Friday, March 29, 2002

विहिप के कामों से दुखी हैं आडवाणी जी

एक तरफ धर्मनिरपेक्षतावादी लोग गुजरात की भाजपा सरकार को सांप्रदायिक दंगों के लिए दोषी ठहरा रहे हैं और दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी के राजनैतिक गुरू व केंद्रीय गष्हमंत्री लाल कष्ष्ण आडवाणी गुजरात में हुई हिंसा से काफी दुखी हैं। उन्हें लगता है कि यह उन्माद जानबूझ कर पाकिस्तान समर्थित एजेंसियों ने पैदा किया है ताकि भारत की तेजी से उभरती हुई अंतर्राष्ट्रीय छवि को खराब किया जा सके। एक निजी बातचीत में उन्होंने बताया कि गुजरात में हुई हिंसा की वारदातों ने देश का बहुत अहित किया है। ऐसे समय में जब दुनिया में पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों ही देश आतंकवाद का गढ़ माने जाने लगे थे और दुनिया के देश भारत को एक धीर, गंभीर और जिम्मेदार देश मानने लगे थे, गुजरात में भड़की हिंसा ने उनके विश्वास को हिला दिया है। उनके अनुसार भारत को पिछले दो दशकों के प्रयास के बाद भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो सफलता नहीं मिली थी वह 11 सितंबर की दुर्घटना के बाद स्वतः ही मिल गई। यह समय इस उपलब्धि को राष्ट्रहित में भुनाने का था। देश के तमाम अंदरूनी सवाल जो वोटों की राजनीति ने वर्षों से उल्झा रखे थे, इस नए बदले माहौल में सुलझ सकते थे। भारत सरकार अपना काम करती चली जाती और विघटनकारी व देशद्रोही ताकतें चूं तक न करती। पर दुर्भाग्यवश ऐसा न हो सका। विहिप ने इस समय नाहक मंदिर का सवाल उठा कर सब किए कराए पर पानी फेर दिया। भाजपा की पिछले दशक में हुई आशातीत वष्द्धि के लिए जिम्मेदार आडवाणी जी को लगता है कि यह समय अयोध्या में राम मंदिर का सवाल उठाने का नहीं था। जब देश का बड़ा फायदा हो रहा हो तो किसी धर्म विशेष की बात को उठाने से देशद्रोही तत्वों को मौका मिलता है, देश में सांप्रदायिक तनाव पैदा करने का। पिछले दिनों हुए गुजरात में दंगों को भी वे इसी नजरिए से देखने की सलाह देते हैं।

इसके साथ ही वे यह भी महसूस करते हैं कि गुजरात की हिंसा को दुनिया के मीडिया ने बड़ी तत्परता से उछाला। नतीजतन अब सभी देश यह मानने लगे हैं कि साम्प्रदायिक ंिहंसा के मामले में भारत और पाकिस्तान में से कोई भी देश कम नहीं। मौका मिलने पर दोनों ही हिंसा में जुट जाते हैं। आडवाणी जी को दुख है कि देश पर लग रहा यह आरोप ठीक नहीं है। खासकर तब जबकि भाजपा के शासनकाल में देश में सांप्रदायिक ंिहंसा का माहौल न के बराबर रहा था। वे कहते हैं कि आतंकवाद की बात भारत पिछले 20 वर्षों से लगातार विश्व के अनेक मंचों पर करता आ रहा था पर उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता था। लेकिन 11 सितंबर 2001 को हुए वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादियों के हमले के बाद दुनिया की समझ में आया कि आतंकवाद की जड़ में कौन है और यह भी कि आतंकवादी किस सीमा तक जा सकते हैं। इस हमले में विश्व के लगभग हर देश के नागरिकों की जान गई। इसलिए पूरा विश्व आतंकवाद के मुद्दे पर एकजुट हो कर आतंकवादियों के सफाए में जुटने लगा था। ऐसे माहौल में भारत का महत्व स्वीकारते हुए विश्व के तमाम शक्तिशाली देश भारत से गहन बातचीत करने को आगे बढ़े थे। अब भारत को नए सिरे से महौल बनाना होगा।

दूसरी तरफ विहिप के खेमे में राम जन्मभूमि आंदोलन को नए स्वरूप में चलाने और बढ़ाने की योजनाएं बन रही हैं। विहिप के नेतष्त्व में मंथन जारी है। विहिप के अंतर्राष्ट्रीय महासचिव डा. तोगडिया देश के 5.5 लाख गांवों में रामनाम की धूम मचा देना चाहते हैं। अयोध्या में संवाददाताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने अपने आगे की कार्यक्रम की विस्तष्त रूपरेखा बताई है। देश के कुछ औद्योगिक घराने जो भाजपा की आर्थिक नीतियों से नाराज है, विहिप के इस कार्यक्रम को हवा देने में जुटे हैं। उनका छिपा उद्देश्य भाजपा को ‘‘सत्ता से उखाड़ना’’ है। विहिप अगर उनके हाथ में औजार बनने को तैयार है तो उन्हें इससे कोई आपत्ति नहीं है। वैसे भी विहिप का गरमपंथी खेमा आडवाणी जी और वायपेयी जी के ताजा विचारों से सहमत नहीं है। इस खेमे के सिरमौर लोगों का प्रश्न है कि अगर अयोध्या मंदिर का सवाल उठाना देश के हित में नहीं है तो आडवाणी जी ने दस वर्ष पहले राम रथ यात्रा किस उद्देश्य से की थी ? वे पूछते हैं कि तब से अब तक ऐसा क्या हो गया जो हम अपनी दशाब्दियों से पोषित प्राथमिकताओं को भूल जाएं ? देश भर में संघ और भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं ने जिन सवालों पर भाजपा का जनाधार बढ़ाया था उन सवालों को ही अगर भुला दिया गया तो ये कार्यकर्ता अपने शुभंिचतकों के घर क्या मुंह लेकर जाएंगे ? अगर ये सवाल राष्ट्रहित के नहीं है या बहुसंख्यक हिंदू समाज के हित के नहीं हैं तो फिर भाजपा और दूसरे दलों में अंतर ही क्या रह गया ? फिर कोई भाजपा को समर्थन क्यों दे ?

इन गरमपंथियों को यह तर्क भी स्वीकार्य नहीं कि भारत की विश्व में जो छवि सुधरी थी वह अब बिगड़ गई या अब भारत को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन नहीं मिलेगा या भारत अब अपने पुराने एजेंडा पर सुधार का काम नहीं चला पाएगा। विहिप के इस खेमे का कहना है कि कोई भी देश भारत की समस्याएं सुलझाने में रूचि नहीं रखता, चाहे अमरीका ही क्यों न हो। सबके लिए विदेश नीति निर्माण का आधार स्वार्थ और अपने व्यापारिक हितों को पूरा करना होता है। अमरीका ने कुवैत को मदद इसलिए नहीं दी कि वह उसकी ईराक से रक्षा करना चाहता था बल्कि इसलिए दी कि वह इस युद्ध में अपने शस्त्र बेचना चाहता था, ईराक पर नकेल डालना चाहता था और कुवैत के तेल स्रोतों का दोहन करना चाहता था। अफगानिस्तान और पाकिस्तान को लेकर भी अमरीका की ऐसी स्वार्थी नीति है। इसलिए विहिप का यह खेमा भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व की परवाह किए बगैर नई रणनीति और नए कार्यक्रम लेकर हिंदू हित की लड़ाई को आगे बढ़ाना चाहता है। विहिप के इस खेमे को लगता है कि भाजपा ने राजग के साझा एजेंडा का पालन करते हुए अयोध्या में जो संवैधानिक रूप से करना चाहिए था वह कर दिया। अब उसका फर्ज है कि सहयोगी दलों से यह कहते हुए विदा ले कि हम इस सरकार में बने नहीं रह सकते क्योंकि हमारी प्रतिबंद्धता अपनी विचारधारा के प्रति है, कुर्सी के प्रति नहीं। अगर हम अपने चिर प्रतीक्षित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए स्वतंत्र नहीं है तो हम इस सरकार से अलग हो जाते हैं। ऐसा करने से भाजपा जनता का खोया हुआ विश्वास पुनः जीत लेगी और तब वह जनता के बीच यह अपील लेकर जा सकती है कि यदि आप हिंदू धर्म का उत्थान चाहते हैं तो भाजपा को पूर्ण बहुमत देकर सरकार में भेजें। उन्हें विश्वास है कि जनता तब भाजपा के साथ खड़ी होगी।

