व अन्य लोगों को मनोनीत कर उनसे पुलिस व्यवस्था में वांछित सुधारों की रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया। आयोग ने काफी मेहनत करके अपनी रिपोर्ट तैयार की पर बड़े दुख की बात है कि इतने बरस बीतने के बाद भी आज तक इस रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया। इसके बाद भी कई अन्य समितियां बनी जिन्हें यही काम फिर-फिर सौंपा गया। आजतक भारतीय पुलिस की जो छवि है वो जनसेवी की नहीं अत्याचारी की रही है। लेकिन कोरोना के कहर के समय जिस तरह पुलिसकर्मी आज जनता के रक्षक के रूप में उभर के आए हैं, लगता है कि सरकार को अब पुलिस सुधार के लिए अवश्य कुछ करना चाहिए। पर लाख टके का सवाल यह है कि क्या हो यह तो सब जानते हैं, पर हो कैसे ये कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकता। अनुभव बताता है कि हर राजनैतिक दल पुलिस की मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट है। क्योंकि पूरा पुलिस महकमा राजनेताओं की जागीर की तरह काम कर रहा है। जनता की सेवा को प्राथमिकता मानते हुए नहीं। फिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?

Monday, January 23, 2017

आरक्षण मसला ठेठ राजनीतिक हो जाना

उ.प्र. चुनाव के पहले आरक्षण की बात उठाए जाने का मतलब क्या है| वैसे अब इस पर ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसमें कोई शक नहीं कि इस मुददे को अभी भी संवेदनशील समझा जा रहा है। कौन नहीं जानता कि आरक्षण जैसा मुददा बार-बार उठा कर सामान्य श्रेणी के लोगों को लुभाने की कोशिश हमेशा से होती रही है। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि ऐसे मुददों के बार-बार इस्तेमाल होने से उनकी धार कुंद पड़ जाती है। शायद इसीलिए तमाम कोशिशों के बावजूद इस बार आरक्षण की बात ने उतना तूल नहीं पकड़ा जितना यह मुद्दा तुल पक़ता था फिर भी जब बात उठी ही है तो आज के परिप्रेक्ष्य में इसे एक बार फिर देख लेने में हर्ज नहीं है।


बिहार चुनाव के पहले भी ऐसी ही बातें उठी थीं। लेकिन इस मुद्दे का इस्तेमाल करने वालों के हाथ कुछ नहीं आया था। बल्कि यह विश्लेषण किया गया था कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी को इससे नुकसान हुआ। हालांकि राजनीति में यह हिसाब लगाना बड़ा मुश्किल होता है कि किस बात से कितना नुकसान हुआ या कितना फायदा हुआ। लिहाजा अब उ.प्र. चुनाव के पहले इसके नफे नुकसान का अनुमान लगाया जाने लगा है।


भले ही कुछ वर्षों से आरक्षण को लेकर खुलेआम राजनीति होने लगी हो लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि यह मुददा राजनीति की बजाए सामाजिक ही ज्यादा है। यानी इसपर सोचविचार भी सामाजिक व्यवस्था के गुणदोष लिहाज से होना चाहिए। लेकिन यहां दुर्भाग्य यह है कि सामाजिक मुददों पर विचार विमर्श होना बंद हो चला है। इसीलिए ऐसे मुददों पर बात तभी उठती है जब राजनीतिक जरूरत पड़ती है। सो पहले बिहार और अब उ.प्र. के चुनाव के पहले की बात उठी है। चालिए राजनीति के बहाने ही सही अगर इस पर सोचने का मौका पैदा हुआ है तो इस मौके का फायदा उठाया जाना चाहिए।


नौकरियों में और शिक्षा में आरक्षण अगर एक संवैधानिक व्यवस्था है तो हमें यह क्यों नहीं मान लेना चाहिए कि इस पर खूब सोचविचार के बाद ही इसे स्वीकार किया गया होगा। हर बार इकन्ना एक से गिनती गिनना हमारी नीयत पर शक पैदा करने लगेगा। जाहिर है कि मौजूदा परिस्थिति को सामने रखकर और आगे की बात सोचते हुए इस पर बात होनी चाहिए। इस दृष्टि से देखें तो इस समय आरक्षण के औचित्य पर चर्चा करना एक ही बात को बार-बार दोहराना ही होगा। हां आरक्षण की व्यवस्था से होने वाले लाभ हाानि की समीक्षा होते रहने के औचित्य को कोई नहीं नकारेगा। इस संवैधानिक व्यवस्था को कब तक बनाए रखना है इस पर भी शुरू में ही सोच लिया गया था। इस तरह से हम कह सकते हैं आज हमें सिर्फ इतना भर देखने की इजाजत है कि क्या आरक्षण की व्यवस्था ने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है|