उधर राष्ट्रीय स्वयं संघ में भी इस सवाल पर खेमे बंट गए हैं। एक खेमा कट्टर हिंदुवादी मुद्दे को लेकर आक्रामक राजनीति करना चाहता है ताकि भाजपा का समर्पित वोट बैंक बना रहे जबकि दूसरा खेमा सरकार के साथ मिल कर चलना चाहता है ताकि सरकार के संरक्षण में, संघ की बनाई हुई योजनाओं पर क्रमशः काम चलता रहे और संघ की मानसिकता के लोगों को व्यवस्था के अंदर जमाया जा सके। जिसके दीर्घकालिक लाभ मिलेंगे। दूसरी तरफ संघ से मोहभंग होकर निकल चुके पुराने लोग मानते हैं कि दोहरी बात करना संघ का चरित्र रहा है। वे याद दिलाते हैं कि गौ-रक्षा आंदोलन भी संघ के ऐसे ही दोहरपन के चलते अकाल मष्त्यु को प्राप्त हो गया। उसके बाद देश के साधु समाज में संघ को लेकर बहुत दुख अनुभव किया गया। नतीजतन हिंदू मानसिकता की राजनीति को फिर से सिरे चढ़ने में दो-दशक लग गए। ये लोग यह भी याद दिलाते हैं कि रामजन्मभूमि आंदोलन में संतों का आह्वाहन करने वाले स्वामी वामदेव भाजपा और संघ नेतष्त्व से कितने व्यथित हो गए थे। सब जानते हैं कि स्वामी वामदेव ने अपने सन्यास आश्रम की मर्यादा की परवाह न करते हुए हिंदू हित के लिए रामजन्म भूमि आंदोलन को उठाने में कितनी बड़ी भूमिका निभाई। अपने अंतिम समय में वे कहा करते थे कि भगवान् के साथ जो व्यवहार इन लोगों ने किया है उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।

कुछ भी हो इस राजनीतिक माहौल में सिर्फ भाजपा के ऊपर दोष मढ देने से समस्याओं का हल नहीं निकाला जा सकता। अयोध्या हो या राजनीति का अपराधिकरण, सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की बात हो या चुनाव प्रक्रिया में सुधार की, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढ़ते प्रभाव का सवाल हो या ग्रामीण बेरोजगारी दूर करने का, ऐसे सब सवालों पर देश में व्यापक बहस चलनी चाहिए। टीवी चैनलों पर होने वाली सतही बहसों से काम नहीं बनेगा। हर पांच मिनट में कामर्शियल बे्रक लेने वाली ये बहस जनता का मनोरंजन तो कर सकती हैं पर गंभीर समस्याओं के हल नहीं निकाल सकतीं। जरूरत इस बात की है कि देश के बारे में गंभीरता से सोचने वाले नेता ऐसे बहसों में समय निकाल कर शिरकत करें। फिर वो चाहे आडवाणी जी हो या दूसरे दलों के राजनेता। सही और गलत का निर्णय जनता स्वयं कर लेगी। पारस्परिक दोषारोपण की रणनीति से किसी को कुछ नहीं मिलने वाला।

Friday, March 22, 2002

युवा वैज्ञानिक आत्म हत्या नहीं संघर्ष करें

भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मुंबई का युवा वैज्ञानिक पृथविश पूछता है कि वो सेन आत्म हत्या क्यों न करे ? उसके जीने का क्या मकसद है जब उसे अपनी मातृभूमि की सेवा करने के जुर्म में फुटपाथ पर लाकर पटक दिया गया है। मुंबई और दिल्ली के सभी बड़े अंग्रेजी अखबार उसकी दर्दनाक कहानी कई बार छाप चुके हैं। इंका नेता श्री प्रियरंजनदास मुंशी व सीपीएम नेता श्री सोमनाथ चटर्जी सरीखे कई वरिष्ठ सांसद उसके साथ हुए अत्याचार पर संसद में गरज चुके हैं। देश की सर्वोच्च अदालत के दरवाजे भी वह खटखटा चुका है। फिर भी उसे न्याय नहीं मिला। उसका दोष सिर्फ इतना है कि उसने भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मंुबई के अपने साथी और कुछ वरिष्ठ वैज्ञानिकों के भ्रष्टाचार, दुराचरण, निकम्मेपन और सरकारी पैसे की बर्बादी के खिलाफ आवाज उठाई थी। नतीजा, उसके अनुसार, पहले तो उसको प्रशासनिक स्तर पर डराया-धमकाया गया। फिर उस पर झूठे आरोप लगा कर उसकी नौकरी ले ली गई। जब वह अदालत की शरण में गया तो उसके सरकारी आवास पर गुंडे भेज कर उसे पिटवाया गया। जिसकी रिपोर्ट मुंबई के सभी प्रमुख अखबारों में छपी है बड़े वैज्ञानिकों के भेजे इन गुंडों का इतना आतंक व्याप्त है कि सेन के अड़ौस-पड़ौस के सरकारी घरों में रहने वाले भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के दूसरे वैज्ञानिक भी कुछ बोलने से डरते हैं। वे नाम न छापने की शर्त पर इस बात की पुष्टि करते हैं कि पृथविश सेन को उसकी सच्चाई और ईमानदारी की एवज में लगातार प्रताडि़त किया जा रहा है। पश्चिमी बंगाल के वर्धमान जिले में उसकी विधवा मां को धमकी दी जा रही है- अपने बेटे से कहो कि वह भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मुंबई के वैज्ञानिकों के विरूद्ध दर्ज शिकायतें वापस ले ले वरना उसकी हत्या कर दी जाएगी।इतने भारी अन्याय के बावजूद 33 वर्षीय सेन समझौता करने को तैयार नहीं हैं। इस धर्मयुद्ध में उसका सब कुछ तबाह हो गया। घर की मेज-कुर्सी, बर्तन-भांडे यहां तक कि विज्ञान की अपनी महंगी पुस्तकें तक बेच देनी पड़ी। आज वह दिल्ली के फुटपाथों पर सोता है। गुरूद्वारे के लंगर में रोटी खाता है। दिल्ली के बाजारों में दुकानदारों के कंप्युटर पर उनका कुछ काम करके 20-30 रूपए रोजाना जेब खर्च के लिए कमा लेता है। इतना ही कि डीटीसी की बसों का भाड़ा दे सके। ऐसा नहीं है कि  उसके मित्र उसे दिल्ली या मुंबई में आश्रय, आर्थिक मदद या नौकरी दिलवाने को तैयार नहीं हैं। पर वह किसी की खैरात नहीं लेना चाहता। भगवान में उसकी आस्था नहीं है, पर सत्य में है। उसकी जिद है कि वह यह लड़ाई अधूरी छोड़कर नहीं भागेगा। इसलिए वह दिल्ली में राजनेताओं और पत्रकारों के दरवाजों पर दस्तक देता है। पर कहीं से भी अब आशा की कोई किरण दिखाई नहीं देती। वह पूछता है कि मैं और क्या कर सकता हूं ? मेरी मां मुझे यही खत भेजती है कि- -बेटा तुम सच की लड़ाई से मुंह मत मोड़ना,’ पर उस बेचारी को नहीं पता कि उसका बेटा कि हालातों में यह लड़ाई लड़ रहा है। पृथविश सेन बड़ी सरलता से एक हिला देने वाला प्रश्न पूछता है- आत्म हत्या के सिवाए मेरे पास और विकल्प ही क्या है ? मैं उसे समझाने की कोशिश करता हूं। तीन विकल्प सुझाता हूं। भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मंुबई से इस्तीफा दे और कहीं दूसरी जगह नौकरी कर लो। दूसरा विकल्प यह है कि सेन नक्सलवादी आंदोलन में शामिल हो जाए और बंदूक उठा ले। तीसरा विकल्प यह है कि वह उन संगठनों के साथ जुड़ जाए जो देश की आम जनता के हक के लिए अलग-अलग किस्म के मोर्चे बना कर लड़ते रहते हैं। हो सकता है कि  ये समूह पृथविश का मुद्दा न उठा पाएं पर इतना तो जरूर है कि वे पृथविश के  दिल में धधक रही ज्वाला को किसी दूसरे रचनात्मक काम में लगा सकते हैं। पर सेन इनमें से किसी विकल्प को मानने को तैयार नहीं है। वह फिर बुनियादी सवाल करता है। जब भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र प्रधानमंत्री के सीधे अधीन है तो श्री अटल बिहारी वाजपेयी उसके आरोपों की फौरी जांच क्यों नहीं करवाते ? सेन जो बताता है वह बहुत खौफनाक बात है। खासकर पर्यावरणवादियों के तो कान खड़े् हो जाएंगे। सेन बताता है कि भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, मुंबई की कुछ प्रयोगशालाओं से आणविक कचरा सीधे समुद्र में या हवा में फेका जा रहा है। जिस कारण तट पर रहने वाले गरीब लोगों के स्वास्थ पर बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है। पर किसी ने उसकी शिकायत पर तबज्जों नहीं दी। उसे यह देखकर भारी दुख हुआ कि भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के तमाम बड़े वैज्ञानिक शोध के नाम पर सरकार पैसा बर्बाद कर रहे हैं और देश-विदेश में गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। चूंकि यह विभाग गोपनीय श्रेणी में आता है अतः इसकी कारगुजारियों की खबर देश की जनता तक नहीं पहुंच पाती। पर जब पृथविश जैसा कोई युवा वैज्ञानिक सरकार को सरकारी प्रयोशालाओं में हो रहे भ्रष्टाचार की शिकायत करने का जोखिम उठाता है तो भी सरकार जागती क्यों नहीं ? वह पूछता है कि क्या वैज्ञानिकों का भी कोई माफिया होता है  जो सच्चे और समर्पित युवा वैज्ञानिकों को रौंद कर आगे बढ़ता है? शोहरत, पद और एवार्ड हासिल करता है, हर गलत धंधे में शामिल होता है फिर भी पकड़ा नहीं जाता।

सेन यह भी सवाल करता है कि अगर किसी वैज्ञानिक की आत्मा देशद्रोह के ऐसे अनैतिक काम करने को तैयार न हो तो उसके लिए क्या विकल्प है ? वह पूछता है कि यह कैसे संभव है कि संसद में सवाल उठाने के बावजूद उसकी शिकायत पर ध्यान नहीं दिया गया ? हमारे लोकतंत्र में क्या संसद से भी बड़ा कोई मंच है जहां इस देश के आम आदमी को उसका हक मिल सके ? वह पूछता है कि अगर देश की न्याय व्यवस्था के बावजूद लोगों को न्याय न मिले तो वे कहां जाएं ? क्या ऐसे लोगों के लिए यही तीन रास्तें हैं  या तो वे लड़ाई छोड़ दें या बंदूक उठा लें या फिर आत्म हत्या कर लें। सेन का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में उसने भ्रष्ट व्यवस्था की जो मार सही है उससे यह बखूबी समझ में आ गया है कि आए दिन युवा वैज्ञानिक आत्महत्या क्यों करते रहते हैं।

सेन की कहानी बहुत दर्दनाक है। पर ये अकेली कहानी नहीं है। देश में अनेक विभागों में ऐसे लोग हैं जो अपनी साफ गोई और बेबाक बयानी की एवज में लगातार मार खाते रहते हैं। फिर भी न तो झुकते हैं, न बिकते हैं और न चुप ही बैठ पाते हैं। समाज की पीड़ा देख कर उनके मन में अपने हालात से पलायन करने की बात नहीं आती। वे युद्ध क्षेत्र में डटे रहते हैं। बिना इसकी परवाह किए कि जीत किसकी होगी ? सत्य के लिए युद्ध लड़ने में जो आनंद उन्हें प्राप्त होता है वह किसी फल की प्राप्ति मंे भी नहीं होता। पर दुर्भाग्य से समाज के हर क्षेत्र में ऐसे लोगों की संख्या न सिर्फ तेजी से घटती जा रही है बल्कि बुरी बात यह है कि अब सच्चाई, ईमानदारी और देशभक्ति को किसी व्यक्ति का आभूषण नहीं बल्कि उसके अव्यवहारिक होने का परिचायक माना जाता है। आपने कितना ही बड़ा घोटाला क्या न किया हो, पर एक बार जब आप सार्वजनिक मंच पर अपनी दुकान जमा लेते हैं तो कोई आपसे यह नहीं पूछता कि आपके पास इतने साधन कहां से आए। फिर तो देश के हर ज्वलंत मुद्दे पर ऐसे ही रंगे सियारों के उच्च विचारसुने जाते हैं और मीडिया पर प्रसारित किए जाते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रसार ने स्थिति को और भी भयावह बना दिया है। अब हर मुद्दे पर विचार व्यक्त करने वही पचास-साठ चेहरे घूम-घूम कर सामने आते रहते हैं। वे जो कहते हैं वहीं देश की नीयति मानी जाती है। मानो सौ करोड लोगों का प्रारब्ध इन चंद लोगों की मुट्ठी में कैद हो। जनता तो बेचारी मूर्ख बनने के लिए है ही। सिनेमा के पर्दें पर मरियल सा हीरो भी बीस-मुसटंडों की अकेले ही धज्जियां उड़ाता है तो जनता खुशी से सीटी और ताली बजाती है और उस हीरो की मुरीद बन जाती है। इसी तरह लफ्फाजी करने वालों की भी छवि बनाई जाती है। इनकी असलियत को जब पृथविश सेन जैसा कोई पत्रकार देश के सामने लाने की कोशिश करता है तो उसे सनकी, अव्यवहारिक, व्यवस्था विरोधी या विध्वंसक बता कर बदनाम किया जाता हैै। उसके रास्ते बंद करने की कोशिश की जाती है। अगर वह फिर भी हिम्मत नहीं हारता तो सत्ताधीशों के बीच हड़कंप मच जाता है। ऐसी परिस्थिति में हुक्मरान अपने तथाकथित मतभेद भुला कर एकजुट हो जाते हैं और जनता द्वारा अपनी जांच की सभी संभावनाओं को रोकने में पूरी ताकत झोंक देते हैं। फिर भी सच दब नहीं पाता। कभी न कभी वह लावे की तरह फूट पड़ता है और तब वे सारे माफिया, देशद्रोही और दुराचारी एक झटके में बेनकाब हो जाते है। पृथविश सेन जैसे जुझारू युवा वैज्ञानिकों और दूसरे क्षेत्रों में काम कर रहे ऐसे ही दूसरे लोगों को एक दूसरे की मदद करनी चाहिए। हिम्मत और साधन देना चाहिए। ताकि वह झुके नहीं, टूटे नहीं, आत्म हत्या करने को मजबूर न हो। बल्कि अपने अनुभव, जानकारी और ऊर्जा को समाज में बांटे ताकि उसकी नैतिक ज्योति से समाज में करोड़ों नए दीपक प्रज्जवलित हों और भारत भूमि पर बढ़ते आ रहे अंधकार के बादलों को छांटने में सक्षम हो सकें। शायद यही प्रथविश सेन के सवालों का जवाब है।