आरक्षण की व्यवस्था का लक्ष्य हासिल हो चुका है या नहीं इसकी नापतौल जरा मुश्किल काम है। जब तक इसकी नापतौल का इंतजाम नहीं हो जाता तब तक कोई निर्णायक बात हो ही नहीं सकती। यानी आज अगर आगे की बात करना हो तो सबसे पहले यह बात करना होगी कि आजादी के बाद से आज तक हम सामाजिक रूप् से वंचित वर्ग को समानता के स्तर पर लाने के लिए कितना कर पाये। जब यह हिसाब लगाने बैठेंगे तो पूरे देश को एक समाज के रूप् में सामने रखकर हिसाब लगाना पडे़गा।


आज जब जाति और धर्म या बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों को अलग अलग करके देखना शुरू करते हैं तो भेदभाव देखने और मिटाने की बात तो पीछे छूट जाती है और राजनीतिक लालच आना स्वाभाविक हो जाता है। राजनीति में यह ऐसी कालजयी कुप्रवृत्ति है जिससे बचकर रहना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल दिख रहा है। वैसे भी जब राजनीति तात्कालिक लाभ तक सीमित हो गई हो तब तो और भी ज्यादा मुश्किल है। इसीलिए विद्वान लोग सुझाव देते हैं कि आरक्षण जैसे मुददे को सामाजिक विषय मानकर चलना चाहिए। लेकिन समस्या ऐसा मानकर चलने में भी है।


आरक्षण को सामाजिक विषय मानकर चलते हैं तो यह पता चलता है कि सामाजिक भेद भाव की जड़ आर्थिक है। खासतौर पर भारतीय समाज में सदियों से सामाजिक भेदभाव की शुरूआत आर्थिक आधार पर ही होती रही है। यहीं पर राजनीति के बीच में कूद पड़ने के मौके बन जाते है। आखिर हर राजनीतिक प्रणाली का एक यही तो ध्येय होता है कि उसके हर शासित की न्यूनतम आवश्यकताएं सुनिश्चित हों। इसीलिए हर राजनीतिक प्रणाली समवितरण करने का वायदा करती है। इस तरह से यह सिद्ध होता है कि आरक्षण जैसे सामाजिक मुददे का राजनीतिकरण होना अपरिहार्य है।


 अगर यह राजनीतिक मुददा बनता ही है तो अब हमें बस यह देखना है कि न्याय संगत क्या है। वैसे भी राजनीति  नीतियां तय करने का उपक्रम है। लेकिन हर लोकतांत्रिक व्यवस्था में ये नीतियां नैतिकता को घ्यान में रखकर बनाई जाती हैं। इसीलिए हमने सभी को समान अवसर देने की बात करते समय इस बात पर सबसे ज्यादा गौर किया था कि अपनी ऐतिहासिक भूलों के कारण जाति के आधार पर जिन लोगों का हजारों साल से शोषण होता रहा है और समान विकास से वंचित किए गए है उन्हें कुछ विशेष सुविधाएं देकर समान स्तर पर लाने का प्रबंध करें। अब बस यह हिसाब लगाना है कि क्या हजारों साल से वंचित रखे गए सामाजिक वर्ग इन पांच छह दशकों में बराबरी का स्तर हासिल कर चुके हैं। अगर कर चुके हैं तो हमें आजादी से लेकर अब तक भारतवर्ष के अपने पूर्व नेताओं की भूरि-भूरि प्रशंसा करनी पड़ेगी और उनका नमन करना पड़ेगा कि उन्होंने कुद दशकों में इतनी बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि प्राप्त कर ली। परंतु यदि यह काम पूरा नहीं हुआ है तो वंचित वर्ग को और ज्यादा आरक्षण देकर इस नैतिक कार्य को जल्द ही पूरा करना पडे़गा।

Monday, June 20, 2016

कमलनाथ से क्यों डरते हैं केजरीवाल ?