Friday, March 15, 2002

धर्मनिरपेक्षता की नई परिभाषा की जरूरत

हर ओर धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता पर बहस छिड़ी है। टीवी चैनल भी इसी बहस में उलझे हैं। जहां इंकाई, साम्यवादी, समाजवादी व दूसरे दल भाजपा को सांप्रदायिक सिद्ध करने पर तुले हैं वहीं भाजपा के प्रतिनिधि अपनी रक्षा में जुटे हैं। हालात की मार कहिए या फिर इन टीवी बहसों में आ रहे हिंदुवादियों की वाक्पटुता की कमी, वे इन बहसों में लगातार पिट रहे हैं। आश्चर्य की बात है कि भाजपा, विहिप व संघ इन बहसों में अपने सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ताओं को नहीं भेज पा रहे हैं। ऐसे में गांेविंदाचार्य जैसे लोगों की कमी सभी भाजपाइयों को खल रही है। वे इन बहसों के माकूल उत्तर देने में सक्षम होते। पर उनके जैसे लोगों को तो भाजपा के नेतष्त्व ने कब का दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया। उन्हें ही क्यों तमाम ऐसे लोग जो राम लहर से आकृष्ट होकर भाजपा में आए थे, निराश होकर घर बैठ गए। कोई उनसे पूछने भी नहीं गया कि उनकी नाराजगी की वजह क्या है ? ये भाजपा में सत्ता सुख भोगने नहीं आए थे। ये तो वो लोग थे जो वर्षों से यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि जब वैदिक धर्म और मातष्भूमि के प्रति समर्पित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से निकले लोगों की सरकार बनेगी तो देश की शासन व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा। जनहित में दिए गए उनके उपयोगी सुझावों को माना जाएगा। शासन व्यवस्था आत्मकेंद्रित न होकर जनोन्मुख होगी। भारत की गौरवमयी सांस्कष्तिक विरासत का संरक्षण व संवर्धन होगा। पर उन्हें यह देख कर भारी पीड़ा हुई कि भाजपा की सरकारें न सिर्फ नाकारा और अकुशल सिद्ध हुईं बल्कि उसके नेताओं ने अपने अहंकारी और स्वार्थी आचरण से यह सिद्ध कर दिया कि भाजपाई शासन चलाने के योग्य नहीं हैं। इन लोगों को ही नहीं बल्कि करोड़ों उन लोगों को भी भाजपा के शासन और व्यवहार से बहुत चोट पहुंची जो भाजपा को मन ही मन पसंद करते थे। पिछले 50 वर्ष में संघ के स्वयंसेवकों ने व रामरथ यात्रा के दौरान आडवाणी जी ने, हिंदू समाज की अपेक्षाओं को बहुत बढ़ा दिया था। पर ये अपेक्षाएं ज्यों की त्यों धरी रह गई। अब लोग आसानी से न तो भाजपा पर यकीन करेंगे और न ही धर्म आधारित किसी और नए राजनैतिक दल पर।

पर सोचने वाली बात है कि पारंपरिक रूप से अपने दृष्टिकोण में धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत मानने वाले भारतीय समाज का धर्म आधारित ऐसा ध्रुविकरण पहले कभी नहीं हुआ था। इसलिए धर्मनिरपेक्षता की बात करते वक्त हमें इस ध्रुविकरण की तह में जाना होगा। आखिर क्या वजह थी जो लोग धर्मनिरपेक्षतावादियों से इतने नाराज हो गए ? दरअसल पिछले बीस वर्षों से हिंदुओं को यह लगने लगा था कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों का तुष्टिकरण किया जा रहा है। वोटों के लालच में उन्हें बिना वजह अहमियत दी जा रही है और इस प्रक्रिया में बहुसंख्यक हिंदू समाज के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। जबकि सच्चाई तो यह है कि अपनी अशिक्षा और कठमुल्लेपन के कारण मुसलमान वैसे ही समाज में पिछड़े हुए हैं और ऊपर से उन्हें नौकरियों में बराबरी का व्यवहार नहीं मिलता। फिर मुस्लिम तुष्टिकरण का क्या प्रमाण हैं ? हिंदुवादियों की शिकायत रही है कि शाहबानों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को न मानना। बनारस में जबरन कब्जाए गए कब्रिस्तान को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद खाली न करना। परिवार नियोजन कार्यक्रम का डट कर विरोध करना व समान नागरिक संहिता की जरूरत को न मानना। क्रिकेट मैचो में पाकिस्तान की जीत पर खुशी और भारत की जीत पर गम प्रकट करना। मस्जिदों के आगे से जाने वाले दशहरा के जुलूसों पर पथराव करना व उनके भजन-कीर्तनों पर पाबंदी लगाना। हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का सम्मान न करते हुए गौ-मांस खाना। ऐसी तमाम बातों से हिंदू नाराज थे। उन्हें इस बात पर भी क्रोध आता था कि अपने ही देश में हिंदुओं को अपने   सर्वाधिक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थालों पर पूजा-अर्चना नहीं करने दी जाती या वहां मस्जिदें बना दी गई है। ऐसे तमाम कारणों से हिंदू समाज के मन में धर्मनिरपेक्षतावादियों और मुसलमानों के प्रति आक्रोश बढ़ता जा रहा था। जिसे भाजपा ने भुना लिया। पर काठ की हांडी रोज-रोज नहीं चढ़ा करती। भाजपा की सरकार ऐसा कुछ भी नहीं कर पाई जिससे वह हिंदुओं की दबी हुए आकांक्षाओं को पूरा कर पाती। कई दलों की मिलीजुली सरकार होने के कारण भाजपा के लिए सभी को खुश रखना सरल नहीं था। इसलिए उसे अपने धार्मिक मुद्दे छोड़ देने पड़े। धर्मनिरपेक्षता दिखाने चक्कर में भाजपा न तो मुसलमानों को आकर्षित कर पाई और न ही उसका अपना वोट बैंक ही सलामत रहा।

अब जब भाजपा से हिंदू समाज का मोहभंग हो चुका है तो लोगांे सामने सवाल है कि वे किस दल की शरण में जाएं ? ऐसे में इंका सहज ही जांचे-परखे और आसानी से उपलब्ध विकल्प के रूप में एक बार फिर सामने आई है। अपनी  इस नई उपलब्धि से प्रसन्न होने की बजाए इंका को धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर पुनः विचार करना चाहिए। वरना रास्ता इतना सरल नहीं होगा। उसे अपना स्वरूप और आचरण ऐसा करना चाहिए जिससे यह संकेत जाए कि उसकी धर्मनिरपेक्षता मुसलमानों के तुष्टिकरण का आवरण नहीं है। बल्कि इंका की धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है सभी धर्मों को समान आदर देना और साथ ही धर्महीनता की बात नहीं करना। इंका को यह मानना चाहिए कि धर्मनिरपेक्ष दिखने के उत्साह में इंका ने हिंदू समाज को नाराज किया था। अगर वह चाहती है कि उसका पारंपरिक वोट बैंक भी लौट आए और उसका धर्मनिरपेक्ष स्वरूप भी बना रहे तो उसे अपने रवैए में बदलाव करना ही होगा। उसे समान नागरिक कानून, परिवार नियोजन, मुसलमान बच्चों के लिए भी अनिवार्य रूप से आधुनिक शिक्षा की व्यवस्था जैसे मुद्दे भी उठाने होंगे। उसे यह संदेश देना होना होगा कि वह धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टिकरण नहीं करेगी। साथ ही उसे हिंदुओं के पारंपरिक धार्मिक विश्वासों का सम्मान करना भी सीखना होगा। उसे मुसलमानों को यह समझाना होगा कि उनके कठमुल्लेपन  के कारण ही हिंदू सांप्रदायिकता फैलती है। जब हिंदुओं को लगेगा कि इंका के शासन में हिंदू और मुसलमान दोनों को ही समान व्यवहार व न्याय मिलता है तो वे स्वयं ही शांत हो जाएंगे। फिर वे भावना से नहीं विवेक से काम लेंगे। यदि ऐसे हालात पैदा किए गए तो फिर इंका को टक्कर देने की स्थिति में कोई नहीं होगा। अगर इंका वर्तमान नाजुक दौर की मांग को नहीं समझती और अपनी पारंपरिक समझ के अनुसार धर्मनिरपेक्षता का राग तो अलापती है पर करती है उल्टा ही, तो उसे भारी नुकसान हो सकता है। आज स्वतः उसकी तरफ खिंचे आ रहे वोट ठिठक सकते हैं।

समय आ गया है कि धर्मनिरपेक्षतावादी हर धर्म को सम्मान देते हुए किसी एक धर्म के प्रति विशेष झुकाव न रखें। इससे समाज में तेजी से बढ़ता हुआ विघटन रूक जाएगा। तब लोगों को लगेगा कि इंका जैसे दल पुनः भारत पर शासन करने के योग्य हैं। मुसलमानों को भी लगेगा कि अगर उन्होंने अपना कठमुल्लापन नहीं छोड़ा तो फिर विहिप जैसे संगठन मजबूत बनेंगे और देश में शांति नहीं रह पाएगी। नाहक खून-खराबा होगा। देश में शांति और सौहार्द बढ़ सके इसके लिए प्रमुख धर्मों के धार्मिक नेताओं को भी अपना रवैया बदलना होगा। आज देश में किसी भी सड़क पर बीचोबीच में कोई कब्र मिल जाती है या फुटपातों पर अवैध रूप से बने मंदिर। यहां तक की हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशनों की पटरियों के बीच भी अक्सर मस्जिद या मंदिर खड़े पाए जाते हैं। यह न तो व्यवस्था चलाने के लिए उचित है और न ही इन प्रतिष्ठानों की सुरक्षा के हित में। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले दलों को यह हिम्मत दिखानी चाहिए कि वे सार्वजनिक स्थानों पर इस तरह बने मस्जिदों, कब्रों, मंदिरों, चर्चों और गुरूद्वारा को हटाने का कानून पास करें और उन्हें सख्ती से हटाएं। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि जो कोई भी धर्मनिरपेक्षता का दावा करे उसे अपने आचरण और नीतियों में इसका प्रदर्शन करना होगा। तभी वह दोनों पक्षों का विश्वास जीत सकेगा। पहले जो हो गया अब नहीं हो सकता। धर्मनिरपेक्षता के बारे में नई सोच और नई दृष्टि होना आज समय की मांग हैं।

Friday, March 8, 2002

धर्म की राजनीति अब बंद होनी चाहिए

विहिप का श्रीराम मंदिर आंदोलन और गुजरात के दंगे, इन दो मुद्दों पर अटकी है फिलहाल देश की राजनीति। राजनीतिज्ञ ही नहीं अपने को बुद्धिजीवी मानने वाले भी खेमों में बंट गए हैं। जिसको जिस खेमे से फायदा मिलता है वह वैसी ही बोली बोल रहा है। समस्याओं के हल के लिए वैसे ही समाधान सुझा रहा है। दोनों ही खेमों की कोशिश या तो इस स्थिति से राजनैतिक लाभ कमाने की है या अपने राजनैतिक आकाओं से कुछ खैरात बटोरने की। समस्या के सही और ईमानदार हल में किसी की रूचि नहीं। होती तो हल कब का निकल जाता। पर राजनीति समस्याओं के हल खोजने के लिए नहीं की जाती, समस्याएं पैदा करके उलझाने के लिए की जाती हैं। ताकि फिर उसे सुलझाने की राजनीति चलती रहे। बयान दिए जाएं। टेलीविजन के पर्दे पर समस्या की गंभीरता पर उत्तेजित होने का नाटक कर अपनी संजीदगी का इश्तहार लगाया जाए। धर्मनिरपेक्षता या धर्म की रक्षा के नाम पर सेमिनार किए जाएं। फिल्में और टीवी शो बनाने के ठेके लिए जाएं। यह सब भी तभी तक जब तक आम लोगों के बीच उत्तेजना फैली है।

सब कुछ शांत होते ही सत्ताधीशों और कुलीन कहे जाने वाले लोगों के ‘सोशल सर्किल’ में फिर जाम छलकने लगते हैं। भड़काऊ वस्त्रों और जेवरों की नुमाइश लगने लगती है। अर्धनग्न महिलाओं के गलबहियां डाले आत्मघोषित बुद्धिजीवी भी अपने बड़े और ‘ग्लैमरस’ होने के गुमान में मगन हो जाते हैं। फिर सब भूल जाते हैं उन सवालों को जिन पर कल तक ये उत्तेजित होने का नाटक कर रहे थे। दरअसल इनकी उत्तेजना सिर्फ नाटक ही नहीं होती। उसका कुछ वास्तविक आधार भी होता है। अपने राजनैतिक संपर्कों का फायदा उठाकर मोटी कमाई में खेलने वाले लोग सामाजिक हिंसा या जनआक्रोश के विस्फोट से भयाक्रांत हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि अगर ये आग यूं ही फैलती गई तो उनकी दुकानदारी फिर कैसे चल पाएगी। इसलिए वे ऐसे सुझाव देते हैं जिनसे फिलहाल बला टल जाए। अयोध्या के मामले पर भी ऐसा ही हो रहा है। शांति स्थापना के लिए अयोध्या मसले को दो वर्ष के लिए टालने की सलाह दी जा रही है। पर सोचने वाली बात है कि इस बेसिरपैर के सुझाव से क्या कोई हल निकल सकता है? ये तो वही बात हुई कि बिल्ली को आता देख कबूतर से कहो कि आंख बंद कर ले।