कमलनाथ के पंजाब का प्रभारी बनते ही केजरीवाल इतने बौखला क्यों गए ? 1984 के दंगों को भुनाने की नाकाम कोशिश में होश गवां बैठे। जिन दंगो से कमलनाथ का दूर दूर तक कोई नाता नहीं उसमें उनका नाम घसीट कर केजरीवाल ने सिर्फ अपने मानसिक दिवालियापन और हताशा का परिचय दिया।

हैरत की बात है कि आज कहीं केजरीवाल सरकार के कामकाज की बातें नहीं होतीं। केवल उनके झूंठे वायदों का बखान होता है। होती भी हैं तो वे बातें खुद केजरीवाल को ही करनी पड़ती हैं। हालत यहां तक पंहुच गई है कि केजरीवाल के प्रचार पर दिल्ली सरकार के सैंकडों करोड़ रूपये के खर्च का आंकड़ा आम आदमी को परेशान कर रहा है। काम कुछ नहीं प्रचार इतना ज्यादा। इससे ज्यादा अचंभे की क्या बात क्या हो सकती है कि जिन बातों पर हल्ला बोलकर केजरीवाल ने सत्ता कब्जाने का माहौल बनाया था वे सारी बातें आज उनके कामकाज के तरीकों से गायब हैं। एक लाइन में समीक्षा करें तो व्यापार प्रबंधन की चमत्कारी विधियों से केजरीवाल ने अपना जो ब्रांड बनाया था उसके विस्तार के लिए वे अपनी नई ब्रांच पंजाब में खोलने का प्लान बना रहे हैं।

पर केजरीवाल को अपनी सत्ता के विस्तार के लिए क्या दाव पर लगाना पड़ सकता है? क्योंकि केजरीवाल ने दिल्ली में सत्ता हथियाने के लिए जो हथियार चलाया उसकी अब परीक्षा होगी। दिल्ली में विकास की पर्याय बन चुकीं शीला दीक्षित को उखाड़ना आसान नहीं था। लेकिन सब जानते है कि अन्ना के आंदोलन के जरिए केंद्र की यूपीए को उखाडने के लिए जो आंदोलन चलवाया गया था उसने दरअसल कांग्रेस के खिलाफ ही बिसात बिछाई थी। सत्ता के खेल की बहुत ही मजेदार बात है कि उस समय कांग्रेस विरोधी ताकतों ने आंख बंद करके अन्ना और उनके केजरीवाल जैसे अतिमहत्वकांशी कार्यकर्ताओं की पीठ पर हाथ रख दिया था। यूपीए को येन केन प्राकारेण सत्ता से बेदखल करने के लिए जो खेल चला वो  धीरे धीर बेपर्दा जरूर हो गया हो, लेकिन केजरीवाल इस सबके बीच बड़ी चालाकी से और अपने सभी विश्वसनीय साथियों को दगा देकर, केवल अपनी निजी हैसियत बनाकर, दिल्ली की कुर्सी पर काबिज होने में सफल हो ही गए। सारी दिल्ली ठगी गयी। जो उसे आज समझ आ रहा जब दिल्ली के हालात बाद से बदतर हो गए हैं।

इसलिए दिल्ली से उचक कर पंजाब जाने की जुगत में केजरीवाल को सबसे बड़ी दिक्कत आ रही है कि दिल्ली में अगर कुछ बोलेंगे तो फौरन उनके कामकाज का मूल्यांकन होगा ही। जिसमें वो बगलें झांकेंगे। भ्रष्टाचार के मुददे का नारा लगाकर जो आंदोलन उन्होंने चलाया था, उसे याद दिलाया जाएगा, तो भी वो बेनकाब होंगे।