इसमें शक नहीं कि विहिप ने पिछले कुछ महीनों से श्रीराम मंदिर निर्माण का जो आंदोलन फिर से खड़ा करने की कोशिश की उसके पीछे छिपा एजेंडा भाजपा का वोट बैंक बढ़ाना था। यही कारण है कि इस कार्यक्रम की रूपरेखा विधानसभा के चुनावों के साथ तालमेल बैठाते हुए रखी गई। ऐसा कहने का पर्याप्त आधार है। क्योंकि इससे पहले भी जब-जब चुनाव आए तब-तब ही विहिप ने श्रीराम मंदिर का मुद्दा उठाया। चुनाव समाप्त होते ही मंदिर का यह बुखार बड़ी होशियारी से उतार दिया गया। जनता ये बात अच्छी तरह समझ चुकी है। इसलिए इस बार विहिप और भाजपा की यह साझी रणनीति नाकाम रही। भाजपा को चुनावों में मुंह की खानी पड़ी। ऐसे में विहिप अपने ही चक्रव्यूह में फंस गई। अगर वह श्रीराम मंदिर के मुद्दे पर अड़ी रहती है तो भाजपा की गुजरात और केंद्र में रही-सही गद्दी भी छिन जाएगी और अगर इस मुद्दों को छोड़ देती है तो भाजपा का रहा-सहा वोट बैंक भी निबट लेगा। इसलिए विहिप, संघ और भाजपा के लिए फिलहाल यह मुद्दा न उगलते बन रहा है और न निगलते बन रहा है। पर अंततोगत्वा भगवान् श्रीराम की भक्ति से ज्यादा कुर्सी का मोह उन्हें इस आंदोलन को ठंडा करने को मजबूर कर देगा। यह सोचकर कि ये मुद्दा तो भविष्य में फिर कभी जिंदा किया जा सकता है विहिप कोई न कोई रास्ता ढूंढकर बच निकलेगी। यह बड़े दुख की बात है कि श्री लाल कृष्ण आडवाणी की रामरथ यात्रा से हिंदू स्वाभिमान की जो जागृति दुनिया भर के हिंदुओं के बीच हुई थी उसे धर्म और संस्कृति की रक्षा में किसी रचनात्मक दिशा के की ओर मोड़ा नहीं गया। जिस तरह लोकनायक जय प्रकाश नारायण के प्रयासों से पूरे देश में जनजागरण के बावजूद सारा प्रयास जनता पार्टी के निर्माण के साथ ही ध्वस्त हो गया। उसी प्रकार अयोध्या मंदिर से उठा हिंदू नवजागरण का उफान भाजपा की केंद्र में सरकार बनते ही ठंडा कर दिया गया। लोगों में यह संदेश गया कि भाजपा ने कुर्सी के लिए लोगों की धार्मिक आस्थाओं का दुरूपयोग किया। यदि विहिप वास्तव में हिंदू धर्म के उत्थान की उत्प्रेरक बनना ही चाहती है तो उसे सत्ता की राजनीति से स्वयं को तुरंत अलग करना होगा। अपने नेतृत्व में नई उर्जा और नए रक्त का संचार करना होगा। उसे हेडगेवार जी का यह उद्घोष याद रखना होगा कि व्यक्ति से संगठन बड़ा है और संगठन से राष्ट्र। उसे यह भी याद रखना होगा कि हमारे शास्त्रों में धर्म को अर्थ, काम और मोक्ष का आधार माना गया है। दुर्भाग्यवश धर्म की सेवा का व्रत लेने वाली विहिप ने अर्थ यानी राजनीति को धर्म का आधार मान लिया है। इसीलिए वह अपने कार्यक्रमों में लगातार विफल होती जा रही है और अपना जनाधार खोती जा रही है।

जहां तक बात अयोध्या की है तो यह बड़ा हास्यादपद है कि बड़े-बड़े संपादक टीवी पर आकर सुझाव देते हैं कि अयोध्या मसले को दो वर्ष के लिए टाल दिया जाए। दो वर्ष बाद क्या हालात बदल जाएंगे ? जो सवाल पिछली कई दशाब्दियों से भारतीय समाज को उद्वेलित करता रहा है। जिसके कारण बार-बार हिंसा में जान-माल की हानि होती रही है, उस सवाल को टालने से तनाव और विद्वेष बना ही रहेगा। आवश्यकता उसके फौरी हल की है। सर्वोच्च अदालत से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि मामले की नाजुकता को देखते हुए वह प्रतिदिन इस मामले की सुनवाई करके अपना फैसला जल्दी से जल्दी सुना दे। सब जानते हैं कि अदालती फैसले के बाद भी बात सुलझने वाली नहीं है। हारने वाला पक्ष फिर चुप नहीं बैठेगा। इस समस्या का हल दोनों संप्रदायों के समझदार और धर्मप्रेमी लोग बैठकर ही सुलझा सकते हैं। धर्मनिरपेक्षता का चोला पहनने वालों की सलाह हिंदुओं को स्वीकार्य नहीं होगी। क्योंकि उनकी धर्मनिरपेक्षता में मुस्लिम तुष्टिकरण छिपा है। दोनों पक्षों की तरफ से धर्म की राजनीति करने वाले भी इसका हल नहीं निकाल पाएंगे, क्योंकि तब सांप्रदायिकता की उनकी ही दुकान बंद हो जाएगी। इसका हल केवल रूहानी लोग निकाल सकते हैं, आध्यात्मिक लोग निकाल सकते हैं। जिनके दिल की लौ उस परवरदिगार से जुड़ी है जो खुद तकलीफ उठा कर दूसरे को सुकून देने की हिदायत देता है। मुसलमानों को यह समझना होगा कि भगवान् श्रीराम, श्रीकष्ष्ण व भोलेशंकर से जुड़े अयोध्या, मथुरा और काशी में जब तक मस्जिदें खड़ी रहेंगी तब तक हिंदुओं के मन में नासूर की तरह चुभती रहेंगी, क्यांेंकि ये तीनों स्थान हिंदू समाज की आस्था के शिखर हैं। क्या कोई भी मुसलमान काबे शरीफ के प्रांगण में किसी हिंदू मंदिर की इमारत को बर्दाश्त कर सकता हैं ? इसलिए उन्हें अगर वास्तव में ये मुल्क और इसमें अमन-चैन प्यारा है तो इन तीन स्थानों पर से मस्जिदें बाइज्जत दूसरी जगह ले जाने की पहल करनी होगी। ऐसा तमाम मुस्लिम मुल्कों में भी हुआ है। यह सच है कि देश में सैकड़ों मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गई हैं। पर इस तरह गड़े मुर्दे उखाड़ कर देश तरक्की नहीं कर सकता। इसलिए हिंदू संगठनों को भी इस बात पर तसल्ली करनी होगी कि अयोध्या, मथुरा और काशी के बाद और किसी भी मस्जिद को हटाने की बात वे सोचेंगे भी नहीं। जिन्हें हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं की राजनीति करनी है वे इस पर कभी राजी नहीं होंगे। पर जिन्हें मुल्क और आवाम की चिंता है वे इससे इत्तफाक रखेंगे। इस वक्त राजनीति में एक ताकतवर महिला ऐसी हैं जो जाति और धर्म के बंधनों से मुक्त रहकर भी पूरी तरह भारतीय बन चुकी हैं। देश के सबसे ताकतवर राजनैतिक दल इंका की नेता होने के नाते श्रीमती सोनिया गांधी को ही इस पहल के लिए सामने आना चाहिए। साथ ही उन्हें यह भी घोषणा करनी चाहिए कि उनका दल ईमानदारी से जातिवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ कठोर कदम उठाएगा। समान नागरिक संहिता लागू करना ऐसा ही एक कदम होगा। यदि वे ऐसा करती हैं तो जातिवादी और सांप्रदायिक दलों की दलदल में फंसा बहुसंख्यक हिंदू समाज का वोट तो इंका की तरफ लौट ही आएगा, अमन-चैन और तरक्की चाहने वाले मुसलमान भी इंका की रहनुमाई में खुद को सुरक्षित महसूस करेंगे।

रही बात गुजरात की तो इसमें शक नहीं कि वहां हुए दंगे रोके जा सकते थे। आश्चर्य की बात यह है कि अपने सत्ता के पूरे कार्यकाल में भाजपा ने कहीं दंगे नहीं होने दिए। क्या वजह है कि जब उसका वोट बैंक हाथों से फिसला जा रहा है तभी उसके राज्य में दंगे भड़के ? पर इसके साथ ही इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि गोदरा के नृशंस हत्या कांड पर धर्मनिरपेक्षवादियों की प्रतिक्रिया असामान्य रूप से ठंडी और बेदम थी। जिससे बहुसंख्यकों का दुखी और क्रोधित होना स्वाभाविक है। मानवीय संवेदनाओं को इस तरह अगर राजनैतिक लाभ-हानी से जोड़कर व्यक्त किया जाएगा तो दो दर्जन नहीं, चार दर्जन राजनैतिक दलों को सरकार चलाने पर मजबूर होना पड़ेगा। क्योंकि जनता किसी पर विश्वास नहीं करेगी। अयोध्या और सांप्रदायिकता के सवालों पर अब राजनीति बंद होनी चाहिए। अगर हम निरीह लोगों की ऐसी नृशंस हत्याएं भविष्य में वाकई रोकना चाहते है तो इन समस्याओं के ईमानदाराना हल खोजना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। उन्हे टालने से काम नहीं चलेगा।

Friday, March 1, 2002

उत्तर प्रदेष में कांग्रेस अब क्या करे ?