इसी संभावना के डर से वे दिल्ली के अखबारों में भारी विज्ञापन करवाने में लगे रहे कि पुल और सड़को के काम सस्ते में करवा कर उन्होंने सरकारी खजाने का कितना पैसा बचवा दिया। लेकिन उनकी पोल तब खुली जब दिल्ली में सफाई और बिजली के इंतजाम तक के लिए पैसों का टोटा पड़ गया। विकास के दूसरे कामों के लिए वे योजनाएं तक नहीं बना पाए। उपर से दिल्ली में ऑड-ईवन की नौटंकी के बावजूद बढ़ते प्रदूषण ने केजरीवाल सरकार की पोल खोल दी।

केजरीवाल को लगा होगा कि प्रचार तंत्र से वे सब संभाल लेंगे। लेकिन मोटी फीस लेकर, देश विदेश में केजरीवाल की छवि बनाने के ठेकेदार या मीडिया मेनेजर शायद ये भूल गए कि प्रचार से आपको कुछ दिन तक तो बेचा जा सकता है।पर असल में तो आपके काम को ही परखा जाता है। मतलब ये कि पंजाब में घुसने के पहले केजरीवाल को दिल्ली में अपनी उपलब्ध्यिों की प्रचार सामग्री बनवानी पड़ेगी। लेकिन इसमें अड़चन यह है कि कांग्रेस के खिलाफ सड़कों पर ताबड़तोड़ ढंग से चलाये उनके प्रचार अभियान को जुम्मे जुम्मे दो साल ही हुए हैं। सो इतनी जल्दी उसे भुलाना आसान नहीं होगा। जो तब ढोल पीट-पीट कर कहा था वो कुछ किया नहीं। काठ की हंडिया बार-बार नहीं चढ़ती। दिल्ली में चढ़ चुकी काठ की हंडिया पंजाब में फिर से चढ़ा देने की बात उनके देशी विदेशी विशेषज्ञ कतई नहीं सोच सकते। अगर इस्तीफा न देते तो कमलनाथ पंजाब में केजरीवाल को शीशा दिखा देते। इसलिए कमलनाथ के नाम से केजरीवाल पेट में हुलहुली हो गयी।

इन्ही सब कारणों से केजरीवाल ने पंजाब में नशे का शोर मचाकर चुनाव में नया मुद्दा पेश किया है। पर इसके बारे में बॉलीवुड और वहां की मौजूदा सरकार के बीच जो विवाद खड़ा हो गया है उसमें केजरीवाल के घुसने की गुंजाइश ही नहीं बची। फिल्मी कलाकारों को छोटे मोटे लालच में फंसाना आसान नहीं होता। राजनीति के चक्कर में उनका शौक और धंधा दोनों चैपट हो जाते हैं। इसके तमाम उदाहरण उनके सामने  हैं।

रही बात पंजाब में राजनीतिक समीकरण की। तो यह सबके सामने है कि वहां दो ध्रुवीय राजनीति ही है। कांग्रेस के सो कर उठने की संभावना बनती है तो हाल फिलहाल पंजाब में ही बनती है। ऐसे में केजरीवाल वहां सत्तारूढ़ दलों के खिलाफ माहौल को भुनाने में लगेंगे तो मुश्किल यह ही है कि कांग्रेस के खिलाफ भी प्रचार करना पड़ेगा। ऐसा करते समय केजरीवाल कितने भी हथकंडे क्यों न अपनाये आसानी से बेनकाब हो जायेंगे। इसी का उन्हें आज खौफ है। अंदरखाने से जो खबरें मिल रही है उसके मुताबिक केजरीवाल अगर जीत गए तो एलानिया तरीके से दिल्ली को अपने किसी विश्वसनीय दोस्त को सौंपकर पंजाब जाने का फैसला कर सकते हैं। सवाल उठता है कि उन्हें इतनी जल्दी पैर पसारने की जरूरत क्यों पड़ रही है? दरअसल सिद्धान्त तो केजरीवाल के लिए सत्ता पाने के हथकंडे हैं। इसलिए उन्हें दिल्ली में अपनी पोल पूरी तरह से खुलने से बचना है ताकि  सत्ता की हवस पूरी हो सके। पर कोई भी कारोबार बहुत देर तक एक ही मुकाम पर खड़ा नहीं रह सकता। उतार चढ़ाव आते ही हैं। केजरीवाल का कहीं वो हाल न हो कि छब्बे बनने के चक्कर में चैबे जी दुबे बनकर लौट आए।