उत्तर प्रदेष के मतदाताओं की मनःस्थिति पंजाब और उत्तराखंड के मतदाताओं से भिन्न नहीं थी। वहां भी कांग्रेस भारी मतों से जीत सकती थी, बषर्तें उसने दीवार पर लिखी इबारत को समय रहते पढ़ा होता। उ.प्र. में पिछले पांच सालों के भाजपा कुषासन से जनता त्रस्त थी। इन पांच सालों में भाजपा ने तीन बार तो मुख्यमंत्री बदले और पूरे समय कलराज मिश्र जैसे उसके नेता अपने ही मुख्यमंत्रियों की जड़ें खोदते रहे। संघ के प्रचारक अपने आदर्षों और उद्देष्यों को भूल कर सत्ता के मोहजाल में फंस गए और जनता से उनका संवाद समाप्त हो गया। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि पारंपरिक रूप से भाजपा का गढ़ माने जाने वाले मथुरा से भाजपा का पूरी तरह सफाया हो गया। हिंदू धर्म के संरक्षण और संवद्धन के जिन घोशित उद्देष्यों को लेकर भाजपा की उन्नति हुई थी उन्हें उसने पूरी तरह भुला दिया। राम मंदिर निर्माण का नारा महज एक चुनावी स्टंट बन कर रह गया। केंद्र में राजग सरकार की सीमाओं में चलते अगर भाजपा के लिए धर्म संबंधी मामलों में कड़े तेवर अपनाना राजनैतिक रूप से व्यवहारिक और संभव नहीं था तो भी ऐसा बहुत कुछ था जो भाजपा के उ.प्र. में पारंपरिक वोट बैंक को संतुश्ट करने के लिए किया जा सकता था। मसलन, तीर्थ स्थलों की देखभाल और साजसंवार को सुव्यवस्थित करना। पर ऐसा करने की बजाए भाजपा के छुटभैए से लेकर केंद्रिय नेता तक लालबत्ती की गाडि़यों में साॅयरन बजाते हुए तीर्थ स्थलों पर अपने लाव-लष्कर के साथ दर्षनों को आते रहे और वहां मौजूद आम दर्षनार्थियों की दिक्कते बढ़ाते रहे। इससे उनके प्रति जनता के मन में आक्रोष बढ़ा। जनता को लगा कि ये मंदिर भी आते है तो केवल अपने सत्ता सुख और संपत्ति की वष्द्धि की कामना लेकर। धर्म की सेवा करने का इनका कोई एजेंडा नहीं है।
धर्म की बात छोड़ भी दे तो प्रषासनिक स्तर पर भी उ.प्र.में भाजपा की सरकार पूरी तरह नाकारा साबित हुई। जनता को लगा ही नहीं कि इस सरकार में उसकी भी सुनी जाती है। बिजली, सड़क और पानी की आपूर्ति का आधारभूत ढांचा भाजपा के षासन में बुरी तरह चरमरा कर टूट गया। भय, भूख और भ्रश्टाचार से मुक्ति दिलाने का वायदा करके सत्ता में आई भाजपा के हर स्तर के नेताओं ने उ.प्र. में भ्रश्टाचार के नए कीर्तिमान स्थापित किए। पारंपरिक रूप से भाजपा को अपने हितों का संरक्षक मानने वाला प्रदेष का व्यापारी वर्ग भाजपा नेताओं के भ्रश्ट आचरण और अहंकार से न सिर्फ आहत हुआ बल्कि यह कहते सुना गया कि इनसे तो कांग्रेसी ही कहीं अच्छे थे जो बात भी सुनते थे और काम भी कर देते थे।
पिछले दो वर्शों से कमोबेष यही विचार पूरे प्रदेष की जनता का था। हर जगह यही बात होती थी कि षासन चलाना तो सिर्फ कांग्रेस को आता है। पर उ.प्र. के मतदाताओं की मजबूरी ये थी कि कांग्रेस ने उनकी इस नब्ज को नहीं पकड़ा। न तो कांग्रेस ने सजग विपक्ष की ही भूमिका निभाई और न ही प्रदेष में कोई प्रभावषाली नेतृत्व ही दे पाई। कांग्रेस को चाहिए था कि वह इन वर्शों में पूरे प्रदेष के स्तर पर भाजपा के कुषासन के विरूद्ध लगातार जनांदोलन चलाती रहती। इससे एक तो उसका संगठन मजबूत होता और दूसरा जनता के बीच यह संदेष जाता कि कांग्रेस  ही प्रदेष को जिम्मेदार सरकार दे सकती है। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। कांग्रेस के वरिश्ठ नेता इन वर्शों में उ.प्र. की आम जनता से कटे रहे। नतीजतन जिले स्तर का कार्यकर्ता दिषाहीन हो गया। पूरी पार्टी में हताषा और ऊर्जाहीनता व्याप्त रहीं। पता नहीं किंन लोगों ने हाईकमान को सलाह दी जो वे प्रदेष के एक सषक्त नेता नहीं दे पाई। अगर किसी जुझारू, ओजस्वी, पारदर्षी व ऊर्जावान नए चेहरे को प्रदेष का नेतृत्व दिया जाता तो उ.प्र. में मृतप्राय पड़ी इंका को पुर्नजीवित किया जा सकता था। यदि ऐसा होता तो कोई वजह नहीं है कि इन हालातों में उ.प्र. की विधानसभा के चुनावों के नतीजे भी पंजाब और उत्तरांचल की तर्ज पर ही इंका के पक्ष में आते।
सपा के जुझारू नेता मुलायम सिंह यादव ने इस कमी को कुछ हद तक पूरा किया। पिछले वर्शों में उन्होंने पूरे प्रदेष में काफी भागदौड़ की और लगातार किसी न किसी रूप में अपने दल की उपस्थिति का अहसास कराया। हालांकि संगठन के स्तर पर उनका दल भी कुछ सुधर नहीं सका। उधर सपा के षिखर नेतष्त्व पर कुछ लोगों के हावी होने व दल के दूसरे नेताओं की उपेक्षा करने के आरोप लगते रहे और कुछ विवाद भी खड़े हुए। पर भाजपा से जनता की नाराजगी इतनी ज्यादा थी कि जहां भी उसे ठीक लगा उसने सपा का साथ दिया। बावजूद इसके में अच्छे नेताओं और प्रभवषाली चेहरों की कमी के कारण सपा जनता का पूर्ण विष्वास नहीं जीत सकी और उसे खंडित जनादेष मिला। अब उसकी स्थिति भी सांप, छछुंदर वाली होगी। जोड़तोड़ से अगर उसकी सरकार बन जाती है तो यह जरूरी नहीं कि वह उ.प्र. की खस्ता हाल अर्थव्यवस्था को आसानी से सुधार सके। जिसे सुधारे बिना जनता में पैठ बनाना संभव न होगा। साफ छवि के योग्य लोगों की कमी के कारण उसकी सरकार के मंत्रियों का आचरण भाजपा से भिन्न होगा, ऐसा मानने का कोई आधार नहीं है। इसलिए अगर मुलायम सिंह यादव सरकार बनाने में कामयाब हो जाते हैं तो उन्हें दुधारू तलवार पर चलना होगा। एक तरफ दल से जुड़े लोगों के स्वार्थ और दूसरी ओर प्रदेष की जनता को संतुश्ट करने की चुनौती उनके सामने होगी। दूसरी तरफ अगर भाजपा पर्दे के पीछे कुछ खेल खेलकर सपा को सत्ता को बाहर रखने में कामयाब हो जाती है तो भी उसे इसका कोई राजनैतिक लाभ नहीं मिलेगा। क्योंकि जब उसकी पिछली सरकार ही कुछ नहीं कर पाई तो मौजूदा हालात में बनाई जाने वाली लूली-लंगड़ी सरकार क्या कर पाएगी ? इससे तो उसका रहा-सहा आधार भी टूटेगा।
उ.प्र. में किसकी सरकार बने यह प्रक्रिया चल ही रही है। पर अब सबकी निगाहें सन् 2004 के लोकसभा चुनावों पर है। जिनमें केंद्र की नई सरकार का स्वरूप निर्धारित होगा। आज पूरे देष में माना जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को भारी विजय मिलने की संभावना है। केंद्र में उसकी सरकार बने इसके लिए उसे उ.प्र. में अपनी स्थिति को बेहद मजबूत करना होगा। इसलिए अब इंका हाईकमान के सामने तस्वीर बिलकुल साफ है। या तो उ.प्र. इंका में आमूलचूल परिवर्तन कर उसे नए कलेवर और तेवर में पेष करे या फिर उसे इसी तरह रामभरोसे छोड़कर बैठी रहे। राजस्थान में इंका मुख्यमंत्री अषोक गहलोत के क्रांतिकारी कदमों को मिल रहे जनसमर्थन ने यह सिद्ध कर दिया है कि कांग्रेस में खुद को समय के अनुसार सुधारने और संवारने की क्षमता मौजूद है। इंका षासित प्रदेषों में जिस तरह सोनिया गांधी ने नए और युवा चेहरों को वरियता देकर खुली छूट दी है उसकेे ठोस परिणाम उनके सामने आ रहे है। इसलिए इसे मानने के पर्याप्त आधार हैं कि उ.प्र. में भी इंका पुनःजीवित हो सकती है। बषर्ते वहां संगठन और उसके नेतृत्व पर ध्यान दिया जाए। इंका आलाकमान को उ.प्र. में कुछ क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। जिससे प्रदेष में संगठन स्तर पर नए रक्त का संचार हो और नए विचारों से युक्त ऊर्जावान नया नेतृत्व उ.प्र. की इंका को नई दिषा दे।
आर्थिक मंदी, बेराजगारी और भ्रश्टाचार से त्रस्त भारत की जनता राजनीति की नई संस्कष्ति की अपेक्षा रखती है। जैसे तैसे, चुनावी हथकंडे अपना कर चुनाव जीतने और सत्ता सुख भोगने के पुराने ढर्रे से हर राजनैतिक दल को निकलना होगा वर्ना देष अराजकता और जन आक्रोष की ओर बढ़ता जाएगा। जिसका फायदा आतंकवादी मानसिकता के लोग उठाएंगे, जिससे और अस्थिरता ही फैलेगी। देष के मौजूदा हालात में भी राजनीति की नई संस्कष्ति अपनाना संभव है यह राजस्थान के मुख्यमंत्री ने कर दिखाया है। तमाम सीमाओं के बावजूद उन्होंने जिस किस्म की अनुषासित, जनोन्मुख और पारदर्षी सरकार दी है उससे यह विष्वास दष्ढ़ होता है कि दलों के नेता अगर माफियाओं, दलालों और चाटुकारों की चैकड़ी से निकल कर योग्य और समर्पित युवाओं को अपने दलों का नेतष्त्व सौंपे तो जनता उनके परचम तले आ खड़ी होगी।
आज देष की जनता मंडल और कमंडल की स्वार्थी राजनीति को खूब समझ गई है। यह सही है कि देष का लोकतंत्र निहित स्वार्थों की साजिष के चलते जातिवाद में फंसता जा रहा है। पर यह कोई ऐसी स्थिति नहीं जिससे उबरा न जा सके। अगर इंका जैसा राश्ट्रीय स्तर का बड़ा दल अपने तौर-तरीके में बुनियादी बदलाव लाता है तो जनता के बीच इसका सही संदेष जाएगा। यह रोचक और आष्चर्यजनक बात है कि राजनीति के, आज क,े पतनषील दौर में अपनी तमाम ऐतिहासिक भूलों के बावजूद इंका ने ही समय की इस मांग को पहचाना है और कुछ नया कर दिखाने का बीड़ा उठाया है। हालांकि अभी तो इसकी षुरूआत ही हुई है और मंजिल बहुत दूर है। पर आगाज से अंजाम का पता चलने लगा है। इसलिए यह माना जाना चाहिए कि उ.प्र. के विधानसभा के चुनावों में मिले नतीजों से इंका नेतृत्व कुछ सोचने समझने पर मजबूर होगा। कुछ ऐसा करेगा जिससे दल तो मजबूत हो ही जनता को भी राहत मिले। वैसे हर चुनाव के नतीजों के बाद यह बात हर दल पर लागू होती है कि वह आत्मावलोकन करे। नामचारे को सभी दल ऐसा करते भी है पर रहते हैं वहीं ढाक के तीन पात। अगली लोकसभा के चुनाव में अगर इंका सत्ता की प्रमुख बनना चाहती है तो उसे उ.प्र. के चुनावों के परिणामों को ज्यादा गंभीरता से लेेना होगा। जहां तक उ.प्र. की नई सरकार की बात है, ऐसा नहीं लगता कि बैसाखियों पर चलने वाली कोई भी सरकार जनता की आकांक्षाओं पर खरी उतर पाएगी। बाकी वक्त बताएगा।